ज्यों-ज्यों भक्त भगवान् के विषयों में अधिकाधिक सुनता है, त्यों-त्यों वह आत्मप्रकाशित होता जाता है। यह श्रवण विधि श्रीमद्भागवत में इस प्रकार अनुमोदित है—“भगवान् के संदेश शक्तियों से पूरित होते हैं जिनकी अनुभूति तभी होती है, जब भक्त जन भगवान् सम्बन्धी कथाओं की परस्पर चर्चा करते हैं। इसे मनोधर्मियों या विद्यालयीन विद्वानों के सान्निध्य से नहीं प्राप्त किया जा सकता, क्योंकि यह अनुभूत ज्ञान (विज्ञान) है।” भक्तगण परमेश्वर की सेवा में निरन्तर लगे रहते हैं। भगवान् उस जीव विशेष की मानसिकता तथा निष्ठा से अवगत रहते हैं, जो कृष्णभावनाभावित होता है और उसे ही वे भक्तों के सान्निध्य में कृष्णविद्या को समझने की बुद्धि प्रदान करते हैं। कृष्ण की चर्चा अत्यन्त शक्तिशाली है और यदि सौभाग्यवश किसी को ऐसी संगति प्राप्त हो जाये और वह इस ज्ञान को आत्मसात् करे तो वह आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अवश्य प्रगति करेगा। कृष्ण अर्जुन को अपनी अलौकिक सेवा में उच्च से उच्चतर स्तर तक उत्साहित करने के उद्देश्य से इस नवें अध्याय में उसे परम गुह्य बातें बताते हैं जिन्हें इसके पूर्व उन्होंने अन्य किसी से प्रकट नहीं किया था।
भगवद्गीता का प्रथम अध्याय शेष ग्रंथ की भूमिका जैसा है, द्वितीय तथा तृतीय अध्याय में जिस आध्यात्मिक ज्ञान का वर्णन हुआ है वह गुह्य कहा गया है, सातवें तथा आठवें अध्याय में जिन विषयों की विवेचना हुई है वे भक्ति से सम्बन्धित हैं और कृष्णभावनामृत पर प्रकाश डालने के कारण गुह्यतर कहे गये हैं। किन्तु नवें अध्याय में तो अनन्य शुद्ध भक्ति का ही वर्णन हुआ है। फलस्वरूप यह परमगुह्य कहा गया है। जिसे कृष्ण का यह परमगुह्य ज्ञान प्राप्त है, वह दिव्य पुरुष है, अत: इस संसार में रहते हुए भी उसे भौतिक क्लेश नहीं सताते। भक्तिरसामृत सिन्धु में कहा गया है कि जिसमें भगवान् की प्रेमाभक्ति करने की उत्कृष्ट इच्छा होती है, वह भले ही इस जगत् में बद्ध अवस्था में रहता हो, किन्तु उसे मुक्त मानना चाहिए। इसी प्रकार भगवद्गीता के दसवें अध्याय में हम देखेंगे कि जो भी इस प्रकार लगा रहता है, वह मुक्त पुरुष है।
इस प्रथम श्लोक का विशिष्ट महत्त्व है। इदं ज्ञानम् (यह ज्ञान) शब्द शुद्धभक्ति के द्योतक हैं, जो नौ प्रकार की होती है—श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य तथा आत्म-समर्पण। भक्ति के इन नौ तत्त्वों का अभ्यास करने से मनुष्य आध्यात्मिक चेतना अथवा कृष्णभावनामृत तक उठ पाता है। इस प्रकार, जब मनुष्य का हृदय भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाता है तो वह कृष्णविद्या को समझ सकता है। केवल यह जान लेना कि जीव भौतिक नहीं है, पर्याप्त नहीं होता। यह तो आत्मानुभूति का शुभारम्भ हो सकता है, किन्तु उस मनुष्य को शरीर के कार्यों तथा उस भक्त के आध्यात्मिक कार्यों के अन्तर को समझना होगा, जो यह जानता है कि वह शरीर नहीं है।
सातवें अध्याय में भगवान् की ऐश्वर्यमयी शक्ति, उनकी विभिन्न शक्तियों—परा तथा अपरा—तथा इस भौतिक जगत् का वर्णन किया जा चुका है। अब नवें अध्याय में भगवान् की महिमा का वर्णन किया जायेगा।
इस श्लोक का अनसूयवे शब्द भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सामान्यतया बड़े से बड़े विद्वान् भाष्यकार भी भगवान् कृष्ण से ईर्ष्या करते हैं। यहाँ तक कि बहुश्रुत विद्वान् भी भगवद्गीता के विषय में अशुद्ध व्याख्या करते हैं। चूँकि वे कृष्ण के प्रति ईर्ष्या रखते हैं, अत: उनकी टीकाएँ व्यर्थ होती हैं। केवल कृष्णभक्तों द्वारा की गई टीकाएँ ही प्रामाणिक हैं। कोई भी ऐसा व्यक्ति, जो कृष्ण के प्रति ईर्ष्यालु है, न तो भगवद्गीता की व्याख्या कर सकता है, न पूर्णज्ञान प्रदान कर सकता है। जो व्यक्ति कृष्ण को जाने बिना उनके चरित्र की आलोचना करता है, वह मूर्ख है। अत: ऐसी टीकाओं से सावधान रहना चाहिए। जो व्यक्ति यह समझते हैं कि कृष्ण भगवान् हैं और शुद्ध तथा दिव्य पुरुष हैं, उनके लिए ये अध्याय लाभप्रद होंगे।