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अध्याय 15: महाप्रभु की पौगण्ड-लीलाएँ
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पन्द्रहवें अध्याय का सारांश इस प्रकार है। महाप्रभु ने गंगादास पण्डित के यहाँ व्याकरण की शिक्षा प्राप्त की और वे व्याकरण की टीका लिखने में अत्यन्त दक्ष बन गये। उन्होंने अपनी माता को बिना अन्न खाए एकादशी का व्रत रखने को कहा। उन्होंने एक कहानी सुनाई कि संन्यास लेने के बाद विश्वरूप ने स्वप्न में उन्हें भी संन्यास ग्रहण करने के लिए कहा, किन्तु उन्होंने अस्वीकार कर दिया अतः उन्हें घर वापस भेज दिया गया । जगन्नाथ मिश्र के देहान्त के बाद उन्होंने वल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मी से विवाह कर लिया। ये सभी घटनाएँ इस अध्याय में संक्षिप्त रूप से वर्णित हैं। |
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श्लोक 1: मैं श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि उनके चरणकमलों पर फूल चढ़ाने मात्र से ही बड़े से बड़ा भौतिकतावादी भी भक्त बन जाता है। |
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श्लोक 2: श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की जय हो! |
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श्लोक 3: अब मैं चैतन्य महाप्रभु की पाँच वर्ष की आयु से लेकर दस वर्ष की आयु तक की लीलाओं का संक्षिप्त वर्णन करने जा रहा हूँ। इस अवधि में उन्होंने मुख्य रूप से अध्ययन का कार्य किया। |
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श्लोक 4: पौगण्ड अवस्था के अन्तर्गत महाप्रभु की लीलाएँ अत्यन्त व्यापक रहीं। उनका मुख्य कार्य उनकी शिक्षा ही रहा और उसके बाद उनका अन्यन्त सुन्दर ढंग से विवाह हुआ। |
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श्लोक 5: जब महाप्रभु श्री गंगादास पण्डित के यहाँ व्याकरण पढ़ रहे थे, तो वे व्याकरण के सारे नियम एवं परिभाषाएँ एक बार सुनकर ही तुरन्त कण्ठस्थ कर लेते थे। |
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श्लोक 6: वे शीघ्र ही पञ्जी - टीका की व्याख्या करने में दक्ष हो गये, जिससे नये होने पर भी समस्त विद्यार्थियों में वे सबसे आगे हो गये। |
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श्लोक 7: श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने अपनी पुस्तक चैतन्य - मंगल (बाद में इसका नाम चैतन्य - भागवत पड़ा) में महाप्रभु की अध्ययन - लीला का बड़े विस्तार से वर्णन किया है। |
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श्लोक 8: एक दिन श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी माता के चरणकमलों पर गिरकर उनसे प्रार्थना की कि वे उन्हें एक वस्तु का दान दें। |
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श्लोक 9: उनकी माता ने कहा “मेरे प्रिय पुत्र, जो तुम माँगोगे वही मैं दूंगी।” तब महाप्रभु बोले, “प्रिय माता, कृपया आप एकादशी के दिन अन्न न खायें।” |
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श्लोक 10: माता शची ने कहा, “तुमने बहुत अच्छा कहा। मैं एकादशी के दिन अन्न नहीं खाऊँगी।” उस दिन से वे एकादशी के दिन उपवास रखने लगीं। |
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श्लोक 11: तत्पश्चात् विश्वरूप को युवक हुआ देखकर जगन्नाथ मिश्र ने कोई कन्या ढूँढकर उसका विवाह कर देना चाहा। |
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श्लोक 12: यह सुनकर विश्वरूप ने तुरन्त गृहत्याग कर दिया और वे संन्यास लेकर एक तीर्थस्थान से दूसरे तीर्थस्थान की यात्रा करने निकल गये। |
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श्लोक 13: जब शचीमाता तथा जगन्नाथ मिश्र ने अपने ज्येष्ठ पुत्र विश्वरूप के चले जाने का समाचार सुना, तो वे अत्यन्त दुःखी हुए, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें ढाढ़स बंधाने का प्रयास किया। |
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श्लोक 14: महाप्रभु ने कहा, “हे माता तथा पिता! यह अच्छा ही हुआ कि विश्वरूप ने संन्यास ग्रहण कर लिया है, क्योंकि इस तरह उसने अपने पितृ - कुल तथा अपने मातृ - कुल दोनों का ही उद्धार कर दिया है।” |
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श्लोक 15: श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने माता - पिता को आश्वासन दिया, “मैं आप दोनों की सेवा करूँगा।” इस तरह उनके माता - पिता के मन को सन्तोष हो गया। |
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श्लोक 16: एक दिन श्री चैतन्य महाप्रभु ने अर्चाविग्रह पर चढ़ी पान - सुपारी खा ली, जिससे उन्हें नशा चढ़ गया और वे अचेत होकर जमीन पर गिर पड़े। |
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श्लोक 17: जब उनके माता - पिता ने हड़बड़ी में उनके मुँह पर पानी छिड़का, तो उन्हें होश आया और उन्होंने ऐसी आश्चर्यजनक बात सुनाई, जो उन्होंने पहले कभी नहीं सुनी थी। |
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श्लोक 18: महाप्रभु ने कहा, “विश्वरूप मुझे यहाँ से कहीं दूर ले गये और मुझसे बोले कि मैं भी संन्यास ग्रहण कर लें। |
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श्लोक 19: “मैंने विश्वरूप से कहा, ‘मेरे माता - पिता असहाय हैं और मैं भी अभी बच्चा ही हूँ। मैं संन्यास के बारे में क्या जानूँ?” |
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श्लोक 20: “बाद में मैं गृहस्थ बनूंगा और इस तरह माता - पिता की सेवा करूँगा, क्योंकि इससे भगवान् नारायण तथा उनकी पत्नी लक्ष्मीदेवी अत्यधिक तुष्ट होंगी।” |
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श्लोक 21: “तभी विश्वरूप ने मुझे घर लौटा दिया और कहा, ‘माता शची देवी से मेरा कोटि - कोटि नमस्कार कहना।” |
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श्लोक 22: इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु ने अनेक लीलाएँ कीं, किन्तु उन्होंने ऐसा क्यों किया मैं समझ नहीं सकता। |
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श्लोक 23: कुछ दिनों के बाद जगन्नाथ मिश्र इस संसार से दिव्य लोक को चले गये। इससे माता तथा पुत्र दोनों ही हृदय से अत्यन्त शोकाकुल हो गये। |
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श्लोक 24: चैतन्य महाप्रभु तथा उनकी माता को धीरज बँधाने के लिए मित्रजन तथा सम्बन्धी लोग वहाँ आये। चैतन्य महाप्रभु, यद्यपि साक्षात् भगवान् थे, तथापि उन्होंने वैदिक विधि से अपने मृत पिता का संस्कार सम्पन्न किया। |
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श्लोक 25: कुछ दिनों के बाद महाप्रभु ने सोचा, “मैंने संन्यास नहीं लिया और चूँकि मैं घर पर रहता हूँ, अतएव यह मेरा कर्तव्य है कि गृहस्थ की तरह कर्म करूँ। |
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श्लोक 26: चैतन्य महाप्रभु ने विचार किया, “पत्नी बिना गृहस्थ जीवन का कोई अर्थ नहीं है।” इस तरह उन्होंने विवाह करने का निश्चय किया। |
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श्लोक 27: “घर - मात्र घर नहीं होता। यह तो पत्नी है, जो घर को सार्थक बनाती है। यदि कोई अपनी पत्नी के साथ घर में रहता है, तो वे दोनों मिलकर मनुष्य जीवन के समस्त हितों (पुरुषार्थों) को पूरा कर सकते हैं।” |
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श्लोक 28: एक दिन जब महाप्रभु पाठशाला से वापस आ रहे थे, तब अचानक उन्होंने वल्लभाचार्य की पुत्री देखी, जो गंगाजी की ओर जा रही थी। |
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श्लोक 29: महाप्रभु तथा लक्ष्मीदेवी के मिलने पर उनके सम्बन्ध जागृत हुए, जो पहले से तय हो चुके थे और संयोग से विवाह तय कराने वाला (घटक) वनमाली शचीमाता से मिलने आ गया। |
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श्लोक 30: शचीदेवी का संकेत पाकर, वनमाली घटक ने विवाह पक्का करा दिया और इस प्रकार निर्धारित समय पर महाप्रभु ने लक्ष्मीदेवी के साथ विवाह कर लिया। |
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श्लोक 31: वृन्दावन दास ठाकुर ने महाप्रभु की इन समस्त पौगण्ड - लीलाओं का विस्तार से वर्णन किया है। मैंने तो उन्हीं लीलाओं का केवल संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किया है। |
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श्लोक 32: महाप्रभु ने अपनी पौगण्ड अवस्था में नाना प्रकार की लीलाएँ की हैं और श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने इन सबका विस्तार से वर्णन किया है। |
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श्लोक 33: मैंने तो इन लीलाओं का संकेत - मात्र किया है, क्योंकि वृन्दावन दास ठाकुर ने अपनी पुस्तक चैतन्य - मंगल (अब चैतन्य - भागवत) में इन सबका विस्तार से वर्णन किया है। |
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श्लोक 34: श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए और सदैव उनकी कृपा की आकांक्षा करते हुए मैं कृष्णदास उन्हीं के चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्रीचैतन्य - चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ। |
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