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अध्याय 7: भगवान् चैतन्य के पाँच स्वरूप
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श्लोक 1: मैं सर्वप्रथम उन श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ, जो इस भौतिक जगत् में समस्त प्रकार की सम्पत्ति से विहीन व्यक्ति के लिए जीवन के चरम लक्ष्य हैं और आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने वाले के लिए एकमात्र अर्थ हैं। इस तरह मैं उन भगवान् की प्रेममयी भक्ति के उदार योगदान के विषय में लिखने जा रहा हूँ। |
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श्लोक 2: मैं भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की जय - जयकार करता हूँ। जिसने उनके चरणकमलों की शरण ले रखी है, वह सर्वाधिक धन्य व्यक्ति है। |
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श्लोक 3: मैं प्रारम्भ में गुरु - तत्त्व की व्याख्या कर चुका हूँ। अब मैं पंचतत्त्व की विवेचना करने की चेष्टा करूँगा। |
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श्लोक 4: ये पाँचों तत्त्व श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ अवतरित होते हैं और इस तरह महाप्रभु अत्यन्त हर्षपूर्वक अपना संकीर्तन आन्दोलन सम्पन्न करते हैं। |
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श्लोक 5: आध्यात्मिक दृष्टि से इन पाँच तत्त्वों में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि दिव्य धरातल पर सभी वस्तुएँ परम पूर्ण होती हैं। तथापि आध्यात्मिक जगत् में भी विविधता होती हैं और इन आध्यात्मिक विविधताओं का आस्वादन करने के लिए उनमें अन्तर करना आवश्यक होता है। |
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श्लोक 6: मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो भक्त, भक्त के विस्तार, भक्त के अवतार, शुद्ध भक्त और भक्त - शक्ति - इन पाँच रूपों में प्रकट हुए हैं। |
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श्लोक 7: समस्त आनन्द के आगार कृष्ण परम नियन्ता, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। कोई न तो कृष्ण से बड़ा है न उनके तुल्य है, फिर भी वे महाराज नन्द के पुत्र के रूप में प्रकट होते हैं। |
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श्लोक 8: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण रासनृत्य के परम भोक्ता हैं। वे व्रज की बालाओं के नायक हैं और अन्य सारे मात्र उनके संगी हैं। |
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श्लोक 9: वे ही भगवान् कृष्ण अपने ही समान यशस्वी शाश्वत संगियों के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए। |
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श्लोक 10: परम नियन्ता श्री चैतन्य महाप्रभु एकमात्र भगवान् हैं, जो भावविभोर होकर भक्त बन गये हैं, फिर भी उनका शरीर दिव्य है और भौतिक रूप से कलुषित नहीं है। |
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श्लोक 11: कृष्ण का दिव्य माधुर्य रस इतना अद्भुत है कि स्वयं कृष्ण इसका पूर्णतया आस्वादन करने के लिए भक्त का रूप धारण करते हैं। |
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श्लोक 12: इसी कारण से परम शिक्षक श्री चैतन्य महाप्रभु भक्त का रूप स्वीकार करते हैं और भगवान् नित्यानन्द को अपने ज्येष्ठ भाई के रूप में स्वीकार करते हैं। |
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श्लोक 13: श्री अद्वैत आचार्य भगवान् चैतन्य के भक्त - अवतार हैं। इसलिए ये तीनों तत्त्व (चैतन्य महाप्रभु, नित्यानन्द प्रभु तथा अद्वैत गोसांई) आश्रय देने वाले या प्रभु हैं। |
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श्लोक 14: उनमें से एक महाप्रभु हैं और अन्य दो प्रभु हैं। ये दोनों प्रभु महाप्रभु के चरणकमलों की सेवा करते हैं। |
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श्लोक 15: ये तीन तत्त्व (चैतन्य महाप्रभु, नित्यानन्द प्रभु तथा अद्वैत प्रभु) सभी जीवों द्वारा पूजनीय हैं और चौथे तत्त्व (श्री गदाधर प्रभु) उनके आराधक अर्थात् पूजक माने जाते हैं। |
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श्लोक 16: भगवान् के शुद्ध भक्त असंख्य हैं, जिनमें श्रीवास ठाकुर प्रमुख हैं। ये सभी शुद्ध भक्त कहलाते हैं। |
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श्लोक 17: गदाधर पंडित इत्यादि भक्तों को भगवान् की अंतरंगा शक्ति का अवतार मानना चाहिए। वे भगवान् की सेवा में लगे हुए अन्तरंग भक्त हैं। |
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श्लोक 18-19: अन्तरंग भक्त या शक्ति - समूह भगवान् की लीलाओं में नित्य संगी होते हैं। भगवान् केवल उन्हीं के साथ संकीर्तन आन्दोलन के प्रसार हेतु अवतरित होते हैं, उन्हीं के साथ वे माधुर्य रसका आस्वादन करते हैं और केवल उन्हीं के साथ वे जनसामान्य को इस भगवत्प्रेम का वितरण करते हैं। |
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श्लोक 20-21: कृष्ण के गुण दिव्य प्रेम के आगार माने जाते हैं। जब कृष्ण विद्यमान थे, तब यह प्रेम का आगार निश्चय ही उनके साथ आया था, किन्तु वह पूरी तरह से सीलबन्द था। किन्तु जब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने पंचतत्त्व के संगियों के साथ आये, तो उन्होंने दिव्य कृष्ण - प्रेम का आस्वादन करने के लिए कृष्ण के दिव्य प्रेमागार की सील तोड़कर उसे लूट लिया। वे ज्यों - ज्यों उसका आस्वादन करते गये, त्यों - त्यों और अधिक आस्वादन करने की उनकी तृष्णा बढ़ती ही गई। |
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श्लोक 22: स्वयं श्री पंचतत्त्वों ने पुनः पुनः नाचकर इस तरह भगवत्प्रेम रूपी अमृत को पीना सुगम बनाया। वे नाचते, रोते, हँसते और गाते थे, मानो उन्मत्त हों और इस तरह उन्होंने भगवत्प्रेम का वितरण किया। |
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श्लोक 23: भगवत्प्रेम का वितरण करते समय श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों ने कभी यह विचार नहीं किया कि कौन सुपात्र है और कौन नहीं है, इसका वितरण कहाँ किया जाये और कहाँ नहीं। उन्होंने कोई शर्त नहीं रखी। जहाँ कहीं भी अवसर मिला, पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम का वितरण किया। |
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श्लोक 24: यद्यपि पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम के भण्डार को लूटा और इसकी सामग्री का आस्वादन किया तथा उसे बाँट दिया, फिर भी उसमें कोई कमी नहीं हुई, क्योंकि यह अद्भुत भण्डार इतना भरा - पूरा है कि ज्यों - ज्यों प्रेम का वितरण किया जाता है, त्यों - त्यों इसकी आपूर्ति सैकड़ों गुना बढ़ जाती है। |
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श्लोक 25: भगवत्प्रेम की बाढ़ से सारी दिशाएँ आप्लावित होने लगीं और इस तरह से युवक, वृद्ध, स्त्रियाँ तथा बच्चे उस बाढ़ में डूबने लगे। |
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श्लोक 26: कृष्णभावनामृत आन्दोलन सारे विश्व को आप्लावित कर देगा और हर एक को डुबा देगा, चाहे वह भद्र व्यक्ति हो, या धूर्त, लँगड़ा या अशक्त अथवा अंधा। |
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श्लोक 27: जब पंचतत्त्व के पाँच सदस्यों ने देखा कि सारा संसार भगवत्प्रेम में डूब चुका है और जीवों में भौतिक भोग का बीज पूरी तरह नष्ट हो चुका है, तो वे सभी अत्यधिक प्रसन्न हुए। |
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श्लोक 28: पंचतत्त्व के पाँचों सदस्य भगवत्प्रेम की जितनी अधिक वृष्टि कराते हैं, उतनी ही अधिक बाढ़ बढ़ती जाती है और वह सारे विश्व में परिव्याप्त हो जाती है। |
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श्लोक 29-30: मायावादी, सकाम कर्मी, छद्म ताकिर् क, निन्दा करने वाले, अभक्त तथा निम्न श्रेणी के विद्यार्थी कृष्णभावनामृत आन्दोलन से दूर रहने में बड़े दक्ष होते हैं, अतएव कृष्णभावनामृत की बाढ़ उनका स्पर्श नहीं कर पाती। |
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श्लोक 31-32: यह देखकर कि मायावादी तथा अन्य लोग पलायन कर रहे हैं, चैतन्य महाप्रभु ने सोचा, “मेरी इच्छा थी कि प्रत्येक व्यक्ति भगवत्प्रेम की इस बाढ़ में डूब जाए, किन्तु उनमें से कुछ लोग भाग निकले हैं। अतएव मैं उन्हें भी डुबाने का कोई उपाय निकालूँगा।” |
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श्लोक 33: इस प्रकार महाप्रभु ने पूरी तरह विचार करने के बाद संन्यास आश्रम ग्रहण किया। |
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श्लोक 34: श्री चैतन्य महाप्रभु चौबीस वर्षों तक गृहस्थ जीवन में रहे और पच्चीसवें वर्ष के आरम्भ में उन्होंने संन्यास आश्रम स्वीकार कर लिया। |
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श्लोक 35: संन्यास आश्रम स्वीकार कर लेने पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबका ध्यान आकृष्ट किया, जो उनसे बचते फिरते थे, जिनमें से ताकिर् क लोग प्रमुख थे। |
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श्लोक 36: इस प्रकार विद्यार्थी, पाखण्डी, सकाम कर्मी तथा आलोचक - ये सभी भगवान् के चरणकमलों में आ - आकर आत्मसमर्पण करने लगे। |
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श्लोक 37: श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबको क्षमा प्रदान की और वे सभी भक्ति के सागर में निमग्न हो गये, क्योंकि ऐसा कोई भी नहीं था, जो श्री चैतन्य महाप्रभु के अद्वितीय प्रेम रूपी जाल से बच सके। |
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श्लोक 38: श्री चैतन्य महाप्रभु समस्त पतितात्माओं का उद्धार करने के लिए प्रकट हुए। अतएव उन्होंने उन्हें माया के प्रभाव से मुक्त कराने के लिए अनेक उपाय ढूँढ निकाले। |
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श्लोक 39: सभी लोग, यहाँ तक कि म्लेच्छ तथा यवन भी श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्त बना लिए गये। केवल शंकराचार्य के निर्विशेषवादी अनुयायी (मायावादी) ही उनसे बचते रहे। |
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श्लोक 40: जब श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन जाते समय वाराणसी से होकर गुजर रहे थे, तो मायावादी संन्यासी दार्शनिकों ने अनेक प्रकार से उनकी निन्दा की। |
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श्लोक 41: (निंदकों ने कहा:) “संन्यासी होकर भी वह वेदान्त के अध्ययन में रुचि नहीं लेता, किन्तु इसके बदले नाचने और संकीर्तन करने में सदैव लगा रहता है। |
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श्लोक 42: यह चैतन्य महाप्रभु तो अनपढ़ संन्यासी है, अतएव वह अपने वास्तविक कर्म को नहीं जानता। वह मात्र भावों में बहकर अन्य भावुकों के साथ इधर - उधर घूमता रहता है।” |
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श्लोक 43: ये सारी निन्दा सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु मन में हँसने लगे। इन सारे दोषारोपणों को अस्वीकार करते हुए उन्होंने मायावादियों से बात नहीं की। |
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श्लोक 44: इस प्रकार वाराणसी - मायावादियों की निन्दा की उपेक्षा करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु मथुरा की ओर आगे बढ़े और मथुरा जाने के बाद वे पुनः उस स्थिति का सामना करने के लिए लौट आये। |
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श्लोक 45: इस बार श्री चैतन्य महाप्रभु चन्द्रशेखर नामक शूद्र या कायस्थ के घर पर रुके, क्योंकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में वे पूर्णतया स्वतन्त्र हैं। |
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श्लोक 46: सैद्धान्तिक तौर पर श्री चैतन्य महाप्रभु तपन मिश्र के घर पर भोजन करते थे। वे न तो अन्य संन्यासियों से मिलते - जुलते थे, न ही उनका निमंत्रण स्वीकार करते थे। |
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श्लोक 47: जब सनातन गोस्वामी बंगाल से आये, तो वे श्री चैतन्य महाप्रभु से तपन मिश्र के ही घर पर मिले थे, जहाँ श्री चैतन्य महाप्रभु उन्हें भक्ति की शिक्षा देने के लिए लगातार दो मास तक रहे थे। |
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श्लोक 48: श्री चैतन्य महाप्रभु ने गूढ़ निर्देशों को प्रकट करने वाले श्रीमद्भागवत जैसे शास्त्रों के आधार पर सनातन गोस्वामी को भक्त के सभी नियमित कार्यों के विषय में शिक्षा दी। |
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श्लोक 49: जब श्री चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को उपदेश दे रहे थे, तो चन्द्रशेखर तथा तपन मिश्र दोनों ही अत्यन्त दुःखी हुए। अतएव उन्होंने भगवान् के चरणों में एक निवेदन किया। |
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श्लोक 50: हम लोग कब तक आपके आचरण का विरोध करने वाले इन आलोचकों द्वारा की जा रही निन्दा को सहन करें? ऐसी निन्दा सुनने से तो यही अच्छा होगा कि हम अपने प्राण त्याग दें। |
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श्लोक 51: “सारे मायावादी संन्यासी आपकी आलोचना कर रहे हैं। हम ऐसी आलोचना सहन नहीं कर सकते, क्योंकि यह निन्दा हमारे हृदयों को विदीर्ण कर रही है।” |
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श्लोक 52: जब तपन मिश्र तथा चन्द्रशेखर इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु से बातें कर रहे थे, तो वे थोड़ा मुसकाये और मौन रहे। उसी समय एक ब्राह्मण उनसे मिलने आया। |
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श्लोक 53: वह ब्राह्मण तुरन्त ही श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़ा और प्रार्थना करने लगा कि वे प्रसन्न होकर उसके प्रस्ताव को स्वीकार करें। |
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श्लोक 54: “हे प्रभु, मैंने बनारस के सारे संन्यासियों को अपने घर पर आमन्त्रित किया है। यदि आप मेरा निमन्त्रण स्वीकार कर लें, तो मेरी इच्छा पूर्ण हो जायेगी।” |
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श्लोक 55: “हे प्रभु, मैं जानता हूँ कि आप अन्य संन्यासियों से कभी मिलते - जुलते नहीं हैं, किन्तु आप कृपया मुझ पर दयालु हों और मेरा निमन्त्रण स्वीकार करें।” |
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श्लोक 56: श्री चैतन्य महाप्रभु ने हँसते हुए उस ब्राह्मण का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। उन्होंने मायावादी संन्यासियों पर कृपा प्रदर्शित करने के लिए ही ऐसी चेष्टा की। |
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श्लोक 57: वह ब्राह्मण जानता था कि भगवान् चैतन्य महाप्रभु कभी किसी अन्य के घर नहीं गये, फिर भी भगवान् से प्रेरित होकर उसने उनसे सच्चे हृदय से प्रार्थना की कि वे उसके इस निमन्त्रण को स्वीकार कर लें। |
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श्लोक 58: अगले दिन जब भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु उस ब्राह्मण के घर गये, तो उन्होंने वहाँ पर बनारस के सारे संन्यासियों को बैठे देखा। |
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श्लोक 59: ज्योंही श्री चैतन्य महाप्रभु ने सारे संन्यासियों को देखा, त्योंही उन्होंने सबको नमस्कार किया और तब वे अपने पाँव धोने चले गये। पाँव धोने के बाद वे उसी स्थान पर बैठ गये। |
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श्लोक 60: भूमि पर बैठने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान तेज प्रकट करके अपनी योग - शक्ति का प्रदर्शन किया। |
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श्लोक 61: जब सारे संन्यासियों ने श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर का तेजोमय प्रकाश देखा, तो उनके चित्त आकृष्ट हो गये। वे सभी तुरन्त अपना आसन छोड़कर सम्मान में खड़े हो गये। |
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श्लोक 62: उन सारे मायावादी संन्यासियों के मुखिया (अग्रणी) का नाम प्रकाशानन्द सरस्वती था। उसने खड़े होकर बड़े ही सम्मान के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु को इस प्रकार सम्बोधित किया। |
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श्लोक 63: “हे श्रीपाद, कृपया यहाँ आइये। कृपया यहाँ आइये। आप उस अपवित्र स्थान में क्यों बैठे हैं? आप के शोक का कारण क्या है?” |
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श्लोक 64: श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “मैं निम्न कोटि का संन्यासी हूँ। अतएव मैं आप लोगों के साथ बैठने के योग्य नहीं हूँ।” |
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श्लोक 65: किन्तु प्रकाशानन्द सरस्वती ने स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु का हाथ पकड़कर बड़े ही सम्मान के साथ उन्हें सभा के मध्य में बैठाया। |
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श्लोक 66: तब प्रकाशानन्द सरस्वती ने कहा, “मेरी समझ में आपका नाम श्रीकृष्ण चैतन्य है। आप तो श्री केशव भारती के शिष्य हैं और इसीलिए आप धन्य हैं।” |
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श्लोक 67: “आप तो हमारे शंकर सम्प्रदाय के हैं और हमारे गाँव वाराणसी में रहते हैं। तो फिर आप हम लोगों का संग क्यों नहीं करते? आप हमसे मिलने से भी क्यों कतराते हैं?” |
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श्लोक 68: “आप तो संन्यासी हैं, तो फिर भावुकों के साथ अपने संकीर्तन आन्दोलन में कीर्तन करने और नाचने में क्यों लगे रहते हैं?” |
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श्लोक 69: ध्यान तथा वेदान्त - अध्ययन - ये ही संन्यासी के एकमात्र कर्तव्य हैं। आप इन भावुकों के साथ नाचने के लिए इन कर्तव्यों का त्याग क्यों कर देते हैं? |
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श्लोक 70: “आप स्वयं नारायण के समान तेजवान लगते हैं। क्या आप इसका कारण बता सकते हैं कि आपने निम्न वर्ग के लोगों जैसा आचरण क्यों अपना रखा है?” |
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श्लोक 71: “श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्री प्रकाशानन्द सरस्वती को उत्तर दिया, मान्यवर, कृपया इसका कारण सुनिये। मेरे गुरुदेव ने मुझे एक मूर्ख समझकर मेरी भर्त्सना की।” |
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श्लोक 72: “उन्होंने कहा, ‘तुम मूर्ख हो। तुम वेदान्त - दर्शन का अध्ययन करने के योग्य नहीं हो ; अतएव तुम्हें चाहिए कि तुम सदैव कृष्ण नाम का जप करो। यह समस्त मन्त्रों या वैदिक स्तोत्रों का सार है।” |
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श्लोक 73: “कृष्ण के पवित्र नाम के कीर्तन मात्र से मनुष्य को भौतिक संसार से छुटकारा मिल सकता है। निस्सन्देह, केवल हरे - कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करने से उसे भगवान् के चरणकमलों के दर्शन हो सकते हैं। |
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श्लोक 74: “इस कलियुग में भगवन्नाम के कीर्तन से बढ़कर अन्य कोई धर्म नहीं है, क्योंकि यह समस्त वैदिक स्तोत्रों का सार है। यही सारे शास्त्रों का तात्पर्य है।” |
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श्लोक 75: हरे कृष्ण महामन्त्र की शक्ति का वर्णन करने के बाद मेरे गुरु ने मुझे दूसरा श्लोक सिखाया और मुझे यह उपदेश दिया कि मैं इसे सदैव अपने कण्ठ के भीतर रखें। |
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श्लोक 76: “इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरिनाम, हरिनाम, हरिनाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है, अन्य कोई विकल्प नहीं है, अन्य कोई विकल्प नहीं है।” |
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श्लोक 77: चूँकि मुझे अपने गुरु से यह आदेश मिला है, अतएव मैं पवित्र नाम का सदैव जप करता हूँ। |
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श्लोक 78: शुद्ध भावावेश में भगवन्नाम का कीर्तन करते हुए मैं अपने आपको भूल जाता हूँ। इस प्रकार मैं पागल की तरह हँसता, रोता, नाचता और गाता हूँ। |
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श्लोक 79: “इसलिए धैर्य धारण करके मैं सोचने लगा कि कृष्ण के पवित्र नाम के कीर्तन ने मेरे समस्त आध्यात्मिक ज्ञान को आच्छादित कर लिया है।” |
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श्लोक 80: “मैंने देखा कि पवित्र नाम का कीर्तन करने से मैं पागल हो गया हूँ, तो मैंने तुरन्त ही अपने गुरु के चरणकमलों में निवेदन किया।” |
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श्लोक 81: “हे प्रभु, आपने मुझे कैसा मन्त्र दिया है? मैं तो इस महामन्त्र का कीर्तन करने मात्र से पागल हो गया हूँ।” |
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श्लोक 82: भाववश पवित्र भगवन्नाम का कीर्तन करने से मैं नाचने, हँसने और रोने लगता हूँ।’ जब मेरे गुरु ने यह सब सुना, तो वे हँसने लगे और मुझसे बोले। |
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श्लोक 83: “यह हरे कृष्ण महामन्त्र का स्वभाव है कि जो भी इसका कीर्तन करता है, उसमें तुरन्त ही कृष्ण के लिए प्रेमपूर्ण भाव उत्पन्न हो जाता है। |
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श्लोक 84: “धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष ये जीवन के चार पुरुषार्थ के रूप में जाने जाते हैं, किन्तु भगवत्प्रेम के समक्ष, जो कि पाँचवाँ तथा सर्वोच्च पुरुषार्थ है, ये चारों पुरुषार्थ मार्ग में पड़े तृण के समान तुच्छ प्रतीत होते हैं।” |
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श्लोक 85: “जिस भक्त में भाव का सचमुच विकास हो चुका होता है, उसे धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष से प्राप्त होने वाला आनन्द समुद्र की तुलना में एक बूंद जैसा लगता है।” |
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श्लोक 86: “सभी प्रामाणिक शास्त्रों का यह निर्णय है कि मनुष्य को अपना सुप्त भगवत्प्रेम जागृत करना चाहिए। तुमने पहले से ऐसा कर लिया है, इसलिए तुम अतीव भाग्यशाली हो।” |
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श्लोक 87: “भगवत्प्रेम की यह विशेषता है कि स्वभाववश यह मनुष्य के शरीर में दिव्य लक्षण उत्पन्न करता है और उसे भगवान् के चरणकमलों की शरण प्राप्त करने के लिए अधिकाधिक लोभी बना देता है।” |
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श्लोक 88: “जब मनुष्य में सचमुच भगवत्प्रेम उत्पन्न हो जाता है, तो वह स्वभावतः कभी रोता है, कभी हँसता है, कभी गाता है और कभी पागल की तरह इधर - उधर दौड़ता फिरता है।” |
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श्लोक 89-90: “पसीना, कँपकँपी, रोओं का खड़ा होना, आँसू, वाणी का अवरोध, पीला पड़ना, पागलपन, विषाद, धैर्य, गर्व, हर्ष तथा दीनता - ये भगवत्प्रेम के विविध प्राकृतिक लक्षण हैं, जो भक्त को हरे कृष्ण मन्त्र के कीर्तन करते समय दिव्य आनन्द के सागर में नचाते और तैराते हैं।” |
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श्लोक 91: “हे पुत्र, यह तो अच्छा हुआ कि तुमने भगवत्प्रेम विकसित करके जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है। इस तरह तुमने मुझे अत्यधिक प्रसन्न कर लिया है और मैं तुम्हारा अत्यन्त कृतज्ञ हूँ।” |
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श्लोक 92: “हे पुत्र, भक्तों के साथ तुम नृत्य और कीर्तन करना चालू रखो। बाहर जाकर कृष्ण नाम - कीर्तन के महत्त्व का प्रचार करो, क्योंकि इस विधि से तुम सारे पतितात्माओं का उद्धार कर सकोगे।” |
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श्लोक 93: “यह कहकर मेरे गुरु ने मुझे श्रीमद्भागवत का एक श्लोक सिखलाया। यह सम्पूर्ण भागवत की शिक्षाओं का सार है ; अतएव उन्होंने मुझे इस श्लोक को बारम्बार सुनाया।” |
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श्लोक 94: “जब कोई व्यक्ति वास्तव में उन्नत होता है और अपने प्रिय भगवान् के नाम का कीर्तन करने में रुचि लेता है, तो वह विक्षुब्ध हो उठता है और ऊँचे स्वर से पवित्र नाम का कीर्तन करने लगता है। वह हँसता भी है और रोता भी है और पागल की तरह दूसरों की परवाह न करते हुए कीर्तन भी करता है।” |
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श्लोक 95-96: “मुझे अपने गुरु के इन वचनों पर दृढ़ विश्वास है, अतएव मैं एकान्त में तथा भक्तों के संग में सदैव भगवन्नाम का कीर्तन करता हूँ। भगवान् कृष्ण का वही पवित्र नाम कभी - कभी मुझे नचाता है और गायन कराता है। इसीलिए मैं नाचता और गाता हूँ। कृपया ऐसा न सोचें कि मैं जान - बूझकर ऐसा करता हूँ। यह अपने आप होता है।” |
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श्लोक 97: “हरे कृष्ण मन्त्र के कीर्तन से जिस दिव्य आनन्द सिन्धु का आस्वादन होता है, उसकी तुलना में निर्विशेष ब्रह्म के साक्षात्कार से प्राप्त होने वाला आनन्द (ब्रह्मानन्द) नहर के अल्प छीछले जल के समान है।” |
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श्लोक 98: “हे प्रभु! हे ब्रह्माण्ड के स्वामी! चूँकि मैंने आपका साक्षात् दर्शन किया है, इसलिए मेरा दिव्य आनन्द सागर के समान हो गया है। अब उस सागर में स्थित मैं अन्य तथाकथित आनन्द को बछड़े के खुर की छाप में समाये जल की भाँति अनुभव करता हूँ।” |
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श्लोक 99: श्री चैतन्य महाप्रभु की मधुर वाणी सुनकर सारे मायावादी संन्यासी प्रभावित हो उठे। उनके चित्त बदल गये और उन्होंने मीठी वाणी में कहा। |
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श्लोक 100: प्रिय चैतन्य महाप्रभु, आपने जो भी कहा है, वह सब सच है। जिसके ऊपर भाग्य की कृपा होती है, उसे ही भगवत्प्रेम प्राप्त होता है। |
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श्लोक 101: “हे महोदय, आपके कृष्ण के भक्त होने में हमें कोई आपत्ति नहीं है। हममें से हर कोई इससे सन्तुष्ट है। किन्तु आप वेदान्त - सूत्र पर विचार - विमर्श करने से क्यों कतराते हैं? इसमें क्या दोष है?” |
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श्लोक 102: मायावादी संन्यासियों को इस प्रकार बोलते हुए सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु थोड़ा मुस्काये और बोले, “हे महाशयों, यदि आप बुरा न मानें तो मैं वेदान्त दर्शन के सम्बन्ध में कुछ कहूँ।” |
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श्लोक 103: यह सुनकर मायावादी संन्यासी कुछ नम्र हुए और उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु को साक्षात् नारायण के रूप में सम्बोधित किया और स्वीकार किया कि वे सचमुच नारायण हैं। |
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श्लोक 104: उन्होंने कहा, “हे चैतन्य महाप्रभु, सच बात तो यह है कि हम आपके वचन सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हैं और इसके अतिरिक्त आपका शारीरिक स्वरूप इतना मोहक है कि आपको देखकर हम अत्यन्त संतोष को अनुभव कर रहे हैं। |
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श्लोक 105: “हे महोदय, आपके प्रभाव से हमारे मन अत्यधिक सन्तुष्ट हैं और हमें विश्वास है कि आपके वचन कभी अनुपयुक्त नहीं होंगे। अतएव आप वेदान्त - सूत्र के विषय में कहें।” |
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श्लोक 106: महाप्रभु ने कहा, “वेदान्त दर्शन व्यासदेव के रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नारायण द्वारा कहे गये वचन हैं।” |
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श्लोक 107: “भगवान् के शब्दों में त्रुटि, मोह, प्रवंचना (ठगी) तथा इन्द्रिय - अपूर्णता जैसे भौतिक दोष नहीं पाये जाते। |
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श्लोक 108: परम सत्य का वर्णन तो उपनिषदों तथा ब्रह्मसूत्र में किया गया है, किन्तु इनके श्लोकों को उनके यथार्थ रूप में समझना आवश्यक है। समझने की यही परम महिमा है। |
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श्लोक 109: “श्रीपाद शंकराचार्य ने समस्त वैदिक साहित्य की व्याख्या अप्रत्यक्ष अर्थों में की है। जो ऐसी व्याख्या सुन लेता है, वह विनष्ट हो जाता है।” |
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श्लोक 110: “इसमें शंकराचार्य का कोई दोष नहीं है, क्योंकि उन्होंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के आदेशानुसार ही वेदों के वास्तविक उद्देश्य को आच्छादित किया।” |
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श्लोक 111: “प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुसार, परम सत्य ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, जिनमें सारे आध्यात्मिक ऐश्वर्य रहते हैं। कोई न तो उनके तुल्य है, न उनसे बड़ा है।” |
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श्लोक 112: “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सम्बन्धी हर वस्तु आध्यात्मिक होती है, जिसमें उनका शरीर, ऐश्वर्य तथा साज - सामग्री सम्मिलित हैं। किन्तु मायावाद दर्शन उनके आध्यात्मिक ऐश्वर्य को छिपाकर निर्विशेषवाद का समर्थन करता है।” |
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श्लोक 113: “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् आध्यात्मिक शक्तियों से युक्त हैं। अतएव उनका शरीर, नाम, यश तथा परिकर - सभी आध्यात्मिक हैं। मायावादी दार्शनिक अज्ञानतावश कहते हैं कि ये सब केवल भौतिक सत्त्वगुण के रूपान्तर मात्र हैं।” |
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श्लोक 114: “शिवजी के अवतार श्री शंकराचार्य निर्दोष हैं, क्योंकि वे भगवान् के आज्ञाकारी दास होने के कारण उनके आदेश का पालन मात्र कर रहे हैं। लेकिन जो लोग उनके मायावादी दर्शन का पालन करते हैं, उनका विनाश अवश्यम्भावी है। उनकी सारी आध्यात्मिक प्रगति विनष्ट हो जायेगी।” |
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श्लोक 115: “जो व्यक्ति भगवान् विष्णु के दिव्य शरीर को भौतिक प्रकृति से बना मानता है, वह भगवान् के चरणकमलों में सबसे बड़ा अपराधी है। इससे बढ़कर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की अन्य कोई निन्दा नहीं है।” |
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श्लोक 116: “भगवान् प्रज्वलित महान् अग्नि के समान हैं और सारे जीव उस अग्नि की छोटी - छोटी चिंगारियों के समान हैं। |
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श्लोक 117: “सारे जीव शक्तियाँ हैं, शक्तिमान नहीं। शक्तिमान तो कृष्ण हैं। इसका बहुत ही स्पष्ट वर्णन भगवद्गीता, विष्णु पुराण तथा अन्य वैदिक साहित्य में किया गया है।” |
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श्लोक 118: “हे महाबाहु अर्जुन, इन अपरा (निकृष्ट) शक्तियों के अतिरिक्त मेरी एक परा (उत्कृष्ट) शक्ति भी है, जो उन सारे जीवों के रूप में है, जो इस भौतिक, निकृष्ट प्रकृति के संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। |
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श्लोक 119: “भगवान् विष्णु की शक्तियाँ तीन तरह की हैं - आध्यात्मिक शक्ति, जीव तथा अज्ञान। आध्यात्मिक शक्ति ज्ञान से परिपूर्ण है ; जीव यद्यपि आध्यात्मिक शक्ति से सम्बन्धित है, किन्तु वे मोहग्रस्त होने के पात्र हैं और तीसरी शक्ति जो अज्ञान से भरी है, सदैव सकाम कर्मों में दृष्टिगोचर होती है।” |
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श्लोक 120: “मायावादी दर्शन इतना गिरा हुआ है कि वह नगण्य जीवों को परम सत्य, भगवान् मानता है और इस तरह वह परम सत्य के महिमा तथा श्रेष्ठत्व को अद्वैतवाद से ढक देता है।” |
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श्लोक 121: “श्रील व्यासदेव ने अपने वेदान्त - सूत्र में वर्णन किया है कि प्रत्येक वस्तु भगवान् की शक्ति के रूपान्तर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। किन्तु शंकराचार्य ने यह टीका करके कि व्यासदेव गलत थे, सारे जगत् को पथभ्रष्ट किया। इस तरह उन्होंने पूरे विश्व में आस्तिकता का घोर विरोध किया है। |
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श्लोक 122: “शंकराचार्य के अनुसार भगवान् की शक्ति के रूपान्तर (विकार) के सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने से अप्रत्यक्ष रीति से परम सत्य के रूपान्तरित होने का भ्रम उत्पन्न होता है।” |
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श्लोक 123: “शक्ति का रूपान्तर एक जाँचा हुआ तथ्य है। यह आत्मा के देहात्मभाव की गलत धारणा है, जो भ्रम या विवर्त है।” |
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श्लोक 124: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सभी तरह से ऐश्वर्यवान हैं। अतएव उन्होंने अपनी अचिन्त्य शक्तियों से भौतिक जगत् को रूपान्तरित कर दिया है। |
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श्लोक 125: “पारस पत्थर अपनी शक्ति से लोहे को सोने में बदल देता है, फिर भी स्वयं वैसा ही रहता है। इस दृष्टान्त द्वारा हम यह समझ सकते हैं कि यद्यपि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपनी असंख्य शक्तियों का रूपान्तर करते हैं, किन्तु वे स्वयं अपरिवर्तित रहते हैं।” |
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श्लोक 126: “यद्यपि पारस पत्थर (चिन्तामणि) अनेक प्रकार के मूल्यवान रत्नों को उत्पन्न करता है, किन्तु वह वैसा ही रहता है। वह अपने मूल रूप को नहीं बदलता। |
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श्लोक 127: “यदि भौतिक वस्तुओं में ऐसी अचिन्त्य शक्ति हो सकती है, तो फिर हमें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की अचिन्त्य शक्ति में क्यों विश्वास नहीं करना चाहिए?” |
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श्लोक 128: वैदिक साहित्य के प्रमुख शब्द अर्थात् वैदिक ॐकार की ध्वनि, समस्त वैदिक ध्वनियों का आधार है। इसलिए ॐकार को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का ध्वनि रूप तथा जगत् के आगार के रूप में स्वीकार करना चाहिए। |
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श्लोक 129: प्रणव (ॐकार) को समस्त वैदिक ज्ञान के आगार के रूप में प्रस्तुत करना ही भगवान् का उद्देश्य है। तत्त्वमसि शब्द वैदिक ज्ञान की केवल आंशिक व्याख्या है। |
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श्लोक 130: “प्रणव (ॐकार) वेदों में महावाक्य (महामन्त्र) है। शंकराचार्य के अनुयायी इसे आच्छादित करके तत्त्वमसि मन्त्र पर बिना किसी प्रमाण के बल देते हैं।” |
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श्लोक 131: “सारे वैदिक सूत्रों तथा साहित्य का लक्ष्य भगवान् कृष्ण को ही समझना है, किन्तु शंकराचार्य के अनुयायियों ने वेदों के वास्तविक अर्थ को अपनी अप्रत्यक्ष व्याख्याओं से आच्छादित कर दिया है। |
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श्लोक 132: “स्वत: प्रमाणित वैदिक साहित्य सभी प्रमाणों में सर्वोपरि है, किन्तु यदि इस साहित्य की व्याख्या की जाती है, तो इसकी स्वत: प्रमाणितता नष्ट हो जाती है। |
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श्लोक 133: “मायावाद सम्प्रदाय के सदस्यों ने वैदिक साहित्य के वास्तविक एवं सरलता से समझे जाने वाले अर्थ को छोड़कर अपने दर्शन को सिद्ध करने के लिए अपनी कल्पना शक्ति के अनुसार अप्रत्यक्ष (गौण) अर्थ प्रचलित किये हैं।” |
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श्लोक 134: जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस प्रकार शंकराचार्य द्वारा की गई प्रत्येक सूत्र की व्याख्या की और त्रुटियाँ दिखला दीं, तो वहाँ पर उपस्थित सारे मायावादी संन्यासी आश्चर्यचकित रह गये। |
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श्लोक 135: सारे मायावादी संन्यासियों ने कहा, “हे श्रीपाद, आप कृपया यह जान लें कि हमें वास्तव में आपके द्वारा इन अर्थों के खण्डन के बारे में कोई विवाद नहीं है, क्योंकि आपने तो इन सूत्रों की स्पष्ट समझ प्रदान की है।” |
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श्लोक 136: हम जानते हैं कि यह सारा वाग्जाल शंकराचार्य की कल्पना से उद्भूत है, किन्तु हम उसी सम्प्रदाय के होने के कारण इसे स्वीकार करते हैं, यद्यपि हम इससे सन्तुष्ट नहीं हैं। |
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श्लोक 137: मायावादी संन्यासियों ने आगे कहा, “अब हम देखना चाहते हैं कि आप इन सूत्रों की उनके प्रत्यक्ष अर्थ में कितनी अच्छी तरह व्याख्या कर सकते हैं।” यह सुनकर चैतन्य महाप्रभु ने वेदान्त - सूत्र की प्रत्यक्ष व्याख्या करना प्रारम्भ किया। |
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श्लोक 138: “ब्रह्म जो कि बड़े से भी बड़ा है, पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् है। वे छः ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं ; अतएव वे परम सत्य तथा परम ज्ञान के आगार हैं।” |
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श्लोक 139: “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपने मूल रूप में भौतिक जगत् के कल्मष से रहित छह दिव्य ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं। यह समझना होगा कि समस्त वैदिक साहित्य में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ही परम लक्ष्य हैं।” |
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श्लोक 140: “जब हम परमेश्वर को निविष कहते हैं, तब हम उनकी आध्यात्मिक शक्तियों को नकारते हैं। तार्किक दृष्टि से जब तुम आधा सत्य स्वीकार करते हैं, तब आप पूरे सत्य को नहीं समझ सकते।” |
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श्लोक 141: “श्रवण से प्रारम्भ करके भक्ति द्वारा ही मनुष्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तक पहुँच सकता है। उनके पास पहुँचने का यही एकमात्र साधन है।” |
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श्लोक 142: “गुरु के निर्देशानुसार इस संयमित साधन भक्ति का अभ्यास करने पर मनुष्य का सुप्त भगवत् प्रेम निश्चित रूप से जागृत हो उठता है। यह विधि अभिधेय कहलाती है।” |
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श्लोक 143: “यदि कोई भगवत्प्रेम उत्पन्न कर लेता है और कृष्ण के चरणकमलों में अनुरक्त हो जाता है, तो धीरे - धीरे अन्य सारी वस्तुओं से उसकी आसक्ति लुप्त हो जाती है।” |
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श्लोक 144: “भगवत्प्रेम इतना उन्नत होता है कि इसे मानव जीवन का पाँचवा लक्ष्य माना जाता है। भगवत्प्रेम जागृत करके कोई भी व्यक्ति माधुर्य प्रेम के पद को प्राप्त कर सकता है और इसी जीवन काल में ही उसका आस्वादन कर सकता है।” |
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श्लोक 145: “महानतम से भी महान् परम भगवान् भक्तिमय सेवा के कारण अत्यन्त तुच्छ भक्त के भी वश में हो जाते हैं। भक्ति की ऐसी सुन्दर तथा उन्नत प्रकृति है कि अनन्त भगवान् सूक्ष्म जीव की भक्ति के कारण उसके अधीन हो जाते हैं। भगवान् के साथ भक्ति - कार्यों के आदान - प्रदान में भक्त को भक्ति के दिव्य रस का वास्तविक आनन्द प्राप्त होता है। |
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श्लोक 146: “वेदान्त - सूत्र के प्रत्येक सूत्र में जिन तीन विषयों की व्याख्या की गई है, वे हैं - पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से अपना सम्बन्ध, उस सम्बन्ध के अनुसार कार्यकलाप तथा जीवन का चरम लक्ष्य (भगवत्प्रेम विकसित करना) , क्योंकि इन तीनों में ही सम्पूर्ण वेदान्त दर्शन की चरम परिणति है।” |
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श्लोक 147: जब सारे मायावादी संन्यासियों ने सम्बन्ध, अभिधेय तथा प्रयोजन के आधार पर श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रस्तुत की गई व्याख्या सुनी, तो वे अत्यन्त विनीत होकर बोले। |
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श्लोक 148: “हे महोदय, आप साक्षात् वैदिक ज्ञान और साक्षात् नारायण हैं। कृपा करके हमें उन सारे अपराधों के लिए क्षमा कर दें, जिन्हें हमने आपकी आलोचना करके पहले किये हैं।” |
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श्लोक 149: जब मायावादी संन्यासियों ने महाप्रभु से वेदान्त - सूत्र की व्याख्या सुनी, उसी क्षण से उनके मन बदल गये और चैतन्य महाप्रभु के आदेश से वे भी सदा “कृष्ण! कृष्ण!” उच्चारण करने लगे। |
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श्लोक 150: इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु ने मायावादी संन्यासियों के सारे अपराध क्षमा कर दिये और उन पर बड़ी कृपा करके उन्हें कृष्णनाम का आशीर्वाद प्रदान किया। |
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श्लोक 151: इसके बाद सारे संन्यासियों ने महाप्रभु को अपने मध्य में ले लिया और सबने मिलकर भोजन किया। |
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श्लोक 152: मायावादी संन्यासियों के साथ भोजन करने के बाद गौरसुन्दर कहलाने वाले श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निवास स्थान को लौट आये। इस प्रकार महाप्रभु अपनी विचित्र लीलाएँ करते हैं। |
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श्लोक 153: श्री चैतन्य महाप्रभु के तर्को को सुनकर तथा उनकी विजय देखकर चन्द्रशेखर, तपन मिश्र तथा सनातन गोस्वामी सभी अत्यधिक प्रसन्न हुए। |
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श्लोक 154: इस घटना के बाद वाराणसी के अनेक मायावादी संन्यासी महाप्रभु को मिलने के लिए आये और सारे नगर ने उनकी प्रशंसा की। |
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श्लोक 155: श्री चैतन्य महाप्रभु के वाराणसी आने के कारण नगर के साथ उसके सारे लोग महाधन्य हुए। |
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श्लोक 156: उनके निवासस्थान के द्वार पर इतनी अधिक भीड़ हो गई कि उसकी संख्या लाखों तक पहुँच गई। |
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श्लोक 157: जब महाप्रभु विश्वेश्वर मन्दिर में दर्शन करने गये, तो उनका दर्शन पाने के लिए लाखों लोग वहाँ एकत्रित हो गये। |
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श्लोक 158: जब भी श्री चैतन्य महाप्रभु स्नान करने के लिए गंगा के किनारे जाते, तभी सैकड़ों - हजारों लोगों की भारी भीड़ वहाँ एकत्र हो जाती। |
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श्लोक 159: जब भी भीड़ बढ़ जाती, श्री चैतन्य महाप्रभु खड़े हो जाते और अपने दोनों हाथ उठाकर “हरि! हरि!” का उच्चारण करते, जिसके प्रत्युत्तर में लोग फिर “हरि! हरि!” उच्चारण करते और इस ध्वनि से धरती और आकाश दोनों भर जाते। |
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श्लोक 160: इस प्रकार सामान्य लोगों का उद्धार करके महाप्रभु ने वाराणसी से प्रस्थान करने की इच्छा की। उन्होंने श्री सनातन गोस्वामी को शिक्षा देकर वृन्दावन भेजा। |
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श्लोक 161: चूँकि वाराणसी नगरी सदैव लोगों की भीड़ एवं कोलाहल से भरी रहती थी, अतएव सनातन को वृन्दावन भेजकर श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी लौट आये। |
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श्लोक 162: मैंने यहाँ पर महाप्रभु की इन लीलाओं का संक्षेप में वर्णन किया है, किन्तु बाद में मैं इनका विस्तारपूर्वक वर्णन करूँगा। |
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श्लोक 163: श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु तथा उनके पंचतत्त्व पार्षदों ने भगवान् के पवित्र नाम का वितरण भगवत्प्रेम जगाने के लिए सारे ब्रह्माण्ड में किया। इस तरह सारा ब्रह्माण्ड धन्य हो गया। |
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श्लोक 164: श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार करने के लिए रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी इन दो सेनापतियों को वृन्दावन भेज दिया। |
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श्लोक 165: जिस तरह रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी मथुरा की ओर भेजे गये थे, उसी तरह नित्यानन्द प्रभु को चैतन्य महाप्रभु ने सम्प्रदाय का व्यापक प्रचार करने के लिए बंगाल भेजा था। |
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श्लोक 166: श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं दक्षिण भारत गये, जहाँ उन्होंने गाँव - गाँव तथा नगर - नगर में भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम का प्रचार किया। |
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श्लोक 167: इस प्रकार महाप्रभु भारत प्रायद्वीप के दक्षिण धुर तक गये, जिसे सेतुबन्ध (कुमारी अन्तरीप) कहते हैं। उन्होंने सर्वत्र भक्ति सम्प्रदाय तथा कृष्ण - प्रेम का वितरण किया और इस तरह सबका उद्धार किया। |
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श्लोक 168: इस तरह मैंने पंचतत्त्व के सत्य की व्याख्या की है। जो इस व्याख्या को सुनता है, उसका श्री चैतन्य महाप्रभु विषयक ज्ञान बढ़ता है। |
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श्लोक 169: पंचतत्त्व महामन्त्र का कीर्तन करते समय श्री चैतन्य, नित्यानन्द, अद्वैत, गदाधर तथा श्रीवास के नामों का, उनके अनेक भक्तों समेत उच्चारण करना चाहिए। यही विधि है। |
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श्लोक 170: मैं पंचतत्त्व को पुनः - पुनः नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार मेरे विचार से मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के विषय में कुछ वर्णन कर सकूँगा। |
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श्लोक 171: श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए और सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्रीचैतन्य - चरितामृत कह रहा हूँ। |
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