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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  अन्त्य लीला  »  अध्याय 10: श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भक्तों से प्रसाद ग्रहण करते हैं  » 
 
 
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने अमृत-प्रवाह-भाष्य में अध्याय दस का सारांश इस प्रकार दिया है : रथयात्रा उत्सव के पूर्व ही सदा की तरह बंगाल के सारे भक्त जन्नाथपुरी के लिए चल पड़े। राघव पण्डित अपने साथ श्री चैतन्य महाप्रभु के लिए नाना प्रकार के पकवान लाये। यह भोजन उनकी बहन दमयन्ती ने बनाया था , जिसे उसने थैलियों (झालि) में बाँध दिया था। इस संचित भोजन सामग्री को सामान्यतः राघवेर झालि अर्थात् “राघव की थैलियाँ” के नाम से जाना जाता था। राघव पण्डित के साथ पानिहाटि का एक निवासी मकरध्वज कर आया था , जो राघवेर झालि का हिसाब रखता था। जिस दिन सारे भक्त जगन्नाथपुरी पहुँचे, उस दिन भगवान् गोविन्द नरेन्द्र सरोवर में जल क्रीड़ा की लीला कर रहे थे। श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी अपने भक्तों के साथ जल में इस उत्सव का आनन्द लूटा। पहले की ही तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने गुण्डिचा का मार्जन किया और जगमोहन परिमुण्डा याउ सुप्रसिद्ध श्लोक का कीर्तन किया। कीर्तन समाप्त होने पर उन्होंने सभी भक्तों को प्रसाद बाँटा और स्वयं भी कुछ प्रसाद लिया। तब वे गम्भीरा के द्वार पर विश्राम करने के लिए लेट गये। श्री चैतन्य महाप्रभु के निजी सेवक गोविन्द ने किसी कारण से भगवान् के शरीर को लाँघ लिया और वह उनके पैर दबाने लगा। किन्तु गोविन्द उस दिन बाहर न जा सका और प्रसाद न ले सका। गोविन्द के चरित्र से यह सीखा जा सकता है कि कभी -कभी हम भगवान् की सेवा हेतु अपराध कर सकते हैं , किन्तु वह इन्द्रियतृप्ति के लिए नहीं होता। श्री चैतन्य महाप्रभु के निजी सेवक गोविन्द ने बंगाल के भक्तों द्वारा उनकी सेवा के लिए दिये गये सारे भोजन को खाने के लिए महाप्रभु को प्रेरित किया। सारे वैष्णव श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने- अपने घरों में निमन्त्रित किया करते थे। महाप्रभु ने शिवानन्द सेन के पुत्र चैतन्य दास का निमन्त्रण स्वीकार किया और वहाँ दही -भात खाया।
 
 
श्लोक 1:  मैं उन श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ, जो अपने भक्तों द्वारा श्रद्धा तथा प्रेम से प्रदान की गई किसी भी वस्तु को स्वीकार करके सदैव प्रसन्न होते हैं और उन पर कृपावृष्टि करने के लिए सदैव उद्यत रहते हैं।
 
श्लोक 2:  श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैतचन्द्र की जय हो! श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो!
 
श्लोक 3:  अगले वर्ष सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु के दर्शन हेतु जगन्नाथपुरी (नीलाचल) जाने के लिए अत्यन्त प्रसन्न थे।
 
श्लोक 4:  अद्वैत आचार्य गोसांई ने बंगाल की टोली का नेतृत्व किया। उनके पीछे आचार्यरत्न, आचार्यनिधि, श्रीवास ठाकुर तथा अन्य महिमामंडित भक्त थे।
 
श्लोक 5:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु को बंगाल में रहने का आदेश दिया था, किन्तु फिर भी प्रेमाविष्ट होने के कारण भगवान् नित्यानन्द भी उनसे मिलने चले गये।
 
श्लोक 6:  निस्सन्देह, यह सच्चे स्नेह का लक्षण ही है कि मनुष्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के आदेश को, विधि - विधानों की परवाह न करते हुए उनसे सान्निध्य प्राप्त करने के लिए तोड़ता है।
 
श्लोक 7:  रास नृत्य के समय कृष्ण ने सारी गोपियों से घर लौट जाने के लिए कहा, किन्तु गोपियों ने उनकी आज्ञा की अवहेलना की और वे उनकी संगति पाने के लिए वहीं रुकी रहीं।
 
श्लोक 8:  यदि कोई कृष्ण की आज्ञा का पालन करता है, तो वे निश्चित रूप से प्रसन्न होते हैं, किन्तु यदि कोई व्यक्ति प्रेमानन्द के कारण उनकी आज्ञा भंग करता है, तो उन्हें करोड़ों गुना सुख प्राप्त होता है।
 
श्लोक 9-11:  जगन्नाथपुरी जाने के लिए वासुदेव दत्त, मुरारि गुप्त, गंगादास, श्रीमान् सेन, श्रीमान् पण्डित, अकिंचन कृष्णदास, मुरारि गुप्त, गरुड़ पण्डित, बुद्धिमन्त खान, संजय पुरुषोत्तम, भगवान् पण्डित, शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी, नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी तथा अन्य कई भक्त साथ हो लिये। उन सबों के नाम गिना पाना असम्भव है।
 
श्लोक 12:  कुलीन ग्राम तथा खण्ड के निवासी भी आकर साथ हो लिये। शिवानन्द सेन ने नेतृत्व संभाला और उन सभी की देखभाल करनी प्रारम्भ कर दी।
 
श्लोक 13:  राघव पण्डित अपनी बहन दमयन्ती द्वारा तैयार किये गये स्वादिष्ट भोजन से भरे कई थैले लेकर आये।
 
श्लोक 14:  दमयन्ती ने श्री चैतन्य महाप्रभु के खाने के योग्य नाना प्रकार के अद्वितीय भोजन तैयार किये, जिन्हें महाप्रभु एक वर्ष तक खाते रहे।
 
श्लोक 15-16:  राघव पण्डित के थैलों में जो अचार तथा मसाले थे, उनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं - आम्रकाशन्दि, आदा काशन्दि, झाल काशन्दि, नेम्बु आदा, आम्रकोलि, आम्सि, आमखण्ड, तैलाग्र तथा आमसत्ता। दमयन्ती ने बड़े मनोयोग से सूखी तीती सब्जियों को चूर्ण कर दिया था।
 
श्लोक 17:  सुकुता नाम सुनकर अवहेलना न करें, क्योंकि यह तीता व्यंजन है। श्री चैतन्य महाप्रभु को इस सुकुता को खाने में पंचामृत (दूध, चीनी, घी, शहद तथा दही का मिश्रण) के पीने से भी अधिक सुख मिलता था।
 
श्लोक 18:  श्री चैतन्य महाप्रभु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, इसलिए वे प्रत्येक वस्तु से भाव ग्रहण कर लेते हैं। उन्होंने अपने प्रति दमयन्ती के स्नेह को स्वीकार किया ; इसीलिए उन्हें सुकुता की सूखी तीती पत्तियों तथा काशन्दि (खट्टा मसाला) से भी महान् आनन्द प्राप्त हुआ।
 
श्लोक 19:  श्री चैतन्य महप्रभु के प्रति सहज प्रेम होने से दमयन्ती महाप्रभु को सामान्य मनुष्य मानती थी। इसलिए उसने सोचा कि अधिक खाने से महाप्रभु बीमार पड़ जायेंगे और उनके उदर में आँव हो जायेगी।
 
श्लोक 20:  निष्ठावान स्नेह के कारण उसने सोचा कि इस सुकुता को खाने से महाप्रभु का रोग ठीक हो जायेगा। दमयन्ती के इन स्नेहिल विचारों को सोचकर महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न थे।
 
श्लोक 21:  “एक प्रेमी ने माला गॅथी और अपनी प्रेमिका की सौतों की उपस्थिति में ही उसके गले में वह माला डाल दी। उसके स्तन उठे हुए थे और वह अत्यन्त सुन्दर थी, किन्तु उसने उस कीचड़ से सनी माला को अस्वीकार नहीं किया, क्योंकि उसका मूल्य भौतिक वस्तुओं में नहीं अपितु उसमें निहित प्रेम में था।”
 
श्लोक 22:  दमयन्ती ने धनिया तथा सौंफ के बीजों को चूर्ण किया, उन्हें चीनी के साथ पकाया और फिर उनसे छोटे - छोटे लड्डू बना दिये।
 
श्लोक 23:  उसने अत्यधिक पित्त से उत्पन्न आँव को दूर करने के लिए सूखी अदरक के साथ मिठाई के लड्डु बनाये। उसने इन सारे पकवानों को अलग - अलग छोटी छोटी कपड़े की थैलियों में भरा।
 
श्लोक 24:  उसने सैकड़ों प्रकार के मसाले तथा अचार बनाये। उसने कोलिशुण्ठि, कोलिचूर्ण, कोलिखण्ड तथा अनेक अन्य पकवान भी बनाये। मैं कितनों का नाम गिनाऊँ?
 
श्लोक 25:  उसने लड्डु जैसी अनेक मिठाइयाँ बनाईं। कुछ चूर्णित नारियल से बनाई गई थीं और दूसरी मिठाइयाँ गंगाजल के समान सफेद दिख रही थीं। इस तरह उसने अनेक प्रकार की टिकाऊ मिश्री की मिठाइयाँ बनाईं।
 
श्लोक 26:  उसने लम्बे समय तक टिकनेवाला पनीर, दूध तथा मलाई की अनेक मिठाइयाँ तथा अमृत कर्पूर जैसी कई मिठाइयाँ बनाईं।
 
श्लोक 27:  उसने महीन, बिना उबाले शालि धान से चिउड़ा बनाया और उसे नए कपड़े की बनी एक बड़ी थैली में भर दिया।
 
श्लोक 28:  उसने कुछ चिउड़े को भूनकर घी में तला और चीनी के शीरे में पकाकर कुछ कपूर मिलाकर उसके लड्डु बना लिये।
 
श्लोक 29-30:  उसने महीन चावल को भूनकर उसका चूर्ण बनाया और उसे घी से सिक्त करके चीनी के शीरे में पका दिया। तत्पश्चात् उसने कपूर, काली मिर्च, लौंग, इलायची तथा अन्य मसाले डाले और छोटे - छोटे लड्डु बना लिये, जो अत्यन्त स्वादिष्ट तथा सुगन्धित थे।
 
श्लोक 31:  उसने महीन धान के चावल को भूना, घी में तला, चीनी के शीरे में पकाया और कुछ में कपूर मिलाकर उखड़ा या मुडूकि बना लिया।
 
श्लोक 32:  एक अन्य प्रकार की मिठाई बनाने के लिए भूने हुए मटर को चूर्ण करके घी में तलकर चीनी में पकाया गया। फिर उसमें कपूर मिलाकर लड्डु बना लिये गये।
 
श्लोक 33:  मैं जन्म भर भी गिनाऊँ, तो इन सारे खाद्य पदार्थों का नाम नहीं ले सकूँगा। दमयन्ती ने सैकड़ों हजारों चीजें प्रस्तुत कीं।
 
श्लोक 34:  दमयन्ती ने अपने भाई राघव पण्डित के आदेश से ये सारी चीजें तैयार की थीं। इन दोनों का श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रति असीम स्नेह था और वे भक्ति में बहुत उन्नत थे।
 
श्लोक 35:  दमयन्ती ने गंगा की मिट्टी ली, उसे सुखाया, चूर्ण किया, महीन कपड़े से छाना, उसमें सुगन्धित द्रव्य मिलाये और उसके छोटे - छोटे गोले बना लिये।
 
श्लोक 36:  मसालों तथा ऐसे ही पदार्थों को मिट्टी के पतले बर्तनों में और शेष सभी वस्तुओं को कपड़े की छोटी - छोटी थैलियों में भरा।
 
श्लोक 37:  दमयन्ती ने छोटी थैलियों से दुगने आकार के थैले बनाये और तब बड़ी सावधानी से उसने इन बड़े थैलों में सारी छोटी थैलियाँ भर दीं।
 
श्लोक 38:  तब उसने सारे थैलों को लपेटकर हर थैले को ध्यानपूर्वक बन्द कर दिया। इन थैलों को तीन वाहक क्रमानुसार वहन करके ले गये।
 
श्लोक 39:  इस तरह मैंने संक्षेप में उन थैलों का वर्णन किया, जो ‘राघव की झालि’ नाम से प्रसिद्ध हैं।
 
श्लोक 40:  इन सारे थैलों का निरीक्षक मकरध्वज - कर था, जो इन्हें अपने प्राणों के समान ध्यानपूर्वक रखता था।
 
श्लोक 41:  इस तरह बंगाल के सारे वैष्णव जन जगन्नाथपुरी गये। संयोगवश वे उस दिन पहुँचे थे, जिस दिन भगवान् जगन्नाथ जल - लीला करते हैं।
 
श्लोक 42:  नरेन्द्र सरोवर के जल में नाव पर आरूढ़ होकर भगवान् गोविन्द ने अपने सारे भक्तों के साथ जल - लीला की।
 
श्लोक 43:  तब नरेन्द्र सरोवर में भगवान जगन्नाथ की आनन्दमय जल - क्रीड़ा देखने के लिए अपने निजी संगियों सहित श्री चैतन्य महाप्रभु आये।
 
श्लोक 44:  उसी समय बंगाल के सारे भक्त उस सरोवर में पहुँचे और महाप्रभु से मिले।
 
श्लोक 45:  सारे भक्त तुरन्त ही श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणों पर गिर पड़े और महाप्रभु ने प्रत्येक को उठाकर सभी का आलिंगन किया।
 
श्लोक 46:  बंगाल के सारे भक्तों से युक्त गौड़ीय सम्प्रदाय ने संकीर्तन प्रारम्भ किया। जब वे महाप्रभु से मिले, तो वे प्रेमवश उच्च स्वर से क्रन्दन करने लगे।
 
श्लोक 47:  जल - क्रीड़ा के कारण किनारे पर वाद्य, गायन, कीर्तन, नर्तन तथा अत्यधिक कोलाहल के होने से अत्यधिक उल्लास था।
 
श्लोक 48:  गौड़ीय वैष्णवों के कीर्तन तथा क्रन्दन से महान् कोलाहल उत्पन्न हुआ, जिसने समूचे ब्रह्माण्ड को पूरित कर दिया।
 
श्लोक 49:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने भक्तों के साथ जल में प्रवेश किया और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक वे उनके साथ जल - क्रीड़ा करने लगे।
 
श्लोक 50:  वृन्दावन दास ठाकुर ने ‘चैतन्य मंगल’ (अब चैतन्य भागवत नाम से विख्यात) में महाप्रभु की जल - क्रीड़ा का बहुत विस्तार से वर्णन किया हैं।
 
श्लोक 51:  यहाँ पर महाप्रभु के कार्यकलापों का फिर से वर्णन करने से कोई लाभ नहीं होगा। यह केवल पुनरुक्ति होगी और इससे पुस्तक का आकार बढ़ जायेगा।
 
श्लोक 52:  जल - लीला समाप्त करने के बाद भगवान् गोविन्द अपने आवास लौट गये। तब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भक्तों को साथ लेकर मन्दिर गये।
 
श्लोक 53:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ मन्दिर होकर अपने निवासस्थान लौट आये, तो उन्होंने पर्याप्त मात्रा में जगन्नाथ जी का प्रसाद मँगवाया, जिसे उन्होंने अपने भक्तों में बाँट दिया, जिससे कि वे भरपेट खा सकें।
 
श्लोक 54:  भक्तों से कुछ समय तक बातें करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबों से अपने - अपने उन्हीं डेरों में स्थान ग्रहण करने के लिए कहा, जिनमें वे पिछले वर्ष रह चुके थे।
 
श्लोक 55:  राघव पण्डित ने खाद्य सामग्री के थैले गोविन्द को सौंप दिये, जिसने उन्हें भोजन - कक्ष के एक कोने में रख दिये।
 
श्लोक 56:  गोविन्द ने पिछले वर्ष के थैलों को ठीक से खाली किया और उन्हें अन्य कमरे में दूसरी वस्तुओं से भरे जाने के लिए रख लिया।
 
श्लोक 57:  अगले दिन भगवान जगन्नाथ के प्रातःकाल जगने के समय पर श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निजी भक्तों के साथ भगवान जगन्नाथ का दर्शन करने गये।
 
श्लोक 58:  भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने बेड़ा संकीर्तन (गोलाकार संकीर्तन) प्रारम्भ किया। उन्होंने सात टोलियाँ बनाईं और वे कीर्तन करने लगीं।
 
श्लोक 59:  सातों टोलियों में से हर एक में अद्वैत आचार्य अथवा नित्यानन्द प्रभु जैसा मुख्य नर्तक था।
 
श्लोक 60:  अन्य टोलियों के नर्तक थे - वक्रेश्वर पण्डित, अच्युतानन्द, पण्डित श्रीवास, सत्यराज खान तथा नरहरि दास।
 
श्लोक 61:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु निरीक्षण करते हुए एक टोली से दूसरी में विचरण करते, तो प्रत्येक टोली के व्यक्ति य ही सोचते कि, “महाप्रभु हमारी टोली में हैं।”
 
श्लोक 62:  सामूहिक कीर्तन से इतनी तुमुल ध्वनि हुई कि उससे आकाश भर गया। जगन्नाथपुरी के सारे निवासी कीर्तन देखने के लिए आये।
 
श्लोक 63:  राजा भी अपने निजी सहायकों समेत वहाँ आया और दूर से देखता रहा। सारी रानियों ने महल की अटारियों से देखा।
 
श्लोक 64:  कीर्तन की तेज ध्वनि से समस्त जगत् काँपने लगा। जब सबों ने हरिनाम का कीर्तन किया, तो उससे तुमुल ध्वनि उत्पन्न हुई।
 
श्लोक 65:  इस तरह महाप्रभु ने कुछ देर तक तो कीर्तन करवाया, किन्तु तब उन्हें स्वयं नृत्य करने की इच्छा हुई।
 
श्लोक 66:  सातों टोलियाँ सात दिशाओं में कीर्तन करने लगीं तथा मृदंग बजाने लगीं और श्री चैतन्य महाप्रभु बीचों - बीच अत्यधिक प्रेमावेश में नृत्य करने लगे।
 
श्लोक 67:  श्री चैतन्य महाप्रभु को उड़िया भाषा की एक पंक्ति याद आई और उन्होंने इसे स्वरूप दामोदर को गाने का आदेश दिया।
 
श्लोक 68:  “जगमोहन नामक कीर्तन कक्ष में मेरा सिर जगन्नाथ के चरणों पर गिरे।”
 
श्लोक 69:  केवल इस पंक्ति के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु बड़े प्रेमावेश में नृत्य कर रहे थे। उनके चारों ओर के लोग उनके आँसुओं के जल में तैरने लगे।
 
श्लोक 70:  दिव्य आनन्द में तैरते हुए महाप्रभु ने अपनी दोनों बाहें उठाते हुए कहा, “कीर्तन करो! कीर्तन करो!” दिव्य आनन्द में तैरते हुए लोग हरिनाम का कीर्तन करके प्रत्युत्तर देने लगे।
 
श्लोक 71:  महाप्रभु मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़े और उनकी श्वास भी नहीं चल रही थी। किन्तु वे सहसा उच्च ध्वनि (हुंकार) करते उठ खड़े हुए।
 
श्लोक 72:  उनके शरीर के रोएँ खड़े हो गये, मानो शिमुल वृक्ष के काँटे हों। कभी उनका शरीर फूला हुआ दिखता, तो कभी अत्यन्त दुबला - पतला दिखता।
 
श्लोक 73:  उनके शरीर के प्रत्येक रोमकूप से पसीना आ रहा था और रक्त निकल रहा था ; उनकी वाणी लड़खड़ा रही थी। वे पंक्ति का ठीक से उच्चारण नहीं कर पा रहे थे। वे केवल “जज गग परि मुमु” ही उच्चारित कर पा रहे थे।
 
श्लोक 74:  उनके सारे दाँत हिलने लगे, मानो एक दूसरे से अलग हों। ऐसा लग रहा था मानों वे सब भूमि पर गिर पड़ेंगे।
 
श्लोक 75:  उनका दिव्य आनन्द प्रति क्षण बढ़ता गया। अतः दोपहर के बाद भी उनका नृत्य समाप्त नहीं हुआ।
 
श्लोक 76:  दिव्य आनन्द का सागर उफन चला और वहाँ पर उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति अपना शरीर, मन तथा घर भूल गया।
 
श्लोक 77:  तब नित्यानन्द प्रभु ने कीर्तन को समाप्त करने की विधि ढूँढ निकाली। उन्होंने धीरे - धीरे सारे कीर्तनियों को रोक दिया।
 
श्लोक 78:  केवल एक टोली स्वरूप दामोदर के साथ कीर्तन करती रही। वह भी अत्यन्त मन्द स्वर से कीर्तन कर रही थी।
 
श्लोक 79:  जब कोलाहल नहीं हो रहा था, तो श्री चैतन्य महाप्रभु की बाह्य चेतना लौटी। तब नित्यानन्द प्रभु ने उन्हें कीर्तनियों तथा नर्तकों की थकान के बारे में सूचित किया।
 
श्लोक 80:  भक्तों की थकान समझकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने संकीर्तन रोक दिया। तब उन्होंने सबों के साथ समुद्र में स्नान किया।
 
श्लोक 81:  तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबों के साथ प्रसाद लिया और उनसे अपने - अपने निवासस्थान पर लौट जाने तथा आराम करने के लिए कहा।
 
श्लोक 82:  श्री चैतन्य महाप्रभु गम्भीरा के द्वार पर लेट गये और गोविन्द वहाँ आकर महाप्रभु के पाँव दबाने लगा।
 
श्लोक 83-84:  यह दीर्घकाल से चला आ रहा स्थायी नियम था कि भोजन के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु विश्राम करने के लिए लेट जाते और गोविन्द आकर उनके पाँव दबाता। तब गोविन्द श्री चैतन्य महाप्रभु का शेष प्रसाद ग्रहण करता था।
 
श्लोक 85:  इस बार जब महाप्रभु लेटे, तो उन्होंने पूरा द्वार घेर लिया। इससे गोविन्द कमरे के भीतर न प्रवेश कर सका, अतएव उन्होंने निम्न प्रार्थना की।
 
श्लोक 86:  गोविन्द ने कहा, “कृपया एक ओर करवट ले लें। मुझे कमरे में प्रवेश करने दें।” किन्तु महाप्रभु ने उत्तर दिया, “अपना शरीर हिलाने - डुलाने की मुझमें शक्ति नहीं है।”
 
श्लोक 87:  गोविन्द ने बारम्बार अनुरोध किया, किन्तु महाप्रभु ने उत्तर दिया, “मैं अपना शरीर हिला - डुला नहीं सकता।”
 
श्लोक 88:  गोविन्द ने बारम्बार अनुरोध किया, “मैं आपके पाँव दबाना चाहता हूँ, किन्तु महाप्रभु ने कहा, “चाहे दबाओ या न दबाओ। यह सब तुम्हारे मन पर निर्भर है।”
 
श्लोक 89:  तब गोविन्द ने महाप्रभु के शरीर पर चादर डाल दी और इस तरह वह उन्हें लाँघकर कमरे में प्रवेश कर गया।
 
श्लोक 90:  गोविन्द ने हमेशा की तरह महाप्रभु के पाँव दबाये। उसने महाप्रभु की कमर तथा पीठ हल्के से दबाई और इस तरह महाप्रभु की थकान दूर हो गई।
 
श्लोक 91:  जब गोविन्द ने उनका शरीर दबाया, तो महाप्रभु लगभग 45 मिनट तक अच्छी तरह सोये और तब उनकी नींद टूटी।
 
श्लोक 92:  जब महाप्रभु ने गोविन्द को अपनी बगल में बैठे देखा, तो वे कुछ नाराज हुए और पूछा, “तुम आज इतनी देर तक यहाँ क्यों बैठे रहे हो?”
 
श्लोक 93:  महाप्रभु ने पूछा, “मेरे सो जाने के बाद तुम प्रसाद ग्रहण करने क्यों नहीं गये?” गोविन्द ने उत्तर दिया, “आप द्वार रोककर लेटे हुए थे और जाने के लिए कोई रास्ता न था।”
 
श्लोक 94:  महाप्रभु ने पूछा, “तुमने कमरे में प्रवेश कैसे किया? उसी तरह से तुम भोजन करने बाहर क्यों नहीं गये?”
 
श्लोक 95:  गोविन्द ने मन ही मन उत्तर दिया, “मेरा कर्तव्य तो सेवा करना है, चाहे मुझे अपराध करना पड़े या नरक जाना पड़े।
 
श्लोक 96:  “यदि महाप्रभु की सेवा के लिए मुझे करोड़ों अपराध करने पड़े, तो भी मैं बुरा नहीं मानूंगा, किन्तु मैं अपने लिए एक अपराध की झलक से भी अत्यधिक डरता हूँ।”
 
श्लोक 97:  इस तरह सोचकर गोविन्द मौन रहा। उसने महाप्रभु के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया।
 
श्लोक 98:  गोविन्द का अभ्यास था कि वह तब भोजन करता, जब महाप्रभु सोये होते। किन्तु उस दिन महाप्रभु की थकावट देखकर गोविन्द उनके शरीर को दबाता रहा।
 
श्लोक 99:  चूँकि जाने के लिए कोई रास्ता न था, अतः वह कैसे जाता? जब उसने महाप्रभु के शरीर को लाँघने का सोचा, तो उसे लगा कि यह बहुत बड़ा अपराध है।
 
श्लोक 100:  भक्ति में ये सब शिष्टाचार की सूक्ष्म बातें हैं। जिसने श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा प्राप्त की है, केवल वही इन तत्त्वों को समझ सकता है।
 
श्लोक 101:  महाप्रभु अपने भक्तों के उच्च गुणों को प्रकट करने में अत्यधिक रुचि रखते हैं और यही कारण है कि उन्होंने इस घटना को घटने दिया।
 
श्लोक 102:  इस तरह मैंने जगन्नाथ मन्दिर के सभा भवन में श्री चैतन्य महाप्रभु के नृत्य करने का संक्षिप्त वर्णन किया है। श्री चैतन्य महाप्रभु के सेवक अब भी इस नृत्य का गुणगान करते हैं।
 
श्लोक 103:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने हमेशा की तरह अपने निजी संगियों के साथ गुण्डिचा मन्दिर की धुलाई तथा सफाई की।
 
श्लोक 104:  महाप्रभु ने पहले की ही तरह नृत्य और कीर्तन किया और तब बगीचे में भोजन किया।
 
श्लोक 105:  उन्होंने पहले ही की तरह जगन्नाथजी के रथ के आगे नृत्य किया और हेरापंचमी उत्सव मनाया।
 
श्लोक 106:  बंगाल से आये सारे भक्त वर्षा - ऋतु के चार महीने तक जगन्नाथपुरी में रहे और उन्होंने कृष्ण जन्माष्टमी तथा अन्य अनेक उत्सव मनाये।
 
श्लोक 107:  पहले जब बंगाल से सारे भक्त आये थे, तो उनकी इच्छा थी कि श्री चैतन्य महाप्रभु को खाने के लिए कोई न कोई वस्तु दें।
 
श्लोक 108:  हर भक्त कोई न कोई प्रसाद लाता। वह इसे इस विनती के साथ गोविन्द को सौंपता कि, “कृपया ऐसा करें कि महाप्रभु इस प्रसाद को अवश्य खायें।”
 
श्लोक 109:  कोई पैड़ (नारियल का एक व्यंजन), तो कोई लड्डु, तथा कोई पिष्टक (पिठा) तथा खीर ले आया। यह प्रसाद तरह - तरह का था और बहुमूल्य था।
 
श्लोक 110:  गोविन्द प्रसाद को श्री चैतन्य महाप्रभु के सामने रखता और कहता, “इसे अमुक भक्त ने दिया है। किन्तु महाप्रभु उसे वास्तव में खाते नहीं थे। वे केवल इतना ही कहते, “इसे कमरे में रख दो।”
 
श्लोक 111:  गोविन्द इस खाद्य सामग्री को संचित करता रहा, अतः जल्दी ही कमरे का एक कोना भर गया। यह सामग्री कम से कम एक सौ लोगों के भोजन के लिए पर्याप्त थी।
 
श्लोक 112:  सारे भक्त अत्यन्त उत्सुकता से गोविन्द से पूछते, “क्या आपने मेरे द्वारा लाया हुआ प्रसाद श्री चैतन्य महाप्रभु को दिया?”
 
श्लोक 113:  जब भक्तगण गोविन्द से पूछते, तो उसे उनसे झूठ बोलना पड़ता। इसलिए एक दिन उसने निराश होकर महाप्रभु से कहा।
 
श्लोक 114:  “अद्वैत आचार्य इत्यादि अनेक सम्माननीय भक्त आपके लिए तरह - तरह का भोजन मुझे सौंपने के लिए बड़ा प्रयास करते हैं।
 
श्लोक 115:  आप उसे नहीं खाते हैं, किन्तु वे मुझसे बारम्बार पूछते रहते हैं। मैं कब तक उन्हें ठगता रहूँगा? मैं इस उत्तरदायित्व से कब छुटकारा पा सकूँगा?”
 
श्लोक 116:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “तुम मूर्ख की तरह क्यों इतने दुःखी हो? उन लोगों ने तुम्हें जो दिया है, उसे मेरे पास ले आओ।”
 
श्लोक 117:  श्री चैतन्य महाप्रभु खाने बैठ गये। तब गोविन्द उन्हें एक - एक करके सारे पकवान देने लगा और साथ ही देने वाले का नाम भी बताता गया।
 
श्लोक 118:  “पैड़, खीर, मलाई के बने रोट तथा अमृत गुटिका, मण्डा एवं कपूर का पात्र - ये सारी वस्तुएँ अद्वैत आचार्य द्वारा दी गई हैं।
 
श्लोक 119:  “इसके बाद श्रीवास पण्डित द्वारा दी गई खाद्य सामग्रियाँ हैं - रोट, मलाई, अमृतमण्डा तथा पद्मचिनि।
 
श्लोक 120:  “ये सारे उपहार आचार्यरत्न के हैं और ये तरह - तरह के उपहार आचार्य निधि द्वारा दिये गये हैं।
 
श्लोक 121:  ये नाना प्रकार की खाद्य वस्तुएँ वासुदेव दत्त, मुरारि गुप्त तथा बुद्धिमन्त खान द्वारा दी गई हैं।
 
श्लोक 122:  ये उपहार श्रीमान सेन, श्रीमान पण्डित तथा आचार्य नन्दन द्वारा दिये गये हैं। कृपया इन सबों को खायें।
 
श्लोक 123:  ये वस्तुएँ कुलीनग्राम के निवासियों द्वारा बनाई हुई हैं और इन वस्तुओं को खण्ड के निवासियों ने बनाई हैं।”
 
श्लोक 124:  इस तरह गोविन्द ने महाप्रभु के सामने भोजन रखते हुए हर एक का नाम लिया। अत्यन्त सन्तुष्ट होकर महाप्रभु सारी वस्तुएँ खाने लगे।
 
श्लोक 125-126:  मुकुता नारिकेल, अमृत गुटिका, अनेक प्रकार के मीठे पेय तथा अन्य पदार्थ कम से कम एक मास पहले के बने हुए थे। यद्यपि वे पुराने थे, किन्तु बेस्वाद या बासी नहीं हुए थे।
 
श्लोक 127:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने अल्पकाल में ही सौ लोगों के लिए पर्याप्त भोजन खा लिया। तब उन्होंने गोविन्द से पूछा, “क्या अब भी कोई चीज बची है?”
 
श्लोक 128:  गोविन्द ने उत्तर दिया, “अब केवल राघव के थैले बचे हैं।” महाप्रभु ने कहा, “आज उन्हें रहने दो। मैं उन्हें बाद में देखूँगा।”
 
श्लोक 129:  अगले दिन जब महाप्रभु एकान्त स्थान में भोजन कर रहे थे, तब उन्होंने राघव के थैले खोले और एक - एक करके उनके भीतर देखा।
 
श्लोक 130:  उन्होंने उनमें से हर वस्तु को थोड़ा - थोड़ा चखा और उनके स्वाद तथा गन्ध की प्रशंसा की।
 
श्लोक 131:  फिर बचे विभिन्न प्रकार के प्रसाद को वर्ष भर खाने के लिए रख दिया गया। जब श्री चैतन्य महाप्रभु भोजन करते, तब स्वरूप दामोदर गोस्वामी इसे थोड़ा - थोड़ा करके परोसते।
 
श्लोक 132:  कभी - कभी महाप्रभु इसमें से कुछ भाग को रात में खाते। महाप्रभु अपने भक्तों द्वारा श्रद्धा तथा प्रेम से प्रस्तुत की गई वस्तुओं का निश्चय ही भोग करते हैं।
 
श्लोक 133:  इस तरह महाप्रभु ने अपने भक्तों के साथ कृष्ण कथा की चर्चा करते हुए चातुर्मास की सारी अवधि सुखपूर्वक बिताई।
 
श्लोक 134:  समय - समय पर अद्वैत आचार्य तथा अन्य भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु को घर में पकाया चावल तथा नाना प्रकार की सब्जियाँ खाने के लिए निमन्त्रित करते रहते।
 
श्लोक 135-136:  उन्होंने काली मिर्च से बनी तीखी वस्तुएँ, मीठे तथा खट्टे व्यंजन, अदरक, नमकीन, नींबू, दूध, दही, पनीर, दो - चार तरह की शाक - सब्जियाँ, सुकुता से बना सूप, नीम के फूलों से मिश्रित बैंगन तथा तला हुआ पटोल खाने को दिया।
 
श्लोक 137:  उन्होंने फुलबड़ी, मूंग की दाल तथा अनेक तरकारियाँ दीं, जो महाप्रभु के स्वाद के अनुकूल पकाई गई थीं।
 
श्लोक 138:  वे इन खाद्यान्नों के साथ जगन्नाथजी का प्रसाद मिला देते। जब श्री चैतन्य महाप्रभु निमन्त्रण स्वीकार करते, तो कभी वे अकेले जाते और कभी अपने संगियों के साथ जाते।
 
श्लोक 139:  आचार्यरत्न, आचार्यनिधि, नन्दन आचार्य, राघव पण्डित तथा श्रीवास जैसे सारे के सारे भक्त ब्राह्मण जाति के थे।
 
श्लोक 140-141:  वे महाप्रभु को निमन्त्रण दिया करते। वासुदेव दत्त, गदाधर दास, मुरारि गुप्त, कुलीन ग्राम तथा खण्ड ग्राम के वासी एवं अन्य अनेक भक्त, जो ब्राह्मण जाति के नहीं थे, भगवान जगन्नाथ को अर्पित भोजन खरीदा करते और तब श्री चैतन्य महाप्रभु को निमन्त्रित किया करते।
 
श्लोक 142:  अब शिवानन्द सेन द्वारा महाप्रभु को दिये गये निमन्त्रण के बारे में सुनें। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम चैतन्य दास था।
 
श्लोक 143:  जब शिवानन्द सेन अपने पुत्र चैतन्य दास को महाप्रभु से परिचय कराने के लिए लाये, तब महाप्रभु ने उनसे उनका नाम पूछा।
 
श्लोक 144:  जब महाप्रभु ने सुना कि उसका नाम चैतन्य दास है, तो उन्होंने कहा, तुमने इसका कैसा नाम रखा है? इसे समझना बहुत कठिन है।”
 
श्लोक 145:  शिवानन्द सेन ने उत्तर दिया, “उसका जो नाम रखा गया है, वह मेरे भीतर से उत्पन्न हुआ।” तब उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु को भोजन के लिए निमन्त्रित किया।
 
श्लोक 146:  शिवानन्द सेन भगवान् जगन्नाथ का बहुमूल्य प्रसाद खरीद लाये थे। उसे वे भीतर ले आये और श्री चैतन्य महाप्रभु को दिया, जो अपने संगियों सहित प्रसाद पाने के लिए बैठ गये।
 
श्लोक 147:  शिवानन्द सेन की महिमा के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनके आग्रह पर सभी प्रकार के प्रसाद का भोजन किया। किन्तु महाप्रभु आवश्यकता से अधिक खा गये, जिससे उन का मन असन्तुष्ट था।
 
श्लोक 148:  अगले दिन शिवानन्द सेन के पुत्र चैतन्य दास ने महाप्रभु को निमन्त्रण दिया। किन्तु वह महाप्रभु के मन को समझ चुके थे, इसलिए उन्होंने भिन्न प्रकार के भोजन की व्यवस्था की।
 
श्लोक 149:  उन्होंने दही, नींबू, अदरक, मुलायम बड़े तथा नमक लाकर दिया। यह प्रबन्ध देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए।
 
श्लोक 150:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “यह बालक मेरा मन जानता है। अतएव उसका निमन्त्रण स्वीकार करने से मैं अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ।”
 
श्लोक 151:  यह कहकर महाप्रभु ने चावल और दही को मिला लिया और चैतन्य दास को अपने भोजन का शेष दिया।
 
श्लोक 152:  इस तरह भक्तों के आमन्त्रण स्वीकार करते हुए चातुर्मास बीत गया। किन्तु निमन्त्रणों की बाढ़ के कारण कुछ वैष्णवों को खाली दिन न मिल सका, जब वे महाप्रभु को बुला सकते।
 
श्लोक 153:  गदाधर पण्डित तथा सार्वभौम भट्टाचार्य ने तो वे तिथियाँ तय कर दी थीं, जब प्रति मास श्री चैतन्य महाप्रभु उनका निमन्त्रण स्वीकार करते।
 
श्लोक 154-155:  गोपीनाथ आचार्य, जगदानन्द, काशीश्वर, भगवान्, रामभद्राचार्य, शंकर तथा वक्रेश्वर - ये सभी ब्राह्मण थे, जिन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु को निमन्त्रण दिया और घर पर पकाया भोजन प्रदान किया, जबकि अन्य भक्त दो पण का जगन्नाथजी का प्रसाद खरीदकर महाप्रभु को निमन्त्रित करते।
 
श्लोक 156:  पहले जगन्नाथ प्रसाद का मूल्य चार पण कौड़ियाँ था, किन्तु जब रामचन्द्र पुरी वहाँ था, तब यह मूल्य कम करके आधा हो गया था।
 
श्लोक 157:  बंगाल से आये भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ चार महीनों तक लगातार रहे और तब महाप्रभु ने उन्हें विदा दी। बंगाली भक्तों के चले जाने पर जो भक्त जगन्नाथ पुरी में महाप्रभु के साथ रहने वाले थे, वे उनके साथ रहे।
 
श्लोक 158:  इस तरह मैंने इसका वर्णन किया है कि महाप्रभु ने किस - किस तरह अपने भक्तों के निमन्त्रण स्वीकार किये और उनके द्वारा अर्पित प्रसाद का आस्वादन किया।
 
श्लोक 159:  उस कथा के बीच में राघव पण्डित के भोजन की थैलियों एवं जगन्नाथ मन्दिर में नृत्य का वर्णन आया है।
 
श्लोक 160:  जो व्यक्ति श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के विषय में सुनता है, वह निश्चय ही श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों के प्रति आनन्दमय प्रेम को प्राप्त करेगा।
 
श्लोक 161:  श्री चैतन्य महाप्रभु के कार्यकलापों की कथाएँ सुनने में अमृत - तुल्य हैं। वे कानों तथा मन दोनों को तुष्ट करने वाली हैं। जो भी इन कार्यकलापों के अमृत का आस्वादन करता है, वह निश्चय ही बड़ा भाग्यशाली है।
 
श्लोक 162:  श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा उनकी कृपा की सदैव कामना करते हुए, उनके चरणचिह्नों पर चलकर मैं कृष्णदास श्री चैतन्य - चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
 
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