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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  अन्त्य लीला  »  अध्याय 13: जगदानन्द पण्डित तथा रघुनाथ भट्ट गोस्वामी के साथ लीलाएँ  » 
 
 
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने अमृत-प्रवाह-भाष्य में तेरहवें अध्याय का सारांश इस प्रकार दिया है। यह सोचकर कि चैतन्य महाप्रभु को केले की छाल पर सोने में असुविधा होती होगी, जगदानन्द ने उनके लिए एक तकिया तथा रजाई बनवा दी। किन्तु महाप्रभु ने इन्हें स्वीकार नहीं किया। इसके बाद स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने केले के पत्ते के महीन रेशों से दूसरा तकिया तथा रजाई बनवाई , जिन्हें महाप्रभु ने प्रबल विरोध के बाद स्वीकार किया। श्री चैतन्य महाप्रभु की अनुमति से जगदानन्द पण्डित वृन्दावन गये, जहाँ उन्होंने सनातन गोस्वामी से भक्ति विषयक अनेक विचार -विमर्श किये। मुकुन्द सरस्वती के वस्त्र के विषय में भी चर्चा चली। जब जगदानन्द पण्डित जगन्नाथ पुरी लौटे, तो उन्हों ने महाप्रभु को सनातन गोस्वामी के कुछ उपहार दिये और तब पीलु फल की घटना घटी। एक बार श्री चैतन्य महाप्रभु किसी देवदासी के गीत सुनकर भावावेश में आ गये। यह न जानते हुए कि कौन गा रहा है, महाप्रभु कँटीली झाड़ियों के रास्ते से होकर उसकी ओर दौड़े , किन्तु जब गोविन्द ने उन्हें बतलाया कि कोई स्त्री गा रही है , तो वे तुरन्त रुक गये। इस घटना से श्री चैतन्य महाप्रभु ने हर एक को यह उपदेश दिया कि संन्यासियों तथा वैष्णवों को स्त्रियों का गाना नहीं सुनना चाहिए। जब रघुनाथ भट्ट गोस्वामी अपनी शिक्षा पूरी करके वाराणसी से जगन्नाथपुरी के लिए चल पड़े, तब उनकी भेंट रामदास विश्वास पण्डित से हुई। विश्वास पण्डित को अपनी शिक्षा का अत्यधिक गर्व था। उसके निर्विशेषवादी होने के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु ने उसका ठीक से स्वागत नहीं किया। इस अध्याय के अन्त में रघुनाथ भट्ट गोस्वामी के जीवन चरित का सारांश दिया गया है।
 
 
श्लोक 1:  मैं गौरचन्द्र महाप्रभु के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ। कृष्ण - विरह की पीड़ा के कारण उनका मन क्षीण हो गया और शरीर अत्यन्त दुबला हो गया। किन्तु जब उन्हें भगवान् का प्रेमावेश होता, तो वे पुनः पूरी तरह प्रफुल्लित हो उठते।
 
श्लोक 2:  श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो! तथा महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो!
 
श्लोक 3:  इस तरह जगदानन्द पण्डित के संग में श्री चैतन्य महाप्रभु नाना प्रकार के शुद्ध प्रेम - सम्बन्धों का आस्वादन करते।
 
श्लोक 4:  कृष्ण के विरह के दुःख से महाप्रभु का मन क्षीण हो गया और शरीर दुर्बल पड़ गया, किन्तु जब उन्हें भावावेश होता, तब वे पुनः प्रफुल्लित तथा स्वस्थ हो जाते।
 
श्लोक 5:  चूँकि वे अत्यन्त दुर्बल थे, अतएव जब वे केले की शुष्क छाल पर शयन करते, तो उससे उनकी हड्डियों में पीड़ा होती थी।
 
श्लोक 6:  श्री चैतन्य महाप्रभु को पीड़ा में देखकर सारे भक्त अत्यन्त दुःखी होते। वे इसे सहन न कर पाते। तब जगदानन्द पण्डित ने एक युक्ति निकाली।
 
श्लोक 7:  वे कुछ महीन वस्त्र ले आये और उसे गेरू से रंग दिया। फिर उसके भीतर सेमल की रुई भर दी।
 
श्लोक 8:  इस तरह उन्होंने एक रजाई तथा तकिया बनवा दिया और फिर यह कहते हुए उसे गोविन्द को दे दिया, “महाप्रभु को इसी पर लेटने को कहना।”
 
श्लोक 9:  जगदानन्द ने स्वरूप दामोदर गोस्वामी से कहा, “आज आप स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु से शय्या पर लेटने के लिए आग्रह करें।”
 
श्लोक 10:  जब महाप्रभु के सोने का समय हुआ, तो स्वरूप दामोदर पास ही रुके रहे, किन्तु जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने रजाई तथा तकिया देखा, तो वे तुरन्त अत्यधिक क्रोधित हो उठे।
 
श्लोक 11:  महाप्रभु ने गोविन्द से पूछा, “इसे किसने बनवाया?” जब गोविन्द ने जगदानन्द पण्डित का नाम लिया तो श्री चैतन्य महाप्रभु कुछ - कुछ भयभीत हो उठे।
 
श्लोक 12:  गोविन्द से रजाई तथा तकिया हटाने के लिए कहकर महाप्रभु केले की शुष्क छाल पर लेट गये।
 
श्लोक 13:  स्वरूप दामोदर ने महाप्रभु से कहा, “हे प्रभु, मैं आपकी परम इच्छा का खंडन नहीं कर सकता, किन्तु यदि आप यह बिस्तर स्वीकार नहीं करते, तो जगदानन्द पण्डित को अत्यधिक दुःख होगा।”
 
श्लोक 14:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “तुम मेरे लेटने के लिए एक चारपाई भी ले आओ।
 
श्लोक 15:  “मैं संन्यासी हूँ, इसलिए मुझे भूमि पर लेटना चाहिए। चारपाई, रजाई या तकिया का प्रयोग करना मेरे लिए अत्यन्त लज्जास्पद होगा।”
 
श्लोक 16:  जब स्वरूप दामोदर लौटकर आये और जगदानन्द पण्डित को सारी घटनाएँ बतलाईं, तो उनको अतीव दुःख हुआ।
 
श्लोक 17:  तब स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने एक अन्य युक्ति निकाली। उन्होंने पहले पर्याप्त मात्रा में केले की सूखी पत्तियाँ प्राप्त कीं।
 
श्लोक 18:  तब उन्होंने अपने नाखूनों से इन पत्तियों को अत्यन्त महीन रेशों में चीर लिया और श्री चैतन्य महाप्रभु के दो बाह्य वस्त्रों (उत्तरीय) को इन रेशों से भर दिया।
 
श्लोक 19:  इस तरह स्वरूप दामोदर ने बिस्तर तथा तकिया बना दिया और भक्तों के काफी प्रयास के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें स्वीकार कर लिया।
 
श्लोक 20:  सारे लोग महाप्रभु को उस शय्या पर लेटते देखकर सुखी थे, किन्तु जगदानन्द भीतर से नाराज थे और बाहर से अत्यन्त दुःखी लग रहे थे।
 
श्लोक 21:  पहले जब जगदानन्द पण्डित वृन्दावन जाना चाहते थे, तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें अनुमति नहीं दी थी, अतएव वे जा नहीं पाये थे।
 
श्लोक 22:  अब, अपने क्रोध तथा दुःख को छिपाते हुए जगदानन्द पण्डित ने फिर से मथुरा जाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु से अनुमति माँगी।
 
श्लोक 23:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने अत्यन्त स्नेहपूर्वक कहा, “यदि मथुरा जाते समय आप मुझ पर क्रुद्ध रहोगे, तो आप मात्र भिखारी बन जाओगे और मेरी निन्दा करोगे।”
 
श्लोक 24:  तब महाप्रभु के चरण पकड़कर जगदानन्द पण्डित ने कहा, “मैं दीर्घकाल से वृन्दावन जाने की इच्छा करता रहा हूँ।
 
श्लोक 25:  मैं आपकी आज्ञा के बिना नहीं जा सका। अब आप मुझे आज्ञा दें और मैं निश्चित रूप से वहाँ जाऊँगा।”
 
श्लोक 26:  जगदानन्द पण्डित के प्रति स्नेह के कारण ही श्री चैतन्य महाप्रभु जाने देने की अनुमति नहीं दे रहे थे, किन्तु जगदानन्द पण्डित बारम्बार हठ कर रहे थे कि महाप्रभु जाने की अनुमति दे दें।
 
श्लोक 27:  तब जगदानन्दने स्वरूप दामोदर गोस्वामी से निवेदन किया, “दीर्घकाल से मैं वृन्दावन जाना चाह रहा हूँ।
 
श्लोक 28:  “किन्तु मैं महाप्रभु की अनुमति के बिना वहाँ नहीं जा सकता था और अब भी वे अनुमति देने से मना करते हैं। वे कहते हैं, “तुम इसलिए जाना चाहते हो, क्योंकि तुम मुझ पर क्रुद्ध हो।”
 
श्लोक 29:  “वृन्दावन जाने की मेरी सहज इच्छा है, अतएव आप उनसे अनुमति देने के लिए विनयपूर्वक अनुरोध करें।”
 
श्लोक 30:  तत्पश्चात् स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में यह निवेदन किया, “जगदानन्द पण्डित वृन्दावन जाने के लिए अत्यन्त इच्छुक हैं।
 
श्लोक 31:  “वे बारम्बार आपसे अनुमति के लिए याचना कर रहे हैं, अतएव कृपा करके उन्हें मथुरा जाने और फिर लौट आने की आज्ञा दे दें।
 
श्लोक 32:  “आपने उन्हें शचीमाता को मिलने बंगाल जाने की अनुमति दी थी ; उसी तरह आप उन्हें वृन्दावन जाने और तब यहाँ लौट आने की अनुमति दे सकते हैं।”
 
श्लोक 33:  स्वरूप दामोदर गोस्वामी के अनुरोध पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगदानन्द पण्डित को जाने की अनुमति दे दी। महाप्रभु ने उन्हें बुलाया और इस प्रकार निर्देश दिये।
 
श्लोक 34:  “आप वाराणसी तक बिना किसी उपद्रव का सामना किये जा सकते हो, किन्तु वाराणसी के आगे आप क्षत्रियों के साथ मार्ग से यात्रा करते हुए सतर्क रहना।
 
श्लोक 35:  “जैसे ही ये लुटेरे मार्ग पर किसी बंगाली को अकेले यात्रा करते देखते हैं, वे उसकी हर वस्तु ले लेते हैं, उसे बन्दी बना लेते हैं और जाने नहीं देते हैं।
 
श्लोक 36:  “तुम मथुरा पहुँचकर सनातन गोस्वामी के साथ रहना और वहाँ समस्त प्रमुख जनों के चरणकमलों में नमस्कार करना।
 
श्लोक 37:  “मथुरा के निवासियों से आप स्वच्छन्द होकर मत मिलना - जुलना, दूर से ही उनको सम्मान प्रदर्शित करना। चूंकि आप भक्ति के भिन्न स्तर पर हो, अतएव आप उनके आचार - व्यवहार को नहीं अपना सकते।
 
श्लोक 38:  “आप सनातन गोस्वामी के साथ वृन्दावन के बारहों वनों का दर्शन करना। उनका साथ एक क्षण के लिए भी मत छोड़ना।
 
श्लोक 39:  “आप वृन्दावन में थोड़े ही समय तक रहना और फिर जितना जल्दी हो सके लौट आना। हाँ, और आप गोपाल अर्चाविग्रह का दर्शन करने के लिए गोवर्धन पर्वत पर मत चढ़ना।
 
श्लोक 40:  “सनातन गोस्वामी को सूचित करना कि मैं दूसरी बार वृन्दावन आ रहा हूँ और वह मेरे ठहरने के लिए एक स्थान का प्रबन्ध कर रखे।”
 
श्लोक 41:  यह कहकर महाप्रभु ने जगदानन्द पण्डित का आलिंगन किया। जगदानन्द ने भी महाप्रभु के चरणकमलों की वन्दना की और फिर वे वृन्दावन के लिए चल पड़े।
 
श्लोक 42:  उन्होंने सारे भक्तों से आज्ञा माँगी और तब प्रस्थान किया। जंगल के रास्ते से होते हुए वे शीघ्र ही वाराणसी पहुँच गये।
 
श्लोक 43:  जब वे वाराणसी में तपन मिश्र तथा चन्द्रशेखर से मिले, तो उन दोनों ने उनसे श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ सुनीं।
 
श्लोक 44:  अन्त में जगदानन्द पण्डित मथुरा पहुँचे, जहाँ वे सनातन गोस्वामी से मिले। वे एक दूसरे को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए।
 
श्लोक 45:  जब सनातन गोस्वामी जगदानन्द को वृन्दावन के बारहों वन दिखला चुके, जिनमें महावन अन्तिम था, तब वे दोनों गोकुल में रहे।
 
श्लोक 46:  जगदानन्द पण्डित सनातन गोस्वामी की गुफा में रुके तो थे, किन्तु वे अपना भोजन पास के मन्दिर में जाकर पकाते।
 
श्लोक 47:  सनातन गोस्वामी महावन के आसपास द्वार - द्वार जाकर भिक्षा माँगते थे। कभी वे किसी मन्दिर में जाते और कभी किसी ब्राह्मण के घर जाते।
 
श्लोक 48:  सनातन गोस्वामी जगदानन्द पण्डित की सारी आवश्यकताएँ पूरी करते। वे महावन के आसपास भिक्षा माँगते और जगदानन्द पण्डित के खाने - पीने की सारी वस्तुएँ ले आते।
 
श्लोक 49:  एक दिन जगदानन्द पण्डित ने सनातन को पास के मन्दिर में भोजन करने के लिए निमन्त्रित किया। नित्य कर्म समाप्त करके उन्होंने भोजन पकाना प्रारम्भ किया।
 
श्लोक 50:  इसके पूर्व मुकुन्द सरस्वती नामक एक महान् संन्यासी ने सनातन गोस्वामी को एक बहिर्वास (उत्तरीय) दिया था।
 
श्लोक 51:  सनातन गोस्वामी इस वस्त्र को अपने सिर पर बाँधकर जगदानन्द पण्डित के द्वार पर जाकर बैठ गये।
 
श्लोक 52:  लाल वस्त्र को श्री चैतन्य महाप्रभु का उपहार समझकर जगदानन्द पण्डित प्रेमाविष्ट हो गये। अतः उन्होंने सनातन गोस्वामी से पूछा।
 
श्लोक 53:  जगदानन्द ने पूछा, “सिर में बँधा हुआ यह लाल वस्त्र आपको कहाँ से मिला?” सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया, “इसे मुकुन्द सरस्वती ने मुझे दिया है।”
 
श्लोक 54:  यह सुनकर जगदानन्द पण्डित तुरन्त क्रुद्ध हो उठे और सनातन गोस्वामी को मारने के उद्देश्य से उन्होंने अपने हाथ में भोजन पकाने की हण्डिया उठा ली।
 
श्लोक 55:  किन्तु सनातन गोस्वामी जगदानन्द पण्डित को अच्छी तरह जानते थे, इसलिए वे कुछ - कुछ लज्जित हुए। इसलिए जगदानन्द पण्डित ने वह हण्डिया चूल्हे पर रख दी और तब इस प्रकार कहा।
 
श्लोक 56:  “आप तो श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रधान पार्षदों में से हैं। निस्सन्देह, उन्हें आपसे बढ़कर कोई अन्य प्रिय नहीं है।
 
श्लोक 57:  “फिर भी आपने दूसरे संन्यासी द्वारा दिये हुए वस्त्र को अपने सिर पर बाँध लिया है। ऐसे व्यवहार को भला कौन सह सकता है?”
 
श्लोक 58:  सनातन गोस्वामी ने कहा, “हे जगदानन्द पण्डित, आप महान् पण्डित साधु हो। आपसे बढ़कर महाप्रभु को कोई दूसरा प्रिय नहीं है।
 
श्लोक 59:  “श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रति यह श्रद्धा आपको बिल्कुल शोभा देती है। जब तक आप इसे प्रदर्शित नहीं करोगे, तो भला मैं ऐसी श्रद्धा कैसे सीख सकता हूँ?
 
श्लोक 60:  “इस वस्त्र को अपने सिर पर बाँधने का उद्देश्य आज पूरा हो गया, क्योंकि मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रति आपके असाधारण प्रेम को प्रत्यक्ष देख लिया है।
 
श्लोक 61:  “यह केसरिया वस्त्र वैष्णव के पहनने के लिए अनुपयुक्त है, अतएव मेरे लिए इसका कोई उपयोग नहीं है। मैं इसे किसी अज्ञात व्यक्ति को दे दूँगा।”
 
श्लोक 62:  जब जगदानन्द पण्डित भोजन बना चुके, तो उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु को भोजन अर्पित किया। तब वे तथा सनातन गोस्वामी दोनों बैठ गये और प्रसाद पाने लगे।
 
श्लोक 63:  प्रसाद पाने के बाद उन्होंने एक दूसरे का आलिंगन किया और चैतन्य महाप्रभु से विरह के कारण दोनों रोने लगे।
 
श्लोक 64:  इस तरह उन्होंने वृन्दावन में दो मास बिता दिये। अन्त में वे श्री चैतन्य महाप्रभु के विरह से उत्पन्न दुःख को और अधिक नहीं सह पाये।
 
श्लोक 65:  इसलिए जगदानन्द पण्डित ने महाप्रभु का यह सन्देश सनातन गोस्वामी को दिया, “मैं भी वृन्दावन आ रहा हूँ। कृपया मेरे ठहरने के लिए स्थान की व्यवस्था कर रखो।”
 
श्लोक 66:  जब सनातन गोस्वामी ने जगदानन्द को जगन्नाथ पुरी लौट जाने की अनुमति दे दी, तो उन्होंने महाप्रभु के लिए जगदानन्द को कुछ उपहार दिये।
 
श्लोक 67:  उपहार में रासलीला स्थल की थोड़ी - सी बालू, गोवर्धन पर्वत की एक शिला, पके हुए पीलु के सूखे फल तथा घुघचियों की माला थी।
 
श्लोक 68:  इस तरह ये सारे उपहार लेकर जगदानन्द पण्डित अपनी यात्रा पर चल पड़े। किन्तु विदा करने के बाद सनातन गोस्वामी अत्यन्त क्षुब्ध थे।
 
श्लोक 69:  उसके कुछ समय बाद ही सनातन गोस्वामी ने एक ऐसा स्थान चुन लिया, जहाँ वृन्दावन में अपने प्रवास के समय श्री चैतन्य महाप्रभु ठहर सकें। यह ऊँचाई पर स्थित एक मन्दिर था, जिसका नाम द्वादशादित्य टीला था।
 
श्लोक 70:  सनातन गोस्वामी ने उस मन्दिर को अत्यन्त स्वच्छ तथा ठीक - ठाक कराकर रख दिया।
 
श्लोक 71:  तभी तेजी से यात्रा करते हुए जगदानन्द पण्डित शीघ्र ही जगन्नाथ पुरी पहुँच गये, जिससे श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके भक्तों को आनन्द हुआ।
 
श्लोक 72:  श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की वन्दना करने के बाद जगदानन्द पण्डित हर एक से मिले। तब महाप्रभु ने जगदानन्द का गाढ़ आलिंगन किया।
 
श्लोक 73:  जगदानन्द पण्डित ने सनातन गोस्वामी की ओर से भी महाप्रभु को नमस्कार किया।
 
श्लोक 74:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने पीलु फलों के अतिरिक्त सारी भेटें रख लीं और पीलु फलों को भक्तों में बाँट दिया। चूंकि ये फल वृन्दावन से आये थे, इसलिए हरएक ने परम सुखपूर्वक उन्हें खाया।
 
श्लोक 75:  जो भक्त पीलु फलों से परिचित थे, उन्होंने बीज को चूसना शुरू कर दिया, किन्तु बंगाली भक्त, जो यह नहीं जानते थे कि ये क्या हैं, उन्होंने बीजों को चबाकर निगल लिया।
 
श्लोक 76:  जिन लोगों ने बीज चबा लिये थे, उनकी जीभें मिर्च जैसे तीते स्वाद से जलने लगीं। इस तरह वृन्दावन से लाये गये पीलु फलों को खाना श्री चैतन्य महाप्रभु के लिए एक लीला हो गई।
 
श्लोक 77:  जब जगदानन्द पण्डित वृन्दावन से लौट आये, तो हर व्यक्ति प्रफुल्लित था। इस तरह जगन्नाथ पुरी में निवास करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने लीलाओं का आनन्द लिया।
 
श्लोक 78:  एक दिन जब महाप्रभु यमेश्वर के मन्दिर जा रहे थे, तब एक स्त्री गायिका (देवदासी) ने जगन्नाथ मन्दिर में गाना प्रारम्भ किया।
 
श्लोक 79:  उसने अत्यन्त मधुर स्वर में गुजरी रागिनी गायी और चूँकि इसका विषय जयदेव गोस्वामी कृत ‘गीतगोविन्द’ था, इसलिए गाने ने सारे जगत् के ध्यान को आकृष्ट कर लिया।
 
श्लोक 80:  दूर से गाने को सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु तुरन्त भावाविष्ट हो गये। वे यह नहीं जान पाये कि कोई पुरुष गा रहा है या स्त्री गा रही है।
 
श्लोक 81:  जैसे महाप्रभु उस गाने वाले से मिलने के लिए भावावेश में दौड़े, उनके शरीर में क ैं टीली झाड़ियाँ चुभ गईं।
 
श्लोक 82:  गोविन्द बहुत तेजी से महाप्रभु के पीछे दौड़ा। महाप्रभु को काँटे चुभने से कोई पीड़ा नहीं हो रही थी।
 
श्लोक 83:  श्री चैतन्य महाप्रभु तेजी से दौड़ रहे थे और वह स्त्री कुछ ही दूरी पर थी। तभी गोविन्द ने महाप्रभु को अपनी बाँहों में पकड़ लिया और वह चिल्लाया, “यह एक स्त्री गा रही है!” ।
 
श्लोक 84:  ज्योंही महाप्रभु ने “स्त्री” शब्द सुना, वे बाह्यरूप से सचेत हो उठे और वे लौट पड़े।
 
श्लोक 85:  उन्होंने कहा, “हे गोविन्द, तुमने मेरा जीवन बचा लिया। यदि मैं स्त्री का शरीर छू लेता, तो अवश्य ही मर गया होता।
 
श्लोक 86:  “मैं कभी भी तुम्हारे ऋण को चुका नहीं सकेंगा।” गोविन्द ने उत्तर दिया, “भगवान जगन्नाथ ने आपको बचाया है। मैं तो तुच्छ हूँ।”
 
श्लोक 87:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “हे गोविन्द, तुम हमेशा मेरे साथ रहना। कहीं भी और सब जगह खतरा है, इसलिए तुम अत्यन्त सावधानी से मेरी रक्षा करना।”
 
श्लोक 88:  यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु घर लौट आये। जब स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा उनके अन्य सेवकों ने इस घटना के बारे में सुना, तो वे अत्यधिक भयभीत हो उठे।
 
श्लोक 89:  इस बीच तपन मिश्र के पुत्र रघुनाथ भट्टाचार्य ने अपना सारा काम - काज त्यागकर श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने की इच्छा से अपना घर छोड़ दिया।
 
श्लोक 90:  साथ में सामान ढोने वाले एक नौकर को लेकर रघुनाथ भट्ट वाराणसी से चले और बंगाल से होकर जाने वाले मार्ग से यात्रा करने लगे।
 
श्लोक 91:  बंगाल में वे रामदास विश्वास से मिले, जो कायस्थ जाति का था। वह राजा के सचिवों में से एक था।
 
श्लोक 92:  रामदास विश्वास समस्त प्रामाणिक शास्त्रों में प्रवीण था। वह ‘काव्यप्रकाश’ नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ का अध्यापक था और उन्नत भक्त तथा रघुनाथ (भगवान् रामचन्द्र) के उपासक के रूप में विख्यात था।
 
श्लोक 93:  रामदास ने सब कुछ त्याग दिया था और वह भगवान जगन्नाथ का दर्शन करने जा रहा था। यात्रा करते हुए वह दिन के चौबीसों घण्टे भगवान् राम के पवित्र नाम का जप करता रहता था।
 
श्लोक 94:  जब वह रास्ते में रघुनाथ भट्ट से मिला, तो उसने रघुनाथ का सामान अपने सिर पर रख लिया और उसे उठा ले चला।
 
श्लोक 95:  रामदास अनेक प्रकार से रघुनाथ भट्ट की सेवा करता, यहाँ तक कि वह उनके पाँव भी दबाता। रघुनाथ भट्ट को यह सारी सेवा लेते संकोच होता।
 
श्लोक 96:  उन्होंने कहा, “आप एक सम्मानित भद्र व्यक्ति, विद्वान पण्डित तथा महान् भक्त हैं।
 
श्लोक 97:  रामदास ने उत्तर दिया, “मैं शूद्र हूँ, पतित हूँ। ब्राह्मण की सेवा करना मेरा कर्तव्य तथा धर्म है।
 
श्लोक 98:  “इसलिए कृपया संकोच न करें। मैं आपका दास हूँ और जब मैं आपकी सेवा करता हूँ, तो मेरा हृदय प्रफुल्लित हो उठता है।”
 
श्लोक 99:  इस तरह रामदास रघुनाथ भट्ट का सामान उठाए चलता रहा और निष्ठापूर्वक उसकी सेवा करता रहा। वह रात - दिन भगवान् रामचन्द्र के पवित्र नाम का निरन्तर जप करता रहा।
 
श्लोक 100:  इस तरह यात्रा करते हुए रघुनाथ भट्ट शीघ्र ही जगन्नाथपुरी आ गये। वहाँ वे परम हर्ष के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु से मिले और उनके चरणकमलों में गिर पड़े।
 
श्लोक 101:  रघुनाथ भट्ट श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणों में दण्ड की तरह गिर पड़े। तब महाप्रभु ने यह भलीभाँति जानते हुए कि वे कौन हैं, उनका आलिंगन किया।
 
श्लोक 102:  रघुनाथ ने तपन मिश्र तथा चन्द्रशेखर की ओर से श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार किया और महाप्रभु ने भी उनके विषय में समाचार पूछा।
 
श्लोक 103:  महाप्रभु ने कहा, “अच्छा हुआ कि तुम यहाँ आये हो। अब जाकर कमललोचन भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करो। आज तुम मेरे यहाँ प्रसाद ग्रहण करोगे।”
 
श्लोक 104:  महाप्रभु ने गोविन्द से रघुनाथ भट्ट के ठहरने के लिए प्रबन्ध करने को कहा और तब उनका परिचय स्वरूप दामोदर गोस्वामी इत्यादि सारे भक्तों से कराया।
 
श्लोक 105:  इस तरह रघुनाथ भट्ट लगातार आठ महीनों तक श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ रहे और महाप्रभु की कृपा से उन्हें प्रतिदिन अधिकाधिक दिव्य सुख का अनुभव होता रहा।
 
श्लोक 106:  वे कुछ समय पर विविध सब्जियों के साथ चावल पकाते और श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने घर आमन्त्रित करते।
 
श्लोक 107:  रघुनाथ भट्ट दक्ष रसोइया थे। वे जो भी पकाते वह अमृत का सा स्वाद देता।
 
श्लोक 108:  श्री चैतन्य महाप्रभु उनके द्वारा बनाये गये भोजन को परम सन्तोष के साथ ग्रहण करते।
 
श्लोक 109:  जब रामदास विश्वास श्री चैतन्य महाप्रभु से मिला, तो महाप्रभु ने उस पर कोई विशेष कृपा नहीं दर्शाई, यद्यपि यह उनकी प्रथम भेंट थी।
 
श्लोक 110:  अन्तर से रामदास विश्वास निर्विशेषवादी था, जो भगवान् से तादात्म्य चाहता था और अपनी विद्या के प्रति उसे बहुत अहंकार था। सर्वज्ञ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् होने के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु किसी के भी हृदय की बात समझ सकते हैं और इस तरह वे इन सारी बातों को जानते थे।
 
श्लोक 111:  तब रामदास विश्वास ने नीलाचल में ही अपना आवास बना लिया। वह पट्टनायक परिवार (भवानन्द राय के वंशजों) को ‘काव्यप्रकाश पढ़ाने लगा।
 
श्लोक 112:  आठ मास बाद, जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ भट्ट को विदा किया, तो महाप्रभु ने उनसे विवाह करने के लिए स्पष्ट रूप से मना किया। महाप्रभु ने कहा, “विवाह मत करना।” ।
 
श्लोक 113:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ भट्ट से कहा, “जब तुम अपने घर लौटोगे, तो अपने वृद्ध माता - पिता की सेवा करना, जो कि भक्त हैं और तुम किसी शुद्ध वैष्णव से, जिसने भगवत् साक्षात्कार किया हो, श्रीमद्भागवत का अध्ययन करना।”
 
श्लोक 114:  अन्त में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “नीलाचल (जगन्नाथ पुरी) फिर से आना।” यह कहकर महाप्रभु ने अपनी कण्ठी - माला रघुनाथ भट्ट के गले में डाल दी।
 
श्लोक 115:  इसके बाद महाप्रभु ने उनका आलिंगन किया और उन्हें विदा किया। प्रेम से विह्वल होकर तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के आसन्न विछोह के कारण रघुनाथ भट्ट रोने लगे।
 
श्लोक 116:  श्री चैतन्य महाप्रभु से तथा स्वरूप दामोदर आदि सारे भक्तों से आज्ञा लेकर रघुनाथ भट्ट वाराणसी लौट गये।
 
श्लोक 117:  श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेशानुसार वे लगातार चार वर्षों तक अपने माता - पिता की सेवा करते रहे। उन्होंने एक स्वरूपसिद्ध वैष्णव से नियमित रूप से ‘श्रीमद्भागवत’ का अध्ययन भी किया।
 
श्लोक 118:  जब उनके माता पिता का काशी (वाराणसी) में देहान्त हो गया, तो वे विरक्त हो गये।
 
श्लोक 119:  पहले की तरह रघुनाथ लगातार आठ महीने श्री चैतन्य महाप्रभु के पास रुके। तब महाप्रभु ने उन्हें यह आदेश दिया।
 
श्लोक 120:  “हे रघुनाथ, मेरी आज्ञानुसार तुम वृन्दावन जाओ। वहाँ रूप तथा सनातन गोस्वामियों के संरक्षण में रहना।
 
श्लोक 121:  “तुम वृन्दावन जाकर चौबीसों घण्टे हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करना तथा निरन्तर श्रीमद्भागवत पढ़ना। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण शीघ्र ही तुम पर कृपा करेंगे।”
 
श्लोक 122:  यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ भट्ट का आलिंगन किया और महाप्रभु की कृपा से रघुनाथ में कृष्ण - प्रेम जागृत हो उठा।
 
श्लोक 123:  एक उत्सव में श्री चैतन्य महाप्रभु को कुछ सादे पान तथा चौदह हाथ लम्बी तुलसी की माला दी गई थी। यह माला जगन्नाथ जी की पहनी हुई थी।
 
श्लोक 124:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने वह माला तथा पान रघुनाथ भट्ट को दे दिये, जिन्होंने इन्हें आराध्य देव की तरह स्वीकार किया और सुरक्षित रख लिया।
 
श्लोक 125:  तब श्री चैतन्य महाप्रभु से आज्ञा लेकर रघुनाथ भट्ट वृन्दावन के लिए चल पड़े। वहाँ पहुँचकर वे रूप तथा सनातन गोस्वामियों के संरक्षण में रहने लगे।
 
श्लोक 126:  जब रघुनाथ भट्ट रूप तथा सनातन की संगति में श्रीमद्भागवत पढ़ते, तो वे कृष्ण - प्रेम से अभिभूत हो उठते।
 
श्लोक 127:  श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से उनमें प्रेमावेश के लक्षण - अश्रु, कम्प तथा वाणी अवरोध - प्रकट होने लगते। उनकी आँखें आँसू से भर जातीं, उनका कंठ रुद्ध हो जाता और इस कारण वे श्रीमद्भागवत नहीं सुना पाते थे।
 
श्लोक 128:  उनकी वाणी कोयल की वाणी के समान मीठी थी और वे श्रीमद्भागवत के प्रत्येक श्लोक को तीन - चार अलग रागों में सुना सकते थे। इस तरह उनका वाचन सुनने में अत्यन्त मधुर लगता।
 
श्लोक 129:  जब वे कृष्ण के सौन्दर्य और माधुर्य का पाठ करते या सुनते, तब वे प्रेम से विह्वल हो उठते और सब कुछ भूल जाते।
 
श्लोक 130:  इस तरह रघुनाथ भट्ट पूर्णरूपेण भगवान् गोविन्द के चरणकमलों में समर्पित हो गये और उनके चरणकमल ही उनके जीवनाधार बन गये।
 
श्लोक 131:  फलस्वरूप रघुनाथ भट्ट ने अपने शिष्यों से गोविन्द के लिए मन्दिर बनवाने का आदेश दिया। उन्होंने वंशी तथा मकराकृति वाले कान के कुण्डल जैसे विविध आभूषण गोविन्द के लिए तैयार किये।
 
श्लोक 132:  रघुनाथ भट्ट न तो इस भौतिक जगत् की कोई वार्ता सुनते, न उसके विषय में कहते। वे केवल कृष्ण की वार्ता करते और अहर्निश कृष्ण की पूजा करते।
 
श्लोक 133:  वे न तो वैष्णव की निन्दा सुनते, न ही किसी वैष्णव के दुराचार की बात सुनते। वे केवल इतना ही जानते कि हर कोई कृष्ण की सेवा में लगा हुआ है। इसके अतिरिक्त वे और कुछ नहीं समझते थे।
 
श्लोक 134:  जब रघुनाथ भट्ट गोस्वामी कृष्ण के स्मरण में मग्न होते, तो वे श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा दी गई तुलसी माला तथा जगन्नाथ जी के प्रसाद को निकालते, उन्हें एक साथ बाँधकर गले में पहन लेते।
 
श्लोक 135:  इस तरह मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा का वर्णन किया है, जिससे रघुनाथ भट्ट गोस्वामी निरन्तर कृष्ण - प्रेम में विह्वल रहते थे।
 
श्लोक 136-137:  इस अध्याय में मैंने तीन कथाएँ कही हैं - जगदानन्द पण्डित का वृन्दावन जाना, श्री चैतन्य महाप्रभु का जगन्नाथ मन्दिर में देवदासी का गायन सुनना तथा श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से रघुनाथ भट्ट गोस्वामी द्वारा कृष्ण - प्रेम को प्राप्त करना।
 
श्लोक 138:  जो कोई इन कथाओं को श्रद्धा तथा प्रेम से सुनता है, उसको श्री चैतन्य महाप्रभु (गौरहरि) कृष्ण - प्रेम प्रदान करते हैं।
 
श्लोक 139:  श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए उनके चरणचिह्नों पर चलकर मैं कृष्णदास श्री चैतन्य चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
 
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