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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  अन्त्य लीला  »  अध्याय 14: श्री चैतन्य महाप्रभु का कृष्ण-विरह भाव  » 
 
 
 
 
अन्त्यलीला के चौदहवें अध्याय का सारांश श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने इस प्रकार दिया है। कृष्ण के विरह भाव से श्री चैतन्य महाप्रभु में अत्यधिक दिव्य उन्माद उत्पन्न हो गया। जब वे गरुड़ स्तम्भ के पास खड़े होकर भगवान् जगन्नाथ की स्तुति कर रहे थे, तब उड़ीसा की एक स्त्री ने जगन्नाथ के दर्शन पाने की उत्कट उत्सुकता के कारण महाप्रभु के कन्धे पर अपना पाँव रख दिया। इसके लिए गोविन्द ने उसकी भर्त्सना की , किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने उसकी उत्सुकता की प्रशंसा की। जब चैतन्य महाप्रभु भगवान जगन्नाथ के मन्दिर में गये , तब वे प्रेमाविष्ट हो गये और उन्होंने केवल कृष्ण का दर्शन किया। किन्तु ज्योंही उन्होंने इस स्त्री को देखा, तो उनकी बाह्य चेतना तुरन्त लौट आई और उन्होंने जगन्नाथ , बलदेव तथा सुभद्रा को देखा। श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वप्न में भी कृष्ण को देखा और वे प्रेमावेश में भावविभोर हो गये। जब उन्हें कृष्ण नहीं दिखे, तो उन्होंने अपनी तुलना एक योगी से की और बतलाया कि किस तरह वह योगी वृन्दावन को देख रहा है। कभी -कभी तो उनमें समस्त दिव्य भाव -लक्षण प्रकट हो आते थे। एक रात गोविन्द तथा स्वरूप दामोदर ने देखा कि यद्यपि महाप्रभु के कमरे के तीनों दरवाजे बन्द थे और ताला लगा था , किन्तु महाप्रभु उसके भीतर नहीं थे। यह देखकर स्वरूप दामोदर तथा अन्य भक्त बाहर गये और देखा कि महाप्रभु सिंहद्वार पर अचेतन होकर पड़े हुए हैं। उनका शरीर असामान्य रूप से लम्बा हो गया था और उनकी हड्डियों के जोड़ ढीले पड़ गये थे। भक्तों ने हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करके श्री चैतन्य महाप्रभु को धीरे धीरे सचेत किया और तब उन्हें उनके निवासस्था न पर ले गये। एक बार श्री चैतन्य महाप्रभु चटक पर्वत नामक बालू के एक टीले को गोवर्धन पर्वत समझ बैठे। ज्योंही वे उसकी ओर दौड़े , वे स्तब्ध हो गये और तब उनके शरीर में कृष्ण के प्रति अपार प्रेम के कारण आठों सात्विक भाव उत्पन्न हो गये। उस समय उन्हें शान्त करने के लिए सभी भक्तों ने हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन किया।
 
 
श्लोक 1:  अब मैं श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा मन, बुद्धि तथा शरीर से सम्पन्न कार्यकलापों के अत्यल्प अंश का वर्णन करूँगा, जब वे कृष्ण के तीव्र विरह भाव से मोहग्रस्त हो गये।
 
श्लोक 2:  पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! अपने भक्तों के प्राण स्वरूप गौरचन्द्र की जय हो!
 
श्लोक 3:  श्री चैतन्य महाप्रभु के जीवन रूप श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय अद्वैत आचार्य की जय हो!
 
श्लोक 4:  स्वरूप दामोदर तथा श्रीवास ठाकुर इत्यादि सारे भक्तों की जय हो! आप लोग मुझे श्री चैतन्य महाप्रभु के चरित्र का वर्णन करने की शक्ति प्रदान करें।
 
श्लोक 5:  श्री चैतन्य महाप्रभु के कृष्णविरह के दिव्य उन्माद का भाव अत्यन्त गम्भीर तथा रहस्यमय है। कोई कितना ही प्रबुद्ध तथा विद्वान (धीर) क्यों न हो, वह इसे समझ नहीं सकता।
 
श्लोक 6:  भला कोई इन अगाध विषयों का वर्णन कैसे कर सकता है? यह तभी सम्भव है, जब श्री चैतन्य महाप्रभु उसे शक्ति प्रदान करें।
 
श्लोक 7:  स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा रघुनाथ दास गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु के इन समस्त दिव्य कार्यकलापों को अपनी स्मरणिका में लिपिबद्ध किया है।
 
श्लोक 8:  उन दिनों स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा रघुनाथ दास गोस्वामी ही श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ रहते थे, जबकि अन्य सारे टीकाकार उनसे बहुत दूर रहते थे।
 
श्लोक 9:  इन दो महापुरुषों (स्वरूप दामोदर तथा रघुनाथ दास गोस्वामी) ने महाप्रभु के क्षण - क्षण के कार्यकलापों को लिपिबद्ध किया है। उन्होंने अपनी स्मरणिकाओं में इन कार्यकलापों का संक्षेप तथा विस्तृत - दोनों ही का वर्णन किया है।
 
श्लोक 10:  स्वरूप दामोदर ने संक्षेप में लिखा, जबकि रघुनाथ दास गोस्वामी ने विस्तृत वर्णन लिखे। अब मैं श्री चैतन्य महाप्रभु के कार्यकलापों का वर्णन अधिक विस्तार से करूँगा, मानो दबी हुई रुई को धुना जा रहा हो।
 
श्लोक 11:  कृपया श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रेम - भावों का यह वर्णन श्रद्धापूर्वक सुनें। इस तरह आप उनके प्रेमावेश को जान सकेंगे और अन्त में भगवत्प्रेम प्राप्त करेंगे।
 
श्लोक 12:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु को कृष्ण का विरह संतप्त करता, तो उनकी दशा वैसी ही हो जाती, जैसी कि कृष्ण के मथुरा जाने पर वृन्दावान में गोपियों की हो गई थी।
 
श्लोक 13:  उद्धव के वृन्दावन आने पर श्रीमती राधारानी का शोक क्रमशः श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य उन्माद का अंग बन गया।
 
श्लोक 14:  उद्धव से मिलते समय श्रीमती राधारानी के जो भाव थे, श्री चैतन्य महाप्रभु के वही भाव हो गये। महाप्रभु अपने आपको सदैव राधारानी के स्थान पर कल्पित करते और कभी - कभी सोचते कि वे ही स्वयं श्रीमती राधारानी हैं।
 
श्लोक 15:  दिव्य उन्माद की अवस्था ऐसी है। इसे समझना कठिन क्यों है? जब कोई कृष्ण - प्रेम में अत्यधिक उन्नति कर जाता है, तो वह दिव्य रूप से उन्मत्त होकर, उन्मत्त की तरह बातें करता है।
 
श्लोक 16:  “जब मोहन भाव की क्रमशः वृद्धि होती है, तब यह भ्रम के समान हो जाता है। तब वैचित्री अर्थात् आश्चर्य की अवस्था प्राप्त होती है, जो दिव्य उन्माद को जागृत करती है। दिव्योन्माद के अनेक विभागों में से उद्भूर्णा तथा चित्रजल्प दो हैं।”
 
श्लोक 17:  एक दिन श्री चैतन्य महाप्रभु जब विश्राम कर रहे थे, तब उन्होंने स्वप्न देखा कि कृष्ण रास नृत्य कर रहे हैं।
 
श्लोक 18:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने देखा कि भगवान् कृष्ण खड़े हैं और उनका सुन्दर शरीर तीन स्थानों से मुड़ा है और वे अपने अधरों पर मुरली धारण किये हुए हैं। पीतवस्त्र तथा वन्य फूलों की माला पहने वे कामदेव को भी मोहित करने वाले दिख रहे थे।
 
श्लोक 19:  गोपियाँ एक वृत्त में नृत्य कर रही थीं और इस वृत्त के बीच में महाराज नन्द के पुत्र कृष्ण, राधारानी के साथ नृत्य कर रहे थे।
 
श्लोक 20:  यह देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु रास नृत्य के दिव्य रस से अभिभूत हो गये और उन्होंने सोचा, “अब मैं कृष्ण के साथ वृन्दावन में हूँ।”
 
श्लोक 21:  जब गोविन्द ने देखा कि महाप्रभु अभी तक नहीं जागे हैं, तो उसने उन्हें जगाया। यह जानकर कि वे मात्र स्वप्न देख रहे थे, महाप्रभु कुछ - कुछ दुःखी हुए।
 
श्लोक 22:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने नित्य कृत्य सम्पन्न किये और ठीक समय पर वे मन्दिर में भगवान जगन्नाथजी का दर्शन करने गये।
 
श्लोक 23:  जब उन्होंने गरुड़ स्तम्भ के पीछे से भगवान जगन्नाथ का दर्शन किया, तब उनके सामने लाखों लोग अर्चाविग्रह का दर्शन कर रहे थे।
 
श्लोक 24:  भीड़ के कारण भगवान जगन्नाथ का दर्शन न कर पाने के कारण एक उड़िया स्त्री सहसा श्री चैतन्य महाप्रभु के कन्धे पर अपना पाँव रखकर गरुड़ स्तम्भ पर चढ़ गई।
 
श्लोक 25:  यह देखकर चैतन्य महाप्रभु के निजी सहायक गोविन्द ने शीघ्रता से उसे वहाँ से नीचे उतारा। किन्तु इसके लिए श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोविन्द की भर्त्सना की।
 
श्लोक 26:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोविन्द से कहा, “रे आदिवस्या (असभ्य पुरुष), इस स्त्री को गरुड़ - स्तम्भ पर चढ़ने से मना मत करो। उसे जी भरकर जगन्नाथजी का दर्शन करने दो।”
 
श्लोक 27:  किन्तु जब उस स्त्री को ज्ञात हुआ, तो वह तुरन्त भूमि पर उतर आई और श्री चैतन्य महाप्रभु को देखकर उसने तुरन्त ही क्षमा करने के लिए उनके चरणकमलों पर याचना की।
 
श्लोक 28:  उस स्त्री की उत्सुकता को देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा जगन्नाथ जी ने मुझे इतनी उत्सुकता प्रदान नहीं की।
 
श्लोक 29:  “उसने पूरी तरह से अपना शरीर, मन तथा प्राण भगवान जगन्नाथ में निमग्न कर दिया है। इसलिए उसे पता नहीं चला कि उसने मेरे कन्धे पर अपना पाँव रखा है।
 
श्लोक 30:  “ओह! यह स्त्री कितनी भाग्यशालिनी है! मैं उसके चरणों की वन्दना करता हूँ कि वह जगन्नाथ जी का दर्शन करने की अपनी महान् उत्सुकता मुझे प्रदान करे।”
 
श्लोक 31:  इसके पूर्व श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ जी को साक्षात् महाराज नन्द के पुत्र कृष्ण के रूप में देखते आ रहे थे।
 
श्लोक 32:  उस दृश्य में पूर्णतया मग्न होकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोपियों का भाव धारण कर लिया था, यहाँ तक कि वे जहाँ भी देखते, उन्हें होठों पर अपनी मुरली रखे कृष्ण खड़े दिखाई देते।
 
श्लोक 33:  उस स्त्री को देखने के बाद महाप्रभु की बाह्य चेतना लौट आई और उन्होंने भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम जी के मूल अर्चाविग्रह रूपों को देखा।
 
श्लोक 34:  जब उन्होंने अर्चाविग्रहों को देखा, तो उन्होंने सोचा कि वे कृष्ण को कुरुक्षेत्र में देख रहे हैं। उन्होंने सोचा, “क्या मैं कुरुक्षेत्र में आ गया हूँ? वृन्दावन कहाँ है?”
 
श्लोक 35:  श्री चैतन्य महाप्रभु उसी तरह अत्यधिक व्याकुल हो उठे, जिस तरह तुरन्त प्राप्त किये रत्न के खो जाने से कोई व्यक्ति व्याकुल हो उठता है। तब वे अत्यधिक खिन्न हो गये और घर लौट आये।
 
श्लोक 36:  श्री चैतन्य महाप्रभु भूमि पर बैठकर अपने नाखूनों से भूमि कुरेदने लगे। आँसुओं से उनके नेत्र अन्धे हो चले – ये आँसू उनके नेत्रों से गंगा नदी के समान प्रवाहित हो रहे थे।
 
श्लोक 37:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मैंने वृन्दावन के स्वामी कृष्ण को पाया तो सही, किन्तु उन्हें फिर से खो दिया। मेरे कृष्ण को किसने ले लिया? मैं कहाँ आ गया हूँ?”
 
श्लोक 38:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने रास नृत्य का स्वप्न देखा, तब वे दिव्य आनन्द में पूर्णतया मग्न थे, किन्तु जब उनका स्वप्न टूटा, तो उन्हें लगा कि उनका एक अमूल्य रत्न खो गया है।
 
श्लोक 39:  इस तरह दिव्य उन्माद के आनन्द में सदैव मग्न श्री चैतन्य महाप्रभु कीर्तन और नृत्य करते। वे खाने तथा स्नान करने जैसी शारीरिक आवश्यकताओं को स्वभाववश पूरा कर लेते।
 
श्लोक 40:  रात्रि के समय श्री चैतन्य महाप्रभु अपने मन के भावों को स्वरूप दामोदर तथा रामानन्द राय के सामने व्यक्त करते थे।
 
श्लोक 41:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “पहले मेरे मन ने कृष्ण रूपी रत्न को जैसे - कैसे प्राप्त किया, किन्तु पुनः उसे खो दिया। इसलिए उसने शोक के कारण मेरे शरीर और घर को छोड़कर कापालिक योगी के धर्म को स्वीकार कर लिया है। तब मेरा मन मेरी इन्द्रियाँ रूपी अपने शिष्यों के साथ वृन्दावन चला गया।”
 
श्लोक 42:  अपने प्राप्त किये हुए रत्न को खोकर श्री चैतन्य महाप्रभु उसके गुणों का स्मरण करके शोक से विह्वल हो गये। तब रामानन्द राय तथा स्वरूप दामोदर गोस्वामी के गले लगकर वे रो पड़े, “हाय! मेरे हरि कहाँ हैं? हरि कहाँ हैं?” अन्त में वे चंचल हो उठे और उनका सारा धैर्य जाता रहा।
 
श्लोक 43:  उन्होंने कहा, “हे बन्धुओं, कृपया कृष्ण की मधुरता के विषय में सुनो। उस मधुरता के लिए महती इच्छा के कारण मेरे मन ने सारे सामाजिक तथा वैदिक धर्म के सिद्धान्तों को त्याग दिया है और उसने योगी की तरह भिखारी की वृत्ति अपना ली है।
 
श्लोक 44:  “अत्यन्त शुभ कारीगर शुकदेव गोस्वामी द्वारा निर्मित कृष्ण की रासलीला का वृत्त, शंख से बने एक कुण्डल की ही तरह शुद्ध है। मेरे मन रूपी योगी ने उस कुण्डल को अपने कान में धारण कर रखा है। उसने एक लौकी से मेरी तृष्णाओं का कमण्डल बना लिया है और मेरी आशाओं का झोला अपने कन्धे पर टाँग लिया है।
 
श्लोक 45:  “मेरा मन रूपी योगी चिन्ता की फटी गुदड़ी धूल तथा राख से सने अपने गन्दे शरीर में धारण करता है। उसके एकमात्र शब्द हैं, ‘हाय! कृष्ण! वह अपनी कलाई में दुःख की बारह चूड़ियाँ धारण करता है। और अपने सिर पर लोभ की पगड़ी बाँधता है। कुछ न खाने के कारण वह अत्यन्त क्षीण है।
 
श्लोक 46:  “मेरा मन रूपी योगी सदैव कृष्ण की वृन्दावन लीलाओं की कविता तथा व्याख्याओं को पढ़ता है। श्रीमद्भागवत तथा अन्य शास्त्रों में व्यासदेव तथा शुकदेव गोस्वामी जैसे महान् सन्त योगीजनों ने भगवान् कृष्ण का वर्णन परमात्मा के रूप में किया है, जो सारे भौतिक कल्मष से परे हैं।
 
श्लोक 47:  “मेरे मन रूपी योगी ने महा - बाउल नाम ग्रहण किया है और मेरी दस इन्द्रियों को अपना शिष्य बना लिया है। इस तरह मेरा मन मेरे शरीर रूपी घर को तथा भौतिक भोग के महान् कोष को छोड़कर वृन्दावन चला गया है।
 
श्लोक 48:  “वह वृन्दावन में अपने शिष्यों के साथ द्वार - द्वार भीख माँगता है। वह चर तथा अचर दोनों ही तरह के निवासियों से - नागरिकों, वृक्षों तथा लताओं से भीख माँगता है। इस तरह वह फल, मूल तथा पत्तों पर जीवन - निर्वाह करता है।
 
श्लोक 49:  “व्रजभूमि की गोपियाँ सदा कृष्ण के गुणों, उनके सौन्दर्य, उनकी मधुरता, उनकी सुगन्ध, उनकी वंशी की ध्वनि तथा उनके शरीर - स्पर्श के अमृत का आस्वादन करती हैं। मेरे मन के पाँच शिष्य, मेरी ज्ञानेन्द्रियाँ उस अमृत के शेष को गोपियों से एकत्र करके मेरे मन रूपी योगी के पास लाती हैं। इन्द्रियाँ उसी शेष को खाकर अपना जीवन धारण करती हैं।
 
श्लोक 50:  “एक एकान्त उद्यान में कृष्ण अपनी लीलाओं का आनन्द लेते हैं और उस उद्यान के मण्डप के एक कोने में मेरा मन रूपी योगी अपने शिष्यों सहित योगाभ्यास करता है। वह योगी कृष्ण का प्रत्यक्ष दर्शन करने के लिए रातभर जागता रहता है और कृष्ण का ध्यान करता है, जो कि परमात्मा हैं और प्रकृति के तीन गुणों से अकलुषित रहते हैं।
 
श्लोक 51:  “जब मेरे मन ने कृष्ण - संग खो दिया और वह उन्हें नहीं देख पाया, तो वह अत्यधिक दुःखी हो गया और उसने योग धारण कर लिया। कृष्ण के वियोग की शून्यता में उसे दस दिव्य विकारों का अनुभव हुआ। इन विकारों से चलायमान होकर मेरा मन अपने निवासस्थान मेरे शरीर को छोड़कर भाग गया है। इस प्रकार मैं पूर्णतया समाधि में हूँ।”
 
श्लोक 52:  जब गोपियों को कृष्ण के वियोग का अनुभव हुआ, तब उन्होंने दस प्रकार के शारीरिक विकारों का अनुभव किया। वे ही लक्षण श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर में प्रकट हो गये।
 
श्लोक 53:  “कृष्ण वियोग से उत्पन्न दस शारीरिक विकार हैं – चिन्ता, जागरण, उद्वेग, कृशता, मलिनता, प्रलाप, व्याधि, उन्माद, मोह तथा मृत्यु।”
 
श्लोक 54:  श्री चैतन्य महाप्रभु इन दस दशाओं से रात - दिन व्याकुल रहते थे। जब भी ऐसे लक्षण उत्पन्न होते, उनका मन अस्थिर हो उठता।
 
श्लोक 55:  इस तरह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु मौन हो गये। तब रामानन्द राय विविध श्लोक सुनाने लगे।
 
श्लोक 56:  रामानन्द राय ने ‘श्रीमद्भागवत’ से कई श्लोक सुनाये और स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने कृष्ण लीलाओं का गायन किया। इस तरह उन दोनों ने महाप्रभु की बाह्य चेतना लौटाई।
 
श्लोक 57:  इस प्रकार आधी रात बीत जाने पर रामानन्द राय तथा स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु को भीतरी कमरे में शय्या पर लिटाया।
 
श्लोक 58:  तब रामानन्द राय घर लौट आये और स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा गोविन्द श्री चैतन्य महाप्रभु के कमरे के दरवाजे के सामने लेट गये।
 
श्लोक 59:  श्री चैतन्य महाप्रभु सारी रात उच्च स्वर से हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करते हुए जागते रहे।
 
श्लोक 60:  कुछ देर बाद स्वरूप दामोदर को श्री चैतन्य महाप्रभु का जप करना नहीं सुनाई पड़ा। जब वे कमरे के भीतर गये, तो उन्होंने देखा कि तीनों दरवाजों पर ताले लगे हैं, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु वहाँ नहीं हैं।
 
श्लोक 61:  जब सारे भक्तों ने देखा कि महाप्रभु अपने कमरे में नहीं हैं, तो वे अत्यन्त चिन्तित हो उठे। वे दीपक जलाकर उन्हें ढूँढ़ने के लिए इधर - उधर घूमने लगे।
 
श्लोक 62:  कुछ देर ढूँढ़ने के बाद उन्हें श्री चैतन्य महाप्रभु सिंहद्वार से उत्तर की दिशा में एक कोने में लेटे मिले।
 
श्लोक 63:  पहले तो उन्हें देखकर स्वरूप दामोदर गोस्वामी इत्यादि सारे भक्त आनन्दित हो गये, किन्तु जब उन्होंने उनकी दशा देखी, तो वे चिन्तित हो उठे।
 
श्लोक 64:  श्री चैतन्य महाप्रभु अचेत लेटे थे और उनका शरीर लम्बा होकर पाँच - छह हाथ का हो गया था। उनके नथुनों से श्वास नहीं निकल रही थी।
 
श्लोक 65-66:  उनके हाथ तथा पाँव तीन - तीन हाथ लम्बे हो गये थे। उनके अलग - अलग हुए जोड़ों को केवल चमड़ी बाँधे थी। जीवन - सूचक, महाप्रभु का शारीरिक तापमान, अत्यन्त कम था। उनके हाथ, पाँव, गरदन तथा कमर के सारे जोड़ कम से कम छः इंच अलग हो चुके थे।
 
श्लोक 67:  ऐसा प्रतीत होता था मानो उनके लम्बायमान जोड़ों को केवल चमड़ी ढके हुए थी।
 
श्लोक 68:  जब उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के मुँह को लार तथा झाग से भरा तथा आँखों को उलटी हुई देखा, तो वे सभी मृतप्राय हो गये।
 
श्लोक 69:  जब उन्होंने यह सब देखा, तो स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा अन्य सारे भक्त महाप्रभु के कान में जोर - जोर से कृष्ण नाम का उच्चारण करने लगे।
 
श्लोक 70:  जब वे इस तरह देर तक उच्चारण करते रहे, तब कृष्ण का पवित्र नाम श्री चैतन्य महाप्रभु के हृदय में प्रविष्ट हुआ और वे “हरि बोल” की गर्जना करते हुए सहसा उठ गये।
 
श्लोक 71:  जैसे ही महाप्रभु की बाह्य चेतना लौट आई, उनके सारे जोड़ सिकुड़ गये और उनका सारा शरीर सामान्य हो गया।
 
श्लोक 72:  श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी ने इन लीलाओं का विस्तृत वर्णन अपनी पुस्तक ‘गौरांग स्तव कल्पवृक्ष’ में किया है।
 
श्लोक 73:  “कभी - कभी श्री चैतन्य महाप्रभु काशी मिश्र के घर में कृष्ण के वियोग का अनुभव करते हुए अत्यधिक दुःखी होते। उनके दिव्य शरीर के जोड़ ढीले पड जाते और उनके हाथ - पाँव लम्बे हो जाते। भूमि पर लोटते हुए महाप्रभु अवरुद्ध वाणी से व्यथा के कारण विलाप करते और अत्यन्त शोक संतप्त होकर रोते। श्री चैतन्य महाप्रभु का यह दृश्य मेरे हृदय में उदित होकर मुझे उन्मत्त बनाता है।”
 
श्लोक 74:  श्री चैतन्य महाप्रभु अपने आपको सिंहद्वार के सामने पाकर अत्यधिक चकित हुए।
 
श्लोक 75:  स्वरूप दामोदर ने कहा, “हे प्रभु, कृपया उठिये। चलिये, आपके स्थान पर चलें। जो कुछ हुआ है, वहीं मैं आपको सब कुछ बतला दूँगा।”
 
श्लोक 76:  इस तरह सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु को सहारा देते हुए उन्हें उनके घर लौटा ले गये।
 
श्लोक 77:  सिंहद्वार के निकट लेटे हुए अपनी दशा का वर्णन सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यधिक आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने कहा, “मुझे इनमें से किसी भी बात का स्मरण नहीं है।
 
श्लोक 78:  मुझे केवल इतना ही स्मरण है कि मैंने अपने कृष्ण को देखा, किन्तु मात्र एक क्षण के लिए। वे मेरे समक्ष प्रकट हुए और फिर बिजली की तरह तुरन्त अन्तर्धान हो गये।”
 
श्लोक 79:  उसी समय सबों ने जगन्नाथ मन्दिर में शंख बजने की ध्वनि सुनी। श्री चैतन्य महाप्रभु ने तुरन्त स्नान किया और जगन्नाथ जी का दर्शन करने चले गये।
 
श्लोक 80:  इस तरह से मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर के असामान्य विकारों का वर्णन किया है।
 
श्लोक 81:  न तो किसी ने अन्यत्र ऐसे शारीरिक परिवर्तन देखे हैं, न ही शास्त्रों में उनके विषय में किसी ने पढ़ा है। फिर भी परम संन्यासी श्री चैतन्य महाप्रभु ने इन दिव्य लक्षणों को प्रकट किया।
 
श्लोक 82:  इन भावों का शास्त्रों में वर्णन नहीं हुआ है और वे सामान्य लोगों के लिए अचिन्त्य हैं।
 
श्लोक 83:  रघुनाथ दास गोस्वामी लगातार श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ रहते थे। मैंने उनसे जो कुछ सुना है, उसे ही मैं लिख रहा हूँ। यद्यपि सामान्य लोग इन लीलाओं में विश्वास नहीं करते, किन्तु मैं उनमें पूरी तरह से विश्वास करता हूँ।
 
श्लोक 84:  एक दिन जब श्री चैतन्य महाप्रभु समुद्र स्नान करने जा रहे थे, तब उन्होंने सहसा बालू का टीला देखा, जिसका नाम चटक पर्वत था।
 
श्लोक 85:  श्री चैतन्य महाप्रभु को इस बालू के टीले में गोवर्धन पर्वत का भ्रम हो गया और वे उसकी ओर दौड़ने लगे।
 
श्लोक 86:  “(श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा:) ‘समस्त भक्तों में यह गोवर्धन पर्वत सर्वश्रेष्ठ है! हे मित्रों, यह पर्वत कृष्ण तथा बलराम एवं उनके बछड़ों, गायों तथा ग्वाल मित्रों की सभी प्रकार की आवश्यकताओं को पूरा करता है। यह पीने के लिए जल, अत्यन्त कोमल घास, गुफाएँ, फल, फूल तथा वनस्पतियाँ प्रदान करता है। इस तरह यह पर्वत भगवान् को नमस्कार करता है। कृष्ण तथा बलराम के चरणकमलों का स्पर्श पाकर यह अत्यन्त हर्षित प्रतीत होता है।”
 
श्लोक 87:  यह श्लोक का उच्चारण करते हुए महाप्रभु वायु के वेग से उस बालू के टीले की ओर दौड़ने लगे। गोविन्द उनके पीछे - पीछे दौड़ा, किन्तु वह उनके पास नहीं पहुँच सका।
 
श्लोक 88:  पहले एक भक्त जोर से चिल्लाया और फिर जब सारे भक्त उठकर महाप्रभु के पीछे दौड़ने लगे, तो कोलाहल होने लगा।
 
श्लोक 89:  श्री चैतन्य महाप्रभु के पीछे दौड़ने वाले कुछ अन्य भक्तगण थे - स्वरूप दामोदर गोस्वामी, जगदानन्द पण्डित, गदाधर पण्डित, रामाइ, नन्दाइ तथा शंकर पण्डित।
 
श्लोक 90:  परमानन्द पुरी तथा ब्रह्मानन्द भारती भी समुद्रतट की ओर गये और भगवान् आचार्य जो कि लँगड़े थे, उनके पीछे धीरे - धीरे चल रहे थे।
 
श्लोक 91:  श्री चैतन्य महाप्रभु वायु की गति से दौड़ रहे थे, किन्तु सहसा भावावेश में वे स्तम्भित हो गये, जिससे आगे चल पाने की उनकी सारी शक्ति जाती रही।
 
श्लोक 92:  उनका हर रोमकूप फुसियों की तरह फूट पड़ा और उनके शरीर के बाल खड़े हो गये, जो कदम्ब के फूलों जैसे प्रतीत होने लगे।
 
श्लोक 93:  उनके शरीर के हर रोमकूप से रक्त तथा पसीना लगातार बहने लगा। वे एक शब्द भी नहीं बोल सकते थे ; वे अपने गले से केवल घर्राहट का शब्द उत्पन्न कर रहे थे।
 
श्लोक 94:  महाप्रभु की आँखे भर आईं और उनसे अपार अश्रु बहने लगे, मानो गंगा तथा यमुना नदियाँ समुद्र में मिल रही हों।
 
श्लोक 95:  उनका सम्पूर्ण शरीर विवर्ण होकर श्वेत शंख के रंग का हो गया और तब वे काँपने लगे, मानों समुद्र में लहरें उठ रही हों।
 
श्लोक 96:  इस तरह काँपते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु भूमि पर गिर पड़े। तब गोविन्द उनके पास पहुँचा।
 
श्लोक 97:  गोविन्द ने करंग (कमंडल) से महाप्रभु के सारे शरीर पर जल छिड़का और तब उनके ही उत्तरीय से वह श्री चैतन्य महाप्रभु पर पंखा झलने लगा।
 
श्लोक 98:  जब स्वरूप दामोदर तथा अन्य भक्त उस स्थान पर पहुँचे और उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु की अवस्था देखी, तो वे रोने लगे।
 
श्लोक 99:  महाप्रभु के शरीर में आठों प्रकार के दिव्य सात्त्विक विकार दृष्टिगोचर हो रहे थे। ऐसा दृश्य देखकर सारे भक्त आश्चर्यचकित हुए।
 
श्लोक 100:  भक्तों ने श्री चैतन्य महाप्रभु के निकट उच्च स्वर से हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन प्रारम्भ कर दिया और उनके शरीर को शीतल जल से नहलाया।
 
श्लोक 101:  जब भक्तगण देर तक इसी तरह कीर्तन करते रहे, तब श्री चैतन्य महाप्रभु “हरि बोल” कहते हुए सहसा उठ खड़े हुए।
 
श्लोक 102:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु उठ खड़े हुए, तो सारे वैष्णवों ने प्रसन्नतावश उच्च स्वर से “हरि! हरि!” का कीर्तन किया। यह शुभ ध्वनि सभी दिशाओं में भर गई।
 
श्लोक 103:  श्री चैतन्य महाप्रभु विस्मित होकर खड़े हो गये और कुछ देखने के उद्देश्य से इधर - उधर देखने लगे। किन्तु वे उसे न देख पाये।
 
श्लोक 104:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने सारे वैष्णवों को देखा, तो उनकी आंशिक बाह्य चेतना लौट आई और वे स्वरूप दामोदर से बोले।
 
श्लोक 105:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मुझे गोवर्धन पर्वत से यहाँ पर कौन ले आया? मैं तो कृष्ण की लीलाएँ देख रहा था, किन्तु अब मैं उन्हें नहीं देख सकता।
 
श्लोक 106:  “आज मैं यहाँ से गोवर्धन पर्वत पर यह देखने गया था कि क्या कृष्ण वहाँ अपनी गौवें चरा रहे हैं?”
 
श्लोक 107:  “मैंने कृष्ण को गोवर्धन पर्वत पर चढ़ते और चर रही गौवों से घिरे उन्हें अपनी बाँसुरी बजाते देखा।”
 
श्लोक 108:  “कृष्ण की बाँसुरी की ध्वनि सुनकर श्रीमती राधारानी अपनी सारी गोपी - सखियों के साथ उनसे मिलने वहाँ पर आईं। वे सब सुन्दर वस्त्र धारण किये थीं।
 
श्लोक 109:  जब कृष्ण तथा श्रीमती राधारानी एकसाथ गुफा में प्रविष्ट हो गये, तब अन्य गोपियों ने मुझसे कुछ फूल तोड़ने को कहा।
 
श्लोक 110:  “तभी तुम सबों ने कोलाहल किया और मुझे तुम वहाँ से इस स्थान पर ले आये।
 
श्लोक 111:  तुम लोग मुझे व्यर्थ की पीड़ा देकर यहाँ क्यों ले आये? मुझे कृष्ण की लीलाओं का दर्शन करने का अवसर मिला था, किन्तु मैं उन्हें देख न पाया।”
 
श्लोक 112:  यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु रोने लगे। जब समस्त वैष्णवों ने उनकी यह दशा देखी, तो वे भी रोने लगे।
 
श्लोक 113:  उसी समय परमानन्द पुरी तथा ब्रह्मानन्द भारती आये। उन्हें देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु में कुछ - कुछ आदर का भाव जायत हुआ।
 
श्लोक 114:  श्री चैतन्य महाप्रभु की पूर्ण बाह्य चेतना लौट आई और उन्होंने तुरन्त ही उन दोनों की वन्दना की। तब उन दोनों गुरुजनों ने स्नेहपूर्वक महाप्रभु का आलिंगन किया।
 
श्लोक 115:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने पुरी गोस्वामी तथा ब्रह्मानन्द भारती से कहा, आप दोनों इतनी दूर क्यों आये?” पुरी गोस्वामी ने उत्तर दिया, “तुम्हारा नृत्य देखने के लिए।”
 
श्लोक 116:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह सुना, तो वे कुछ लज्जित हुए। तब वे समस्त वैष्णवों के साथ समुद्र - स्नान करने गये।
 
श्लोक 117:  समुद्र - स्नान के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु समस्त भक्तों के साथ अपने घर लौट आये। तब सबों ने जगन्नाथजी को अर्पित किये गये भोजन का शेष ग्रहण किया।
 
श्लोक 118:  इस तरह मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य उन्माद भावों का वर्णन किया है। यहाँ तक कि ब्रह्माजी भी उनके प्रभाव का वर्णन नहीं कर सकते।
 
श्लोक 119:  रघुनाथ दास गोस्वामी ने अपनी पुस्तक ‘गौराङ्ग स्तव कल्पवृक्ष’ में चटक पर्वत नामक बालू के टीले की ओर भागने की श्री चैतन्य महाप्रभु की लीला का अत्यन्त रोचक वर्णन किया है।
 
श्लोक 120:  “जगन्नाथ पुरी के निकट चटक पर्वत नामक एक विशाल बालू का टीला है। इस पर्वत को देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “ओह! मैं गोवर्धन पर्वत देखने के लिए व्रज भूमि जाऊँगा!” तब वे उसकी ओर पागल की तरह दौड़ने लगे और सारे वैष्णव उनके पीछे दौड़े। यह दृश्य मेरे हृदय में उदित होता है और मुझे उन्मत्त बना देता है।”
 
श्लोक 121:  भला ऐसा कौन है, जो श्री चैतन्य महाप्रभु की समस्त असामान्य लीलाओं का सही - सही वर्णन कर सके? ये सब मात्र उनके खेल हैं।
 
श्लोक 122:  मैंने उनकी दिव्य लीलाओं का संकेत करने के उद्देश्य से ही उनका संक्षिप्त वर्णन किया है। तो भी जो कोई उन्हें सुनेगा, वह निश्चित रूप से भगवान् कृष्ण के चरणकमलों की शरण प्राप्त करेगा।
 
श्लोक 123:  श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए तथा उनके चरणचिह्नों पर चलकर, मैं कृष्णदास श्री चैतन्य चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
 
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