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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  अन्त्य लीला  »  अध्याय 17: श्री चैतन्य महाप्रभु के शारीरिक विकार  » 
 
 
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने अमृत प्रवाह भाष्य में इस अध्याय का जो सारांश दिया है, वह इस प्रकार है। श्री चैतन्य महाप्रभु दिव्य भाव में मग्न होने के कारण एक रात को अपने कमरे के दरवाजे को खोले बिना बाहर चले गये। तीन दीवालें लाँघने के बाद वे तैलंग जिले की कुछ गायों के बीच जा गिरे। वहाँ वे कछुए के भाव में अचेत पड़े रहे।
 
 
श्लोक 1:  मैं भगवान् गौरचन्द्र की दिव्य लीलाओं तथा आध्यात्मिक उन्माद के विषय में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ, जो कि अत्यन्त अद्भुत तथा असामान्य हैं। मैं उनके विषय में लिखने का साहस इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि मैंने उनके मुखों से सुना है, जिन्होंने महाप्रभु के कार्यों को स्वयं देखा है।
 
श्लोक 2:  श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैतचन्द्र की जय हो! महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो!
 
श्लोक 3:  भावमग्न श्री चैतन्य महाप्रभु दिन - रात उन्मत्त की तरह कार्य करते और बोलते रहते।
 
श्लोक 4:  एक बार स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा रामानन्द राय के संग में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण लीलाओं के विषय में बातें करते - करते आधी रात बिता दी।
 
श्लोक 5:  जब वे कृष्ण के विषय में बातें करते, तो स्वरूप दामोदर गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य भावों के अनुरूप गीत गाया करते।
 
श्लोक 6:  रामानन्द राय विद्यापति तथा चण्डीदास की पुस्तकों से, और विशेष रूप से जयदेव गोस्वामी कृत ‘गीतगोविन्द’ से श्लोक उद्धृत करते, जो श्री चैतन्य महाप्रभु के भावों को बढ़ावा देते।
 
श्लोक 7:  बीच बीच में श्री चैतन्य महाप्रभु भी कोई श्लोक पढ़ देते। तब वे शोक करते हुए इसकी व्याख्या करते।
 
श्लोक 8:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने नाना प्रकार के भावों का अनुभव करते करते आधी रात बिता दी। अन्त में, महाप्रभु को उनके बिस्तर पर लिटाकर स्वरूप दामोदर तथा रामानन्द राय दोनों अपने अपने घर चले गये।
 
श्लोक 9:  श्री चैतन्य महाप्रभु का निजी सेवक गोविन्द उनके कमरे के दरवाजे पर लेट गया और महाप्रभु रात भर उच्च स्वर से हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करते रहे।
 
श्लोक 10:  सहसा श्री चैतन्य महाप्रभु को कृष्ण की वंशी की ध्वनि सुनाई पड़ी। अतः भावावेश में वे कृष्ण का दर्शन करने के लिए चल पड़े।
 
श्लोक 11:  तीनों दरवाजे हमेशा की तरह बन्द कर दिये गये थे, किन्तु फिर भी अति भावावेश में श्री चैतन्य महाप्रभु कमरे के बाहर निकल आये और घर को छोड़ दिया।
 
श्लोक 12:  वे सिंहद्वार की दक्षिणी ओर की गोशाला में गये और तैलंग जिले की गायों के बीच अचेत होकर गिर पड़े।
 
श्लोक 13:  इस बीच श्री चैतन्य महाप्रभु का कोई शब्द न सुनकर गोविन्द ने तुरन्त स्वरूप दामोदर को बुलाया और दरवाजे खोले।
 
श्लोक 14:  तब स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने दीपक जलाया और वे श्री चैतन्य महाप्रभु को खोजने के लिए सारे भक्तों समेत बाहर चले गये।
 
श्लोक 15:  इधर - उधर ढूँढने के बाद अन्त में वे सब सिंहद्वार के निकट गोशाला में पहुँचे। वहाँ उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु को गायों के बीच अचेत लेटे हुए पाया।
 
श्लोक 16:  उनके हाथ तथा पाँव उनके पेट के भीतर प्रवेश कर गये थे, मानो कछुवे के अंग हों।
 
श्लोक 17:  जब महाप्रभु वहाँ अचेत पड़े थे, तब उनका शरीर एक बड़े कुम्हड़े जैसा लग रहा था।
 
श्लोक 18:  महाप्रभु के चारों ओर सारी गौवें उनके दिव्य शरीर को सँघ रही थीं। जब भक्तों ने उन्हें रोकना चाहा, तो उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य शरीर का संग त्याग करना नहीं चाहा।
 
श्लोक 19:  भक्तों ने नाना प्रकार से महाप्रभु को उठाना चाहा, किन्तु उनकी चेतना लौट नहीं आई।
 
श्लोक 20:  सारे भक्त महाप्रभु के कान में उच्च स्वर से हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करने लगे, तो काफी देर बाद श्री चैतन्य महाप्रभु को फिर से चेतना प्राप्त हुई।
 
श्लोक 21:  जब उन्हें चेतना आई, तब उनके हाथ पाँव उनके शरीर से बाहर निकल आये और उनका सारा शरीर पूर्ववत् हो गया।
 
श्लोक 22:  तब श्री चैतन्य महाप्रभु उठ खड़े हुए और फिर से बैठ गये। इधर - उधर देखकर उन्होंने स्वरूप दामोदर से पूछा, “तुम मुझे कहाँ ले आये हो?
 
श्लोक 23:  “वंशी की ध्वनि सुनकर मैं वृन्दावन चला गया और वहाँ पर मैंने देखा कि महाराज नन्द के पुत्र श्रीकृष्ण गोचौरण भूमि में अपनी वंशी बजा रहे हैं।
 
श्लोक 24:  “अपनी वंशी की ध्वनि के संकेत से वे श्रीमती राधारानी को एक कुंज में ले आये। फिर वे उनके साथ लीला करने के लिए कुंज के भीतर चले गये।
 
श्लोक 25:  “मेरे कान उनके आभूषणों की ध्वनि से मुग्ध हो गये और मैंने कृष्ण के पीछे - पीछे कुंज में प्रवेश किया।
 
श्लोक 26:  मैंने देखा कि कृष्ण तथा गोपियाँ हास - परिहास करते हुए सभी प्रकार की क्रीड़ा का आनन्द ले रहे थे। उनकी कण्ठध्वनि सुनकर मेरे कानों का उल्लास बढ़ गया।
 
श्लोक 27:  “तभी तुम सब कोलाहल करते हुए मुझे बलपूर्वक यहाँ ले आये।
 
श्लोक 28:  चूँकि तुम लोग मुझे यहाँ लौटा ले आये, इसलिए मैं न तो कृष्ण एवं गोपियों की अमृतमयी वाणी सुन पाया, न ही मैं उनके आभूषणों या मुरली की ध्वनि सुन सका।”
 
श्लोक 29:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने अत्यन्त भावावेश में स्वरूप दामोदर से अवरुद्ध वाणी में कहा, “मेरे कान तृष्णा के कारण मर रहे हैं। कृपा करके इस तृष्णा को बुझाने के लिए कुछ सुनाओ और मुझे सुनने दो।”
 
श्लोक 30:  श्री चैतन्य महाप्रभु के ऊर्मिपूर्ण भाव को जानकर स्वरूप दामोदर ने मधुर स्वर में श्रीमद्भागवत से निम्नलिखित श्लोक सुनाया।
 
श्लोक 31:  “(गोपियों ने कहा:) ‘हे कृष्ण, तीनों लोकों में ऐसी कौन स्त्री है, जो आपकी अद्भुत वंशी से निकले मधुर गीतों की लय से मोहित न हो जाय? इस तरह ऐसी कौन होगी, जो सतीत्व के मार्ग से च्युत नहीं हो जायेगी? आपका सौन्दर्य तीनों लोकों में अत्यन्त उत्कृष्ट है। आपकी सुन्दरता को देखकर गौवें, पक्षी, पशु, तथा जंगल के वृक्ष भी हर्ष से स्तम्भित हो जाते हैं। ”
 
श्लोक 32:  यह श्लोक सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु गोपी - भाव से अभिभूत हो गये और उसकी व्याख्या करने लगे।
 
श्लोक 33:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “गोपियाँ भावावेश में रासनृत्य की स्थली में प्रविष्ट हुईं, किन्तु कृष्ण से उपेक्षा तथा उदासीनता के शब्द सुनकर वे समझ गईं कि कृष्ण उनका परित्याग करने वाले हैं। इसलिए वे उन्हें क्रोध में उलाहना देने लगीं।
 
श्लोक 34:  उन्होंने कहा, “हे प्रियतम, जरा हमारे एक प्रश्न का उत्तर तो दो। इस ब्रह्माण्ड में कौन ऐसी तरुणी है, जो आपकी वंशी की ध्वनि से आकृष्ट नहीं होती?
 
श्लोक 35:  “जब आप अपनी वंशी बजाते हो, तब यह ध्वनि मन्त्रोच्चारण - कला में पटु योगिनी के जैसी दूती का सा कार्य करती है। यह दूती ब्रह्माण्ड की सारी स्त्रियों को विमोहित करती है और उन्हें आपकी ओर आकृष्ट करती है। तब वह उनकी उत्कण्ठा को बढ़ाकर अपने से बड़ों की आज्ञा मानने के विधान का परित्याग करवाती है। अन्त में वह उन्हें बलपूर्वक आपके पास माधुर्य - प्रेम में आत्म समर्पण कराने लाती है।
 
श्लोक 36:  “आपकी वंशी की ध्वनि हमें काम के बाणों से बलात् बेधने वाली आपकी चितवन के साथ मिलकर हमें धार्मिक जीवन के विधिविधानों की उपेक्षा करने के लिए प्रेरित करती है। इस तरह हम कामेच्छाओं से उत्तेजित होकर सारी लज्जा तथा भय त्यागकर आपके पास आती हैं। किन्तु अब आप हमसे रूठे हुए हो। आप हमारे द्वारा धार्मिक सिद्धान्तों का उल्लंघन किये जाने से तथा अपने अपने घरों तथा पतियों को छोड़ने पर हममें दोष निकाल रहे हो। जब आप हमें धार्मिक सिद्धान्तों का उपदेश देते हो, तो हम निरुपाय हो जाती हैं।
 
श्लोक 37:  “हम जानती हैं कि यह आपकी सुनियोजित चाल है। आपको ऐसा परिहास करना आता है, जिससे स्त्रियों का सर्वनाश हो जाता है, किन्तु हम समझ सकती हैं कि आपके वास्तविक मन, वचन तथा व्यवहार सर्वथा भिन्न हैं। इसलिए आप कृपया इन चातुर्यपूर्ण चालों को छोड़ दो।
 
श्लोक 38:  “आपकी वंशी की ध्वनि की अमृतमय छाछ, आपके मधुर शब्दों का अमृत तथा आपके आभूषणों की अमृत तुल्य ध्वनि - ये तीनों हमारे कानों, मनों तथा प्राणों को आकृष्ट करने के लिए मिल जाते हैं। इस तरह आप हमें मार डाल रहे हो।”
 
श्लोक 39:  चूँकि श्री चैतन्य महाप्रभु प्रेम की तरंगों में तैर रहे थे, अतः उन्होंने ये शब्द रोष की मुद्रा में कहे। उत्कण्ठा के सागर में डूबकर उन्होंने उसी भाव को व्यक्त करने वाला श्रीमती राधारानी द्वारा कहा हुआ श्लोक सुनाया। तब उन्होंने स्वयं इस श्लोक की व्याख्या की और कृष्ण की मधुरता का आस्वादन किया।
 
श्लोक 40:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “हे सखी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण की वाणी आकाश में गर्जन करने वाले बादल के समान गम्भीर है। वे अपने आभूषणों की रुनझुन से गोपियों के कानों को और अपनी वंशी की ध्वनि से लक्ष्मी देवी तक को तथा अन्य सुन्दरियों को आकृष्ट करते हैं। मदनमोहन नाम से विख्यात वे भगवान्, जिनके परिहास के वचन अनेक संकेत तथा गम्भीर अर्थ रखते हैं, मेरे कानों की कामेच्छाओं को वर्धित कर रहे हैं। ”
 
श्लोक 41:  “कृष्ण की गम्भीर वाणी नवीन उमड़े बादलों से भी अधिक गर्जन करने वाली है और उनका मधुर गीत कोयल की मधुर वाणी को भी पराजित करने वाला है। निस्सन्देह, उनका गीत इतना मधुर है कि उसकी ध्वनि का एक कण भी सारे जगत् को आप्लावित कर सकता है। यदि ऐसा कण किसी के कान में प्रवेश करता है, तो वह तुरन्त ही समस्त अन्य प्रकार के श्रवण से विहीन हो जाता है।
 
श्लोक 42:  “हे सखी, मुझे बताओ कि मैं क्या करूँ। मेरे कानों को कृष्ण की ध्वनि के गुणों ने लूट लिया है। किन्तु अब मैं यह दिव्य ध्वनि नहीं सुन पा रही और मैं उसके बिना मृतप्राय हूँ।
 
श्लोक 43:  “कृष्ण के नूपुरों की ध्वनि हंस तथा सारस के गीतों का भी अतिक्रमण कर जाती है और उनके कंगनों की ध्वनि चटक पक्षी के गाने को भी लञा देती है। यदि एक बार भी इन ध्वनियों को कानों में प्रविष्ट होने दिया जाय, तो फिर अन्य कुछ भी सुनना सहन नहीं हो सकता।
 
श्लोक 44:  “कृष्ण की वाणी अमृत से भी कहीं अधिक मीठी होती है। उनका प्रत्येक हर्षित शब्द अर्थपूर्ण होता है और जब उनकी वाणी उनकी कपूर जैसी हँसी से मिल जाती है, तो इस तरह से कृष्ण के शब्दों से उत्पन्न ध्वनि तथा उसका गम्भीर अर्थ विविध दिव्य रसों को उत्पन्न करते हैं।
 
श्लोक 45:  “उस दिव्य आनन्दमय अमृत का एक कण कान का प्राण है, जो चकोर पक्षी की तरह उस अमृत का आस्वादन करने की आशा में जीवित रहता है। भाग्यवश यह पक्षी कभी तो उसका आस्वादन कर सकता है, किन्तु कभी - कभी दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं कर पाता, इसलिए वह तृष्णा से मरणासन्न हो जाता है।
 
श्लोक 46:  कृष्ण की वंशी की दिव्य ध्वनि विश्वभर की स्त्रियों के हृदयों को विचलित करती है, चाहे वे उसे एक बार ही क्यों न सुनें। इस तरह उनके कमरबन्ध ढीले पड़ जाते हैं और ये स्त्रियाँ कृष्ण की निशुल्क दासियाँ बन जाती हैं। निस्सन्देह, वे बावली स्त्रियों की तरह कृष्ण की ओर दौड़ती हैं।
 
श्लोक 47:  “कृष्ण की वंशी की ध्वनि सुनकर लक्ष्मीजी भी उनकी संगति की बहुत बड़ी आशा बाँधकर उनके पास आती हैं, किन्तु तो भी उन्हें वह संगति नहीं मिल पाती। जब उनकी संगति की तृष्णा की लहरें बढ़ती हैं, तो लक्ष्मीजी तपस्या करती हैं, किन्तु तो भी वे उनको नहीं मिल पातीं।
 
श्लोक 48:  जो अत्यन्त भाग्यवान है, वही इन अमृत तुल्य चार प्रकार के शब्दों को सुन सकता है - कृष्ण के शब्द, उनकी नुपूरों तथा कंगनों की रुनझुन, उनकी वाणी तथा उनकी वंशी की ध्वनि। यदि वह इन ध्वनियों को नहीं सुन सकता, तो उसके कान छोटे शंख के छेद के समान व्यर्थ हैं।”
 
श्लोक 49:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु इस तरह विलाप कर रहे थे, तो उनके मन में उद्वेग तथा भाव का उदय हुआ, जिससे वे अति चंचल हो उठे। उनमें अनेक दिव्य भावों का मिश्रण हो रहा था यथा उद्वेग, विषाद, मति, उत्सुकता, त्रास, धृति तथा स्मृति इत्यादि।
 
श्लोक 50:  इन भावों के समन्वय से बिल्वमंगल ठाकुर (लीला शुक) के मन में श्रीमती राधारानी के एक कथन का उदय हुआ। अब श्री चैतन्य महाप्रभु ने उसी भाव में उस श्लोक को सुनाया और उन्माद के बल पर उन्होंने उसका अर्थ बतलाया, जो सामान्य लोगों को ज्ञात नहीं है।
 
श्लोक 51:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “हाय, मैं क्या करूँ? मैं किससे कहूँ? मैंने कृष्ण से मिलने की आशा में जो कुछ किया है, उसे अब समाप्त हो जाने दो। कृपया अब कोई शुभ बात कहो, किन्तु कृष्ण के विषय में मत कहो। हाय, कृष्ण तो मेरे हृदय में कामदेव की तरह पड़े हुए हैं, तो फिर मैं उनके विषय में बातें करना कैसे बन्द कर दें? मैं कृष्ण को भूल नहीं सकती, जिनकी हँसी स्वयं मधुरता से भी अधिक मधुर है और जो मेरे मन तथा आँखों को आनन्द देने वाले हैं। हाय, कृष्ण के लिए मेरी अगाध तृष्णा प्रति क्षण बढ़ती जा रही है!”
 
श्लोक 52:  “कृष्ण के विरह से उत्पन्न चिन्ता ने मुझे अधीर बना दिया है और मैं उनसे मिलने का कोई उपाय नहीं सोच पा रही। हे सखियों, तुम भी विषाद से बावली हो रही हो। अतएव अब मुझे कौन बतायेगा कि उन्हें कैसे खोजा जाय?
 
श्लोक 53:  हे प्रिय सखियों, मैं कृष्ण को कैसे पा सकेंगी? मैं क्या करूँ? मैं कहाँ जाऊँ? मैं उनसे कहाँ मिल सकती हूँ? कृष्ण के न मिलने से मेरे प्राण निकल रहे हैं।”
 
श्लोक 54:  एकाएक श्री चैतन्य महाप्रभु शान्त हो गये और अपनी मनोदशा पर विचार करने लगे। उन्हें पिंगला के शब्द स्मरण हो आये और इससे उनके मन में भावावेश का उदय हुआ, जिसने उन्हें बोलने के लिए प्रेरित किया। इस तरह वे इस श्लोक का अर्थ बतलाने लगे।
 
श्लोक 55:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “यदि मैं कृष्ण से मिलने की आशा त्याग दें, तो मैं सुखी रहूँगा। इसलिए हम कृष्ण विषयक इस अति महिमाहीन चर्चा को बन्द करें। अच्छा हो कि हम महिमामण्डित कथाओं के विषय में बातें करें और कृष्ण को भूल जायें।”
 
श्लोक 56:  इस तरह बोलते हुए श्रीमती राधारानी को सहसा कृष्ण का स्मरण हो आया। निस्सन्देह, वे उनके हृदय के भीतर प्रकट हुए। अत्यन्त चकित होकर उन्होंने अपनी सखियों से कहा, “मैं जिस पुरुष को भूलना चाहती हूँ, वह तो मेरे हृदय में स्थित है।”
 
श्लोक 57:  श्रीमती राधारानी के भाव ने उन्हें यह सोचने के लिए भी बाध्य किया कि कृष्ण कामदेव हैं और इस ज्ञान से वे भयभीत हो उठीं। उन्होंने कहा, “यह कामदेव, जिसने सारे जगत् को जीतकर मेरे हृदय में प्रवेश किया है, मेरा सबसे बड़ा शत्रु है, क्योंकि वह मुझे उन्हें भूलने की अनुमति नहीं देता।”
 
श्लोक 58:  “तब महान् उत्सुकता ने भाव के अन्य सारे सैनिकों को जीत लिया और श्रीमती राधारानी के मनोराज्य में ऐसी इच्छा उत्पन्न हुई, जो वश में नहीं आ रही थी। तब अत्यन्त दुःखी होकर, उन्होंने अपने ही मन की भर्त्सना की।
 
श्लोक 59:  “यदि मैं कृष्ण के विषय में न सोचूं, तो मेरा दीन मन क्षणभर में मर जायेगा, जिस तरह जल के बाहर आने पर मछली मर जाती है। किन्तु जब मैं कृष्ण के मधुर हास्ययुक्त मुख को देखती हूँ, तो मेरा मन तथा मेरी आँखें इतनी प्रसन्न हो जाती हैं कि उनके देखने के लिए मेरी इच्छा पुनः द्विगुणित हो जाती है।
 
श्लोक 60:  “हाय! मेरे जीवन की निधि कृष्ण कहाँ हैं? वे कमलनेत्र कहाँ हैं? हाय! वे समस्त दिव्य गुणों के दिव्य सागर कहाँ हैं? हाय! वे सुन्दर साँवले रंग वाले और पीताम्बर धारण किये हुए युवक कहाँ हैं? हाय! रासनृत्य के नायक कहाँ हैं?
 
श्लोक 61:  “मैं कहाँ जाऊँ? मैं आपको कहाँ पा सकता हूँ? कृपया मुझे बताओ। मैं वहीं जाऊँगा।” इस तरह कहते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु दौड़ने लगे। किन्तु स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने खड़े होकर उन्हें पकड़ लिया और अपनी गोद में उठा लिया। तब स्वरूप दामोदर उन्हें उनके स्थान पर लौटा ले आये और उन्हें बैठा दिया।
 
श्लोक 62:  सहसा श्री चैतन्य महाप्रभु की बाह्यचेतना जायत हुई और उन्होंने स्वरूप दामोदर गोस्वामी से कहा, “हे प्रिय स्वरूप, कोई मधुर गीत गाओ।” जब महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर को गीत गोविन्द के तथा विद्यापति रचित गीत गाते सुना, तो उनके कर्ण तृप्त हो गये।
 
श्लोक 63:  श्री चैतन्य महाप्रभु इसी तरह प्रत्येक रात और दिन उन्मत्त हो उठते और एक पागल की तरह बातें करते।
 
श्लोक 64:  श्री चैतन्य महाप्रभु को एक दिन में जितने भाव - विकारों का अनुभव होता, उसका पूरा पूरा वर्णन हजार मुखों वाले अनन्तदेव भी नहीं कर सकते।
 
श्लोक 65:  मुझ जैसा दीन प्राणी उन विकारों का वर्णन कैसे कर सकता है? मैं तो केवल उनका संकेत कर सकता हूँ, जिस तरह वृक्ष की शाखाओं के बीच से चन्द्रमा को दिखलाया जा रहा हो।
 
श्लोक 66:  किन्तु यह वर्णन उस व्यक्ति के मन तथा कानों को तुष्ट करेगा, जो इसे सुनेगा और वह कृष्ण के गहन प्रेम के इन असामान्य कार्यकलापों को समझ सकेगा।
 
श्लोक 67:  कृष्ण के लिए प्रेमावेश अद्भुत तथा निगूढ़ है। उस प्रेम के महिमामय माधुर्य का स्वयं आस्वादन करके श्री चैतन्य महाप्रभु ने हमें इसकी चरम सीमा दिखलाई है।
 
श्लोक 68:  श्री चैतन्य महाप्रभु अद्भुत कृपालु एवं अद्भुत वदान्य हैं। हमने इस जगत् में उन जैसे दयालु तथा दानी अन्य किसी के बारे में नहीं सुना है।
 
श्लोक 69:  हे संसार के लोगों, श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की सभी प्रकार से पूजा करो।
 
श्लोक 70:  इस तरह मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु के कूर्म जैसे बनने के विकार का वर्णन किया है। उस भाव में वे उन्मत्त की तरह बातें और कार्य करते थे।
 
श्लोक 71:  श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी ने अपनी पुस्तक ‘गौराङ्गस्तव कल्पवृक्ष’ में इस लीला का भलीभाँति वर्णन किया है।
 
श्लोक 72:  “कितनी विचित्र बात है! श्री चैतन्य महाप्रभु ने तीन सुदृढ़तापूर्वक बन्द किए हुए दरवाजों को बिना खोले ही अपना घर छोड़ दिया। तब उन्होंने तीन ऊँची दीवालें लाँधीं और बाद में वे कृष्ण - विरह की प्रबल अनुभूति के कारण तैलंग जिले की गौवों के बीच में गिर गये और अपने शरीर के सारे अंगों को कछुवे की तरह भीतर समेट लिया। इस तरह प्रकट होने वाले श्री चैतन्य महाप्रभु मेरे हृदय में उदित होकर मुझे उन्मत्त बनाते हैं।”
 
श्लोक 73:  श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए तथा उनके चरणचिह्नों पर चलकर मैं कृष्णदास श्री चैतन्य - चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
 
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