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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  अन्त्य लीला  »  अध्याय 18: महाप्रभु का समुद्र से बचाव  » 
 
 
 
 
अपने अमृत-प्रवाह-भाष्य में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अठारहवें अध्याय का सांराश इस प्रकार दिया है। शरदऋतु में पूर्णमासी सन्ध्या में श्री चैतन्य महाप्रभु आइटोटा मन्दिर के पास समुद्र तट पर भ्रमण कर रहे थे। समुद्र को यमुना नदी समझकर वे कृष्ण तथा श्रीमती राधारानी तथा अन्य गोपियों की जललीला देखने के उद्देश्य से उसमें कूद पड़े। समुद्र में तैरते हुए वे कोणार्क मन्दिर तक बह गये , जहाँ एक मछुआरे ने उन्हें बड़ी मछली समझकर अपने जाल में पकड़ लिया और उन्हें समुद्र के तट पर ले आया। श्री चैतन्य महाप्रभु अचेत थे और उनका शरीर अत्यधिक परिवर्तित हो चुका था। उस मछुआरे ने ज्योंही महाप्रभु के शरीर का स्पर्श किया, त्योंही वह कृष्ण-प्रेम में उन्मत्त हो उठा। किन्तु उसे अपनी उन्मत्तता से भय लगा , क्योंकि उसने सोचा कि उसे कोई भूत-प्रेत लग गया है। जब वह भूत-प्रेत झाड़ने वाले को ढूँढ़ने जाने वाला था , तो उसे स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा अन्य भक्त समुद्र तट पर मिले, जो महाप्रभु की सर्वत्र खोज कर रहे थे। कुछ पूछताछ के बाद स्वरूप दामोद र समझ गये कि मछुआरे ने अपने जाल में श्री चैतन्य महाप्रभु को ही पकड़ा है। चूंकि मछुआरे को डर था कि उसे भूत-प्रेत सता रहा है, अतएव स्वरूप दामोदर ने उसको एक चपत लगाई और हरे कृष्ण का उच्चारण किया, जिससे वह तुरन्त शान्त हो गया। तत्पश्चात् जब भक्तों ने उच्च स्वर से हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन किया , तो श्री चैतन्य महाप्रभु की बाह्य चेतना जायत हुई। तब वे उन्हें उनके घर ले आये।
 
 
श्लोक 1:  शरद की चाँदनी रात में समुद्र देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु को उसमें यमुना नदी का भ्रम हो गया। कृष्ण विरह से अत्यन्त पीड़ित होने के कारण वे दौड़कर समुद्र में कूद गये और सम्पूर्ण रात्रि जल में अचेतन पड़े रहे। प्रातःकाल उनके आत्मीय भक्तों ने उन्हें पाया। ऐसे शची माता के पुत्र श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी दिव्य लीलाओं से हमारी रक्षा करें।
 
श्लोक 2:  श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो! तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो!
 
श्लोक 3:  इस तरह जगन्नाथपुरी में रहते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु रात - दिन कृष्ण के विरह रूपी समुद्र में तैरते रहे।
 
श्लोक 4:  शरद ऋतु की रात में जब पूर्ण चन्द्रमा हर वस्तु को प्रकाशमान कर रहा था, तब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भक्तों के साथ रात भर भ्रमण करते रहे।
 
श्लोक 5:  वे भगवान् कृष्ण की लीलाएँ देखते तथा रासलीला विषयक गीतों तथा श्लोकों को सुनते - सुनाते एक बगीचे से दूसरे बगीचे में भ्रमण करते रहे।
 
श्लोक 6:  वे प्रेमावेश में नाचते गाते रहे और कभी - कभी भावावेश में रासनृत्य का अनुकरण करते रहे।
 
श्लोक 7:  वे भावोन्माद में कभी इधर - उधर दौड़ते और कभी भूमि पर गिरकर लुढ़कने लगते।
 
श्लोक 8:  जब वे स्वरूप दामोदर को रासलीला से सम्बन्धित कोई श्लोक पढ़ते सुनते या स्वयं कोई श्लोक सुनाते, तब वे स्वयं उसकी व्याख्या करते, जैसाकि वे पहले कर चुके थे।
 
श्लोक 9:  इस तरह उन्होंने रासलीला से सम्बन्धित सारे श्लोकों का अर्थ बतलाया। कभी - कभी वे अत्यन्त खिन्न हो जाते, तो कभी अत्यन्त हर्षित हो जाते।
 
श्लोक 10:  उन सारे श्लोकों की तथा महाप्रभु के शरीर में हुए समस्त विकारों की पूर्ण व्याख्या करने के लिए बहुत बड़े ग्रन्थ की आवश्यकता होगी।
 
श्लोक 11:  कहीं इस ग्रन्थ का आकार न बढ़ जाय, इस भय से मैंने महाप्रभु की सारी लीलाओं के विषय में नहीं लिखा, क्योंकि वे बारह वर्षों तक प्रतिदिन प्रति क्षण इन लीलाओं को सम्पन्न करते रहे।
 
श्लोक 12:  जैसा मैं पहले इंगित कर चुका हूँ, मैं महाप्रभु के प्रलापों तथा शारीरिक विकारों का संक्षिप्त वर्णन ही कर रहा हूँ।
 
श्लोक 13:  यदि अपने एक हजार फनों से अनन्त देव श्री चैतन्य महाप्रभु की एक दिन की ही लीलाओं का वर्णन करना चाहें, तो उनके लिए इनका पूरी तरह से वर्णन कर पाना असम्भव होगा।
 
श्लोक 14:  यदि शिव के पुत्र तथा देवताओं के पटु लिपिक गणेश जी, महाप्रभु की एक दिन की लीलाओं का पूरी तरह से वर्णन करने का प्रयास करोड़ों युगों तक करें, तो भी वे उनकी सीमा नहीं पा सकेंगे।
 
श्लोक 15:  भगवान् कृष्ण तक अपने भक्तों के भाव विकारों को देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं। यदि स्वयं कृष्ण ऐसे भावों की सीमाओं का अनुमान नहीं लगा सकते, तो अन्य लोग कैसे लगा सकेंगे?
 
श्लोक 16-17:  स्वयं कृष्ण भी अपने भक्तों की दशा, प्रगति, सुख तथा दुःख एवं प्रेमभावों को पूरी तरह नहीं समझ पाते। इसलिए वे इन भावों का पूर्ण आस्वादन करने हेतु भक्त की भूमिका अंगीकार करते हैं।
 
श्लोक 18:  कृष्ण का प्रेम कृष्ण तथा उनके भक्तों को नचाता है और स्वयं भी नाचता है। इस तरह तीनों ही एक साथ एक स्थान में नाचते हैं।
 
श्लोक 19:  जो व्यक्ति कृष्ण के प्रेम - विकारों का वर्णन करना चाहता है, वह उस बौने के समान है, जो आकाश में स्थित चन्द्रमा को पकड़ने का प्रयास करता है।
 
श्लोक 20:  जिस तरह वायु समुद्र के जल की एक बूंद को ही उड़ा ले जा सकती है, उसी तरह जीव कृष्ण के प्रेम रूपी सागर के केवल एक कण का ही स्पर्श कर सकता है।
 
श्लोक 21:  प्रेम के उस सागर में क्षण प्रति क्षण अनन्त लहरें उठती हैं। भला एक तुच्छ जीव किस तरह उनकी सीमाओं का अनुमान लगा सकता है?
 
श्लोक 22:  स्वरूप दामोदर गोस्वामी जैसे व्यक्ति ही पूरी तरह जान सकते हैं कि श्री चैतन्य महाप्रभु अपने कृष्ण - प्रेम में क्या आस्वादन करते हैं।
 
श्लोक 23:  जब कोई सामान्य जीव श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का वर्णन करता है, तब वह स्वयं उस महासागर की एक बूंद का स्पर्श करके अपने आपको पवित्र बनाता है।
 
श्लोक 24:  इस तरह रासलीला विषयक सारे के सारे श्लोक सुनाये गये। तब अन्त में जल - क्रीड़ा विषयक लीला का श्लोक सुनाया गया।
 
श्लोक 25:  “जिस तरह हाथियों का स्वतन्त्र प्रमुख अपनी हथिनियों के साथ जल में प्रवेश करता है, उसी तरह वैदिक नैतिकता के सिद्धान्तों से परे कृष्ण ने गोपियों समेत यमुना में प्रवेश किया। उनका वक्षस्थल गोपियों के उरोजों के संपर्क में आने के कारण उनके गले की माला मर्दित हो गई थी और वह लाल कुंकुम चूर्ण से रँग गई थी। उस माला की सुगन्ध से आकृष्ट होकर भौंरे कृष्ण का पीछा करने लगे मानों गन्धर्व लोक के दैवी जीव हों। इस तरह भगवान् कृष्ण ने रासलीला की थकान को दूर किया।”
 
श्लोक 26:  इस तरह आइटोटा मन्दिर के निकट भ्रमण करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने सहसा समुद्र देखा।
 
श्लोक 27:  चन्द्रमा के उज्वल प्रकाश से चमकती समुद्र की ऊँची - ऊँची लहरें यमुना नदी के जल जैसी झलमल कर रही थीं।
 
श्लोक 28:  समुद्र को यमुना नदी समझकर महाप्रभु तेजी से दौड़े और अन्यों के देखे बिना जल में कूद पड़े।
 
श्लोक 29:  समुद्र में गिरते ही उनकी चेतना चली गई और वे यह न समझ सके कि वे कहाँ हैं। वे कभी लहरों के नीचे डूब जाते और कभी उनके ऊपर तैरते रहते।
 
श्लोक 30:  लहरें उन्हें इधर - उधर बहा ले गईं मानो कोई सुखे काठ का लट्ठा हो। श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा किये जाने वाले इस नाटकीय प्रदर्शन को कौन समझ सकता है?
 
श्लोक 31:  लहरें कभी महाप्रभु को डुबो देतीं और कभी ऊपर तैराये रखतीं। इस तरह वे उन्हें कोणार्क मन्दिर की ओर बहा ले गईं।
 
श्लोक 32:  भगवान् कृष्ण ने गोपियों के साथ यमुना के जल में जो लीलाएँ की थीं, श्री चैतन्य महाप्रभु उन्हीं लीलाओं में पूरी तरह निमग्न थे।
 
श्लोक 33:  इस बीच स्वरूप दामोदर इत्यादि सारे भक्तों ने जब श्री चैतन्य महाप्रभु को नहीं देखा, तो वे सभी चकित होकर यह पूछते हुए उनको खोजने लगे कि, “महाप्रभु कहाँ चले गये?”
 
श्लोक 34:  श्री चैतन्य महाप्रभु मन के वेग से भागे थे। कोई उन्हें नहीं देख सका। अतः वे कहाँ थे उसके विषय में सारे लोग संशय में थे।
 
श्लोक 35:  “क्या महाप्रभु जगन्नाथजी के मन्दिर गये हैं या वे उन्मत्ततावश किसी उद्यान में गिर पड़े हैं?
 
श्लोक 36:  “हो सकता है कि वे गुण्डिचा मन्दिर गये हैं या नरेन्द्र सरोवर अथवा चटक पर्वत गये हैं।
 
श्लोक 37:  इस तरह बातें करते हुए भक्त जन महाप्रभु को खोजने के लिए इधर - उधर घूमने लगे। अन्त में वे अन्य अनेक लोगों समेत समुद्र के किनारे आये।
 
श्लोक 38:  इस तरह महाप्रभु की खोज करते हुए रात बीत गई। अतः उन्होंने निश्चय किया, “अब श्री चैतन्य महाप्रभु अन्तर्धान हो गये हैं।”
 
श्लोक 39:  महाप्रभु के वियोग में सबों को ऐसा लग रहा था मानो उनके प्राण निकल चुके हों। सभी भक्तों ने यह निष्कर्ष निकाला कि अवश्य ही कोई दुर्घटना घटी है। इसके अतिरिक्त वे और कुछ नहीं सोच पाये।
 
श्लोक 40:  “कोई सम्बन्धी या घनिष्ठ मित्र अपने प्रिय के अनिष्ट के प्रति सदैव भयभीत रहता है।”
 
श्लोक 41:  जब वे समुद्र के किनारे आये, तो उन्होंने परस्पर विचार - विमर्श किया। तब उनमें से कुछ लोग श्री चैतन्य महाप्रभु को ढूँढ़ने चटक पर्वत गये।
 
श्लोक 42:  स्वरूप दामोदर अन्यों के साथ महाप्रभु को समुद्र के किनारे अथवा जल में ढूंढते हुए पूर्व की ओर बढ़े।
 
श्लोक 43:  सारे लोग खिन्नता से विह्वल थे और लगभग अचेत जैसे हो गये थे, किन्तु प्रेमवश वे सभी महाप्रभु को खोजने के लिए इधर - उधर घूमते रहे।
 
श्लोक 44:  समुद्र तट से होकर जाते हुए सबों ने एक मछुआरे को आते देखा, जो अपने कन्धे पर अपना जाल लिये था। वह हँसता, रोता, नाचता तथा गाता “हरि, हरि” का उच्चारण किये जा रहा था।
 
श्लोक 45:  मछुआरे के कार्यकलाप को देखकर सारे लोग आश्चर्यचकित हो गये। इसलिए स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने उससे समाचार पूछा।
 
श्लोक 46:  उन्होंने कहा, “हे मछुआरे, तुम ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हो? क्या तुमने इधर किसी व्यक्ति को देखा है? तुम्हारे इस व्यवहार का क्या कारण है? कृपा करके हमसे कहो।”
 
श्लोक 47:  मछुआरे ने उत्तर दिया, “मैंने यहाँ एक भी व्यक्ति को नहीं देखा, किन्तु जल में अपना जाल डालते समय मैंने एक शव को पकड़ा है।
 
श्लोक 48:  “मैंने यह सोचकर कि कोई बड़ी मछली है उसे बड़ी सावधानी से उठाया, किन्तु ज्योंहीं मैंने देखा कि यह एक शव है, तो मेरे मन में अति भय व्याप्त हो गया।
 
श्लोक 49:  “जब मैं जाल छुड़ाने का प्रयास कर रहा था, तब मैंने उस शरीर का स्पर्श किया और ज्योंही मैंने उसे स्पर्श किया, एक भूत मेरे हृदय में प्रविष्ट हो गया।
 
श्लोक 50:  “मैं भय से काँप उठा और मेरी आँखों से आंसू बहने लगे, मेरी वाणी अवरुद्ध होने लगी और मेरे शरीर के सारे रोम खड़े हो गये।
 
श्लोक 51:  “मैं नहीं जानता कि वह शव किसी मृत ब्राह्मण का भूत था या किसी सामान्य व्यक्ति का, किन्तु ज्योंही कोई इसे देखता है, तो यह उसके शरीर में प्रवेश कर जाता है।
 
श्लोक 52:  “इस भूत का शरीर बहुत लम्बा, पाँच - सात हाथ तक है। उसकी भुजाएँ तथा टाँगें तीन - तीन हाथ लम्बी हैं।
 
श्लोक 53:  “चमड़ी के नीचे के इसके सारे के सारे हड्डियों के जोड़ अलग - अलग हो गये हैं और पूरी तरह से ढीले हो चुके हैं। कोई इसे देख नहीं सकता, न उसे देखने पर कोई जीवित रह सकता है।
 
श्लोक 54:  “उस भूत ने शव का रूप धारण कर लिया है, किन्तु उसकी आँखे खुली हुई हैं। कभी वह गोंगों का शब्द करता है और कभी अचेत पड़ा रहता है।
 
श्लोक 55:  “मैंने उस भूत को प्रत्यक्ष देखा है और वह मेरे चारों ओर घूम रहा है। किन्तु यदि मैं मर जाऊँ, तो मेरी पत्नी तथा बच्चों की देखभाल कौन करेगा?
 
श्लोक 56:  “उस भूत के बारे में कुछ कह पाना सचमुच बहुत कठिन है, किन्तु मैं कोई ओझा को ढूंढने जा रहा हूँ और मैं उससे पूछूगा कि क्या वह मुझे इससे छुटकारा दिला सकता है?
 
श्लोक 57:  “मैं रात में एकान्त स्थानों में मछली मारता फिरता हूँ ; फिर भी भूत प्रेत मुझे नहीं छू पाते, क्योंकि मैं नृसिंह देव की स्तुति का स्मरण करता हूँ।
 
श्लोक 58:  “किन्तु यह भूत मेरे द्वारा नृसिंह मन्त्र का उच्चारण करने पर दूनी शक्ति से मुझे पछाड़ देता है। इस भूत को देखते ही मेरे मन में अत्यधिक भय उठने लगता है।
 
श्लोक 59:  “आप वहाँ मत जायें। मैं आपको मना करता हूँ। यदि आप जायेंगे, तो वह भूत आप सबको पकड़ लेगा।”
 
श्लोक 60:  यह सुनकर स्वरूप दामोदर इस बात की पूरी हकीकत समझ गये। वे उस मछुआरे से मधुर वाणी में बोले।
 
श्लोक 61:  उन्होंने कहा, “मैं एक प्रसिद्ध ओझा हूँ और मैं जानता हूँ कि तुम्हें इस भूत से कैसे छुड़ाना होगा।” तब उन्होंने कुछ मन्त्र पढ़े और मछुआरे के सिर पर अपना हाथ रखा।
 
श्लोक 62:  उन्होंने उस मछुआरे को तीन थप्पड़ लगाये और कहा, “अब भूत भाग गया है। डरो मत।” यह कहकर उन्होंने मछुआरे को सान्त्वना दी।
 
श्लोक 63:  मछुआरा उन्मत प्रेम से प्रभावित था, किन्तु भयभीत भी था। इस तरह वह दुगुना चंचल हो गया था। किन्तु अब उसका भय शमित हो चुका था और वह कुछ सामान्य हो गया था।
 
श्लोक 64:  स्वरूप दामोदर ने मछुआरे से कहा, “हे महाशय, जिसे तुम भूत मान रहे हो वह वास्तव में भूत नहीं, अपितु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं।
 
श्लोक 65:  प्रेमावेश के कारण महाप्रभु समुद्र में गिर पड़े और तुमने उन्हें अपने जाल में पकड़कर उनकी रक्षा की है।
 
श्लोक 66:  “उनके स्पर्श मात्र से तुम्हारा सुप्त कृष्ण - प्रेम जाग उठा है, किन्तु तुमने उन्हें भूत मान लिया था, इसीलिए तुम उनसे इतना अधिक डरे हुए थे।
 
श्लोक 67:  “अब चूंकि तुम्हारा भय जा चुका है और तुम्हारा मन शान्त है, अतएव मुझे दिखलाओ कि वे कहाँ हैं?”
 
श्लोक 68:  मछुआरे ने उत्तर दिया, “मैंने महाप्रभु को कई बार देखा है, किन्तु वे यह नहीं हैं। यह शरीर तो अत्यन्त विकृत है।”
 
श्लोक 69:  स्वरूप दामोदर ने कहा, “महाप्रभु का शरीर ईश्वर - प्रेम के कारण विकृत हो जाता है।
 
श्लोक 70:  यह सुनकर मछुआरा अत्यधिक प्रसन्न हुआ। उसने अपने साथ सारे भक्तों को ले जाकर उन्हें श्री चैतन्य महाप्रभु का स्थान दिखलाया।
 
श्लोक 71:  महाप्रभु भूमि पर लेटे थे। उनका शरीर लम्बा तथा जल से सफेद रंग का हो गया था। वे सिर से पाँव तक बालू से सने थे।
 
श्लोक 72:  महाप्रभु का शरीर लम्बा हो गया था और उनकी चमड़ी ढीली होकर लटक रही थी।
 
श्लोक 73:  भक्तों ने उनका गीला कौपीन हटाया और उसके स्थान पर सूखा कौपीन पहनाया। तब उन्होंने महाप्रभु को उत्तरीय वस्त्र पर लिटाकर उनके शरीर की बालू हटाई।
 
श्लोक 74:  उन सबों ने महाप्रभु के कान में कृष्ण का उच्च स्वर से पवित्र नाम लेकर संकीर्तन किया।
 
श्लोक 75:  कुछ समय के बाद महाप्रभु के कान में पवित्र नाम की ध्वनि प्रविष्ट हुई, तो वे उच्च हुंकार करते हुए तुरन्त उठ खड़े हुए।
 
श्लोक 76:  उनके उठते ही उनकी हड्डियाँ अपने सही स्थानों पर आ गईं। महाप्रभु ने आर्ध बाह्य चेतना से इधर - उधर देखा।
 
श्लोक 77:  महाप्रभु सभी समय चेतना की तीन दशाओं - अन्तः, बहिः तथा अर्धबाह्य दशाओं में से किसी एक में रहते थे।
 
श्लोक 78:  जब महाप्रभु अन्तःचेतना में गम्भीरता से मग्न रहते हुए भी कुछ बाह्य चेतना प्रदर्शित करते थे, तो भक्त उनकी इस दशा को अर्धबाह्य कहते थे।
 
श्लोक 79:  इस अर्धबाह्य चेतना में श्री चैतन्य महाप्रभु उन्मत्त की तरह बातें करते थे। भक्तगण उन्हें आकाश से बातें करते स्पष्ट रूप से देख सकते थे।
 
श्लोक 80:  उन्होंने कहा, “यमुना नदी को देखकर मैं वृन्दावन चला गया। वहाँ मैंने नन्द महाराज के पुत्र को जल में क्रीड़ा करते देखा।
 
श्लोक 81:  “भगवान् कृष्ण श्रीमती राधारानी इत्यादि गोपियों के साथ यमुना के जल में थे। वे अत्यन्त क्रीड़ामय ढंग से लीलाएँ कर रहे थे।
 
श्लोक 82:  “मैंने यह लीला गोपियों के साथ यमुना के किनारे खड़े होकर देखी। एक गोपी दूसरी गोपियों को राधा तथा कृष्ण की जल लीला दिखला रही थी।
 
श्लोक 83:  “सारी गोपियों ने अपने रेशमी वस्त्र तथा आभूषण अपनी सखियों को सौंप दिये और महीन सफेद वस्त्र धारण कर लिया। भगवान् कृष्ण ने अपनी प्रिय गोपियों को साथ लेकर स्नान किया और यमुना के जल में अत्युत्तम लीलाएँ सम्पन्न कीं।
 
श्लोक 84:  “हे सखियों, जरा कृष्ण की जलक्रीड़ा को तो देखो! कृष्ण की चंचल हथेलियाँ कमल के फूल समान हैं। कृष्ण उन्मत्त हाथियों के सरदार लगते हैं और उनके साथ की गोपियाँ हथिनियों जैसी हैं।
 
श्लोक 85:  जल क्रीड़ा प्रारम्भ हुई और हर कोई आगे - पीछे जल उछालने लगा। जल की प्रबल उथल - पुथल में यह निश्चित नहीं हो पा रहा था कि कौन सा पक्ष जीत रहा है और कौन सा हार रहा है। यह जल युद्ध (जलकेलि) की क्रीड़ा अपार रीति से बढ़ती गई।
 
श्लोक 86:  “गोपियाँ बिजली की स्थिर रेखाओं जैसी थीं और कृष्ण श्याम मेघ के तुल्य थे। बिजली ने बादल के ऊपर जल छिड़कना शुरू किया और बादल ने बिजली पर। गोपियों की आँखें तृषित पपीहों की तरह बादल के अमृततुल्य जल को सुखपूर्वक पिये जा रही थीं।
 
श्लोक 87:  “जब युद्ध प्रारम्भ हो गया, तो उन्होंने एक दूसरे पर पानी उछाला। तब उन्होंने हाथ से हाथ, फिर मुख से मुख, छाती से छाती, दाँत से दाँत और अन्त में नाखून से नाखून की लड़ाई की।
 
श्लोक 88:  “हजारों हाथों ने पानी उछाला और गोपियों ने कृष्ण को हजारों आँखों से देखा। वे हजारों पाँवों से उनके निकट आईं और उन्होंने हजारों मुखों से उनका चुम्बन किया। हजारों शरीरों ने उनका आलिंगन किया। गोपियों ने हजारों कानों से उनके परिहास - वचन सुने।
 
श्लोक 89:  “कृष्ण श्रीमती राधारानी को बलपूर्वक दूर बहाकर उनके गले तक पानी के भीतर ले गये। तब उन्होंने उन्हें वहाँ पर छोड़ दिया, जहाँ पानी बहुत गहरा था। किन्तु उन्होंने कृष्ण का गला पकड़ लिया और पानी के ऊपर इस तरह तैरती रहीं, मानो हाथी की सैंड द्वारा तोड़ा गया कमल का फूल हो।
 
श्लोक 90:  “जितनी गोपियाँ थीं, कृष्ण ने उतने ही रूपों में अपना विस्तार कर लिया और तब उनके पहने हुए सारे वस्त्रों को छीन लिया। यमुना नदी का जल निर्मल था, अतः कृष्ण ने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक गोपियों के झलमलाते अंगों का दर्शन किया।
 
श्लोक 91:  “कमलनाल गोपियों के मित्र थे, जिन्होंने कमल की पत्तियाँ देकर उनकी सहायता की।
 
श्लोक 92:  “तब कृष्ण ने श्रीमती राधारानी से झगड़ना शुरू किया और सारी गोपियाँ श्वेत कमल पुष्पों के समूह में छिप गईं। उन्होंने अपने शरीरों को गले तक पानी में डुबो दिया। केवल उनके मुख ही पानी की सतह पर तैर रहे थे और ये मुख कमलों से अलग पहचाने नहीं जा रहे थे।
 
श्लोक 93:  “अन्य गोपियों की अनुपस्थिति में भगवान् कृष्ण ने श्रीमती राधारानी के साथ स्वतन्त्र होकर इच्छानुसार व्यवहार किया। जब गोपियाँ कृष्ण की खोज करने लगीं, तो श्रीमती राधारानी, अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि वाली होने तथा अपनी सखियों की स्थिति जानने के कारण तुरन्त ही जाकर उनके बीच मिल गईं।
 
श्लोक 94:  “जल में अनेक श्वेत कमल तैर रहे थे और उतने ही नीलकमल पास आ गये। जब वे पास आये, तो श्वेत तथा नीले कमलों की भिड़न्त हुई और वे एक दूसरे से युद्ध करने लगे।
 
श्लोक 95:  “जब गोपियों के उन्नत उरोज, जो कि चक्रवाक पक्षियों के गोलमटोल शरीरों के सदृश थे, जल में से पृथक् - पृथक् जोड़ों में बाहर आये, तो कृष्ण के नीलकमल सदृश हाथ उन्हें ढकने के लिए ऊपर उठ गये।
 
श्लोक 96:  “गोपियों के हाथ, जो कि लालकमल के फूलों के समान थे, नीले फूलों को रोकने के लिए जोड़ी बनाकर जल के बाहर उठे। नीले कमलों ने श्वेत चक्रवाक पक्षियों को लूटना चाहा और लालकमलों ने उनकी रक्षा करने का प्रयास किया। इस तरह दोनों के बीच युद्ध हुआ।
 
श्लोक 97:  “नीले तथा लाल कमल तो अचेतन वस्तु हैं, जबकि चक्रवाक पक्षी चेतन तथा सजीव हैं। तो भी प्रेमवश नीले कमल चक्रवाकों का भोग करने लगे। यह उनके स्वाभाविक व्यवहार के विपरीत है, किन्तु कृष्ण के राज्य में ऐसे विपर्यय तो उनकी लीलाओं के नियम हैं।
 
श्लोक 98:  “नीलकमल सूर्यदेव के मित्र हैं और वे सभी एक साथ रहते हैं, किन्तु नीलकमल चक्रवाकों को लूटते रहते हैं। किन्तु लालकमल रात में खिलते हैं, अतएव वे चक्रवाकों के लिए अपरिचित अथवा शत्रु हैं। फिर भी कृष्ण की लीलाओं में गोपियों के कर रूप ये लालकमल उनके चक्रवाक रूपी स्तनों की रक्षा करते हैं। यह विरोध अलंकार है।”
 
श्लोक 99:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “कृष्ण ने अपनी लीलाओं में अतिशयोक्ति तथा विरोधाभास अलंकारों का प्रदर्शन किया। इनका आस्वादन करने से मेरे मन को हर्ष हुआ और इससे मेरे कान तथा नेत्र पूर्णतया तुष्ट हो गये।
 
श्लोक 100:  “ऐसी अद्भुत लीलाएँ करने के बाद भगवान् श्रीकृष्ण अपनी सभी प्रिय गोपिकाओं को साथ लेकर यमुना नदी के किनारे पर आ गये। तब नदी के किनारे खड़ी गोपियों ने कृष्ण तथा अन्य गोपियों के शरीरों पर सुगन्धित तेल मलकर तथा आमलकी फल का लेप लगाकर सेवा की।
 
श्लोक 101:  “तत्पश्चात् सबों ने पुनः स्नान किया और फिर सूखे वस्त्र पहनने के बाद वे छोटे से रत्न - मन्दिर में गये, जहाँ वृन्दा नामक गोपी ने उन्हें सुगन्धित फूलों, हरी पत्तियों तथा अन्य सभी प्रकार के आभूषणों से सजाकर उनकी वन्य वेशभूषा बना दी।
 
श्लोक 102:  वृन्दावन में वृक्ष तथा लताएँ अद्भुत हैं, क्योंकि वे बारहों महीने सभी प्रकार के फल तथा फूल उत्पन्न करते हैं। वृन्दावन की कुंजों में गोपियाँ तथा दासियाँ इन फलों तथा फूलों को तोड़कर राधा तथा कृष्ण के पास ले आईं।
 
श्लोक 103:  “गोपियों ने सारे फलों के छिलके उतार दिये और उन्हें रत्नमन्दिर के चबूतरे पर बड़ी - बड़ी थालियों में लाकर रख दिये। उन्होंने खाने के लिए फलों को पंक्तियों में सजा दिया और इसके सामने बैठने के लिए आसन बना दिया।
 
श्लोक 104:  “फलों में नाना प्रकार के नारियल तथा आम, केले, बेर, कटहल, खजूर, कमला, नारंगी, जाम, संतरे, अंगूर, बादाम तथा सभी प्रकार के मेवे थे।
 
श्लोक 105:  “वहाँ खरबूजा, क्षीरिका, ताड़ के फल, केशुर, पानीफल, कमल के फल, बेल, पीलु, अनार तथा अन्य कई फल थे। इनमें से कुछ भिन्न - भिन्न स्थानों में विविध नामों से जाने जाते हैं, किन्तु वे सभी वृन्दावन में इतने हजार प्रकारों में सदैव उपलब्ध रहते हैं कि कोई उनका वर्णन नहीं कर सकता।
 
श्लोक 106:  “श्रीमती राधारानी ने घर पर दूध तथा मिश्री से अनेक प्रकार की मिठाईंयाँ बनाई थीं, यथा गंगाजल, अमृतकेलि, पीयूषग्रंथि, कपूरकेलि, सरपूरी, अमृति, पद्मचिनि तथा खण्डक्षीरसार वृक्ष। तब वे इन सबों को कृष्ण के लिए ले आई थीं।
 
श्लोक 107:  “जब कृष्ण ने भोजन की उत्तम व्यवस्था देखी, तो वे प्रसन्नतापूर्वक बैठ गये और उन्होंने वन्य भोजन किया। तब श्रीमती राधारानी तथा उनकी गोपी सखियों ने शेष बचे हुए का भोजन किया और उसके बाद कृष्ण तथा राधा उस रत्न मन्दिर में एक ही साथ लेट गये।
 
श्लोक 108:  “कुछ गोपियाँ राधा तथा कृष्ण पर पंखा झल रही थीं, कुछ उनके पाँव दबा रही थीं और कुछ उन्हें पान खिला रही थीं। जब राधा तथा कृष्ण सो गये, तो सारी गोपियाँ भी लेट गईं।
 
श्लोक 109:  “एकाएक तुम लोगों ने घोर शब्द उत्पन्न किया और मुझे उठाकर फिर से यहाँ ले आये।
 
श्लोक 110:  इस तरह कहते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी बाह्य चेतना में पूरी तरह फिर से लौट आये। स्वरूप दामोदर गोस्वामी को देखकर महाप्रभु ने पूछा।
 
श्लोक 111:  उन्होंने पूछा, “तुम मुझे यहाँ क्यों ले आये?” तब स्वरूप दामोदर ने उन्हें उत्तर दिया।
 
श्लोक 112:  “आप समुद्र को यमुना नदी समझकर उसमें कूद पड़े थे। आप समुद्र की लहरों से इतनी दूर बहाकर लाये गये हो।
 
श्लोक 113:  “इस मछुआरे ने आपको अपने जाल में पकड़ा और जल से आपको बचाया। अब वह आपका स्पर्श करने से कृष्ण के प्रेमावेश में पागल हो गया है।
 
श्लोक 114:  “हम लोग आपको रात भर खोजते रहे। इस मछुआरे से सुनकर हम यहाँ आये, तो हमें आप मिल गये।
 
श्लोक 115:  “जब आप बाह्य रूप से अचेत थे, तभी आपने वृन्दावन में लीलाएँ देखीं, किन्तु जब हम लोगों ने आपको अचेत देखा, तो हमारे मनों में महान् पीड़ा हुई।
 
श्लोक 116:  “किन्तु जब हम लोगों ने कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण किया, तो आपको अर्ध चेतना आई और हम आपको उन्मत्त की तरह बोलते सुनते रहे।”
 
श्लोक 117:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मैं स्वप्न में वृन्दावन चला गया, जहाँ मैंने भगवान् कृष्ण को सारी गोपियों के साथ रास नृत्य करते देखा।
 
श्लोक 118:  “जल में क्रीड़ा करने के बाद कृष्ण ने वन्य भोजन का आनन्द लिया। मैं समझ सकता हूँ कि इसे देखने के बाद मैंने अवश्य ही उन्मत्त की तरह बातें की होंगी।”
 
श्लोक 119:  तत्पश्चात् स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु को समुद्र में नहलाया और तब वे उन्हें अत्यन्त आनन्दित भाव से घर ले आये।
 
श्लोक 120:  इस तरह मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु के समुद्र में गिरने की घटना का वर्णन किया है। जो भी इस लीला को सुनेगा, वह निश्चय ही श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की शरण प्राप्त करेगा।
 
श्लोक 121:  श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा, सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए उनके चरणचिह्नों पर चलकर मैं कृष्णदास श्री चैतन्य - चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥