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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  अन्त्य लीला  »  अध्याय 19: श्री चैतन्य महाप्रभु का अचिन्त्य व्यवहार  » 
 
 
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने अमृत प्रवाह भाष्य में इस अध्याय का सारांश इस प्रकार दिया है। श्री चैतन्य महाप्रभु प्रतिवर्ष अपनी माता को मिलने के लिए वस्त्र तथा प्रसाद का उपहार देकर जगदानन्द पण्डित को नवद्वीप जाने के लिए कहते थे। ऐसी एक भेंट के बाद जगदानन्द पण्डित अद्वैत आचार्य द्वारा लिखित एक गीत लेकर पुरी लौटे। जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने इसे पढ़ा, तो उनका भाव इतना प्रबल हो गया कि सारे भक्तों को लगा कि महाप्रभु का शीघ्र ही प्रयाण हो जायेगा। महाप्रभु की दशा इतनी गम्भीर थी कि वे रात को दीवाल से अपना मुख रगड़कर रक्तरंजित होने लगे। इसे रोकने के लिए स्वरूप दामोदर ने शंकर पंडित से कहा कि रात में वह महाप्रभु के साथ उसी कमरे में रुक जाय। इस अध्याय में इसका भी व र्णन हुआ है कि किस तरह वैशाख (अप्रैल-मई) मास की पूर्णिमा के दिन श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ-वल्लभ उद्यान में प्रविष्ट हुए और उन्हें नाना प्रकार के भावों का अनुभव हुआ। भगवान् कृष्ण को एकाएक अशोक वृक्ष के नीचे देखकर प्रेमावेश के कारण महाप्रभु ने आध्यात्मिक उन्माद के विविध लक्षण प्रकट किये।
 
 
श्लोक 1:  मातृभक्तों के शिरोमणि श्री चैतन्य महाप्रभु उन्मत्त की तरह बोलते तथा दीवालों पर अपना मुख रगड़ते थे। प्रेमावेश से अभिभूत होकर वे कभी - कभी अपनी लीला सम्पन्न करने के लिए जगन्नाथ - वल्लभ उद्यान में चले जाते थे। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।
 
श्लोक 2:  श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो! तथा चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो!
 
श्लोक 3:  इस तरह कृष्ण - प्रेम के आवेश में श्री चैतन्य महाप्रभु उन्मत्त की तरह व्यवहार करते और रात - दिन पागल की तरह बोलते रहते।
 
श्लोक 4:  जगदानन्द पण्डित श्री चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय भक्त थे। महाप्रभु को उनके कार्यों से अत्यधिक आनन्द मिलता था।
 
श्लोक 5:  उनके वियोग में अपनी माता को अत्यन्त दुःखी जानकर महाप्रभु जगदानन्द पण्डित को प्रतिवर्ष नवद्वीप भेजा करते कि वे जाकर उन्हें सान्त्वना दें।
 
श्लोक 6:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगदानन्द पण्डित से कहा, “आप नदिया जाओ और मेरी माता से मेरा नमस्कार कहना। मेरी ओर से उनके चरणकमलों का स्पर्श करना।
 
श्लोक 7:  “मेरी ओर से उनसे कहना, ‘कृपया स्मरण रखें कि मैं प्रतिदिन यहाँ आकर आपके चरणकमलों की वन्दना करता हूँ।
 
श्लोक 8:  “यदि किसी दिन आप मुझे भोजन कराना चाहती हैं, मैं निश्चय ही आकर आप जो कुछ देती हैं, उसे स्वीकार करता हूँ।
 
श्लोक 9:  “मैंने आपकी सेवा करना छोड़कर संन्यास व्रत धारण कर लिया है। इस तरह मैं उन्मत्त हो गया हूँ और मैंने धर्म के सिद्धान्तों को नष्ट कर दिया है।
 
श्लोक 10:  “हे माता, कृपया आप इसे अपराध के रूप में न लें, क्योंकि मैं आपका पुत्र हूँ और पूर्णतया आप पर आश्रित हूँ।
 
श्लोक 11:  “मैं आपके आदेशानुसार यहाँ नीलाचल, जगन्नाथपुरी में रह रहा हूँ। जब तक मैं जीवित हूँ, तब तक मैं यह स्थान नहीं छोडूँगा।”
 
श्लोक 12:  परमानन्द पुरी की आज्ञा का पालन करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी माता के पास वह प्रसाद - वस्त्र भेजा, जिसे भगवान जगन्नाथ ने अपनी गोपलीला के बाद छोड़ दिया था।
 
श्लोक 13:  श्री चैतन्य महाप्रभु यत्नपूर्वक जगन्नाथ जी का उत्तम कोटि का प्रसाद ले आये और उन्होंने इसे अलग - अलग थैलियों में अपनी माता तथा नदिया के भक्तों के लिए भेजा।
 
श्लोक 14:  श्री चैतन्य महाप्रभु समस्त मातृ - भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। उन्होंने संन्यास व्रत ले ने के बाद भी अपनी माता की सेवा की।
 
श्लोक 15:  इस तरह जगदानन्द पण्डित नदिया लौट आये और जब वे शचीमाता से मिले, तो उन्होंने उनसे महाप्रभु का नमस्कार कहा।
 
श्लोक 16:  इसके बाद वे अद्वैत आचार्य इत्यादि अन्य सारे भक्तों से मिले और उन्हें जगन्नाथ जी का प्रसाद दिया। एक मास रहने के बाद उन्होंने शची माता से विदा होने की आज्ञा माँगी।
 
श्लोक 17:  जब अद्वैत आचार्य के पास जाकर उन्होंने लौट जाने की अनुमति माँगी, तो अद्वैत प्रभु ने श्री चैतन्य महाप्रभु के लिए एक सन्देश दिया।
 
श्लोक 18:  अद्वैत आचार्य ने द्विअर्थी भाषा में एक गीत लिखा था, जिसका आशय श्री चैतन्य महाप्रभु तो समझ सकते थे, किन्तु अन्य लोग नहीं समझ सकते थे।
 
श्लोक 19:  इस गीत में अद्वैत प्रभु ने सर्वप्रथम श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में करोड़ों बार नमस्कार किया था। तत्पश्चात् उन्होंने उनके चरणकमलों में यह निवेदन किया था।
 
श्लोक 20:  “श्री चैतन्य महाप्रभु, जो कि बावले की तरह अभिनय कर रहे हैं, उनसे कृपया यह कहना कि यहाँ हर व्यक्ति उन्हीं की तरह बावला हो गया है। कृपया उनसे यह भी कहना कि बाजार में अब चावल की कोई मांग नहीं है।
 
श्लोक 21:  “और उन्हें कहना कि जो लोग भावावेश में बावले हैं, वे अब भौतिक जगत् में रुचि नहीं रखते। श्री चैतन्य महाप्रभु से यह भी कहना कि प्रेम में बावले हुए व्यक्ति (अद्वैत प्रभु) ने ये शब्द कहे हैं।”
 
श्लोक 22:  अद्वैत आचार्य के वचन सुनकर जगदानन्द पण्डित हँसने लगे और जब वे जगन्नाथपुरी या नीलाचल लौटकर आये, तो उन्होंने चैतन्य महाप्रभु को सब सूचित कर दिया।
 
श्लोक 23:  अद्वैत आचार्य से द्विअर्थी गीत सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु चुपके - चुपके हँसने लगे और उन्होंने कहा, “यह उनका आदेश है।” तब वे मौन हो गये।
 
श्लोक 24:  स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने रहस्य जानते हुए भी महाप्रभु से पूछा, “इस गीत का क्या अर्थ है? मैं इसे समझ नहीं सका।”
 
श्लोक 25:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “अद्वैत आचार्य भगवान् के महान् आराधक हैं और वे वैदिक साहित्य में निर्देशित विधि - विधानों में अत्यन्त पारंगत हैं।
 
श्लोक 26:  “अद्वैत आचार्य भगवान् को आने तथा पूजित होने के लिए आमन्त्रित करते हैं। वे पूजा करने के लिए अर्चाविग्रह को कुछ समय तक रखते हैं।
 
श्लोक 27:  “पूजा पूरी हो जाने पर वे अर्चाविग्रह को अन्यत्र भेज देते हैं। मैं न तो इस गीत का अर्थ जानता हूँ, न ही यह जानता हूँ कि अद्वैत प्रभु के मन में क्या है।
 
श्लोक 28:  “अद्वैत आचार्य महान् योगी हैं। उन्हें कोई नहीं समझ सकता। वे गीत लिखने में इतने पटु हैं कि मैं भी नहीं समझ पाता।”
 
श्लोक 29:  यह सुनकर सारे भक्त चकित हो गये, किन्तु स्वरूप दामोदर गोस्वामी तो विशेष रूप से कुछ - कुछ खिन्न हो गये।
 
श्लोक 30:  उस दिन से श्री चैतन्य महाप्रभु की भावदशा विशेष रूप से बदल गई। कृष्ण से वियोग की उनकी भावना द्विगुणित हो उठी।
 
श्लोक 31:  चूँकि श्रीमती राधारानी के भावावेश में महाप्रभु की विरह - भावना प्रतिक्षण बढ़ती गई, अतः दिन तथा रात दोनों ही समय उनके कार्य उग्र तथा अविवेकपूर्ण होने लगे।
 
श्लोक 32:  एकाएक श्री चैतन्य महाप्रभु के भीतर भगवान् कृष्ण के मथुरा गमन का दृश्य उदय हो आया और वे उद्भूर्णा नामक उन्माद के लक्षण प्रदर्शित करने लगे।
 
श्लोक 33:  श्री चैतन्य महाप्रभु उन्मत्त की तरह रामानन्द राय का गला पकड़कर बोलने लगे और स्वरूप दामोदर को अपनी गोपी सखी मानकर उनसे प्रश्न पूछने लगे।
 
श्लोक 34:  जिस तरह श्रीमती राधारानी ने अपनी निजी सखी विशाखा से पूछा था, उसी तरह श्री चैतन्य महाप्रभु भी वही श्लोक पढ़कर उन्मत्त की तरह बोलने लगे।
 
श्लोक 35:  “हे प्रिय सखी, कहाँ हैं वे कृष्ण, जो कि महाराज नन्द के कुलरूपी सागर से उदय होने वाले चन्द्रमा की तरह हैं? कहाँ हैं वे कृष्ण, जिनका सिर मोर पंख से सुशोभित है? कहाँ हैं वे? कहाँ हैं वे कृष्ण, जिनकी वंशी इतना गम्भीर स्वर उत्पन्न करती है? ओह! कहाँ हैं वे कृष्ण, जिनकी शारीरिक कान्ति इन्द्रनील मणि के समान है? कहाँ है वे कृष्ण, जो रास नृत्य में इतने निपुण हैं? ओह! कहाँ हैं वे, जो मेरे प्राण बचा सकते हैं? कृपा करके मुझे बतलाओ कि अपने जीवन के कोष तथा सर्वोत्कृष्ट मित्र कृष्ण को कहाँ पा सकती हूँ? उनसे विरह का अनुभव करती हुई मैं अपने भाग्य के निर्माता विधाता को धिक्कारती हूँ।
 
श्लोक 36:  “महाराज नन्द का परिवार दुग्ध सागर की तरह है, जिसमें से भगवान् कृष्ण समग्र ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करने वाले पूर्ण चन्द्रमा के समान उदित हुए हैं। व्रजवासियों के नेत्र उन चकोर पक्षियों के समान हैं, जो उनकी शारीरिक द्युति के अमृत का निरन्तर पान करते हैं और इस तरह शान्तिपूर्वक जीवन बिताते हैं।
 
श्लोक 37:  “हे प्रिय सखी, कहाँ हैं कृष्ण? कृपया मुझे उनका दर्शन करने दो। यदि क्षण भर भी मैं उनका मुख नहीं देखती, तो मेरा हृदय फटने लगता है। कृपया मुझे तुरन्त ही उन्हें दिखलाओ, अन्यथा मैं जीवित नहीं रह सकती।
 
श्लोक 38:  “वृन्दावन की स्त्रियाँ कामवासनाओं के सूर्य से तप्त कुमुदिनियों के तुल्य हैं। किन्तु चन्द्रमा तुल्य कृष्ण उन्हें अपने हाथों का अमृत प्रदान करके प्रफुल्लित बनाते हैं। हे प्रिय सखी, अब मेरा वह चन्द्रमा कहाँ है? मुझे उसका दर्शन कराकर मेरा जीवन बचा लो!
 
श्लोक 39:  “हे प्रिय सखी, कहाँ है वह सुन्दर मुकुट, जिसके ऊपर मोरपंख नवीन बादलों में इन्द्रधनुष जैसा लगता है? वह पीताम्बर कहाँ है, जो बिजली के समान चमकता है? और कहाँ है वह मोतियों का गले का हार, जिसके मोती आकाश में उड़ रहे बगुलों की पंक्ति के समान लगते हैं? कृष्ण का श्यामल शरीर श्याम रंग के नये बादलों को पराजित करने वाला है।
 
श्लोक 40:  “यदि किसी व्यक्ति की आँखें एक बार भी कृष्ण के सुन्दर शरीर को बन्दी बना लेती हैं, तो वह उसके हृदय के भीतर सदैव प्रमुख बना रहता है। कृष्ण का शरीर आम वृक्ष के रस के समान है, क्योंकि जब यह स्त्रियों के मनों में प्रवेश करता है, तो महान् प्रयत्न करने पर भी यह बाहर नहीं आता। इस तरह कृष्ण का अद्वितीय शरीर सेया बेर वृक्ष के काँटे के समान है।
 
श्लोक 41:  “कृष्ण की शारीरिक द्युति इन्द्रनीलमणि के समान चमकीली है और वह तमालवृक्ष की कान्ति को पराजित करने वाली है। उनके शरीर की कान्ति सारे जगत् को पागल बना देती है, क्योंकि विधाता ने माधुर्य प्रेम के रस के सार को परिष्कृत करके उसे चाँदनी से मिलाकर पारदर्शी बना दिया है।”
 
श्लोक 42:  “कृष्ण की वंशी की गहरी ध्वनि नवीन बादलों की गर्जना को पराजित कर देती है और सारे जगत् के कानों को आकृष्ट करती है। इस तरह वृन्दावन के निवासी जब उठते हैं, तब वे तृषित पपीहों की तरह कृष्ण की शारीरिक कान्ति के अमृत की धारा को पीकर उस ध्वनि का पीछा करते हैं।
 
श्लोक 43:  “कृष्ण कला तथा संस्कृति के आगार हैं और वे वह रामबाण औषधि हैं, जो मेरे जीवन को बचाती है। हे सखी, चूंकि मैं अपने मित्रों में से सर्वोत्तम मित्र के बिना जीवित हूँ, अतएव मैं अपनी आयु को धिक्कारती हूँ। मैं सोचती हूँ कि विधाता ने मुझे कई तरह से ठगा है।”
 
श्लोक 44:  “भला विधाता उस व्यक्ति को क्यों जीने देता है, जो जीना नहीं चाहता?” इस विचार से श्री चैतन्य महाप्रभु में क्रोध तथा शोक उत्पन्न हो गया। तब उन्होंने श्रीमद्भागवत का एक श्लोक पढ़ा, जो विधाता को धिक्कारता है और कृष्ण के प्रति आक्षेप लगाता है।
 
श्लोक 45:  “हे विधाता, तुममें तनिक भी दया नहीं है! तुम पहले तो मैत्री तथा स्नेह के द्वारा देहधारी जीवों को पास - पास लाते हो, किन्तु इसके पूर्व कि उनकी इच्छाएँ पूरी हों, तुम उन्हें विलग कर देते हो। तुम्हारे कार्यकलाप बच्चों के मूर्खतापूर्ण खिलवाड़ों जैसे हैं। ”
 
श्लोक 46:  हे विधाता, तुम प्रेम - व्यापार के मर्म को नहीं जानते, इसलिए तुम हमारे प्रयासों को व्यर्थ बना देते हो। यह तुम्हारे बचपने को बतलाता है। यदि हम तुम्हें पकड़ पायें, तो ऐसा पाठ पढ़ायें कि तुम फिर कभी ऐसी व्यवस्था न करो।
 
श्लोक 47:  “रे क्रूर विधाता! तुम बड़े ही निष्ठुर हो, क्योंकि तुम ऐसे लोगों में प्रेम उत्पन्न करते हो, जो विरले ही एक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं। और जब तुम उन्हें मिलाते हो, तो इसके पूर्व कि उनकी इच्छाएँ पूरी हों, उन्हें पुनः दूर दूर कर देते हो।
 
श्लोक 48:  “रे विधाता, तुम कितने निर्दय हो! तुम कृष्ण का सुन्दर मुख प्रकट करते हो और मन तथा आँखों को लुभाते हो, किन्तु वे क्षणभर भी उस अमृत का पान नहीं कर पाते कि तुम कृष्ण को दूसरे स्थान पर भगा देते हो। यह बहुत बड़ा पाप है, क्योंकि इस तरह से तुम दान दी हुई वस्तु को छीन लेते हो।
 
श्लोक 49:  “ऐ दुराचारी विधाता! यदि तुम हमसे कहो कि, ‘अकूर ही सचमुच दोषी है ; तुम मुझ पर क्यों क्रोधित हो?” तो मैं तुमसे कहती हैं, ‘रे विधाता, तुम्हीं ने अक्रूर का रूप धारण करके कृष्ण को चुरा लिया है। अन्य कोई व्यक्ति ऐसा व्यवहार नहीं करता।’
 
श्लोक 50:  “किन्तु यह तो मेरे ही भाग्य का दोष है। मैं तुम पर व्यर्थ ही आक्षेप क्यों करूँ? तुम्हारे तथा मेरे बीच कोई घनिष्ठता नहीं है। किन्तु कृष्ण तो मेरे प्राण तथा आत्मा हैं। हम एक साथ रहने वाले हैं, किन्तु वे ही हैं, जो अब इतने क्रूर बन गये हैं।
 
श्लोक 51:  “जिनके लिए मैंने अपना सब कुछ त्याग दिया, वे ही मुझे अपने हाथों से मार रहे हैं।
 
श्लोक 52:  “फिर भी, मैं कृष्ण पर क्यों रुष्ट होऊँ? यह तो मेरे अपने दुर्भाग्य का दोष है। मेरे पापकर्मों का फल पक चुका है, इसलिए वे कृष्ण जो सदैव मेरे प्रेम के वश में रहते थे, अब मेरे प्रति उदासीन हैं। इसका अर्थ यही है कि मेरा दुर्भाग्य अत्यन्त प्रबल है।”
 
श्लोक 53:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु विरह भाव में शोक करते, “हाय, हाय! हे कृष्ण, आप कहाँ चले गये हैं?” श्री चैतन्य महाप्रभु अपने हृदय में गोपियों के भावों को अनुभव करते हुए “हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!” जैसे उनके शब्दों से अपनी पीड़ा व्यक्त करते।
 
श्लोक 54:  तब स्वरूप दामोदर तथा रामानन्द राय ने महाप्रभु को सान्त्वना देने के लिए तरह - तरह के उपाय किये। उन्होंने मिलाप के गीत गाये, जिनसे उनका हृदय परिवर्तित हुआ और उनका मन शान्त हो गया।
 
श्लोक 55:  इस तरह से श्री चैतन्य महाप्रभु को विलाप करते - करते आधी रात बीत गई। तब स्वरूप दामोदर ने उन्हें गम्भीरा नामक कमरे में सुला दिया।
 
श्लोक 56:  जब महाप्रभु को सुला दिया गया, तो रामानन्द राय अपने घर चले गये और स्वरूप दामोदर तथा गोविन्द गम्भीरा के दरवाजे पर लेट गये।
 
श्लोक 57:  श्री चैतन्य महाप्रभु का मन आध्यात्मिक आनन्द से अभिभूत था, इसलिए वे हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करते हुए सारी रात जागते रहे।
 
श्लोक 58:  कृष्ण से विरह का अनुभव करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु इतने किंकर्तव्यमूढ़ हो गये कि वे उस महान् चिन्ता में उठ खड़े हुए और गम्भीरा की दीवालों पर अपना मुख रगड़ने लगे।
 
श्लोक 59:  उनके मुँह, नाक तथा गालों में हुए अनेक घावों से रक्त निकलने लगा, किन्तु अपने भावावेश के कारण महाप्रभु को इसका पता नहीं चल पाया।
 
श्लोक 60:  भावावेश में श्री चैतन्य महाप्रभु सारी रात दीवालों पर अपना मुख रगड़ते रहे और गोंगों का विचित्र शब्द निकालते रहे, जिसे स्वरूप दामोदर दरवाजे से सुन सकते थे।
 
श्लोक 61:  तब दीपक जलाकर स्वरूप दामोदर तथा गोविन्द ने उस कमरे में प्रवेश किया। जब उन्होंने महाप्रभु का चेहरा देखा, तो दोनों ही अत्यन्त दुःखी हो गये।
 
श्लोक 62:  वे महाप्रभु को उनके बिस्तर पर ले आये, उन्हें शान्त किया और तब पूछा, “आपने अपने साथ यह क्या कर रखा है?”
 
श्लोक 63:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “मैं इतने उद्वेग में था कि मैं कमरे में ठहर नहीं सकता था। मैं बाहर जाना चाहता था, इसलिए दरवाजे की खोज में कमरे में इधर - उधर घूमने लगा।
 
श्लोक 64:  “दरवाजा न ढूँठ सकने के कारण मैं अपना मुँह चारों दीवारों पर पटकता रहा। इससे मेरा मुँह घायल हो गया और रक्त बहने लगा, फिर भी मैं बाहर न जा सका।”
 
श्लोक 65:  उन्माद की इस अवस्था में श्री चैतन्य महाप्रभु का मन अस्थिर था। वे जो भी कहते या करते, वह सब उन्माद का लक्षण था।
 
श्लोक 66:  स्वरूप दामोदर अत्यधिक चिन्तित थे, किन्तु तभी उनके मन में एक विचार आया।
 
श्लोक 67:  परस्पर विचार - विमर्श करने के बाद सबों ने श्री चैतन्य महाप्रभु से विनती की कि वे अपने साथ उस कमरे में शंकर पंडित को भी लेटने दें।
 
श्लोक 68:  इस तरह शंकर पंडित श्री चैतन्य महाप्रभु के पाँवों के पास लेटता और महाप्रभु अपने पाँव शंकर के शरीर पर रखते।
 
श्लोक 69:  शंकर प्रभु - पादोयधान अर्थात् “श्री चैतन्य महाप्रभु का तकिया” के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे विदुर के समान थे, जैसाकि शुकदेव गोस्वामी इसके पूर्व उनका वर्णन कर चुके हैं।
 
श्लोक 70:  जब भगवान् कृष्ण के चरणों के रखने के स्थान रूप विनीत विदुर जी मैत्रेय से इस प्रकार कह चुके, तो मैत्रेय ने बोलना प्रारम्भ किया। भगवान् कृष्ण विषयक कथाओं की चर्चा से उत्पन्न दिव्य आनन्द के कारण उनको रोमांच हो आया।”
 
श्लोक 71:  शंकर श्री चैतन्य महाप्रभु के पाँव दबाते, किन्तु पाँव दबाते - दबाते सोने लगते और इस प्रकार लेट जाते।
 
श्लोक 72:  वे शरीर को बिना ढ़के ही सोते रहते और श्री चैतन्य महाप्रभु जगकर उन पर अपनी रजाई डाल देते।
 
श्लोक 73:  शंकर पंडित सदा सो तो जाते थे, किन्तु शीघ्र ही जागकर बैठ जाते और पुनः श्री चैतन्य महाप्रभु के पाँव दबाने लगते। इस तरह वे पूरी रात जागते रहते।
 
श्लोक 74:  शंकर के भय से श्री चैतन्य महाप्रभु न तो अपना कमरा छोड़ते, न ही अपने कमल सदृश मुँह को दीवालों पर रगड़ते।
 
श्लोक 75:  श्री चैतन्य महाप्रभु की इस लीला का बहुत ही सुन्दर वर्णन रघुनाथ दास गोस्वामी ने अपनी पुस्तक ‘गौराङ्ग स्तव कल्पवृक्ष’ में किया है।
 
श्लोक 76:  श्री चैतन्य महाप्रभु अपने प्राणतुल्य वृन्दावन अनेक मित्रों के विरह के कारण उन्मत की तरह बातें करते। उनकी बुद्धि विकृत हो गई थी। वे दिन - रात अपने चन्द्रमा सदृश मुखड़े को दीवालों पर रगड़ते, जिससे घावों से रक्त बहता रहता। ऐसे श्री चैतन्य महाप्रभु मेरे हृदय में उदित हों और मुझे प्रेम से उन्मत्त कर दें।”
 
श्लोक 77:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु रात - दिन कृष्ण के प्रेम रूपी सिन्धु में मग्न रहते। कभी वे डूबे रहते और कभी तैरते रहते।
 
श्लोक 78:  एक बार वैशाख (अप्रैल - मई) मास की पूर्णमासी की रात में श्री चैतन्य महाप्रभु एक उद्यान में गये।
 
श्लोक 79:  महाप्रभु अपने भक्तों सहित जगन्नाथ - वल्लभ नामक सुन्दरतम उद्यान में प्रविष्ट हुए।
 
श्लोक 80:  इस उद्यान में फूलों से लदे वृक्ष तथा लताएँ वृन्दावन जैसे ही थे। भौंरे, शुक, शारी एवं पिक पक्षी एक दूसरे से बातें कर रहे थे।
 
श्लोक 81:  मन्द पवन सुगन्धित पुष्पों की गन्ध लेकर बह रही थी। यह पवन गुरु बनकर सारे वृक्षों तथा लताओं को नृत्य सिखा रही थी।
 
श्लोक 82:  पूर्ण चन्द्रमा के तेज से प्रकाशित सारे वृक्ष तथा लताएँ प्रकाश में झलमला रहे थे।
 
श्लोक 83:  ऐसा लग रहा था मानो वहाँ पर छहों ऋतुएँ, विशेषतया वसन्त ऋतु, उपस्थित हों। उस उद्यान को देखकर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए।
 
श्लोक 84:  इस वातावरण में महाप्रभु ने अपने संगियों से ‘ललित लवंगलता’ से प्रारम्भ होने वाला ‘गीत गोविन्द’ का श्लोक गाने को कहा और वे स्वयं नृत्य करने लगे तथा उनके साथ चारों ओर घूमने लगे।
 
श्लोक 85:  इस तरह वे प्रत्येक वृक्ष तथा लता के चारों ओर घूमते हुए अशोक वृक्ष के नीचे आये और सहसा उन्होंने भगवान् कृष्ण को देखा।
 
श्लोक 86:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण को देखा, तो वे तेजी से दौड़ने लगे, किन्तु कृष्ण स्मितहास्य करते हुए अदृश्य हो गये।
 
श्लोक 87:  पहले कृष्ण को पाने तथा उसके बाद पुनः उन्हें खो देने से श्री चैतन्य महाप्रभु अचेत होकर भूमि पर गिर पड़े।
 
श्लोक 88:  भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य शरीर की सुगन्ध से सारा उद्यान भर गया। जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस सुगन्ध को सँघा, तो वे तुरन्त अचेत हो गये।
 
श्लोक 89:  किन्तु कृष्ण के शरीर की सुगन्ध उनके नथुनों में निरन्तर प्रवेश कर रही थी और महाप्रभु उसका आस्वादन करने के लिए उन्मत्त हो रहे थे।
 
श्लोक 90:  श्रीमती राधारानी ने अपनी गोपी सखियों से एक बार बतलाया कि वे किस तरह कृष्ण के शरीर की दिव्य सुगन्ध के लिए लालायित हो रही हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु ने उसी श्लोक को पढ़ा और उसका अर्थ स्पष्ट किया।
 
श्लोक 91:  “कृष्ण के दिव्य शरीर की सुगन्ध कस्तूरी की सुगन्ध को भी पराजित करने वाली और समस्त स्त्रियों के मनों को आकृष्ट करने वाली है। उनके शरीर के कमल समान आठ अंग कमल के साथ कपूर की मिश्रित सुगन्ध को वितरित करते हैं। उनके शरीर पर कस्तूरी, कपूर, चन्दन तथा अगुरु जैसी सुगन्धित वस्तुओं का लेप लगा हुआ है। हे सखी, ऐसे भगवान्, जो कि मदनमोहन भी कहे जाते हैं, सदैव मेरे नथुनों की इच्छा को वर्धित करते हैं।”
 
श्लोक 92:  “कृष्ण के शरीर की सुगन्ध कस्तूरी तथा नीलकमल के फूलों की सुगन्ध को पराजित करने वाली है। चौदहों लोकों में फैलकर यह हर एक को आकृष्ट करती है और समस्त स्त्रियों के नेत्रों को अन्धा बनाती है।
 
श्लोक 93:  “हे प्रिय सखी, कृष्ण के शरीर की सुगन्ध सारे जगत् को मोहित करती है। विशेषतया स्त्रियों के नथुनों में प्रविष्ट होकर यह वहीं पर रुक जाती है। इस तरह यह उन्हें बन्दी बनाकर बलपूर्वक कृष्ण के पास ले आती है।
 
श्लोक 94:  कृष्ण की आँखें, नाभि तथा मुँह, हाथ तथा पैर - ये उनके शरीर पर आठ कमलपुष्पों के समान हैं। इन आठों कमलों से कपूर तथा कमल की मिली - जुली सुगन्ध निकलती है। यह सुगन्ध उनके शरीर से सम्बन्धित है।
 
श्लोक 95:  “जब चन्दन को अगुरु, कुंकुम, कस्तूरी तथा कपूर के साथ मिलाकर कृष्ण के शरीर पर लेप किया जाता है, तो यह कृष्ण की मूल शारीरिक सुगन्ध के साथ मिल जाता है और उसे आच्छादित करता प्रतीत होता है।
 
श्लोक 96:  “कृष्ण के दिव्य शरीर की सुगन्ध इतनी आकर्षक है कि यह सारी स्त्रियों के शरीरों तथा मनों को मोह लेती है। यह उनके नथुनों को भ्रमित करती है, उनके कटिबन्धों तथा केशों को शिथिल बनाती है और उन्हें उन्मत्त करती है। विश्वभर की स्त्रियाँ इसके प्रभाव में आ जाती हैं, इसीलिए कृष्ण के शरीर की सुगन्ध एक डाकू के समान है।
 
श्लोक 97:  “इसके पूर्ण प्रभाव में आकर नथुने इसके लिए निरन्तर लालायित रहते हैं, यद्यपि वे कभी इसे प्राप्त कर पाते है, तो कभी नहीं भी कर पाते। किन्तु जब वे इसे पाते हैं, तो जी भरकर पान करते हैं, यद्यपि वे और अधिक की चाह करते हैं। किन्तु यदि वे नहीं पाते, तो तृष्णा के मारे मर जाते हैं।
 
श्लोक 98:  “अभिनेता मदनमोहन ने सुगन्ध की दूकान खोल रखी है और यह सुगन्ध विश्वभर की स्त्रियों को ग्राहक के रूप में आकृष्ट करती है। वे इस सुगन्ध को निःशुल्क बाँटते हैं, किन्तु यह सारी स्त्रियों को इस तरह अन्धा बना देती है कि वे घर लौटने का मार्ग तक ढूंढ नहीं पातीं।”
 
श्लोक 99:  इस तरह कृष्ण के शरीर की सुगन्ध ने श्री चैतन्य महाप्रभु का मन चुरा लिया, जिससे वे भौंरे की तरह इधर - उधर दौड़ने लगे। वे वृक्षों तथा लताओं के पास इस आशा से दौड़ जाते कि भगवान् कृष्ण प्रकट होंगे, किन्तु उनको केवल कृष्ण के शरीर की सुगन्ध ही प्राप्त हो पाती।
 
श्लोक 100:  स्वरूप दामोदर तथा रामानन्द राय दोनों ही महाप्रभु के लिए गाने लगे और महाप्रभु नृत्य करने लगे। वे प्रातः होने तक सुख का आनन्द लेते रहे। तब महा प्रभु को दोनों पार्षदों ने महाप्रभु की बाह्य चेतना जगाने के लिए उपाय सोचा।
 
श्लोक 101:  इस तरह श्रील रूप गोस्वामी का दास मैं, कृष्णदास, ने इस अध्याय में महाप्रभु की चार प्रकार की लीलाओं का गान किया है — महाप्रभु की मातृभक्ति, उनके पागलपन के शब्द, रात में दीवालों पर उनका मुख रगड़ना तथा भगवान् कृष्ण की सुगन्ध प्रकट होने पर उनका नृत्य करना।
 
श्लोक 102:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु को फिर से बाह्य चेतना आ गई। तब उन्होंने स्नान किया और वे भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करने गये।
 
श्लोक 103:  भगवान् कृष्ण की लीलाएँ अलौकिक तथा दिव्य शक्ति से ओतप्रोत हैं। ऐसी लीलाओं की विशेषता है कि वे तकर् की परिधि में नहीं आतीं।
 
श्लोक 104:  जब किसी के हृदय में कृष्ण का दिव्य प्रेम जागृत होता है, तब बड़े से बड़ा विद्वान भी उस व्यक्ति के कार्यकलापों को नहीं समझ सकता।
 
श्लोक 105:  “जिस महान् व्यक्ति के हृदय में भगवत्प्रेम का उदय हुआ हो, उसके कार्यों तथा लक्षणों को बड़े से बड़ा विद्वान भी नहीं समझ सकता।”
 
श्लोक 106:  श्री चैतन्य महाप्रभु के कार्यकलाप, विशेषतया उन्मत्त की तरह उनका बोलना निस्सन्देह असामान्य हैं। अतएव जो भी इन लीलाओं को सुने, उसे चाहिए कि संसारी तर्क न करे। उसे इन लीलाओं का पूरी श्रद्धापूर्वक श्रवण मात्र करना चाहिए।
 
श्लोक 107:  इन बातों के सत्य होने की प्रामाणिकता ‘श्रीमद्भागवत’ में प्राप्त है। दशम दसवें के ‘भ्रमर गीत’ नामक अध्याय में श्रीमती राधारानी कृष्ण के प्रेमावेश में उन्मत्त जैसी बातें करती हैं।
 
श्लोक 108:  श्रीमद्भागवत के दसवें स्कन्ध के अन्त में वर्णित द्वारका की रानियों के गीत विशेष अर्थपूर्ण हैं। उन्हें बड़े - बड़े पंडित भी नहीं समझ पाते।
 
श्लोक 109:  यदि कोई व्यक्ति श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु के दासों का दास बन जाता है और उनकी कृपा प्राप्त कर लेता है, तो वह इन सारी बातों पर विश्वास कर सकता है।
 
श्लोक 110:  इन कथाओं को श्रद्धापूर्वक सुनने का प्रयास करो, क्योंकि इनके सुनने में भी परम आनन्द होता है। इसे सुनने से शरीर, मन तथा अन्य जीवों से सम्बन्धित सारे कष्ट नष्ट हो जायेंगे और उसी के साथ मिथ्या तर्को का दुःख भी दूर हो जायेगा।
 
श्लोक 111:  श्री चैतन्य चरितामृत नित्य नवीन है। इसको बार - बार सुनने से मनुष्य के हृदय तथा कान शान्त होते हैं।
 
श्लोक 112:  श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए उनके चरणचिह्नों पर चलकर, मैं कृष्णदास, श्री चैतन्य - चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥