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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  अन्त्य लीला  »  अध्याय 2: छोटे हरिदास को दण्ड  » 
 
 
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने अमृत प्रवाह भाष्य में इस अध्याय का सारांश इस प्रकार दिया हैः श्री चैतन्य चरितामृत के लेखक कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रत्यक्ष भेटो, उनके द्वारा शक्त्याविष्ट लोगो से भेंटों तथा उनके आविर्भाव की व्याख्या करनी चाही। इस तरह उन्होंने नृसिंहानन्द तथा अन्य भक्तों की महिमाओं का वर्णन किया। एक भक्त भगवान् आचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में अत्यधिक श्रद्धा रखता था। तो भी उसके भाई गोपाल भट्ट आचार्य ने मायावाद भाष्य पर व्याख्यान दिये। श्री चैतन्य महाप्रभु के सचिव श्रील स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने भगवान् आचार्य को वह भाष्य सुनने से मना किया। बाद में जब भगवान् आचार्य के आदेश पर छोटा हरिदास माधवी देवी से भिक्षा माँगने गया , तो उसने संन्यासी होते हुए भी एक स्त्री से घुल-मिलकर बातें करने का अपराध किया। इसके कारण श्री चैतन्य महाप्रभु ने छोटे हरिदास का बहिष्कार किया और अपने बड़े से बड़े भक्तों के अनुरोध के बावजूद भी महाप्रभु ने उसे फिर से स्वीकार नहीं किया। इस घटना के एक वर्ष बाद छोटे हरिदास ने गंगा-यमुना के संगम में जाकर आत्महत्या कर ली। किन्तु वह अपने आध्यात्मिक देह में भक्ति-गीत गाता रहा और श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें सुना। जब बंगाल के वैष्णवजन श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने आये , तो यह घटना स्वरूप दामोदर तथा अन्यों को ज्ञात हुई।
 
 
श्लोक 1:  मैं अपने गुरु तथा भक्ति - मार्ग के अन्य सारे उपदेशकों के चरणकमलों में सादर नमस्कार करता हूँ। मैं सारे वैष्णवों को तथा श्रील रूप गोस्वामी, श्रील सनातन गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी, जीव गोस्वामी तथा उनके साथियों ससेत छही गोस्वामियों को सादर नमस्कार करता हूँ। मैं श्री अद्वैत आचार्य प्रभु, श्री नित्यानन्द प्रभु, श्री चैतन्य महाप्रभु तथा श्रीवास ठाकुर आदि उनके सारे भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ।
 
श्लोक 2:  श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो! तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो!
 
श्लोक 3:  अपने श्री चैतन्य महाप्रभु के अवतार में भगवान् श्रीकृष्ण तीनों लोक के - ब्रह्मलोक से लेकर पाताललोक तक के सारे जीवों का उद्धार करने के लिए अवतरित हुए। उन्होंने तीन प्रकार से उनका उद्धार किया।
 
श्लोक 4:  महाप्रभु ने कुछ स्थानों पर पतितात्माओं से प्रत्यक्ष मिलकर, अन्य स्थानों पर किसी शुद्ध भक्त में शक्ति संचार करके तथा और स्थानों पर उनके समक्ष प्रकट होकर उनका उद्धार किया।
 
श्लोक 5-6:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्राय: समस्त पतितात्माओं का उद्धार उनसे प्रत्यक्ष भेंट करके किया। उन्होंने नकुल ब्रह्मचारी जैसे महान् भक्तों के शरीर में प्रवेश करके तथा नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी जैसों के समक्ष प्रकट होकर अन्यों का उद्धार किया। “मैं पतितात्माओं का उद्धार करूँगा” - यह कथन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के स्वभाव का सूचक है।
 
श्लोक 7:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु साक्षात् विद्यमान थे, तब संसार का जो भी व्यक्ति उनसे एक बार भी मिलता था, वह पूर्णतया सन्तुष्ट हो जाता था और आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत बन जाता था।
 
श्लोक 8:  प्रतिवर्ष भक्तगण श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने के लिए बंगाल से जगन्नाथपुरी जाया करते थे और उनसे मिलने के बाद वे बंगाल लौट जाते थे।
 
श्लोक 9:  इसी तरह भारत के विभिन्न प्रान्तों से जो लोग जगन्नाथ पुरी जाते, वे श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलो का दर्शन करके पूर्णतया सन्तुष्ट हो जाते।
 
श्लोक 10:  ब्रह्माण्ड - भर से, जिसमें सातों द्वीप, नवों खण्ड, देव - लोक, गन्धर्व लोक तथा किन्नर लोक सम्मिलित हैं, लोग मनुष्यों के रूप में वहाँ जाते।
 
श्लोक 11:  वे सभी महाप्रभु के दर्शन पाकर वैष्णव बन गये। इस तरह भगवत्प्रेम में उन लोगों ने हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन किया और नृत्य किया।
 
श्लोक 12:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रत्यक्ष भेंट करके तीनों लोकों का उद्धार किया। किन्तु कुछ लोग नहीं जा सके क्योंकि वे भौतिक कार्यकलापों में फँसे हुए थे।
 
श्लोक 13:  ब्रह्माण्ड के उन भागों के लोगों का उद्धार करने के लिए, जो उनसे भेंट नहीं कर पाये, श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं शुद्ध भक्तों के शरीर में प्रवेश किया।
 
श्लोक 14:  इस तरह उन्होंने जीवों (अपने शुद्ध भक्तों) में अपनी इतनी भक्ति प्रकट करके उन्हें आविष्ट कर दिया कि अन्य सारे देशों के लोग उन्हें देखकर भक्त बन गये।
 
श्लोक 15:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने न केवल अपनी निजी उपस्थिति से, अपितु अन्यों को शक्त्याविष्ट करके भी तीनों लोकों का उद्धार किया। मैं संक्षेप में वर्णन करूँगा कि किस तरह उन्होंने बंगाल में एक जीव को शक्त्याविष्ट किया।
 
श्लोक 16:  आम्बुया प्रान्त में नकुल ब्रह्मचारी नाम के एक व्यक्ति थे, जो पूर्णतया शुद्ध भक्त थे और भक्ति में अत्यन्त उन्नत थे।
 
श्लोक 17:  बंगाल के सभी लोगों का उद्धार करने की इच्छा से श्री चैतन्य महाप्रभु ने नकुल ब्रह्मचारी के हृदय में प्रवेश किया।
 
श्लोक 18:  नकुल ब्रह्मचारी भूतप्रेत से सताये हुए व्यक्ति के समान बन गये। इस तरह वे कभी हँसते, तो कभी रोते, कभी नाचते और कभी पागल व्यक्ति की तरह गाते।
 
श्लोक 19:  वे निरन्तर दिव्य प्रेम के शारीरिक विकार प्रकट करते। इस तरह वे रोते, काँपते, स्तम्भित होते, पसीने से लथपथ होते, भगवत्प्रेम के वशीभूत होकर नाचते और बादल जैसी ध्वनि उत्पन्न करते।
 
श्लोक 20:  उनका शरीर श्री चैतन्य महाप्रभु जैसी कान्ति से चमकता था और वे भगवत्प्रेम में वैसी ही तल्लीनता प्रदर्शित करते थे। इन लक्षणों को देखने के लिए बंगाल के सारे प्रान्तों से लोग आते थे।
 
श्लोक 21:  जिससे भी वे मिलते, उससे हरे कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने को कहते। इस तरह लोग उन्हें देखकर भगवत्प्रेम से अभिभूत हो जाते।
 
श्लोक 22:  जब शिवानन्द सेन ने सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु नकुल ब्रह्मचारी के शरीर में प्रविष्ट हुए हैं, तो वे अपने मन में शंकालु होकर वहाँ गये।
 
श्लोक 23:  नकुल ब्रह्मचारी की प्रामाणिकता की परीक्षा करने की इच्छा से वे इस प्रकार सोचते हुए बाहर ही खड़े रहे।
 
श्लोक 24-25:  “यदि नकुल ब्रह्मचारी मुझे अपने आप बुलाता है और मेरा इष्ट मन्त्र जान लेता है, तो मैं समझंगा कि वह श्री चैतन्य महाप्रभु की उपस्थिति से आवेशित है।” इस तरह सोचते हुए वे कुछ दूरी पर रुके रहे।
 
श्लोक 26:  वहाँ लोगों की बड़ी भीड़ थी। कुछ लोग आ रहे थे और कुछ जा रहे थे। निस्सन्देह, उस विशाल भीड़ में कुछ लोग नकुल ब्रह्मचारी का दर्शन तक नहीं कर सके।
 
श्लोक 27:  नकुल ब्रह्मचारी ने अपनी आवेशित अवस्था में कहा, “शिवानन्द कुछ दूरी पर रुका हुआ है। तुम में से दो - चार लोग जाकर उसे बुला लाओ।”
 
श्लोक 28:  इस तरह लोग चारों दिशाओं में इस तरह पुकारते हुए इधर - उधर दौड़ने लगे, “शिवानन्द! जो भी शिवानन्द हो, कृपया आ जाओ। नकुल ब्रह्मचारी तुम्हें बुला रहे हैं।”
 
श्लोक 29:  उनकी बुलाने की आवाज सुनकर शिवानन्द सेन तुरन्त वहाँ गये, उन्होंने नकुल ब्रह्मचारी को नमस्कार किया और वे उनके निकट बैठ गये।
 
श्लोक 30:  नकुल ब्रह्मचारी ने कहा, “मैं जानता हूँ कि तुम्हें संशय है। अब इसका प्रमाण अत्यन्त ध्यान से सुनो।”
 
श्लोक 31:  “तुम चार अक्षरों वाला गौर गोपाल मन्त्र का जप करते हो। अब तुम अपने मन के भीतर बसने वाले संशय को त्याग दो।”
 
श्लोक 32:  इस पर शिवानन्द सेन ने अपने मन में पूर्ण विश्वास उत्पन्न कर लिया कि नकुल ब्रह्मचारी श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा आविष्ट है। तब शिवानन्द सेन ने उसका आदर किया तथा भक्तिमयी सेवा की।
 
श्लोक 33:  इस तरह से श्री चैतन्य महाप्रभु की अचिन्त्य शक्तियों को समझना चाहिए। अब जिस तरह से उनका आविर्भाव होता है, उसे सुनिये।
 
श्लोक 34-35:  श्री चैतन्य महाप्रभु सदैव चार स्थानों में प्रकट हुए - ये हैं - माता शची के घरेलू मन्दिर में, श्री नित्यानन्द प्रभु के नृत्य करने के स्थानों में, सामूहिक कीर्तन के समय श्रीवास पण्डित के घर में तथा राघव पण्डित के घर में। वे अपने भक्तों के प्रेम के प्रति आकर्षित होने के कारण प्रकट हुए। यही उनका सहज स्वभाव है।
 
श्लोक 36:  श्री चैतन्य महाप्रभु नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी के समक्ष प्रकट हुए और उन्होंने उसका दिया भोजन ग्रहण किया। कृपया इसके विषय में ध्यान लगाकर सुनें।
 
श्लोक 37:  शिवानन्द सेन का एक भांजा था, जिसका नाम श्रीकान्त सेन था, जो श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से अत्यन्त भाग्यशाली था।
 
श्लोक 38:  एक वर्ष श्रीकान्त सेन महाप्रभु का दर्शन करने की अतीव उत्सुकता से अकेले ही जगन्नाथ पुरी आया।
 
श्लोक 39:  श्रीकान्त सेन को देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस पर अहैतुकी कृपा की। श्रीकान्त सेन जगन्नाथपुरी में लगभग दो महीने तक श्री चैतन्य महाप्रभु के पास रहा।
 
श्लोक 40:  जब वह बंगाल लौटने वाला था, तो महाप्रभु ने उससे कहा, “इस वर्ष बंगाल के भक्तों को जगन्नाथ पुरी आने से मना कर देना।”
 
श्लोक 41:  “इस वर्ष मैं स्वयं बंगाल जाऊँगा और वहाँ अद्वैत आचार्य इत्यादि सारे भक्तों से मिलूँगा।”
 
श्लोक 42:  “तुम शिवानन्द सेन को यह बता देना कि इस पौष (दिसम्बर - जनवरी) मास में मैं अवश्य ही उसके घर जाऊँगा।”
 
श्लोक 43:  “वहाँ पर जगदानन्द हैं। वे मुझे भोजन की भिक्षा देंगे। उन सबसे कहना कि इस वर्ष कोई भी जगन्नाथ पुरी न आये।”
 
श्लोक 44:  जब श्रीकान्त सेन ने बंगाल लौटकर यह सन्देश दिया, तो सारे भक्तों के मन अतीव प्रसन्न हो गये।
 
श्लोक 45:  अद्वैत आचार्य अन्य भक्तों के साथ जगन्नाथ पुरी जाने ही वाले थे, किन्तु यह सन्देश सुनकर वे रुक गये। शिवानन्द सेन तथा जगदानन्द भी श्री चैतन्य महाप्रभु के आगमन की प्रतीक्षा करते रुके रहे।
 
श्लोक 46:  जब पौष मास आया, तो शिवानन्द तथा जगदानन्द दोनों ने महाप्रभु के स्वागत के लिए सभी प्रकार की सामग्री एकत्र की। वे प्रतिदिन सन्थ्या समय तक महाप्रभु के आने की प्रतीक्षा किया करते।
 
श्लोक 47:  जब महीना बीत गया, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु नहीं आये, तो जगदानन्द तथा शिवानन्द अत्यधिक दु:खी हुए।
 
श्लोक 48-49:  एकाएक नृसिंहानन्द आये। जगदानन्द तथा शिवानन्द ने उन्हें अपने निकट बैठाने का प्रबन्ध किया।
 
श्लोक 50:  तब शिवानन्द सेन ने उनसे कहा, “श्री चैतन्य महाप्रभुने वचन दिया था कि वे आयेंगे। तो फिर वे क्यों नहीं आये?”
 
श्लोक 51:  यह सुनकर नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया, “तुम लोग सन्तोष रखो। मैं तुम दोनों को विश्वास दिलाता हूँ कि आज से तीसरे दिन मैं उन्हें यहाँ ले आऊँगा।”
 
श्लोक 52:  शिवानन्द तथा जगदानन्द नृसिंहानन्द के प्रभाव तथा भगवत्प्रेम को जानते थे। इसलिए अब वे आश्वस्त हो गये कि वे निश्चय ही श्री चैतन्य महाप्रभु को ले आयेंगे।
 
श्लोक 53:  उनका असली नाम प्रद्युम्न ब्रह्मचारी था। उनका नृसिंहानन्द नाम स्वयं भगवान् गौरसुन्दर ने रखा था।
 
श्लोक 54:  दो दिनों तक ध्यान करने के बाद नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी ने शिवानन्द को बतलाया, “मै अब श्री चैतन्य महाप्रभुको पाणिहाटि नामक गाँव तक ले आया हूँ।
 
श्लोक 55:  “वे कल दोपहर में आपके घर आयेंगे। इसलिए भोजन बनाने की सारी सामग्री ले आयें। मैं स्वयं भोजन बनाऊँगा और उन्हें भोजन दूँगा।
 
श्लोक 56:  “इस प्रकार से मैं उन्हें शीघ्र ही यहाँ ले आऊँगा। आप आश्वस्त रहो कि मैं सच कह रहा हूँ। आप सन्देह मत करो।
 
श्लोक 57:  “आप तुरन्त सारी सामग्री लाओ, क्योंकि मैं तुरन्त रसोई पकाना शुरू करना चाहता हूँ। मैं जो कहता हूँ वह कृपया करें।”
 
श्लोक 58:  नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी ने शिवानन्द से कहा, “मैं जो भी भोजन - सामग्री चाहता हूँ, कृपया आप ले आयें।” इस तरह उन्होंने जो भी माँगा, शिवानन्द सेन तुरन्त ले आये।
 
श्लोक 59:  प्रातःकाल शीघ्र ही शुरू करके नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी ने अनेक प्रकार के भोजन तैयार किये, जिनमें सब्जियाँ, रोटियाँ, खीर तथा अन्य पकवान थे।
 
श्लोक 60:  भोजन पकाने के बाद वे जगन्नाथ तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के लिए अलग - अलग भोग ले आये।
 
श्लोक 61:  उन्होंने अपने आराध्य देव नृसिंहदेव का भी अलग से भोग लगाया। इस तरह उन्होंने समस्त भोजन को तीन भोगों में बाँट दिया। तब मन्दिर के बाहर वे महाप्रभु का ध्यान करने लगे।
 
श्लोक 62:  उन्होंने ध्यान में देखा कि श्री चैतन्य महाप्रभु तेजी से आये, बैठ गये और तीनों भोग खा गये, कुछ भी शेष नहीं बचा।
 
श्लोक 63:  श्री चैतन्य महाप्रभु को सारा भोजन खाते देखकर प्रद्युम्न ब्रह्मचारी दिव्य आनन्द से विभोर हो गये। उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। फिर भी उन्होंने यह कहकर व्याकुलता व्यक्त की, “हाय हाय! मेरे प्रिय प्रभु, आप यह क्या कर रहे हैं? आप तो सबका भोजन खाये जा रहे हैं!
 
श्लोक 64:  “हे प्रभु, आप तथा जगन्नाथ एक हैं, इसलिए उनका भोग आप खायें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु आप भगवान् नृसिंहदेव के भोग को क्यों हाथ लगा रहे हैं?
 
श्लोक 65:  “मैं सोचता हूँ कि नृसिंहदेव आज कुछ भी नहीं खा सके, इसलिए वे उपवास कर रहे हैं। यदि स्वामी उपवास करें, तो सेवक कैसे जीवित रह सकता है?”
 
श्लोक 66:  यद्यपि श्री चैतन्य महाप्रभु को सारी वस्तुएँ खाते देखकर नृसिंह ब्रह्मचारी को अपने हृदय में प्रसन्नता हुई, किन्तु भगवान् नृसिंहदेव के लिए उन्होंने ऊपर से निराशा व्यक्त की।
 
श्लोक 67:  श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। अत: उनमें, भगवान् जगन्नाथ तथा भगवान् नृसिंहदेव में कोई अन्तर नहीं है।
 
श्लोक 68:  प्रद्युम्न ब्रह्मचारी इस बात को जान लेने के लिए अत्यधिक उत्सुक थे। अतएव श्री चैतन्य महाप्रभु ने एक प्रत्यक्ष निदर्शन द्वारा उनके समक्ष यह प्रकट किया।
 
श्लोक 69:  सारा भोग खा लेने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु पाणिहाटि के लिए चल दिये। वहाँ पर राघव के घर में तैयार किये गये नाना प्रकार के व्यंजनों को देखकर वे अत्यधिक सन्तुष्ट हुए।
 
श्लोक 70:  शिवानन्द ने नृसिंहानन्द से कहा, “आप असन्तोष क्यों व्यक्त कर रहे हो?” नृसिंहानन्द ने उत्तर दिया, “जरा अपने प्रभु श्री चैतन्य महाप्रभु का आचरण तो देखो! तिन जनार भोग तेंहो एकेला खाइला।
 
श्लोक 71:  “उन्होंने अकेले ही तीनों विग्रहों के भोग खा लिए। इसके कारण जगन्नाथजी तथा नृसिंहदेव दोनों भूखे रहे।”
 
श्लोक 72:  जब शिवानन्द सेन ने यह कथन सुना, तो उन्हें सन्देह हुआ कि नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी जो कह रहे हैं, वह प्रेमाविष्ट होने के कारण कह रहे हैं या वास्तव में यह सच है।
 
श्लोक 73:  जब शिवानन्द सेन इस तरह संशयग्रस्त थे, तो नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी ने उनसे कहा, “और भोजन - सामग्री लाओ। मुझे भगवान् नृसिंहदेव के लिए फिर से भोजन पकाने दो।”
 
श्लोक 74:  तब शिवानन्द सेन पुनः भोजन बनाने की सामग्री ले आये और प्रद्युम्न ब्रह्मचारी ने पुनः भोजन पकाया तथा नृसिंहदेव को भोजन अर्पित किया।
 
श्लोक 75:  अगले वर्ष शिवानन्द अन्य सारे भक्तों के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों का दर्शन करने जगन्नाथ पुरी गये।
 
श्लोक 76:  एक दिन समस्त भक्तों के सामने महाप्रभु ने नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी से सम्बन्धित ये बातें चलाई और उनके दिव्य गुणों की वे प्रशंसा करने लगे।
 
श्लोक 77:  महाप्रभु ने कहा, “पिछले साल पौष महीने में, जब नृसिंहानन्द ने मुझे खाने के लिए तरह - तरह की मिठाइयाँ तथा सब्जियाँ दीं, तो वे इतनी उत्तम थीं कि इसके पूर्व मैंने ऐसे व्यंजन कभी नहीं खाये थे।”
 
श्लोक 78:  यह सुनकर सारे भक्त आश्चर्यचकित रह गये और शिवानन्द को विश्वास हो गया कि यह घटना सही थी।
 
श्लोक 79:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु शचीमाता के मन्दिर में प्रतिदिन भोजन करते थे और श्रीवास ठाकुर के घर भी जाते थे, जब कीर्तन होता था।
 
श्लोक 80:  इसी तरह जब नित्यानन्द प्रभु नृत्य करते थे, तब वे सदैव उपस्थित रहते थे और वे नियमित रूप से राघव के घर में प्रकट होते थे।
 
श्लोक 81:  महाप्रभु गौरसुन्दर अपने भक्तों के प्रेम से अत्यधिक प्रभावित रहते हैं। इसलिए जहाँ भी भगवान् की शुद्ध भक्ति होती है, वहाँ महाप्रभु ऐसे प्रेम के वशीभूत होकर स्वयं प्रकट होते हैं और उनके भक्त उनका दर्शन करते हैं।
 
श्लोक 82:  शिवानन्द सेन के प्रेम व्यवहार से प्रभावित होकर श्री चैतन्य महाप्रभु बारम्बार आये। इसलिए उनके प्रेम की सीमा का अनुमान भला कौन लगा सकता है?
 
श्लोक 83:  इस तरह मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु के आविर्भाव का वर्णन किया है। जो भी इन घटनाओं के विषय में सुनता है, वह महाप्रभु के दिव्य ऐश्वर्य को समझ सकता है।
 
श्लोक 84:  जगन्नाथपुरी में श्री चैतन्य महाप्रभु की संगति में भगवान् आचार्य रहते थे, जो निश्चय ही भद्र, विद्वान तथा महान् भक्त थे।
 
श्लोक 85:  वे ईश्वर के साथ सख्य भाव में निमग्न रहते थे। वे ग्वालबाल के अवतार थे और स्वरूप दामोदर गोस्वामी के साथ उनका व्यवहार अत्यन्त मैत्रीपूर्ण था।
 
श्लोक 86:  उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की पूरी तरह से शरण ले रखी थी। कभी - कभी वे महाप्रभु को अपने घर पर भोजन करने के लिए निमन्त्रित करते थे।
 
श्लोक 87:  भगवान् आचार्य अपने घर में नाना प्रकार के चावल तथा सब्जियाँ तैयार करते और महाप्रभु को अकेले खिलाने के लिए अपने घर पर ले आते।
 
श्लोक 88:  भगवान् आचार्य के पिता का नाम शतानन्द खान था, जो दक्ष राजनीतिज्ञ थे ; जबकि भगवान् आचार्य की राजप्रबन्ध में तनिक भी रुचि नहीं थी। निस्सन्देह, वे प्राय: वैरागी थे।
 
श्लोक 89:  भगवान् आचार्य के भाई ने, जिसका नाम गोपाल भट्टाचार्य था, बनारस में वेदान्त दर्शन का अध्ययन किया था और अब वह भगवान् आचार्य के घर लौट आया था।
 
श्लोक 90:  भगवान् आचार्य अपने भाई को श्री महाप्रभु से भेंट कराने ले गये, किन्तु महाप्रभु यह जानकर कि गोपाल भट्टाचार्य मायावादी दार्शनिक है, उससे मिलकर अधिक प्रसन्न नहीं हुए।
 
श्लोक 91:  श्री चैतन्य महाप्रभु को ऐसे व्यक्ति से मिलकर कोई सुख नहीं मिलता है, जो कृष्ण का शुद्ध भक्त न हो।
 
श्लोक 92:  भगवान् आचार्य ने स्वरूप दामोदरसे कहा, “मेरा छोटा भाई गोपाल वेदान्त दर्शन का अध्ययन समाप्त करके मेरे घर लौट आया है।”
 
श्लोक 93:  भगवान् आचार्य ने स्वरूप दामोदर से गोपाल से वेदान्त पर भाष्य सुनने के लिए अनुरोध किया। किन्तु स्वरूप दामोदर प्रेमवश कुछ क्रुद्ध होकर इस तरह बोले।
 
श्लोक 94:  “तुमने गोपाल की संगति में अपनी बुद्धि खो दी है, अतएव तुम मायावाद दर्शन सुनने के लिए इच्छुक हो।”
 
श्लोक 95:  “जब कोई वैष्णव वेदान्त - सूत्र पर शारीरक भाष्य नामक मायावादी टीका सुनता है, तो वह इस कृष्णभावनाभावित प्रवृत्ति को त्याग देता है कि भगवान् स्वामी हैं और जीव उनका सेवक है। इसके स्थान पर वह अपने आपको ही भगवान् मानने लगता है।”
 
श्लोक 96:  “मायावाद दर्शन ऐसा वाक्जाल प्रस्तुत करता है कि बड़े से बड़ा भत जिसने कृष्ण को अपना जीवन तथा आत्मा के रूप में स्वीकार कर लिया है, अपना निर्णय बदल देता है जब वह वेदान्त - सूत्र पर मायावाद भाष्य पढ़ता है।”
 
श्लोक 97:  स्वरूप दामोदर की आपत्ति के बावजूद भगवान् आचार्य कहते रहे, “हम सभी अपने तन तथा मन से भगवान् कृष्ण के चरणकमलों पर स्थिर हैं। अतएव शारीरक भाष्य हमारे मनों को नहीं बदल सकता।”
 
श्लोक 98:  स्वरूप दामोदर ने उत्तर दिया, “तो भी जब हम मायावाद दर्शन सुनते हैं, तो हम यही सुनते हैं कि ब्रह्म ज्ञान है और माया का ब्रह्माण्ड मिथ्या है, किन्तु हम कोई आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त नहीं करते।
 
श्लोक 99:  “मायावादी दार्शनिक यह स्थापना करने का प्रयास करता है कि जीव मात्र काल्पनिक है और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् माया के अधीन हैं। इस तरह की टीका सुनकर भक्त का हृदय तथा जीवन विदीर्ण हो जाता है।
 
श्लोक 100:  इस प्रकार अत्यन्त लजित तथा भयभीत भगवान् आचार्य मौन रहे। अगले दिन उन्होंने गोपाल भट्टाचार्य से अपने जिले में लौट जाने के लिए कहा।
 
श्लोक 101:  एक दिन भगवान् आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने घर पर भोजन करने के लिए आमन्त्रित किया। इस तरह वे चावल तथा विविध प्रकार की सब्जियाँ तैयार करने लगे।
 
श्लोक 102:  “छोटा हरिदास” नामक एक भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु के लिए गाना गाता था। भगवान् आचार्य ने उसे अपने घर बुलाया और उससे इस प्रकार कहा।
 
श्लोक 103:  “तुम शिखिमाहिति की बहन के पास जाओ। मेरे नाम पर उससे एक मान सफेद चावल माँगकर यहाँ ले आओ।”
 
श्लोक 104:  शिखि माहिति की बहन का नाम माधवीदेवी था। वह वृद्धा थी जो सदैव तपस्या करती थी। वह भक्ति में बहुत उन्नत थी।
 
श्लोक 105:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनका श्रीमती राधारानी की एक पूर्व संगिनी के रूप में स्वीकार किया था। सारे संसार में उनके कुल साढ़े तीन घनिष्ठ भक्त थे।
 
श्लोक 106:  ये तीन भक्त थे - स्वरूप दामोदर गोस्वामी, रामानन्द राय तथा शिखिमाहिति और आधा व्यक्ति था शिखिमाहिति की बहिन।
 
श्लोक 107:  जब छोटा हरिदास उससे चावल माँगकर भगवान् आचार्य के पास ले आया, तो वे इसकी गुणवत्ता देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए।
 
श्लोक 108:  भगवान् आचार्य ने बड़े ही स्नेह के साथ तरह - तरह की सब्जियाँ तथा अन्य पकवान पकाए, जो श्री चैतन्य महाप्रभु को प्रिय थे। उन्होंने जगन्नाथजी का प्रसाद तथा पिसी सोंठ तथा नींबू और नमक जैसे पाचक - व्यंजन भी प्राप्त किये।
 
श्लोक 109:  दोपहर में जब श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान् आचार्य की भिक्षा पाने आये, तो उन्होंने सर्वप्रथम उत्तम चावल की प्रशंसा की और फलस्वरूप उनसे पूछा।
 
श्लोक 110:  महाप्रभु ने पूछा, “तुमने ऐसा बढ़िया चावल कहाँ से प्राप्त किया?” भगवान आचार्य ने उत्तर दिया, “मैंने माधवीदेवी से माँगकर प्राप्त किया है।”
 
श्लोक 111:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा कि चावल माँगकर कौन लाया है? तो भगवान् आचार्य ने छोटे हरिदास के नाम का उल्लेख किया।
 
श्लोक 112:  चावल के गुण की प्रशंसा करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रसाद ग्रहण किया। फिर अपने निवासस्थान लौटकर उन्होंने अपने निजी सहायक गोविन्द को यह आदेश दिया।
 
श्लोक 113:  “आज के बाद छोटे हरिदास को यहाँ मत आने देना।”
 
श्लोक 114:  जब छोटे हरिदास ने सुना कि उसे श्री चैतन्य महाप्रभु के पास न जाने का आदेश हुआ है, तो वह अत्यन्त दु:खी हुआ। कोई नहीं जान सका कि उसे न आने का आदेश क्यों दिया गया।
 
श्लोक 115:  हरिदास ने लगातार तीन दिनों तक उपवास किया। तब स्वरूप दामोदरगोस्वामी तथा अन्य अन्तरंग भक्तगण श्री चैतन्य महाप्रभु के पास उनसे पूछने पहुँचे।
 
श्लोक 116:  “छोटे हरिदास ने कौन - सा महान् अपराध किया है? उसे आपके द्वार तक आने से मना क्यों किया गया है? अब वह तीन दिनों से उपवास कर रहा है।”
 
श्लोक 117:  महाप्रभु ने उत्तर दिया, “मैं उस व्यक्ति का मुँह नहीं देख सकता, जो वैराग्य स्वीकार करने पर भी एक स्त्री से घुल - मिलकर बातें करता हो।
 
श्लोक 118:  “इन्द्रियाँ अपनी भोग - वस्तुओं से इतनी दृढ़ता से आकर्षित होती हैं कि स्त्री की काठ की मूर्ति भी निश्चित रूप से बड़े से बड़े सन्त पुरुष के मन को भी आकृष्ट कर लेती है।
 
श्लोक 119:  “व्यक्ति को अपनी माता, बहन या पुत्री से सटकर नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि इन्द्रियाँ इतनी बलवान होती हैं कि वे बड़े से बड़े ज्ञानी को भी आकृष्ट कर सकती हैं।”
 
श्लोक 120:  “ऐसे अनेक सम्पत्ति - रहित क्षुद्र व्यक्ति हैं, जो बन्दरों जैसा वैराग्य स्वीकार करते हैं। वे इन्द्रियतृप्ति में लगे रहने तथा स्त्रियों से घनिष्टतापूर्वक बातें करने के लिए इधर उधर घूमते हैं।”
 
श्लोक 121:  यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु अपने कमरे में चले गये। उन्हें इस तरह क्रोध की मुद्रा में देखकर सारे भक्त मौन हो गये।
 
श्लोक 122:  अगले दिन सारे भक्त छोटे हरिदास की ओर से निवेदन करने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में पहुँचे।
 
श्लोक 123:  उन्होंने कहा, “हरिदास ने छोटा - सा अपराध किया है, इसलिए हे प्रभु, उस पर कृपालु हों। अब उसे पर्याप्त शिक्षा मिल चुकी है। भविष्य में वह ऐसा अपराध नहीं करेगा।”
 
श्लोक 124:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मेरा मन मेरे वश में नहीं है। यह मन ऐसे व्यक्ति को संन्यास आश्रम में नहीं देखना चाहता, जो स्त्रियों से घुलमिलकर बातें करता हो।
 
श्लोक 125:  “तुम सभी अपने - अपने कार्य पर जाओ। इस व्यर्थ की बात को छोड़ो। यदि तुम लोगों ने फिर से इस तरह बात की, तो मैं चला जाऊँगा और तुम लोग मुझे और यहाँ नहीं देख पाओगे।”
 
श्लोक 126:  यह सुनकर सारे भक्तों ने अपने हाथों से अपने कान बन्द कर लिए और उठकर वे अपने - अपने कार्यों पर चले गये।
 
श्लोक 127:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी अपना दोपहर का कृत्य करने के लिए वह स्थान छोड़ दिया। कोई उनकी लीलाओं को समझ नहीं सका।
 
श्लोक 128:  अगले दिन सारे भक्त श्री परमानन्द पुरी के पास गये और उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि वे महाप्रभु को शान्त करें।
 
श्लोक 129:  इसके बाद परमानन्द पुरी अकेले ही श्री चैतन्य महाप्रभु के स्थान पर गये। महाप्रभु ने नमस्कार करने के बाद उन्हें अपनी बगल में बड़े ही आदर से बैठाया।
 
श्लोक 130:  महाप्रभु ने पूछा, “आपका क्या आदेश है? आप यहाँ किस कार्य से आये हैं?” तब परमानन्द पुरी ने अपनी विनती निवेदित की कि महाप्रभु छोटे हरिदास पर कृपा करें।
 
श्लोक 131:  यह विनती सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “हे प्रभु, कृपया आप मेरी बात सुनें। आपके लिए अच्छा होगा कि आप सारे वैष्णवों समेत यहीं रहें।
 
श्लोक 132:  “कृपया आप मुझे आलालनाथ जाने की अनुमति दें। मैं वहाँ अकेला रहूँगा, केवल गोविन्द मेरे साथ जायेगा।”
 
श्लोक 133:  यह कहकर महाप्रभु ने गोविन्द को बुलाया। परमानन्द पुरी को नमस्कार करके वे उठे और जाने लगे।
 
श्लोक 134:  परमानन्द पुरी अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक उनके सामने गये और अत्यन्त दीनतापूर्वक उन्हें अपने कमरे में बैठने के लिए मनाया।
 
श्लोक 135:  परमानन्द पुरी ने कहा, “हे चैतन्य महाप्रभु, आप स्वतन्त्र पुरुषोत्तम भगवान् हैं। आप जो चाहें सो कर सकते हैं। आपके ऊपर कौन कुछ कह सकता है?
 
श्लोक 136:  “आपके सारे कार्य जनसमान्य के लाभ हेतु हैं। हम उन्हें नहीं समझ सकते, क्योंकि आपके मनोभाव अत्यन्त गहरे तथा गम्भीर हैं।”
 
श्लोक 137:  यह कहकर परमानन्द पुरी अपने घर चले गये। तब सारे भक्त छोटे हरिदास को मिलने गये।
 
श्लोक 138:  स्वरूप दामोदर गोसांइ ने कहा, “हरिदास, हमारी बात सुनो, क्योंकि हम सब तुम्हारा भला चाहते हैं।
 
श्लोक 139:  “इस समय श्री चैतन्य महाप्रभु रुष्ट हैं। वे स्वतन्त्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। किन्तु कभी न कभी वे अवश्य कृपालु होंगे, क्योंकि वे हृदय से अत्यन्त दयालु हैं।”
 
श्लोक 140:  “महाप्रभु हठ कर रहे हैं और यदि तुम भी हठ करोगे, तो उनका हठ बढ़ेगा। तुम्हारे लिए अच्छा होगा कि तुम स्नान करो और प्रसाद पाओ। समय आने पर उनका क्रोध स्वत: दमित हो जायेगा।”
 
श्लोक 141:  यह कहकर स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने हरिदास को स्नान करने तथा प्रसाद लेने के लिए राजी कर लिया। इस तरह उसे आश्वस्त करके वे अपने घर लौट आये।
 
श्लोक 142:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु मन्दिर में भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करने जाते, तो हरिदास दूर ही रहता और वहीं से उनका दर्शन करता।
 
श्लोक 143:  श्री चैतन्य महाप्रभु कृपा के सागर हैं। उन्हें कौन समझ सकता है? जब वे अपने भक्तों को दण्ड देते हैं, तो वे ऐसा जान - बूझकर धर्म के सिद्धान्तों या कर्तव्य की पुनर्स्थापना करने के लिए करते हैं।
 
श्लोक 144:  जब सब भक्तों ने इस उदाहरण को देख लिया, तो उनके मन में भय उत्पन्न हो गया। इसलिए उन सबने स्वप्न में भी स्त्रियों से बातें करना त्याग दिया।
 
श्लोक 145:  इस तरह छोटे हरिदास का पूरा एक वर्ष बीत गया, फिर भी उसके प्रति श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा का कोई नामोनिशान न था।
 
श्लोक 146:  इस तरह एक रात के अन्त में, छोटे हरिदास ने श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करके किसी से कुछ कहे बिना ही प्रयाग के लिए प्रस्थान किया।
 
श्लोक 147:  छोटे हरिदास ने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में शरण पाने के लिए संकल्प किया। इस तरह प्रयाग में गंगा - यमुना के संगम त्रिवेणी में गहरे जल में प्रवेश करके उसने अपने प्राण त्याग दिये।
 
श्लोक 148:  इस तरह आत्महत्या करने के तुरन्त बाद वह अपने आध्यात्मिक शरीर में श्री चैतन्य महाप्रभु के पास गया और उनकी कृपा प्राप्त की। किन्तु वह तब भी अदृश्य रहा।
 
श्लोक 149:  गन्धर्व जैसी दिव्य देह में छोटा हरिदास अदृश्य होते हुए भी रात में श्री चैतन्य महाप्रभुको गीत गाकर सुनाता था, किन्तु महाप्रभु के अतिरिक्त अन्य कोई यह नहीं जानता था।
 
श्लोक 150:  एक दिन श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्तों से पूछा, “हरिदास कहाँ है? अब तुम उसे यहाँ ला सकते हो।”
 
श्लोक 151:  सभी भक्तों ने उत्तर दिया, “एक वर्ष पूरा होने पर एक रात को छोटा हरिदास उठा और चला गया। कोई नहीं जानता कि वह कहाँ गया।”
 
श्लोक 152:  भक्तों को शोक करते हुए देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। इस तरह सारे भक्त अत्यन्त विस्मित थे।
 
श्लोक 153-154:  एक दिन जगदानन्द, स्वरूप, गोविन्द, काशीश्वर, शंकर, दामोदर तथा मुकुन्द - सभी समुद्र में स्नान करने गये। वे दूर से हरिदास को गाते हुए सुन सके, मानो वह उन्हें अपनी मूल आवाज से बुला रहा हो।
 
श्लोक 155:  कोई उसे देख नहीं सका, किन्तु वे सब उसे मधुर स्वर में गाते सुन सके। इसलिए गोविन्द इत्यादि सभी भक्तों ने यह अनुमान लगाया।
 
श्लोक 156:  “हरिदास ने विष पीकर आत्महत्या कर ली होगी और इस पापकर्म के कारण ही अब वह ब्रह्म - राक्षस बन गया है।
 
श्लोक 157:  उन्होंने कहा, “हम उसका भौतिक रूप नहीं देख पा रहे हैं, किन्तु फिर भी उसका मधुर गाना सुन रहे हैं। अतएव वह प्रेत बन गया होगा।” किन्तु स्वरूप दामोदर ने आपत्ति की, “यह झूठा अनुमान है।
 
श्लोक 158:  “छोटे हरिदास ने आजीवन हरे कृष्ण मन्त्र का जप किया और परम भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा की। इतना ही नहीं, वह महाप्रभु को अत्यन्त प्रिय था और उसका तीर्थस्थान में देहान्त हुआ है।
 
श्लोक 159:  “हरिदास का पतन नहीं हुआ होगा। उसे अवश्य ही मुक्ति मिली होगी। यह तो श्री चैतन्य महाप्रभु की लीला है। इसे तुम सब बाद में समझोगे।”
 
श्लोक 160:  एक भक्त प्रयाग से नवद्वीप लौटा और उसने हर एक को छोटे हरिदास की आत्महत्या का विस्तृत विवरण दिया।
 
श्लोक 161:  उसने बताया कि किस तरह हरिदास ने संकल्प किया और फिर वह गंगा - यमुना के संगम में जल में प्रविष्ट हुआ। ये बातें विस्तार से सुनकर श्रीवास ठाकुर तथा अन्य भक्त अत्यधिक चकित हुए।
 
श्लोक 162:  वर्ष के अन्त में शिवानन्द सेन पहले की तरह अन्य भक्तों के साथ जगन्नाथ पुरी आये और परम सुख का अनुभव करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु से मिले।
 
श्लोक 163:  जब श्रीवास ठाकुर ने श्री चैतन्य महाप्रभु से पूछा, “छोटा हरिदास कहाँ है?” तो महाप्रभु ने उत्तर दिया, “मनुष्य को अपने सकाम कर्मों का फल अवश्य मिलता है।”
 
श्लोक 164:  तब श्रीवास ठाकुर ने हरिदास के निर्णय तथा गंगा - यमुना के संगम में उसके जल में प्रवेश करने का विस्तार से वर्णन किया।
 
श्लोक 165:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने विस्तारपूर्वक बातें सुनीं, तो वे प्रसन्न मुद्रा में हँसे और बोले, “यदि कोई स्त्रियों को वासनापूर्ण दृष्टि से देखता है, तो प्रायश्चित की यही एकमात्र विधि है।”
 
श्लोक 166:  तब स्वरूप दामोदर गोस्वामी इत्यादि सारे भक्तों ने यह निष्कर्ष निकाला कि चूँकि हरिदास ने गंगा तथा यमुना नदियों के संगम पर आत्महत्या की है, अत: उसे अन्ततोगत्वा श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की शरण प्राप्त हुई होगी।
 
श्लोक 167:  इस तरह शचीनन्दन श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी लीलाएँ करते हैं, जो कि शुद्ध भक्तों के कर्णों और मनों को महान् सन्तोष देती हैं।
 
श्लोक 168:  यह घटना श्री चैतन्य महाप्रभु की करुणा, उनकी यह शिक्षा कि संन्यासी को अपने संन्यास आश्रम में ही रहना चाहिए तथा उनके श्रद्धालु भक्तों द्वारा उनके प्रति अनुभव किये जाने वाले अगाध अनुराग को प्रकट करती है।
 
श्लोक 169:  यह तीर्थस्थानों की महिमा को भी प्रदर्शित करती है तथा दिखलाती है कि किस तरह महाप्रभु अपने श्रद्धालु भक्त को स्वीकार करते हैं। इस तरह महाप्रभु ने एक लीला करके पाँच - सात उद्देश्यों को पूरा किया।
 
श्लोक 170:  श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ अमृत तुल्य हैं और समुद्र के समान गहरी हैं। सामान्य लोग उन्हें नहीं समझ सकते, किन्तु धीर भक्त इन्हें समझ सकता है।
 
श्लोक 171:  कृपया श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं को श्रद्धा तथा विश्वासपूर्वक सुनिये। तर्क मत कीजिये, क्योंकि तकर् से विपरीत फल प्राप्त होगा।
 
श्लोक 172:  श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके पदचिह्नों पर चलकर श्री चैतन्य - चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
 
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