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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  अन्त्य लीला  »  अध्याय 3: श्रील हरिदास ठाकुर की महिमा  » 
 
 
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अन्त्य-लीला के तृतीय अध्याय का सारांश इस प्रकार दिया है : जगन्नाथ पुरी में एक सुन्दर ब्राह्मण युवती का एक अत्यन्त सुन्दर पुत्र था, जो प्रतिदिन श्री चैतन्य महाप्रभु के पास आया करता था। यह दामोदर पण्डित को अच्छा नहीं लगता था , अतः उसने महाप्रभु से कहा, “यदि आप इस लड़के से इतना प्रेम प्रदर्शित करेंगे , तो लोग आपके चरि त्र के बारे में सन्देह करेंगे।” दामोदर पण्डित के ये शब्द सुनकर महाप्रभु ने उसे अपनी माता शचीदेवी के कामकाज की देखभाल करने के लिए नवद्वीप भेज दिया। उन्होंने दामोदर पण्डित से अपनी माता से विशेष रूप से यह स्मरण दिलाने के लिए भी कहा कि वे कभी -कभी उनके घर उनका अर्पित किया हुआ भोग ग्रहण करने जाते हैं। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु का आदेश पाकर दामोदर पण्डित नवद्वीप गये और अपने साथ भगवान जगन्नाथ के कई प्रकार के प्रसाद लेते गये। एक अन्य अवसर पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर से, जो कि ब्रह्म हरिदास कहलाते थे , यह पूछा कि वैदिक संस्कृति से विहीन व्यक्तियों अर्थात् यवनों का कलियुग में उद्धार किस तरह होगा। हरिदास ठाकुर ने उत्तर दिया कि उनका उद्धार तो तभी सम्भव है , जब वे उच्च स्वर से हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करें , क्योंकि उच्च स्वर से हो रहे हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन सुनकर वे लाभान्वित हो सकें गे , चाहे वह अल्प अनुभूति (नामाभास) से ही क्यों न हो। इस घटना का वर्णन करने के बाद चैतन्य -चरितामृत के रचियता ने शान्तिपुर के निकट के गाँव बेनापोल में हरिदास ठाकुर की परीक्षा का वर्णन किया है। हरिदास ठाकुर से ईर्ष्या रखने वाले एक व्यक्ति रामचन्द्र खान ने उन्हें बदनाम करने के लिए उनके पास एक पेशेवर वेश्या भेजी , किन्तु हरिदास ठाकुर की कृपा से उस वेश्या का भी उद्धार हो गया। शुद्ध वैष्णव का अपमान करने के कारण रामचन्द्र खान को बाद में नित्यानन्द प्रभु ने शाप दिया जिससे वह विनष्ट हो गया। हरिदास ठाकुर बेनापोल से चाँदपुर नामक गाँव चले गये, जहाँ वे बलराम आचार्य के घर में रहने लगे। तत्पश्चात् हरिदास ठाकुर का स्वागत दो भाइयों ने किया, जिनके नाम हिरण्य तथा गोवर्धन मजुमदार थे, किन्तु वार्ता के दौरान गोपाल चक्रवर्ती नामक एक जात ब्राह्मण ने उनका अपमान किया। इस अपराध के कारण गोपाल चक्रवर्ती को कुष्ठ रोग से पीड़ित होने का दण्ड मिला। बाद में हरिदास चाँदपुर छोड़कर अद्वैत आचार्य के घर चले गये, जहाँ मायादेवी ने उनकी परीक्षा ली , जो बहिरंगा शक्ति का प्रतीक थी। उसे भी उन्होंने हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने का आशीर्वाद दिया।
 
 
श्लोक 1:  मैं अपने गुरु तथा भक्ति - मार्ग के अन्य सारे उपदेशकों के चरणकमलों में सादर नमस्कार करता हूँ। मैं सारे वैष्णवों, श्रील रूप गोस्वामी, श्रील सनातन गोस्वामी, श्री रघुनाथ दास गोस्वामी, श्री जीव गोस्वामी समेत छहों गोस्वामियों तथा उनके संगियों को सादर नमस्कार करता हूँ। मैं श्री अद्वैत आचार्य प्रभु, श्री नित्यानन्द प्रभु, श्री चैतन्य महाप्रभु तथा श्रीवास ठाकुर आदि उनके सारे भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ।
 
श्लोक 2:  श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो! तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो!
 
श्लोक 3:  जगन्नाथपुरी में एक बालक था, जो उड़ीसा के निवासी एक ब्राह्मण का पुत्र था, किन्तु बाद में उसका पिता नहीं रहा। इस बालक के शारीरिक लक्षण अत्यन्त सुन्दर थे और उसका आचरण अत्यन्त शालीन था।
 
श्लोक 4-5:  यह बालक नित्य ही श्री चैतन्य महाप्रभु के पास आता और उन्हें सादर नमस्कार करता। वह श्री चैतन्य महाप्रभु से खुलकर बातें करता, क्योंकि महाप्रभु उसके प्राणस्वरूप थे, किन्तु महाप्रभु के साथ इस बालक की घनिष्ठता तथा उसके प्रति महाप्रभु की दया दामोदर पण्डित को असह्य हो रही थी।
 
श्लोक 6:  दामोदर पण्डित इस ब्राह्मण बालक को महाप्रभु के पास जाने से बार - बार मना करते, किन्तु वह बालक श्री चैतन्य महाप्रभु के दर्शन किये बिना घर पर रहना बरदाश्त नहीं कर सकता था।
 
श्लोक 7:  यह बालक नित्य ही महाप्रभु के पास आता और वे उसके साथ बहुत स्नेह का व्यवहार करते। यह किसी भी बालक का स्वभाव है कि वह उस व्यक्ति से मिलने जाता है, जो उसे स्नेह करता है।
 
श्लोक 8:  यह दामोदर पण्डित के लिए असह्य था। वे अत्यधिक दु:खी हुए, किन्तु वे कुछ कह नहीं पा रहे थे, क्योंकि बालक उनके निषेधों की अनदेखी कर देता।
 
श्लोक 9:  एक दिन जब वह बालक श्री चैतन्य महाप्रभु के पास आया, तो महाप्रभु ने बड़े ही स्नेह के साथ उससे सभी प्रकार के समाचार पूछे।
 
श्लोक 10:  कुछ समय बाद जब वह बालक उठकर चला गया, तो दामोदर पण्डित जो यह सह नहीं पा रहे थे, कहने लगे।
 
श्लोक 11:  दामोदर पण्डित ने धृष्टतापूर्वक महाप्रभु से कहा, “सारे लोग आपको महान् शिक्षक कहते हैं, क्योंकि आप अन्यों को उपदेश देते हैं, किन्तु अब हम देखेंगे कि आप किस तरह के शिक्षक हैं।
 
श्लोक 12:  “आप गोसांइ (गुरु या आचार्य) के नाम से विख्यात हैं, किन्तु अब आपके गुण तथा यश की बात सारे पुरुषोत्तम नगर में व्याप्त होगी। आपके पद को कैसा धक्का लगेगा!”
 
श्लोक 13:  यद्यपि श्री चैतन्य महाप्रभु जानते थे कि दामोदर पण्डित शुद्ध तथा सरल भक्त थे, किन्तु यह प्रगल्भ बात सुनकर महाप्रभु ने कहा, “हे दामोदर, तुम यह क्या ऊटपटाँग बात कह रहे हो?” दामोदर पण्डित ने उत्तर दिया, “आप तो स्वतन्त्र परमेश्वर हैं, समस्त आलोचनाओं के परे हैं।
 
श्लोक 14:  “हे प्रभु, आप जैसा चाहें वैसा कर सकते हैं। आपको रोकने के लिए कोई कुछ नहीं कर सकता। फिर भी सम्पूर्ण संसार बातूनी है। लोग कुछ भी कह सकते हैं। आप उन्हें कैसे रोक सकते हैं?
 
श्लोक 15:  “हे प्रभु, आप विद्वान शिक्षक हैं। आप यह विचार क्यों नहीं करते कि यह बालक एक विधवा ब्राह्मणी का पुत्र है? आप इसके प्रति इतने स्नेहिल क्यों हैं?
 
श्लोक 16:  “यद्यपि इस बालक की माता पूर्णतया तपस्विनी तथा सती है, किन्तु उसमें एक सहज दोष है कि वह अत्यन्त सुन्दर युवती है।
 
श्लोक 17:  “और हे प्रभु, आप सुन्दर आकर्षक तरुण व्यक्ति हैं। अतएव निश्चित रूप से लोग आपके बारे में कानाफूसी करेंगे। आप उन्हें ऐसा अवसर क्यों प्रदान करें?”
 
श्लोक 18:  यह कहकर दामोदर पण्डित मौन हो गये। श्री चैतन्य महाप्रभु अपने अन्तर में प्रसन्न होकर मुसकाये और दामोदर पण्डित की धृष्टता पर विचार करने लगे।
 
श्लोक 19:  (श्री चैतन्य महाप्रभु ने सोचा: ) “यह धृष्टता मेरे प्रति शुद्ध प्रेम का संकेत भी है। दामोदर पण्डित जैसा मेरा कोई अन्य घनिष्ठ मित्र नहीं है।”
 
श्लोक 20:  इस तरह सोचते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु दोपहर के कृत्य सम्पन्न करने चले गये। अगले दिन उन्होंने दामोदर पण्डित को एकान्त में बुलाया।
 
श्लोक 21:  महाप्रभु ने कहा, “हे मित्र दामोदर, अच्छा होगा कि तुम नदिया जाओ और मेरी माता के साथ रहो।”
 
श्लोक 22:  “मैं तुम्हारे अतिरिक्त उसका कोई दूसरा रक्षक नहीं देख रहा हूँ, क्योंकि तुम इतने सतर्क रहते हो कि तुम मुझे भी सावधान कर सकते हो।”
 
श्लोक 23:  “तुम मेरे संगियों में सर्वाधिक निष्पक्ष हो। यह बहुत अच्छी बात है, क्योंकि निष्पक्ष हुए बिना मनुष्य धर्म की रक्षा नहीं कर सकता।”
 
श्लोक 24:  “जो मैं नहीं कर सकता, वह तुम कर सकते हो। निस्सन्देह, तुम मुझे भी दण्डित कर सकते हो, अन्यों की बात जाने दो।
 
श्लोक 25:  “तुम्हारे लिए सबसे अच्छी बात यही होगी कि तुम मेरी माता के चरणकमलों की शरण में जाओ, क्योंकि तुम्हारे सामने कोई भी स्वतन्त्रतापूर्वक आचरण नहीं कर सकेगा।
 
श्लोक 26:  “बीच - बीच में तुम यहाँ मुझे देखने आ सकते हो और शीघ्र ही फिर से वहाँ जा सकते हो।
 
श्लोक 27:  “मेरी माता से मेरा कोटि - कोटि नमस्कार कहना। कृपा करके उनसे यहाँ के मेरे सुख के विषय में कहना और इस तरह उन्हें सुख पहुँचाना।
 
श्लोक 28:  “उनसे कहना कि मैंने अपने निजी कार्यकलापों की सूचना देने के लिए तुम्हें भेजा है, जिससे वे मेरे सुख में भाग ले सकें।
 
श्लोक 29:  “इस तरह बोलकर माता शची के मन को तुष्ट करना। उन्हें मेरे इस सन्देश के साथ एक अत्यन्त गोपनीय घटना के सम्बन्ध में स्मरण दिलाना।
 
श्लोक 30:  “मैं आपके घर आपके द्वारा अर्पण की जाने वाली उन सारी मिठाइयों तथा तरकारियों को खाने के लिए बारम्बार आता हूँ।”
 
श्लोक 31:  “आप जानती हो कि मैं आता हूँ और भोजन करता हूँ, किन्तु बाह्य विरह के कारण आप इसे स्वप्न मानती हो।
 
श्लोक 32:  “पिछले माघ संक्रान्ति उत्सव के समय आपने मेरे लिए अनेक प्रकार की सब्जियाँ, गाढ़ा दूध, रोटियाँ तथा खीर बनाई थी।”
 
श्लोक 33:  “आपने भगवान् कृष्ण को भोजन अर्पित किया और अभी तुम ध्यान में ही थीं कि मैं सहसा प्रकट हुआ और आपकी आँखें आँसूओं से भर गई।”
 
श्लोक 34:  “मैं वहाँ अत्यन्त हड़बड़ी में गया और सब कुछ खा गया। जब आपने मुझे खाते देखा, तो आपको महान् सुख का अनुभव हुआ।”
 
श्लोक 35:  “जब आपने अपनी आँखें पोंछ डालीं, तो क्षण - भर में तुमने देखा कि तुमने जो कुछ मुझे पत्तल में दिया था, वह खाली है। तब तुमने सोचा, “मैंने सपना देखा कि मानो निमाइ सब कुछ खा रहा है।”
 
श्लोक 36:  “बाह्य विरह की दशा में आप यह सोचकर पुनः भ्रम में थीं कि आपने वह भोजन भगवान् विष्णु को अर्पित नहीं किया है।
 
श्लोक 37:  “तब आप भोजन पकाने के बर्तन देखने गई और देखा कि हर बर्तन भोजन से भरा है। अतएव आपने भोग लगाने के स्थान को साफ करके फिर से भोग लगाया।
 
श्लोक 38:  “इस तरह आपके द्वारा भेंट की जाने वाली हर वस्तु मैं पुनः पुन: खाता हूँ, क्योंकि मैं आपके शुद्ध प्रेम द्वारा आकृष्ट होता हूँ।
 
श्लोक 39:  “एकमात्र आपके आदेश से मैं नीलाचल (जगन्नाथपुरी) में रह रहा हूँ। फिर भी आप मेरे प्रति अपने गहन प्रेम के कारण मुझे अपने निकट खींचती रहती हो।”
 
श्लोक 40:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने दामोदर पण्डित से कहा, “मेरी माता को इस तरह से बारम्बार स्मरण कराना और मेरा नाम लेकर उनके चरणकमलों की पूजा करना।”
 
श्लोक 41:  यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह आदेश दिया कि भगवान् जगन्नाथ को अर्पित किये जाने वाले तरह - तरह के प्रसाद लाये जाएँ। तब महाप्रभु ने उसे अलग - अलग बँधा प्रसाद विभिन्न वैष्णवों तथा अपनी माता को देने के लिए दिया।
 
श्लोक 42:  इस तरह दामोदर पण्डित नदिया (नवद्वीप) गये। माता शची से मिलने के बाद वे उनके चरणकमलों के संरक्षण में रहे।
 
श्लोक 43:  उन्होंने सारा प्रसाद अद्वैत आचार्य जैसे महान् वैष्णवों को दे दिया। इस तरह वे वहाँ रहे और श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश के अनुसार व्यवहार करते रहे।
 
श्लोक 44:  सभी जानते थे कि दामोदर पण्डित व्यावहारिक बर्ताव में अत्यन्त कठोर हैं। अतएव सारे लोग उनसे भयभीत थे और स्वतन्त्र रूप से कुछ भी करने का साहस नहीं करते थे।
 
श्लोक 45:  दामोदर पण्डित श्री चैतन्य महाप्रभु के हर भक्त को जिसे वे उचित आचरण से थोड़ा भी विचलित हुआ पाते, मौखिक रूप से दण्ड देते। इस तरह उन्होंने आदर्श शिष्टाचार स्थापित किया।
 
श्लोक 46:  इस तरह मैंने दामोदर पण्डित के शाब्दिक दण्ड का वर्णन किया है। जब कोई इसके विषय में सुनता है, तो नास्तिक सिद्धान्त तथा अज्ञान भाग जाते हैं।
 
श्लोक 47:  श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ करोड़ों समुद्रों से भी अधिक गहरी हैं। अतएव कोई नहीं समझ सकता कि वे क्या करते हैं अथवा क्यों ऐसा करते हैं।
 
श्लोक 48:  मैं श्री चैतन्य महाप्रभु के कार्यकलापों का गहन अर्थ नहीं जानता। मैं यथासम्भव उनकी बाह्य व्याख्या करने का प्रयास करूँगा।
 
श्लोक 49:  एक दिन श्री चैतन्य महाप्रभु हमेशा की तरह हरिदास ठाकुर से मिले और विचार - विमर्श के दौरान उन्होंने यह पूछा।
 
श्लोक 50:  “हे हरिदास ठाकुर, इस कलियुग में अधिकांश लोग वैदिक संस्कृति से विहीन हैं, अतएव वे यवन कहलाते हैं। वे केवल गौवों तथा ब्राह्मण संस्कृति की हत्या करने में ही लगे रहते हैं। इस तरह ये सभी यवन पापकर्मों में लगे रहते हैं।
 
श्लोक 51:  “इन यवनों का उद्धार किस तरह होगा? मुझे महान् दु:ख है कि मुझे इसका कोई रास्ता नहीं दिखाई देता।”
 
श्लोक 52:  हरिदास ठाकुर ने उत्तर दिया, “हे प्रिय प्रभु, आप चिन्ता न करें। आप भौतिक संसार में यवनों की दशा देखकर दु:खी न हों।
 
श्लोक 53:  “चूँकि सारे यवन ‘हा राम, हा राम’ कहने के अभ्यस्त हैं, इसलिए वे इस नामाभास द्वारा सरलतापूर्वक उबार लिए जायेंगे।
 
श्लोक 54:  “एक भक्त अत्यधिक प्रेमवश पुकारता है - ‘हे मेरे भगवान् रामचन्द्र! हे मेरे भगवान् रामचन्द्र!’ किन्तु यवन भी जप करते हैं ‘हा राम, हा राम! ’ जरा उनका सौभाग्य तो देखें!”
 
श्लोक 55:  नामाचार्य हरिदास ठाकुर ने, जो कि नाम - कीर्तन के प्रामाणिक आचार्य हैं, कहा, “भगवान् के पवित्र नाम के उच्चारण द्वारा भगवान् के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का संकेत करना नामाभास का उदाहरण है।
 
श्लोक 56:  “सुअर के दाँत से मारा जा रहा और व्यथित होकर बारम्बार ‘हा राम, हा राम’ चिल्लाने वाला म्लेच्छ भी मुक्ति प्राप्त करता है। तो फिर उन लोगों के विषय में क्या कहा जाए, जो आदर तथा श्रद्धा से पवित्र नाम का उच्चारण करते हैं?”
 
श्लोक 57:  “अजामिल जीवन - भर महान् पापी था, किन्तु अपनी मृत्यु के समय उसने अचानक अपने सबसे छोटे पुत्र को पुकारा, जिसका नाम नारायण था, तो विष्णु के दूत यमराज के बन्धन से उसे छुड़ाने आ गये।
 
श्लोक 58:  “राम’ शब्द में दो अक्षर ‘रा’ तथा ‘म’ हैं। ये विलग नहीं किये जा सकते और प्रेमवाची शब्द ‘हा’ से अलंकृत हैं, जिसका अर्थ है ‘हे’।
 
श्लोक 59:  “पवित्र नाम के अक्षरों की इतनी आध्यात्मिक शक्ति है कि अनुचित ढंग से बोले जाने पर भी अपना प्रभाव दिखाते हैं।
 
श्लोक 60:  “यदि भक्त एक बार भी भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण करता है अथवा यह उसके मन में या श्रवण करने के माध्यम रूपी कान में प्रवेश करता है, तो यह पवित्र नाम निश्चय ही उसे भवबन्धन से उबार लेगा, चाहे नामोच्चारण व्याकरण के अनुसार सही ढंग से किया गया हो या गलत ढंग से किया गया हो, चाहे मिलाकर अथवा अलग - अलग खण्डों में किया गया हो। इसलिए हे ब्राह्मण, पवित्र नाम की शक्ति निश्चित रूप से महान् है। किन्तु यदि कोई पवित्र नाम के उच्चारण का उपयोग भौतिक शरीर, भौतिक सम्पत्ति तथा अनुयायियों के लिए अथवा लोभ या नास्तिकता के प्रभाव में आकर करता है - अर्थात् अपराधसहित नामोच्चारण किया जाता है तो ऐसे उच्चारण से तुरन्त वांछित फल नहीं मिलेगा। अतएव भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण करते समय सावधानीपूर्वक अपराधों से बचना चाहिए।”
 
श्लोक 61:  नामाचार्य हरिदास ठाकुर ने कहा, “यदि कोई अपराधरहित होकर अपूर्ण रीति से भी पवित्र नाम का उच्चारण करता है, तो वह पापमय जीवन के सारे फलों से मुक्त हो सकता है।
 
श्लोक 62:  “हे सभी सद्गुणों की खान, आप समस्त पावन करने वालों को भी पावन करने वाले, उत्तमश्लोक शिरोमणि श्रीकृष्ण की पूजा करें। आप श्रद्धायुक्त, अविचलित मन से, निष्कपट होकर तथा अत्युच्च रीति से उनकी पूजा करें। इस प्रकार उन भगवान् की पूजा करें, जिनका नाम सूर्य के समान है, क्योंकि जिस तरह सूर्य के किंचित प्रकट होने पर भी रात्रि का अन्धकार दूर हो जाता है, उसी तरह कृष्ण के पवित्र नाम का थोड़ा - सा भी प्राकट्य अज्ञान के सारे अन्धकार को, जो विगत जन्मों में सम्पन्न बड़े - बड़े पापों के कारण हृदय में उत्पन्न होता है, दूर भगा सकता है।”
 
श्लोक 63:  भगवान् के पवित्र नाम का क्षीण प्रकाश भी पापमय जीवन के सारे फलों को दूर कर सकता है।
 
श्लोक 64:  मरणासन्न अजामिल ने अपने पुत्र नारायण को बुलाने के उद्देश्य से भगवान् के नाम का उच्चारण किया, फिर भी उसे वैकुण्ठ प्राप्त हुआ। तो फिर उनके विषय में क्या कहा जाए, जो श्रद्धा तथा आदरपूर्वक पवित्र नाम का उच्चारण करते हैं?
 
श्लोक 65:  “भगवान् के पवित्र नाम के तेज की हल्की - सी किरणों से भी (नामाभास) मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इसे हम समस्त प्रामाणिक शास्त्रों में देख सकते हैं। इसका साक्ष्य श्रीमद्भागवत में अजामिल की कथा में मिलता है।”
 
श्लोक 66:  जब हरिदास ठाकुर से श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह सुना, तो उनके हृदय में सुख बढ़ गया, किन्तु स्वभावतः उन्होंने और आगे पूछा।
 
श्लोक 67:  महाप्रभु ने कहा, “इस पृथ्वी पर अनेक जीव हैं - कुछ अचर हैं और कुछ चर। वृक्षों, लताओं, कीड़ों तथा अन्य जीवों का क्या होगा? वे कैसे भवबन्धन से छूट सकेंगे?”
 
श्लोक 68:  हरिदास ठाकुर ने उत्तर दिया, “हे प्रिय प्रभु, सारे चर तथा अचर प्राणियों का उद्धार तो आपकी कृपा से होता है। आपने पहले ही यह कृपा करके उनका उद्धार किया है।
 
श्लोक 69:  आपने उच्च स्वर से हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन किया है और हर चर या अचर प्राणी ने उसे सुनकर लाभ उठाया है।
 
श्लोक 70:  “हे प्रभु, जिन चर प्राणियों ने आपके उच्च संकीर्तन को सुना है, वे पहले ही भवबन्धन से छूट चुके हैं, और जब वृक्ष जैसे अचर जीव उसे सुनते हैं, तो एक प्रतिध्वनि होती है।
 
श्लोक 71:  किन्तु, वास्तव में यह प्रतिध्वनि नहीं, यह तो अचर जीवों का कीर्तन है। यद्यपि यह अचिन्त्य है, किन्तु आपकी कृपा से यह सब सम्भव है।
 
श्लोक 72:  जब आपके अनुयायियों द्वारा विश्वभर में हरे कृष्ण मन्त्र का उच्च स्वर से कीर्तन होता है, तो सारे अचर तथा चर जीव भक्तिमय प्रेम में नृत्य करते हैं।
 
श्लोक 73:  हे प्रभु, जब आप झारखंड जंगल से होते हुए वृन्दावन जा रहे थे, तब जितनी सारी घटनाएँ घटीं, उनका वर्णन आपके सेवक बलभद्र भट्टाचार्य ने मुझसे किया है।
 
श्लोक 74:  “जब आपके भक्त वासुदेव दत्त ने आपके चरणकमलों पर सारे जीवों के उद्धार के लिए निवेदन किया, तो आपने वह प्रार्थना स्वीकार कर ली।
 
श्लोक 75:  “हे प्रभु, आपने इस संसार के सारे पतितात्माओं का उद्धार करने के लिए ही भक्त का रूप स्वीकार किया है।
 
श्लोक 76:  “आपने हरे कृष्ण महामन्त्र के उच्च कीर्तन का प्रचार किया है और इस तरह से सारे चर तथा अचर प्राणियों को भव - बन्धन से मुक्त किया है।”
 
श्लोक 77:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “यदि सारे जीवों को मुक्ति मिल जाए, तो सारा ब्रह्माण्ड जीवों से विहीन हो जायेगा।”
 
श्लोक 78-79:  हरिदास ने कहा, “हे प्रभु, जब तक आप इस भौतिक जगत् में स्थित हैं, तब तक आप विभिन्न योनियों के समस्त विकसित चर तथा अचर जीवों को वैकुण्ठ लोक भेजते रहेंगे। तब आप पुनः उन जीवों को जागृत करेंगे, जो अब भी विकसित नहीं हैं और उन्हें कार्यों में लगायेंगे।”
 
श्लोक 80:  “इस तरह सारे चर तथा अचर जीव अस्तित्व को प्राप्त होंगे और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पहले की तरह पूरित हो जायेगा।”
 
श्लोक 81:  “पूर्वकाल में जब भगवान् रामचन्द्र ने यह जगत् छोड़ा, तो वे अयोध्या के सारे जीवों को अपने साथ लेते गये। तत्पश्चात् उन्होंने अयोध्या को पुनः अन्य जीवों से भर दिया।”
 
श्लोक 82:  “हे प्रभु, आपने इस भौतिक जगत् में अवतरित होकर एक योजना प्रारम्भ कर दी है, किन्तु कोई यह नहीं जानता कि आप किस तरह कार्य करते हैं।”
 
श्लोक 83:  “पूर्वकाल में, जब भगवान् कृष्ण वृन्दावन में अवतरित हुए, तो उन्होंने ब्रह्माण्ड के सारे जीवों को भौतिक स्थिति से इसी तरह मुक्त कर दिया था।”
 
श्लोक 84:  “अजन्मा, योगेश्वरों के भी ईश्वर, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण समस्त चर तथा अचर प्राणियों का उद्धार करते हैं। भगवान् के कार्यकलाप तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं है।”
 
श्लोक 85:  “भले ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को ईर्ष्या की दृष्टि से देखा जाये, उनका महिमागान किया जाये या उनका स्मरण किया जाये, तो भी वे अत्यन्त गुह्य मुक्ति प्रदान करते हैं, जो देवताओं तथा असुरों को विरले ही प्राप्त हो पाती है। तो फिर उनके विषय में क्या कहा जाए, जो पहले से भगवान् की भक्तिमयी सेवा में पूरी तरह से लगे हुए हैं?”
 
श्लोक 86:  “आपने नवद्वीप में अवतरित होकर, कृष्ण की ही तरह, ब्रह्माण्ड के सारे जीवों का पहले से ही उद्धार कर दिया है।
 
श्लोक 87:  “कोई कह सकता है कि वह श्री चैतन्य महाप्रभु की महिमा को समझता है। वह जो भी जान सके जाने, किन्तु जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मेरा तो यही निर्णय है।
 
श्लोक 88:  “हे प्रिय प्रभु, आपकी लीलाएँ अमृत के सागर के समान हैं। मेरे लिए उस सागर की महिमा की कल्पना कर पाना या उसकी एक बूँद तकको समझ पाना भी सम्भव नहीं है।”
 
श्लोक 89:  यह सब सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने सोचा, “ये तो वास्तव में मेरी गुह्य लीलाएँ हैं। हरिदास उन्हें कैसे समझ गया?”
 
श्लोक 90:  हरिदास ठाकुर के कथनों से अत्यधिक सन्तुष्ट होकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनका आलिंगन किया।
 
श्लोक 91:  यह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का स्वभाव है। यद्यपि वे अपने ऐश्वर्य को छिपाना चाहते हैं, किन्तु वे अपने भक्तों के समक्ष ऐसा नहीं कर पाते। यह सर्वविदित है।
 
श्लोक 92:  “हे प्रभु, भौतिक प्रकृति में हर वस्तु काल, देश तथा विचार से सीमित होती है। किन्तु आपके गुण अतुलनीय तथा अद्वितीय होने के कारण सदैव ऐसी सीमाओं से परे होते हैं। आप कभी - कभी ऐसे गुणों को अपनी शक्ति से छिपा लेते हैं, किन्तु तो भी आपके अनन्य भक्त आपको सभी परिस्थितियों में देख सकने में सदा समर्थ होते हैं।”
 
श्लोक 93:  तब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निजी भक्तों के पास गये और उनसे हरिदास ठाकुर के दिव्य गुणों के बारे में इस प्रकार बतलाने लगे मानो उनके सैकड़ों मुख हों।
 
श्लोक 94:  श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने भक्तों का गुणगान करने में बड़ीप्रसन्नता होती है और इन भक्तों में हरिदास ठाकुर सर्वोपरि हैं।
 
श्लोक 95:  हरिदास ठाकुर के दिव्य गुण असंख्य तथा अगाध हैं। कोई उनके एक अंश का वर्णन भले कर ले, किन्तु उन सबकी गणना कर पाना असम्भव है।
 
श्लोक 96:  चैतन्य मंगल में श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने कुछ सीमा तक हरिदास ठाकुर के गुणों का वर्णन किया है।
 
श्लोक 97:  हरिदास ठाकुर के सभी गुणों का वर्णन कोई नहीं कर सकता। अपने आप को पवित्र बनाने के लिए उनके विषय में कोई कुछ कह सकता है।
 
श्लोक 98:  हे श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्तों, अब हरिदास ठाकुर के उन गुणों के विषय में थोड़ा सुनो, जिनका वर्णन वृन्दावनदास ठाकुर ने विस्तार से नहीं किया है।
 
श्लोक 99:  अपना घर छोड़ने के बाद हरिदास ठाकुर कुछ समय तक बेनापोल के जंगल में रहे।
 
श्लोक 100:  हरिदास ठाकुर ने एकान्त जंगल में एक कुटिया बनाई। वहाँ उन्होंने तुलसी का पौधा लगाया और तुलसी के समक्ष वे प्रतिदिन तीन लाख बार भगवान् के नाम का जप किया करते थे। वे दिन - रात निरन्तर जप किया करते थे।
 
श्लोक 101:  शारीरिक पालन - पोषण के लिए वे एक ब्राह्मण के घर जाकर कुछ भोजन माँग लाते। वे आध्यात्मिक रूप से इतने प्रभावशाली थे कि आसपास के सारे लोग उनकी पूजा करते थे।
 
श्लोक 102:  रामचन्द्र खान नामक एक व्यक्ति उस जिले का जमींदार था। वह वैष्णवों से द्वेष रखता था, अतएव वह बहुत बड़ा नास्तिक था।
 
श्लोक 103:  हरिदास ठाकुर को जिस तरह से सम्मान प्रदान किया जाता था, उसे न सह सकने के कारण रामचन्द्र खान ने उनका अपमान करने के लिए नाना प्रकार की योजनाएँ बनाईं।
 
श्लोक 104:  किन्तु उसे किसी भी उपाय से हरिदास ठाकुर के चरित्र में कोई दोष नहीं मिल सका। अतएव उसने स्थानीय वेश्याएँ बुलाई और वह हरिदास की पवित्रता को श्रेयहीन करने की योजना बनाने लगा।
 
श्लोक 105:  रामचन्द्र खान ने वेश्याओं से कहा, “हरिदास ठाकुर नाम का एक वैरागी है। तुम सब उसे तपस्या के व्रत से विचलित करने की कोई युक्ति निकालो।”
 
श्लोक 106:  इन वेश्याओं में से एक आकर्षक युवती को चुना गया। उसने वादा किया, “मैं तीन दिनों के भीतर हरिदास ठाकुर के मन को आकृष्ट कर लूंगी।”
 
श्लोक 107:  रामचन्द्र खान ने उस वेश्या से कहा, “मेरा सिपाही तुम्हारे साथ जायेगा, जिससे वह तुम्हें हरिदास ठाकुर के साथ देखते ही तुरन्त उसे बन्दी बना ले और तुम दोनों को मेरे पास ले आये।”
 
श्लोक 108:  वेश्या ने उत्तर दिया, “पहले मुझे उससे एक बार उनके साथ संग कर लेने दीजिये, तब दूसरी बार मैं अपने साथ आपके सिपाही को उन्हें बन्दी बनाने के लिए ले जाऊँगी।”
 
श्लोक 109:  रात में वह वेश्या खूब सज - धजकर हरिदास ठाकुर की कुटिया में अत्यन्त हर्षपूर्वक गई।
 
श्लोक 110:  तुलसी के पौधे को नमस्कार करने के बाद वह हरिदास ठाकुर के द्वार पर गई और उन्हें नमस्कार करके वहाँ खड़ी हो गई।
 
श्लोक 111:  वह उनकी दृष्टि के सामने अपने शरीर को प्रदर्शित करते हुए दरवाजे की देहली पर बैठ गई और उनसे अत्यन्त मधुर शब्दों में बोली।
 
श्लोक 112:  हे ठाकुर, हे महान् उपदेशक, महान् भक्त, आपका शरीर अतीव सुगठित है और आपके यौवन का शुभारम्भ अभी हो ही रहा है। आपको देखने के बाद ऐसी कौन - सी स्त्री होगी, जो अपने मन को वश में रख सके?
 
श्लोक 113:  “मैं आपके संग की इच्छुक हूँ। मेरा मन इसके लिए ललचाया हुआ है। यदि मैं आपको नहीं पाती, तो मैं अपने प्राण धारण नहीं कर सकेंगी।”
 
श्लोक 114-115:  हरिदास ठाकुर ने उत्तर दिया, “मैं तुम्हें अवश्य अपना लूँगा, किन्तु तुम्हें तब तक प्रतीक्षा करनी होगी, जब तक मैं अपनी जप माला में अपने निर्धारित जप समाप्त न कर लूँ। उस समय तक कृपया बैठो और पवित्र नाम के जप का श्रवण करो। ज्योंही मैं नाम जप समाप्त कर लूँगा, मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा।”
 
श्लोक 116:  यह सुनकर वह वेश्या वहीं बैठी रही और हरिदास ठाकुर भोर होने तक जपमाला पर जप करते रहे।
 
श्लोक 117:  जब उस वेश्या ने देखा कि सुबह हो गई, तो वह उठी और चली गई। रामचन्द्र खान के पास आकर उसने सारे समाचार बतलाए।
 
श्लोक 118:  “आज हरिदास ठाकुर ने मेरे साथ भोग करने का वचन दिया है। कल निश्चय ही मेरा उसके साथ संग होगा।”
 
श्लोक 119:  अगली रात को जब वह वेश्या फिर से आई, तो हरिदास ठाकुर ने उसे अनेक आश्वासन दिये।
 
श्लोक 120:  कल रात को तुम्हें निराश होना पड़ा। कृपया मेरा अपराध क्षमा कर दो। मैं अवश्य ही तुम्हें स्वीकार करूँगा।
 
श्लोक 121:  कृपया बैठो और तब तक हरे कृष्ण महामन्त्र का जप सुनो, जब तक मेरा नियमित जप पूरा नहीं हो जाता। तब तुम्हारी इच्छा अवश्यमेव पूरी हो जायेगी।”
 
श्लोक 122:  तुलसी के पौधे को तथा हरिदास ठाकुर को नमस्कार करके वह द्वार पर बैठ गई। हरिदास ठाकुर को हरे कृष्ण मन्त्र का जप करते सुनकर वह भी “हे मेरे प्रभु हरि, हे मेरे प्रभु हरि’ का उच्चारण करने लगी।
 
श्लोक 123:  जब रात समाप्त हो गई, तो वेश्या व्याकुल हो उठी। यह देखकर हरिदास ठाकुर उससे इस तरह बोले।
 
श्लोक 124:  मैंने एक मास में एक करोड़ नाम जप करने का व्रत ले रखा है। किन्तु अब यह समाप्ति पर है।
 
श्लोक 125:  “मैंने सोचा था कि मैं हरे कृष्ण मन्त्र जपने का अपना यज्ञ आज समाप्त कर सकूँगा। मैंने सारी रात नाम जप करने का भरसक प्रयास किया, किन्तु अब भी उसे समाप्त नहीं कर सका।”
 
श्लोक 126:  “कल मैं अवश्य ही समाप्त कर लूँगा और मेरा व्रत पूरा हो जायेगा। तब मेरे लिए सम्भव हो सकेगा कि पूरी स्वतन्त्रता से तुम्हारे साथ रमण कर सकूँगा।”
 
श्लोक 127:  वह वेश्या रामचन्द्र खान के पास लौट गई और जो कुछ हुआ था, उसे बतलाया। अगले दिन वह शीघ्र ही, सन्ध्या होते आ गई और हरिदास ठाकुर के पास रुकी रही।
 
श्लोक 128:  तुलसी वृक्ष को तथा हरिदास ठाकुर को नमस्कार करने के बाद वह कमरे की दहलीज पर बैठ गई। इस तरह वह हरिदास ठाकुर का कीर्तन सुनने लगी और स्वयं भी उसने ‘हरि’ ‘हरि’ अर्थात् भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण किया।
 
श्लोक 129:  हरिदास ठाकुर ने उसे बतलाया, “आज मेरा नाम जप पूरा हो जायेगा। तब मैं तुम्हारी सारी इच्छाएँ तुष्ट करूँगा।”
 
श्लोक 130:  जप करते - करते रात बीत गई, किन्तु हरिदास ठाकुर की संगति के कारण वेश्या का मन बदल चुका था।
 
श्लोक 131:  वह वेश्या अब शुद्ध हो गई थी। वह हरिदास ठाकुर के चरणकमलों पर गिर पड़ी और उसने स्वीकार किया कि रामचन्द्र खान ने उन्हें दूषित करने के लिए उसे नियुक्त किया था।
 
श्लोक 132:  उसने कहा, “चूँकि मैंने वेश्या का पेशा अपनाया है, अतएव मैंने असंख्य पापकर्म किये हैं। हे प्रभु, मुझ पर कृपालु हों। मुझ पतिता का उद्धार करें।”
 
श्लोक 133:  हरिदास ठाकुर ने उत्तर दिया, “मैं रामचन्द्र खान के षड्यंत्र के बारे में सब कुछ जानता हूँ। वह एक निपट अज्ञानी मूर्ख है। इसलिए उसके कार्यों से मैं दुःखी नहीं हूँ।
 
श्लोक 134:  “जिस दिन रामचन्द्र खान मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रच रहा था, उसी दिन मैंने यह स्थान छोड़ दिया होता, किन्तु तुम मेरे पास आई, इसलिए मैं तुम्हारा उद्धार करने के लिए तीन दिनों तक यहाँ रुका रहा।”
 
श्लोक 135:  वेश्या ने कहा, “कृपया मेरे आध्यात्मिक गुरु बनिये। मेरे कर्तव्य के बारे में उपदेश दीजिये, जिससे मुझे भौतिक अस्तित्व से छुटकारा मिल सके।”
 
श्लोक 136:  हरिदास ठाकुर ने उत्तर दिया, “तुम तुरन्त अपने घर जाओ और तुम्हारी जितनी सम्पत्ति हो, उसे ब्राह्मणों में बाँट दो। तब इस कुटिया में लौट आओ और सदा के लिए कृष्णभावना में यहाँ रहो।
 
श्लोक 137:  “निरन्तर हरे कृष्ण मन्त्र का जप करो और जल से सींचकर तथा स्तुति करके तुलसी की सेवा करो। इस तरह तुम तुरन्त ही कृष्ण के चरणकमलों की शरण पाने का अवसर प्राप्त कर सकोगी।”
 
श्लोक 138:  इस तरह वेश्या को हरे कृष्ण मन्त्र के कीर्तन की विधि के विषय में उपदेश देकर हरिदास ठाकुर उठे और लगातार हरि हरि कीर्तन करते हुए चले गये।
 
श्लोक 139:  तत्पश्चात् उस वेश्या ने अपने पास जो भी घरेलू सम्पत्ति थी, उसे अपने गुरु की आज्ञानुसार ब्राह्मणों में वितरित कर दिया।
 
श्लोक 140:  वैष्णव - नियमों के अनुसार उस वेश्या ने अपना सिर मुँडा लिया और केवल एक वस्त्र पहने उसी कमरे में रहने लगी। वह अपने गुरु के पदचिह्नों पर चलकर प्रतिदिन तीन लाख नाम का जप करने लगी। वह दिन - रात जप करती रहती थी।
 
श्लोक 141:  वह अपने गुरु के पदचिह्नों पर चलकर तुलसी की पूजा करने लगी। वह नियमित भोजन न खाकर, भिक्षा में जो मिलता उसे खाती और यदि कुछ न मिलता तो उपवास करती। इस तरह बहुत कम खाकर तथा उपवास करके उसने इन्द्रियों को वश में कर लिया और ज्योंही उसकी इन्द्रियाँ वश में हो गईं, त्योंही उसमें ईश्वर - प्रेम के लक्षण प्रकट होने लगे।
 
श्लोक 142:  इस तरह वह वेश्या विख्यात भक्तिन बन गई। वह आध्यात्मिक जीवन में अत्यन्त उन्नत हो गई और अनेक बड़े - बड़े वैष्णव उसके दर्शन के लिए आने लगे।
 
श्लोक 143:  वेश्या का उन्नत चरित्र देखकर सारे लोग चकित थे। सारे लोगों ने हरिदास ठाकुर के प्रभाव का गुणगान किया और उन्हें नमस्कार किया।
 
श्लोक 144:  हरिदास ठाकुर को विचलित करने के लिए वेश्या को प्रेरित करके रामचन्द्र खान ने उनके चरणों में अपराध के बीज को उगने दिया। बाद में यही बीज एक वृक्ष बन गया और जब यह फला, तो रामचन्द्र खान ने इसके फल खाये।
 
श्लोक 145:  उच्च भक्त के चरणों पर इस अपराध से एक अद्भुत कथा का जन्म हुआ। इन घटनाओं से प्राप्त अवसर का लाभ उठाकर मैं वह सब बतलाऊँगा, जो घटित हुआ। हे भक्तों, इसे सुनो।
 
श्लोक 146:  रामचन्द्र खान स्वभावतः अभक्त था। अब, हरिदास ठाकुर के चरणों पर अपराध करके वह पूरा आसुरी नास्तिक जैसा बन गया।
 
श्लोक 147:  वैष्णव धर्म की निन्दा करने तथा दीर्घकाल तक भक्तों का अपमान करने के कारण अब उसे अपने अपराध - कर्मों का फल मिला।
 
श्लोक 148:  जब नित्यानन्द प्रभु भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार करने बंगाल लौट आये, तो वे सारे देश में भ्रमण करने लगे।
 
श्लोक 149:  भगवान् के सर्वाधिक समर्पित भक्त नित्यानन्द प्रभु दो कार्यों से - भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार करने तथा नास्तिकों को परास्त और दमन करने के उद्देश्य से - देश - भर में भ्रमण करने लगे।
 
श्लोक 150:  भगवान् नित्यानन्द, जो कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् होने के कारण सर्वज्ञ हैं, रामचन्द्र खान के घर आये और दुर्गामण्डप की वेदी पर बैठ गये।
 
श्लोक 151:  जब दुर्गामण्डप तथा आँगन लोगों की भीड़ से भर गया, तो रामचन्द्र खान ने घर के भीतर से अपने नौकर को नित्यानन्द प्रभु के पास भेजा।
 
श्लोक 152:  उस नौकर ने नित्यानन्द प्रभु को सूचित किया, “हे महाशय, रामचन्द्र खान ने मुझे भेजा है कि मैं आपको किसी सामान्य व्यक्ति के घर में रहने का स्थान दूँ।”
 
श्लोक 153:  “आप किसी ग्वाले के घर जा सकते हैं, क्योंकि गोशाला विस्तृत होती है, जबकि यहाँ दुर्गामण्डप में स्थान अपर्याप्त है, क्योंकि आपके साथ अनेक अनुयायी हैं।”
 
श्लोक 154:  जब नित्यानन्द प्रभु ने रामचन्द्र खान के नौकर का यह आदेश सुना, तो वे अत्यधिक क्रुद्ध हुए और बाहर आ गये। उच्च स्वर से हँसते हुए वे इस प्रकार बोले।
 
श्लोक 155:  “रामचन्द्र खान ने ठीक ही कहा है। यह स्थान मेरे लिए अनुपयुक्त है। यह गोवध करने वाले मांसाहारियों के लिए उपयुक्त है।”
 
श्लोक 156:  यह कहकर नित्यानन्द प्रभु उठे और क्रुद्ध होकर चले गये। रामचन्द्र खान को दण्ड देने के लिए वे उस गाँव में भी नहीं रुके।
 
श्लोक 157:  रामचन्द्र खान ने नौकर को आज्ञा दी कि जहाँ पर नित्यानन्द प्रभु बैठे थे, उस स्थान की मिट्टी खोद डाले।
 
श्लोक 158:  दुर्गामंडप मन्दिर तथा आँगन को शुद्ध करने के लिए रामचन्द्र खान ने इन्हें गोबर मिले जल से छिड़काया और लिपवाया, फिर भी उसका मन प्रसन्न न था।
 
श्लोक 159:  रामचन्द्र का पेशा आपत्तिजनक था, क्योंकि वह सरकार को कर देने से जी चुराता था। इसलिए सरकारी वित्त मन्त्री नाराज था और वह उसके घर आया।
 
श्लोक 160:  उस मुसलमान मन्त्री ने रामचन्द्र खान के दुर्गामण्डप को अपना निवासस्थान बनाया। उसने एक गाय मारी और वहाँ माँस पकाया।
 
श्लोक 161:  उसने रामचन्द्र खान को उसकी पत्नी तथा बच्चों समेत बन्दी बना लिया और फिर लगातार तीन दिनों तक उसके घर तथा गाँव को लूटा।
 
श्लोक 162:  उसने उसी कमरे में लगातार तीन दिनों तक गोमांस पकाया। तब अगले दिन अपने अनुयायियों सहित वह चला गया।
 
श्लोक 163:  उस मुसलमान मन्त्री ने रामचन्द्र खान का पद, सम्पत्ति तथा अनुयायी छीन लिये। कई दिनों तक गाँव उजाड़ बना रहा।
 
श्लोक 164:  जहाँ भी किसी महान् भक्त का अपमान किया जाता है, वहाँ एक व्यक्ति के दोष से सारा गाँव या नगर पीड़ित होता है।
 
श्लोक 165:  हरिदास ठाकुर चलते - चलते चान्दपुर नामक गाँव में आये। वहाँ पर वे बलराम आचार्य के घर पर ठहरे।
 
श्लोक 166:  हिरण्य तथा गोवर्धन उस देश की उस तहसील के दो सरकारी कोषाध्यक्ष थे। उनके पुरोहित का नाम बलराम आचार्य था।
 
श्लोक 167:  बलराम आचार्य पर हरिदास ठाकुर की कृपा के कारण वह हरिदास ठाकुर से अत्यधिक लगाव रखता था। इसीलिए उसने हरिदास ठाकुर को गाँव में अत्यन्त यत्नपूर्वक रखा।
 
श्लोक 168:  उस गाँव में हरिदास ठाकुर को एकान्त फूस की कुटिया दे दी गई थी, जहाँ वे हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करते रहते थे। वे बलराम आचार्य के घर पर प्रसाद लेते थे।
 
श्लोक 169:  रघुनाथ दास, जो गोवर्धन मजुमदार का पुत्र था और बाद में रघुनाथ दास गोस्वामी बना, उस समय बालक अवस्था में पढ़ाई कर रहा था। वह नित्य ही हरिदास ठाकुर का दर्शन करने आता था।
 
श्लोक 170:  स्वाभाविक रूप से हरिदास ठाकुर उसके प्रति कृपालु थे और इस वैष्णव के कृपापूर्ण आशीर्वाद से ही वह बाद में श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की शरण प्राप्त कर सका।
 
श्लोक 171:  हिरण्य तथा गोवर्धन के निवासस्थान पर व्याख्यान होते थे, जिनमें हरिदास ठाकुर की महिमा का गुणगान होता था। हे भक्तों, उस अद्भुत कथा को सुनो।
 
श्लोक 172:  एक दिन बलराम आचार्य ने अत्यन्त दीनतापूर्वक हरिदास ठाकुर से प्रार्थना की कि वे हिरण्य तथा गोवर्धन मजुमदारों की सभा में चलें। अतः बलराम आचार्य हरिदास ठाकुर के साथ वहाँ गये।
 
श्लोक 173:  हरिदास ठाकुर को देखकर दोनों भाई तुरन्त उठ खड़े हुए और उनके चरणकमलों पर गिर पड़े। तत्पश्चात् उन्होंने अत्यन्त आदरपूर्वक उन्हें बैठने के लिए आसन दिया।
 
श्लोक 174:  उस सभा में अनेक विद्वज्जन, ब्राह्मण तथा सम्माननीय भद्र पुरुष थे। हिरण्य तथा गोवर्धन, ये दोनों भाई भी महान् पण्डित (विद्वान) थे।
 
श्लोक 175:  वहाँ सारे लोग हरिदास ठाकुर के महान् गुणों का बखान करने लगे, मानो उनके पाँच - पाँच मुख हों।
 
श्लोक 176:  सभा में इसका उल्लेख किया गया कि हरिदास ठाकुर प्रतिदिन तीन लाख कृष्ण - नाम का जप करते थे। इस तरह सारे विद्वान पवित्र नाम की महिमा के विषय में विचारविमर्श करने लगे।
 
श्लोक 177:  उनमें से कुछेक ने कहा, “भगवान् के पवित्र नाम का जप करने से मनुष्य सारे पापमय जीवन के फलों से मुक्त हो जाता है। अन्यों ने कहा, भगवान् के पवित्र नाम के जप मात्र से जीव भवबन्धन से छूट जाता है।”
 
श्लोक 178:  हरिदास ठाकुर ने आपत्ति की, “ये दोनों वर पवित्र नाम के जप के सही फल नहीं हैं। वास्तव में अपराधरहित नाम - जप से कृष्ण के चरणकमलों के प्रति प्रेम जागृत होता है।
 
श्लोक 179:  “जब कोई व्यक्ति वास्तव में उन्नत होता है और अपने प्रिय भगवान् के नाम - कीर्तन में आनन्द लेता है, तो वह उत्तेजित हो उठता है और उच्च स्वर से नाम - कीर्तन करता है। वह हँसता है, रोता है, चंचल होता है और उन्मत्त की तरह बाहरी लोगों की परवाह किये बिना कीर्तन करता है। ”
 
श्लोक 180:  “मुक्ति तथा पाप - फलों का क्षय - ये दो भगवन्नाम कीर्तन के साथ मिलने वाले गौण फल हैं। इसका उदाहरण प्रात: कालीन सूर्य - प्रकाश के चमकने में पाया जाता है।
 
श्लोक 181:  जिस तरह उदय होता हुआ सूर्य तुरन्त ही समुद्र जैसे अगाध, जगत् के सारे अन्धकार को दूर कर देता है, उसी तरह भगवान् के पवित्र नाम यदि एक बार अपराधरहित होकर उच्चारण किया जाए, तो जीव के पापी जीवन के सारे पापफलों को दूर कर देता है। उस भगवान् के पवित्र नाम की जय हो, जो सारे जगत् के लिए मंगलकारी है।
 
श्लोक 182:  इस श्लोक को सुनाकर हरिदास ठाकुर ने कहा, “हे विद्वानों, जरा इस श्लोक का अर्थ बतलाओ।” किन्तु श्रोताओं ने हरिदास ठाकुर से अनुरोध किया, “अच्छा यही होगा कि आप ही इस महत्त्वपूर्ण श्लोक का अर्थ बतलाएँ।”
 
श्लोक 183:  हरिदास ठाकुर ने कहा, “जब सूर्यका उदय होने लगता है, तो उसके दृश्यमान होने के पूर्व ही वह रात के अन्धकार को दूर कर देता है।
 
श्लोक 184:  “सूर्य - प्रकाश के प्रथम दर्शन होते ही चोरों, प्रेतों तथा असुरों का भय तुरन्त चला जाता है और जब सूर्य वास्तव में दिखता है, तो हर वस्तु प्रकट हो जाती है और हर व्यक्ति अपने धार्मिक कार्य तथा नियमित कर्तव्य करना प्रारम्भ कर देता है।
 
श्लोक 185:  “इसी तरह यह प्रथम संकेत कि भगवान् के पवित्र नाम का निरपराध जप जाग्रत हो चुका है, तुरन्त पापमय जीवन के फलों का क्षय कर देता है। और जब कोई निरपराध होकर नाम का जप करता है, तो उसमें कृष्ण के चरणकमलों पर प्रेमभाव युक्त सेवा जाग्रत हो जाती है।
 
श्लोक 186:  “मुक्ति तो भगवान् के पवित्र नाम के अपराध रहित जप की जागृति के आभास से प्राप्त होने वाला एक नगण्य फल है।”
 
श्लोक 187:  “मृत्यु के समय अजामिल ने अपने पुत्र नारायण को बुलाने के उद्देश्य से भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण किया। फिर भी उसे वैकुण्ठ लोक प्राप्त हुआ। तो फिर उन लोगों के विषय में क्या कहा जा सकता है, जो श्रद्धा तथा आदरपूर्वक पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं?”
 
श्लोक 188:  “जो मुक्ति शुद्ध भक्त को स्वीकार्य नहीं है, वह कृष्ण द्वारा सदा बिना किसी कठिनाई के प्रदान की जाती है।
 
श्लोक 189:  “यदि मैं सालोक्य, सार्ष्टि, सारूप्य, सामीप्य या एकत्व - इन मुक्तियों को अपने भक्तों को प्रदान भी करूँ, तो वे मेरी सेवा की तुलना में इन्हें स्वीकार नहीं करते।”
 
श्लोक 190:  हिरण्य तथा गोवर्धन मजुमदार के घर पर गोपाल चक्रवर्ती नामक एक व्यक्ति सरकारी मुख्य कर संग्राहक था।
 
श्लोक 191:  यह गोपाल चक्रवर्ती बंगाल में रहता था। कर संग्राहक के रूप में उसका काम था, बारह लाख मुद्राएँ एकत्र करके शाही खजाने में जमा करना।
 
श्लोक 192:  उसका शरीर सुन्दर था और वह पण्डित तथा युवावस्था को प्राप्त था, किन्तु वह इस कथन को सहन नहीं कर पाया कि मात्र नामाभास से (भगवान् के पवित्र नाम के शुद्ध उच्चारण की झलक मात्र से) कोई मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
 
श्लोक 193:  यह युवक गोपाल चक्रवर्ती हरिदास ठाकुर के कथन सुनकर अत्यधिक कुपित हुआ। उसने तुरन्त उनकी आलोचना की, “हे विद्वज्जनों, जरा इस भावुक भक्त का निष्कर्ष तो सुनो।
 
श्लोक 194:  “करोड़ों जन्मों के बाद जब कोई मनुष्य परम ज्ञान में पूर्ण हो जाता है, तब भी उसे मुक्ति नहीं मिल पाती ; फिर भी यह व्यक्ति कहता है कि उस मुक्ति को केवल नामाभास से प्राप्त की जा सकती है।”
 
श्लोक 195:  हरिदास ठाकुर ने कहा, “तुम सन्देह क्यों कर रहे हो? प्रामाणिक शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य मात्र नामाभास से, पवित्र नाम की झलक मात्र से मुक्ति पा सकता है।
 
श्लोक 196:  “जो भक्त भक्ति के दिव्य आनन्द का भोग करता है, उसके लिए मुक्ति अतीव नगण्य है। इसलिए शुद्ध भक्त कभी भी मुक्ति पाने की अभिलाषा नहीं रखते।
 
श्लोक 197:  “हे प्रिय प्रभु, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, चूंकि मैंने आपका प्रत्यक्ष दर्शन किया है, इसलिए मेरे दिव्य आनन्द ने महासागर का रूप धारण कर लिया है। अब उस सागर में स्थित होने से मैं अनुभव करता हूँ कि ब्रह्मानन्द समेत अन्य समस्त तथाकथित सुख गाय के खुर के चिह्न में भरे हुए जल के समान हैं।”
 
श्लोक 198:  गोपाल चक्रवर्ती ने कहा, “यदि कोई मात्र नामाभास से मुक्त न हो सके, तो आप इसे निश्चय ही जान लें कि मैं आपकी नाक काट लूँगा।”
 
श्लोक 199:  तब हरिदास ठाकुर ने गोपाल चक्रवर्ती की चुनौती स्वीकार कर ली। उन्होंने कहा, “यदि नामाभास से मुक्ति प्राप्त न हो सके, तो निश्चित रूप से मैं अपनी नाक काट दूँगा।” ।
 
श्लोक 200:  सभा के सारे सदस्य जिन्होंने चुनौती सुनी, वे अत्यधिक क्षुब्ध हो गये। वे हाहाकार करते हुए उठ खड़े हुए। हिरण्य तथा गोवर्धन मजुमदार दोनों ने ही उस ब्राह्मण कर संग्राहक को तुरन्त डाँटा।
 
श्लोक 201:  बलराम आचार्य नामक पुरोहित ने भी गोपाल चक्रवर्ती को डाँटा। उसने कहा, “तुम मूर्ख तर्कवादी हो। तुम भगवद्भक्ति के बारे में क्या जानो?”
 
श्लोक 202:  “तुमने हरिदास ठाकुर का अपमान किया है। इसलिए तुम्हारे लिए भयावह स्थिति उत्पन्न होगी। तुम्हें किसी शुभ फल की आशा नहीं करनी चाहिए।”
 
श्लोक 203:  तब हरिदास ठाकुर जाने के लिए उठे और गोपाल चक्रवर्ती के स्वामी दोनों मजुमदारों ने तुरन्त ही गोपाल चक्रवर्ती को अपनी नौकरी से हटा दिया।
 
श्लोक 204:  दोनों मजुमदार सभा के सारे सदस्यों सहित हरिदास ठाकुर के चरणकमलों पर गिर पड़े। किन्तु हरिदास ठाकुर मुस्कुरा रहे थे। उन्होंने मीठी वाणी में कहा।
 
श्लोक 205:  उन्होंने कहा, “तुम सबका कोई दोष नहीं है। निस्सन्देह, इस अज्ञानी तथाकथित ब्राह्मण का भी दोष नहीं है, क्योंकि वह शुष्क चिन्तन तथा तकर् का अभ्यस्त है।
 
श्लोक 206:  “कोई व्यक्ति मात्र तकर् वितकर् से पवित्र नाम की महिमा को नहीं समझ सकता। इसलिए यह व्यक्ति सम्भवतः नाम की महिमा को नहीं समझ सका।
 
श्लोक 207:  “अब आप सभी अपने - अपने घर जायें। भगवान् कृष्ण आप सबको आशीर्वाद दें। मेरे अपमानित होने के कारण आप दुःखी न हों।”
 
श्लोक 208:  तब हिरण्य दास मजुमदार अपने घर लौट आया और उसने आदेश दिया कि गोपाल चक्रवर्ती घर के भीतर नहीं जा सकता।
 
श्लोक 209:  तीन दिनों के भीतर उस ब्राह्मण को कोढ़ हो गया, जिसके फलस्वरूप उसकी उठी हुई नाक गलकर गिर पड़ी।
 
श्लोक 210:  उस ब्राह्मण के हाथ तथा पाँव की अँगुलियाँ सुनहरे रंग के चम्पक की कलियों के समान सुन्दर थीं, किन्तु कोढ़ के कारण वे सब मुरझा गईं और धीरे - धीरे गल गईं।
 
श्लोक 211:  गोपाल चक्रवर्ती की दशा देखकर सारे लोग चकित थे। सबने हरिदास ठाकुर के प्रभाव की प्रशंसा की और उन्हें नमस्कार किया।
 
श्लोक 212:  यद्यपि वैष्णव के रूप में हरिदास ठाकुर ने ब्राह्मण के अपराध को गम्भीरता के साथ नहीं लिया, किन्तु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् इसे सहन नहीं कर सके, अतः उन्होंने ब्राह्मण को यह फल भोगने के लिए बाध्य किया।
 
श्लोक 213:  यह शुद्ध भक्त का गुण है कि वह अज्ञानी धूर्त द्वारा किये गये किसी भी अपराध को क्षमा कर देता है। किन्तु कृष्ण का गुण यह है कि वे अपने भक्तों की निन्दा नहीं सहन कर पाते।
 
श्लोक 214:  जब हरिदास ठाकुर ने सुना कि ब्राह्मण गोपाल चक्रवर्ती को कोढ़ हो गया है, तो वे दुःखी हुए। तत्पश्चात् हिरण्य मजुमदार के पुरोहित बलराम आचार्य को बतलाकर वे अद्वैत आचार्य के घर शान्तिपुर चले गये।
 
श्लोक 215:  अद्वैत आचार्य से मिलकर हरिदास ठाकुर ने सादर दण्डवत् प्रणाम किया। अद्वैत आचार्य ने बदले में उनका आलिंगन किया और सम्मान दिखलाया।
 
श्लोक 216:  अद्वैत आचार्य ने हरिदास ठाकुर के लिए गंगा के तट पर एकान्त स्थान में एक गुफा जैसा घर बनवा दिया और भक्ति के सन्दर्भ में श्रीमद्भागवत तथा भगवद्गीता का वास्तविक अर्थ उन्हें बताया।
 
श्लोक 217:  हरिदास ठाकुर नित्यप्रति अद्वैत आचार्य के घर पर भोजन करते। वे दोनों मिलकर कृष्ण विषयक चर्चाओं का अमृत - आस्वादन करते।
 
श्लोक 218:  हरिदास ठाकुर ने कहा, “हे अद्वैत आचार्य, मैं आपके समक्ष कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। आप प्रतिदिन मुझे खाने के लिए भोजन की भिक्षा देते हैं। इसकी क्या आवश्यकता है?”
 
श्लोक 219:  हे महोदय, आप बड़े - बड़े ब्राह्मणों तथा कुलीनों के समाज में रह रहे हैं, किन्तु बिना भय या लज्जा के आप मुझ जैसे निम्न जाति के व्यक्ति का आदर करते हैं।
 
श्लोक 220:  “हे महाशय, आपका आचरण असामान्य है। निस्सन्देह, कभी - कभी तो मैं आपसे बोलते हुए डरता हूँ। किन्तु समाज के आचरण से मेरी रक्षा करके मेरे ऊपर कृपा करें।”
 
श्लोक 221:  अद्वैत आचार्य ने उत्तर दिया, “हे प्रिय हरिदास, तुम भयभीत मत होओ। मैं प्रामाणिक शास्त्रों द्वारा अनुमोदित सिद्धान्तों के अनुसार ही कड़ाई से व्यवहार करूँगा।”
 
श्लोक 222:  अद्वैत आचार्य ने कहा, “आपको खिलाना एक करोड़ ब्राह्मणों को खिलाने के समान है। अतएव आप यह श्राद्धपात्र स्वीकार करें। इस तरह अद्वैत आचार्य ने उन्हें खिलाया।”
 
श्लोक 223:  अद्वैत आचार्य सदैव इन विचारों में मग्न रहते थे कि सम्पूर्ण जगत् के पतितात्माओं का किस तरह उद्धार किया जाए। उन्होंने सोचा, “सारा जगत् अभक्तों से भरा पड़ा है। उनका उद्धार किस तरह हो सकेगा?”
 
श्लोक 224:  समस्त पतितात्माओं का उद्धार करने का दृढ़संकल्प लेकर अद्वैत आचार्य ने कृष्ण को अवतरित करवाने का निश्चय किया। इस व्रत के साथ भगवान् की पूजा करने के लिए वे गंगाजल तथा तुलसी दल अर्पित करने लगे।
 
श्लोक 225:  इसी तरह हरिदास ठाकुर गंगा के किनारे अपनी गुफा में कृष्ण का अवतरण कराने की दृष्टि से जप करते रहे।
 
श्लोक 226:  इन दोनों व्यक्ति की भक्ति के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु अवतार के रूप में आये। इस तरह सारे जगत् का उद्धार करने के लिए उन्होंने भगवान् के पवित्र नाम तथा कृष्ण - प्रेम का प्रचार किया।
 
श्लोक 227:  हरिदास ठाकुर के असामान्य व्यवहार से सम्बन्धित एक अन्य घटना है। इसको सुनकर कोई भी आश्चर्यचकित हो जायेगा।
 
श्लोक 228:  ऐसी घटनाओं को शुष्क तर्क किये बिना सुनो, क्योंकि ये घटनाएँ हमारे भौतिक तर्क से परे हैं। मनुष्य को इन पर श्रद्धापूर्वक विश्वास करना चाहिए।
 
श्लोक 229:  एक दिन हरिदास ठाकुर अपनी गुफा में बैठे थे और अत्यधिक उच्च स्वर से पवित्र भगवन्नाम का कीर्तन कर रहे थे।
 
श्लोक 230:  पूर्णिमा की रात्रि थी, जिससे गंगा की लहरें झिलमिला रही थीं। सारी दिशाएँ निर्मल तथा प्रकाशमान थीं।
 
श्लोक 231:  स्वच्छ वेदी पर तुलसी के पौधे से युक्त गुफा की शोभा को जो भी देखता, वह चकित रह जाता और हृदय में तुष्ट होता।
 
श्लोक 232:  उसी समय उस सुन्दर परिदृश्य में एक स्त्री आँगन में प्रकट हुई। उसके शरीर का सौन्दर्य इतना प्रकाशमान था कि सारा स्थान पीली आभा से भर गया।
 
श्लोक 233:  उसके शरीर की सुगन्ध से सारी दिशाएँ महकने लगीं और उसके गहनों की झंकार से कान झंकरित हो गये।
 
श्लोक 234:  वहाँ आकर उस स्त्री ने तुलसी को नमस्कार किया और तुलसी की परिक्रमा करके वह उस गुफा के दरवाजे पर आई, जहाँ हरिदास ठाकुर बैठे थे।
 
श्लोक 235:  उसने हाथ जोड़कर हरिदास ठाकुर के चरणकमलों पर नमस्कार किया। फिर द्वार पर बैठकर वह अत्यन्त मधुर वाणी में बोली।
 
श्लोक 236:  “हे प्रिय मित्र, आप तो सारे जगत् के मित्र हैं। आप इतने सुन्दर तथा योग्य हैं। मैं यहाँ आपके साथ संग - सुख लाभ के लिए आई हूँ।
 
श्लोक 237:  “हे महोदय, आप कृपया मुझे स्वीकार करें और मेरे प्रति कृपालु हों, क्योंकि समस्त साधुजनों का स्वभाव है कि वे दीन तथा पतितों के प्रति कृपालु होते हैं।”
 
श्लोक 238:  यह कहकर वह विविध हावभाव प्रकट करने लगी, जिसे देखकर बड़े - से - बड़े दार्शनिक का भी धैर्य छूट जाता।
 
श्लोक 239:  हरिदास ठाकुर अविचलित थे, क्योंकि उनका संकल्प दृढ़ था। वे उस पर कृपालु होकर उससे बोले।
 
श्लोक 240:  “मैंने प्रतिदिन निश्चित संख्या में नाम - कीर्तन करने के महान् यज्ञ - व्रत की दीक्षा ले रखी है।”
 
श्लोक 241:  “जब तक जप करने का व्रत अधूरा है, तब तक मैं किसी अन्य वस्तु की कामना नहीं करता। जब मैं अपना जप समाप्त कर लेता हूँ, तब मुझे दूसरा कुछ करने का अवसर मिलता है।
 
श्लोक 242:  तुम द्वार पर बैठ जाओ और हरे कृष्ण महामन्त्र का जप सुनो। जप समाप्त होते ही मैं तुम्हारी मनोकामना पूरी करूँगा।”
 
श्लोक 243:  यह कहकर हरिदास ठाकुर ने भगवान् के पवित्र नाम का जप जारी रखा। इस तरह उनके समक्ष बैठी वह स्त्री पवित्र नाम का जप सुनने लगी।
 
श्लोक 244:  इस तरह उनके जप करते - करते सुबह हो गई और जब उस स्त्री ने देखा कि सुबह हो गई, तो वह उठी और चली गई।
 
श्लोक 245:  इस तरह वह तीन दिनों तक हरिदास ठाकुर के पास आती रही और विविध स्त्री - भंगिमाएँ दिखलाती रही, जो ब्रह्मा के भी मन को विमोहित कर लें।
 
श्लोक 246:  हरिदास ठाकुर सदैव कृष्ण के विचारों में तथा कृष्ण के पवित्र नाम में मग्न रहते थे। इसलिए स्त्री ने जो भंगिमाएँ प्रकट कीं, वे जंगल में रोने के समान थीं।
 
श्लोक 247:  तीसरे दिन की रात के समाप्त होने पर वह स्त्री हरिदास से इस प्रकार बोली।
 
श्लोक 248:  “हे महोदय, आपने तीन दिनों तक झूठा आश्वासन देकर मुझे धोखा दिया है, क्योंकि मैं देखती हूँ कि आपका दिन - रात चलने वाला यह नाम - जप कभी समाप्त नहीं होने वाला है।”
 
श्लोक 249:  हरिदास ठाकुर ने कहा, “मेरी प्रिय मित्र, मैं कर ही क्या सकता हूँ? मैंने व्रत ले रखा है। तो फिर मैं उसे कैसे त्याग सकता हूँ?
 
श्लोक 250:  हरिदास ठाकुर को नमस्कार करके वह स्त्री बोली, “मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की मोहिनी शक्ति, माया हूँ। मैं यहाँ आपकी परीक्षा लेने आई थी।
 
श्लोक 251:  मैंने पहले ब्रह्मा तक के मन को मोहित किया है, अन्यों की बात जाने दें। केवल आपके मन को ही मैं आकृष्ट नहीं कर सकी।
 
श्लोक 252-253:  “हे महोदय, आप सर्वश्रेष्ठ भक्त हैं। आपके दर्शन मात्र से तथा आपको कृष्ण के पवित्र नाम का जप करते सुनकर मेरी चेतना शुद्ध हो गई है। अब मैं भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करना चाहती हूँ। कृपया हरे कृष्ण महामन्त्र जप के आनन्द के विषय में उपदेश देने की मुझ पर कृपा करें।
 
श्लोक 254:  “श्री चैतन्य महाप्रभु का अवतार होने से भगवत्प्रेम रूपी सनातन अमृत की बाढ़ आ गई है। सारे जीव उस बाढ़ में बह रहे हैं। अब सारा जगत् महाप्रभु का कृतज्ञ है।
 
श्लोक 255:  “जो इस बाढ़ में नहीं बहता, उसे धिक्कार है। ऐसे व्यक्ति को करोड़ों कल्पों तक उद्धार नहीं किया जा सकता।
 
श्लोक 256:  “पहले मुझे शिवजी से भगवान् राम का पवित्र नाम प्राप्त हुआ था, किन्तु अब आपकी संगति के फलस्वरूप मैं भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम का जप करने के लिए अत्यधिक उत्सुक हूँ।”
 
श्लोक 257:  “भगवान् राम का पवित्र नाम निश्चय ही मुक्ति को देने वाला है, किन्तु कृष्ण का पवित्र नाम भवसागर को पार कराने वाला तथा अन्त में कृष्ण - प्रेम प्रदान कराने वाला है।”
 
श्लोक 258:  “कृपा करके मुझे कृष्ण - नाम दीजिये और मुझे भाग्यशालिनी बनाइये, जिससे मैं भी श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रवर्तित भगवत् - प्रेम रूपी बाढ़ में बह सकें।”
 
श्लोक 259:  इस तरह कहकर माया ने हरिदास ठाकुर के चरणकमलों की पूजा की और उन्होंने “तुम हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करो” यह कहकर उसे दीक्षा दी।
 
श्लोक 260:  इस तरह हरिदास ठाकुर से उपदेश पाकर माया अत्यन्त प्रसन्न होकर चली गई। दुर्भाग्यवश कुछ लोगों को इन कथाओं में श्रद्धा नहीं होती।
 
श्लोक 261:  इसलिए मैं उन कारणों को बतलाऊँगा कि लोगों को क्यों श्रद्धा करनी चाहिए। जो भी इसे सुनेगा वह श्रद्धालु बन जायेगा।
 
श्लोक 262:  कृष्णभावनामृत आन्दोलन आरम्भ करने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के अवतार के समय ब्रह्माजी, शिवजी तथा चारों कुमारों ने कृष्ण - प्रेम द्वारा मुग्ध होकर इस पृथ्वी पर जन्म लिया।
 
श्लोक 263:  महर्षि नारद तथा प्रह्लाद जैसे सारे भक्त मनुष्य के रूप में कृष्ण - नाम का संकीर्तन करते, नाचते तथा भगवत्प्रेम की बाढ़ में बहते हुए वहाँ आये।
 
श्लोक 264:  कृष्ण - प्रेम से मुग्ध होकर देवी लक्ष्मी इत्यादि मनुष्य रूप में वहाँ आईं। और उन्होंने नाम - प्रेम का आस्वादन किया।
 
श्लोक 265:  औरों की बात जाने दें, नन्द महाराज के पुत्र कृष्ण तक हरे कृष्ण कीर्तन के रूप में भगवत्प्रेम का अमृत चखने के लिए स्वयं अवतरित होते हैं।
 
श्लोक 266:  तो इसमें क्या आश्चर्य है यदि कृष्ण की दासी, बहिरंगा शक्ति माया भगवत्प्रेम की याचना करती है? भक्त की कृपा के बिना तथा भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के बिना भगवत्प्रेम सम्भव नहीं है।
 
श्लोक 267:  श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं में तीनों लोक भगवत्प्रेम के सम्पर्क में आकर नाचते तथा कीर्तन करते हैं। यह उनकी लीलाओं का स्वभाव है।
 
श्लोक 268:  कृष्ण का पवित्र नाम इतना आकर्षक है कि सारे चर तथा अचर जीव एवं स्वयं भगवान् कृष्ण तक जो - जो इसका कीर्तन करता है, वह कृष्ण - प्रेम से पूरित हो उठता है। हरे कृष्ण महामन्त्र के कीर्तन का यह प्रभाव है।
 
श्लोक 269:  मैंने रघुनाथ दास गोस्वामी के मुख से वह सब कुछ सुना है, जो स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के बारे में अपनी टिप्पणियों में अंकित किया है।
 
श्लोक 270:  मैंने उन लीलाओं का संक्षिप्त वर्णन किया है। मैंने जो कुछ लिखा है, वह श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से लिखा है, क्योंकि मैं एक तुच्छ जीव हूँ।
 
श्लोक 271:  मैंने हरिदास ठाकुर की महिमा के कणमात्र का वर्णन किया है। इसे सुनकर हर भक्त के कान तुष्ट हो जाते हैं।
 
श्लोक 272:  श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए, सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्री चैतन्य - चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
 
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