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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  अन्त्य लीला  »  अध्याय 4: जगन्नाथ पुरी में महाप्रभु से सनातन गोस्वामी की भेंट  » 
 
 
 
 
भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने अमृत प्रवाह भाष्य में अन्त्य-लीला के चतुर्थ अध्याय का सारांश इस प्रकार दिया है। श्रील सनातन गोस्वामी मथुरा से अकेले ही श्री चैतन्य महाप्रभु से भेंट करने जगन्नाथ पुरी आये। गन्दे जल में स्नान करने तथा झारिखंड जंगल में यात्रा करते समय रास्ते में हररोज पर्याप्त भोजन न मिलने के कारण उनके शरीर में खुजली हो गई। इस खुजली से तंग आने के कारण उन्होंने संकल्प किया कि वे श्री चैतन्य महाप्रभु की उपस्थिति में जगन्नाथजी के रथ के नीचे गिरकर आत्महत्या कर लेंगे। जब सनातन गोस्वामी जगन्नाथ पुरी आये, तो वे कुछ काल तक हरिदास ठाकुर के संरक्षण में रुके रहे। श्री चैतन्य महाप्रभु उन्हें देखकर अत्यन्त प्रसन्न थे। महाप्रभु ने उनसे उनके छोटे भाई अनुपम की मृत्यु के विषय में बतलाया,भगवान् रामचन्द्र के चरणकमलों में जिनकी बड़ी श्रद्धा थी। एक दिन श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी से कहा, “आत्महत्या करने का तुम्हारा निर्णय तमोगुण का फल है। आत्महत्या करने से किसी को भगवत्प्रेम प्राप्त नहीं हो सकता। तुमने तो पहले से मेरी सेवा में अपना देह तथा प्राण समर्पित कर रखा है , इसलिए तुम्हारा शरीर तुम्हारा नहीं रहा, न ही तुम्हें आत्महत्या करने का कोई अधिकार है। मुझे तुम्हारे शरीर के माध्यम से अनेक भक्ति-कार्य सम्पन्न करने हैं। मैं तुम्हारे द्वारा भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार कराना चाहता हूँ और वृन्दावन भेजकर विलुप्त तीर्थस्थलों का पुनरोद्धार कराना चाहता हूँ।” इस तरह कहने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु वहाँ से चले गये और हरिदास ठाकुर तथा सनातन गोस्वामी में इस वि षय को लेकर अनेक बातें हुईं। एक दिन सनातन गोस्वामी को श्री महाप्रभु ने यमेश्वर टोटा नामक स्थान पर बुलवाया। सनातन गोस्वामी समुद्र- तट से होकर महाप्रभु के पास पहुँचे। जब महाप्रभु ने उनसे पूछा कि वे किस रास्ते से होकर आये हैं, तो सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया , “जगन्नाथजी के अनेक सेवक जगन्नाथ मन्दिर के सिंह-द्वार से होकर आते -जाते रहते हैं , इसलिए मैं उस मार्ग से नहीं आया। मैं समुद्र-तट से चलकर आया हूँ।” सनातन गोस्वामी को पता नहीं चला कि बालू की तपन से उनके पैरों में फफोले पड़ गये हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वा मी के मुख से जगन्नाथजी के मन्दिर के प्रति उनके आदरभाव को सुनकर अतीव प्रसन्न हुए। चूँकि सनातन गोस्वामी की खाज से पीब बहती थी, इसलिए वे श्री चैतन्य महाप्रभु का आलिंगन करने से बचते रहते; तो भी महाप्रभु बलपूर्वक उनका आलिंगन कर लेते। इसलिए सनातन गोस्वामी अत्यन्त दु:खी हो जाते । फलत: उन्होंने जगदानन्द पण्डित से पूछा कि वे क्या करें। जगदानन्द ने परामर्श दिया कि वे रथयात्रा के बाद वृन्दावन लौट जायें, किन्तु जब श्री चैतन्य महाप्रभु को इसका पता चला , तो उन्होंने जगदानन्द पण्डित को डाँटा -फटकारा और स्मरण दिलाया कि सनातन गोस्वामी उससे बड़े हैं और अधिक विद्वान भी हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को बतलाया कि शुद्ध भक्त होने के कारण उनकी शारीरिक दशा से महाप्रभु को कोई असुविधा नहीं होती। संन्यासी होने के कारण महाप्रभु एक शरीर को दूसरे से अच्छा नहीं समझते थे। महाप्रभु ने सनातन को यह भी बतलाया कि वे सनातन गोस्वामी तथा अन्य भक्तों का पालन -पोषण पिता की तरह कर रहे हैं। इसलिए सनातन की खाज से निकलने वाली पीब से महाप्रभु को किसी तरह की समस्या नहीं थी। ऐसा कहकर महाप्रभु ने फिर से सनातन गोस्वामी का आलिंगन किया, और इस आलिंगन के बाद सनातन गोस्वामी रोगमुक्त हो गये। महाप्रभु ने उन्हें उस वर्ष अपने साथ रुकने का आदेश दिया। अगले वर्ष रथयात्रा देखने के बाद सनातन गोस्वामी पुरुषोत्तम क्षेत्र छोड़कर वृन्दावन लौट गये। रूप गोस्वामी भी श्री चैतन्य महाप्रभु से भेंट करने के बाद बंगाल लौट गये, जहाँ वे एक वर्ष तक रहे। उनके पास जो भी धन था , उसे उन्होंने अपने सम्बन्धियों , ब्राह्मणों तथा मन्दिरों में बाँट दिया। इस तरह वे पूर्णतया विरक्त होकर सनातन गोस्वामी से मिलने वृन्दावन गये। इन घटनाओं का वर्णन करने के बाद कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने सनातन गोस्वामी , रूप गोस्वामी तथा जीव गोस्वामी की प्रमुख पुस्तकों की सूची दी है।
 
 
श्लोक 1:  जब सनातन गोस्वामी वृन्दावन से लौटे, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें आत्महत्या कर ने के संकल्प से स्नेहपूर्वक बचाया। तत्पश्चात् उनकी परीक्षा लेकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनके शरीर को शुद्ध बना दिया।
 
श्लोक 2:  श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैतचन्द्र की जय हो! तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो!
 
श्लोक 3:  जब श्रील रूप गोस्वामी जगन्नाथ पुरी से बंगाल लौट गये, तो सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने के लिए मथुरा से जगन्नाथ पुरी आये।
 
श्लोक 4:  सनातन गोस्वामी ने अकेले ही मध्य भारत के झारखण्ड के जंगली रास्ते से होकर यात्रा की। कभी वे उपवास करते तो कभी भोजन करते।
 
श्लोक 5:  झारखण्ड जंगल में खराब पानी मिलने तथा उपवास करने के कारण सनातन गोस्वामी को एक रोग हो गया, जिससे उनका सारा शरीर खुजलाता रहता। इस तरह वे खुजली के घावों से पीड़ित थे, जिनसे तरल पदार्थ (पीब) निकलता था।
 
श्लोक 6:  निराशा में सनातन गोस्वामी ने विचार किया, “मैं नीच जाति का हूँ और मेरा यह शरीर भक्तिमय सेवा के लिए व्यर्थ है।
 
श्लोक 7:  “जब मैं जगन्नाथ पुरी जाऊँगा, तो मैं न तो जगन्नाथजी के दर्शन कर सकर्ेगा, न ही श्री चैतन्य महाप्रभु का सर्वदा दर्शन कर पाऊँगा।”
 
श्लोक 8:  “मैंने सुना है कि श्री चैतन्य महाप्रभु का निवासस्थान जगन्नाथजी के मन्दिर के समीप है। किन्तु मन्दिर के समीप तक जाने की मुझमें शक्ति नहीं होगी।”
 
श्लोक 9:  “सामान्यतया भगवान् जगन्नाथ के सेवक अपना - अपना कार्य करने के लिए इधर - उधर घूमते फिरते हैं, किन्तु यदि वे मुझे छू लेंगे, तो मैं अपराधी बनूँगा।”
 
श्लोक 10:  “इसलिए यदि मैं यह शरीर किसी अच्छे स्थान में उत्सर्ग कर दें, तो मेरा दुःख दूर हो जायेगा और मुझे उच्च गति प्राप्त होगी।”
 
श्लोक 11:  “रथयात्रा उत्सव के समय जब भगवान् जगन्नाथ मन्दिर से बाहर आते हैं, तो मैं उनके रथ के पहिए के नीचे अपना शरीर छोड़ दूँगा।”
 
श्लोक 12:  जगन्नाथजी का दर्शन करने के बाद मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की उपस्थिति में रथ के पहिए के नीचे अपना शरीर - त्याग कर दूँगा। यह मेरे जीवन का सर्वोच्च वर होगा।”
 
श्लोक 13:  यह निश्चय करके सनातन गोस्वामी नीलाचल गये, जहाँ लोगों से दिशा पूछकर वे हरिदास ठाकुर के निवासस्थान जा पहुँचे।
 
श्लोक 14:  उन्होंने हरिदास ठाकुर के चरणकमलों की वन्दना की। वे उन्हें जानते थे, अतः उन्होंने उनका आलिंगन किया।
 
श्लोक 15:  सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों का दर्शन करने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे।
 
श्लोक 16:  उसी समय श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ मन्दिर में उपलभोग (प्रात: कालीन जलपान) देखकर अपने अन्य भक्तों के साथ हरिदास ठाकुर से मिलने के लिए आये।
 
श्लोक 17:  श्री चैतन्य महाप्रभु को देखकर हरिदास ठाकुर और सनातन गोस्वामी दोनों ने तुरन्त दण्डवत् प्रणाम किया। तब महाप्रभु ने हरिदास को उठाया और गले लगाया।
 
श्लोक 18:  हरिदास ठाकुर ने श्री चैतन्य महाप्रभु से कहा, “यह सनातन गोस्वामी आपको प्रणाम कर रहा है।” सनातन गोस्वामी को देखकर महाप्रभु अत्यधिक चकित हुए।
 
श्लोक 19:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु उनका आलिंगन करने आगे बढ़े, तो सनातन गोस्वामी पीछे हट गये और इस प्रकार बोले।
 
श्लोक 20:  हे प्रभु, कृपया आप मेरा स्पर्श न करें। मैं आपके चरणकमलों पर पड़ता हूँ। मैं नीच जाति में उत्पन्न होने के कारण मनुष्यों में सबसे अधम हूँ। इसके अतिरिक्त मेरे शरीर में खुजली का रोग है।”
 
श्लोक 21:  किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने बलपूर्वक सनातन गोस्वामी का आलिंगन कर लिया। इस तरह खुजली के घावों से रिसता तरल पदार्थ श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य शरीर में लग गया।
 
श्लोक 22:  महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी से सबका परिचय कराया और सनातन गोस्वामी ने उन सबके चरणकमलों पर सादर नमस्कार अर्पित किया।
 
श्लोक 23:  महाप्रभु तथा उनके सारे भक्त चबूतरे के ऊपर बैठ गये और हरिदास ठाकुर तथा सनातन गोस्वामी उसके नीचे बैठे।
 
श्लोक 24:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी से उनकी कुशलता का समाचार पूछा। सनातन ने उत्तर दिया, “सब कुशल है, क्योंकि मुझे आपके चरणकमलों के दर्शन हो गये।”
 
श्लोक 25:  जब महाप्रभु ने मथुरा के समस्त वैष्णवों के विषय में पूछा, तो सनातन गोस्वामी ने उनके स्वास्थ्य एवं सौभाग्य के बारे में बतलाया।
 
श्लोक 26:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को बतलाया,” श्रील रूप गोस्वामी यहाँ पर दस महीने तक थे। वे दस दिन पहले ही बंगाल चले गये हैं।
 
श्लोक 27:  तुम्हारा भाई अनुपम अब नहीं रहा। वह एक उत्तम भक्त था, जिसका रघुनाथ (भगवान् रामचन्द्र) में दृढ़ विश्वास था।”
 
श्लोक 28:  सनातन गोस्वामी ने कहा, “मैं निम्न कुल में उत्पन्न हुआ, क्योंकि मेरा परिवार सभी प्रकार के अधार्मिक कार्य करता है, जिनसे शास्त्र के आदेशों का उल्लंघन होता है।”
 
श्लोक 29:  “हे प्रभु, आपने मेरे परिवार से घृणा किये बिना मुझे अपने सेवक के रूप में स्वीकार किया है। केवल आपकी कृपा से ही मेरे परिवार में मंगल ही मंगल है।”
 
श्लोक 30:  “मेरा छोटा भाई अनुपम अपने बचपन से ही रघुनाथ (भगवान् रामचन्द्र) का महान् भक्त था और वह अत्यन्त दृढ़ता से उनकी पूजा करता था।”
 
श्लोक 31:  “वह सदैव रघुनाथ के पवित्र नाम का कीर्तन करता था और उन्हीं का ध्यान करता था। वह निरन्तर रामायण से भगवान् की लीलाओं के विषय में सुनता था और उन्हीं का कीर्तन करता था।
 
श्लोक 32:  “रूप तथा मैं उसके बड़े भाई हैं। वह लगातार हमारे साथ रहा।
 
श्लोक 33:  वह हमारे साथ श्रीमद्भागवत तथा कृष्ण विषयक वार्ताएँ सुनता था और हम दोनों उसकी परीक्षा लिया करते थे।
 
श्लोक 34:  “हम कहते, ‘हे वल्लभ, हमसे सुनो। भगवान् कृष्ण परम आकर्षक हैं। उनका सौन्दर्य, मधुरता तथा प्रेम की लीलाएँ अनन्त हैं।”
 
श्लोक 35:  “तुम हम दोनों के साथ कृष्ण की भक्ति में लगो। हम तीनों भाई एकसाथ रहेंगे और भगवान् कृष्ण की लीलाओं की चर्चा का आनन्द लेंगे।”
 
श्लोक 36:  “इस तरह हम दोनों ने उससे बारम्बार कहा और हमारे फुसलाने तथा हमारे प्रति आदरभाव से उसका मन कुछ - कुछ हमारे उपदेशों की ओर मुड़ा।”
 
श्लोक 37:  “वल्लभ ने उत्तर दिया, ‘हे प्रिय भ्राताओं, मैं आपके आदेशों का उल्लंघन कैसे कर सकता हूँ? मुझे कृष्ण - मन्त्र की दीक्षा दीजिये, जिससे मैं कृष्ण - भक्ति कर सकें।”
 
श्लोक 38:  “यह कहकर रात में वह सोचने लगा, मैं किस तरह भगवान् रघुनाथ के चरणकमलों को छोड़ पाऊँगा?”
 
श्लोक 39:  “वह रात - भर जागता रहा और रोता रहा। प्रातःकाल वह हमारे पास आया और इस प्रकार निवेदन करने लगा।”
 
श्लोक 40:  “मैंने अपना सिर भगवान् रामचन्द्र के चरणकमलों पर बेच दिया है। मैं इसे वापस नहीं ले सकता। यह मेरे लिए अत्यधिक पीड़ादायक होगा।”
 
श्लोक 41:  “आप दोनों मुझ पर कृपालु हों तथा इस तरह आज्ञा दें कि मैं जन्म - जन्मान्तर भगवान् रघुनाथ के चरणकमलों की से वा कर सकें।”
 
श्लोक 42:  मेरे लिए भगवान् रघुनाथ के चरणकमलों को छोड़ पाना असम्भव है। जब मैं उनको छोड़ने के लिए सोचता भी हूँ, तो मेरा हृदय विदीर्ण हो जाता है।”
 
श्लोक 43:  यह सुनकर हम दोनों ने उसका आलिंगन किया और उसे यहकहकर प्रोत्साहित किया, “तुम महान् सन्त भक्त हो, क्योंकि भक्ति में तुम्हारा संकल्प दृढ़ है। इस तरह हम दोनों ने उसकी प्रशंसा की।”
 
श्लोक 44:  “हे प्रभु, आप जिस वंश पर लेश मात्र भी कृपा करते हैं, वह सदैव भाग्यशाली होता है, क्योंकि ऐसी कृपा से सारे कष्ट लुप्त हो जाते हैं।”
 
श्लोक 45:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “ऐसी ही घटना मुरारि गुप्त के सम्बन्ध में भी है। पहले मैंने उसकी परीक्षा ली और उसका संकल्प ऐसा ही था।”
 
श्लोक 46:  “वह भक्त धन्य है, जो अपने स्वामी की शरण नहीं छोड़ता और वह स्वामी धन्य है, जो अपने सेवक को नहीं छोड़ता।”
 
श्लोक 47:  “यदि संयोगवश सेवक सेवा से नीचे गिर जाता है और अन्यत्र चला जाता है, तो वह स्वामी धन्य है, जो उसको बालों से पकड़कर वापस लाता है।
 
श्लोक 48:  “यह अच्छा हुआ कि तुम यहाँ आ गये। अब इस कमरे में हरिदास ठाकुर के साथ रहो।”
 
श्लोक 49:  “तुम दोनों ही कृष्ण - भक्ति के रसों को समझने में दक्ष हो। इसलिए तुम दोनों को ऐसे कार्यों का तथा हरे कृष्ण महामन्त्र का आस्वादन करते रहना चाहिए।”
 
श्लोक 50:  यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु उठे और चल दिये तथा गोविन्द के द्वारा उन्होंने उनके खाने के लिए प्रसाद भेजा।
 
श्लोक 51:  इस तरह सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु की देखरेख में रहे। वे जगन्नाथ मन्दिर के शिखर के चक्र को देखते तथा नमस्कार करते।
 
श्लोक 52:  श्री चैतन्य महाप्रभु प्रतिदिन इन दोनों महान् भक्तों से भेंट करने जाते और कुछ काल तक उनके साथ कृष्ण - कथाओं पर बातें करते।
 
श्लोक 53:  भगवान् जगन्नाथ के मन्दिर में प्रसाद की भेंट सर्वोच्च कोटि की होती थी। श्री चैतन्य महाप्रभु यह प्रसाद लाते और दोनों भक्तों को देते।
 
श्लोक 54:  एक दिन जब महाप्रभु उनसे मिलने आये, तो वे सहसा सनातन गोस्वामी से कहने लगे।
 
श्लोक 55:  उन्होंने कहा, “हे सनातन, यदि मैं आत्महत्या करके कृष्ण को पा सकें, तो करोड़ों शरीर त्यागने में मुझे तनिक भी द्विधा नहीं होगी।”
 
श्लोक 56:  “तुम जान लो कि मात्र शरीर त्यागने से कोई कृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकता। कृष्ण तो भक्ति से प्राप्य हैं। उन्हें प्राप्त करने का कोई अन्य उपाय नहीं है।”
 
श्लोक 57:  आत्महत्या जैसे कर्म तमोगुण से प्रेरित होते हैं एवं तमो तथा रजोगुण में मनुष्य यह नहीं समझ सकता कि कृष्ण कौन हैं।
 
श्लोक 58:  जब तक कोई भक्ति सम्पन्न नहीं करता, तब तक वह अपने सुप्त कृष्ण - प्रेम को जागृत नहीं कर सकता और उस सुप्त प्रेम को जागृत किये बिना कृष्ण को प्राप्त करने का अन्य कोई साधन नहीं है।
 
श्लोक 59:  “[पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण ने कहा:] ‘हे उद्धव, न तो अष्टांग योग द्वारा, न निर्विशेष एकेश्वरवाद द्वारा, न सांख्य योग द्वारा, न वेदों के अध्ययन द्वारा, न तपस्या, दान या संन्यास द्वारा कोई मुझे उतना तुष्ट कर सकता है जितना कि मेरी शुद्ध भक्ति विकसित करके कर सकता है।”
 
श्लोक 60:  आत्महत्या जैसे उपाय पाप के कारण हैं। ऐसे कर्मों से भक्त कभी भी कृष्ण के चरणकमलों में शरण प्राप्त नहीं कर सकता।
 
श्लोक 61:  “कृष्ण से वियोग की भावनाओं के कारण कभी - कभी उन्नत भक्त अपना जीवन त्याग देना चाहता है। किन्तु ऐसे प्रेम से कृष्ण का दर्शन होता है और उस समय वह शरीर त्याग नहीं पाता।”
 
श्लोक 62:  “जो व्यक्ति कृष्ण से प्रगाढ़ प्रेम करता है, वह उनके वियोग को सहन नहीं कर सकता। इसलिए ऐसा भक्त सदैव अपनी मृत्यु चाहता है।”
 
श्लोक 63:  हे कमलनयन, शिवजी जैसे महापुरुष अज्ञान को भगाने के लिए आपके चरणकमलों की धूल में स्नान करने की इच्छा करते हैं। यदि मुझे आपकी कृपा प्राप्त नहीं होती, तो मैं अपनी आयु को कम करने के व्रत का पालन करूँगी और यदि इस तरह आपकी कृपा मिल सकेगी, तो मैं सैकड़ों जन्मों तक शरीर त्यागती रहूँगी।”
 
श्लोक 64:  “हे प्रिय कृष्ण, आपने अपनी हँसीयुक्त चितवन तथा मधुर बातों से हमारे हृदयों में कामवासना की अग्नि उत्पन्न कर दी है। अब आपको अपने होठों की अमृतधारा से हमें चूमकर इस अग्नि को बुझाना चाहिए। तुम कृपा करके ऐसा करें। अन्यथा हे मित्र, आपके विरह के कारण हमारे हृदयों के भीतर की अग्नि हमारे शरीरों को क्षार कर देगी। इस तरह ध्यान द्वारा हम आपके चरणकमलों की शरण पा सकेंगी।”
 
श्लोक 65:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को कहा, “तुम अपनी समस्त व्यर्थ की इच्छाएँ छोड़ दो, क्योंकि वे कृष्ण के चरणकमलों की शरण पाने के लिए अनुपयुक्त हैं। तुम अपने आपको श्रवण तथा कीर्तन में लगाओ। तब तुम तुरन्त ही बिना संशय के कृष्ण की शरण पा सकोगे।
 
श्लोक 66:  निम्न कुल में उत्पन्न व्यक्ति भगवान् कृष्ण की भक्ति करने के लिए अयोग्य नहीं होता, न ही कोई व्यक्ति भक्ति के लिए इसलिए योग्य होता है कि वह कुलीन ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुआ है।
 
श्लोक 67:  “जो भी भक्ति करता है, वही महान् है, जबकि अभक्त सदैव गर्हितएवं निन्दनीय है। इसलिए भगवद्भक्ति करने में किसी के जाति, कुल इत्यादि का विचार नहीं होता।”
 
श्लोक 68:  “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण सदैव दीनों तथा दुखियारों के प्रति कृपालु रहते हैं, किन्तु कुलीन, विद्वान तथा धनी सदैव अपने पदों का गर्व करते हैं।”
 
श्लोक 69:  “भले ही कोई ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हो और बारहों ब्राह्मण - गुणों से युक्त हो, किन्तु इतना योग्य होते हुए भी यदि वह कमलनाभ भगवान् कृष्ण के चरणकमलों में समर्पित नहीं होता, तो वह उस चण्डाल के समान भी नहीं है, जिसने अपना मन, वचन, कर्म, धन तथा प्राण भगवान् की सेवा में अर्पित कर दिया है। मात्र ब्राह्मण कुल में जन्म लेना या ब्राह्मण - गुणों से युक्त होना पर्याप्त नहीं है। मनुष्य को भगवद्भक्त होना आवश्यक है। इस तरह यदि कोई श्वपच या चण्डाल भक्त है, तो वह न केवल अपना, अपितु अपने सारे परिवार का भी उद्धार करता है, जबकि एक ब्राह्मण, जो भक्त नहीं है, किन्तु केवल ब्राह्मण - योग्यताओं से युक्त है, अपने आपको भी शुद्ध नहीं कर सकता, अपने परिवार की तो बात ही जाने दें।”
 
श्लोक 70:  “भक्ति सम्पन्न करने की विधियों में नौ संस्तुत विधियाँ सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योंकि इन विधियों में कृष्ण तथा उनके प्रति प्रेम प्रदान करने की महान् शक्ति निहित है।”
 
श्लोक 71:  “भक्ति की नौं विधियों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है भगवान् के पवित्र नाम का सदैव कीर्तन करना। यदि कोई दस प्रकार के अपराधों से बचते हुए ऐसा करता है, तो वह आसानी से भगवान् के अमूल्य प्रेम को प्राप्त कर लेता है।”
 
श्लोक 72:  यह सुनकर सनातन गोस्वामी को अत्यधिक आश्चर्य हुआ। वे समझ गये, “आत्महत्या करने का मेरा निर्णय श्री चैतन्य महाप्रभु को अच्छा नहीं लगा।”
 
श्लोक 73:  सनातन गोस्वामी ने निष्कर्ष निकाला, “भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जानने वाले श्री चैतन्य महाप्रभु ने मुझे आत्महत्या करने से मना किया है।” तब वे महाप्रभु के चरणों पर गिर पड़े और उनसे इस तरह बोले।
 
श्लोक 74:  “हे प्रभु, आप सर्वज्ञ, कृपालु तथा स्वतन्त्र परमेश्वर हैं। मैं तो कठपुतली की ही तरह, जैसा आप चाहते हैं, नाचता हूँ।”
 
श्लोक 75:  “मैं नीच कुल में जन्मा हूँ। निस्सन्देह, मैं सबसे नीच हूँ। मैं घृणित हूँ, क्योंकि मुझमें पापी व्यक्ति के सारे दुर्गुण हैं। यदि आप मुझे जीवित रखते हैं, तो क्या लाभ होगा?”
 
श्लोक 76:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “तुम्हारा शरीर मेरी सम्पत्ति है। तुम इसे पहले ही मुझको समर्पण कर चुके हो। इसलिए अब अपने शरीर पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है।
 
श्लोक 77:  “तुम दूसरे की सम्पत्ति को क्यों नष्ट करना चाहते हो? क्या तुम यह विचार नहीं कर सकते कि क्या उचित है और क्या अनुचित?”
 
श्लोक 78:  तुम्हारा शरीर अनेक आवश्यक कार्य सम्पन्न कराने के लिए मेरा प्रमुख साधन है। तुम्हारे शरीर के द्वारा मैं अनेक कार्यों को पूरा करूँगा।
 
श्लोक 79:  तुम्हें भक्त, भक्ति, ईश्वर - प्रेम, वैष्णवों के कर्तव्य तथा वैष्णव के गुणों का निर्धारण करना होगा।
 
श्लोक 80:  “तुम्हें कृष्ण - भक्ति बतलानी होगी, कृष्ण - प्रेम अनुशीलन के केन्द्र स्थापित करने होंगे, लुप्त तीर्थस्थलों का उद्धार करना होगा तथा लोगों को शिक्षा देनी होगी कि संन्यास किस तरह ग्रहण किया जाए।”
 
श्लोक 81:  “मथुरा - वृन्दावन मेरा अति प्रिय अपना धाम है। मैं कृष्णभावनामृत का प्रचार करने के लिए वहाँ अनेक कार्य करना चाहता हूँ।”
 
श्लोक 82:  “मैं अपनी माता के आदेश से जगन्नाथ पुरी में रह रहा हूँ, अतएव मैं लोगों को धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार रहना सिखाने के लिए मथुरा - वृन्दावन नहीं जा सकता।
 
श्लोक 83:  “मुझे यह सारा कार्य तुम्हारे शरीर के माध्यम से कराना है, किन्तु तुम इसे त्यागना चाहते हो। यह मैं कैसे सह सकता हूँ?”
 
श्लोक 84:  उस समय सनातन गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु से कहा, “मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। आप अपने हृदय के भीतर जो गहन विचार करते हैं, उन्हें कोई नहीं समझ सकता।
 
श्लोक 85:  कठपुतली जादूगर के निर्देशानुसार नाचती - गाती है, किन्तु यह नहीं जानती कि वह किस तरह नाच - गा रही है।
 
श्लोक 86:  “हे प्रभु, आप जिस तरह नचाते हैं, मनुष्य उसी के अनुसार नाचता है, किन्तु वह कैसे नाचता है और उसे कौन नचाता है, वह यह नहीं जानता।”
 
श्लोक 87:  तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर से कहा, “हे प्रिय हरिदास, जरा मेरी बात सुनो। यह भद्र पुरुष पराई सम्पति को नष्ट करना चाहता है।”
 
श्लोक 88:  “जिसे पराया धन सौंपा जाता है, वह न तो उसे वितरित करता है, न ही अपने उपयोग में लाता है।
 
श्लोक 89:  हरिदास ठाकुर ने उत्तर दिया, “हम अपनी क्षमताओं पर झूठे ही गर्व करते हैं। वस्तुतः हम आपके गहन विचारों को समझ नहीं सकते।”
 
श्लोक 90:  “जब तक आप हमें बताते नहीं, तब तक हम न तो आपके अभिप्राय को समझ पाते हैं, न ही यह कि किसके माध्यम से आप क्या कराना चाहते हैं।”
 
श्लोक 91:  “हे महोदय, चूँकि आप जैसे महापुरुष ने सनातन गोस्वामी को स्वीकार कर लिया है, अतएव वह अत्यधिक भाग्यशाली है। उसके समान भाग्यशाली कोई दूसरा नहीं हो सकता।”
 
श्लोक 92:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर तथा सनातन गोस्वामी दोनों का आलिंगन किया और तब उठ खड़े हुए एवं दोपहर का कृत्य करने के लिए चले गये।
 
श्लोक 93:  हरिदास ठाकुर ने सनातन का आलिंगन करते हुए कहा, “हे प्रिय सनातन, कोई भी व्यक्ति तुम्हारे सौभाग्य की सीमा नहीं पा सकता।
 
श्लोक 94:  “श्री चैतन्य महाप्रभु ने तुम्हारे शरीर को अपना व्यक्तिगत धन मान लिया है। अतएव तुम्हारे सौभाग्य की कोई तुलना नहीं कर सकता।”
 
श्लोक 95:  “जो कुछ श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निजी शरीर से नहीं कर सकते, उसे वे तुम्हारे माध्यम से कराना चाहते हैं और वे इसे मथुरा में कराना चाहते हैं।”
 
श्लोक 96:  “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हमसे जो भी कराना चाहते हैं, वह सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जायेगा। यह तुम्हारा महान् सौभाग्य है। यह मेरा परिपक्व मत है।”
 
श्लोक 97:  मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की बातों से समझ सकता हूँ कि वे चाहते हैं। कि तुम भक्ति के सिद्धान्त तथा शास्त्रनिर्णित विधि - विधान पर ग्रन्थ लिखो।
 
श्लोक 98:  “मेरा शरीर श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा में काम न आ सका। इसलिए भारत - भूमि में जन्म लेकर भी यह शरीर व्यर्थ रहा।”
 
श्लोक 99:  सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया, “हे हरिदास ठाकुर, आपके समान कौन है? आप श्री चैतन्य महाप्रभु के संगियों में से एक हैं। अतएव आप सर्वाधिक भाग्यवान हो।”
 
श्लोक 100:  “श्री चैतन्य महाप्रभु जिस उद्देश्य के लिए अवतार के रूप में आये हैं, वह भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन की महत्ता का विस्तार करना है। अब वे इसे स्वयं करने के बदले आपके माध्यम से इसका विस्तार कर रहे हैं।”
 
श्लोक 101:  “हे महोदय, आप तो नित्य ही तीन लाख बार नाम का कीर्तन करते हो और हर एक को ऐसे कीर्तन की महत्ता के विषय में बतलाते हो।”
 
श्लोक 102:  “कुछ लोग बहुत अच्छा आचरण करते हैं, किन्तु कृष्णभावनामृत सम्प्रदाय का प्रचार नहीं करते, जबकि अन्य लोग प्रचार करते हैं, किन्तु उचित रीति से आचरण नहीं करते।”
 
श्लोक 103:  “आप अपने निजी आचरण तथा अपने प्रचार द्वारा पवित्र नाम से सम्बन्धित दोनों कार्यों को एक ही साथ करते हो। इसलिए आप सारे जगत् के गुरु हो, क्योंकि आप जगत् में सबसे उन्नत भक्त हो।”
 
श्लोक 104:  इस तरह वे दोनों कृष्ण विषयक कथाओं की चर्चा करते हुए अपना समय बिताते थे। अतः दोनों ने एकसाथ जीवन का आनन्द लिया।
 
श्लोक 105:  रथयात्रा के समय बंगाल के सारे भक्त रथ - उत्सव के दर्शन हेतु आये, जैसाकि वे पहले आये थे।
 
श्लोक 106:  रथयात्रा उत्सव के समय श्री चैतन्य महाप्रभु पुनः जगन्नाथजी के रथ के आगे - आगे नाचे। जब सनातन गोस्वामी ने यह देखा, तो उनका मन चकित हो गया।
 
श्लोक 107:  बंगाल से आये महाप्रभु के भक्त वर्षा ऋतु के चार महीने जगन्नाथ पुरी में रहे और श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबसे सनातन गोस्वामी का परिचय कराया।
 
श्लोक 108-110:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने अद्वैत आचार्य, नित्यानन्द प्रभु, श्रीवास ठाकुर, वक्रेश्वर पण्डित, वासुदेव दत्त, मुरारि गुप्त, राघव पण्डित, दामोदर पण्डित, परमानन्द पुरी, ब्रह्मानन्द भारती, स्वरूप दामोदर, गदाधर पण्डित, सार्वभौम भट्टाचार्य, रामानन्द राय, जगदानन्द पण्डित, शंकर पण्डित, काशीश्वर तथा गोविन्द तथा अन्य चुने हुए भक्तों से सनातन गोस्वामी का परिचय कराया।
 
श्लोक 111:  महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी से समस्त भक्तों को उपयुक्त ढंग से नमस्कार करने को कहा। इस तरह उन्होंने उन सबसे सनातन गोस्वामी का परिचय उनकी कृपा का पात्र बनाने के उद्देश्य से कराया।
 
श्लोक 112:  सनातन गोस्वामी अपने पाण्डित्य तथा उत्तम गुणों के कारण हर एक को प्रिय थे। इसलिए उन लोगों ने उन्हें योग्यता के अनुसार कृपा, मित्रता तथा सम्मान प्रदान किया।
 
श्लोक 113:  जब रथयात्रा उत्सव के बाद अन्य सारे भक्त बंगाल लौट गये, तो सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों के संरक्षण में रहते रहे।
 
श्लोक 114:  सनातन गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ दोल यात्रा उत्सव देखा। इस तरह महाप्रभु की संगति में उनका आनन्द बढ़ता गया।
 
श्लोक 115:  सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु को मिलने जगन्नाथ पुरी में अप्रैल - मई के महीने में आये थे और श्री चैतन्य महाप्रभु ने मई - जून के महीने में उनकी परीक्षा ली थी।
 
श्लोक 116:  मई - जून माह में श्री चैतन्य महाप्रभु यमेश्वर (शिवजी) के उद्यान में आये और वहाँ पर भक्तों के अनुरोध पर प्रसाद ग्रहण किया।
 
श्लोक 117:  दोपहर में जब भोजन का समय हुआ, तो महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को बुलाया, जिनका सुख इस बुलावे के कारण बढ़ गया।
 
श्लोक 118:  दोपहर के समय समुद्र - तट की बालू आग के समान झुलस रही थी, किन्तु सनातन गोस्वामी उसी रास्ते से आये।
 
श्लोक 119:  महाप्रभु द्वारा बुलाए जाने के हर्ष से अभिभूत सनातन गोस्वामी को यह अनुभव नहीं हुआ कि उनके पाँव गरम बालू से जले जा रहे हैं।
 
श्लोक 120:  यद्यपि गर्मी के कारण उनके दोनों पाँवों के तलुवों में फफोले पड़ गये थे, तो भी वे श्री चैतन्य महाप्रभु के पास गये। वहाँ उन्होंने महाप्रभु को भोजन के बाद विश्राम करते पाया।
 
श्लोक 121:  गोविन्द ने सनातन गोस्वामी को महाप्रभु के भोजन का अवशेष - पात्र प्रदान किया। प्रसाद पाने के बाद सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु के पास गये।
 
श्लोक 122:  जब महाप्रभु ने पूछा, “तुम किस मार्ग से होकर आये हो?” तो सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया, “मैं समुद्र - तट के मार्ग से आया हूँ।”
 
श्लोक 123:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “तुम समुद्र किनारे से होकर कैसे आये, जहाँ की बालू इतनी गरम है? तुम सिंह - द्वार के सामने के मार्ग से क्यों नहीं आ ये? वह अत्यन्त शीतल है।”
 
श्लोक 124:  “गरम बालू ने तुम्हारे तलवों में फफोले उत्पन्न कर दिये होंगे। अब तुम चल नहीं सकते। तुमने इसे कैसे सहन किया?”
 
श्लोक 125:  सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया, “मुझे न तो अधिक पीड़ा का अनुभव। हुआ, न ही मैं यह जान पाया कि तपिश के कारण फफोले पड़े हैं।”
 
श्लोक 126:  सिंह - द्वार के निकट से जाने का मुझे अधिकार नहीं है, क्योंकि वहाँ जगन्नाथजी के सेवक सदा आते - जाते रहते हैं।
 
श्लोक 127:  “वहाँ सेवक निरन्तर आते - जाते रहते हैं। यदि मैं उन्हें छू लेता, तो मेरा सर्वनाश हो जाता।”
 
श्लोक 128:  इन सब बातों को सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए और इस तरह बोले।
 
श्लोक 129-130:  “हे प्रिय सनातन, यद्यपि तुम सारे ब्रह्माण्ड के उद्धारक हो, और देवता तथा बड़े - बड़े सन्त तक तुम्हारे स्पर्श से शुद्ध बन जाते हैं, किन्तु वैष्णव - शिष्टाचार का पालन और रक्षण करना भक्त का गुण है। वैष्णव - शिष्टाचार को बनाये रखना भक्त का आभूषण है।”
 
श्लोक 131:  यदि कोई व्यक्ति शिष्टाचार के नियमों का उल्लंघन करता है, तो लोग उसकी हँसी उड़ाते हैं और इस तरह वह इह लोक तथा परलोक दोनों में विनष्ट हो जाता है।
 
श्लोक 132:  “तुमने शिष्टाचार का पालन करके मेरे मन को तुष्ट किया है। तुम्हारे अतिरिक्त इस उदाहरण को कौन दिखलाएगा?”
 
श्लोक 133:  यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी का आलिंगन किया। सनातन के शरीर के खुजली के घावों से रिसने वाली पस महाप्रभु के शरीर में लग गई।
 
श्लोक 134:  यद्यपि सनातन गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु को आलिंगन करने से बार - बार मना किया, किन्तु महाप्रभु ने फिर भी वही किया। अतः उनके शरीर पर सनातन के शरीर से निकली पस का लेप हो गया। इससे सनातन गोस्वामी अत्यधिक दुःखी हुए।
 
श्लोक 135:  इस तरह सेवक तथा स्वामी अपने - अपने घर चले गये। अगले दिन जगदानन्द पण्डित सनातन गोस्वामी से मिलने गये।
 
श्लोक 136:  जब जगदानन्द पण्डित तथा सनातन गोस्वामी एकसाथ बैठ गये और कृष्ण विषयक कथाएँ चलाने लगे, तो सनातन गोस्वामी ने जगदानन्द पण्डित से अपना दुःख कह सुनाया।
 
श्लोक 137:  यहाँ मैं श्री चैतन्य महाप्रभु के दर्शन करके अपना दुःख कम करने आया था, किन्तु महाप्रभु ने मुझे वह नहीं करने दिया जो मेरे मन में था।
 
श्लोक 138:  यद्यपि मैं उन्हें ऐसा करने से मना करता हूँ, तो भी श्री चैतन्य महाप्रभु मेरा आलिंगन करते हैं, जिससे उनके शरीर पर मेरी खुजली के घावों से निकली प स का लेप हो जाता है।
 
श्लोक 139:  “इस तरह मैं उनके चरणकमलों पर अपराध कर रहा हूँ, जिसके कारण निश्चय ही मेरा उद्धार नहीं होगा।
 
श्लोक 140:  “मैं तो यहाँ अपने लाभ के लिए आया था, किन्तु मैं अब देखता हूँ। कि मुझे ठीक उसका विपरीत मिल रहा है। मैं नहीं जानता, न ही मैं निश्चित कर सकता हूँ कि मुझे किस तरह लाभ होगा।”
 
श्लोक 141:  जगदानन्द पण्डित ने कहा, “तुम्हारे रहने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त स्थान वृन्दावन है। तुम रथयात्रा उत्सव का दर्शन करने के बाद वहाँ लौट सकते हो।”
 
श्लोक 142:  “महाप्रभु ने पहले ही तुम दोनों भाइयों को आदेश दे दिया है कि वृन्दावन में जाकर रहो। वहाँ तुम्हें सारा सुख मिलेगा।”
 
श्लोक 143:  “यहाँ आने का तुम्हारा उद्देश्य पूरा हो चुका है, क्योंकि तुम महाप्रभु के चरणकमलों का दर्शन कर चुके हो। इसलिए रथयात्रा में रथ पर जगन्नाथजी के दर्शन करने के बाद तुम जा सकते हो।”
 
श्लोक 144:  सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया, “आपने मुझे बहुत अच्छा परामर्श दिया है। मैं वहाँ अवश्य जाऊँगा, क्योंकि उसी स्थान को महाप्रभु ने मेरे रहने के लिए दिया है।”
 
श्लोक 145:  इस तरह बातें करके सनातन गोस्वामी तथा जगदानन्द पण्डित अपने अपने कार्यों पर लौट गये। अगले दिन श्री चैतन्य महाप्रभु हरिदास तथा सनातन गोस्वामी से मिलने गये।
 
श्लोक 146:  हरिदास ठाकुर ने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर नमस्कार किया और महाप्रभु ने प्रेमावेश में उनका आलिंगन किया।
 
श्लोक 147:  सनातन गोस्वामी ने दूर ही से नमस्कार तथा दण्डवत् किया, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनको आलिंगन करने के लिए बारम्बार पास बुलाया।
 
श्लोक 148:  अपराध करने के भय से सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने आगे नहीं आये। किन्तु महाप्रभु उनसे मिलने आगे बढ़े।
 
श्लोक 149:  सनातन गोस्वामी पीछे हट गये, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें बलपूर्वक पकड़ लिया और उनका आलिंगन कर लिया।
 
श्लोक 150:  महाप्रभु दोनों को अपने साथ लेकर एक पवित्र स्थान पर बैठ गये। तब वैराग्य में उन्नत सनातन गोस्वामी बोलने लगे।
 
श्लोक 151:  उन्होंने कहा, “मैं तो यहाँ अपने लाभ के लिए आया था, किन्तु मैं देखता हूँ कि उसका उल्टा हो रहा है। मैं सेवा के लिए अयोग्य हूँ। मैं दिन - प्रतिदिन अपराध ही करता हूँ।
 
श्लोक 152:  मैं स्वभाव से निम्नजन्मा हूँ। मैं पापकर्मों का प्रदूषित जलाशय हूँ। यदि आप मुझे छूते हैं, तो वह मेरे लिए और भी बड़ा अपराध होगा।
 
श्लोक 153:  “तिस पर मेरे शरीर के खाज के घावों से जो खून बह रहा है, आपके शरीर को लगता है, फिर भी आप मुझे बलपूर्वक छूते हैं।”
 
श्लोक 154:  हे महोदय, मेरा शरीर भयावह स्थिति में है, फिर भी उसका स्पर्श करने में आपको तनिक भी घृणा नहीं होती। इस अपराध के कारण मेरे लिए प्रत्येक मंगल समाप्त हो जायेगा।
 
श्लोक 155:  “इसलिए मैं देखता हूँ कि यहाँ रुककर मैं कोई भी मंगल नहीं कर पाऊँगा। कृपया मुझे रथयात्रा उत्सव के बाद वृन्दावन लौट जाने की अनुमति का आदेश दें।”
 
श्लोक 156:  “मैंने जगदानन्द पण्डित से उनका मत जानने के लिए परामर्श किया है और उन्होंने भी वृन्दावन लौट जाने का परामर्श दिया है।”
 
श्लोक 157:  यह सुनकर क्रुद्ध होकर श्री चैतन्य महाप्रभु जगदानन्द पण्डित की भर्त्सना करने लगे।
 
श्लोक 158:  जगा (जगदानन्द पण्डित) अभी केवल छोकरा है, किन्तु वह इतना गर्वीला हो गया है कि अपने आपको तुम जैसे व्यक्ति को उपदेश देने के लिए सक्षम मानता है।
 
श्लोक 159:  “आध्यात्मिक उन्नति के मामले में तथा सामान्य व्यवहार में भी तुम उसके गुरु तुल्य हो। फिर भी वह अपने मूल्य को न जानते हुए तुम्हें परामर्श देने का दुस्साहस करता है।”
 
श्लोक 160:  हे प्रिय सनातन, तुम तो मेरे सलाहकार जैसे हो, क्योंकि तुम प्रामाणिक व्यक्ति हो। किन्तु जगा तुमको उपदेश देना चाहता है। यह तो एक शरारती बालक की धृष्टता ही है।”
 
श्लोक 161:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु इस तरह जगदानन्द पण्डित को डाँट रहे थे, तो सनातन गोस्वामी महाप्रभु के चरणों पर गिर पड़े और बोले, “मैं अब जगदानन्द के सौभाग्य को समझ पाया।”
 
श्लोक 162:  “मैं अपने दुर्भाग्य को भी समझ गया। इस जगत् में जगदानन्द के समान भाग्यशाली कोई नहीं है।
 
श्लोक 163:  “आप तो जगदानन्द को स्नेहमय सम्बन्धों का अमृत पिला रहे हैं। और मेरी गौरव स्तुति करके आप मुझे नीम तथा निशिन्दा का कटु रस पिला रहे हैं।”
 
श्लोक 164:  “यह मेरा दुर्भाग्य है कि आपने मुझे अपने आत्मीय जन के रूप में स्वीकार नहीं किया। किन्तु आप पूर्णतया स्वतन्त्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।”
 
श्लोक 165:  यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु कुछ लज्जित हुए। सनातन गोस्वामी को तुष्ट करने के उद्देश्य से उन्होंने निम्नलिखित शब्द कहे।
 
श्लोक 166:  “हे प्रिय सनातन, तुम यह मत सोचना कि जगदानन्द मुझे तुमसे अधिक प्रिय है। किन्तु मैं आदर्श शिष्टाचार का अतिक्रमण सहन नहीं कर सकता।”
 
श्लोक 167:  “तुम शास्त्रों के अनुभवी विद्वान हो, जबकि जगा केवल एक युवा बालक है।”
 
श्लोक 168:  “तुममें मुझ तक को प्रभावित करने की शक्ति है। तुम पहले ही कईस्थानों पर मुझे अपने सामान्य व्यवहार तथा भक्ति के विषय में समझा चुके हो।
 
श्लोक 169:  “जगा का तुम्हें उपदेश देना मुझे असह्य है। इसीलिए मैं उसकी भर्त्सना कर रहा हूँ।”
 
श्लोक 170:  “मैं तुम्हारी प्रशंसा इसलिए नहीं करता, क्योंकि मैं तुम्हें अपने घनिष्ठ सम्बन्धों से बाहर मानता हूँ, अपितु इसलिए कि तुम वास्तव में इतने योग्य हो कि लोगों को तुम्हारे गुणों की प्रशंसा करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।”
 
श्लोक 171:  “यद्यपि एक व्यक्ति का कई व्यक्तियों से स्नेह होता है, किन्तु उनके निजी सम्बन्धों के स्वभाव के अनुसार विभिन्न प्रकार के प्रेमों का उदय होता है।”
 
श्लोक 172:  तुम अपने शरीर को बीभत्स मानते हो, किन्तु मैं सोचता हूँ कि तुम्हारा शरीर अमृत के समान है।
 
श्लोक 173:  वस्तुतः तुम्हारा शरीर दिव्य है, भौतिक नहीं है। किन्तु तुम इसे भौतिक बुद्धि से सोच रहे हो।
 
श्लोक 174:  यदि तुम्हारा शरीर भौतिक होता, तो भी मैं उसकी उपेक्षा न कर पाता, क्योंकि भौतिक शरीर को न तो अच्छा मानना चाहिए न बुरा।
 
श्लोक 175:  “कृष्ण से सम्बन्ध न रखने वाली जिस भी वस्तु की अनुभूति की जाती हो, उसे माया समझना चाहिए। शब्दों द्वारा उच्चरित या मन में अनुभव किये गये एक भी भ्रम यथार्थ नहीं होते। चूँकि भ्रम यथार्थ नहीं होता, इसलिए जिसे हम बुरा सोचते हैं और जिसे अच्छा सोचते है, उनमें कोई अन्तर नहीं होता। जब हम परम सत्य की बात करते हैं, तो ऐसी कल्पनाएँ लागू नहीं होतीं।”
 
श्लोक 176:  “भौतिक जगत् में अच्छे - बुरे की कल्पनाएँ मन की उपज होती हैं। इसलिए यह कहना कि ‘यह अच्छा है’ और ‘यह बुरा है’ कोरी भूल है।”
 
श्लोक 177:  “विनम्र साधु पुरुष वास्तविक ज्ञान के बल पर विद्वान तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते तथा चण्डाल को समदृष्टि से देखते हैं।”
 
श्लोक 178:  जो व्यक्ति जीवन में अर्जित ज्ञान तथा उसके उपयोग से पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है और अपने आध्यात्मिक पद पर स्थिर होता है, जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को पूरी तरह वश में रखता है और जो व्यक्ति कंकर, पत्थर तथा सोने को एक - सा देखता है, वह पूर्ण योगी कहलाता है।
 
श्लोक 179:  “चूँकि मैं संन्यासी हूँ, इसलिए मेरा धर्म भेद - भाव करना नहीं, अपितु समदृष्टि रखने का है। मेरा ज्ञान चन्दन तथा कीचड़ में समदृष्टि रखता है।”
 
श्लोक 180:  “इस कारण मैं तुम्हारा त्याग नहीं कर सकता। यदि मैं तुमसे घृणा करूँगा, तो मैं अपने वृत्तिपरक धर्म से विचलित हो जाऊँगा।”
 
श्लोक 181:  हरिदास ने कहा, “हे प्रभु, आपने जो कुछ कहा है, वह बाह्य औपचारिकता है। मैं इसे स्वीकार नहीं करता।”
 
श्लोक 182:  “हे प्रभु, हम सब पतित हैं, किन्तु आपने पतितों पर दयालु होने के अपने गुण के कारण हमें स्वीकार किया है। यह जगत - विख्यात है।”
 
श्लोक 183:  श्री चैतन्य महाप्रभु हँसे और बोले, “हे हरिदास, हे सनातन, सुनो। अब मैं तुमसे सच कह रहा हूँ कि मेरा मन तुम लोगों से किस तरह अनुरक्त है।”
 
श्लोक 184:  “हे हरिदास तथा सनातन, मैं तुम दोनों को अपने बच्चों जैसा मानता हैं, जिनका पालन मेरे द्वारा होना है। पालक कभी भी पालितों के दोषों पर गम्भीरता से विचार नहीं करता।”
 
श्लोक 185:  मैं अपने आपको आदर के अयोग्य समझता हूँ, किन्तु स्नेह के कारण मैं तुम लोगों को अपने बच्चों के समान मानता हूँ।
 
श्लोक 186:  “जब बालक मल - मूत्र कर देता है, तो वह माता के शरीर में लग जाता है, किन्तु माता कभी भी बच्चे से घृणा नहीं करती। उल्टे उसे धोने में वह अपार आनन्द पाती है।”
 
श्लोक 187:  “माता को पाले जाने वाले बालक का मल - मूत्र चन्दन - लेप के समान प्रतीत होता है। इसी तरह जब सनातन गोस्वामी के घावों से रिसने वाला दुर्गंधयुक्त द्रव्य मेरे शरीर में छू जाता है, तो मुझे उससे घृणा नहीं होती।”
 
श्लोक 188:  हरिदास ठाकुर ने कहा, “हे महोदय, आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं और हमारे प्रति अत्यन्त कृपालु हैं। कोई नहीं जान सकता कि आपके अगाध स्नेहिल हृदय में क्या है।”
 
श्लोक 189:  “आपने वासुदेव कोढ़ी का आलिंगन किया, जिसका शरीर पूरी तरह कीड़ों से भरा था। आप इतने दयालु हैं कि उसकी ऐसी दशा होते हुए भी आपने उसका आलिंगन किया।”
 
श्लोक 190:  “आपने उसका आलिंगन करके उसके शरीर को कामदेव का - सा सुन्दर बना दिया। हम आपकी कृपा की तरंगों को समझ नहीं सकते।”
 
श्लोक 191:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “एक भक्त का शरीर कभी भी भौतिक नहीं होता। वह दिव्य, आध्यात्मिक आनन्द से पूर्ण माना जाता है।”
 
श्लोक 192:  “दीक्षा के समय जब भक्त अपने आपको भगवान् की सेवा में पूर्णतया समर्पित कर देता है, तब कृष्ण उसे अपने समान ही उत्तम स्वीकार कर लेते हैं।”
 
श्लोक 193:  “जब भक्त का शरीर इस तरह आध्यात्मिक बन जाता है, तो भक्त उस दिव्य शरीर से भगवान् के चरणकमलों की सेवा करता है।”
 
श्लोक 194:  “जब जन्म - मृत्यु को प्राप्त होने वाला जीव मेरा आदेश पूरा करने के लिए अपना जीवन मुझे समर्पित करते हुए सारे भौतिक कार्यों को त्याग देता है और इस तरह मेरे आदेशों के अनुसार कर्म करता है, उस समय वह अमरता के पद तक पहुँच जाता है। तब वह मेरे साथ प्रेम - रस के आदान - प्रदान में आध्यात्मिक आनन्द लूटने के योग्य बन जाता है।”
 
श्लोक 195:  कृष्ण ने किसी प्रकार सनातन गोस्वामी के शरीर में खुजली के घाव प्रकट कर दिये हैं और मेरी परीक्षा लेने के लिए उसे यहाँ भेज दिया है।
 
श्लोक 196:  यदि मैंने सनातन गोस्वामी से घृणा की होती और उसका आलिंगन न किया होता, तो निश्चय ही कृष्ण के प्रति अपराध करने के लिए मैं दण्डित होता।
 
श्लोक 197:  “सनातन गोस्वामी कृष्ण के संगियों में से एक है। उसके शरीर से कोई दुर्गन्ध नहीं आ सकती। पहले दिन जब मैंने उनका आलिंगन किया, तो मुझे चतुःसम (चन्दन, कपूर, अगुरु तथा कस्तूरी के मिश्रण) की सुगन्धि आयी।”
 
श्लोक 198:  वस्तुतः जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी का आलिंगन किया, तो महाप्रभु के स्पर्श मात्र से चन्दन - लेप के ही समान सुगन्ध प्रकट हुई।
 
श्लोक 199:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “हे प्रिय सनातन, दुःखी मत हो, क्योंकि जब मैं तुम्हारा आलिंगन करता हूँ, तब वास्तव में मुझे महान् सुख मिलता है।”
 
श्लोक 200:  “तुम मेरे साथ जगन्नाथ पुरी में एक वर्ष तक रहो। उसके बाद मैं तुम्हें वृन्दावन भेज दूँगा।”
 
श्लोक 201:  यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी का पुनः आलिंगन किया। इस तरह सनातन के छाले तुरन्त लुप्त हो गये और उनका सारा शरीर सोने के रंग जैसा हो गया।
 
श्लोक 202:  यह परिवर्तन देखकर अत्यधिक आश्चर्यचकित हुए हरिदास ठाकुर ने महाप्रभु से कहा, “यह आपकी लीला है।
 
श्लोक 203:  “हे प्रभु, आपने सनातन गोस्वामी को झारिखण्ड जल पीने को बाध्य किया और वास्तव में उनके शरीर में खुजली के घाव आपने ही उत्पन्न किये।”
 
श्लोक 204:  “इन खुजली के घावों को इस तरह उत्पन्न करके आपने सनातन गोस्वामी की परीक्षा ली। आपकी दिव्य लीलाओं को कोई भी नहीं समझ सकता।”
 
श्लोक 205:  हरिदास ठाकुर तथा सनातन गोस्वामी दोनों का आलिंगन करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु अपने स्थान पर लौट गये। तब हरिदास ठाकुर तथा सनातन गोस्वामी ने भावविभोर होकर महाप्रभु के दिव्य गुणों का वर्णन करना शुरू किया।
 
श्लोक 206:  इस तरह सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु के संरक्षण में रहे और हरिदास ठाकुर के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य गुणों की चर्चा करते रहे।
 
श्लोक 207:  दोलयात्रा उत्सव देखने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को वृन्दावन में जो कुछ करना था, उसका पूरी तरह आदेश देकर उन्हें विदा किया।
 
श्लोक 208:  जब सनातन गोस्वामी तथा श्री चैतन्य महाप्रभु ने एक दूसरे से विदा ली, तो जो विरह दृश्य उपस्थित हुआ, उसका यहाँ पर वर्णन नहीं किया जा सकता।
 
श्लोक 209:  सनातन गोस्वामी ने उसी जंगल के मार्ग से होकर वृन्दावन जाने का निश्चय किया, जिससे होकर महाप्रभु गये थे।
 
श्लोक 210:  सनातन गोस्वामी ने बलभद्र भट्टाचार्य से पूछकर उन सारे गाँवों, नदियों तथा पर्वतों का नाम लिख लिया, जहाँ जहाँ श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी लीलाएँ सम्पन्न की थीं।
 
श्लोक 211:  सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों से मिले और तब उन्होंने उसी रास्ते से यात्रा करके उन स्थानों को देखा, जिनसे होकर श्री चैतन्य महाप्रभु गुजरे थे।
 
श्लोक 212:  जब भी सनातन गोस्वामी ऐसे किसी स्थान को देखते, जहाँ श्री चैतन्य महाप्रभु ने मार्ग में अपनी लीलाएँ की थीं, तब वे तुरन्त ही प्रेमावेश से पूरित हो जाते।
 
श्लोक 213:  इस तरह सनातन गोस्वामी वृन्दावन पहुँचे। बाद में रूप गोस्वामी आये और उनसे मिले।
 
श्लोक 214:  श्रील रूप गोस्वामी को बंगाल में एक वर्ष का विलम्ब हो गया, क्योंकि वे अपना धन अपने सम्बन्धियों को बाँट रहे थे और उन्हें उनकी समुचित स्थितियों में स्थापित कर रहे थे।
 
श्लोक 215:  उन्होंने बंगाल में जो भी धन संग्रह किया था, उसे एकत्र किया और उसे अपने सम्बन्धियों, ब्राह्मणों तथा मन्दिरों में बाँट दिया।
 
श्लोक 216:  इस तरह उनके मन में जितने कार्य थे, उन्हें सम्पन्न करके वे पूर्णतया तुष्ट होकर वृन्दावन लौट आये।
 
श्लोक 217:  दोनों भाई वृन्दावन में मिले, जहाँ वे श्री चैतन्य महाप्रभु की इच्छा को पूरी करने के लिए रहे।
 
श्लोक 218:  श्रील रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी ने अनेक प्रामाणिक शास्त्र एकत्र किये और इन शास्त्रों के साक्ष्य के आधार पर समस्त लुप्त तीर्थस्थलों का पुनरुद्धार किया। इस तरह उन्होंने भगवान् कृष्ण की पूजा हेतु मन्दिरों की स्थापना की।
 
श्लोक 219:  श्रील सनातन गोस्वामी ने बृहद् - भागवतामृत का संकलन किया। इस पुस्तक के द्वारा यह जाना जा सकता है कि कौन भक्त है, भक्ति की विधि क्या है और परम सत्य कृष्ण कौन हैं।
 
श्लोक 220:  श्रील सनातन गोस्वामी ने दशम स्कन्ध का भाष्य दशम टिप्पणी के नाम से लिखा, जिससे हम भगवान् कृष्ण की दिव्य लीलाओं तथा प्रेमावेश को समझ सकते हैं।
 
श्लोक 221:  उन्होंने हरिभक्ति विलासका भी संकलन किया, जिससे हम भक्त के आदर्श आचरण को तथा वैष्णव के कर्तव्य की पूरी सीमा को समझ सकते हैं।
 
श्लोक 222:  श्रील सनातन गोस्वामी ने अन्य कई ग्रन्थ भी संकलित किये हैं। उनकी गणना कौन कर सकता है? इन ग्रन्थों का मूलभूत सिद्धान्त हम सबको यह बतलाना है कि मदनमोहन तथा गोविन्दजी से किस तरह प्रेम किया जाए।
 
श्लोक 223:  श्रील रूप गोस्वामी ने भी कई ग्रन्थ लिखे, जिनमें से सर्वाधिक विख्यात है भक्तिरसामृतसिन्धु। इस ग्रन्थ से कृष्ण - भक्ति के सार तथा ऐसी सेवा से प्राप्त होने वाले दिव्य रस को समझा जा सकता है।
 
श्लोक 224:  श्रील रूप गोस्वामी ने उज्ज्वल नीलमणि नामक ग्रन्थ का भी संकलन किया, जिससे हम श्री श्रीराधाकृष्ण के प्रेम - व्यवहार की पराकाष्ठा को समझ सकते हैं।
 
श्लोक 225:  श्रील रूप गोस्वामी ने दो महत्त्वपूर्ण नाटक भी लिखे, जिनके नाम विदग्ध माधव तथा ललित माधव हैं, जिनसे कृष्ण की लीलाओं से प्राप्य समस्त रसों को समझा जा सकता है।
 
श्लोक 226:  श्रील रूप गोस्वामी ने ‘दानकेलिकौमुदी’ ग्रन्थ से प्रारम्भ करके एक लाख श्लोकों की रचना की। इन शास्त्रों में उन्होंने वृन्दावन - लीलाओं के दिव्य रसों की विस्तार से व्याख्या की है।
 
श्लोक 227:  श्रील रूप गोस्वामी के छोटे भाई श्री वल्लभ या अनुपम के पुत्र बहुत बड़े विद्वान थे, जिनका नाम श्रील जीव गोस्वामी था।
 
श्लोक 228:  श्रील जीव गोस्वामी अपना सर्वस्व त्यागकर वृन्दावन आये। बाद में उन्होंने भी भक्ति विषयक अनेक पुस्तकें लिखीं और प्रचार - कार्य को बढ़ाया।
 
श्लोक 229:  श्रील जीव गोस्वामी ने विशेष रूप से भागवत सन्दर्भया षट् सन्दर्भ ग्रन्थ की रचना की, जो समस्त शास्त्रों का निचोड़ है। इस ग्रन्थ से भक्ति तथा भगवान् के विषय में निर्णायक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
 
श्लोक 230:  उन्होंने गोपाल चम्पू नामक ग्रन्थ भी लिखा, जो समस्त वैदिक साहित्य का सार है। इस ग्रन्थ में उन्होंने राधाकृष्ण के प्रेम के आदान - प्रदान तथा वृन्दावन - लीलाओं को प्रदर्शित किया है।
 
श्लोक 231:  षट् सन्दर्भ में श्रील जीव गोस्वामी ने कृष्ण - प्रेम विषयक सत्य को प्रकट किया है। इस तरह उनके सारे ग्रन्थों का विस्तार चार लाख श्लोकों में हुआ है।
 
श्लोक 232:  जब जीव गोस्वामी की इच्छा बंगाल से मथुरा जाने की हुई, तो उन्होंने श्रील नित्यानन्द प्रभु से अनुमति माँगी।
 
श्लोक 233:  जीव गोस्वामी का रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी से, जो कि श्री चैतन्य महाप्रभु के अति कृपापात्र थे, सम्बन्ध होने के कारण श्री नित्यानन्द प्रभु ने श्रील जीव गोस्वामी के सिर पर अपने चरण रखे और उनका आलिंगन किया।
 
श्लोक 234:  श्री नित्यानन्द प्रभु ने आज्ञा दी, “हाँ, तुम शीघ्र वृन्दावन जाओ। वह स्थान श्री चैतन्य महाप्रभु ने तुम्हारे परिवार को, तुम्हारे पिता तथा चाचाओं को दिया है, इसलिए तुम वहाँ शीघ्र जाओ।”
 
श्लोक 235:  श्री नित्यानन्द प्रभु की आज्ञा से वे वृन्दावन गये और सचमुच ही उन्होंने उनकी आज्ञा का फल प्राप्त किया, क्योंकि उन्होंने दीर्घकाल तक अनेक पुस्तकों की रचना की और वृन्दावन से भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार किया।
 
श्लोक 236:  रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी तथा जीव गोस्वामी - ये तीनों तथा रघुनाथ दास गोस्वामी भी उसी तरह से मेरे गुरु हैं। इसलिए मैं उनके चरणकमलों की वन्दना करता हूँ, क्योंकि मैं उनका दास हूँ।
 
श्लोक 237:  इस तरह मैंने महाप्रभु की सनातन गोस्वामी से पुनः भेंट का वर्णन किया है। इसे सुनकर मैं महाप्रभु की इच्छा समझ सकता हूँ।
 
श्लोक 238:  श्री चैतन्य महाप्रभु के ये गुण गन्ने के समान हैं, जिससे इसे चूसने वाले को दिव्य रस का स्वाद मिलता है।
 
श्लोक 239:  श्रील रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए, सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए, मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलकर श्री चैतन्य - चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
 
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