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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  अन्त्य लीला  »  अध्याय 6: श्री चैतन्य महाप्रभु तथा रघुनाथ दास गोस्वामी की भेंट  » 
 
 
 
 
भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने अमृतप्रवाह भाष्य में इस अध्याय का सारांश इस प्रकार दिया है। जब श्री चैतन्य महाप्रभु में प्रेमावेश के दिव्य विकार प्रकट होते थे , तब रामानन्द राय तथा स्वरूप दामोदर गोस्वामी उनके पास रहते और उनकी इच्छा के अनुरूप उनको सन्तुष्ट किया करते थे। रघुनाथ दास गोस्वामी बहुत समय से श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों के निकट आने का प्रयास कर रहे थे , इसलिए अन्ततः उन्होंने घर -बार छोड़ दिया और महाप्रभु से भेंट की। जब श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन जाते समय शान्तिपुर गये थे, तब रघुनाथ दास गोस्वामी ने महाप्रभु के चरणकमलों पर अपना जीवन अर्पित करने की बात की थी। किन्तु इसी बीच एक मुसलमान अधिकारी रघुनाथ दास गोस्वामी के ताऊ हिरण्य दास से ईर्ष्या करने लगा और उसने किसी बड़े दरबारी सचिव को उसको बन्दी बनाने के लिए प्रेरित किया। इस तरह हिरण्य दास ने अपना घर छोड़ दिया , किन्तु रघुनाथ दास की बुद्धिमानी से गलतफहमी दूर हो गई। तब रघुनाथ दास पानिहाटि चले गये और उन्होंने श्री नित्यानन्द प्रभु के आदेश से वहाँ चिड़ादधि महोत्सव सम्पन्न किया , जिसमें उन्होंने चिउड़ा के साथ दही मिलाकर वितरित किया। इस उत्सव के अगले दिन नित्यानन्द प्रभु ने रघुनाथ दास को आशीर्वाद दिया कि उसे शीघ्र ही श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण प्राप्त होगी। इस घटना के बाद रघुनाथ दास अपने पुरोहित यदुनन्दन आचार्य की सहायता से चालाकी से अपने घर से निकल भागे। वे आम रास्ते से न जाकर छिपते हुए जगन्नाथपुरी गये। वे बारह दिनों के बाद जगन्नाथ पुरी में श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में पहुँचे। श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथदास गोस्वामी को स्वरूप दामोदर गोस्वामी के हाथों सौंप दिया। इसलिए रघुनाथ दास गोस्वामी का दूसरा नाम स्वरूपेर रघु या स्वरूप-दामोदर का रघुनाथ है। रघुनाथ दास गोस्वामी पाँच दिनों तक मन्दिर में प्रसाद लेते रहे , किन्तु बाद में वे सिंह द्वार पर खड़े रहते और भिक्षा से जो भी मिल जाता उसे खाते। बाद में वे विभिन्न छत्रों (लंगरों) से भीख माँगकर जीवन धारण करने लगे। जब रघुनाथ दास के पिता को यह समाचार मिला, तो उसने कुछ सेवक तथा धन भेजा , किन्तु रघुनाथ दास ने यह धन लेने से मना कर दिया। यह जानकर कि रघुनाथदास गोस्वामी छत्रों से भीख माँगकर जीवन -यापन करते हैं , श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी गुंजा माला तथा गोवर्धन पर्वत की एक शिला (गोवर्धन शिला) उन्हें भेंट की। तत्पश्चात् रघुनाथ दास गोस्वामी फें के गये भोजन को एकत्र करके उसे धोकर खाने लगे। इस विरक्त जीवन से स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा श्री चैतन्य महाप्रभु दोनों ही अतीव प्रसन्न थे। एक दिन श्री चैतन्य महाप्रभु ने वही भोजन छीनकर खाया और रघुनाथ दास गोस्वामी को उनके वैराग्य के लिए आशीर्वाद दिया।
 
 
श्लोक 1:  श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपनी अहैतुकी कृपा रूपी रस्सी से रघुनाथदास गोस्वामी को घृणित पारिवारिक जीवन रूपी अन्धे कुएँ से उद्धार करने के लिए युक्ति का प्रयोग किया। उन्होंने रघुनाथ दास गोस्वामी को स्वरूप दामोदर गोस्वामी के संरक्षण में रखकर अपना निजी संगी बनाया। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।
 
श्लोक 2:  श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो! और श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो!
 
श्लोक 3:  इस तरह भगवान् गौरचन्द्र ने अपने संगियों के साथ जगन्नाथपुरी में नाना प्रकार की दिव्य आनन्ददायिनी लीलाएँ सम्पन्न कीं।
 
श्लोक 4:  यद्यपि श्री चैतन्य महाप्रभु को कृष्ण के विछोह की पीड़ा होती थी, किन्तु वे अपनी भावनाओं को बाह्य रूप से प्रकट नहीं करते थे, क्योंकि उन्हें भय था कि भक्तगण दुःखी होंगे।
 
श्लोक 5:  जब कृष्ण के विछोह से उत्पन्न गहन दुःख को महाप्रभु प्रकट करते, तो उनमें जो विकार आते, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता।
 
श्लोक 6:  जब महाप्रभु को कृष्ण के विछोह की तीव्र पीड़ा का अनुभव होता, तब एकमात्र श्री रामानन्द राय द्वारा कही गई कृष्ण कथा तथा स्वरूप दामोदर के मधुर गीत उन्हें जीवित रखते।
 
श्लोक 7:  दिन के समय विविध भक्तों की संगति होने से महाप्रभु का मन कुछ दूसरी ओर लगा रहता, किन्तु रात में कृष्ण - विरह की पीड़ा तेजी से बढ़ जाती।
 
श्लोक 8:  दो व्यक्ति रामानन्द राय तथा स्वरूप दामोदर गोस्वामी महाप्रभु के साथ रहते, जो उनकी तुष्टि हेतु कृष्णलीला विषयक विविध श्लोक सुनाकर तथा उपयुक्त गीत गाकर उनको शान्त रखते।
 
श्लोक 9:  पूर्वकाल में जब भगवान् कृष्ण स्वयं उपस्थित थे, तब उनका एक ग्वाल मित्र सुबल उन्हें तब सुख देता, जब वे राधारानी का विरह अनुभव करते। उसी तरह रामानन्द राय श्री चैतन्य महाप्रभु को सुख देने में सहायक बनते।
 
श्लोक 10:  पूर्वकाल में जब श्रीमती राधारानी कृष्ण - वियोग की पीड़ा का अनुभव करतीं, तब उनकी नित्य सखी ललिता अनेक प्रकार से सहायता करके उन्हें जीवित रखतीं। उसी तरह जब श्री चैतन्य महाप्रभु को राधारानी के भाव आते, तब स्वरूप दामोदर गोस्वामी उनका जीवन बनाये रखने में उनकी सहायता करते।
 
श्लोक 11:  रामानन्द राय तथा स्वरूप दामोदर गोस्वामी के सौभाग्य का वर्णन कर पाना अत्यन्त कठिन है। वे श्री चैतन्य महाप्रभु के घनिष्ठ विश्वसनीय मित्रों के रूप में विख्यात थे।
 
श्लोक 12:  इस तरह महाप्रभु अपने भक्तों के साथ जीवन का आनन्द लेते थे। हे श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्तों, अब सुनो कि रघुनाथ दास गोस्वामी किस तरह महाप्रभु से मिले।
 
श्लोक 13:  जब गृहस्थ जीवन के समय रघुनाथ दास श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने शान्तिपुर गये, तब महाप्रभु ने अपनी अहैतुकी कृपावश उन्हें योग्य शिक्षाएँ दीं।
 
श्लोक 14:  तथाकथित वैरागी बनने के स्थान पर रघुनाथ दास महाप्रभु के उपदेशों का अनुसरण करते हुए अपने घर लौटे और विषयी - व्यक्ति की तरह कार्य करने लगे।
 
श्लोक 15:  रघुनाथ दास अपने गृहस्थ जीवन से भी भीतर से पूरी तरह विरक्त थे, किन्तु उन्होंने अपने वैराग्य को बाहर प्रकट नहीं किया। उल्टे वे सामान्य व्यापारी की तरह कार्य करते रहे। यह देखकर उनके माता - पिता सन्तुष्ट थे।
 
श्लोक 16:  जब उन्हें यह सन्देश मिला कि श्री चैतन्य महाप्रभु मथुरापुरी से लौट आये हैं, तो रघुनाथ दास ने महाप्रभु के चरणों तक जाने का प्रयास किया।
 
श्लोक 17:  उस समय एक मुसलमान अधिकारी सप्तग्राम से कर वसूलता था।
 
श्लोक 18:  जब रघुनाथ दास के ताऊ हिरण्य दास ने कर वसूलने के लिए सरकार से समझौता किया, तो मुसलमान चौधुरी या कर संग्राहक अपना पद खोने के कारण उससे अत्यधिक ईर्ष्या करने लगा।
 
श्लोक 19:  हिरण्यदास बीस लाख रुपये एकत्र करते थे, अतएव उन्हें सरकार को पन्द्रह लाख रूपये देने चाहिए थे। किन्तु वे केवल बारह लाख रुपये देते थे और इस तरह तीन लाख रुपये अधिक लाभ उठाते थे। यह देखकर मुसलमान चौधुरी जो कि तुर्क था उनका प्रतिद्वन्द्वी बन गया।
 
श्लोक 20:  सरकारी खजाने को गुप्त हिसाब भेजकर चौधुरी कार्यकारी मन्त्री को ले आया। हिरण्यदास को पकड़ने के उद्देश्य से चौधुरी आया, किन्तु वे घर छोड़ चुके थे। अतएव चौधुरी ने रघुनाथ दास को बन्दी बना लिया।
 
श्लोक 21:  प्रतिदिन वह मुसलमान रघुनाथ दास की भर्त्सना करता और उनसे कहता, “अपने पिता तथा उसके बड़े भाई (ताऊ) को ले आओ, अन्यथा तुम्हें दण्ड दिया जायेगा।”
 
श्लोक 22:  चौधुरी उन्हें पीटना चाहता था, किन्तु जब वह रघुनाथ के मुख की ओर देखता, तो उसका मन बदल जाता और वह उन्हें पीट नहीं पाता था।
 
श्लोक 23:  निस्सन्देह, वह चौधुरी रघुनाथ दास से भयभीत था, क्योंकि रघुनाथ दास कायस्थ जाति के थे। यद्यपि चौधुरी उसे मुख से डाँटता - डपटता था, किन्तु उन्हें पीटने से डरता था।
 
श्लोक 24:  जब यह हो रहा था, तो रघुनाथ दास ने इसका समाधान निकालने की एक युक्ति सोची। अतः उन्होंने मुसलमान चौधरी के चरणों पर यह अनुनय किया।
 
श्लोक 25:  “हे महोदय, मेरे पिता तथा उनके बड़े भाई (ताऊ) दोनों ही आपके भाई हुए। सारे भाई किसी न किसी बात के लिए सदैव झगड़ते आये हैं।”
 
श्लोक 26:  “कभी भाई - भाई परस्पर लड़ते हैं, तो कभी मैत्रीपूर्ण व्यवहार करते हैं। इसका कोई निश्चय नहीं कि ऐसे बदलाव कब आ जाए। इस तरह मुझे पूरा विश्वास है कि आज आप लड़ रहे हैं, किन्तु कल आप तीनों भाई शान्ति से एक स्थान पर बैठे होंगे।”
 
श्लोक 27:  जिस तरह मैं अपने पिता का पुत्र हूँ, उसी तरह आपका भी हूँ। मैं आपके आश्रित हैं और आप मेरे पालनकर्ता हैं।
 
श्लोक 28:  “पालनकर्ता के लिए शोभा नहीं देता कि अपने द्वारा पाले जाने वाले व्यक्ति को दण्ड दे। आप सभी शास्त्रों में निपुण हैं। निस्सन्देह, आप एक जीवन्त सन्त के समान हैं।”
 
श्लोक 29:  रघुनाथ दास की याचनापूर्ण वाणी सुनकर उस मुसलमान का हृदय पिघल गया। वह रोने लगा और उसके आँसू उसकी दाढ़ी से लुढ़क पड़े।
 
श्लोक 30:  मुसलमान चौधरी ने रघुनाथ दास से कहा, “आज से तुम मेरे पुत्र हुए। मैं आज तुम्हें किसी न किसी तरह छुड़ाकर रहूँगा।”
 
श्लोक 31:  मन्त्री को सूचित करके चौधुरी ने रघुनाथ दास को छोड़ दिया और तब उनसे अत्यन्त स्नेहपूर्वक कहने लगा।
 
श्लोक 32:  उसने कहा, “तुम्हारे पिता का बड़ा भाई (तुम्हारा ताऊ) कम बुद्धि वाला है। वह आठ लाख रुपयों का भोग करता है, किन्तु क्योंकि मैं उसका भागीदार हूँ, अतएव उसे उसका कुछ हिस्सा मुझे भी देना चाहिए।”
 
श्लोक 33:  “अब तुम जाकर मेरे तथा अपने ताऊ के बीच भेंट कराओ। वह जो भला समझता हो वही करे। मैं पूरी तरह उसके निर्णय पर आश्रित रहूँगा।”
 
श्लोक 34:  रघुनाथ दास ने अपने ताऊ तथा चौधरी की भेंट का प्रबन्ध किया। उन्होंने कलह का समाधान कर दिया और सब शान्त हो गया।
 
श्लोक 35:  इस तरह रघुनाथ दास ने पूरा एक वर्ष अच्छे व्यापारी प्रबन्धक के रूप में बिताया, किन्तु अगले वर्ष उन्होंने पुनः घर छोड़ने का निश्चय किया।
 
श्लोक 36:  एक रात वे अकेले उठे और चल पड़े, किन्तु उनके पिता ने दूर स्थान पर उन्हें पकड़ लिया और वे उन्हें लौटा ले आये।
 
श्लोक 37:  यह प्रायः प्रतिदिन का व्यापार बन गया था। रघुनाथ घर से भाग जाते और उनके पिता उन्हें फिर लौटा ले आते। तब रघुनाथ दास की माता ने उनके पिता (अपने पति) से कहा।
 
श्लोक 38:  माताने कहा, “हमारा पुत्र पागल हो गया है। उसे रस्सी से बाँधकर रखो।” उनके पिता अत्यन्त दुःखी होकर अपनी पत्नी से बोले।
 
श्लोक 39:  हमारे पुत्र रघुनाथ दास के पास स्वर्ग के राजा इन्द्र के जैसा ऐश्वर्य है और उसकी पत्नी अप्सरा जैसी सुन्दर है। फिर भी यह सब उसके मन को बाँध नहीं सका।
 
श्लोक 40:  तो फिर हम इस बालक को रस्सियों से बाँधकर घर पर कैसे रख सकते हैं? किसी के पिता के लिए भी यह सम्भव नहीं है कि किसी के विगत कर्मों के फल को निरस्त कर दे।
 
श्लोक 41:  “श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस पर पूर्ण कृपा की है। चैतन्यचन्द्र के पागल को घर पर कौन रख सकता है?”
 
श्लोक 42:  तब रघुनाथ दास ने अपने मन में कुछ विचार किया और अगले दिन वे नित्यानन्द गोसांई के पास गये।
 
श्लोक 43:  पानिहाटि गाँव में रघुनाथ दास की भेंट नित्यानन्द प्रभु से हुई, जिनके साथ अनेक कीर्तन करने वाले, सेवक तथा अन्य लोग थे।
 
श्लोक 44:  गंगानदी के तट पर एक वृक्ष के नीचे एक शिला पर बैठे हुए नित्यानन्द प्रभु करोड़ों उदय होते सूर्यों के समान तेज युक्त प्रतीत हो रहे थे।
 
श्लोक 45:  उन्हें घेरकर भूमि पर अनेक भक्त बैठे हुए थे। नित्यानन्द प्रभु के प्रभाव को देखकर रघुनाथ दास आश्चर्यचकित हो गये।
 
श्लोक 46:  रघुनाथ दास ने दूर स्थान पर ही दण्ड की तरह गिरकर नमस्कार किया और नित्यानन्द प्रभु के सेवक ने इंगित किया, “रघुनाथ दास आपको नमस्कार कर रहा है।”
 
श्लोक 47:  यह सुनकर नित्यानन्द प्रभु ने कहा, “तुम चोर हो। अब तुम मुझे मिलने आये हो। यहाँ आओ, यहाँ आओ। आज मैं तुम्हें दण्ड दूँगा!”
 
श्लोक 48:  प्रभु ने उन्हें बुलाया, किन्तु रघुनाथ दास उनके निकट नहीं गये। तब प्रभु ने उन्हें बलपूर्वक पकड़ लिया और उनके सिर पर अपना चरणकमल रख दिया।
 
श्लोक 49:  नित्यानन्द प्रभु स्वभाव से अत्यन्त दयालु तथा विनोदी थे। दयालु होने के कारण वे रघुनाथ दास से इस प्रकार बोले।
 
श्लोक 50:  तुम चोर की भाँति हो, क्योंकि पास आने के बदले तुम दूर रहते हो। अब चूँकि मैंने तुम्हें पकड़ लिया है, इसलिए तुम्हें दण्ड दूँगा।
 
श्लोक 51:  “तुम उत्सव मनाओ और मेरे सभी संगियों को दही तथा चिउड़ा खिलाओ।” यह सुनकर रघुनाथ दास अत्यधिक प्रसन्न हुए।
 
श्लोक 52:  रघुनाथ दास ने तुरन्त ही अपने आदमियों को समस्त प्रकार की खाद्य वस्तुएँ खरीदकर लाने के लिए गाँव में भेजा।
 
श्लोक 53:  रघुनाथ दास चिउड़ा, दही, दूध, मिठाइयाँ, चीनी, केले तथा अन्य खाद्य सामग्रियाँ ले आये और उन्हें चारों ओर रख दिया।
 
श्लोक 54:  ज्योंही लोगों ने सुना कि उत्सव होने जा रहा है, त्योंही सभी प्रकार के ब्राह्मण तथा अन्य सज्जन पधारने लगे। इस तरह से असंख्य लोग इकडे हो गये।
 
श्लोक 55:  भीड़ बढ़ती देखकर रघुनाथ दास ने अन्य गाँवों से और खाद्य पदार्थ मँगाने का प्रबन्ध किया। वे दो - चार सौ बड़े गोल मिट्टी के घड़े भी ले आये।
 
श्लोक 56:  उन्होंने पाँच - सात बड़े - बड़े मिट्टी के पात्र भी मंगवाये और एक ब्राह्मण इन पात्रों में नित्यानन्द प्रभु की तुष्टि हेतु चिउड़ा भिगोने लगा।
 
श्लोक 57:  एक स्थान पर इन बड़े पात्रों में गर्म दूध में चिउड़ा भिगोया गया। तब आधा चिउड़ा दही, चीनी तथा केलों के साथ मिलाया गया।
 
श्लोक 58:  आधे भाग को गाढ़े दूध में तथा विशेष प्रकार के केले में, जो चाँपा - कला कहलाता है, मिलाया गया।
 
श्लोक 59:  जब नित्यानन्द प्रभु अपनी वस्त्र बदल चुके और चबूतरे पर बैठ गये, तब वह ब्राह्मण उनके सामने सात बड़े - बड़े पात्र ले आया।
 
श्लोक 60:  इस चबूतरे पर श्री नित्यानन्द प्रभु के सभी सर्वाधिक प्रमुख संगी तथा साथ ही अन्य बड़े लोग उनके चारों ओर एक गोलाकार में बैठ गये।
 
श्लोक 61:  इनमें रामदास, सुन्दरानन्द, गदाधर दास, मुरारि, कमलाकर, सदाशिव तथा पुरन्दर सम्मिलित थे।
 
श्लोक 62:  धनंजय, जगदीश, परमेश्वर दास, महेश, गौरीदास तथा होड़ कृष्णदास भी उसमें थे।
 
श्लोक 63:  इसी तरह उद्धारण दत्त ठाकुर तथा नित्यानन्द प्रभु के अन्य निजी संगी उनके साथ उस चबूतरे के ऊपर बैठे। उन सब की गणना कोई नहीं कर सकता था।
 
श्लोक 64:  उत्सव के विषय में सुनकर सभी प्रकार के विद्वान, ब्राह्मण तथा पुरोहित वहाँ आये। भगवान् नित्यानन्द ने उन सबका सम्मान किया और अपने साथ चबूतरे पर बैठाया।
 
श्लोक 65:  हर एक को दो दो मिट्टी के पात्र दिये गये। एक में चिउड़ा के साथ गाढ़ा दूध रखा था और दूसरे में दही के साथ चिउड़ा था।
 
श्लोक 66:  अन्य सारे लोग चबूतरे के चारों ओर मण्डली बनाकर बैठे। कोई यह नहीं गिन सका कि कुल कितने लोग थे।
 
श्लोक 67:  हर एक को दो दो मिट्टी के पात्र दिये गये - एक में दही में भिगोया चिउड़ा था और दूसरे में गाढ़े दूध में भिगोया चिउड़ा था।
 
श्लोक 68:  कुछ ब्राह्मण जिन्हें चबूतरे पर स्थान नहीं मिल पाया, अपने दो - दो मिट्टी के पात्र लेकर गंगा के किनारे चले गये और वहीं अपना चिउड़ा भिगोया।
 
श्लोक 69:  अन्य लोग जिन्हें गंगा के किनारे भी स्थान नहीं मिल सका, वे जल में प्रवेश कर गये और वहीं दोनों प्रकार का चिउड़ा खाने लगे।
 
श्लोक 70:  इस तरह कुछ तो चबूतरे के ऊपर बैठे, कुछ चबूतरे के नीचे और कुछ गंगा के किनारे बैठे और उन सबको भोजन बाँटने वाले बीस व्यक्तियों द्वारा दो - दो पात्र दिये गये।
 
श्लोक 71:  उसी समय राघव पण्डित वहाँ आ गये। वह स्थिति को देखकर अत्यन्त आश्चर्य से हँसने लगे।
 
श्लोक 72:  वे अपने साथ घी में पकाये हुए अनेक प्रकार के पकवान लाए थे, जिन्हें उन्होंने नित्यानन्द प्रभु को भेंट किया। यह प्रसाद पहले नित्यानन्द प्रभु के समक्ष रखा गया और तब भक्तों में वितरित कर दिया गया।
 
श्लोक 73:  राघव पण्डित ने नित्यानन्द प्रभु से कहा, “हे महोदय, मैं आपके लिए पहले ही भोजन अर्चाविग्रह को अर्पित कर चुका हूँ, किन्तु आप यहाँ उत्सव में लगे हैं, इसलिए भोजन अछूता पड़ा है।”
 
श्लोक 74:  नित्यानन्द प्रभु ने उत्तर दिया, “दिन में मुझे यह सारा भोजन खाने दो और रात में मैं तुम्हारे घर पर भोजन करूँगा।”
 
श्लोक 75:  “मैं ग्वालों की जाति का हूँ, इसलिए सामान्यतया मेरे साथ अनेक ग्वाल संगी रहते हैं। जब हम नदी के रेतीले तट पर इस तरह के वन्य - भोजन में एकसाथ खाते हैं, तो मैं प्रसन्न होता हूँ।”
 
श्लोक 76:  नित्यानन्द प्रभु ने राघव पण्डित को बैठाया और उन्हें भी दो पात्र दिलाए। इनमें दो प्रकार के चिउड़े भिगोये हुए थे।
 
श्लोक 77:  जब हर एक को चिउड़ा परोसा जा चुका, तो नित्यानन्द प्रभु ध्यान में श्री चैतन्य महाप्रभु को ले आये।
 
श्लोक 78:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु आये, तो नित्यानन्द प्रभु उठ खड़े हुए। तब उन्होंने देखा कि किस तरह अन्य लोग दही तथा घनीभूत दूध के साथ चिउड़ा का आनन्द ले रहे हैं।
 
श्लोक 79:  श्री नित्यानन्द प्रभु ने प्रत्येक पात्र से चिउड़े का एक ग्रास लिया और उसे परिहास वश श्री चैतन्य महाप्रभु के मुँह में ठूँस दिया।
 
श्लोक 80:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी हँसते - हँसते भोजन का एक कौर लिया, उसे नित्यानन्द प्रभु के मुँह में डाल दिया और नित्यानन्द को खिलाते समय हँसने लगे।
 
श्लोक 81:  इस तरह नित्यानन्द प्रभु भोजन करने वालों की सभी मंडलियों में से होकर घूम रहे थे और वहाँ पर खड़े सारे वैष्णव यह कौतुक देख रहे थे।
 
श्लोक 82:  जब नित्यानन्द प्रभु घूम रहे थे, तब वे क्या कर रहे थे यह कोई नहीं समझ सका। किन्तु कुछ लोग जो बड़े भाग्यशाली थे, यह देख सके कि श्री चैतन्य महाप्रभु भी वहाँ उपस्थित थे।
 
श्लोक 83:  तब नित्यानन्द प्रभु हँसे और बैठ गये। उन्होंने अपने दाहिनी ओर चार पात्र रखे जिनका चिउड़ा उबले चावल से नहीं बनाया गया था।
 
श्लोक 84:  नित्यानन्द प्रभु ने श्री चैतन्य महाप्रभु को स्थान दिया और उन्हें बैठाया। तब दोनों भाई एकसाथ चिउड़ा खाने लगे।
 
श्लोक 85:  अपने साथ चैतन्य महाप्रभु को खाते देखकर नित्यानन्द प्रभु अत्यधिक प्रसन्न हुए और उन्होंने नाना प्रकार के भावावेश प्रदर्शित किये।
 
श्लोक 86:  श्री नित्यानन्द प्रभु ने आज्ञा दी, “सभी लोग हरिनाम का कीर्तन करते हुए भोजन करें।” “हरि, हरि’ की ध्वनि की गूंज से तुरन्त ही सारा ब्रह्माण्ड भर गया।
 
श्लोक 87:  जब सारे वैष्णव “हरि, हरि” बोलकर भोजन कर रहे थे, तो उन्हें स्मरण हो आया कि किस तरह कृष्ण तथा बलराम अपने ग्वालबाल साथियों के साथ यमुना के तट पर भोजन करते थे।
 
श्लोक 88:  श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु अत्यन्त दयालु तथा उदार हैं। यह तो रघुनाथदास का सौभाग्य था कि उन्होंने ये सब व्यवहार स्वीकार कर लिए।
 
श्लोक 89:  नित्यानन्द प्रभु के प्रभाव तथा कृपा को कौन समझ सकता है? वे इतने शक्तिशाली हैं कि उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु को गंगा तट पर चिउड़ा खाने आने के लिए प्रेरित किया।
 
श्लोक 90:  श्री रामदास इत्यादि जितने ग्वालबाल अन्तरंग भक्त थे, वे प्रेमावेश में डूब गये। वे गंगा के तट को यमुना का तट समझ बैठे।
 
श्लोक 91:  जब अनेक अन्य गाँव के दुकानदारों ने महोत्सव के बारे में सुना, तो वे चिउड़ा, दही, सन्देश, मिठाई तथा केला बेचने के लिए वहाँ आ गये।
 
श्लोक 92:  जैसे ही वे सभी प्रकार की भोज्य सामग्री लेकर आये, रघुनाथदास ने सारी की सारी खरीद ली। उन्होंने उन्हें उनके सामान का मूल्य चुकता किया और बाद में वही भोजन उन्हें खिला दिया।
 
श्लोक 93:  जो भी यह देखने के लिए आया कि ये कैसे कुतूहलवर्धक कार्य हो रहे हैं, उन्हें भी चिउड़ा, दही तथा केला खिलाया गया।
 
श्लोक 94:  नित्यानन्द प्रभु ने भोजन करने के बाद हाथ तथा मुख धोये और रघुनाथ दास को चार पात्रों में बचा हुआ भोजन दिया।
 
श्लोक 95:  भगवान् नित्यानन्द के तीन अन्य बड़े पात्रों में भोजन बचा रहा, जिसे एक ब्राह्मण ने सारे भक्तों को एक - एक ग्रास देकर बाँट दिया।
 
श्लोक 96:  तब एक ब्राह्मण एक फूल की माला ले आया, उसने उसे नित्यानन्द प्रभु के गले में डाल दी और उनके सारे शरीर में चन्दन का लेप किया।
 
श्लोक 97:  जब नौकर पान ले आया और नित्यानन्द प्रभु को भेंट किया, तो प्रभु हँसने लगे और पान चबाने लगे।
 
श्लोक 98:  नित्यानन्द प्रभु ने अपने हाथों से सारे भक्तों में बची हुई फूलमालाएँ, चन्दन लेप तथा पान बाँट दिये।
 
श्लोक 99:  नित्यानन्द प्रभु के बचे भोजन का शेष पाकर अत्यन्त प्रसन्न रघुनाथ दास ने कुछ तो खाया और शेष अपने निजी संगियों में बाँट दिया।
 
श्लोक 100:  इस तरह मैंने चिड़ा - दही महोत्सव के सम्बन्ध में नित्यानन्द प्रभु की लीलाओं का वर्णन किया है।
 
श्लोक 101:  नित्यानन्द प्रभु ने दिन में आराम किया और जब दिन का अन्त हो गया, तो वे राघव पण्डित के मन्दिर गये और वहाँ भगवान् के पवित्र नाम का संकीर्तन करना प्रारम्भ कर दिया।
 
श्लोक 102:  सर्वप्रथम नित्यानन्द प्रभु ने सारे भक्तों को नाचने के लिए प्रेरित किया और अन्त में वे स्वयं भी नाचने लगे। इस तरह उन्होंने सारे जगत् को प्रेमावेश से आप्लावित कर दिया।
 
श्लोक 103:  श्री चैतन्य महाप्रभु श्री नित्यानन्द प्रभु का नृत्य देख रहे थे। नित्यानन्द प्रभु तो इसे देख सके, किन्तु अन्य लोग नहीं देख पाये।
 
श्लोक 104:  श्री चैतन्य महाप्रभु के नृत्य की तरह नित्यानन्द प्रभु के नृत्य की तुलना इन तीनों जगतों से किसी भी वस्तु से नहीं की जा सकती।
 
श्लोक 105:  नित्यानन्द प्रभु के नृत्य की मधुरता का वर्णन उचित प्रकार से कोई नहीं कर सकता। श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं चलकर इसे देखने आते हैं।
 
श्लोक 106:  नृत्य के बाद जब नित्यानन्द प्रभु विश्राम कर चुके, तो राघव पण्डित ने उनसे निवेदन किया कि वे रात्रि का भोजन कर लें।
 
श्लोक 107:  नित्यानन्द प्रभु अपने निजी संगियों के साथ भोजन करने बैठ गये और श्री चैतन्य महाप्रभु के लिए अपने दाहिनी ओर आसन बना दिया।
 
श्लोक 108:  श्री चैतन्य महाप्रभु वहाँ पर आये और अपने आसन पर बैठ गये। यह देखकर राघव पण्डित को अत्यधिक आनन्द हुआ।
 
श्लोक 109:  राघव पण्डित दोनों भाइयों के समक्ष प्रसाद ले आये और उसके बाद अन्य सभी वैष्णवों को प्रसाद वितरित किया।
 
श्लोक 110:  उसमें तरह - तरह की मिठाईयाँ, खीर तथा उत्तम पकाए चावल थे, जो अमृत के भी स्वाद को मात करने वाले थे। कई प्रकार की सब्जियाँ भी थीं।
 
श्लोक 111:  राघव पण्डित द्वारा तैयार किया गया तथा अर्चाविग्रह को भेंट किया गया भोजन अमृत के सार के तुल्य था। श्री चैतन्य महाप्रभु ऐसा प्रसाद खाने के लिए वहाँ बारम्बार आये।
 
श्लोक 112:  जब राघव पण्डित भोजन पकाने के बाद उसे अर्चाविग्रह को अर्पित करते, तब वे श्री चैतन्य महाप्रभु के लिए अलग भोग लगाते।
 
श्लोक 113:  श्री चैतन्य महाप्रभु प्रतिदिन राघव पण्डित के घर भोजन करते। कभी - कभी वे राघव पण्डित को अपना दर्शन पाने का अवसर प्रदान करते।
 
श्लोक 114:  राघव पण्डित प्रसाद लाकर दोनों भाइयों को देते और बड़ी ही सावधानी से उन्हें खिलाते। वे सारा प्रसाद खा जाते, जिससे कोई शेष नहीं बचता था।
 
श्लोक 115:  वे इतने सारे प्रसाद ले आते कि लोग उन्हें ठीक से जान नहीं पाते थे। निस्सन्देह, यह सच था कि परम माता राधारानी स्वयं आकर राघव पण्डित के घर भोजन पकातीं।
 
श्लोक 116:  श्रीमती राधारानी को दुर्वासा मुनि से यह वर मिला था कि वे जो कुछ भी पकायेंगी, वह अमृत से भी अधिक मधुर होगा। उनकी पाक - विद्या का यह विशेष गुण है।
 
श्लोक 117:  यह भोजन सुगन्धित एवं देखने में सुहावना होता और समस्त मधुरता का सार होता। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु दोनों भाई परम सन्तोष के साथ भोजन करते।
 
श्लोक 118:  वहाँ पर उपस्थित सारे भक्तों ने रघुनाथ दास से प्रार्थना की कि वे बैठकर प्रसाद ग्रहण करें, किन्तु राघव पण्डित ने उन्हें बताया कि, “वे बाद में प्रसाद ग्रहण करेंगे।”
 
श्लोक 119:  सारे भक्तों ने इतना प्रसाद खाया कि उनके गले तक भोजन भर गया। तत्पश्चात् हरि के पवित्र नाम का उच्चारण करते हुए सभी उठ खड़े हुए और सबने अपने - अपने हाथ - मुँह धोये।
 
श्लोक 120:  भोजन के बाद दोनों भाइयों ने हाथ - मुँह धोये। तब राघव पण्डित फूल की मालाएँ तथा चन्दन लेप ले आये और उन्हें सुसज्जित किया।
 
श्लोक 121:  राघव पण्डित ने उन्हें पान का बीड़ा खिलाया और उनके चरणकमलों की वन्दना की। उन्होंने भक्तों को भी पान, फूल - मालाएँ तथा चन्दन लेप दिया।
 
श्लोक 122:  रघुनाथ दास के ऊपर विशेष कृपालु होने के कारण राघव पण्डित ने उन्हें दोनों भाइयों द्वारा छोड़े गये उच्छिष्ट की थालियाँ दीं।
 
श्लोक 123:  उन्होंने कहा, “श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह भोजन किया है। यदि तुम उनके शेष को ग्रहण करोगे, तो तुम अपने परिवार के बन्धन से छूट जाओगे।”
 
श्लोक 124:  पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सदैव या तो भक्त के हृदय में या उसके घर में निवास करते हैं। यह बात कभी छिपी रहती है और कभी प्रकट होती है, क्योंकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हैं।
 
श्लोक 125:  पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सर्वव्यापी हैं, अतएव वे सर्वत्र निवास करते हैं। जो इसमें सन्देह करता है, उसका विनाश हो जाता है।
 
श्लोक 126:  प्रातः काल गंगा स्नान करने के बाद नित्यानन्द प्रभु अपने संगियों के साथ उसी वृक्ष के नीचे बैठ गये, जहाँ वे पहले बैठ चुके थे।
 
श्लोक 127:  रघुनाथ दास ने वहाँ जाकर नित्यानन्द प्रभु के चरणकमलों की पूजा की। उन्होंने राघव पण्डित के द्वारा अपनी इच्छा निवेदित की।
 
श्लोक 128:  “मैं मनुष्यों में अधम, अत्यन्त पापी, पतित तथा तिरस्कृत हूँ। तो भी मैं श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की शरण पाने का इच्छुक हूँ।”
 
श्लोक 129:  चाँद पकड़ने के इच्छुक किसी बौने की तरह मैंने अनेक बार भरसक प्रयत्न किये, किन्तु कभी सफल नहीं हुआ।
 
श्लोक 130:  जितनी बार मैंने भाग जाना और अपने घरेलू सम्बन्ध तोड़ देना चाहा, उतनी बार मेरे पिता तथा माता ने दुर्भाग्यवश मुझे बाँधकर रखा।
 
श्लोक 131:  “आपकी कृपा के बिना कोई भी श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु यदि आप कृपालु हों, तो अधम से अधम व्यक्ति भी उनके चरणकमलों की शरण पा सकता है।”
 
श्लोक 132:  “यद्यपि मैं अयोग्य हूँ और यह याचना करते हुए अत्यधिक भयभीत हूँ, तो भी मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मुझे श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में शरण प्रदान करके मेरे प्रति विशेष कृपालु हों।”
 
श्लोक 133:  “आप मेरे सिर पर अपने चरण रखकर मुझे यह आशीर्वाद दें कि मैं बिना कठिनाई के श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण प्राप्त कर सकें। मैं आपसे इसी आशीर्वाद के लिए प्रार्थना करता हूँ।”
 
श्लोक 134:  रघुनाथ दास की यह याचना सुनकर नित्यानन्द प्रभु हँसे और सारे भक्तों से बोले, “रघुनाथ दास के भौतिक सुख का स्तर स्वर्ग के राजा इन्द्र के सुख के तुल्य है।
 
श्लोक 135:  “श्री चैतन्य महाप्रभु की रघुनाथ दास पर कृपा होने से, इतना भौतिक सुख प्राप्त होने पर भी उसे यह अच्छा नहीं लगता। इसलिए तुम सारे लोग उस पर कृपालु होकर उसे आशीर्वाद दो कि वह शीघ्र ही श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की शरण प्राप्त करे।”
 
श्लोक 136:  “जो व्यक्ति कृष्ण के चरणकमलों की सुगन्ध का अनुभव करता है, वह सर्वोच्च लोक ब्रह्मलोक में प्राप्त सुख को भी कोई महत्त्व प्रदान नहीं करता। तो फिर स्वर्गिक सुख की क्या बात है?
 
श्लोक 137:  “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण की कृपा प्राप्त करने के इच्छुक लोगों द्वारा उनकी उत्तम स्तुतियाँ की जाती हैं। इसलिये वे उत्तमश्लोक कहलाते हैं। भगवान् कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए अत्यन्त उत्सुक होने के कारण राजा भरत ने युवावस्था में ही अपनी अत्यन्त आकर्षक पत्नी, स्नेहिल बच्चों, प्रिय मित्रों तथा ऐश्वर्ययुक्त साम्राज्य का उसी तरह परित्याग कर दिया, जिस तरह मल को त्याग दिया जाता है।”
 
श्लोक 138:  तब नित्यानन्द प्रभु ने रघुनाथ दास को अपने पास बुलाया, उनके सिर पर अपने चरण रखे और उनसे बोले।
 
श्लोक 139:  “हे रघुनाथ दास, चूँकि तुमने गंगा नदी के तट पर इस भोजन की व्यवस्था की है, इसलिए श्री चैतन्य महाप्रभु तुम पर मात्र अपनी कृपा दिखाने के लिए यहाँ आये।”
 
श्लोक 140:  “अपनी अहैतुकी कृपा से उन्होंने चिउड़ा तथा दूध खाया। तत्पश्चात् रात में भक्तों का नृत्य देखने के बाद उन्होंने भोजन किया।”
 
श्लोक 141:  “श्री चैतन्य महाप्रभु गौरहरि तुम्हारा उद्धार करने के लिए स्वयं यहाँ आये। अब समझ लो कि तुम्हारे बन्धन के सारे अवरोध दूर हो गये।”
 
श्लोक 142:  “श्री चैतन्य महाप्रभु तुम्हें स्वीकार कर लेंगे और अपने सचिव स्वरूप दामोदर के अधीन तुम्हें रख देंगे।
 
श्लोक 143:  “इस तरह आश्वस्त होकर तुम अपने घर लौट जाओ। तुम शीघ्र ही, बिना किसी अवरोध के श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण प्राप्त करोगे।”
 
श्लोक 144:  श्री नित्यानन्द प्रभु ने समस्त भक्तों से रघुनाथ दास को आशीर्वाद दिलवाया और रघुनाथ दास ने उन सबके चरणकमलों की सादर वन्दना की।
 
श्लोक 145:  नित्यानन्द प्रभु से तथा उसके बाद अन्य सारे वैष्णवों से आज्ञा लेकर रघुनाथ दास ने राघव पण्डित से गुप्त मन्त्रणा की।
 
श्लोक 146:  राघव पण्डित से परामर्श लेकर उन्होंने चुपके से नित्यानन्द प्रभु के खजांची के हाथ में एक सौ स्वर्णमुद्राएँ तथा लगभग सात तोला सोना दे दिया।
 
श्लोक 147:  रघुनाथ दास ने खजांची को मना कर दिया कि इसके विषय में अभी नित्यानन्द प्रभु से मत कहना, किन्तु जब वे अपने घर चले जाएँ, तब इस भेंट के बारे में उन्हें बता देना।
 
श्लोक 148:  तत्पश्चात् राघव पण्डित रघुनाथ दास को अपने घर ले गये। उन्हें अर्चाविग्रह का दर्शन कराने के बाद उन्होंने रघुनाथ दास को एक माला तथा कुछ चन्दन लेप दिया।
 
श्लोक 149:  उन्होंने रघुनाथ दास को रास्ते में खाने के लिए बहुत सारा प्रसाद दिया। तब रघुनाथ दास ने पुनः राघव पण्डित से कहा।
 
श्लोक 150:  “मैं नित्यानन्द प्रभु के समस्त महान् भक्तों, सेवकों तथा आश्रित जनों की पूजा के रूप में उनको कुछ धन देना चाहता हूँ।”
 
श्लोक 151:  “आप जिसे जिस योग्य समझो, उनमें से हर एक को बीस, पन्द्रह, बारह, दस या पाँच मुद्राएँ दे दो।”
 
श्लोक 152:  रघुनाथ दास ने दी जाने वाली राशि का विवरण प्रस्तुत किया और उसे राघव पण्डित को दे दिया, जिसने एक सूची बनाई कि प्रत्येक भक्त को कितनी कितनी राशि दी जानी है।
 
श्लोक 153:  रघुनाथ दास ने अत्यन्त विनयपूर्वक राघव पण्डित के समक्ष अन्य सारे भक्तों को देने के लिए एक सौ स्वर्ण मुद्राएँ तथा लगभग दो तोला सोना रख दिया।
 
श्लोक 154:  राघव पण्डित के चरणों की धूल लेने के बाद रघुनाथ दास अपने घर लौट आये और नित्यानन्द प्रभु के प्रति अतीव कृतज्ञता प्रकट की कि उन्होंने अपना कृपापूर्ण आशीर्वाद प्रदान किया है।
 
श्लोक 155:  उसी दिन से वे घर के भीतरी भाग में नहीं गये। उल्टे वे दुर्गामण्डप में सोने लगे।
 
श्लोक 156:  किन्तु रखवाले उनकी पूरी चौकसी रखते थे। रघुनाथ दास अनेक उपाय सोचते जिससे वे उनकी निगरानी से भाग निकलें।
 
श्लोक 157:  उसी समय बंगाल के सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने जगन्नाथ पुरी जा रहे थे।
 
श्लोक 158:  रघुनाथ दास उनके साथ नहीं जा सकते थे, क्योंकि वे इतने प्रसिद्ध थे कि यदि वह उनके साथ जाते तो पकड़ लिए जाते।
 
श्लोक 159-160:  इस प्रकार रघुनाथ दास ने गम्भीरतापूर्वक विचार किया कि किस तरह भाग निकला जाए और एक रात जब वह दुर्गामण्डप में सो रहे थे, तो पुरोहित यदुनन्दन आचार्य घर के भीतर गये। तब केवल चार दण्ड रात्रि शेष थी।
 
श्लोक 161:  यदुनन्दन आचार्य रघुनाथ दास के पुरोहित और गुरु थे। यद्यपि वे ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न थे, किन्तु उन्होंने वासुदेव दत्त की कृपा स्वीकार की थी।
 
श्लोक 162:  यदुनन्दन आचार्य ने प्रामाणिक रूप से अद्वैत आचार्य से दीक्षा ली थी। इस तरह वे श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने जीवन और प्राण मानते थे।
 
श्लोक 163:  जब यदुनन्दन आचार्य रघुनाथदास के घर में जाकर आँगन में खड़े हुए, तो रघुनाथ दास वहाँ गये और उन्होंने उनके चरणों में गिरकर नमस्कार किया।
 
श्लोक 164:  यदुनन्दन आचार्य का एक शिष्य अर्चाविग्रह की पूजा करता आ रहा था, किन्तु उसने वह सेवा छोड़ दी थी। यदुनन्दन आचार्य चाहते थे कि रघुनाथ दास उसे वही सेवा पुनः करने के लिए प्रेरित करें।
 
श्लोक 165:  यदुनन्दन आचार्य ने रघुनाथ दास से अनुरोध किया, “तुम उस ब्राह्मण को फिर से सेवा करने के लिए प्रेरित करके लाओ, क्योंकि सेवा करने के लिए अन्य कोई ब्राह्मण नहीं है।”
 
श्लोक 166:  यह कहकर यदुनन्दन आचार्य ने रघुनाथ दास को अपने साथ ले लिया और दोनों बाहर चले गये। उस समय तक सारे पहरेदार गहरी नींद में सोये हुए थे, क्योंकि रात का अन्तिम प्रहर था।
 
श्लोक 167:  रघुनाथ दास के घर से पूर्व की ओर यदुनन्दन आचार्य का घर था। वे दोनों घर की ओर जाते हुए एक दूसरे से बातें करते गये।
 
श्लोक 168:  आधी दूर जाकर रघुनाथ दास ने अपने गुरु के चरणों में निवेदन किया, “मैं उस ब्राह्मण के घर जाऊँगा, उसे लौट आने के लिए प्रेरित करूँगा तथा उसे आपके घर भेज दूँगा।
 
श्लोक 169:  “आप निश्चिन्त होकर घर जा सकते हैं। आपकी आज्ञानुसार मैं उस ब्राह्मण को मना लाऊँगा।” इस निवेदन के साथ उनकी अनुमति लेकर रघुनाथ दास ने चले जाने का निश्चय किया।
 
श्लोक 170:  रघुनाथ दास ने सोचा, “भाग जाने का यह सबसे अच्छा अवसर है, क्योंकि इस समय मेरे साथ न तो कोई नौकर है, न ही पहरेदार।”
 
श्लोक 171:  इस तरह सोचते हुए वे पूर्व की दिशा में तेजी से बढ़ते गये। कभी - कभी वे घूमकर पीछे देख लेते, किन्तु कोई उनका पीछा नहीं कर रहा था।
 
श्लोक 172:  श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु के चरणकमलों का ध्यान करते हुए उन्होंने आम रास्ता छोड़ दिया और गौण रास्ते से होकर, जो सामान्यतः उपयोग में नहीं लिया जाता था, शीघ्रता से आगे बढ़ने लगे।
 
श्लोक 173:  वे एक गाँव से दूसरे गाँव के आम रास्ते को छोड़ते हुए अपने प्राणों तथा मन से श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों का ध्यान करते हुए जंगलों से होते हुए आगे चलते गये।
 
श्लोक 174:  एक दिन में लगभग तीस मील चले और शाम को उन्होंने एक ग्वाले की गोशाला में विश्राम किया।
 
श्लोक 175:  जब उस ग्वाले ने देखा कि रघुनाथ दास उपवास कर रहे हैं, तो उसने उन्हें कुछ दूध दिया। रघुनाथ दास ने वह दूध पिया और रात भर विश्राम करने के लिए वहाँ लेट गये।
 
श्लोक 176:  रघुनाथ दास के घर में जब नौकर तथा पहरेदार ने उन्हें नहीं देखा, तो तुरन्त ही वे उनके गुरु यदुनन्दन आचार्य के पास उन के विषय में पूछने गये।
 
श्लोक 177:  यदुनन्दन आचार्य ने कहा, “वह मुझसे आज्ञा माँगकर घर लौट गया।” इस तरह वहाँ कोलाहल उठने लगा, क्योंकि हर व्यक्ति चिल्ला रहा था कि, “अब रघुनाथ भाग गया है।”
 
श्लोक 178:  रघुनाथ दास के पिता ने कहा, “अब बंगाल के सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने जगन्नाथपुरी गये हैं।”
 
श्लोक 179:  “रघुनाथ दास उन्हीं के साथ भाग गया है। दस व्यक्ति तुरन्त उसे पकड़ने के लिए जायें और उसे लौटा ले आयें।”
 
श्लोक 180:  रघुनाथ दास के पिता ने शिवानन्द सेन के नाम एक चिट्ठी लिखी और उनसे अत्यन्त विनयपूर्वक अनुरोध किया, “कृपया मेरे पुत्र को लौटाकर भेज दें।”
 
श्लोक 181:  झाँकरा में दसों व्यक्ति वैष्णवों की एक टोली के साथ हो गये, जो नीलाचल जा रही थी।
 
श्लोक 182:  उन लोगों ने वह चिट्ठी देकर शिवानन्द सेन से रघुनाथ दास के विषय में पूछा, किन्तु शिवानन्द सेन ने उत्तर दिया कि, “वह यहाँ नहीं आया।”
 
श्लोक 183:  दसों लोग घर लौट आये। रघुनाथ दास के माता - पिता अत्यधिक चिन्तित हो उठे।
 
श्लोक 184:  रघुनाथ दास, जो ग्वाले के घर में विश्राम कर रहे थे, प्रात: काल जल्दी जगे और पूर्व दिशा में जाने के स्थान पर उन्होंने अपना मुँह दक्षिण की ओर मोड़ा और आगे बढ़ने लगे।
 
श्लोक 185:  छत्रभोग पार करने के बाद वे आम रास्ते से न जाकर ऐसे रास्ते से गये, जो एक गाँव से दूसरे गाँव होकर जाता था।
 
श्लोक 186:  भोजन की परवाह न करके वे सारा दिन चलते रहते। भूख बाधक न थी, क्योंकि उनका मन श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की शरण पाने पर केन्द्रित था।
 
श्लोक 187:  कभी वे चबैना चबाते, कभी वे भोजन पकाते और कभी दूध पी लेते। इस तरह जहाँ वे जाते, उन्हें जो कुछ भी मिल जाता उसी से प्राणों की रक्षा करते।
 
श्लोक 188:  वे बारह दिनों में जगन्नाथपुरी पहुँचे, किन्तु रास्ते में उन्होंने तीन दिन ही भोजन किया।
 
श्लोक 189:  जब रघुनाथ दास श्री चैतन्य महाप्रभु से मिले, तब महाप्रभु स्वरूप दामोदर इत्यादि अपने संगियों के साथ बैठे हुए थे।
 
श्लोक 190:  आँगन में कुछ दूर रुककर उन्होंने दण्डवत् प्रणाम किया। तब मुकुन्द दत्त ने कहा, “यह रघुनाथ आ गया।”
 
श्लोक 191:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने ये शब्द सुनते ही तुरन्त रघुनाथ दास का स्वागत किया। उन्होंने कहा, “यहाँ आओ।” तब रघुनाथ दास ने उनके चरणकमल पकड़ लिए, किन्तु महाप्रभु खड़े हो गये और अपनी अहैतुकी कृपा से उनका आलिंगन कर लिया।
 
श्लोक 192:  रघुनाथ दास ने स्वरूप दामोदर गोस्वामी इत्यादि सारे भक्तों के चरणकमलों की वन्दना की। उन्होंने भी, यह देखकर कि रघुनाथ दास पर महाप्रभु ने विशेष कृपा की है, उनका आलिंगन किया।
 
श्लोक 193:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “भगवान् कृष्ण की कृपा सबसे प्रबल होती है। इसलिए भगवान् ने तुम्हें भौतिकतावादी जीवन की खाई से उबार लिया है, जो उस छेद के समान है, जिसमें लोग मल त्याग करते हैं।”
 
श्लोक 194:  रघुनाथ दास ने अपने मन में उत्तर दिया, “मैं नहीं जानता कि कृष्ण कौन हैं। हे प्रभु, मैं तो केवल इतना जानता हूँ कि आपकी कृपा ने मुझे पारिवारिक जीवन से बचा लिया है।”
 
श्लोक 195:  महाप्रभु ने आगे कहा, “तुम्हारे पिता तथा ताऊ दोनों ही मेरे नाना (मातामह) नीलाम्बर चक्रवर्ती के भाई जैसे हैं। अतएव मैं उन्हें अपना नाना (आजा) मानता हूँ।”
 
श्लोक 196:  “चूँकि तुम्हारे पिता तथा ताऊ नीलाम्बर चक्रवर्ती के छोटे भाई हैं, अतएव मैं इस तरह से परिहास कर सकता हूँ।”
 
श्लोक 197:  “हे रघुनाथ दास, तुम्हारे पिता तथा ताऊ भौतिक भोग रूपी नाली के मल - कीटों के तुल्य हैं, क्योंकि जिसे वे सुख मानते हैं, वह भौतिक भोग के विष का महान् रोग है।”
 
श्लोक 198:  “यद्यपि तुम्हारे पिता तथा ताऊ ब्राह्मणों को दान देते हैं और उनकी बहुत सहायता करते हैं, किन्तु तो भी वे शुद्ध वैष्णव नहीं हैं। हाँ, वे प्रायः वैष्णवों जैसे हैं।”
 
श्लोक 199:  “जो लोग भौतिकतावादी जीवन के प्रति आसक्त होते हैं और आध्यात्मिक जीवन के प्रति अन्धे बने रहते हैं, वे इस तरह कर्म करते हैं कि अपने कर्मों की क्रिया - प्रतिक्रिया के फलस्वरूप जन्म - मृत्यु के चक्र में बँध जाते हैं।”
 
श्लोक 200:  “भगवान् कृष्ण ने तुम्हें स्वेच्छा से ऐसे गर्हित भौतिकतावादी जीवन से उबार लिया है। इसलिए भगवान् कृष्ण की अहैतुकी कृपा को व्यक्त नहीं किया जा सकता।”
 
श्लोक 201:  रघुनाथ दास को दुर्बल तथा मैला कुचैला देखकर, क्योंकि उन्होंने बारह दिनों तक यात्रा की थी और उपवास रखा था, श्री चैतन्य महाप्रभु का हृदय अहैतुकी कृपा से द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वरूप दामोदर से कहा।
 
श्लोक 202:  उन्होंने कहा, “हे प्रिय स्वरूप, मैं इस रघुनाथ दास को तुम्हें सौंपता हूँ। तुम इसे कृपया अपने पुत्र अथवा दास के रूप में स्वीकार करो।”
 
श्लोक 203:  “अब मेरे संगियों में तीन रघुनाथ हैं। आज से यह रघुनाथ, स्वरूपेर रघु (स्वरूप दामोदर का रघु) कहलाएगा।”
 
श्लोक 204:  यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ दास का हाथ पकड़ लिया और उसे स्वरूप दामोदर गोस्वामी के हाथों में सौंप दिया।
 
श्लोक 205:  स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने यह कहते हुए रघुनाथ दास को स्वीकार किया कि, “हे प्रभु, आपकी जो भी आज्ञा हो वह स्वीकार्य है।” तब उन्होंने रघुनाथ दास का फिर से आलिंगन किया।
 
श्लोक 206:  मैं श्री चैतन्य महाप्रभु के अपने भक्तों के प्रति वात्सल्य को ठीक से व्यक्त नहीं कर सकता। रघुनाथ दास के ऊपर दयालु होकर महाप्रभु ने गोविन्द से इस प्रकार कहा।
 
श्लोक 207:  “रघुनाथ दास ने रास्ते में कई दिनों तक उपवास किया है और अनेक कष्ट उठाये हैं। इसलिए कुछ दिनों तक इसकी ठीक से देखभाल करो, जिससे वह जी भरकर खा सके।”
 
श्लोक 208:  तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ दास से कहा, “जाकर समुद्र में स्नान करो। उसके बाद मन्दिर में भगवान जगन्नाथ का दर्शन करो और फिर यहाँ आकर भोजन करो।”
 
श्लोक 209:  यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु उठे और अपना दोपहर का कृत्य करने चले गये। रघुनाथ वहाँ पर उपस्थित सारे भक्तों से मिले।
 
श्लोक 210:  रघुनाथ दास पर श्री चैतन्य महाप्रभु की अहैतुकी कृपा देखकर सारे भक्त आश्चर्यचकित रह गये और उन्होंने उनके सौभाग्य की प्रशंसा की।
 
श्लोक 211:  रघुनाथ दास ने समुद्र में स्नान किया और जगन्नाथजी के दर्शन किये। तब वे श्री चैतन्य महाप्रभु के निजी सेवक गोविन्द के पास लौट आये।
 
श्लोक 212:  गोविन्द ने रघुनाथ को श्री चैतन्य महाप्रभु की पत्तल में बचा शेष खाने को दिया, जिन्होंने उस प्रसाद को परम सुखपूर्वक ग्रहण किया।
 
श्लोक 213:  रघुनाथ दास स्वरूप दामोदर गोस्वामी की देखभाल में रहे और गोविन्द पाँच दिनों तक उन्हें श्री चैतन्य महाप्रभु का शेष देता रहा।
 
श्लोक 214:  छठे दिन से रघुनाथ दास सिंह द्वार पर खड़े होकर पुष्प - अंजलि उत्सव के बाद, जिसमें भगवान् को फूल अर्पित किये जाते हैं, भिक्षा मांगना शुरू किया।
 
श्लोक 215:  जगन्नाथ जी के अनेक सेवक, जो विषयी कहलाते हैं, अपना नियत कार्य पूरा होने के बाद रात में अपने घर लौटते हैं।
 
श्लोक 216:  यदि वे किसी वैष्णव को सिंह द्वार पर खड़े होकर भिक्षा माँगते देखते हैं, तो कृपा करके उसे कुछ खाने के लिए दुकानदार से दिलाने की व्यवस्था करा देते हैं।
 
श्लोक 217:  इस तरह यह सदा से रीति है कि जिस भक्त के पास कोई दूसरा सहारा नहीं होता, वह सेवकों से भिक्षा पाने के लिए सिंहद्वार पर खड़ा रहता है।
 
श्लोक 218:  इस तरह एक पूर्णरूपेण आश्रित वैष्णव सारा दिन भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करता है और पूर्ण स्वतन्त्र होकर जगन्नाथजी के दर्शन करता है।
 
श्लोक 219:  यह प्रथा है कि कुछ वैष्णव दानशालाओं (छत्रों, लंगरों) से भिक्षा माँगकर जो भी मिलता है खाते हैं, जबकि अन्य लोग सिंहद्वार पर रात्रि के समय खड़े होकर सेवकों से भिक्षा माँगते हैं।
 
श्लोक 220:  वैराग्य ही मूलभूत सिद्धान्त है, जो श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्तों का जीवनाधार है। यह वैराग्य देखकर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री चैतन्य अत्यधिक तुष्ट होते हैं।
 
श्लोक 221:  गोविन्द ने श्री चैतन्य महाप्रभु से कहा, “अब रघुनाथ यहाँ से प्रसाद नहीं लेता। अब वह सिंहद्वार पर खड़ा रहता है, जहाँ खाने के लिए वह भिक्षा माँग लेता है।”
 
श्लोक 222:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह सुना, तो वे अत्यधिक तुष्ट हुए। उन्होंने कहा, “रघुनाथ दास ने बहुत अच्छा किया है। उसने वैरागी के लिए उपयुक्त कर्म किया है।
 
श्लोक 223:  “वैरागी को सदैव भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करना चाहिए। उसे भिक्षा माँगकर खाना चाहिए और इस तरह अपना जीवन - निर्वाह करना चाहिए।”
 
श्लोक 224:  “वैरागी (संन्यासी) को अन्यों पर आश्रित नहीं रहना चाहिए। यदि वह ऐसा करता है, तो वह असफल होगा और कृष्ण द्वारा उपेक्षित होगा।”
 
श्लोक 225:  “यदि वैरागी अपनी जीभ के लिए विभिन्न प्रकार का भोजन चखने के लिए उत्सुक रहता है, तो उसका आध्यात्मिक जीवन समाप्त हो जायेगा और वह अपनी जीभ के स्वाद का गुलाम बन जायेगा।”
 
श्लोक 226:  “वैरागी का कर्तव्य है कि वह सदैव हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करे। उसे शाक, पत्ती, फल तथा कन्द जो भी मिल जाये, उसी से वह अपने उदर की तृप्ति करे।”
 
श्लोक 227:  “जो अपनी जीभ का दास है और जो इस प्रकार इधर - उधर घूमता रहता है एवं अपने जननांग तथा पेट के प्रति समर्पित होता है, वह कृष्ण को नहीं पा सकता।”
 
श्लोक 228:  अगले दिन रघुनाथ दास ने अपने कर्तव्य के विषय में स्वरूप दामोदर के चरणकमलों में निवेदन किया।
 
श्लोक 229:  उन्होंने कहा, “मैं नहीं जानता कि मैंने गृहस्थ जीवन क्यों छोड़ा है? मेरा कर्तव्य क्या है? कृपया मुझे उपदेश दें।”
 
श्लोक 230:  रघुनाथ दास कभी भी महाप्रभु के समक्ष एक शब्द भी नहीं कहते। अपितु, वे स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा गोविन्द के माध्यम से महाप्रभु को अपनी इच्छाएँ सूचित करते।
 
श्लोक 231:  अगले दिन स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु से निवेदन किया, “रघुनाथ दास को आपके चरणों में यह कहना है कि :
 
श्लोक 232:  “मैं अपना कर्तव्य अथवा जीवन - लक्ष्य नहीं जानता। इसलिए आप कृपया अपने दिव्य मुख से मुझे उपदेश दें।”
 
श्लोक 233:  हँसते हुए महाप्रभु ने रघुनाथ दास से कहा, “मैंने पहले ही स्वरूप दामोदर गोस्वामी को तुम्हारे उपदेशक के रूप में नियुक्त कर दिया है।
 
श्लोक 234:  तुम उनसे अपने कर्तव्य तथा उसे सम्पन्न करने की विधि सीख सकते हो। मैं उनके जितना नहीं जानता।
 
श्लोक 235:  फिर भी यदि तुम श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक मुझसे उपदेश लेना चाहते हो, तो तुम निम्नलिखित शब्दों से अपने कर्तव्य निश्चित कर सकते हो।
 
श्लोक 236:  “न तो सामान्य लोगों की तरह बोलो और न वे जो कहें उसे सुनो। तुम न तो स्वादिष्ट भोजन करो, न ही सुन्दर वस्त्र पहनो।”
 
श्लोक 237:  कभी सम्मान की आशा मत करो, किन्तु अन्यों को सम्मान दो। सदैव भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम का जप करो और अपने मन में वृन्दावन - वासी राधा तथा कृष्ण की सेवा करो।
 
श्लोक 238:  “मैंने संक्षेप में तुम्हें अपना उपदेश दे दिया है। अब तुम इनके विषय में स्वरूप दामोदर से विस्तार में जान सकोगे।”
 
श्लोक 239:  “जो अपने आपको घास से भी तुच्छ समझता है, जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है और जो निजी सम्मान की आशा नहीं रखता, बल्कि अन्यों को सम्मान देने के लिए उद्यत रहता है, वह सदैव सरलतापूर्वक भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है।”
 
श्लोक 240:  यह सुनकर रघुनाथ दास ने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की वन्दना की और महाप्रभु ने कृपापूर्वक उनका आलिंगन किया।
 
श्लोक 241:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने पुनः उन्हें स्वरूप दामोदर को सौंप दिया। इस प्रकार रघुनाथ दास स्वरूप दामोदर गोस्वामी के साथ अत्यन्त गुह्य सेवा करने लगे।
 
श्लोक 242:  इस बार बंगाल से सारे भक्त आये और पहले ही की तरह श्री चैतन्य महाप्रभु उन सबसे प्रेमपूर्वक मिले।
 
श्लोक 243:  पहले की ही तरह उन्होंने भक्तों के साथ मिलकर गुण्डिचा मन्दिर की सफाई की और बगीचे में वन भोज किया।
 
श्लोक 244:  महाप्रभु ने पुनः रथयात्रा उत्सव के समय भक्तों के साथ नृत्य किया। यह देखकर रघुनाथ दास आश्चर्यचकित हो गये।
 
श्लोक 245:  जब रघुनाथ दास सभी भक्तों से मिले, तो अद्वैत आचार्य ने उन पर महती कृपा प्रदर्शित की।
 
श्लोक 246:  वे शिवानन्द सेन से भी मिले, जिन्होंने उन्हें बताया कि, “तुम्हारे पिता ने तुम्हें लेने के लिए दस व्यक्ति भेजे थे।”
 
श्लोक 247:  “उन्होंने मुझे एक चिट्ठी लिखी कि मैं तुम्हें लौटा दें, किन्तु जब उन दस व्यक्तियों को तुम्हारे विषय में कोई सूचना नहीं मिली, तो वे झाँकरा से घर लौट गये।”
 
श्लोक 248:  जब बंगाल के सारे भक्त जगन्नाथपुरी में चार मास रुककर घर लौटे, तो रघुनाथ दास के पिता ने उनके आगमन के विषय में सुना। इसलिए उन्होंने शिवानन्द सेन के पास एक व्यक्ति को भेजा।
 
श्लोक 249:  उस आदमी ने शिवानन्द सेन से पूछा, “क्या आपने श्री चैतन्य महाप्रभु के निवासस्थान पर किसी वैरागी को देखा है?
 
श्लोक 250:  “वह व्यक्ति गोवर्धन मजुमदार का पुत्र रघुनाथ दास है। क्या नीलाचल में उससे आपकी भेंट हुई?”
 
श्लोक 251:  शिवानन्द सेन ने उत्तर दिया, “हाँ, महोदय, रघुनाथ दास श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ है और अत्यन्त विख्यात व्यक्ति है। उसे कौन नहीं जानता?”
 
श्लोक 252:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उसे स्वरूप दामोदर के संरक्षण में रख दिया है। रघुनाथ दास तो महाप्रभु के सभी भक्तों का प्राण बन चुका है।
 
श्लोक 253:  “वह दिन - रात हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करता है। वह क्षण भर के लिए भी श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण नहीं छोड़ता।”
 
श्लोक 254:  “वह सर्वोपरि संन्यास आश्रम में है। वह खाने या पहनने की परवाह नहीं करता। वह जैसे - कैसे भोजन करता है और अपना जीवन यापन करता है।”
 
श्लोक 255:  वह दस दण्ड (चार घण्टे) रात बीत जाने पर पुष्पांजलि देख लेने के बाद सिंहद्वार पर खड़ा होकर खाने के लिए भिक्षा माँगता है।
 
श्लोक 256:  “यदि कोई कुछ दे देता है, तो वह खा लेता है। कभी - कभी वह उपवास करता है और कभी वह चबैना चबाकर रह जाता है।”
 
श्लोक 257:  यह सुनकर वह सन्देशवाहक गोवर्धन मजुमदार के पास लौट गया और उसने रघुनाथ दास के बारे में उसे सब कुछ बतला दिया।
 
श्लोक 258:  संन्यास आश्रम में रघुनाथ दास के व्यवहार का वर्णन सुनकर उसके माता - पिता अत्यन्त दुःखी थे।
 
श्लोक 259:  रघुनाथ दास के पिता ने तुरन्त शिवानन्द सेन के पास चार सौ मुद्राएँ, दो नौकर तथा एक ब्राह्मण भेज दिया।
 
श्लोक 260:  शिवानन्द सेन ने उन सबसे बतलाया, “तुम लोग सीधे जगन्नाथपुरी नहीं जा सकते। जब मैं वहाँ जाऊँ, तब तुम लोग मेरे साथ चल सकते हो।”
 
श्लोक 261:  “अभी घर जाओ। जब हम सभी जायेंगे, तब तुम सबको अपने साथ ले लेंगे।”
 
श्लोक 262:  इस घटना का वर्णन करते हुए महान् कवि श्री कविकर्णपूर ने अपने ग्रन्थ ‘श्री चैतन्य चन्द्रोदय नाटक’ में रघुनाथ दास के महिमामय कार्यों के विषय में विस्तार से लिखा है।
 
श्लोक 263:  “रघुनाथ दास अत्यन्त विनीत तथा कांचनपल्ली निवासी वासुदेव दत्त को अत्यधिक प्रिय यदुनन्दन आचार्य के शिष्य हैं। अपने दिव्य गुणों के कारण रघुनाथ दास श्री चैतन्य महाप्रभु के हम सभी भक्तों को सदैव प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। उन पर श्री चैतन्य महाप्रभु की अत्यधिक कृपा है, इसलिए वे सदैव अत्यन्त प्रिय हैं। वे संन्यास आश्रम के लिए उत्तम आदर्श प्रस्तुत करने वाले हैं और स्वरूप दामोदर गोस्वामी के ये अत्यन्त प्रिय अनुयायी वैराग्य के सागर हैं। नीलाचल (जगन्नाथपुरी) के निवासियों में ऐसा कौन होगा जो उन्हें भलीभाँति न जानता हो?”
 
श्लोक 264:  “चूँकि वे सारे भक्तों को अत्यन्त मनोहर लगते हैं, इसलिए रघुनाथ दास गोस्वामी आसानी से सौभाग्य की उर्वर भूमि बन गये, जो श्री चैतन्य महाप्रभु का बीज बोने के लिए उपयुक्त थी। उसी समय यह बीज बो दिया गया और यह श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रेम रूपी अद्वितीय वृक्ष के रूप में बढ़कर फल उत्पन्न करने लगा।”
 
श्लोक 265:  इन श्लोकों में महाकवि कवि - कर्णपूर वही जानकारी देते हैं, जो शिवानन्द सेन ने रघुनाथ दास के पिता के सन्देशवाहक को दी थी।
 
श्लोक 266:  अगले वर्ष जब शिवानन्द सेन हमेशा की तरह जगन्नाथपुरी जाने लगे, तो रघुनाथ के नौकर तथा उनका रसोइया ब्राह्मण उनके साथ चल पड़े।
 
श्लोक 267:  वे सेवक तथा वह ब्राह्मण अपने साथ चार सौ मुद्रा जगन्नाथपुरी ले आये और वहाँ रघुनाथ दास से मिले।
 
श्लोक 268:  रघुनाथ दास ने अपने पिता द्वारा भेजा गया धन तथा आदमी स्वीकार नहीं किये। इसलिए एक नौकर तथा वह ब्राह्मण दोनों ही धन लेकर वहीं रुके रहे।
 
श्लोक 269:  उसी समय रघुनाथ दास ने प्रतिमास दो दिन अपने घर पर श्री चैतन्य महाप्रभु को बड़े ध्यान से निमन्त्रित करना शुरू किया।
 
श्लोक 270:  इन दोनों अवसरों पर 640 कौड़ियाँ खर्च होतीं। इसलिए वे उस नौकर तथा ब्राह्मण से इतनी ही राशि लेते।
 
श्लोक 271:  इस तरह रघुनाथ दास श्री चैतन्य महाप्रभु को दो वर्षों तक आमन्त्रित करते रहे, किन्तु दूसरे वर्ष के अन्त में उन्होंने यह बन्द कर दिया।
 
श्लोक 272:  जब रघुनाथ दास ने लगातार दो मास तक महाप्रभु को आमन्त्रित नहीं किया, तो शचीपुत्र महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर से पूछा।
 
श्लोक 273:  महाप्रभु ने पूछा, “रघुनाथ दास ने मुझे निमन्त्रण देना क्यों बन्द कर दिया है?” स्वरूप दामोदर ने उत्तर दिया, “उसने मन में फिर से कुछ सोचा होगा।”
 
श्लोक 274:  “मैं भौतिकतावादी व्यक्तियों से सामग्री लेकर श्री चैतन्य महाप्रभु को आमन्त्रित करता हूँ। मैं जानता हूँ कि इससे महाप्रभु का मन प्रसन्न नहीं होता।”
 
श्लोक 275:  “मेरा मन मलिन है, क्योंकि मैं यह सारा सामान उन लोगों से लेता हूँ जो केवल धन में रुचि रखने वाले हैं। इसलिए ऐसे निमन्त्रण से मैं कुछ भौतिक यश ही प्राप्त करता हूँ।”
 
श्लोक 276:  “मेरे अनुरोध पर श्री चैतन्य महाप्रभु निमन्त्रण स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि यदि वे निमन्त्रण स्वीकार नहीं करते, तो मुझ जैसा मूर्ख व्यक्ति दुःखी होगा।”
 
श्लोक 277:  स्वरूप दामोदर ने यह कहकर समाप्त किया कि, “इन सारी बातों पर विचार करके उसने आपको आमन्त्रित करना बन्द कर दिया है। यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु हँसे और कहने लगे।”
 
श्लोक 278:  “जब कोई किसी भौतिकतावादी द्वारा भेंट किया हुआ भोजन खाता है, तो उसका मन कलुषित हो जाता है और जब मन कलुषित हो जाता है, तो मनुष्य ठीक से कृष्ण का चिन्तन नहीं कर पाता।”
 
श्लोक 279:  “जब कोई व्यक्ति रजोगुण से दूषित किसी व्यक्ति का आमन्त्रण स्वीकार कर लेता है, तो भोजन देने वाला तथा उस भोजन को स्वीकार करने वाला दोनों ही मानसिक रूप से कलुषित हो जाते हैं।”
 
श्लोक 280:  “रघुनाथ दास की उत्सुकता के कारण मैंने अनेक दिनों तक उसका निमन्त्रण स्वीकार किया। यह अच्छा हुआ कि रघुनाथ दास ने यह जानते हुए अब इस रीति को स्वयं त्याग दिया है।”
 
श्लोक 281:  कुछ दिनों के बाद रघुनाथ दास ने सिंहद्वार पर खड़े होना बन्द कर दिया और उसके स्थान पर वे अन्नछत्र से भिक्षा माँगकर खाने लगे।
 
श्लोक 282:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोविन्द से यह समाचार सुना, तो उन्होंने स्वरूप दामोदर से पूछा, “अब भिक्षा माँगने के लिए रघुनाथ दास सिंहद्वार पर क्यों नहीं खड़ा होता?”
 
श्लोक 283:  स्वरूप दामोदर ने उत्तर दिया, “रघुनाथ दास को सिंहद्वार पर खड़े होने से दुःख होता था। इसलिए वह अब दोपहर के समय अन्नछत्र में भिक्षा माँगने जाता है।”
 
श्लोक 284:  यह समाचार सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “उसने बहुत अच्छा किया कि सिंहद्वार पर खड़ा होना बन्द कर दिया। ऐसी भिक्षावृत्ति वेश्या के आचरण के समान है।”
 
श्लोक 285:  “यह व्यक्ति आ रहा है। वह मुझे कुछ देगा। इस व्यक्ति ने मुझे पिछली रात में कुछ दिया था। अब एक दूसरा व्यक्ति इधर आ रहा है। वह मुझे कोई वस्तु दे सकता है। अभी जो व्यक्ति इधर से निकला, उसने मुझे कुछ नहीं दिया, किन्तु दूसरा व्यक्ति आयेगा और वह मुझे कुछ देगा।” संन्यास आश्रम में ऐसा व्यक्ति अपनी उदासीनता त्याग देता है और इस या उस व्यक्ति के दान पर आश्रित रहता है। इस तरह सोचते हुए वह वेश्या की वृत्ति ग्रहण कर लेता है।
 
श्लोक 286:  “यदि कोई व्यक्ति निःशुल्क भोजन देने वाले लंगर में जाकर जो भी मिले उससे पेट भरता है, तो अवांछित बातों का अवसर नहीं रह जाता और वह शान्तिपूर्वक हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन कर सकता है।”
 
श्लोक 287:  यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोवर्धन पर्वत की एक शिला तथा गुंजामाला (छोटे शंखों की एक माला) देकर रघुनाथ दास पर पुनः कृपा की।
 
श्लोक 288:  पिछली बार जब शंकरानन्द सरस्वती वृन्दावन से आये थे, तो अपने साथ गोवर्धन पर्वत से एक शिला तथा गुंजामाला (छोटे - छोटे शंखों की माला) लाये थे।
 
श्लोक 289:  उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु को वे दोनों वस्तुएँ - शंखों की माला तथा गोवर्धन पर्वत की शिला - दी थीं।
 
श्लोक 290:  इन दो असामान्य वस्तुओं को पाकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यधिक सुखी थे। वे जप करते समय उस माला को अपने गले में डाल लिया करते थे।
 
श्लोक 291:  महाप्रभु इस शिला को कभी अपने हृदय पर रखते तो कभी अपनी आँखों से लगाते। कभी वे अपनी नाक से इसे सूंघते और कभी इसे अपने सिर पर रखते।
 
श्लोक 292:  गोवर्धन पर्वत की यह शिला महाप्रभु के नेत्रों से निकलने वाले अश्रुओं से सदैव भीगी रहती थी। श्री चैतन्य महाप्रभु कहा करते, “यह शिला साक्षात् कृष्ण का शरीर है।”
 
श्लोक 293:  वे उस शिला तथा माला को तीन वर्षों तक अपने पास रखे रहे। तब रघुनाथ दास के आचरण से अत्यधिक प्रसन्न होकर महाप्रभु ने इन दोनों को उन्हें दे दिया।
 
श्लोक 294:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ दास को यह उपदेश दिया, “यह शिला भगवान् कृष्ण का दिव्य स्वरूप है। इस शिला की पूजा अतीव उत्सुकता से करना।”
 
श्लोक 295:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “तुम आदर्श ब्राह्मण की तरह सत्त्वगुणी भाव से इस शिला की पूजा करो, क्योंकि ऐसी पूजा से तुम निश्चय ही अविलम्ब कृष्ण का भावमय प्रेम प्राप्त कर सकोगे।
 
श्लोक 296:  “ऐसी पूजा के लिए एक लोटा पानी तथा तुलसी वृक्ष की कुछ मंजरियों की आवश्यकता पड़ती है।
 
श्लोक 297:  “तुम्हें चाहिए कि तुम श्रद्धा तथा प्रेम के साथ तुलसी की आठ कोमल मंजरियाँ भेंट चढ़ाओ। और इन आठों में प्रत्येक ओर दो तुलसी की पत्तियाँ हों।”
 
श्लोक 298:  इस तरह यह परामर्श देकर कि किस तरह पूजा की जाए, श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ दास को अपने दिव्य हाथ से गोवर्धन शिला प्रदान की। महाप्रभु की आज्ञा के अनुसार ही रघुनाथ दास परम प्रसन्नतापूर्वक शिला की पूजा करने लगे।
 
श्लोक 299:  स्वरूप दामोदर ने रघुनाथ दास को लगभग छह - छह इंच लम्बे दो वस्त्र, एक लकड़ी का पीढ़ा तथा जल रखने के लिए एक पात्र दिया।
 
श्लोक 300:  इस तरह रघुनाथ दास ने गोवर्धन शिला को पूजना प्रारम्भ कर दिया और जब वे पूजा करते, तो उस शिला में वे नन्द महाराज के पुत्र साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण का दर्शन करते।
 
श्लोक 301:  यह सोचकर कि यह गोवर्धन शिला उन्हें किस तरह स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु के हाथों से प्राप्त हुई है, रघुनाथ दास सदैव प्रेमावेश से अभिभूत होते रहते।
 
श्लोक 302:  केवल जल तथा तुलसी अर्पित करने से रघुनाथ दास को जितना दिव्य आनन्द मिला, उतना सोलह प्रकार की पूजा सामग्रियों से भी अर्चाविग्रह की पूजा करके प्राप्त नहीं किया जा सकता।
 
श्लोक 303:  जब रघुनाथ दास कुछ दिनों तक गोवर्धन शिला की पूजा कर चुके, तो एक दिन स्वरूप दामोदर ने उनसे इस प्रकार कहा।
 
श्लोक 304:  “तुम इस गोवर्धन शिला को आठ कौड़ियों के मूल्य की सर्वोत्तम खाजा तथा सन्देश मिठाइयाँ अर्पित करो। यदि तुम श्रद्धा तथा प्रेम से इन्हें अर्पित करोगे, तो वे अमृत तुल्य बन जायेंगी।”
 
श्लोक 305:  तत्पश्चात् रघुनाथ दास खाजा नाम की कीमती मिठाई का भोग लगाने लगे, जिसकी पूर्ति स्वरूप दामोदर की आज्ञा के अनुसार गोविन्द करता था।
 
श्लोक 306:  जब रघुनाथ दास को श्री चैतन्य महाप्रभु से शिला तथा शंखों की माला प्राप्त हुई, तब वे महाप्रभु की आन्तरिक इच्छा समझ गये थे। अतः उन्होंने इस प्रकार सोचा।
 
श्लोक 307:  “श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह गोवर्धन शिला देकर मुझे गोवर्धन पर्वत के निकट स्थान दिया है और शंख की माला देकर उन्होंने मुझे श्रीमती राधारानी के चरणकमलों में शरण दी है।”
 
श्लोक 308:  रघुनाथ दास के आनन्द की कोई सीमा न थी। वे सारी बाह्य वस्तुएँ भूलकर अपने तन तथा मन से श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की सेवा करने लगे।
 
श्लोक 309:  भला रघुनाथ दास के असंख्य दिव्य गुणों की गणना कौन कर सकता है? उनके कठोर नियम पत्थर पर लकीर के समान थे।
 
श्लोक 310:  रघुनाथ दास चौबीस घंटों में से बाईस घंटे से अधिक हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करने में तथा भगवान् के चरणकमलों का स्मरण करने में बिताते। वे डेढ़ घंटे से भी कम समय खाने तथा सोने में बिताते और किसी - किसी दिन तो वह भी सम्भव नहीं हो पाता था।
 
श्लोक 311:  उनके वैराग्य से सम्बन्धित कथाएँ अद्भुत हैं। उन्होंने जीवन भर अपनी जीभ की तृप्ति नहीं होने दी।
 
श्लोक 312:  उन्होंने पहनने के लिए एक छोटे से फटे वस्त्र तथा लपेटने के लिए गुदड़ी के अतिरिक्त किसी वस्तु का स्पर्श नहीं किया। इस तरह उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु की आज्ञा का कठोरता के साथ पालन किया।
 
श्लोक 313:  वे जो भी खाते, शरीर तथा प्राण की रक्षा मात्र के लिए होता था और जब वे खाने बैठते, तो अपनी भर्सना इन शब्दों में करते।
 
श्लोक 314:  “यदि किसी का हृदय पूर्ण ज्ञान द्वारा शुद्ध हो चुका है और उसने परम ब्रह्म कृष्ण को समझ लिया है, तो उसे हर वस्तु प्राप्त हो जाती है। भला ऐसे व्यक्ति को अपने भौतिक शरीर का अच्छी तरह पोषण करने का प्रयास करते हुए लम्पट की तरह क्यों कार्य करना चाहिए?”
 
श्लोक 315:  भगवान जगन्नाथ का प्रसाद दुकानदारों द्वारा बेचा जाता है। जो नहीं बिक पाता वह दो - तीन दिनों बाद सड़ जाता है।
 
श्लोक 316:  सारा सड़ा भोजन सिंहद्वार पर तैलंग गौओं के सामने फेंक दिया जाता है। उसकी सड़न की गन्ध के कारण गौवें तक इसे नहीं खा सकतीं।
 
श्लोक 317:  रात में रघुनाथ दास सड़ा चावल एकत्र करते और घर लाकर उसे प्रचुर पानी से धोते थे।
 
श्लोक 318:  तब वे चावल के कड़े भीतरी भाग को नमक मिलाकर खाते।
 
श्लोक 319:  एक दिन स्वरूप दामोदर ने रघुनाथ दास का यह कृत्य देख लिया, अतः वे हँसे और उस भोजन में से थोड़ा सा अंश माँगकर स्वयं उन्होंने खाया।
 
श्लोक 320:  स्वरूप दामोदर ने कहा: “तुम प्रतिदिन ऐसा अमृत खाते हो, किन्तु हमें कभी नहीं देते। तुम्हारा स्वभाव कैसा है?”
 
श्लोक 321:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस बात का समाचार गोविन्द के मुख से सुना, तो वे अगले दिन वहाँ गये और इस प्रकार बोले।
 
श्लोक 322:  “तुम कौन सी अच्छी वस्तुएँ खा रहे हो? तुम मुझे कोई वस्तु क्यों नहीं देते?” यह कहकर उन्होंने बलपूर्वक एक ग्रास ले लिया और खाने लगे।
 
श्लोक 323:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु दूसरा ग्रास उठा रहे थे, तब स्वरूप दामोदर ने उनका हाथ पकड़ लिया और बोले, “यह आपके योग्य नहीं है। इस तरह उन्होंने उस भोजन को बलपूर्वक ले लिया।”
 
श्लोक 324:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “निस्सन्देह, मैं हररोज तरह - तरह के प्रसाद खाता हूँ, किन्तु मैंने कभी ऐसा उत्तम प्रसाद नहीं खाया, जैसाकि रघुनाथ खा रहा है।”
 
श्लोक 325:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथपुरी में अनेक लीलाएँ कीं। वे रघुनाथ दास को संन्यास आश्रम में कठिन तपस्या करते देखकर अत्यधिक तुष्ट थे।
 
श्लोक 326:  रघुनाथ दास ने ‘गौराङ्गस्तवकल्पवृक्ष’ नामक अपनी कविता में अपने उद्धार का वर्णन किया है।
 
श्लोक 327:  “यद्यपि मैं पतित, अति अधम हूँ, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी कृपा से महान् भौतिक ऐश्वर्य की प्रज्ज्वलित दावाग्नि से मुझे उबार लिया है। उन्होंने परम प्रसन्नतापूर्वक मुझे अपने निजी संगी स्वरूप दामोदर को सौंप दिया। महाप्रभु ने मुझे अपने वक्षस्थल पर पड़ी हुई गुंजामाला तथा गोवर्धन शिला दी, यद्यपि ये वस्तुएँ उन्हें अतीव प्रिय थीं। ऐसे श्री चैतन्य महाप्रभु मेरे हृदय के भीतर उदय होकर मुझे उन्मत्त बना देते हैं।”
 
श्लोक 328:  इस तरह मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु से रघुनाथ दास की भेंट का वर्णन किया है। जो कोई इस घटना के विषय में सुनता है, वह श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों को प्राप्त करता है।
 
श्लोक 329:  श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा उनकी कृपा की कामना करते हुए उनके चरणचिह्नों पर चलकर मैं कृष्णदास श्री चैतन्य चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
 
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