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अध्याय 7: श्री चैतन्य महाप्रभु एवं वल्लभ भट्ट की भेंट
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श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने अमृत-प्रवाह-भाष्य में अध्याय सात का सारांश इस प्रकार से दिया है : इस अध्याय में श्री चैतन्य महाप्रभु से वल्लभ भट्ट की भेंट का वर्णन हुआ है। इन दोनों महापुरुषों के बीच कुछ हास-परिहास हुआ। अन्त में श्री चैतन्य महाप्रभु ने वल्लभ भट्ट को सुधारा और कृपा करके उनका निमन्त्रण स्वीकार किया। इसके पूर्व, श्री चैतन्य महाप्रभु ने देखा था कि वल्लभ भट्ट गदाधर पण्डित से अत्यधिक अनुरक्त हैं। इसलिए उन्होंने गदाधर पण्डित से रुष्ट होने का अभिनय किया। बाद में जब वल्लभ भट्ट की महाप्रभु से घनिष्ठता हो गई, तो महाप्रभु ने उन्हें गदाधर पण्डित से उपदेश लेने के लिए कहा। इस तरह महाप्रभु ने गदाधर पण्डित के प्रति अपने प्रेम भाव को व्यक्त किया। |
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श्लोक 1: मैं श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ। महाप्रभु के चरणकमलों से मधु को चाटने में लगे भक्तों की अहैतुकी कृपा से ही एक पतितात्मा तक सदा के लिए मुक्त हो जाता है। |
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श्लोक 2: श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैतचन्द्र की जय हो! और श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो। |
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श्लोक 3: अगले वर्ष बंगाल के सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु से भेंट करने गये और महाप्रभु पहले की ही तरह उन सबसे मिले। |
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श्लोक 4: इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भक्तों के साथ अपनी लीलाएँ करते रहे। तब एक विद्वान पण्डित, जिनका नाम वल्लभ भट्ट था, महाप्रभु से मिलने जगन्नाथपुरी गये। |
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श्लोक 5: जब वल्लभ भट्ट आये, तो उन्होंने महाप्रभु के चरणकमलों में नमस्कार किया। महाप्रभु ने उन्हें महान् भक्त के रूप में स्वीकार करते हुए उनका आलिंगन किया। |
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श्लोक 6: श्री चैतन्य महाप्रभु ने वल्लभ भट्ट को अत्यन्त सम्मानपूर्वक अपने निकट बैठाया। तब वल्लभ भट्ट अत्यन्त विनयपूर्वक कहने लगे। |
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श्लोक 7: “हे प्रभु, मैं बहुत समय से आपका दर्शन करना चाह रहा था। अब भगवान् जगन्नाथ ने मेरी यह इच्छा पूरी की है, इसलिए मैं आपका दर्श न कर रहा हूँ।” |
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श्लोक 8: “जो आपका दर्शन पाता है, वह सचमुच भाग्यशाली है, क्योंकि आप साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।” |
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श्लोक 9: “चूँकि जो कोई आपका स्मरण करता है, वह पवित्र हो जाता है, इसलिए इसमें कौन सा आश्चर्य है कि आपका दर्शन करने पर कोई पवित्र हो जाये?” |
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श्लोक 10: “महापुरुषों का स्मरण करने मात्र से सारा घर पवित्र हो जाता है, तो फिर उनका प्रत्यक्ष दर्शन करने, उनके चरणकमलों का स्पर्श करने, उनका पाद - प्रक्षालन करने या उन्हें आसन देने के विषय में क्या कहा जा सकता है।” |
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श्लोक 11: कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है। कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किये बिना संकीर्तन आन्दोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता। |
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श्लोक 12: “आपने कृष्णभावनामृत आन्दोलन को प्रसारित किया है। इसलिए यह स्पष्ट है कि आप कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है।” |
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श्लोक 13: “आपने सारे जगत् में कृष्ण नाम को उजागर किया है। जो भी आपको देखता है, वह तुरन्त कृष्ण - प्रेम में निमग्न हो जाता है।” |
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श्लोक 14: कृष्ण द्वारा विशेष शक्ति प्राप्त किये बिना कोई कृष्ण - प्रेम उजागर नहीं कर सकता, क्योंकि कृष्ण ही परमानन्द प्रेम के एकमात्र दाता हैं। यही सारे प्रामाणिक शास्त्रों का निर्णय है। |
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श्लोक 15: “भगवान् के कई सर्वमंगलकारी अवतार हो सकते हैं, किन्तु भगवान् कृष्ण के अतिरिक्त ऐसा कौन है, जो शरणागतों को भगवत्प्रेम प्रदान कर सके?” |
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श्लोक 16: श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “हे प्रिय वल्लभ भट्ट, आप विद्वान पण्डित हो। कृपया मेरी बात सुनो। |
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श्लोक 17: “फिर भी मेरा मन शुद्ध हो गया है, क्योंकि मैंने अद्वैत आचार्य की संगति की है, जो कि साक्षात् भगवान् हैं।” |
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श्लोक 18: उनका समस्त प्रामाणिक शास्त्रों का ज्ञान तथा उनकी भगवान् कृष्ण की भक्ति अद्वितीय है। इसीलिए वे अद्वैत आचार्य कहलाते हैं। |
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श्लोक 19: “वे इतने महान् पुरुष हैं कि अपनी कृपा से मांसाहारियों (म्लेच्छों) तक को कृष्ण भक्ति दिला सकते हैं। इसलिए उनकी वैष्णवता की शक्ति का अनुमान कौन लगा सकता है?” |
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श्लोक 20: नित्यानन्द प्रभु अवधूत भी साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। वे प्रेमावेश के उन्माद में सदैव उन्मत्त रहते हैं। निस्सन्देह, वे कृष्ण - प्रेम के सागर हैं। |
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श्लोक 21: सार्वभौम भट्टाचार्य छः दार्शनिक मतों के पूर्ण ज्ञाता हैं। इसलिए वे दर्शन के छः मार्गों को सिखाने में जगद्गुरु हैं। वे भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। |
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श्लोक 22: “सार्वभौम भट्टाचार्य ने मुझे भक्ति की सीमा दिखलाई है। एकमात्र उन्हीं की कृपा से मैं यह समझ सका हूँ कि कृष्ण की भक्ति ही समस्त योग का सार है।” |
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श्लोक 23: श्रील रामानन्द राय कृष्ण भक्ति के दिव्य रस के आखरी ज्ञाता हैं। उन्होंने मुझे उपदेश दिया है कि कृष्ण ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। |
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श्लोक 24: रामानन्द राय की कृपा से मैं समझ सका हूँ कि कृष्ण - प्रेम जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है और कृष्ण का रागानुग प्रेम सर्वोच्च पूर्णता है। |
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श्लोक 25: दास, मित्र, गुरुजन तथा प्रेमिका - ये दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा शृंगार रसों के आश्रय हैं। |
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श्लोक 26: “भाव के दो प्रकार हैं। भगवान् के पूर्ण ऐश्वर्यों के ज्ञान से युक्त भाव ऐश्वर्यज्ञान - युक्त कहलाता है। और शुद्ध निष्कलुष भाव केवल कहलाता है। महाराज नन्द के पुत्र कृष्ण के ऐश्वर्य मात्र के ज्ञान से उनके चरणकमलों की शरण प्राप्त नहीं की जा सकती।” |
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श्लोक 27: “माता यशोदा के पुत्र, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण उन भक्तों के लिए सुलभ हैं, जो रागानुगा भक्ति में लगे हैं, किन्तु जो लोग मानसिक चिन्तक (ज्ञानी) हैं, जो कठोर तपस्या द्वारा आत्म - साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हैं या जो शरीर को आत्मा ही मानते हैं, उनके लिए भगवान् दुर्लभ हैं।” |
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श्लोक 28: ‘आत्मभूत’ शब्द का अर्थ ‘निजी संगी’ है। भगवान् के ऐश्वर्य ज्ञान द्वारा लक्ष्मीजी नन्द महाराज के पुत्र की शरण प्राप्त नहीं कर पाईं। |
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श्लोक 29: “जब भगवान् श्रीकृष्ण रास लीला में गोपियों के साथ नृत्य कर रहे थे, तब भगवान् की बाहें गोपियों की गर्दन का आलिंगन कर रही थीं। यह दिव्य कृपा न तो कभी लक्ष्मीजी को, न ही वैकुण्ठ में अन्य प्रेयसियों को प्राप्त हो पाई थी। यहाँ तक कि स्वर्ग लोक की सर्वोत्तम सुन्दरियों ने भी, जिनकी शारीरिक कान्ति तथा सुगन्ध कमल पुष्पों के समान होती है, कभी ऐसी कृपा की कल्पना नहीं की थी। तो फिर संसारी स्त्रियों के विषय में क्या कहा जाए, जो भौतिक अनुमान के अनुसार अत्यन्त सुन्दर कही जाती हैं?” |
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श्लोक 30: शुद्ध कृष्ण चेतना में कृष्ण का मित्र कृष्ण के कन्धों पर चढ़ जाता है और माता यशोदा कृष्ण को बाँध देती हैं। |
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श्लोक 31: “शुद्ध कृष्ण चेतना में भगवान् के ऐश्वर्यों के ज्ञान के बिना ही भक्त कृष्ण को अपना मित्र या पुत्र मानता है। इसलिए इस भक्ति भाव की प्रशंसा शुकदेव गोस्वामी तथा व्यासदेव जैसे महाजन भी करते हैं।” |
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श्लोक 32: “जो लोग भगवान् की ब्रह्मज्योति की प्रशंसा करते हुए आत्म - साक्षात्कार में लगे हुए हैं तथा जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को स्वामी के रूप में स्वीकार करके भक्ति में लगे हुए हैं अथवा जो भगवान् को सामान्य पुरुष मानकर माया के पाश में बँधे हुए हैं, वे यह नहीं समझ सकते कि कुछ महापुरुष प्रचूर पुण्य कर्म संचित करके भगवान् के साथ मैत्री वश ग्वाल बालों के रूप में खेल रहे हैं।” |
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श्लोक 33: “जब माता यशोदा ने कृष्ण के मुख के भीतर समस्त ब्रह्माण्डों को देखा, तो वे कुछ समय के लिए निश्चय ही आश्चर्यचकित हो गईं। जिस प्रकार इन्द्र तथा अन्य देवी - देवताओं की पूजा होती है, उसी प्रकार तीन वेदों के अनुयायी यज्ञों द्वारा भगवान् की पूजा करते हैं। उपनिषदों के अध्ययन द्वारा उनकी महानता को समझने वाले सन्त निराकार ब्रह्म के रूप में उनकी उपासना करते हैं। ब्रह्माण्ड का वैश्लेषिक अध्ययन करने वाले महान् दार्शनिक पुरुष के रूप में उनकी उपासना करते हैं। महान् योगी सर्वव्यापी परमात्मा के रूप में तथा भक्त पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में उनकी उपासना करते हैं। फिर भी माता यशोदा भगवान् को अपना पुत्र ही समझती थीं।” |
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श्लोक 34: “हे ब्राह्मण, नन्द महाराज ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण को पुत्र रूप में पाने के लिए कौन सा पुण्य कर्म कि या? तथा माता यशोदा ने कौन - सा पुण्यकर्म किया जिससे परम भगवान् कृष्ण ने उन्हें ‘माता’ कहकर पुकारा और उनके स्तनों का दूध पिया?” |
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श्लोक 35: “यदि शुद्ध भक्त कृष्ण के ऐश्वर्य को देखता भी है, तो वह उसे स्वीकार नहीं करता। इसलिए शुद्ध चेतना (केवल भाव) भगवान् के ऐश्वर्य ज्ञान से अधिक श्रेष्ठ है।” |
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श्लोक 36: “रामानन्द राय दिव्य रसों से भलीभाँति अवगत हैं। वे कृष्ण - प्रेमावेश के सुख में निरन्तर तन्मय रहते हैं। उन्हीं ने मुझे यह सब सिखाया है।” |
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श्लोक 37: रामानन्द राय के प्रभाव तथा ज्ञान का वर्णन कर सकना असम्भव है, क्योंकि उन्हीं की कृपा से मैं वृन्दावनवासियों के शुद्ध प्रेम को समझ सका। |
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श्लोक 38: प्रेमावेश का दिव्य रस स्वरूप दामोदर द्वारा मूर्तिमान होता है। उनकी संगति से मैंने वृन्दावन के दिव्य माधुर्य रस को समझा है। |
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श्लोक 39: “गोपियों तथा श्रीमती राधारानी का शुद्ध प्रेम भौतिक कामवासना के लेशमात्र से रहित है। ऐसे दिव्य प्रेम की कसौटी यह है कि इसका एकमात्र उद्देश्य कृष्ण को तुष्ट करना है।” |
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श्लोक 40: “हे प्रिय, आपके चरणकमल इतने कोमल हैं कि हम डरते - डरते उन्हें अपने वक्षस्थलों पर धीरे से रखती हैं कि कहीं आपके चरणों को चोट न लग जाए। हमारे प्राण केवल आप पर आश्रित हैं। इसलिए हमारे मन इस बात से चिन्तित हैं कि वन मार्ग में घूमते समय आपके चरण कहीं कंकरों से क्षत - विक्षत न हो जायें।” |
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श्लोक 41: “ऐश्वर्य के ज्ञान से रहित शुद्ध प्रेम के वशीभूत गोपियाँ कभी - कभी कृष्ण की भर्त्सना करती हैं। यह शुद्ध प्रेम का लक्षण है।” |
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श्लोक 42: “हे प्रिय कृष्ण, हम गोपियों ने अपने पतियों, पुत्रों, परिवार, भाइयों तथा मित्रों के आदेश की अवहेलना की है और आपके पास आने के लिए उनका संग छोड़ा है। आप हमारी इच्छाओं के विषय में सब कुछ जानते हैं। हम आपकी वंशी के सर्वोत्कृष्ट संगीत से आकृष्ट होकर ही आई हैं। किन्तु आप बहुत बड़े शठ निकले, क्योंकि इस रात्रि में ऐसा कौन होगा, जो हम जैसी तरुणियों का साथ छोड़ देगा?” |
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श्लोक 43: गोपियों का माधुर्य प्रेम सर्वोच्च भक्ति है, जो भक्ति की अन्य सारी विधियों को पार कर जाती है। इसलिए भगवान् कृष्ण को कहना पड़ा, ‘हे गोपियों, मैं तुम लोगों का ऋण नहीं उतार सकता। निस्सन्देह, मैं तुम लोगों का सदैव ऋणी हूँ।’ |
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श्लोक 44: “हे गोपियों, मैं तुम लोगों की निष्कलंक सेवा के ऋण को ब्रह्मा की आयु तक में भी नहीं चुका सकता। मुझसे तुम लोगों का यह सम्बन्ध निन्दा से परे है। तुम लोगों ने समस्त घरेलू सम्बन्धों को तोड़कर मेरी पूजा की है, जिन्हें तोड़ पाना कठिन होता है। इसलिए तुम्हारे यशस्वी कार्य ही तुम्हारा पुरस्कार बनें।” |
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श्लोक 45: शुद्ध कृष्ण - प्रेम ऐश्वर्य में कृष्ण - प्रेम से सर्वथा भिन्न होता है और सर्वोच्च पद पर होता है। इस पृथ्वी पर उद्धव से बढ़कर कोई भक्त नहीं है। |
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श्लोक 46: “उद्धव गोपियों के चरणकमलों की धूलि अपने सिर पर धारण करना चाहते हैं। मैंने स्वरूप दामोदर से भगवान् कृष्ण के इन सारे दिव्य प्रेम - व्यापारों के विषय में सीखा है।” |
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श्लोक 47: “वृन्दावन की गोपियों ने अपने पतियों, पुत्रों तथा अन्य पारिवारिक जनों का साथ छोड़ दिया है, जिन्हें छोड़ पाना अत्यन्त कठिन होता है। और उन्होंने वैदिक ज्ञान से खोजे जाने वाले मुकुन्द के चरणकमलों की शरण ग्रहण करने के लिए सतीत्व का मार्ग त्याग दिया है। ओह, यदि मैं वृन्दावन की कोई झाड़ी, लता या औषधी बन जाऊँ, तो कितना भाग्यशाली हूँगा, क्योंकि तब गोपियाँ इन्हें अपने पाँव से रौदंती हुईं अपने चरणकमलों की धूल से आशीर्वाद देंगी।” |
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श्लोक 48: “नामाचार्य हरिदास ठाकुर समस्त शुद्ध भक्तों में से सर्वाधिक पूज्य हैं। वे प्रति दिन तीन लाख पवित्र नामों का जप करते हैं।” |
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श्लोक 49: “मैंने तो भगवान् के पवित्र नाम की महिमा के विषय में हरिदास ठाकुर से सीखा है और उनकी कृपा से इस महिमा को जाना है।” |
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श्लोक 50-52: आचार्यरत्न, आचार्यनिधि, गदाधर पण्डित, जगदानन्द, दामोदर, शंकर, वक्रेश्वर, काशीश्वर, मुकुन्द, वासुदेव, मुरारि तथा अन्य अनेक भक्तों ने कृष्ण के पवित्र नाम की महिमा तथा कृष्ण के प्रति प्रेम के महत्त्व का जन - जन में प्रचार करने हेतु बंगाल में अवतार लिया है। मैंने इन्हीं से कृष्ण - भक्ति का अर्थ सीखा है।” |
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श्लोक 53: यह जानते हुए कि वल्लभ भट्ट का हृदय गर्वित है, श्री चैतन्य महाप्रभु ने ये शब्द यह जताने के लिए कहे कि भक्ति के बारे में किस तरह सीखा जा सकता है। |
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श्लोक 54: [वल्लभ भट्ट सोच रहे थे:] “मैं महान् वैष्णव हूँ। वैष्णव दर्शन के सारे सिद्धान्तों को सीखने के बाद मैं श्रीमद्भागवत का अर्थ समझ सकता हूँ और बहुत अच्छी तरह से इसकी व्याख्या कर सकता हूँ।” |
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श्लोक 55: वल्लभ भट्ट के मन में ऐसा गर्व दीर्धकाल से चला आ रहा था, किन्तु जब उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु का उपदेश सुना, तो उनका गर्व चूर - चूर हो गया। |
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श्लोक 56: जब वल्लभ भट्ट ने श्री चैतन्य महाप्रभु के मुख से इन सारे भक्तों की शुद्ध वैष्णवता के बारे में सुना, तो तुरन्त उनकी इच्छा उन सबके दर्शनों के लिए हुई। |
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श्लोक 57: वल्लभ भट्ट ने कहा, “ये सारे वैष्णव कहाँ रहते हैं और मैं उनका दर्शन किस तरह कर सकता हूँ?” |
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श्लोक 58: श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “यद्यपि उनमें से कुछ बंगाल में और कुछ अन्य राज्यों में रहते हैं, किन्तु वे सभी रथयात्रा के दर्शन हेतु यहाँ आये हैं।” |
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श्लोक 59: “इस समय वे सब यहीं रह रहे हैं। उनके आवास विभिन्न स्थानों में हैं। यहीं आप उन सबके दर्शन कर सकोगे।” |
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श्लोक 60: तत्पश्चात् अत्यन्त विनय तथा दीनतापूर्वक वल्लभ भट्ट ने श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने घर पर भोजन करने के लिए निमन्त्रित किया। |
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श्लोक 61: अगले दिन जब सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु के स्थान पर आये, तो महाप्रभु ने उस सबसे वल्लभ भट्ट का परिचय कराया। |
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श्लोक 62: वे उनके मुखमण्डलों के तेज को देखकर चकित थे। निस्सन्देह, उन सबके बीच में वल्लभ भट्ट एक जुगनू समान लग रहे थे। |
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श्लोक 63: तब वल्लभ भट्ट प्रचुर मात्रा में भगवान् जगन्नाथजी का प्रसाद ले आये और उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों को अच्छी तरह से भोजन कराया। |
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श्लोक 64: परमानन्द पुरी इत्यादि श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे संन्यासी संगी एक ओर बैठ गये और सबने प्रसाद प्राप्त किया। |
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श्लोक 65: श्री चैतन्य महाप्रभु समस्त भक्तों के बीच बैठे। अद्वैत आचार्य तथा नित्यानन्द प्रभु महाप्रभु के दोनों ओर बैठे। अन्य भक्त महाप्रभु के आगे और पीछे बैठे। |
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श्लोक 66: बंगाल के सारे भक्त, जिनकी गिनती करने में मैं असमर्थ हूँ, आँगन में पंक्तियों में बैठ गये। |
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श्लोक 67: जब वल्लभ भट्ट ने श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों को देखा, तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, और भक्तिवश उन्होंने उनमें से हर एक के चरणकमलों पर नमस्कार निवेदन किया। |
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श्लोक 68: स्वरूप दामोदर, जगदानन्द, काशीश्वर तथा शंकर ने राघव तथा दामोदर पण्डित को साथ लेकर प्रसाद वितरण का कार्य भार सँभाला। |
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श्लोक 69: वल्लभ भट्ट भगवान् जगन्नाथ को अर्पित ढेर सारा प्रसाद ले आये थे। इस तरह सारे संन्यासी खाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ - साथ बैठ गये। |
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श्लोक 70: प्रसाद पाकर सारे वैष्णवों ने “हरि! हरि!” के पवित्र नाम का उच्चारण किया। हरि के पवित्र नाम की उठती ध्वनि ने सारे ब्रह्माण्ड को पूरित कर दिया। |
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श्लोक 71: जब सारे वैष्णव खा चुके, तो वल्लभ भट्ट बहुत सी मालाएँ, चन्दन लेप, मसाले तथा पान ले आये। |
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श्लोक 72: रथयात्रा के उत्सव के दिन श्री चैतन्य महाप्रभु ने संकीर्तन प्रारम्भ किया। पहले की ही तरह उन्होंने सारे भक्तों को सात टोलियों में बाँट दिया। |
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श्लोक 73-74: अद्वैत, नित्यानन्द, हरिदास ठाकुर, वक्रेश्वर, श्रीवास ठाकुर, राघव पण्डित तथा गदाधर पण्डित - इन सात भक्तों ने सात टोलियाँ बना लीं और नाचने लगे। श्री चैतन्य महाप्रभु “हरि बोल!” कीर्तन करते हुए एक टोली से दूसरी टोली में विचरण करने लगे। |
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श्लोक 75: उच्च संकीर्तन के साथ - साथ चौदह मृदंग गूंजने लगे। हर टोली का एक - एक नर्तक था, जिसके प्रेमाविष्ट नृत्य से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आप्लावित हो उठा। |
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श्लोक 76: यह सब देखकर वल्लभ भट्ट पूर्णतया चकित थे। वे दिव्य आनन्द से विह्वल और अपने में खोए हुए थे। |
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श्लोक 77: तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने सबका नृत्य रुकवा दिया और पहले की तरह वे स्वयं नाचने लगे। |
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श्लोक 78: श्री चैतन्य महाप्रभु के सौन्दर्य तथा उनके प्रेमावेश का उदय देखकर वल्लभ भट्ट ने निष्कर्ष निकाला कि, “निस्सन्देह, ये भगवान् कृष्ण हैं।” |
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श्लोक 79: इस तरह वल्लभ भट्ट ने रथयात्रा उत्सव देखा। वे श्री चैतन्य महाप्रभु के चरित्र से चकित थे। |
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श्लोक 80: रथयात्रा समाप्त होने के बाद, एक दिन वल्लभ भट्ट श्री चैतन्य महाप्रभु के निवासस्थान पर गये और उनके चरणकमलों पर एक विनती की। |
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श्लोक 81: “मैंने श्रीमद्भागवत पर कुछ टीका लिखी है। क्या कृपा करके आप इसे सुनेंगे?” |
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श्लोक 82: महाप्रभु ने उत्तर दिया, “मैं श्रीमद्भागवत का अर्थ नहीं समझता। निस्सन्देह, मैं उसका अर्थ सुनने का सुपात्र नहीं हूँ।” |
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श्लोक 83: “मैं मात्र बैठकर कृष्ण के पवित्र नाम का जप करने का प्रयत्न करता हूँ और यद्यपि मैं रात - दिन नाम - जप करता हूँ, तो भी मैं नियत संख्या पूरी नहीं कर पाता।” |
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श्लोक 84: वल्लभ भट्ट ने कहा, “मैंने कृष्ण के पवित्र नाम के अर्थ की विस्तार से व्याख्या करने का प्रयास किया है। कृपया उस व्याख्या को सुनें।” |
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श्लोक 85: श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “मैं कृष्ण के पवित्र नाम के कई अलग - अलग अर्थ स्वीकार नहीं करता। मैं तो इतना ही जानता हूँ कि भगवान् कृष्ण श्यामसुन्दर तथा यशोदानन्दन हैं। बस, मैं इतना ही जानता हूँ।” |
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श्लोक 86: “कृष्ण के पवित्र नाम का एकमात्र तात्पर्य है कि वे तमाल वृक्ष की तरह गहरे नीले हैं और माता यशोदा के पुत्र हैं। यही समस्त प्रामाणिक शास्त्रों का निर्णय है।” |
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श्लोक 87: “मैं श्यामसुन्दर तथा यशोदानन्दन - इन्हीं दो नामों को निश्चित रूप से जानता हूँ। मैं कोई अन्य अर्थ नहीं समझता, न ही उनको समझने की मुझमें क्षमता है।” |
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श्लोक 88: श्री चैतन्य महाप्रभु सर्वज्ञ हैं, अतएव वे यह समझ गये कि वल्लभ भट्ट की कृष्ण के पवित्र नाम तथा श्रीमद्भागवत की व्याख्याएँ व्यर्थ हैं। अतएव उन्होंने उनकी परवाह नहीं की। |
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श्लोक 89: जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनकी व्याख्याएँ सुनने से साफ मना कर दिया, तो वल्लभ भट्ट खिन्न होकर अपने घर चले गये। महाप्रभु के प्रति उसकी श्रद्धा तथा भक्ति बदल गई। |
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श्लोक 90: तत्पश्चात् वल्लभ भट्ट गदाधर पण्डित के घर गये। वे विभिन्न प्रकार से स्नेह प्रदर्शित करके आते - जाते रहे और उनके साथ सम्बन्ध बनाये रखे। |
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श्लोक 91: चूँकि श्री चैतन्य महाप्रभु ने वल्लभ भट्ट को गम्भीरतापूर्वक ग्रहण नहीं किया, इसलिए जगन्नाथपुरी के किसी भी व्यक्ति ने उनकी कोई व्याख्या नहीं सुनी। |
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श्लोक 92: लज्जित, अपमानित तथा दुःखित वल्लभ भट्ट गदाधर पण्डित के पास गये। |
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श्लोक 93: उनके पास अत्यन्त विनीत भाव से पहुँचकर वल्लभ भट्ट ने कहा, “मान्यवर, मैंने आपकी शरण ले रखी है। आप मुझ पर कृपालु हों और मेरे प्राणों की रक्षा करें। |
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श्लोक 94: “कृपा करके आप कृष्णनाम के अर्थ की मेरी व्याख्या सुनें। इससे मेरे ऊपर जो लज्जा का कीचड़ पड़ा है, वह धुल सकेगा।” |
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श्लोक 95: इस तरह पण्डित गोसांई संकट में पड़ गये। वे ऐसे संशय में थे कि उनके लिए यह निश्चित कर पाना कठिन हो गया कि वे क्या करें। |
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श्लोक 96: यद्यपि गदाधर पण्डित गोसांई सुनना नहीं चाहते थे, किन्तु वल्लभ भट्ट अत्यन्त बलपूर्वक से अपनी व्याख्या पढ़ने लगे। |
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श्लोक 97: चूँकि वल्लभ भट्ट विद्वान ब्राह्मण थे, अतएव गदाधर पण्डित उन्हें रोक नहीं पाये। इस तरह उन्होंने कृष्ण का ध्यान किया। उन्होंने प्रार्थना की, “हे कृष्ण, इस संकट में मेरी रक्षा करें। मैं आपकी शरण में आया हूँ।” |
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श्लोक 98: “श्री चैतन्य महाप्रभु जन - जन के हृदय में विद्यमान हैं, अतः वे निश्चय ही मेरे मन की बात जान लेंगे। इसलिए मुझे उनसे भय नहीं है। किन्तु उनके संगी अत्यन्त आलोचना - पटु हैं।” |
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श्लोक 99: यद्यपि गदाधर पण्डित गोसांई का रंच भर भी दोष नहीं था, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु के कुछ भक्तों ने उनके प्रति स्नेहमय रोष प्रकट किया। |
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श्लोक 100: वल्लभ भट्ट प्रति दिन श्री चैतन्य महाप्रभु के स्थान पर आते और अद्वैत आचार्य तथा स्वरूप दामोदर जैसे महापुरुषों से व्यर्थ का तर्क करते थे। |
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श्लोक 101: वल्लभ भट्ट उत्सुकतापूर्वक जितने भी सिद्धान्त प्रस्तुत करते, उन सबका खण्डन अद्वैत आचार्य जैसे भक्त कर देते। |
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श्लोक 102: जब भी वल्लभ भट्ट अद्वैत आचार्य इत्यादि भक्तों की सभा में प्रवेश करते, वे श्वेत हंसों की सभा में बगुले जैसे प्रतीत होते। |
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श्लोक 103: एक दिन वल्लभ भट्ट ने अद्वैत आचार्य से कहा, “प्रत्येक जीव प्रकृति (स्त्री) है और वह कृष्ण को अपना पति मानता है।” |
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श्लोक 104: “पतिव्रता स्त्री का धर्म है कि वह अपने पति का नाम न ले, किन्तु आप सब लोग तो कृष्ण के नाम का उच्चारण करते हैं। इसे किस तरह धर्म कहा जा सकता है?” |
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श्लोक 105: अद्वैत आचार्य ने उत्तर दिया, “आपके समक्ष धर्म के साक्षात् मूर्तिमान् स्वरूप श्री चैतन्य महाप्रभु हैं। |
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श्लोक 106: यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “हे वल्लभ भट्ट, आप धर्म के सिद्धान्तों को नहीं जानते। वास्तव में पतिव्रता स्त्री का सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि वह अपने पति की आज्ञा का पालन करे।” |
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श्लोक 107: कृष्ण की आज्ञा है कि उनके नाम का निरन्तर कीर्तन हो। इसलिए जो स्त्री पतिरूप कृष्ण के परायण है, उसे भगवान् के नाम का कीर्तन करना चाहिए, क्योंकि वह अपने पति के आदेश का उल्लघंन नहीं कर सकती। |
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श्लोक 108: “इस धार्मिक सिद्धान्त का पालन करते हुए कृष्ण का शुद्ध भक्त सदैव उनके पवित्र नाम का कीर्तन करता है। इसके फलस्वरूप उसे कृष्ण - प्रेम का फल प्राप्त होता है।” |
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श्लोक 109: यह सुनकर वल्लभ भट्ट मूक हो गये। वे अत्यन्त दुःखी होकर घर लौट आये और इस तरह विचार करने लगे। |
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श्लोक 110-111: “मैं इस सभा में प्रति दिन पराजित हो जाता हूँ। यदि कदाचित् किसी दिन मैं विजयी हो जाऊँ, तो वह मेरे लिए सुख का महान् स्रोत होगा और मेरी सारी लज्जा जाती रहेगी। किन्तु अपने कथनों को स्थापित करने के लिए मैं किन साधनों को अपनाऊँ?” |
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श्लोक 112: अगले दिन जब वे श्री चैतन्य महाप्रभु की सभा में आये, तो महाप्रभु को नमस्कार करके वे बैठ गये और बड़े ही गर्व से कुछ कहने लगे। |
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श्लोक 113: उन्होंने कहा, “मैंने अपनी श्रीमद्भागवत की टीका में श्रीधर स्वामी की व्याख्याओं का खण्डन किया है। मैं उनकी व्याख्याओं को स्वीकार नहीं कर सकता।” |
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श्लोक 114: “श्रीधर स्वामी जो भी पढ़ते हैं, उसकी व्याख्या परिस्थिति के अनुसार करते हैं। इसलिए उनकी व्याख्या में एकरूपता नहीं है और उन्हें प्रामाणिक नहीं माना जा सकता।” |
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श्लोक 115: श्री चैतन्य महाप्रभु ने हँसते हुए उत्तर दिया, “जो व्यक्ति अपने स्वामी (पति) को अधिकारी नहीं मानता उसे मैं वेश्या समझता हूँ।” |
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श्लोक 116: यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त गम्भीर हो गये। वहाँ पर उपस्थित सारे भक्तों को यह कथन सुनकर अतीव सन्तोष हुआ। |
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श्लोक 117: श्री चैतन्य महाप्रभु सारे जगत् के लाभ हेतु अवतार के रूप में प्रकट हुए हैं। इस तरह वे वल्लभ भट्ट के मन को भलीभाँति जान चुके थे। |
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श्लोक 118: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने अनेक संकेतों तथा खण्डनों के द्वारा वल्लभ भट्ट को उसी तरह सुधारा, जिस तरह कृष्ण ने इन्द्र के मिथ्या दर्प को खण्डित किया था। |
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श्लोक 119: अज्ञानी जीव अपना वास्तविक हित नहीं पहचान पाता। अज्ञानता तथा भौतिक गर्व के कारण वह कभी - कभी हित को अहित मानता है, किन्तु जब उसका गर्व चूर हो जाता है, तो वह अपने वास्तविक हित को देख सकता है। |
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श्लोक 120: उस रात घर लौटकर वल्लभ भट्ट ने सोचा, “इसके पूर्व प्रयाग में श्री चैतन्य मुझ पर अत्यन्त दयालु थे। |
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श्लोक 121: उन्होंने अपने अन्य भक्तों सहित मेरा निमन्त्रण स्वीकार किया था और वे मुझ पर अत्यन्त कृपालु थे। यहाँ जगन्नाथपुरी में वे इतना अधिक क्यों बदल गये हैं? |
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श्लोक 122: “अपनी विद्या पर अत्यधिक गर्वित होकर मैं सोच रहा हूँ, ‘मुझे विजयी हो जाने दो।’ किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु मेरे इस मिथ्या गर्व को भंग करके मुझे शुद्ध बनाना चाह रहे हैं, क्योंकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का स्वभाव है कि वे हर एक के कल्याण के लिए कार्य करते हैं।” |
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श्लोक 123: मैं अपने आपको विद्वान पण्डित घोषित करके मिथ्या ही गर्वित हूँ। इसीलिए श्री चैतन्य महाप्रभु मेरे इस मिथ्या गर्व को चूर करके मुझ पर कृपा करने के लिए मेरा अपमान करते हैं। |
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श्लोक 124: “वे वास्तव में मेरे हित के लिए ऐसा कर रहे हैं, यद्यपि मैं उनके कार्यों को अपमान मानता हूँ। यह उसी घटना के तुल्य है, जिसमें भगवान् कृष्ण ने गर्वित महामूर्ख इन्द्र को सही रास्ते पर लाने के लिए उसके गर्व को चूर किया था।” |
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श्लोक 125: इस तरह सोचकर दूसरे दिन प्रातःकाल वल्लभ भट्ट श्री चैतन्य महाप्रभु के पास पहुँचे और अत्यन्त दीनता के साथ अनेक स्तुतियाँ करके उन्होंने महाप्रभु के चरणकमलों की शरण ग्रहण कर ली। |
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श्लोक 126: वल्लभ भट्ट ने स्वीकार किया, “मैं महामूर्ख हूँ और निसन्देह आपके समक्ष अपना पाण्डित्य प्रदर्शित करने का प्रयास करके मैंने मूर्ख जैसा आचरण किया है।” |
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श्लोक 127: “हे प्रभु, आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। आपने मेरा अपमान करकेमेरा समस्त मिथ्या गर्व चूर करने के लिए अपने पद के अनुकूल मुझ पर कृपा की है।” |
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श्लोक 128: “मैं अज्ञानी मूर्ख हूँ, क्योंकि जो मेरे हित के लिए है, उसे मैं अपमान मानता हूँ। इस प्रकार मैं राजा इन्द्र के समान हूँ, जिसने अज्ञानवश भगवान् कृष्ण को मात कर देना चाहा था।” |
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श्लोक 129: “हे प्रभु, आपने मेरी आँखों में अपनी कृपा का अंजन लगाकर मेरे मिथ्या गर्व के अन्धेपन को दूर कर दिया है। आपने मुझ पर इतनी कृपा की है कि अब मेरा अज्ञान समाप्त हो गया है।” |
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श्लोक 130: “हे प्रभु, मैंने अपराध किये हैं। कृपया आप मुझे क्षमा कर दें। मैं आपकी शरण में आया हूँ। कृपया अपने चरणकमलों को मेरे सिर पर रखकर आप मुझ पर कृपालु हों।” |
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श्लोक 131: श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “आप बहुत बड़े पण्डित तथा बहुत बड़े भक्त भी हो। जहाँ भी ऐसे दो गुण होते हैं, वहाँ मिथ्या गर्व का पर्वत नहीं रह सकता।” |
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श्लोक 132: “तुमने श्रीधर स्वामी की आलोचना करने का दुःस्साहस किया है। और उनकी प्रामाणिकता को न स्वीकार करके श्रीमद्भागवत पर अपनी टीका करनी शुरू की है। यही आपका मिथ्या गर्व है।” |
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श्लोक 133: “श्रीधर स्वामी सारे जगत् के गुरु हैं, क्योंकि उनकी कृपा से हम श्रीमद्भागवत को समझ सकते हैं। अतएव मैं उन्हें गुरु के रूप में मानता हूँ।” |
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श्लोक 134: “श्रीधर स्वामी से श्रेष्ठ बनने का प्रयास करते हुए मिथ्या गर्व से आप चाहे जो भी लिखो, उसका विपरीत तात्पर्य होगा। इसलिए उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं देगा।” |
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श्लोक 135: “जो व्यक्ति श्रीधर स्वामी के चरणचिह्नों का अनुगमन करते हुए श्रीमद्भागवत पर टीका लिखता है, उसका सभी लोग सम्मान करेंगे और वह सबके द्वारा मान्य होगी।” |
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श्लोक 136: “आप श्रीधर स्वामी के चरणचिह्नों का अनुगमन करते हुए श्रीमद्भागवत की अपनी व्याख्या प्रस्तुत करो। आप अपना मिथ्या गर्व त्याग दो और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा करो।” |
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श्लोक 137: “अपने अपराधों को छोड़कर हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करो। तब आप शीघ्र ही कृष्ण के चरणकमलों की शरण पा सकोगे।” |
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श्लोक 138: वल्लभ भट्ट आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रार्थना की, “यदि आप मुझ पर सचमुच प्रसन्न हैं, तो एक बार फिर मेरा निमन्त्रण स्वीकार कर लें।” |
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श्लोक 139: समस्त ब्रह्माण्ड का उद्धार करने के लिए अवतार लेने वाले श्री चैतन्य महाप्रभु ने वल्लभ भट्ट को सुख प्रदान करने हेतु उनका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। |
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श्लोक 140: श्री चैतन्य महाप्रभु इस भौतिक जगत् में हर एक को सुखी देखने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। इसलिए कभी - कभी वे किसी - किसी को दण्ड देते हैं, जिससे वह अपने हृदय को शुद्ध कर सके। |
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श्लोक 141: जब वल्लभ भट्ट ने श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों को निमन्त्रित किया, तो महाप्रभु उनसे अत्यधिक प्रसन्न थे। |
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श्लोक 142: श्री चैतन्य महाप्रभु के लिए जगदानन्द पण्डित का शुद्ध प्रेमभाव अत्यन्त प्रगाढ़ था। इसकी तुलना सत्यभामा के प्रेम से की जा सकती है, जो कृष्ण से सदैव झगड़ती रहती थीं। |
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श्लोक 143: जगदानन्द पण्डित में महाप्रभु से प्रेमपूर्ण झगड़ा करने की आदत थी। उन दोनों के बीच सदैव कुछ न कुछ खटपट चलती रहती थी। |
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श्लोक 144: गदाधर पण्डित का भी श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रति शुद्ध प्रेम अत्यन्त प्रगाढ़ था। यह प्रेम रुक्मिणी देवी जैसा था, जो सदैव कृष्ण के प्रति विनीत बनी रहती थीं। |
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श्लोक 145: श्री चैतन्य महाप्रभु कभी - कभी गदाधर पण्डित का स्नेहिल क्रोध (मान) देखना चाहते थे, किन्तु महाप्रभु के ऐश्वर्य का ज्ञान होने के कारण वे कभी रुष्ट नहीं होते थे। |
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श्लोक 146: इसी कारण से श्री चैतन्य महाप्रभु कभी - कभी ऊपरी रोष प्रकट करते थे। इस रोष को सुनकर गदाधर पण्डित के हृदय में महान् भय उत्पन्न हो जाता। |
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श्लोक 147: पहले, कृष्ण लीला में जब भगवान् कृष्ण ने रुक्मिणी देवी से परिहास किया था, तब उन्होंने उनके शब्दों को गम्भीरता से लिया, जिससे उनके मन में भय उत्पन्न हो गया। |
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श्लोक 148: वल्लभ भट्ट भगवान् कृष्ण की बाल रूप की पूजा किया करते थे। इसलिए उन्हें बालगोपाल मन्त्र की दीक्षा मिली थी और वे इसी रूप में भगवान् की पूजा करते थे। |
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श्लोक 149: गदाधर पण्डित की संगति से उनका मन बदल गया और उन्होंने किशोर गोपाल की पूजा में अपने मन को समर्पित कर दिया। |
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श्लोक 150: वल्लभ भट्ट गदाधर पण्डित से दीक्षा लेना चाहते थे, किन्तु गदाधर पण्डित ने यह कहकर मना कर दिया, “मेरे लिए गुरु के रूप में कार्य करना सम्भव नहीं है।” |
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श्लोक 151: “मैं पूरी तरह से परतन्त्र हूँ। मेरे प्रभु तो गौरचन्द्र श्री चैतन्य महाप्रभु हैं। मैं उनके आदेश के बिना स्वतन्त्र रूप से कुछ भी नहीं कर सकता।” |
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श्लोक 152: “हे वल्लभ भट्ट, मेरे यहाँ आपका आना श्री चैतन्य महाप्रभु को पसन्द नहीं है। इसलिए कभी - कभी वे मुझे दण्डित करने के लिए बोलते रहते हैं।” |
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श्लोक 153-154: इस तरह कुछ दिन बीत गये और जब अन्त में श्री चैतन्य महाप्रभु वल्लभ भट्ट पर प्रसन्न हुए, तो उन्होंने उनका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। तब महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर, जगदानन्द पण्डित तथा गोविन्द को गदाधर पण्डित को बुलाने के लिए भेजा। |
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श्लोक 155: रास्ते में स्वरूप दामोदर ने गदाधर पण्डित से कहा, “श्री चैतन्य महाप्रभु तुम्हारी परीक्षा लेना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने तुम्हारी उपेक्षा की है।” |
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श्लोक 156: “तुमने पलटकर उनकी उलाहना क्यों नहीं की? तुमने डरकर उनकी आलोचना क्यों सह ली?” |
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श्लोक 157: गदाधर पण्डित ने कहा, “भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु पूर्णतया स्वतन्त्र हैं। वे सर्वोच्च सर्वज्ञ पुरुष हैं। |
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श्लोक 158: “वे जो भी कहते हैं, उसे मैं शिरोधार्य करके सहन कर सकता हूँ। वे मेरे गुण तथा दोषों पर विचार करके स्वयं ही मुझ पर कृपालु होंगे।” |
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श्लोक 159: यह कहकर गदाधर पण्डित श्री चैतन्य महाप्रभु के पास गये और रोते हुए उनके चरणकमलों पर गिर पड़े। |
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श्लोक 160: कुछ - कुछ हँसते हुए महाप्रभु ने उनका आलिंगन किया और उनसे मधुर वचन कहे, जिससे अन्य लोग भी सुन सकें। |
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श्लोक 161: महाप्रभु ने कहा, “मैं तुम्हें उत्तेजित करना चाहता था, किन्तु तुम उत्तेजित नहीं हुए। निस्सन्देह, क्रोध में तुमने कुछ नहीं कहा ; प्रत्युत तुमने सब सह लिया। |
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श्लोक 162: “तुम्हारा मन मेरी युक्तियों से विचलित नहीं हुआ। प्रत्युत तुम अपनी सरलता में दृढ़ बने रहे। इस तरह तुमने मुझे खरीद लिया है।” |
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श्लोक 163: कोई भी व्यक्ति गदाधर पण्डित की भाव - भंगिमाओं तथा प्रेम का वर्णन नहीं कर सकता। इसलिए श्री चैतन्य महाप्रभु का दूसरा नाम ‘गदाधर प्राणनाथ’ अर्थात् ‘गदाधर पण्डित के प्राण है। |
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श्लोक 164: कोई कह नहीं सकता कि महाप्रभु गदाधर पण्डित पर कितने कृपालु हैं, किन्तु लोग महाप्रभु को गदाइर गौरांग अर्थात् “गदाधर पण्डित के गौरांग महाप्रभु” के रूप में जानते हैं। |
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श्लोक 165: कोई भी श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं को समझ नहीं सकता। वे गंगा के समान हैं, क्योंकि उनकी एक लीला से ही सैकड़ों हजारों शाखाएँ बहती हैं। |
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श्लोक 166: गदाधर पण्डित अपने सौम्य आचरण, अपने ब्राह्मण गुणों तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रति अपने दृढ़ प्रेम के लिए सारे जगत् में विख्यात हैं। |
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श्लोक 167: महाप्रभु ने मिथ्या गर्व के कीचड़ को साफ करके वल्लभ भट्ट को शुद्ध किया। ऐसे कार्यों से महाप्रभु ने अन्यों को भी शिक्षा दी। |
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श्लोक 168: वस्तुतः श्री चैतन्य महाप्रभु अपने हृदय के भीतर सदैव कृपालु रहते, किन्तु कभी - कभी वे अपने भक्तों की बाह्य रूप से उपेक्षा करते थे। अतः हमें उनके बाह्य लक्षणों में ही नहीं लगे रहना चाहिए, क्योंकि यदि हम ऐसा करेंगे, तो हमारा विनाश हो जायेगा। |
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श्लोक 169: श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ अगाध हैं। इन्हें कौन समझ सकता है? केवल वही इन लीलाओं को समझ सकता है, जिसकी उनके चरणकमलों में दृढ़ एवं अगाध भक्ति होती है। |
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श्लोक 170: अन्य दिन गदाधर पण्डित ने श्री चैतन्य महाप्रभु को भोजन पर बुलाया। महाप्रभु ने अपने संगियों सहित उनके घर पर भोजन किया। |
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श्लोक 171: वहीं पर वल्लभ भट्ट ने श्री चैतन्य महाप्रभु से अनुमति ली और गदाधर पण्डित से दीक्षा लेने की उनकी इच्छा पूरी हुई। |
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श्लोक 172: इस तरह मैंने वल्लभ भट्ट से महाप्रभु की भेंट का वर्णन किया। इस घटना को सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रति प्रेम का धन प्राप्त हो सकता है। |
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श्लोक 173: श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा उनकी कृपा की सदैव कामना करते हुए उनके चरणचिह्नों पर चलकर मैं कृष्णदास श्री चैतन्य चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ। |
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