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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  अन्त्य लीला  »  अध्याय 8: रामचन्द्र पुरी द्वारा महाप्रभु की आलोचना  » 
 
 
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने अमृत प्रवाह भाष्य में आठवें अध्याय का सारांश इस प्रकार दिया है : इस अध्याय में रामचन्द्र पुरी के साथ महाप्रभु के व्यवहार की कथा कही गई है। यद्यपि रामचन्द्र पुरी माधवेन्द्र पुरी का शिष्य था, किन्तु वह शुष्क मायावादियों द्वारा प्रभावित था, इसलिए वह माधवेन्द्र पुरी की आलोचना करता था। फलतः माधवेन्द्र पुरी ने उसे अपराधी कहकर तिरस्कृत कर दिया था। चूँकि रामचन्द्र पुरी अपने गुरु द्वारा तिरस्कृत हो चुका था, इसलिए वह केवल अन्यों में दोष निकालता रहता था और उन्हें शुष्क मायावाद दर्शन के अनुसार उपदेश देता था। इसी कारण से वह वैष्णवों का आदर नहीं करता था। बाद में वह इतना पतित हो गया कि श्री चैतन्य महाप्रभु के भोजन करने की भी आलोचना करने लगा। उसकी आलोचना सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने भोजन करना कम कर दिया, किन्तु रामचन्द्र पुरी जब जगन्नाथपुरी से चला गया तो महाप्रभु पूर्ववत् आचरण करने लगे।
 
 
श्लोक 1:  मैं उन श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ, जिन्होंने रामचन्द्र पुरी की आलोचना से डरकर अपना भोजन करना कम कर दिया।
 
श्लोक 2:  करुणा के सागर श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! उनके चरणकमलों की पूजा ब्रह्माजी तथा शिवजी जैसे देवता तक करते हैं।
 
श्लोक 3:  महानतम अवधूत श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो, जिन्होंने भगवद् प्रेम की गाँठ से सारे जगत् को बाँध दिया।
 
श्लोक 4:  पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के अवतार श्री अद्वैत प्रभु की जय हो! उन्होंने कृष्ण को अवतरित कराया और इस तरह सम्पूर्ण जगत् का उद्धार किया।
 
श्लोक 5:  श्रीवास ठाकुर इत्यादि समस्त भक्तों की जय हो! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उन सबके प्राण एवं जीवन हैं।
 
श्लोक 6:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथपुरी में निजी भक्तों के साथ कृष्ण - प्रेम की तरंगों में विविध लीलाएँ सम्पन्न कीं।
 
श्लोक 7:  तभी रामचन्द्र पुरी गोसांई नामक एक संन्यासी परमानन्द पुरी तथा श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने आया।
 
श्लोक 8:  परमानन्द पुरी ने रामचन्द्रपुरी के चरणों की वन्दना की और रामचन्द्र पुरी ने उनका गाढ़ आलिंगन किया।
 
श्लोक 9:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी रामचन्द्र पुरी को नमस्कार किया, जिसने महाप्रभु का आलिंगन किया और इस तरह कृष्ण का स्मरण किया।
 
श्लोक 10:  इन तीनों ने कुछ समय तक कृष्ण के विषय में बातें कीं और तब जगदानन्द पण्डित ने आकर रामचन्द्र पुरी को निमन्त्रण दिया।
 
श्लोक 11:  अधिक मात्रा में जगन्नाथ जी का प्रसाद वितरित करने के लिए लाया गया। रामचन्द्र पुरी ने डटकर भोजन किया, किन्तु उसके बाद वह जगदानन्द पण्डित के दोष ढूँढना चाहता था।
 
श्लोक 12:  भोजन कर लेने के बाद रामचन्द्र पुरी ने अनुरोध किया, “प्रिय जगदानन्द, जरा सुनो तो। तुम इस बचे हुए भोजन को खा लो।”
 
श्लोक 13:  रामचन्द्र पुरी ने अत्यन्त उत्सुकतापूर्वक जगदानन्द पण्डित को बैठाया और उन्हें स्वयं प्रसाद परोसा।
 
श्लोक 14:  बारम्बार अनुरोध करके रामचन्द्र पुरी ने उन्हें खूब खिलाया, किन्तु जब जगदानन्द हाथ - मुँह धो चुके, तो रामचन्द्र पुरी उनकी आलोचना करने लगा।
 
श्लोक 15:  उसने कहा, “मैंने सुना है कि श्री चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी आवश्यकता से अधिक खाते हैं। अब मैंने प्रत्यक्ष देख लिया है कि यह सच है।”
 
श्लोक 16:  “संन्यासी को अत्यधिक खिलाने से उसके नियम भंग हो जाते हैं, क्योंकि जब संन्यासी अत्यधिक भोजन करता है, तो उसका वैराग्य नष्ट हो जाता है।”
 
श्लोक 17:  रामचन्द्र पुरी का स्वभाव था कि वह पहले किसी को आवश्यकता से अधिक खिलाता था और बाद में उसकी आलोचना करता था।
 
श्लोक 18:  इसके पहले जब माधवेन्द्र पुरी अन्तिम साँसें गिन रहे थे, तब रामचन्द्र पुरी उनके स्थान पर आया।
 
श्लोक 19:  माधवेन्द्र पुरी कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन कर रहे थे और कभी - कभी रो रहे थे, “हे प्रभु, मुझे मथुरा में शरण नहीं मिली।”
 
श्लोक 20:  तब रामचन्द्र पुरी इतना मूर्ख था कि उसने निडर होकर अपने गुरु को उपदेश देने का दुस्साहस किया।
 
श्लोक 21:  उसने कहा, “यदि आप दिव्य आनन्द को प्राप्त हैं, तो आपको अब केवल ब्रह्म का स्मरण करना चाहिए। आप क्यों रो रहे हैं?”
 
श्लोक 22:  यह उपदेश सुनकर माधवेन्द्र पुरी अत्यधिक क्रुद्ध हुए और, “निकल जा, रे पापी!” कहकर उसको डाँटा।
 
श्लोक 23:  “हे भगवान् कृष्ण! मैं न तो आपके पास और न ही आपके धाम मथुरा पहुँच पाया। मैं अपने दुःख में मर रहा हूँ और उस पर यह मूढ़ अब मुझे और पीड़ा देने आया है।”
 
श्लोक 24:  “तुम मुझे अपना मुँह मत दिखाओ! तुम अन्यत्र जहाँ कहीं जाना चाहो, चले जाओ। यदि मैं तुम्हारा मुँह देखते हुए मरूँगा, तो मुझे जीवन का गन्तव्य प्राप्त नहीं हो सकेगा।
 
श्लोक 25:  “मैं कृष्ण की शरण पाये बिना मर रहा हूँ, इसलिए मैं अत्यधिक दुःखी हूँ। अब यह गर्हित मूर्ख मुझे ब्रह्म के विषय में उपदेश देने आया है।”
 
श्लोक 26:  इस तरह रामचन्द्र पुरी को माधवेन्द्र पुरी ने तिरस्कृत कर दिया। अपने अपराध के कारण उसके भीतर धीरे - धीरे भौतिक इच्छा उदित हुई।
 
श्लोक 27:  जो व्यक्ति शुष्क तर्कवितर्क में लगा रहता है, उसका कृष्ण से कोई सम्बन्ध नहीं रहता। उसका कार्य वैष्णवों की आलोचना करना रह जाता है। इस तरह वह आलोचना करने में लगा रहता है।
 
श्लोक 28:  श्री चैतन्य महाप्रभु के गुरु ईश्वर पुरी ने अपने हाथों से माधवेन्द्र पुरी का मलमूत्र साफ करके उनकी सेवा की।
 
श्लोक 29:  ईश्वर पुरी सदैव माधवेन्द्र पुरी को भगवान् कृष्ण का पवित्र नाम तथा उनकी लीलाएँ सुनाते थे। इस तरह उन्होंने माधवेन्द्र पुरी को तिरोधान के समय भगवान् कृष्ण के नाम तथा लीलाओं का स्मरण कराने में सहायता की।
 
श्लोक 30:  ईश्वर पुरी से प्रसन्न होकर माधवेन्द्र पुरी ने उनका आलिंगन किया और यह वर दिया कि वे कृष्ण के महान् भक्त तथा प्रेमी होंगे।
 
श्लोक 31:  इस तरह ईश्वर पुरी कृष्ण - प्रेम के सागर के तुल्य बन गये, जबकि रामचन्द्र पुरी शुष्क चिन्तक तथा हर एक का आलोचक बना।
 
श्लोक 32:  ईश्वर पुरी को माधवेन्द्र पुरी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ, जबकि रामचन्द्र पुरी को उनकी डाँट मिली।
 
श्लोक 33:  इस तरह समस्त संसार के गुरु, श्रीपाद माधवेन्द्र पुरी ने कृष्ण - प्रेम का दान किया। इस भौतिक जगत् से विदा लेते समय उन्होंने निम्नलिखित श्लोक का उच्चारण किया।
 
श्लोक 34:  “हे प्रभु! हे दीनदयाल स्वामी! हे मथुरापति! मैं कब आपको फिर से देखूँगी? आपको न देख पाने के कारण मेरा क्षुब्ध हृदय अस्थिर हो चुका है। हे मेरे परम प्रिय, मैं अब क्या करूँ?”
 
श्लोक 35:  इस श्लोक में माधवेन्द्र पुरी यह शिक्षा देते हैं कि किस तरह कृष्ण - प्रेम प्राप्त किया जाए। कृष्ण से विरह में व्यक्ति आध्यात्मिक पद को प्राप्त होता है।
 
श्लोक 36:  श्री माधवेन्द्र पुरी ने इस भौतिक जगत् में कृष्ण - प्रेम का बीज बोया और तब विदा ली। वही बीज बाद में श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में विशाल वृक्ष बन गया।
 
श्लोक 37:  संयोगवश मैंने माधवेन्द्र पुरी के तिरोधान का वर्णन किया है। जो भी इसे सुनता है, उसे अत्यन्त भाग्यशाली माना जाना चाहिए।
 
श्लोक 38:  इस तरह रामचन्द्र पुरी जगन्नाथ पुरी में ठहरा रहा। जैसाकि संन्यासियों में प्रथा है, कभी वे किसी स्थान पर रहते और फिर वहाँ से चले जाते।
 
श्लोक 39:  इसका कोई निश्चय नहीं रहता था कि रामचन्द्र पुरी कहाँ भोजन करेगा, क्योंकि वह अनिमन्त्रित होने पर भी ऐसा करता था। तो भी वह इस बात को सुनिश्चत करने में बहुत सतर्क रहता कि अन्य लोग कैसे भोजन करते हैं।
 
श्लोक 40:  श्री चैतन्य महाप्रभु को निमन्त्रित करने में 320 कौड़ियाँ व्यय होतीं। इससे श्री चैतन्य महाप्रभु तथा कभी - कभी काशीश्वर और गोविन्द इन तीनों का भोजन हो जाता।
 
श्लोक 41:  महाप्रभु नित्य अलग - अलग स्थानों में भोजन करते और यदि कोई भोजन का मूल्य चुकता करना चाहता, तो उसका मूल्य केवल चार पण निश्चित था।
 
श्लोक 42:  रामचन्द्र पुरी सभी तरह की सूचनाएँ एकत्र करने में लगा रहता कि श्री चैतन्य महाप्रभु कहाँ पर हैं, उनके नियम क्या हैं, वे कहाँ भोजन करते हैं, कहाँ सोते और कहाँ - कहाँ आते जा ते हैं।
 
श्लोक 43:  चूँकि रामचन्द्र पुरी केवल दोष निकालने में लगा रहता, इसलिए वह श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य गुणों को नहीं समझ सका। उसका एक मात्र कार्य दोष निकालना था, किन्तु फिर भी उसे कोई दोष नहीं मिल पाया।
 
श्लोक 44:  अन्त में उसने एक दोष ढूंढ निकाला। उसने कहा, “भला एक संन्यासी इतनी तरह की मिठाइयाँ कैसे खा सकता है? यदि वह मिठाइयाँ खाता है, तो उसके लिए इन्द्रियों को वश में रखना अत्यन्त कठिन होगा।”
 
श्लोक 45:  इस तरह रामचन्द्र पुरी सबके समक्ष महाप्रभु की निन्दा करता, किन्तु तो भी वह नित्यप्रति नियमपूर्वक महाप्रभु के दर्शनार्थ आता।
 
श्लोक 46:  जब वे दोनों मिलते, तो महाप्रभु उसे गुरु के गुरुभाई मानते हुए नमस्कार करते। किन्तु रामचन्द्र पुरी का कार्य महाप्रभु के दोषों को ढूँढना रहता।
 
श्लोक 47:  श्री चैतन्य महाप्रभु जानते थे कि रामचन्द्र पुरी सबके समक्ष उनकी आलोचना करता है, किन्तु जब भी वह महाप्रभु से भेंट करने आता, तो महाप्रभु उसका सभी प्रकार से सम्मान करते।
 
श्लोक 48:  एक दिन रामचन्द्र पुरी प्रातःकाल श्री चैतन्य महाप्रभु के स्थान पर आया। बहुत सी चींटियाँ देखकर महाप्रभु की आलोचना करने की दृष्टि से उसने कुछ कहा।
 
श्लोक 49:  उसने कहा, “गत रात्रि में यहाँ मिश्री थी, इसलिए यहाँ पर चींटियाँ घूम रही हैं। हाय, यह विरक्त संन्यासी ऐसी इन्द्रियतृप्ति में आसक्त है!” इस तरह कहकर वह उठा और चला गया।
 
श्लोक 50:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामचन्द्र पुरी द्वारा की जाने वाली निन्दा की अफवाहें तो सुन रखी थीं, किन्तु अब तो उन्होंने उसके मनगढंत आरोपों को प्रत्यक्ष सुना।
 
श्लोक 51:  चींटियाँ सामान्यतया यहाँ, वहाँ तथा सर्वत्र घूमती रहती हैं, किन्तु रामचन्द्र पुरी तो काल्पनिक दोष की ताक में था, अतएव उसने यह आरोप लगाते हुए महाप्रभु की आलोचना की कि उनके कमरे में मिठाइयाँ रही होंगी।
 
श्लोक 52:  यह आलोचना सुनने के बाद महाप्रभु को संशय तथा भय हुआ। इसलिए उन्होंने गोविन्द को बुलाकर इस प्रकार आदेश दिया।
 
श्लोक 53:  “आज से यह नियम होगा कि मैं जगन्नाथजी के प्रसाद का एक चौथाई मात्र तथा पाँच गण्डा मूल्य की सब्जियाँ ग्रहण किया करूँगा।”
 
श्लोक 54:  “यदि तुम इससे अधिक कुछ भी लाये, तो तुम मुझे यहाँ नहीं देखोगे।”
 
श्लोक 55:  गोविन्द ने यह सूचना सारे भक्तों को पहुँचा दी। जब उन्होंने इसे सुना, तो उन्हें लगा कि उनके सिरों पर वज्रपात हो गया है।
 
श्लोक 56:  सारे भक्तों ने यह कहकर रामचन्द्र पुरी को धिक्कारा, “यह पापी व्यक्ति यहाँ आया हुआ है और इसने हमारे प्राण ले लिये हैं।”
 
श्लोक 57-58:  उस दिन एक ब्राह्मण ने श्री चैतन्य महाप्रभु को निमन्त्रण दिया। जब गोविन्द ने केवल पाँच गण्डा मूल्य की सब्जियाँ तथा अन्नपात्र का एक चौथाई अन्न स्वीकार किया, तो उस ब्राह्मण ने निराशावश अपना माथा पीटा और चिल्लाया, “हाय! हाय!”
 
श्लोक 59:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने आधा चावल तथा आधी सब्जियाँ ही खाईं और जो बचा रहा, उसे गोविन्द ने ग्रहण किया।
 
श्लोक 60:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु तथा गोविन्द आधापेट भोजन करते। इसके कारण अन्य सारे भक्तों ने भोजन करना त्याग दिया।
 
श्लोक 61:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोविन्द तथा काशीश्वर को आज्ञा दी, “तुम दोनों अपना पेट भरने के लिए अन्यत्र भिक्षा ग्रहण कर सकते हो।”
 
श्लोक 62:  इस तरह से कुछ दिन अतीव दुःख में बीते। यह सब सुनकर रामचन्द्र पुरी श्री चैतन्य महाप्रभु के पास गया।
 
श्लोक 63:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामचन्द्र पुरी के चरणों की पूजा करके उसे नमस्कार किया। तब वह हँसा और महाप्रभु से बोला।
 
श्लोक 64:  रामचन्द्र पुरी ने परामर्श दिया, “यह संन्यासी का कर्तव्य नहीं है कि वह अपनी इन्द्रियों की तृप्ति करे।
 
श्लोक 65:  “मैंने सुना है कि आपने अपना भोजन आधा कर दिया है। मैं देख रहा हूँ कि आप दुर्बल हैं। ऐसा शुष्क वैराग्य भी संन्यासी का धर्म नहीं है।”
 
श्लोक 66:  संन्यासी तो अपने शरीर के पालन के लिए जितना चाहिए उतना ही खाता है, किन्तु वह अपनी भौतिक इन्द्रियों की तुष्टि नहीं करता। संन्यासी इसी तरह से अपने आध्यात्मिक ज्ञान में पूर्ण बनता है।
 
श्लोक 67-68:  “[भगवान् कृष्ण ने कहा:] ‘हे अर्जुन, जो अधिक खाता है या बहुत कम खाता है, जो अधिक सोता है और बहुत स्वप्न देखता है, अथवा जो पर्याप्त नहीं सोता, उसके योगी बनने की कोई सम्भावना नहीं है। जो खाने, सोने, आमोद - प्रमोद तथा कार्य करने के अभ्यास में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों से मुक्त रह सकता है।”
 
श्लोक 69:  तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने विनयपूर्वक निवेदन किया, “मैं एक नादान बालक के समान हूँ और आपके शिष्य के समान हूँ। यह मेरा बड़ा सौभाग्य है कि आप मुझे शिक्षा दे रहे हैं।”
 
श्लोक 70:  यह सुनकर रामचन्द्र पुरी उठा और चला गया। उसने विभिन्न स्रोतों से यह भी सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्त आधे पेट भोजन कर रहे हैं।
 
श्लोक 71:  अगले दिन, परमानन्द पुरी तथा अन्य भक्त अत्यन्त दीनता तथा विनयपूर्वक श्री चैतन्य महाप्रभु के पास पहुँचे।
 
श्लोक 72:  परमानन्द पुरी ने कहा, “मेरा गुरुभाई रामचन्द्र पुरी स्वभाव से बुरा आलोचक है। यदि आप उसके शब्दों के कारण भोजन करना त्यागते हैं, तो इससे क्या लाभ होगा?”
 
श्लोक 73:  “यह तो रामचन्द्र पुरी का स्वभाव है कि वह पहले किसी को पेट भर खाने देता है और यदि कोई आवश्यकता से अधिक नहीं खाता, तो बड़े यत्न से वह उसे खिलाकर रहता है।”
 
श्लोक 74:  “इस तरह वह किसी को भी आवश्यकता से अधिक खिलाता है। और तब प्रत्यक्ष आलोचना करता है कि, “तुम इतना अधिक खाते हो। तुम्हारे खजाने में कितना धन है?”
 
श्लोक 75:  “यही नहीं, संन्यासियों को इतना अधिक खिलाकर तुम उनके धर्म का विनाश करते हो। इसलिए मैं समझ सकता हूँ कि तुममें कोई उन्नति नहीं है।”
 
श्लोक 76:  यह तो रामचन्द्र पुरी का धंधा बन चुका है कि वह सदैव अन्यों के बारे में पूछताछ करता रहता है कि वे किस तरह खाते हैं और नित्य प्रति किस तरह का व्यवहार करते हैं।
 
श्लोक 77:  शास्त्रों में जिन दो प्रकार के कर्मों का निषेध हुआ है, वे ही उसके नित्य कर्म हैं।
 
श्लोक 78:  “मनुष्य को यह देखना चाहिए कि भौतिक प्रकृति तथा जीव के संयोग के फलस्वरूप यह ब्रह्माण्ड स्वभाव से कार्यशील है। इसलिए अन्यों के स्वभावों या कर्मों की न तो प्रशंसा करनी चाहिए, न आलोचना।”
 
श्लोक 79:  इन दो नियमों में से रामचन्द्र पुरी प्रशंसा करना छोड़कर पहले नियम का पालन करता है, किन्तु यह जानते हुए भी कि दूसरा नियम अधिक प्रमुख है, वह अन्यों की आलोचना करके उसकी उपेक्षा कर देता है।
 
श्लोक 80:  “पहले के और बाद के नियमों में से बाद का नियम ही अधिक महत्त्वपूर्ण है।”
 
श्लोक 81:  “एक आलोचक सैकड़ों अच्छे गुणों के होने पर भी उन पर विचार नहीं करता। प्रत्युत वह किसी न किसी चाल से उन गुणों में दोष निकाल लेता है।”
 
श्लोक 82:  “इसलिए किसी को रामचन्द्र पुरी के सिद्धान्तों का अनुगमन नहीं करना चाहिए। तो भी मुझे उसके विरुद्ध कुछ कहना पड़ रहा है, क्योंकि वह हमारे हृदयों को दुःखी कर रहा है।”
 
श्लोक 83:  “आपने रामचन्द्र पुरी की आलोचना के कारण ठीक से भोजन करना क्यों छोड़ दिया है? कृपया पहले की तरह निमन्त्रण स्वीकार करें। यही हम सबकी प्रार्थना है।”
 
श्लोक 84:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “आप सब लोग रामचन्द्र पुरी से रुष्ट क्यों हैं? वे संन्यास जीवन के स्वाभाविक सिद्धान्तों को बता रहे हैं। आप लोग उन्हें क्यों दोष दे रहे हैं?
 
श्लोक 85:  “एक संन्यासी के लिए जिह्वा की तुष्टि में लगना महान् अपराध है। संन्यासी का कर्तव्य है कि जितना शरीर और आत्मा को एक साथ रखने के लिए आवश्यक हो, उतना ही खाना चाहिए।”
 
श्लोक 86:  सबने मिलकर अनुनय - विनय की कि श्री चैतन्य महाप्रभु पूरा भोजन किया करें, तो भी महाप्रभु वैसा करने के लिए राजी नहीं हुए। प्रत्युत उन्होंने पहले का आधा ग्रहण करना स्वीकार करके उनके अनुरोध का उत्तर दिया।
 
श्लोक 87:  श्री चैतन्य महाप्रभु को निमन्त्रण देने के लिए आवश्यक भोजन का मूल्य दो पण कौड़ियाँ (160 कौड़ियाँ) निश्चित की गई और उस भोजन को दो व्यक्ति, तो कभी - कभी तीन व्यक्ति खाया करते।
 
श्लोक 88:  यदि ऐसा ब्राह्मण निमन्त्रण देता, जिसके घर का निमन्त्रण स्वीकार नहीं किया जा सकता था, तो उसे प्रसाद खरीदने के लिए दो पण कौड़ियाँ देनी होती थीं।
 
श्लोक 89:  जब ऐसा ब्राह्मण निमन्त्रण देता, जिसके घर का निमन्त्रण स्वीकार किया जा सकता था, तो वह ब्राह्मण प्रसाद का कुछ अंश खरीदता और शेष को अपने घर में तैयार करता।
 
श्लोक 90-91:  यदि किसी दिन श्री चैतन्य महाप्रभु को भोजन करने का निमन्त्रण अन्यों के यहाँ से मिला रहता और यदि गदाधर पण्डित, भगवान् आचार्य या सार्वभौम भट्टाचार्य उन्हें निमन्त्रण देते, तो श्री चैतन्य महाप्रभु को।
 
श्लोक 92:  श्री चैतन्य महाप्रभु का अवतार वस्तुतः भक्तों को सुख देने के लिए हुआ। इसीलिए समय तथा परिस्थिति के उपयुक्त उन्होंने व्यवहार किया।
 
श्लोक 93:  पूर्ण स्वतन्त्र होने के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु कभी सामान्य व्यक्ति की तरह आचरण करते और कभी अपना ईश्वरीय ऐश्वर्य प्रकट करते।
 
श्लोक 94:  वे कभी रामचन्द्र पुरी को अपना स्वामी मानते और अपने आपको उसका सेवक, तो कभी वे उसकी परवाह न करके उसे तिनके जैसा तुच्छ मानते।
 
श्लोक 95:  श्री चैतन्य महाप्रभु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् जैसा ही आचरण करते, जो किसी की भी बुद्धि की सीमा के परे होता। उन्होंने जो चाहा सो किया, किन्तु उनके सारे कार्य अतीव सुन्दर होते थे।
 
श्लोक 96:  इस प्रकार रामचन्द्र पुरी कुछ दिनों तक नीलाचल (जगन्नाथ पुरी) में रहा। फिर वह विभिन्न तीर्थस्थानों की यात्रा करने चला गया।
 
श्लोक 97:  भक्तगण रामचन्द्र पुरी को अपने सिर के भारी बोझ के समान मानते थे। अतएव जब वह जगन्नाथ पुरी से चला गया, तो वे अपने आपको अत्यन्त सुखी अनुभव करने लगे, मानो उनके सिर से भारी पत्थर का बोझ भूमि पर गिर गया हो।
 
श्लोक 98:  उसके चले जाने के बाद सब लोग पुनः सुखी हुए। श्री चैतन्य महाप्रभु सदा की तरह निमन्त्रण स्वीकार करने लगे और सामूहिक कीर्तन तथा नृत्य का नेतृत्व करने लगे। हर कोई बिना रोक - टोक प्रसाद स्वीकार करने लगा।
 
श्लोक 99:  यदि किसी का गुरु उसका तिरस्कार कर देता है, तो वह इतना पतित हो जाता है कि रामचन्द्र पुरी की तरह वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति भी अपराध करता है।
 
श्लोक 100:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामचन्द्र पुरी के अपराधों पर विचार नहीं किया, क्योंकि वे उसे अपना गुरु मानते थे। किन्तु उसके चरित्र ने हर एक को गुरु का अपमान करने के परिणाम के विषय में शिक्षा दी।
 
श्लोक 101:  श्री चैतन्य महाप्रभु का चरित्र अमृत से पूर्ण है। उसके विषय में सुनना कान तथा मन को अच्छा लगता है।
 
श्लोक 102:  मैं श्री चैतन्य महाप्रभु के चरित्र के विषय में लिख रहा हूँ। हे पाठकों, कृपया ध्यान से इसे सुनो, क्योंकि इससे तुम श्रीकृष्ण के चरणकमलों में परमानन्दमय प्रेम सरलता से प्राप्त कर सकोगे।
 
श्लोक 103:  श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए उनके चरणचिह्नों पर चलकर मैं कृष्णदास श्री चैतन्य चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
 
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  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
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