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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  अन्त्य लीला  »  अध्याय 9: गोपीनाथ पट्टनायक का उद्धार  » 
 
 
 
 
नौंवे अध्याय का सारांश इस प्रकार है। भवानन्द राय का पुत्र गोपीनाथ पट्टनायक सरकारी नौकरी में था, किन्तु उसने कोषागार से कुछ धन आत्मसात् कर लिया। इसलिए राजा प्रतापरुद्र के सबसे बड़े - पुत्र बड़ जाना ने उसे मृत्युदण्ड का आदेश दे दिया। फलस्वरूप गोपीनाथ पट्टनायक को मारने के लिए चांग पर चढ़ाया गया, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से उसका उद्धार हो गया। यही नहीं , उसे उच्चतर पद प्राप्त हुआ।
 
 
श्लोक 1:  श्री चैतन्य महाप्रभु के असंख्य गौरवान्वित अनुयायियों ने अभागे जनों के मरुस्थल जैसे हृदयों में भावमय प्रेम की बाढ़ ला दी।
 
श्लोक 2:  सर्वाधिक कृपालु अवतार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय हो! भगवान् नित्यानन्द की जय हो, जिनका हृदय सदैव करुणापूरित रहता है!
 
श्लोक 3:  श्री अद्वैत आचार्य की जय हो, जो अत्यन्त दयामय हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो, जो दिव्य आनन्द से सदैव अभिभूत रहते हैं।
 
श्लोक 4:  इस तरह अपने भक्तों के साथ सदैव कृष्ण – प्रेम में निमग्न श्री चैतन्य महाप्रभु नीला चल (जगन्नाथ पुरी) में रहे।
 
श्लोक 5:  श्री चैतन्य महाप्रभु सदैव बाहर तथा भीतर से कृष्ण - वियोग की तरंगों का अनुभव करते रहते थे। उनका मन तथा शरीर सदैव विभिन्न आध्यात्मिक विकारों से क्षुब्ध रहता था।
 
श्लोक 6:  दिन में वे कीर्तन करते, नृत्य करते और मन्दिर में भगवान जगन्नाथ का दर्शन करते थे।
 
श्लोक 7:  तीनों लोकों से लोग श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने आते थे। जो भी उन्हें देखता, वह कृष्ण - प्रेम का दिव्य धन प्राप्त करता था।
 
श्लोक 8:  सातों उच्चतर लोकों के निवासी जिनमें देवता, गन्धर्व तथा किन्नर सम्मिलित थे तथा सातों अधोलोकों (पाताल लोक) के निवासी, जिनमें असुर तथा सर्प सम्मिलित थे, मनुष्य के वेश में श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने आते थे।
 
श्लोक 9:  सात द्वीप तथा नौ खण्ड़ों से लोग विभिन्न वेशों में श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने आते थे।
 
श्लोक 10:  प्रह्लाद महाराज, बलि महाराज, श्रील व्यासदेव, शुकदेव गोस्वामी तथा अन्य अनेक बड़े - बड़े मुनि श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने आते। उनके दर्शन पाकर वे कृष्ण - प्रेम में अचेत हो जाते।
 
श्लोक 11:  श्री चैतन्य महाप्रभु को न देख सकने के कारण जनता उनके कमरे के बाहर तुमुल ध्वनि करती। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु बाहर आते और उनसे कहते, “हरे कृष्ण का कीर्तन करो।”
 
श्लोक 12:  सभी तरह के लोग महाप्रभु का दर्शन करने आते और उन्हें देखने के बाद वे कृष्ण - प्रेम में विभोर हो जाते। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु अपने दिन और रातें व्यतीत करते रहे।
 
श्लोक 13:  एक दिन सहसा लोग श्री चैतन्य महाप्रभु के पास आये और उन्हें बतलाया कि, “भवानन्द राय के पुत्र गोपीनाथ पट्टनायक को राजा के ज्येष्ठ पुत्र बड़जाना ने मृत्यु - दण्ड दे दिया है और उसे चाँग पर चढ़ा दिया गया है।
 
श्लोक 14:  उन्होंने बतलाया कि, “बड़ - जाना ने चबूतरे के नीचे तलवारें लगा दी हैं, जिन पर गोपीनाथ को फेंक दिया जायेगा। हे प्रभु, यदि आप रक्षा करें तभी वह बच सकता है।
 
श्लोक 15:  “भवानन्द राय तथा उनका सारा परिवार आपके सेवक हैं। इसलिए यह सर्वथा उपयुक्त होगा कि आप भवानन्द राय के पुत्र को बचा लें।”
 
श्लोक 16:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा, “राजा उसे क्यों दण्ड दे रहा है?” इस पर लोगों ने सारी घटना कह सुनाई।
 
श्लोक 17:  उन्होंने कहा, “रामानन्द राय का भाई गोपीनाथ पट्टनायक सदा से सरकार का खजांची रहा है।
 
श्लोक 18:  “वह मा लञाळ्या दण्डपाट नामक स्थान में नौकरी करता था, वहीं वह संग्रह कर धन (राजस्व) एकत्र करता था और उसे सरकारी खजाने में जमा करता था।
 
श्लोक 19:  “एक बार जब उसने एकत्र की गई राशि जमा की, तो दो लाख काहन कौड़ियाँ उस पर बकाया रह गई। इसलिए राजा ने वह राशि माँगी।
 
श्लोक 20:  “गोपीनाथ पट्टनायक ने उत्तर दिया, “मेरे पास धन नहीं कि मैं आपको तुरन्त नकद दे सकें। कृपया मुझे कुछ समय दीजिये। मैं धीरे - धीरे अपना सामान बेचकर आपके खजाने में यह राशि जमा कर दूँगा।
 
श्लोक 21:  “मेरे पास दस - बारह अच्छे घोड़े हैं। आप उन्हें उचित मूल्य पर तुरन्त ले लें। ” यह कहकर वह सारे घोड़े राजा के द्वार पर ले आया।
 
श्लोक 22:  “राजकुमारों में से एक यह जानता था कि घोड़ों का ठीक से मूल्य कैसे आँका जाता है। इसलिए राजा ने उसे अपने मन्त्रियों तथा मित्रों के साथ आने के लिए बुला भेजा।
 
श्लोक 23:  किन्तु उस राजकुमार ने जानबूझकर घोड़ों के मूल्य का अनुमान घटा दिया। जब गोपीनाथ पट्टनायक ने लगाया हुआ मूल्य सुना, तो वह अत्यधिक क्रुद्ध हुआ।
 
श्लोक 24:  “उस राजकुमार को अपनी गर्दन घुमाने तथा आकाश की ओर ताकने की तथा बार - बार इधर - उधर देखने की आदत थी।
 
श्लोक 25:  “गोपीनाथ पट्टनायक ने उस राजकुमार की आलोचना की। वह उस राजकुमार से भयभीत नहीं था, क्योंकि राजा उस पर अत्यन्त दयालु रहता था।
 
श्लोक 26:  “गोपीनाथ पट्टनायक ने कहा, ‘मेरे घोड़े कभी अपनी गर्दन नहीं मोड़ते या ऊपर नहीं देखते। इसलिए उनके मूल्य कम नहीं किये जाने चाहिए।’
 
श्लोक 27:  यह आलोचना सुनकर राजकुमार अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। राजा के पास आकर उसने गोपीनाथ पट्टनायक के विरुद्ध कुछ झूठे आरोप लगाये।
 
श्लोक 28:  उसने कहा, “यह गोपीनाथ पट्टनायक बकाया लौटाना नहीं चाहता। उल्टे वह बहाना करके उसे बुरी तरह से लुटा रहा है। यदि आप आदेश जारी कर दें, तो मैं उसे चाँग पर चढ़ाकर उससे धन वसूल कर सकता हूँ।
 
श्लोक 29:  “राजा ने उत्तर दिया, “तुम जिस उपाय को सर्वश्रेष्ठ समझो, वही अपनाओ। तुम जिस भी उपाय से धन संग्रह कर सको वही उचित है।
 
श्लोक 30:  इस तरह राजकुमार लौट गया, उसने गोपीनाथ पट्टनायक को चाँग के चबूतरे पर चढ़ा दिया और उसके नीचे तलवारें फैला दीं, जिन पर उसे फेंका जाना था।”
 
श्लोक 31:  इस विवरण को सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्नेहमय क्रोध से उत्तर दिया। महाप्रभु ने कहा, “गोपीनाथ पट्टनायक राजा को धन नहीं लौटाना चाहता, तो फिर उसे दण्डित करने में राजा का क्या दोष है?
 
श्लोक 32:  “गोपीनाथ पट्टनायक सरकार की ओर से धन संग्रह करने का भार लिये हुए है, किन्तु वह इसका दुरुपयोग करता है। वह राजा से डरे बिना नर्तकी युवतियों को देखने में धन लुटा देता है।
 
श्लोक 33:  यदि कोई बुद्धिमान है, तो वह सरकार की नौकरी करे और सरकार का धन चुकता करने के बाद जो धनराशि बचे, उसे वह खर्च कर सकता है।”
 
श्लोक 34:  उसी समय एक अन्य व्यक्ति शीघ्र यह सन्देश लेकर आया कि वाणीनाथ राय सपरिवार बन्दी बना लिया गया है।
 
श्लोक 35:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “राजा निश्चित रूप से स्वयं बकाया धनराशि संग्रह करेगा।
 
श्लोक 36:  तभी स्वरूप दामोदर गोस्वामी इत्यादि सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़े और सबों ने निम्नलिखित याचना की।
 
श्लोक 37:  “रामानन्द राय के परिवार के सारे सदस्य आपके सनातन सेवक हैं। अब वे संकट में हैं।
 
श्लोक 38:  यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु क्रुद्ध मुद्रा में बोले - “तुम लोग मुझे आज्ञा देना चाहते हो कि मैं राजा के पास जाऊँ।”
 
श्लोक 39:  “तुम लोगों का मत है कि मैं राजा के महल में जाऊँ और उससे धन माँगने के लिए अपना वस्त्र फैलाऊँ।
 
श्लोक 40:  “निस्सन्देह, एक संन्यासी या ब्राह्मण पाँच गण्डे तक माँग सकता है, किन्तु उसे दो लाख काहन कौड़ियों की अनुपयुक्त राशि क्यों दी जाय?”
 
श्लोक 41:  तब एक अन्य व्यक्ति यह समाचार लेकर आया कि गोपीनाथ को तलवारों की नोकों पर फेंकने के लिए पूरी प्रस्तुति हो गई है।
 
श्लोक 42:  यह समाचार सुनकर सारे भक्तों ने फिर से महाप्रभु से याचना की, किन्तु महाप्रभु ने उत्तर दिया, “मैं तो एक भिक्षुक हूँ। इस विषय में कुछ भी करना मेरे लिए सम्भव नहीं है।”
 
श्लोक 43:  “इसलिए यदि तुम लोग उसे बचाना चाहते हो, तो तुम सबों को मिलकर भगवान जगन्नाथ के चरणकमलों पर प्रार्थना करनी चाहिए।
 
श्लोक 44:  “भगवान् जगन्नाथ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। उनमें सारी शक्तियाँ हैं। इसलिए वे स्वतन्त्र होकर कर्म कर सकते हैं और जो चाहें बना सकते हैं या बिगाड़ सकते हैं।”
 
श्लोक 45:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस प्रकार उत्तर दिया, तब हरिचन्दन पात्र नामक एक अधिकारी ने राजा के पास जाकर यह कहा।
 
श्लोक 46:  उसने कहा, “गोपीनाथ पट्टनायक आपका आज्ञाकारी सेवक है। एक सेवक को प्राणदण्ड देना उचित आचरण नहीं है।
 
श्लोक 47:  “उसका इतना ही दोष है कि उस पर सरकार का कुछ बकाया है। किन्तु यदि उसे मार डाला जाता है, तो इससे क्या लाभ होगा? सरकार तो घाटे में रहेगी, क्योंकि तब उसे धन नहीं मिल पायेगा।
 
श्लोक 48:  “अच्छा यह होगा कि घोड़ों को उचित मूल्य पर ले लिया जाय और शेष राशि उसे धीरे - धीरे चुकता करने दिया जाय। आप उसे व्यर्थ क्यों प्राणदण्ड दे रहे हैं?”
 
श्लोक 49:  राजा ने आश्चर्यपूर्वक उत्तर दिया, “मैं इसके बारे में कुछ नहीं जानता। उसके प्राण क्यों लिये जायें? मैं तो उससे केवल धन चाहता हूँ।
 
श्लोक 50:  “वहाँ जाओ और सब कुछ व्यवस्थित कर लो। मैं तो द्रव्य चाहता हूँ, उसके प्राण नहीं।”
 
श्लोक 51:  तब हरिचन्दन लौट आया और राजकुमार को राजा की इच्छा बललाई। गोपीनाथ पट्टनायक को तुरन्त ही चाँग से उतार लिया गया।
 
श्लोक 52:  तब उसे बताया गया कि राजा ने उससे बकाया राशि की माँग की है और पूछा गया कि वह चुकता करने के लिए कौन सा उपाय करेगा। उसने उत्तर दिया, “कृपया उचित मूल्य पर मेरे घोड़े ले लीजिये।”
 
श्लोक 53:  “मैं धीरे - धीरे शेष राशि चुकता कर दूँगा। किन्तु आप बिना विचार किये मेरे प्राण लेने जा रहे थे। भला मैं क्या कह सकता हूँ?”
 
श्लोक 54:  तब सरकार ने उचित मूल्य पर सारे घोड़े ले लिये, शेष राशि चुकाने के लिए समय निर्धारित कर दिया गया और गोपीनाथ पट्टनायक को मुक्त कर दिया गया।
 
श्लोक 55:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने सन्देशवाहक से पूछा, “जब वाणीनाथ को बन्दी बनाकर वहाँ लाया गया, तब वह क्या कर रहा था?”
 
श्लोक 56:  सन्देशवाहक ने उत्तर दिया, “वह निर्भय होकर लगातार महामन्त्र का - हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे का - कीर्तन कर रहा था।
 
श्लोक 57:  उसने दोनों हाथों की अंगुलियों पर जप की गिनती की और जब वह एक हजार बार जप पूरा कर लेता, तो वह अपने शरीर पर एक चिह्न बना लेता।”
 
श्लोक 58:  यह समाचार सुनकर महाप्रभु अतीव प्रसन्न हुए। भला अपने भक्त पर महाप्रभु की कृपा को कौन समझ सकता है?
 
श्लोक 59:  उसी समय काशी मिश्र श्री चैतन्य महाप्रभु के आवास पर आये और महाप्रभु उनसे कुछ उद्वेग के साथ बातें करते रहे।
 
श्लोक 60:  महाप्रभु ने कहा, “अब मैं यहाँ और अधिक नहीं ठहर सकता। मैं आलालनाथ जाऊँगा।
 
श्लोक 61:  “भवानन्द राय के परिवार के सारे सदस्य सरकारी नौकरी में लगे हैं, किन्तु वे सरकारी धन का व्यय नाना प्रकार से करते हैं।
 
श्लोक 62:  “राजा का इसमें क्या दोष है? वह तो सरकार का धन चाहता है। किन्तु जब वे सरकार को जो देय है चुकता नहीं करते, तो दण्डित होते हैं, और वे मेरे पास छुड़वाने के लिए आते हैं।
 
श्लोक 63:  “जब राजा ने गोपीनाथ पट्टनायक को चाँग पर चढ़ाया, तो सन्देशवाहक मुझे इस घटना के विषय में बताने के लिए चार बार आये।
 
श्लोक 64:  “मैं भिक्षुक संन्यासी के रूप में एकान्त स्थान में अकेला रहना चाहता हूँ, किन्तु ये लोग अपना दुःख मुझे बताने चले आते हैं और मुझे क्षुब्ध करते हैं।
 
श्लोक 65:  “आज जगन्नाथ जी ने उसे एक बार मृत्यु से बचा लिया है, किन्तु यदि कल वह पुनः खजाने की बकाया राशि को नहीं चुकता, तो उसे कौन संरक्षण देगा?
 
श्लोक 66:  “यदि मैं भौतिकतावादी व्यक्तियों के कार्यों के विषय में सुनता हूँ, तो मेरा मन क्षुब्ध हो उठता है। यहाँ पर मेरे रुकने तथा इस तरह से क्षुब्ध होने की कोई आवश्यकता नहीं है।”
 
श्लोक 67:  काशी मिश्र ने महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लिये और कहा, “आप इन बातों से क्षुब्ध क्यों होते हैं? सन्यासी विरक्त तोमार का - सने सम्बन्ध?
 
श्लोक 68:  “आप विरक्त संन्यासी हैं। आपके सम्बन्ध ही क्या हैं? जो व्यक्ति किसी भौतिक उद्देश्य से आपकी पूजा करता है, वह समस्त ज्ञान के प्रति अन्धा है।”
 
श्लोक 69:  काशी मिश्र ने आगे कहा, “यदि आपकी तुष्टि के लिए कोई भक्ति में लगता है, तो फलस्वरूप उसमें आपके प्रति सुप्त प्रेम का अधिकाधिक उदय होगा। किन्तु यदि वह भौतिक उद्देश्यों के लिए आपकी भक्ति करता है, तो उसे पक्का मूर्ख समझना चाहिए।
 
श्लोक 70:  आपके लिए ही रामानन्द राय ने दक्षिण भारत का राज्यपाल पद (गवर्नरी) और सनातन गोस्वामी ने मन्त्री पद का परित्याग किया।
 
श्लोक 71:  “आपके लिए ही रघुनाथ दास ने अपने पारिवारिक सम्बन्ध त्याग दिये। उसके पिता ने उसकी सेवा के लिए यहाँ धन तथा जन भेजे थे।
 
श्लोक 72:  फिर भी चूंकि उसे आपके चरणकमलों की कृपा प्राप्त हो चुकी है, इसलिए उसने अपने पिता का धन नहीं लिया है। उल्टे वह लंगर से भीख माँगकर भोजन करता है।
 
श्लोक 73:  “गोपीनाथ पट्टनायक अच्छा भद्र व्यक्ति है। वह आपसे भौतिक लाभ की इच्छा नहीं करता।
 
श्लोक 74:  “यह गोपीनाथ नहीं था जिसने उन सारे व्यक्तियों को इसलिए भेजा कि आप उसे दयनीय दशा से मुक्त करा दें, प्रत्युत उसके मित्रों तथा सेवकों ने उसकी क्लेशग्रस्त अवस्था देखकर आपको सूचित किया था, क्योंकि उन सबों को ज्ञात था कि गोपीनाथ आपका शरणागत है।
 
श्लोक 75:  “गोपीनाथ पट्टनायक शुद्ध भक्त है और वह आपकी पूजा केवल आपकी तुष्टि के लिए करता है। वह अपने सुख या दुःख की तनिक भी परवाह नहीं करता, क्योंकि यह तो भौतिकतावादी का कार्य है।
 
श्लोक 76:  जो व्यक्ति चौबीसों घण्टे आपकी सेवा में एकमात्र आपकी कृपा की कामना करते हुए लगा रहता है, वह शीघ्र ही आपके चरणकमलों की शरण प्राप्त करेगा।
 
श्लोक 77:  “जो आपकी कृपा की कामना करता है और इस तरह अपने विगत कर्मों के फलस्वरूप सारी विपरीत परिस्थितियों को सहता है, जो अपने मन, वाणी तथा शरीर से आपकी भक्ति में सदा लगा रहता है और जो आपको सदैव नमस्कार करता है, वह निश्चय ही आपका अनन्य भक्त होने के लिए सही पात्र है।
 
श्लोक 78:  “आप कृपा करके यहाँ जगन्नाथपुरी में रहें। आप आलालनाथ क्यों जायें? अब से कोई भी व्यक्ति आपके पास भौतिक विषयों के लिए नहीं आयेगा।”
 
श्लोक 79:  अन्त में काशीमिश्र ने महाप्रभु को बतलाया, “यदि आप गोपीनाथ को संरक्षण प्रदान करना चाहते हैं, तो भगवान जगन्नाथ भविष्य में भी उसी तरह उसकी रक्षा करते रहेंगे, जिस प्रकार कि आज उन्होंने की है।”
 
श्लोक 80:  यह कहकर काशी मिश्र श्री चैतन्य महाप्रभु के स्थान से अपने मन्दिर लौट गये। दोपहर में राजा प्रतापरुद्र काशी मिश्र के घर आये।
 
श्लोक 81:  जब तक राजा प्रतापरुद्र पुरुषोत्तम में रहे, उन्होंने एक कार्य नियमपूर्वक किया।
 
श्लोक 82:  वे नित्य काशी मिश्र के घर उनके चरणकमलों को दबाने आते थे। वे उनसे यह भी सुनते कि भगवान् जगन्नाथ की सेवा कितनी भव्यता से की जाती है।
 
श्लोक 83:  जब राजा काशी मिश्र के पाँव दबाने लगे, तब उन्होंने राजा से संकेत द्वारा कुछ बतलाया।
 
श्लोक 84:  उन्होंने कहा, “हे राजन्, एक असामान्य बात सुनिये। श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी छोड़कर आलालनाथ जाना चाहते हैं।”
 
श्लोक 85:  जब राजा ने सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु आलालनाथ जा रहे हैं, तो वह अत्यन्त दुःखी हुआ और उसने इसका कारण पूछा। तब काशी मिश्र ने सारी बातें बताईं।
 
श्लोक 86:  उन्होंने कहा, “जब गोपीनाथ पट्टनायक को चांग पर चढ़ाया गया, तो उसके सारे सेवक श्री चैतन्य महाप्रभु को बताने गये।
 
श्लोक 87:  “यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु मन में अत्यधिक दुःखी हुए और क्रोध में आकर उन्होंने गोपीनाथ पट्टनायक की भर्त्सना की।
 
श्लोक 88:  महाप्रभु ने कहा: “चूंकि वह इन्द्रियतृप्ति के पीछे पागल रहता है, इसलिए वह सरकारी नौकर के रूप में कार्य करता है, किन्तु वह सरकारी लगान (राजस्व) का व्यय विविध पापकर्मों में करता है।
 
श्लोक 89:  “सरकारी राजस्व ब्राह्मण की सम्पत्ति से अधिक पवित्र है। जो सरकारी धन को आत्मसात् करता है और इसे इन्द्रियतृप्ति के लिए व्यवहार में लाता है, वह सबसे बड़ा पापी है।
 
श्लोक 90:  “जो व्यक्ति सरकारी नौकरी करता है, किन्तु सरकारी राजस्व की चोरी करता है, वह राजा द्वारा दण्डनीय है। यही समस्त शास्त्रों का मत है।
 
श्लोक 91:  “राजा अपना राजस्व का भुगतान चाहता था। वह बलात् दण्ड देना नहीं चाहता था।
 
श्लोक 92:  वह राजा को राजस्व नहीं देता, किन्तु छूटने के लिए मेरी सहायता चाहता है। यह तो बहुत ही पापमय कृत्य है। यहाँ पर मैं इसे सहन नहीं कर सकता।
 
श्लोक 93:  “इसलिए मैं जगन्नाथपुरी छोड़ दूँगा और आलालनाथ जाऊँगा, जहाँ मैं शान्तिपूर्वक रहूँगा और भौतिकतावादी लोगों की ये सब बातें नहीं सुनूँगा।”
 
श्लोक 94:  जब राजा प्रतापरुद्र ने ये सारी बातें सुनीं, तो उसके मन में बहुत वेदना हुई। उसने कहा, “गोपीनाथ पर जो भी बकाया है, उसे मैं छोड़ दूँगा, यदि श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में रहें।
 
श्लोक 95:  “यदि क्षण भर के लिए भी श्री चैतन्य महाप्रभु से मेरा साक्षात्कार हो सके, तो मैं करोड़ों चिन्तामणियों के लाभ की भी परवाह नहीं करूँगा।
 
श्लोक 96:  “मुझे दो लाख काहन जैसी इस छोटी राशि की परवाह नहीं है। इसकी क्या बात है, मैं तो शहाप्रभु के चरणों पर अपना प्राण और राज्य समेत सर्वस्व समर्पित कर सकता हूँ।”
 
श्लोक 97:  काशी मिश्र ने राजा को इंगित किया, “महाप्रभु नहीं चाहते कि आप अपना बकाया (प्राप्य) छोड़ दें। वे तो मात्र इसलिए दुःखी हैं कि सारा परिवार दुःखी है।
 
श्लोक 98:  राजा ने उत्तर दिया, “मैं गोपीनाथ पट्टनायक तथा उसके परिवार को न तो दुःख देना चाहता था, न ही मुझे इसका पता था कि उसे चांग पर चढ़ाकर और तलवारों पर फेंककर मार डाला जायेगा।
 
श्लोक 99:  उसने पुरुषोत्तम जाना का परिहास किया। इसलिए राजकुमार ने दण्ड स्वरूप उसे त्रास देना चाहा था।
 
श्लोक 100:  “आप स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु के पास जायें और यत्नपूर्वक उन्हें जगन्नाथपुरी में रखें।
 
श्लोक 101:  काशी मिश्र ने कहा, “गोपीनाथ पट्टनायक का कर्ज माफ कर देने से महाप्रभु दुःखी होंगे, क्योंकि यह उनका आशय नहीं है।”
 
श्लोक 102:  राजा ने कहा, “मैं गोपीनाथ पट्टनायक का सारा ऋण समाप्त कर दूँगा, किन्तु इसकी चर्चा महाप्रभु से न करें। उन्हें केवल इतना बतलायें कि भवानन्द राय के सारे पारिवारिक जन तथा गोपीनाथ पट्टनायक मेरे प्रिय मित्र हैं।
 
श्लोक 103:  “भवानन्द राय मेरी पूजा तथा सम्मान के योग्य हैं। अतएव मैं उसके पुत्रों के प्रति सहज ही स्नेहिल हूँ।”
 
श्लोक 104:  काशी मिश्र को नमस्कार करके राजा अपने महल को चला गया। उसने गोपीनाथ और अपने ज्येष्ठ राजकुमार को बुलवाया।
 
श्लोक 105:  राजा ने गोपीनाथ पट्टनायक से कहा, “तुम खजाने के जितने धन के ऋणी हो, वह सब माफ किया जाता है और तुम्हें मालञाठ्य दण्डपाट नामक स्थान पुनः वसूली के लिए दिया जाता है।
 
श्लोक 106:  “अब तुम पुनः सरकारी राजस्व का दुरुपयोग न करना। यदि तुम सोचते हो कि तुम्हारा वेतन अपर्याप्त है, तो अब से उसे दुगुना कर दिया जायेगा।”
 
श्लोक 107:  यह कहकर राजा ने उसके शरीर पर एक रेशमी चादर डालकर उसे नियुक्त कर दिया।
 
श्लोक 108:  श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से निश्चय ही आध्यात्मिक प्रगति की जा सकती है।
 
श्लोक 109:  गोपीनाथ पट्टनायक ने महाप्रभु की कृपा की एक झलक मात्र से राज ऐश्वर्य का फल प्राप्त किया। इसलिए उनकी कृपा की पूरी महिमा की गणना कोई नहीं कर सकता।
 
श्लोक 110:  कहाँ तो गोपीनाथ पट्टनायक को मारे जाने के लिए चांग पर चढ़ाया गया था और उसका सारा धन छीन लिया गया था, और कहाँ उसका सारा ऋण समाप्त कर दिया गया और उसे उसी स्थान का संग्राहक नियुक्त कर दिया गया।
 
श्लोक 111:  कहाँ तो गोपीनाथ अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर भी अपना बकाया चुकता नहीं कर पा रहा था, कहाँ उसका वेतन अब दुगुना हो गया और उसे रेशमी पगड़ी से सम्मानित किया गया।
 
श्लोक 112:  श्री चैतन्य महाप्रभु न तो यह चाहते थे कि गोपीनाथ पट्टनायक का सरकारी बकाया समाप्त कर दिया जाय, न ही उनकी इच्छा थी कि उसका वेतन दुगना कर दिया जाय या वह पुनः उसी स्थान का संग्रहाक नियुक्त कर दिया जाय।
 
श्लोक 113:  जब गोपीनाथ पट्टनायक का सेवक श्री चैतन्य महाप्रभु के पास गया और महाप्रभु को उसकी दयनीय दशा उसने बतलाई, तो महाप्रभु कुछ क्षुब्ध तथा असन्तुष्ट हुए।
 
श्लोक 114:  महाप्रभु की आन्तरिक इच्छा यह नहीं थी कि उसके भक्त को भौतिक ऐश्वर्य का सुख मिले ; फिर भी मात्र उन्हें सूचित किये जाने से ऐसा बड़ा फल प्राप्त हुआ।
 
श्लोक 115:  श्री चैतन्य महाप्रभु के अद्भुत स्वभाव का अनुमान कोई नहीं लगा सकता। यहाँ तक कि ब्रह्माजी तथा शिवजी भी महाप्रभु के मनोभावों को नहीं समझ पाते।
 
श्लोक 116:  काशी मिश्र श्री चैतन्य महाप्रभु के पास गये और उन्हें राजा का मनोभाव विस्तार से बतलाया।
 
श्लोक 117:  राजा के साथ काशी मिश्र की चालों को सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “हे काशी मिश्र, तुमने यह क्या किया? तुमने तो मुझे राजा से अप्रत्यक्ष रूप से सहायता लेने को बाध्य किया है।”
 
श्लोक 118:  काशी मिश्र ने कहा: “हे प्रभु, राजा ने बिना किसी कपट के ऐ सा किया है। कृपया उसका निवेदन तो सुनें।
 
श्लोक 119:  “राजा ने कहा, “महाप्रभु से इस तरह कहें कि वे यह न सोचें कि राजा ने उनके लिए दो लाख काहन कौड़ियाँ छोड़ दी हैं।
 
श्लोक 120:  “श्री चैतन्य महाप्रभु से यह बताओ कि भवानन्द के सारे पुत्र मुझे विशेष रूप से प्रिय हैं। मैं उन्हें अपने परिवार के सदस्यों जैसा मानता हूँ।
 
श्लोक 121:  “इसलिए मैंने उन्हें विभिन्न स्थानों पर संग्राहक के रूप में नियुक्त कर दिया है और यद्यपि वे सरकारी धन व्यय करते हैं, खाते, पीते, लूटते तथा मनमाना बाँटते हैं, किन्तु मैं इन्हें गम्भीरता से नहीं लेता।
 
श्लोक 122:  “मैंने रामानन्द राय को राजमहेन्द्री का राज्यपाल (गवर्नर) बना दिया था। उसने उस पद पर रहकर कितना धन एकत्र किया और बाँटा, इसका कोई लेखा - जोखा नहीं है।
 
श्लोक 123:  “संग्राहक नियुक्त हो जाने पर गोपीनाथ पहले की ही तरह, अपनी इच्छानुसार सामान्यतया दो - चार लाख काहन खर्च करता।
 
श्लोक 124:  “गोपीनाथ पट्टनायक कुछ संग्रह करता और कुछ देता - वह इच्छानुसार खर्च करता, किन्तु मैं इसे कोई गम्भीर बात नहीं मानता। किन्तु इस बार वह राजकुमार के साथ अप्रीतिकर व्यवहार के कारण कष्ट में पड़ गया।
 
श्लोक 125:  “राजकुमार ने मेरे जाने बिना ही ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी, किन्तु मैं तो भवानन्द राय के सारे पुत्रों को अपने सम्बन्धियों जैसा मानता हूँ।
 
श्लोक 126:  “उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण मैंने गोपीनाथ पट्टनायक का सारा बकाया समाप्त कर दिया है। श्री चैतन्य महाप्रभु यह बात नहीं जानते। मैंने जो कुछ किया है, वह भवानन्द राय के परिवार के साथ अपने घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण किया है।”
 
श्लोक 127:  काशी मिश्र से राजा के मनोभावों के विषय में इन कथनों को सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए। उसी समय भवानन्द राय भी वहाँ आ गये।
 
श्लोक 128:  भवानन्द राय अपने पाँचों पुत्रों सहित श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़े और महाप्रभु ने उन्हें उठाकर उनका आलिंगन किया।
 
श्लोक 129:  इस तरह रामानन्द राय, उनके सारे भाई तथा उनके पिता श्री चैतन्य महाप्रभु से मिले।
 
श्लोक 130:  उन्होंने कहा, “मेरे परिवार के ये सारे सदस्य आपके सनातन सेवक हैं। आपने हमें इस महान् विपत्ति से बचाया है, अतएव आपने हमें उचित मूल्य पर खरीद लिया है।
 
श्लोक 131:  “अब अपने भक्तों के प्रति अपने प्रेम का प्रदर्शन किया है, जिस तरह पहले आपने पाँचों पाण्डवों को महान् विपत्ति से बचाया था।”
 
श्लोक 132:  सिर पर रेशमी चादर लपेटे गोपीनाथ पट्टनायक महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़ा और राजा द्वारा अपने प्रति प्रदर्शित कृपा का विस्तार से वर्णन करने लगा।
 
श्लोक 133:  उसने कहा, “राजा ने मेरा बकाया समाप्त कर दिया है। उसने मुझे रेशमी वस्त्र से सम्मानित करते हुए मेरे पद पर मुझे पुनः नियुक्त कर दिया है और मेरा वेतन दुगना कर दिया है।
 
श्लोक 134:  “कहाँ मुझे मार डालने के लिए चांग पर चढ़ा दिया गया था और कहाँ उल्टे मुझे रेश्मी वस्त्र से सम्मानित किया गया। यह सब आपकी कृपा है।
 
श्लोक 135:  चांग पर मैंने आपके चरणकमलों का ध्यान करना प्रारम्भ किया और उस स्मरण की शक्ति से यह सब फल प्राप्त हुआ।
 
श्लोक 136:  “मेरा यह सब देखकर आश्चर्यचकित जनता आपकी कृपा की महानता का वर्णन कर रही है।
 
श्लोक 137:  किन्तु हे प्रभु, आपके चरणकमलों का ध्यान करने का मुख्य फल यह नहीं है। भौतिक ऐश्वर्य नश्वर है, अतएव यह तो आपकी कृपा के फल की एक झलक मात्र है।
 
श्लोक 138:  आपकी वास्तविक कृपा तो रामानन्द राय तथा वाणीनाथ राय को मिली है, क्योंकि आपने उन्हें समस्त भौतिक ऐश्वर्य से विरक्त करा दिया है। मैं सोचता हूँ कि आपने मुझ पर ऐसी कृपा नहीं की।
 
श्लोक 139:  “आप मुझ पर शुद्ध कृपा करें, जिससे मैं भी विरक्त बन सकें। मैं अब और अधिक भौतिक भोग नहीं चाहता।”
 
श्लोक 140:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “यदि तुम सबके सब संन्यासी हो जाओगे और आर्थिक - व्यापार में रुचि नहीं लोगे, तो तुम्हारे बड़े परिवार के भरण - पोषण का भार कौन उठायेगा?
 
श्लोक 141:  “तुम पाँचों भाई चाहे भौतिक कार्यों में मग्न रहो या पूर्णतया विरक्त हो जाओ, तुम सभी जन्म - जन्मांतर मेरे नित्य दास हो।
 
श्लोक 142:  “किन्तु मेरी एक आज्ञा का पालन करना। राजा के लगान (राजस्व) से कुछ भी भी खर्च न करना।
 
श्लोक 143:  सर्वप्रथम तुम्हें राजा का लगान अदा करना चाहिए और तब जो बचे उसे तुम धार्मिक तथा सकाम कर्मों में व्यय कर सकते हो।
 
श्लोक 144:  “पाप कर्मों में एक छदाम भी खर्च मत करना, क्योंकि इस तरह तुम दोनों लोकों में (इस जन्म तथा अगले जन्म में) हानि में रहोगे।” यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें विदा किया।
 
श्लोक 145:  इस तरह भवानन्द राय के परिवार में श्री चैतन्य महा प्रभु की महिमा का कथन होता रहा। यह कृपा स्पष्ट रूप से प्रदर्शित की गई थी, यद्यपि यह इससे कुछ भिन्न प्रतीत हो रही थी।
 
श्लोक 146:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबों का आलिंगन किया और उन्हें विदा किया। तब सारे भक्त उठे और उच्च स्वर से ‘हरि बोल’ का उच्चारण करते हुए चले गये।
 
श्लोक 147:  भवानन्द राय के परिवार पर महाप्रभु की असामान्य कृपा होते देखकर प्रत्येक व्यक्ति आश्चर्यचकित था। वे श्री चैतन्य महाप्रभु के व्यवहार को समझ नहीं सके।
 
श्लोक 148:  निस्सन्देह, जब सारे भक्तों ने महाप्रभु से प्रार्थना की थी कि वे गोपीनाथ पट्टनायक पर कृपा करें, तब महाप्रभु ने उत्तर दिया था कि वे ऐसा नहीं कर सकते।
 
श्लोक 149:  मैंने गोपीनाथ पट्टनायक को दण्ड तथा श्री चैतन्य महाप्रभु की उदासीनता का ही वर्णन किया है। किन्तु इस व्यवहार का गम्भीर अर्थ समझ पाना अत्यन्त कठिन है।
 
श्लोक 150:  काशी मिश्र या राजा को स्वयं प्रार्थना किये जाने के बिना ही श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोपीनाथ पट्टनायक को इतना अधिक दे दिया।
 
श्लोक 151:  श्री चैतन्य महाप्रभु के मनोभाव इतने गम्भीर हैं कि कोई उन्हें तभी समझ सकता है, जब उसकी पूर्ण श्रद्धा महाप्रभु के चरणकमलों की सेवा में हो।
 
श्लोक 152:  यदि कोई समझकर अथवा बिना समझे बूझे ही गोपीनाथ पट्टनायक के कार्यों तथा श्री चैतन्य महाप्रभु की उस पर अहैतुकी कृपा सम्बन्धी इस घटना को सुनता है, तो वह निश्चय ही महाप्रभु के प्रेम - भक्ति - पद को प्राप्त करेगा और उसकी सारी विपदाएँ नष्ट हो जायेंगी।
 
श्लोक 153:  श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए उनके चरणचिह्नों पर चलकर मैं कृष्णदास श्री चैतन्य - चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
 
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