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अध्याय 1: श्री चैतन्य महाप्रभु की परवर्ती लीलाएँ
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इस अध्याय में श्री चैतन्य महाप्रभु की मध्यकाल तथा अन्तिम छह वर्षों में सम्पन्न की गई समस्त लीलाओं का संक्षिप्त विवरण दिया गया है। इन सबका वर्णन संक्षेप में किया गया है। इस अध्याय में श्री चैतन्य महाप्रभु के उस भावावेश का भी वर्णन है , जो उन्होंने य: कौमार -हरः से प्रारम्भ होने वाले श्लोक को सुनाने पर प्रकट किया था। इस भावावेश की व्याख्या श्रील रूप गोस्वामी द्वारा रचित श्लोक प्रियः सोऽयं कृष्ण: में हुई है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस श्लोक की रचना करने के लिए श्रील रूप गोस्वामी को विशेष आशीर्वाद दिया। इसके अतिरिक्त इस अध्याय में श्रील रूप गोस्वामी , श्रील सनातन गोस्वामी तथा श्रील जीव गोस्वा मी द्वारा रचित अनेक ग्रन्थों का वर्णन भी मिलता है। इसी के साथ रामकेलि नामक गाँव में श्रील रूप गोस्वामी तथा श्रील सनातन गोस्वामी के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु की भेंट का वर्णन हुआ है। |
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श्लोक 1: श्री चैतन्य महाप्रभु के आशीर्वाद मात्र से एक अज्ञानी व्यक्ति भी तुरन्त समस्त ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अतएव मैं महाप्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि वे मुझ पर अपनी अहैतुकी कृपा करें। |
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श्लोक 2: मैं श्रीकृष्ण चैतन्य और नित्यानन्द प्रभु को सादर प्रणाम करता हूँ, जो सूर्य और चन्द्रमा के समान हैं। |
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श्लोक 3: परम कृपालु राधा तथा मदनमोहन की जय हो! यद्यपि मैं लंगड़ा और मूर्ख हैं, फिर भी वे मेरे मार्गदर्शक हैं और उनके चरणकमल मेरे लिए सर्वस्व हैं। |
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श्लोक 4: वृन्दावन में कल्पवृक्ष के नीचे, रत्नों के मन्दिर के भीतर श्री श्री राधा - गोविन्द एक देदीप्यमान सिंहासन पर विराजमान हैं और उनके सर्वाधिक अन्तरंग पार्षद उनकी सेवा में लगे हुए हैं। मैं उन्हें मेरे विनम्र प्रणाम करता रता हूँ। |
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श्लोक 5: अपने वंशी - वादन से समस्त गोपियों को आकृष्ट करने वाले एवं वंशीवट में यमुना नदी के तट पर अत्यन्त मधुर रासनृत्य को आरम्भ करने वाले गोपीनाथजी हम सब पर दयालु हों। |
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श्लोक 6: दया के सिन्धु श्री गौरहरि की जय हो! हे शचीदेवी के पुत्र! आपकी जय हो, क्योंकि आप समस्त पतितात्माओं के एकमात्र मित्र हैं। |
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श्लोक 7: श्री नित्यानन्द प्रभु तथा अद्वैत प्रभु की जय हो! श्रीवास ठाकुर आदि श्री चैतन्य महाप्रभु के सभी भक्तों की जय हो! |
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श्लोक 8: इसके पहले मैंने आदिलीला (प्रारम्भिक लीलाएँ) का संक्षेप में वर्णन किया है, जिसका विस्तृत वर्णन वृन्दावन दास ठाकुर पहले ही कर चुके हैं। |
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श्लोक 9: इसीलिए मैंने उन घटनाओं को केवल संक्षेप में दिया है और जो कुछ विशेष कहने योग्य था, वह भी उसी के साथ वर्णित है। |
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श्लोक 10: श्री चैतन्य महाप्रभु की अनन्त लीलाओं का वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है, किन्तु अब मैं मुख्य घटनाएँ बताना चाहता हूँ और अन्त में घटित होने वाली लीलाओं का सार प्रस्तुत करना चाहता हूँ। |
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श्लोक 11-12: श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने अपनी पुस्तक चैतन्य मंगल में जिन लीलाओं का विस्तार से वर्णन किया है, उसे मैं केवल संक्षेप में कहूँगा किन्तु जो घटनाएँ विशिष्ट हैं, उनका मैं बाद में विस्तार करूँगा। |
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श्लोक 13: वास्तव में श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के प्रामाणिक संकलनकर्ता तो श्रील वृन्दावन दास हैं, जो व्यासदेव के अवतार हैं। उनकी आज्ञा से ही मैं उनके द्वारा छोड़े गये उच्छिष्ट को पुनः चबाने का प्रयास कर रहा हूँ। |
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श्लोक 14: अब मैं अत्यन्त भक्तिपूर्वक उनके चरणकमलों को अपने मस्तक पर धारण करके महाप्रभु की अन्तिम लीलाओं (शेषलीला) का संक्षिप्त वर्णन करूँगा। |
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श्लोक 15: श्री चैतन्य महाप्रभु चौबीस वर्षों तक घर पर रहे और इस काल में उन्होंने जो भी लीलाएँ कीं, वे आदिलीला के नाम से जानी जाती हैं। |
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श्लोक 16: चौबीस वर्ष पूरे होने पर माघ मास के शुक्लपक्ष में महाप्रभु ने संन्यास ग्रहण किया। |
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श्लोक 17: संन्यास ग्रहण करने के बाद चैतन्य महाप्रभु अगले चौबीस वर्षों तक इस भौतिक जगत् में रहे। इस काल में उन्होंने जो भी लीलाएँ कीं, वे शेषलीला कहलाती हैं अर्थात् ऐसी लीलाएँ जो अन्त में घटित हुईं। |
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श्लोक 18: अन्तिम चौबीस वर्षों में सम्पन्न होने वाली लीलाएँ मध्य तथा अन्त्य - इन दो नामों से जानी जाती हैं। |
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श्लोक 19: अन्तिम चौबीस वर्षों में से छह वर्षों तक श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी से लेकर बंगाल और कुमारी अन्तरीप से लेकर वृन्दावन तक सारे भारतवर्ष में भ्रमण किया। |
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श्लोक 20: इन स्थानों में महाप्रभु ने जितनी लीलाएँ कीं, वे मध्य - लीला कहलाती हैं और उसके बाद की जितनी लीलाएँ हैं, वे अन्त्य - लीला कहलाती हैं। |
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श्लोक 21: इसीलिए महाप्रभु की लीलाओं को तीन कालों में विभाजित किया जाता है - आदि - लीला, मध्य - लीला तथा अन्त्य - लीला। अब मैं मध्य - लीला का विस्तारपूर्वक वर्णन करूँगा। |
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श्लोक 22: श्री चैतन्य महाप्रभु अठारह वर्षों तक लगातार जगन्नाथ पुरी में रहे और उन्होंने अपने खुद के आचरण से सारे जीवों को भक्तियोग का उपदेश दिया। |
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श्लोक 23: श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी में इन अठारह वर्षों में से छह वर्ष अपने अनेक भक्तों के साथ बिताये। उन्होंने कीर्तन तथा नृत्य द्वारा भगवान् की प्रेमाभक्ति का प्रवर्तन किया। |
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श्लोक 24: श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु को जगन्नाथ पुरी से बंगाल भेजे, जो गौड़देश के नाम से प्रसिद्ध है। श्री नित्यानन्द प्रभु ने भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति से इस देश को आप्लावित कर दिया। |
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श्लोक 25: श्री नित्यानन्द प्रभु स्वभाव से भगवान् कृष्ण की दिव्य प्रेमाभत्ति करने के लिए अत्यधिक उत्साहित रहते हैं। अतएव जब श्री चैतन्य महाप्र का आदेश हुआ, तो उन्होंने इस प्रेमाभक्ति का सर्वत्र वितरण किया। |
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श्लोक 26: मैं उन श्री नित्यानन्द प्रभु के चरणकमलों में असंख्य प्रणाम करत हूँ, जो इतने दयालु हैं कि उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु की भक्ति को सां विश्व में प्रचारित किया। |
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श्लोक 27: श्री चैतन्य महाप्रभु श्री नित्यानन्द प्रभु को अपना बड़ा भाई कह कर पुकारते थे, जबकि नित्यानन्द प्रभु चैतन्य महाप्रभु को अपने स्वामी कहा करते थे। |
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श्लोक 28: यद्यपि नित्यानन्द प्रभु स्वयं बलराम हैं, तथापि वे अपने आपको सदैव श्री चैतन्य महाप्रभु के नित्य दास मानते हैं। |
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श्लोक 29: नित्यानन्द प्रभु हर एक से श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा करने, उनकी महिमा का कीर्तन करने तथा उनका नाम उच्चारण करने का आग्रह करते थे। वे उस व्यक्ति को अपने प्राणों के तुल्य समझते थे, जो श्री चैतन्य महाप्रभु की भक्तिमय सेवा करता था। |
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श्लोक 30: इस प्रकार श्रील नित्यानन्द प्रभु ने बिना भेदभाव के हर एक को श्री चैतन्य - सम्प्रदाय में सम्मिलित किया। ऐसा करने से पतितात्माओं तथा निन्दकों का भी उद्धार हो गया। |
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श्लोक 31: तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रील रूप गोस्वामी तथा श्रील सनातन गोस्वामी दोनों भाईयों को व्रज भेजे। उनके आदेश से वे श्री वृन्दावन धाम गये। |
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श्लोक 32: वृन्दावन जाकर इन दोनों भाइयों ने भक्ति का प्रचार किया और अनेक तीर्थस्थानों की खोज की। |
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श्लोक 33: रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी दोनों ने वृन्दावन में अनेक शास्त्र एकत्र किये और भक्ति विषयक अनेक शास्त्रों का संकलन करके इनका सार प्रस्तुत किया। इस प्रकार उन्होंने सारे धूर्ती तथा पतितों का उद्धार किया। |
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श्लोक 34: इन गोस्वामियों ने समस्त गुह्य वैदिक साहित्य के विश्लेषणात्मक अध्ययन के आधार पर भक्ति का प्रचार किया। यह सब श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश की पूर्ति के निमित्त था। इस तरह कोई भी वृन्दावन की सर्वाधिक गुह्य भक्ति को समझ सकता है। |
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श्लोक 35: श्रील सनातन गोस्वामी द्वारा रचित कुछ पुस्तकें इस प्रकार हैं - हरिभक्ति - विलास, बृहद् भागवतामृत, दशम - टिप्पणी तथा दशम - चरित। |
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श्लोक 36: मैंने सनातन गोस्वामी द्वारा रचित चार ग्रंथों के नाम पहले ही दे दिये हैं। इसी तरह श्रील रूप गोस्वामी ने भी अनेक ग्रंथों की रचना की है, जिनकी गिनती नहीं की जा सकती। |
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श्लोक 37: अतएव मैं श्रील रूप गोस्वामी द्वारा रचित मुख्य - मुख्य ग्रंथों के ही नाम गिनाऊँगा। उन्होंने एक लाख श्लोकों में वृन्दावन की लीलाओं का वर्णन किया है। |
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श्लोक 38: श्री रूप गोस्वामी द्वारा रचित ग्रंथों में भक्तिरसामृतसिन्धु, विदग्ध माधव, उज्ज्वल - नीलमणि तथा ललित - माधव सम्मिलित हैं। |
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श्लोक 39-40: श्रील रूप गोस्वामी ने दानकेलि - कौमुदी, स्तवावली, लीलाच्छन्द, पद्यावली, गोविन्द विरुदावली, मथुरा - माहात्म्य तथा नाटक - वर्णन नामक पुस्तकों की भी रचना की। |
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श्लोक 41: भला श्रील रूप गोस्वामी द्वारा रचित शेष पुस्तकों (जिनमें लघु भागवतामृत मुख्य है) की गिनती कौन कर सकता है? उन्होंने उन सब ग्रंथों में वृन्दावन की लीलाओं का वर्णन किया है। |
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श्लोक 42: श्री रूप गोस्वामी के भतीजे श्रील जीव गोस्वामी ने भक्ति सम्बन्धी इतनी पुस्तकें लिखी हैं कि उनकी गणना नहीं की जा सकती। |
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श्लोक 43: श्रील जीव गोस्वामी ने श्री भागवत - सन्दर्भ में भक्ति की चरम पराकाष्ठा का विस्तार से वर्णन किया है। |
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श्लोक 44: गोपाल - चम्पू सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली दिव्य ग्रंथ है। इस ग्रंथ में भगवान् की सनातन लीलाओं की स्थापना की गई है और वृन्दावन में भोगे जाने वाले दिव्य रसों का वर्णन विस्तारपूर्वक हुआ है। |
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श्लोक 45: इस प्रकार श्रील रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी तथा उनके भतीजे श्रील जीव गोस्वामी तथा लगभग उनका सारा परिवार वृन्दावन में रहा और उन्होंने भक्ति पर महत्त्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित कीं। |
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श्लोक 46: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा संन्यास ग्रहण कर लेने के एक वर्ष बाद, श्री अद्वैत प्रभु के नेतृत्व में सारे भक्त उनका दर्शन करने के लिए जगन्नाथ पुरी गये। |
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श्लोक 47: जगन्नाथ पुरी में रथयात्रा महोत्सव में सम्मिलित होने के बाद सारे भक्त चार मास तक वहीं रहे और चैतन्य महाप्रभु के साथ कीर्तन (कीर्तन तथा नृत्य) का परम आनन्द लूटते रहे। |
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श्लोक 48: विदाई के समय महाप्रभु ने सभी भक्तों से निवेदन किया, “कृपा करके प्रतिवर्ष भगवान् जगन्नाथ की गुण्डिचा मन्दिर तक की यात्रा (जो रथयात्रा महोत्सव के नाम से विख्यात है) देखने के लिए अवश्य आयें। |
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श्लोक 49: श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश का पालन करते हुए सारे भक्त प्रतिवर्ष उन्हें मिलने आते थे। वे जगन्नाथ पुरी में गुण्डिचा - उत्सव देखते और चार मास के बाद अपने घर लौट जाया करते थे। |
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श्लोक 50: लगातार बीस वर्षों तक इस प्रकार भेट होती रही और स्थिति इतनी तीव्र हो गई कि महाप्रभु तथा भक्तगण एक - दूसरे से मिले बिना सुख से नहीं रह पाते थे। |
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श्लोक 51: महाप्रभु ने अन्तिम बारह वर्ष अपने हृदय के भीतर केवल कृष्ण की विरह - लीला का आस्वादन करने में बिताये। |
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श्लोक 52: श्री चैतन्य महाप्रभु इस विरह - भाव में रात - दिन उन्मत्त प्रतीत होते थे। कभी वे हँसते और कभी विलाप करते ; कभी नाचते और कभी अत्यन्त शोक में कीर्तन करते थे। |
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श्लोक 53: ऐसे अवसरों पर श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथजी के मन्दिर जाया करते। उस समय उनकी मनोदशा ठीक ठीक उन गोपियों जैसी होती, जिन्होंने दीर्घ विछोह के बाद कुरुक्षेत्र में कृष्ण के दर्शन किये थे। कृष्ण अपने भाई तथा बहन के साथ कुरुक्षेत्र आये हुए थे। |
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श्लोक 54: रथयात्रा के समय जब चैतन्य महाप्रभु रथ के आगे नृत्य करते थे, तो वे सदैव निम्नलिखित दो पंक्तियाँ गाते थे। |
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श्लोक 55: “मैंने अपने प्राणों के उन स्वामी को पा लिया है, जिनके लिए मैं कामाग्नि में जल रहा था।” |
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श्लोक 56: श्री चैतन्य महाप्रभु इस गीत (सेहत पराणनाथ) को दिन के दूसरे पहर में विशेष रूप से गाते और सोचा करते, “मैं कृष्ण को लेकर वृन्दावन लौट जाऊँ।” यह भाव सदैव उनके हृदय में उठता रहता था। |
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श्लोक 57: उस भावावेश में श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान् जगन्नाथ के समक्ष नृत्य करते समय एक श्लोक गाया करते थे, जिसका अर्थ लगभग कोई भी नहीं समझ पाता था। |
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श्लोक 58: जिस व्यक्ति ने मेरी युवावस्था में मेरा हृदय चुरा लिया था, वही अब पुनः मेरा स्वामी है। ये चैत्र - मास की वही चाँदनी रातें हैं, वही मालती फूलों की सुगन्ध है और वही मधुर वायु कदम्ब वन से आ रही है। अपने घनिष्ठ सम्बन्ध में मैं भी वही प्रेमिका हूँ, किन्तु फिर भी मेरा मन यहाँ सुखी नहीं है। मैं रेवा नदी के तट पर वेतसी वृक्ष के नीचे उसी स्थान पर फिर से जाने के लिए लालायित हूँ। यही मेरी इच्छा है।” |
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श्लोक 59: यह श्लोक एक सामान्य भौतिक युवक तथा युवती की लालसा के समान लगता है, किन्तु इसका वास्तविक गहन अर्थ एकमात्र स्व रूप दामोदर को ज्ञात था। संयोगवश रूप गोस्वामी भी एक वर्ष वहाँ उपस्थित थे। |
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श्लोक 60: यद्यपि इस श्लोक का अर्थ केवल स्वरूप दामोदर को ज्ञात था, किन्तु रूप गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु से इसे सुनकर तुरन्त एक अन्य श्लोक की रचना कर डाली, जिसमें मूल श्लोक का अर्थ दिया गया था। |
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श्लोक 61: इस श्लोक की रचना करके रूप गोस्वामी ने इसे एक ताड़ के पत्ते पर लिख दिया और जिस कुटिया में वे रह रहे थे उसकी छत पर रख दिया। |
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श्लोक 62: इस श्लोक की रचना करके इसे अपने घर की छत पर रखने के बाद श्रील रूप गोस्वामी समुद्र में स्नान करने चले गये। इसी बीच श्री चैतन्य महाप्रभु उनसे मिलने उनकी कुटिया में आये। |
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श्लोक 63: विरोध की स्थिति से बचने के लिए श्रील हरिदास ठाकुर, श्रील रूप गोस्वामी तथा श्रील सनातन गोस्वामी - ये तीनों महान् भक्त जगन्नाथ मन्दिर में प्रवेश नहीं करते थे। |
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श्लोक 64: श्री चैतन्य महाप्रभु नित्यप्रति जगन्नाथ मन्दिर में उपलभोग उत्सव देखते थे और उसके बाद वे अपने निवासस्थान लौटते समय इन तीनों महापुरुषों से भेंट किया करते थे। |
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श्लोक 65: यदि इन तीनों में से कोई एक उपस्थित नहीं होता था, तो वे शेष जनों से मिलते थे। यह उनका दैनिक नियम था। |
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श्लोक 66: जब श्री चैतन्य महाप्रभु श्रील रूप गोस्वामी के आवास में गये, तो संयोगवश उन्होंने छत पर रखा ताड़ - पत्र देख लिया और उन्होंने उनके द्वारा रचित उस श्लोक को पढ़ा। |
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श्लोक 67: इस श्लोक को पढ़कर श्री चैतन्य महाप्रभु को भावावेश हो आया। जब वे इस दशा में थे, तो श्रील रूप गोस्वामी आ गये और वे तुरन्त ही भूमि पर दण्डवत् गिर पड़े। |
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श्लोक 68: जब श्रील रूप गोस्वामी डंडे के समान गिर पड़े, तो श्री चैतन्य महाप्रभु उठे और उन्हें एक चपत लगाई। फिर उन्हें अपनी गोद में लेकर उनसे इस प्रकार कहा : |
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श्लोक 69: श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मेरे श्लोक का तात्पर्य कोई नहीं जानता। तुम मेरे मन के भाव को कैसे समझ गये?” |
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श्लोक 70: यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रील रूप गोस्वामी को अनेक आशीर्वाद दिये और उस श्लोक को ले जाकर बाद में स्वरूप गोस्वामी को दिखलाया। |
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श्लोक 71: स्वरूप दामोदर को अत्यन्त आश्चर्य के साथ वह श्लोक दिखाते हुए चैतन्य महाप्रभु ने उनसे पूछा कि रूप गोस्वामी किस तरह उनके मन के भाव को समझ सके। |
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श्लोक 72: श्रील स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु से कहा, “यदि रूप गोस्वामी आपके मन तथा भावों को जान सकते हैं, तो अवश्य ही उन्हें आपका विशेष आशीर्वाद प्राप्त हुआ होगा।” |
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श्लोक 73: महाप्रभु ने कहा, “मैं रूप गोस्वामी से इतना प्रसन्न था कि मैंने उसका आलिंगन कर लिया और उसे भक्ति की विधि का प्रचार करने के लिए सारी आवश्यक शक्तियाँ प्रदान कर दीं। |
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श्लोक 74: “मैं श्रील रूप गोस्वामी को भक्ति के गुह्य रस को समझने के लिए सर्वथा योग्य समझता हूँ और संस्तुति करता हूँ कि तुम उसे भक्ति के विषय में और आगे बतलाओ।” |
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श्लोक 75: मैं इन सब घटनाओं के बारे में बाद में विस्तार से बतलाऊँगा। यहाँ पर मैंने केवल संक्षिप्त वर्णन किया है। |
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श्लोक 76: [यह श्रीमती राधारानी द्वारा कहा गया श्लोक है।]” हे प्रिय सखी, अब मैं इस कुरुक्षेत्र में अपने अत्यन्त पुराने और प्रिय मित्र कृष्ण से मिली हूँ। मैं वही राधारानी हूँ और अब हम मिल रहे हैं। यह अत्यन्त सुखद है, किन्तु अब भी मेरा मन यमुना - तट पर वहाँ के वन के वृक्षों के नीचे बैठने के लिए लालायित है। मैं वृन्दावन के वन के भीतर पंचम स्वर में गूंजने वाली उनकी मधुर मुरली की ध्वनि सुनने की इच्छुक हूँ।” |
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श्लोक 77: अब हे भक्तों, इस श्लोक की संक्षिप्त व्याख्या सुनो। श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ के विग्रह का दर्शन करते हुए इस प्रकार सोचते थे। |
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श्लोक 78: वे उन श्रीमती राधारानी के विषय में सोच रहे थे, जो कृष्ण से कुरुक्षेत्र में मिली थीं। यद्यपि वे कृष्ण से वहाँ मिल चुकी थीं, किन्तु फिर भी वे उनके विषय में इस प्रकार सोच रही थीं। |
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श्लोक 79: वे कृष्ण को वृन्दावन के शान्त वातावरण में गोपवेश धारण किये हुए सोच रही थीं। किन्तु कुरुक्षेत्र में तो वे राजसी वेश में थे और उनके साथ हाथी, घोड़े तथा लोगों का समूह था। इस प्रकार वहाँ का वातावरण उनके मिलन के लिए अनुकूल नहीं था। |
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श्लोक 80: इस प्रकार कृष्ण से मिलकर और वृन्दावन के वातावरण के विषय में सोचकर राधारानी ने मन ही मन चाहा कि वे मुझे पुनः वृन्दावन ले जाकर उस शान्त वातावरण में मेरी इच्छा पूरी करें। |
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श्लोक 81: गोपियाँ इस प्रकार बोलीं: “हे कमल - पुष्प जैसी नाभि वाले प्रभु! आपके चरणकमल इस भौतिक अस्तित्वरूपी गहरे कुएँ में गिरे हुए व्यक्तियों के लिए एकमात्र आश्रय हैं। आपके चरणों की पूजा एवं ध्यान बड़े - बड़े योगियों और विद्वान दार्शनिकों द्वारा किया जाता है। हमारी मनोकामना है कि ये चरणकमल हमारे हृदयों के भीतर भी उदित हों, यद्यपि हम घर के कार्यकलापों में लगी हुईं साधारण स्त्रियाँ हैं। |
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श्लोक 82: गोपियों ने सोचा, “हे प्रभु! यदि आपके चरणकमलों का हमारे वृन्दावन स्थित घरों में फिर पदार्पण हो, तो हमारी मनोकामनाएँ पूरी हो जायेंगी।” । |
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श्लोक 83: श्रील रूप गोस्वामी ने साधारण जनों को समझाने के लिए श्रीमद्भागवत के श्लोक के गुह्य अर्थ को एक श्लोक में बतलाया है। |
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श्लोक 84: गोपियों ने आगे कहा -” हे कृष्ण! आपके लीला - रसों की सुगन्धि मथुरा जनपद की माधुरी से घिरे हुए वृन्दावन की धन्य भूमि के वनों में व्याप्त है। इस अद्भुत भूमि के अनुकूल वातावरण में अपने अधरों पर थिरकने वाली बाँसुरी से तथा हम गोपियों के मध्य, जिनके हृदय अकथनीय आह्लादपूर्ण भावों से सदैव मोहित रहते हैं, आप अपनी लीलाओं का आनन्द लूट सकते हैं।” |
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श्लोक 85: इस तरह जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ का दर्शन किया, तो उन्होंने देखा कि वे अपनी बहन सुभद्रा के साथ थे और उनके हाथ में वंशी नहीं थी। |
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श्लोक 86: गोपियों के हर्षोन्माद भाव में मग्न श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान् जगन्नाथ को अपने आदि स्वरूप, वृन्दावन में त्रिभंगी शरीर के कारण अत्यन्त सुन्दर लगने वाले नन्दनन्दन कृष्ण - रूप में देखना चाहते थे। इस रूप का दर्शन करने की उनकी इच्छा निरन्तर बढ़ती जा रही थी। |
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श्लोक 87: जिस प्रकार श्रीमती राधारानी ने उद्धव की उपस्थिति में एक भौरे से असंगत रूप में प्रलाप किया था, उसी तरह श्री चैतन्य महाप्रभु भावावेश में उन्मत्त की तरह रात - दिन असंगत बातें करते थे। |
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श्लोक 88: श्री चैतन्य महाप्रभु के अन्तिम बारह वर्ष इसी दिव्य उन्माद में बीते। इस तरह उन्होंने अपनी अन्त्य लीलाएँ तीन प्रकार से सम्पन्न कीं। |
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श्लोक 89: श्री चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास ग्रहण करने के बाद चौबीस वर्षों तक जो - जो लीलाएँ कीं, वे असंख्य तथा अपार थीं। ऐसी लीलाओं का मर्म भला कौन समझ सकता है? |
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श्लोक 90: उन लीलाओं का संकेत करने के उद्देश्य से मैं मुख्य - मुख्य लीलाओं को सूत्र रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ। |
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श्लोक 91: पहला सूत्र यह है: संन्यास ग्रहण करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन की ओर चल पड़े। |
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श्लोक 92: जब श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन की ओर जा रहे थे, तो वे कृष्ण - प्रेम में विह्वल हो गये और उनकी बाहरी जगत् की सारी सुध - बुध जाती रही। इस तरह उन्होंने तीन दिनों तक उस राढ़देश में भ्रमण किया, जो ऐसा प्रदेश है, जिसमें गंगा नदी नहीं बहती। |
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श्लोक 93: सर्वप्रथम नित्यानन्द प्रभु ने श्री चैतन्य महाप्रभु को गंगा के किनारे - किनारे ले जाते समय यह कहकर भ्रमित कर दिया कि यह यमुना नदी है। |
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श्लोक 94: तीन दिन बाद श्री चैतन्य महाप्रभु शान्तिपुर में अद्वैत आचार्य के घर आये और वहाँ उन्होंने भिक्षा ग्रहण की। यह उनके द्वारा प्रथम भिक्षा - ग्रहण था। उस रात उन्होंने वहाँ सामूहिक कीर्तन किया। |
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श्लोक 95: अद्वैत प्रभु के घर में वे अपनी माता से तथा मायापुर के सारे भक्तों से मिले। वहाँ पर सबका समाधान करने के बाद वे जगन्नाथ पुरी चले गये। |
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श्लोक 96: जगन्नाथ पुरी के मार्ग में श्री चैतन्य महाप्रभु ने अन्य अनेक लीलाएँ कीं। उन्होंने विविध मन्दिरों की मुलाकात ली और गोपाल की स्थापना एवं माधवेन्द्र पुरी की कथा सुनी। |
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श्लोक 97: श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु से क्षीर - चुरी गोपीनाथ एवं साक्षीगोपाल की कथाएँ सुनीं। इसके बाद नित्यानन्द प्रभु ने श्री चैतन्य महाप्रभु का संन्यास - दण्ड तोड़ दिया। |
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श्लोक 98: इसके बाद जब नित्यानन्द प्रभु ने उनका संन्यास - दण्ड तोड़ डाला, तो श्री चैतन्य महाप्रभु बाह्य रूप से अत्यधिक क्रुद्ध हुए और वे उनका साथ छोड़कर अकेले ही जगन्नाथ मन्दिर की यात्रा के लिए चल पड़े। |
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श्लोक 99: जब मन्दिर में श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान् जगन्नाथ के दर्शन करने के बाद अचेत होकर गिर पड़े, तो सार्वभौम भट्टाचार्य उन्हें अपने घर ले गये। महाप्रभु दोपहर के बाद तक अचेत रहे। तब अन्त में उन्हें चेतना आई। |
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श्लोक 100: श्री चैतन्य महाप्रभु नित्यानन्द का साथ छोड़कर अकेले जगन्नाथ मन्दिर गये थे, किन्तु बाद में नित्यानन्द, जगदानन्द, दामोदर तथा मुकुन्द उन्हें मिलने के लिए आये और उन्हें देखकर वे सभी अत्यन्त प्रसन्न हुए। |
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श्लोक 101: इस घटना के बाद भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को अपना आदि - भगवान् रूप दिखलाकर उन पर कृपा की। |
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श्लोक 102: सार्वभौम भट्टाचार्य पर कृपादृष्टि करने के बाद महाप्रभु दक्षिण भारत के लिए चल पड़े। जब वे कूर्मक्षेत्र आये, तो वहाँ उन्होंने वासुदेव नामक व्यक्ति का उद्धार किया। |
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श्लोक 103: कूर्मक्षेत्र की यात्रा करने के बाद महाप्रभु दक्षिण भारत में जियड़ नृसिंह के मन्दिर गये और वहाँ भगवान् नृसिंह देव की स्तुति की। रास्ते में उन्होंने प्रत्येक गाँव में हरे कृष्ण महामंत्र के कीर्तन का शुभारम्भ किया। |
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श्लोक 104: एक बार महाप्रभु ने गोदावरी नदी के तट पर स्थित एक वन को वृन्दावन समझ लिया। वहाँ उनकी भेंट रामानन्द राय से हुई। |
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श्लोक 105: उन्होंने तिरुमल तथा तिरुपति नामक स्थानों की यात्रा की और वहाँ उन्होंने भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन का सर्वत्र प्रचार किया। |
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श्लोक 106: तिरुमल तथा तिरुपति मन्दिर के दर्शन के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु को कुछ नास्तिकों का दमन करना पड़ा। इसके बाद उन्होंने अहोवल - नृसिंह मन्दिर में दर्शन किया। |
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श्लोक 107: जब श्री चैतन्य महाप्रभु कावेरी के तट पर स्थित श्रीरंग क्षेत्र में आये, तो उन्होंने श्री रंगनाथ मन्दिर में दर्शन किये और वहाँ पर वे भगवत्प्रेम के आनन्द में विह्वल हो गये। |
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श्लोक 108: श्री चैतन्य महाप्रभु वर्षा ऋतु के चार महीने त्रिमल्ल भट्ट के घर में रहे। |
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श्लोक 109: श्री त्रिमल्ल भट्ट श्री - वैष्णव संप्रदाय का सदस्य होने के साथ ही प्रकाण्ड विद्वान भी थे ; अतएव जब उन्होंने परम विद्वान एवं महान् भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु को देखे, तो वे अत्यन्त विस्मित हुए। |
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श्लोक 110: भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्री - वैष्णवों के साथ नृत्य, गान तथा कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए चातुर्मास व्यतीत किये। |
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श्लोक 111: चातुर्मास के समाप्त होने पर श्री चैतन्य महाप्रभु सारे दक्षिण भारत में भ्रमण करते रहे। तभी उनकी भेंट परमानन्द पुरी से हुई। |
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श्लोक 112: इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने भट्टथारि के चंगुल से अपने सेवक कृष्णदास को बचाया। इसके बाद उन्होंने शिक्षा दी कि भगवान् कृष्ण के नाम का कीर्तन उन ब्राह्मणों को भी करना चाहिए, जो भगवान् राम के नाम का कीर्तन करने के अभ्यस्त हैं। |
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श्लोक 113: तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु श्री रंग पुरी से मिले और उन्होंने रामदास नामक एक ब्राह्मण के सारे दुःखों को दूर किया। |
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श्लोक 114: श्री चैतन्य महाप्रभु ने तत्त्ववादी सम्प्रदाय से भी विचार - विमर्श किया और उन तत्त्ववादियों ने अपने आपको निम्न वैष्णव अनुभव किया। |
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श्लोक 115: इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने अनन्तदेव, पुरुषोत्तम, श्री जनार्दन, पद्मनाभ तथा वासुदेव के विष्णु - मन्दिरों में दर्शन किया। |
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श्लोक 116: इसके बाद भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने विख्यात सप्तताल वृक्षों का उद्धार किया, सेतुबन्ध रामेश्वर में स्नान किया और शिवजी अर्थात् रामेश्वर के मन्दिर में दर्शन किया। |
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श्लोक 117: रामेश्वर में श्री चैतन्य महाप्रभु को कूर्म पुराणपढ़ने का अवसर मिला, जिससे उन्हें यह पता चला कि रावण ने जिस सीता का अपहरण किया था वह वास्तविक सीता न थीं, अपितु उनकी छाया - मात्र थीं। |
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श्लोक 118: श्री चैतन्य महाप्रभु माया - सीता के विषय में पढ़कर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्हें रामदास विप्र से अपनी भेंट का स्मरण हो आया, जो अत्यन्त दुःखी था कि रावण ने सीता माता का अपहरण किया था। |
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श्लोक 119: श्री चैतन्य महाप्रभु ने कूर्म पुराण की उस अत्यन्त प्राचीन पुस्तक से यह पन्ना उत्सुकता के कारण फाड़ लिया और बाद में इसे रामदास विप्र को दिखलाया, जिसे देखकर उसका दुःख दूर हुआ। |
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श्लोक 120: श्री चैतन्य महाप्रभु को दो ग्रन्थ और भी मिले - ब्रह्म - संहिता तथा कृष्णकर्णामृत। इन ग्रन्थों को श्रेष्ठ मानते हुए वे उन्हें अपने भक्तों को भेंट करने के लिए ले आये। |
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श्लोक 121: श्री चैतन्य महाप्रभु इन पुस्तकों को लेकर जगन्नाथ पुरी लौट आये। उस समय जगन्नाथजी का स्नान - उत्सव मनाया जा रहा था, जिसे उन्होंने देखा। |
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श्लोक 122: जब जगन्नाथजी मन्दिर में नहीं थे, तब श्री चैतन्य महाप्रभु उनका दर्शन नहीं कर सके। फलतः उनके विरह में वे जगन्नाथ पुरी छोड़कर आलालनाथ नामक स्थान पर चले गये। |
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श्लोक 123: श्री चैतन्य महाप्रभु कुछ दिनों तक आलालनाथ रहे। तभी उन्हें यह समाचार मिला कि बंगाल से सारे भक्तगण जगन्नाथ पुरी आ रहे हैं। |
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श्लोक 124: जब बंगाल के भक्तगण जगन्नाथ पुरी आ गये, तो नित्यानन्द प्रभु तथा सार्वभौम भट्टाचार्य काफी प्रयास से श्री चैतन्य महाप्रभु को जगन्नाथ पुरी वापस ले आये। |
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श्लोक 125: जब श्री चैतन्य महाप्रभु अन्ततः आलालनाथ छोड़कर जगन्नाथ पुरी लौटे, तो वे जगन्नाथ के विरह में रात - दिन भावविभोर रहने लगे। उनके शोक की कोई सीमा न थी। इस समय बंगाल के विभिन्न भागों के और विशेष रूप से नवद्वीप के सारे भक्त जगन्नाथ पुरी पहुँचे। |
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श्लोक 126: परस्पर विचार - विमर्श के बाद सभी भक्तों ने सामूहिक कीर्तन प्रारम्भ किया। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु का मन कीर्तन के आह्लाद से शान्त हुआ। |
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श्लोक 127: इसके पूर्व जब श्री चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत का भ्रमण कर रहे थे, तब गोदावरी नदी के तट पर उनकी भेंट रामानन्द राय से हुई थी। उस समय यह तय हुआ था कि रामानन्द राय अपने राज्यपाल के पद से त्यागपत्र दे देंगे और जगन्नाथ पुरी आयेंगे और श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ रहेंगे। |
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श्लोक 128: श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश पर श्री रामानन्द राय ने राजा से छुट्टी माँगी और जगन्नाथ पुरी आ गये। |
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श्लोक 129: रामानन्द राय के आने के बाद, श्री चैतन्य महाप्रभु ने काशी मिश्र पर कृपा की और प्रद्युम्न मिश्र तथा अन्य भक्तों से भेंट की। उस समय तीन और भक्त परमानन्द पुरी, गोविन्द तथा काशीश्वर श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने जगन्नाथ पुरी आये। |
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श्लोक 130: पन्ततः स्वरूप दामोदर गोस्वामी से भेंट होने पर चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए। इसके बाद शिखिमाहिति तथा रामानन्द राय के पिता भवानन्द राय से उनकी भेंट हुई। |
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श्लोक 131: बंगाल के सारे भक्त क्रमशः जगन्नाथ पुरी पहुँचने लगे। उस समय कुलीन ग्राम के निवासी भी श्री चैतन्य महाप्रभु से भेंट करने पहली बार आये। |
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श्लोक 132: अन्ततोगत्वा नरहरि दास तथा खण्ड के सारे निवासी शिवानन्द सेन सहित आये और श्री चैतन्य महाप्रभु उन सबसे मिले। |
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श्लोक 133: भगवान जगन्नाथ की स्नान यात्रा के दर्शन के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने अनेक भक्तों की सहायता से श्री गुण्डिचा मन्दिर को धोया और सफाई की। |
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श्लोक 134: इसके बाद समस्त भक्तों सहित श्री चैतन्य महाप्रभु ने रथयात्रा का दर्शन किया। चैतन्य महाप्रभु ने रथ के आगे स्वयं नृत्य किया और नृत्य के बाद एक बगीचे में गये। |
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श्लोक 135: उस बगीचे में श्री चैतन्य महाप्रभु ने राजा प्रतापरुद्र पर कृपा की। इसके बाद जब बंगाल के भक्तगण अपने घरों को लौटने वाले थे, तो हाप्रभु ने लगभग सबों को अलग - अलग आदेश दिये। |
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श्लोक 136: श्री चैतन्य महाप्रभु बंगाल के सारे भक्तों से प्रतिवर्ष मिलते रहना चाहते थे। अतएव महाप्रभु ने उन्हें आज्ञा दी कि वे प्रतिवर्ष रथयात्रा का दर्शन करने आया करें। |
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श्लोक 137: सार्वभौम भट्टाचार्य के घर भोजन करने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु आमन्त्रित किये गये। जब महाप्रभु सुस्वादु भोजन कर रहे थे, तो सार्वभौम भट्टाचार्य के जामाता (उनकी पुत्री पाठी के पति) ने उनकी आलोचना की। इसके कारण पाठी की माता ने उसे शाप दे दिया कि षाठी विधवा हो जाये। दूसरे शब्दों में, उसने अपने जामाता को मर जाने का शाप दे डाला। |
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श्लोक 138: साल के अन्त में बंगाल के सारे भक्त अद्वैत आचार्य के साथ पुनः श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने आये। निस्सन्देह, जगन्नाथ पुरी जाने के लिए भक्तों की भारी भीड़ उमड़ रही थी। |
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श्लोक 139: जब बंगाल के सारे भक्त आ गये, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने सबको रहने का स्थान दिया और शिवानन्द सेन को उनकी देखरेख का भार सौंप दिया। |
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श्लोक 140: शिवानन्द सेन तथा भक्तों के साथ एक कुत्ता आया था, जो इतना भाग्यवान निकला कि श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों का दर्शन करने के बाद वह मुक्त हो गया और भगवद्धाम वापस चला गया। |
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श्लोक 141: वाराणसी जा रहे सार्वभौम भट्टाचार्य से मार्ग में सभी लोग मिले। |
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श्लोक 142: जगन्नाथ पुरी आकर सारे वैष्णव श्री चैतन्य महाप्रभु से मिले। बाद में सभी भक्तों को साथ लेकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने जलक्रीड़ा की। |
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श्लोक 143: सबसे पहले महाप्रभु ने गुण्डिचा - मन्दिर को बारीकी से धोया। उसके बाद सब भक्तों ने रथयात्रा उत्सव एवं रथ के आगे महाप्रभु के नृत्य का दर्शन किया। |
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श्लोक 144: जगन्नाथ मन्दिर से गुण्डिचा के रास्ते में पड़ने वाले बगीचे में श्री चैतन्य महाप्रभु ने विविध लीलाएँ कीं। कृष्णदास नामक एक ब्राह्मण ने श्री चैतन्य महाप्रभु का अभिषेक किया। |
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श्लोक 145: गुण्डिचा - मन्दिर में नृत्य करने के बाद महाप्रभु ने भक्तों के साथ जलक्रीड़ा की और हेरापंचमी के दिन उन सबने लक्ष्मीदेवी के कार्यकलापों का दर्शन किया। |
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श्लोक 146: कृष्ण के जन्मदिवस, जन्माष्टमी को, श्री चैतन्य महाप्रभु ने ग्वालबाल का वेश बनाकर दही के मटकों से युक्त एक बहँगी धारण की तथा एक नाठी को घुमाइ। |
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श्लोक 147: इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने गौड़देश (बंगाल) से आये सारे भक्तों को विदा किया। महाप्रभु सदा साथ रहने वाले अपने अन्तरंग भक्तों के साथ सदैव कीर्तन करते रहे। |
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श्लोक 148: वृन्दावन जाने के लिए, महाप्रभु पहले गौड़देश (बंगाल) गये। रास्ते में राजा प्रतापरुद्र ने महाप्रभु को प्रसन्न करने के लिए अनेक प्रकार से सेवाएँ कीं। |
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श्लोक 149: बंगाल होकर वृन्दावन जाते समय एक घटना घटी, जिसमें पुरी गोसांई का वस्त्र उनसे बदल गया। श्री रामानन्द राय महाप्रभु के साथ - साथ भद्रक नगर तक गये। |
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श्लोक 150: जब श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन जाते हुए विद्यानगर (बंगाल) पहुँचे, तो वे सार्वभौम भट्टाचार्य के भाई विद्यावाचस्पति के घर पर रुके। जब महाप्रभु सहसा उनके घर पहुँचे, तो वहाँ लोगों की भारी भीड़ जमा हो गई। |
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श्लोक 151: लोग लगातार पाँच दिनों तक महाप्रभु का दर्शन करने आते रहे और उन्हें कोई विश्राम नहीं मिल रहा था। अतएव भीड़ के भय से महाप्रभु ने रात्रि में ही प्रस्थान कर दिया और वे कुलिया नामक ग्राम (आज का नवद्वीप) में चले गये। |
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श्लोक 152: कुलियाग्राम में महाप्रभु का आगमन सुनकर हजारों - लाखों लोग उनका दर्शन करने आये। |
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श्लोक 153: इस समय श्री चैतन्य महाप्रभु ने जो विशेष कार्य किये, उनमें देवानन्द पंडित पर कृपा करना तथा गोपाल चापल नामक ब्राह्मण, जिसने श्रीवास ठाकुर के चरणकमलों के प्रति अपराध किया था, उसको क्षमा प्रदान करना मुख्य हैं। |
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श्लोक 154: अनेक नास्तिक तथा निन्दक भी आये और महाप्रभु के चरणकमलों में गिर पड़े। महाप्रभु ने उन्हें क्षमा की और उनको कृष्ण - प्रेम प्रदान किया। |
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श्लोक 155: जब श्री नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी ने सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन जायेंगे, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और मन ही मन उस मार्ग को सजाने लगे। |
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श्लोक 156: सर्वप्रथम नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी ने कुलिया नगरी से शुरु होने वाली एक चौड़ी सड़क का चिन्तन किया। उन्होंने पुनः इस सड़क को रत्नों से सजाया और उसके ऊपर डंठल रहित फूलों की एक सेज बिछायी। |
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श्लोक 157: उन्होंने मन - ही - मन सड़क के दोनों किनारों को बकुल पुष्प के वृक्षों से सजाया और बीच - बीच में दोनों ओर दिव्य सरोवर निर्मित किये। |
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श्लोक 158: इन सरोवरों में स्नान करने के घाट रत्नों से बने थे, जिनमें कमल के फूल खिले थे। तरह - तरह के पक्षी चहक रहे थे और सरोवरों का जल अमृत के समान था। |
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श्लोक 159: पूरी सड़क में नाना प्रकार की शीतल हवा बह रही थी, जो विविध फूलों की सुगन्ध से लदी थी। वे इस सड़क को कानाइ नाटशाला तक बनाते हुए ले गये। |
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श्लोक 160: नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी अपने मन में कानाइ नाटशाला के आगे सड़क नहीं बना पाये। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि पूरी सड़क क्यों नहीं बन पा रही है, अतः वे चकित थे। |
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श्लोक 161: उसके बाद उन्होंने विश्वासपूर्वक भक्तों से बतलाया कि इस बार श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन नहीं जायेंगे। |
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श्लोक 162: नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी ने कहा, “महाप्रभु कानाइ नाटशाला तक जायेंगे और पुनः लौट आयेंगे। इसे तुम बाद में जानोगे, किन्तु मैं अभी बड़े ही विश्वास के साथ कह रहा हूँ।” |
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श्लोक 163: जब श्री चैतन्य महाप्रभु कुलिया से वृन्दावन की ओर चलने लगे, तो हजारों लोग उनके साथ थे और ये सारे भक्त थे। |
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श्लोक 164: श्री चैतन्य महाप्रभु जहाँ - जहाँ गये, वहीं असंख्य लोगों की भीड़ उनका दर्शन करने आई। दर्शन करने पर उनका सारा दुःख और शोक दूर हो गया। |
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श्लोक 165: जहाँ - जहाँ महाप्रभु के चरणकमल भूमि पर पड़ते थे, लोग तुरन्त आकर व हाँ की धूल ले लेते थे। उन लोगों ने इतनी धूल एकत्रित की कि अनेक गड्ढे बन गये। |
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श्लोक 166: श्री चैतन्य महाप्रभु रामकेलि नामक गाँव में आये। यह गाँव बंगाल की सीमा पर स्थित है और अत्यन्त मनोहर है। |
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श्लोक 167: रामकेलि ग्राम में संकीर्तन करते समय महाप्रभु नृत्य करते और कभी - कभी भगवत् - प्रेमवश अपनी चेतना खो देते थे। रामकेलि ग्राम में असंख्य लोग उनके चरणकमलों का दर्शन करने के लिए आये। |
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श्लोक 168: जब बंगाल के मुसलमान राजा ने सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रभाव से असंख्य लोग आकृष्ट हो रहे हैं, तो वह अत्यन्त विस्मित हुआ और इस प्रकार कहने लगा। |
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श्लोक 169: “बिना कुछ दान दिये ही जिस व्यक्ति का इतने लोग अनुसरण कर रहे हों, वह निश्चय ही ईश्वर का दूत होगा। मैं निश्चित रूप से ऐसा समझता हूँ।” |
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श्लोक 170: उस मुसलमान राजा ने अपने काजी (मैजिस्ट्रेट) को आदेश दिया, “इस हिन्दू ईश्वर के दूत को ईष्यवश तंग मत करना। यह जहाँ भी जो कुछ चाहे उसे करने दिया जाये।” |
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श्लोक 171: जब मुसलमान राजा ने अपने सहायक केशव छत्री से श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रभाव के बारे में जानना चाहा, तो उसने महाप्रभु के बारे में सब कुछ जानते हुए भी बात टालने के लिए चैतन्य महाप्रभु के कार्यकलापों को कोई महत्त्व नहीं दिया। |
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श्लोक 172: केशव छत्री ने मुसलमान राजा को बतलाया कि चैतन्य महाप्रभु एक संन्यासी हैं, जो विभिन्न तीर्थस्थलों की यात्रा कर रहे हैं, अतएव कुछेक लोग ही उन्हें देखने आते हैं। |
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श्लोक 173: केशव छत्री ने कहा, “आपका मुसलमान सेवक ईष्यवश उनके विरुद्ध षड्यंत्र कर रहा है। मेरे विचार से उनमें अधिक रुचि लेना आपके लिए लाभप्रद नहीं होगा, प्रत्युत इससे नुकसान ही हो सकता है।” |
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श्लोक 174: इस प्रकार राजा को समझा - बुझाकर केशव छत्री ने श्री चैतन्य महाप्रभु के पास इस प्रार्थना के साथ एक ब्राह्मण दूत भेजा कि वे शीघ्र ही वहाँ से चले जायें। |
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श्लोक 175: राजा ने एकान्त में दबिर खास (श्रील रूप गोस्वामी) से पूछताछ की, तो वे महाप्रभु की महिमाओं का वर्णन करने लगे। |
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श्लोक 176: श्रील रूप गोस्वामी ने कहा, “जिस पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने आपको यह राज्य दिया है और जिन्हें आप ईश्वर के दूत के रूप में स्वीकार करते हैं, उन्होंने आपके सौभाग्य से आपके देश में जन्म लिया है। |
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श्लोक 177: “यह ईश्वर के दूत सदैव आपके मंगल के आकांक्षी हैं। उन्हीं की कृपा से आपके सारे कार्य सफल होते हैं। उनके आशीर्वाद से आपकी सर्वत्र विजय होगी। |
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श्लोक 178: “आप मुझसे क्यों पूछ रहे हैं? आप अपने मन से क्यों नहीं पूछते? आप जनता के राजा होने के कारण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रतिनिधि हैं। अतएव आप इसे मुझसे अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं।” |
|
श्लोक 179: इस प्रकार श्रील रूप गोस्वामी ने राजा को बतलाया कि उसका मन श्री चैतन्य महाप्रभु को जानने का एक साधन है। उन्होंने राजा को विश्वास दिलाया कि उ सके मन में जो भी आये उसे ही प्रमाण मानें। |
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श्लोक 180: राजा ने उत्तर दिया, “मैं श्री चैतन्य महाप्रभु को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् मानता हूँ। इसमें कोई सन्देह नहीं है।” |
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श्लोक 181: रूप गोस्वामी के साथ इस बातचीत के बाद राजा अपने अन्तःपुर में चला गया। तब रूप गोस्वामी (जो उस समय दबिर खास कहलाते थे) भी अपने घर लौट गये। |
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श्लोक 182: अपने घर लौट आने के बाद दबिर खास तथा उनके भाई ने पर्याप्त विचार विमर्श के बाद महाप्रभु से वेष बदलकर मिलने का निर्णय किया। |
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श्लोक 183: इस प्रकार दबिर खास तथा साकर मल्लिक दोनों भाई आधी रात को वेश बदलकर श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने गये। सर्वप्रथम वे नेत्यानन्द प्रभु तथा हरिदास ठाकुर से मिले। |
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श्लोक 184: श्री नित्यानन्द प्रभु तथा हरिदास ठाकुर ने श्री चैतन्य महाप्रभु को पाया कि दो भक्त - श्री रूप तथा सनातन - उनका दर्शन करने के आये हैं। |
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श्लोक 185: दोनों भाई अत्यन्त दीनतावश अपने दाँतों में तिनके दबाकर और अपने गले में कपड़ा बाँधकर महाप्रभु के सामने दण्ड के समान गिर पड़े। |
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श्लोक 186: श्री चैतन्य महाप्रभु को देखकर दोनों भाई आनन्द से अभिभूत हो गये और दीनतावश रोने लगे। |
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श्लोक 187: दोनों भाई उठ खड़े हुए और पुनः अपने दाँतों में तिनका दबाकर उन्होंने हाथ जोड़कर विनीत भाव से प्रार्थना की। |
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श्लोक 188: “पतितात्माओं का उद्धार करने वाले परम दयालु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय हो! परम भगवान् की जय हो! |
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श्लोक 189: “हे प्रभु, हम नीच जाति के हैं और हमारे संगी तथा हमारी नौकरी भी निम्न कोटि की है। अतएव हम आपके समक्ष अपना परिचय नहीं दे सकते। हमें यहाँ आपके समक्ष खड़े होने में अत्यधिक लज्जा का अनुभव हो रहा है। |
|
श्लोक 190: “हे प्रभु, हम आपको बतला देना चाहते हैं कि न तो हम से बड़ा कोई पपि है, य ही हमारे समान कोई अपराधी है। यदि हम अपने पापकर्म बताना भी चाहे, तो हमें तुरन्त लज्जा आ जाती है। उन्हें छोड़ने की बात तो दूर रही।” |
|
श्लोक 191: दोनों भाइयों ने निवेदन किया, “हे प्रभु, आप पतितात्माओं का उद्धार करने के लिए अवतरित हुए हैं। |
|
श्लोक 192: “आपने जगाइ तथा माधाइ दोनों भाइयों का उद्धार किया, किन्तु उनका उद्धार करने में आपको अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ा। |
|
श्लोक 193: “जगाइ तथा माधाइ दोनों भाई ब्राह्मण जाति के थे और उनका निवास - स्थान नवद्वीप की पुण्यभूमि में था। उन्होंने न तो कभी नीच पुरुषों की सेवा की थी, न ही वे नीच कार्यों के साधन बने। |
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श्लोक 194: “जगाइ तथा माधाइ में केवल एक दोष था — वे पापकर्मों में लिप्त रहते थे। किन्तु पापकर्मों का भण्डार आपके पवित्र नाम के कीर्तन के आभास मात्र से ही जलकर भस्म हो सकता है। |
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श्लोक 195: “जगाइ तथा माधाइ ने आपकी निन्दा के रूप में आपके पवित्र नाम का उच्चारण किया। |
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श्लोक 196: “हम दोनों जगाइ तथा माधाइ से करोड़ों गुना अधम हैं। हम उनसे अधिक नीच, पतित तथा पापी हैं। |
|
श्लोक 197: “वास्तव में हम म्लेच्छ (मांसाहारी) जाति के हैं, क्योंकि हम म्लेच्छों के नौकर हैं। निस्सन्देह, हमारे कार्य बिल्कुल म्लेच्छों की ही तरह हैं। चूँकि हम सदैव ऐसे लोगों की संगति करते हैं, अतएव हम गौवों तथा ब्राह्मणों के प्रति शत्रुभाव रखने वाले हैं।” |
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श्लोक 198: साकर मल्लिक तथा दबिर खास, दोनों भाइयों ने विनीत भाव से निवेदन किया कि अपने जघन्य कार्यों के फलस्वरूप उन्हें हाथ तथा गले से बाँधकर भौतिक इन्द्रिय - भोग रूपी घृणित मल जैसे पदार्थों के गड्ढे में गिरा दिये गये हैं। |
|
श्लोक 199: “तीनों लोकों में हमारा उद्धार करने में कोई भी समर्थ नहीं है। आप पतितात्माओं के एकमात्र उद्धारक हैं, अतएव आपके अतिरिक्त हमारा कोई दूसरा नहीं है। |
|
श्लोक 200: “यदि आप अपने दिव्य बल से हमारा उद्धार कर दें, तो निश्चय ही आप ‘पतितपावन’ के रूप में जाने जायेंगे। |
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श्लोक 201: “हम बिल्कुल सत्य कह रहे हैं। हे दयामय! कृपया इसे सुन लीजिये। तीनों लोकों में हमारे अतिरिक्त कोई दूसरा दया का पात्र नहीं है। |
|
श्लोक 202: “हम सर्वाधिक पतित हैं, अतएव हम पर दया करने पर आपकी दया सर्वाधिक सफल होगी। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आपकी दया की शक्ति देखने दीजिये! । |
|
श्लोक 203: “हे प्रभु, हमें आपके समक्ष एक बात कहने दें। यह रंचमात्र भी मिथ्या नहीं है अपितु सार्थक है। यह इस प्रकार है – यदि आप हम पर दयालु नहीं होंगे, तो आपकी कृपा के लिए हमसे अधिक योग्य पात्र ढूंढ पाना अत्यधिक कठिन होगा। ” |
|
श्लोक 204: “आपकी कृपा के लिए उपयुक्त पात्र न होने से हम अत्यधिक क्षुब्ध हैं। फिर भी हमने आपके दिव्य गुणों के विषय में सुन रखा है, अतएव हम आपके प्रति अत्यधिक आकृष्ट हैं। |
|
श्लोक 205: “निस्सन्देह, हम उस वामन के तुल्य हैं, जो चाँद को पकड़ना चाहता है। यद्यपि हम सर्वथा अयोग्य हैं, किन्तु हमारे मनों में आपकी कृपा प्राप्त करने की इच्छा उठ रही है। |
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श्लोक 206: “आपकी निरन्तर सेवा करने से मनुष्य सारी भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है और पूर्ण शान्ति प्राप्त करता है। वह समय कब आयेगा जब मैं आपका नित्य दास बनूंगा और ऐसा योग्य स्वामी पाकर सदैव प्रसन्नता का अनुभव करूँगा?” |
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श्लोक 207: दबिर खास तथा साकर मल्लिक की प्रार्थना सुनने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “हे दबिर खास, तुम दोनों भाई मेरे पुराने सेवक हो। |
|
श्लोक 208: “हे साकर मल्लिक, आज से तुम्हारे नाम श्रील रूप तथा श्रील सनातन होंगे। अब अपनी दीनता को त्यागो, क्योंकि तुम्हारी दीनता देखकर मेरा हृदय फटा जा रहा है। |
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श्लोक 209: “तुमने मेरे पास अपनी दीनता जताने वाले अनेक पत्र लिखे, जिनसे तुम्हारी दीनता परिलक्षित होती है। मैं उन पत्रों से तुम्हारे व्यवहार को समझ सकता हूँ। |
|
श्लोक 210: “मैं तुम्हारे पत्रों से ही तुम्हारे हृदय को जान गया था। इसलिए तुम्हें शिक्षा देने के लिए मैंने तुम्हारे पास एक श्लोक लिख भेजा था, जो इस प्रकार है। |
|
श्लोक 211: “यदि कोई स्त्री अपने पति को छोड़कर किसी अन्य पुरुष में आसक्त रहती है, तो वह अपने घरेलू कामों में अत्यधिक व्यस्त दिखेगी, किन्तु अपने अन्तर में वह अपने प्रेमी के सान्निध्य की अनुभूति का सदैव आस्वादन करती रहती है।’ |
|
श्लोक 212: “वास्तव में बंगाल आने में मेरा कोई प्रयोजन नहीं था, किन्तु मैं तुम दोनों भाइयों को मिलने के लिए ही आया हूँ। |
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श्लोक 213: “हर कोई पूछ रहा है कि मैं इस रामकेलि गाँव में क्यों आया हूँ। कोई भी मेरे प्रयोजन को नहीं जानता। |
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श्लोक 214: “यह अच्छा हुआ कि तुम दोनों भाई मुझे मिलने आये। अब तुम घर जा सकते हो। अब किसी बात का डर न रखो। |
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श्लोक 215: “तुम दोनों जन्म - जन्मांतर मेरे सनातन दास रहे हो। मुझे विश्वास है कि कृष्ण शीघ्र ही तुम्हारा उद्धार करेंगे।” |
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श्लोक 216: तब महाप्रभु ने उन दोनों के सिरों पर अपने दोनों हाथ रख दिये और उन दोनों ने तुरन्त ही अपने - अपने मस्तक पर महाप्रभु के चरणकमलों को रख लिया। |
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श्लोक 217: इसके बाद महाप्रभु ने उन दोनों को अपने आलिंगन में ले लिया और वहाँ पर उपस्थित सारे भक्तों से अनुरोध किया कि वे उन पर दयालु हों और उनका उद्धार करें। |
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श्लोक 218: जब समस्त भक्तों ने दोनों भाइयों पर महाप्रभु की कृपा देखी, तो वे अत्यन्त पुलकित हुए और “हरि! हरि!” कहकर भगवन्नाम का कीर्तन करने लगे। |
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श्लोक 219: महाप्रभु के सभी वैष्णव पार्षद वहाँ उपस्थित थे, जिनमें नित्यानन्द प्रभु, हरिदास ठाकुर, श्रीवास ठाकुर, गदाधर पण्डित, मुकुन्द, जगदानन्द पण्डित, मुरारि तथा वक्रेश्वर सम्मिलित थे। |
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श्लोक 220: श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेशानुसार रूप तथा सनातन दोनों भाइयों ने तुरन्त ही इन वैष्णवों के चरणकमलों का स्पर्श किया। वे सभी अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने दोनों भाइयों को महाप्रभु की कृपा प्राप्त होने पर बधाई दी। |
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श्लोक 221: वहाँ पर उपस्थित सारे वैष्णवों से आज्ञा लेकर दोनों भाइयों ने विदा लेते समय महाप्रभु के चरणकमलों पर कुछ निवेदन किया। |
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श्लोक 222: उन्होंने कहा, “हे प्रभु, यद्यपि बंगाल का राजा नवाब हुसैन शाह आपका अत्यन्त सम्मान करता है, किन्तु अब आपका यहाँ कोई अन्य काम नहीं है। अतएव कृपया आप इस स्थान से प्रस्थान करें। |
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श्लोक 223: “यद्यपि राजा आपके प्रति आदर - भाव रखता है, तो भी वह यवन जाति का है और उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। हमारे विचार से वृन्दावन की तीर्थयात्रा के लिए अपने साथ इतनी बड़ी भीड़ ले जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। |
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श्लोक 224: हे प्रभु, आप अपने साथ लाखों लोगों को लेकर वृन्दावन जा रहे हैं, किन्तु तीर्थयात्रा करने की यह उपयुक्त विधि नहीं है।” |
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श्लोक 225: यद्यपि श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं श्रीकृष्ण भगवान् थे और तनिक भी भयभीत नहीं थे, तथापि उन्होंने अपने नये भक्तों को शिक्षा देने के लिए एक मनुष्य की भाँति आचरण किया। |
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श्लोक 226: यह कहकर दोनों भाइयों ने महाप्रभु के चरणकमलों की वन्दना की और अपने घर लौट आये। |
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श्लोक 227: प्रातःकाल महाप्रभु वहाँ से चल पड़े और कानाइ नाटशाला नामक स्थान गये। वहाँ उन्होंने भगवान् कृष्ण की अनेक लीलाएँ देखीं। |
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श्लोक 228: उस रात महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी के इस प्रस्ताव पर विचार किया कि उन्हें इतने लोगों को साथ लेकर वृन्दावन नहीं जाना चाहिए। |
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श्लोक 229: महाप्रभु ने सोचा, “यदि मैं इतनी बड़ी भीड़ के साथ मथुरा जाऊँगा, तो बहुत अच्छा नहीं होगा ; क्योंकि इससे वातावरण अशान्त हो जायेगा।” |
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श्लोक 230: महाप्रभु इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वे अकेले ही या अधिक से अधिक एक व्यक्ति के साथ वृन्दावन जायेंगे। इस तरह से वृन्दावन जाना अत्यन्त सुखद होगा। |
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श्लोक 231: इस प्रकार सोचकर महाप्रभु ने प्रातःकाल गंगा नदी में स्नान किया और यह कहकर चल पड़े कि, “मैं नीलाचल जाऊँगा।” |
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श्लोक 232: श्री चैतन्य महाप्रभु चलते - चलते शान्तिपुर पहुँचे और अद्वैत आचार्य के घर में पाँच - सात दिन रहे। |
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श्लोक 233: इस अवसर का लाभ उठाकर श्री अद्वैत आचार्य प्रभु ने माता शचीदेवी को बुला लिया और वे उनके घर में महाप्रभु का भोजन बनाने के लिए सात दिन तक रहीं। |
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श्लोक 234: अपनी माता से आज्ञा लेकर श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के लिए चल पड़े। जब भक्तगण उनके साथ चलने लगे, तो महाप्रभु ने उनसे विनती की कि वे वहीं रहें और तब उन्होंने सबसे विदा ली। |
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श्लोक 235: यद्यपि श्री चैतन्य महाप्रभु ने सारे भक्तों से लौट जाने के लिए कहा, किन्तु उनमें से दो लोगों को उन्होंने अपने साथ आने दिया। उन्होंने सारे भक्तों से प्रार्थना की कि वे रथयात्रा के अवसर पर जगन्नाथ पुरी आकर उनसे भेंट करें। |
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श्लोक 236: दो भक्त जो श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ जगन्नाथ पुरी (नीलाचल) जा रहे थे, वे थे बलभद्र भट्टाचार्य तथा दामोदर पण्डित। |
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श्लोक 237: जगन्नाथ पुरी में कुछ दिन रहकर महाप्रभु रात में चुपके से वृन्दावन के लिए चल पड़े। उन्होंने यह कार्य किसी की जानकारी में आये बिना किया। |
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श्लोक 238: जब श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से वृन्दावन के लिए चले, तब उनके साथ केवल बलभद्र भट्टाचार्य थे। इस तरह वे मार्ग में झारखण्ड होते हुए बड़ी प्रसन्नतापूर्वक बनारस (वाराणसी) पहुँचे। |
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श्लोक 239: श्री चैतन्य महाप्रभु बनारस में केवल चार दिन रहे और फिर वृन्दावन के लिए चल पड़े। मथुरा नगरी देखने के बाद उन्होंने बारह वन देखे। |
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श्लोक 240: श्रीकृष्ण की बारहों लीलास्थलियाँ देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु भावावेश के कारण अत्यधिक विह्वल हो उठे। उन्हें बलभद्र भट्टाचार्य किसी तरह मथुरा से बाहर ले गये। |
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श्लोक 241: मथुरा छोड़ने के बाद महाप्रभु गंगा नदी के किनारे - किनारे चलने लगे और अन्त में प्रयाग (इलाहबाद) नामक पवित्र स्थान पर आ पहुँचे। यहीं पर श्रील रूप गोस्वामी आकर महाप्रभु से मिले। |
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श्लोक 242: प्रयाग में रूप गोस्वामी ने आकर महाप्रभु को दण्डवत् प्रणाम किया और महाप्रभु ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक उनका आलिंगन किया। |
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श्लोक 243: प्रयाग में दशाश्वमेध घाट पर श्रील रूप गोस्वामी को शिक्षा देने के बाद चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें वृन्दावन जाने का आदेश दिया। तत्पश्चात् महाप्रभु वाराणसी लौट आये। |
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श्लोक 244: जब चैतन्य महाप्रभु वाराणसी आये, तो वहाँ उनसे सनातन गोस्वामी मिले। महाप्रभु वहाँ दो मास तक रहे और सनातन गोस्वामी को पूरी तरह से शिक्षा दी। |
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श्लोक 245: सनातन गोस्वामी को पूरी तरह शिक्षित करके श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें भक्ति की शक्ति देकर मथुरा भेज दिये। बनारस में उन्होंने मायावादी संन्यासियों पर भी कृपा की। तत्पश्चात् वे नीलाचल (जगन्नाथ पुरी) लौट गये। |
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श्लोक 246: महाप्रभु छः वर्षों तक सारे भारत में भ्रमण करते रहे। वे अपनी दिव्य लीलाएँ सम्पन्न करते हुए कभी इधर तो कभी उधर रहते और कभी वे जगन्नाथ पुरी में रहते। |
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श्लोक 247: जगन्नाथ पुरी में रहते हुए महाप्रभु संकीर्तन करने और भाव - विभोर होकर जगन्नाथ मन्दिर का दर्शन करने में अपना समय प्रसन्नतापूर्वक बिताते रहे। |
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श्लोक 248: इस प्रकार मैंने महाप्रभु की मध्यलीला का सारांश दिया है। हे भक्तों, कृपया अब महाप्रभु की अन्तिम लीला का सारांश सुनो, जो अन्त्यलीला कहलाती है। |
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श्लोक 249: जब महाप्रभु वृन्दावन से लौटकर जगन्नाथ पुरी आ गये, तो वे वहीं पर रहे और अठारह वर्षों तक कहीं नहीं गये। |
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श्लोक 250: इन अठारह वर्षों में बंगाल के सारे भक्त प्रतिवर्ष उनसे जगन्नाथ पुरी में आकर मिलते रहे। वे वहाँ लगातार चार महीने रहते और महाप्रभु के संग का आनन्द लूटते। |
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श्लोक 251: जगन्नाथ पुरी में श्री चैतन्य महाप्रभु निरन्तर कीर्तन और नृत्य करते। इस तरह उन्होंने संकीर्तन - लीला के आनन्द का आस्वादन किया। वे सब पर, यहाँ तक कि नीच से नीच व्यक्ति (चाण्डाल) पर भी, अपनी अहैतुकी कृपा अर्थात् शुद्ध भगवत्प्रेम प्रकट करते। |
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श्लोक 252: जगन्नाथ पुरी में चैतन्य महाप्रभु के साथ रहने वालों में पण्डित गोसांई तथा अन्य भक्त यथा वक्रेश्वर, दामोदर, शंकर तथा हरिदास ठाकुर थे। |
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श्लोक 253: महाप्रभु के साथ जो अन्य भक्त रह रहे थे, उनके नाम थे - जगदानन्द, भगवान, गोविन्द, काशीश्वर, परमानन्द पुरी तथा स्वरूप दामोदर। |
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श्लोक 254: श्री रामानन्द राय तथा जगन्नाथ पुरी के निवासी अन्य भक्तगण भी महाप्रभु के साथ स्थायी रूप से रहते थे। |
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श्लोक 255-256: अन्य भक्त जिनमें अद्वैत आचार्य, नित्यानन्द प्रभु, मुकुन्द, श्रीवास, विद्यानिधि, वासुदेव तथा मुरारि प्रमुख हैं, जगन्नाथ पुरी आया करते थे और लगातार चार मास तक महाप्रभु के साथ रहा करते थे। महाप्रभु इन सबके साथ विविध लीलाओं का आनन्द लेते थे। |
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श्लोक 257: जगन्नाथ पुरी में हरिदास ठाकुर ने देह त्याग किया। यह घटना अत्यन्त अद्भुत थी, क्योंकि स्वयं महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर के तिरोभाव के उपलक्ष्य में उत्सव मनाया। |
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श्लोक 258: श्रील रूप गोस्वामी जगन्नाथ पुरी में महाप्रभु से पुनः मिले। महाप्रभु ने उनके हृदय में समस्त दिव्य शक्ति संचारित कर दी। |
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श्लोक 259: इसके बाद महाप्रभु ने छोटे हरिदास को दण्ड दिया और दामोदर पण्डित ने महाप्रभु को कुछ चेतावनी दी। |
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श्लोक 260: इसके बाद सनातन गोस्वामी पुनः चैतन्य महाप्रभु से मिले और महाप्रभु ने ज्येष्ठ मास की झुलसाने वाली गर्मी में उनकी परीक्षा ली। |
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श्लोक 261: प्रसन्न होकर महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को पुनः वृन्दावन भेज दिये। इसके बाद महाप्रभु ने श्री अद्वैत आचार्य के हाथों से अद्भुत भोजन किया। |
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श्लोक 262: सनातन गोस्वामी को वृन्दावन पुनः भेजने के बाद महाप्रभु ने श्री नित्यानन्द प्रभु से एकान्त में परामर्श किया। तत्पश्चात् उन्होंने भगवत् - प्रेम का प्रचार करने के लिए उन्हें बंगाल भेज दिये। |
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श्लोक 263: इसके तुरन्त बाद वल्लभ भट्ट महाप्रभु से जगन्नाथ पुरी में मिले और महाप्रभु ने उन्हें पवित्र कृष्ण - नाम का अर्थ बतलाया। |
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श्लोक 264: रामानन्द राय के दिव्य गुणों की व्याख्या कर महाप्रभु ने प्रद्युम्न मिश्र को रामानन्द राय के घर भेजा और प्रद्युम्न मिश्र ने उनसे कृष्ण - कथा सुनी। |
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श्लोक 265: इसके बाद चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय के छोटे भाई गोपीनाथ पट्टनायक को राजा द्वारा दिये जाने वाले मृत्यु - दण्ड से बचाया। |
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श्लोक 266: रामचन्द्र पुरी ने महाप्रभु के भोजन की आलोचना की, अतएव उन्होंने अपना भोजन न्यूनतम कर दिया। किन्तु जब सारे वैष्णव इससे अत्यन्त दुःखी हुए, तो महाप्रभु ने उसे बढ़ाकर पहले का आधा कर दिया। |
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श्लोक 267: इस ब्रह्माण्ड के भीतर चौदह भुवन (ग्रह मण्डल) हैं और सारे जीव इन ग्रह मण्डलों में रहते हैं। |
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श्लोक 268: वे सभी तीर्थयात्रियों का वेश धारण करके श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने जगन्नाथ पुरी आया करते थे। |
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श्लोक 269: एक दिन श्रीवास ठाकुर इत्यादि सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य गुणों का कीर्तन कर रहे थे। |
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श्लोक 270: अपने दिव्य गुणों का कीर्तन श्री चैतन्य महाप्रभु को अच्छा नहीं लगा। अतएव उन्होंने उन सबको डाँटा मानो वे नाराज हों। उन्होंने पूछा, “यह कैसा कीर्तन है? क्या तुम लोग भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन छोड़ रहे हो?” |
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श्लोक 271: श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह कहते हुए सबको प्रताड़ित किया कि तुम लोग स्वतन्त्र बनकर अपनी धृष्टता मत दिखलाओ और इस तरह सारे संसार का विनाश मत करो। |
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श्लोक 272: जब श्री चैतन्य महाप्रभु बाह्य रूप से नाराज दिख रहे थे और अपने भक्तों को प्रताड़ित कर रहे थे, तब बाहर से हजारों भक्तों ने उच्च स्वर में पुकारा, “श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो!” |
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श्लोक 273: सारे भक्त उच्च स्वरों में कीर्तन करने लगे, “महाराज नन्द के पुत्र श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! आप सारे जगत् का उद्धार करने के लिए प्रकट हुए हैं। |
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श्लोक 274: “हे प्रभु, हम बहुत दुःखी हैं। हम बहुत दूर से चलकर आपका दर्शन करने आये हैं। कृपया दयालु होकर आपकी कृपा का प्रदर्शन करें।” |
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श्लोक 275: जब महाप्रभु ने लोगों की विनीत याचना सुनी, तो उनका हृदय द्रवित हो उठा। अत्यन्त दयालु होने के कारण वे तुरन्त बाहर निकल आये और उन सबको दर्शन दिया। |
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श्लोक 276: अपनी दोनों बाँहें उठाकर महाप्रभु ने सबसे भगवान् हरि के पवित्र नाम का उच्च स्वर में कीर्तन करने को कहा। तुरन्त ही वहाँ हलचल मच गई और “हरि!” ध्वनि से समस्त दिशाएँ गुंजायमान हो उठीं। |
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श्लोक 277: महाप्रभु का दर्शन करके सभी लोग प्रेमवश आनन्दित हो उठे। सबने महाप्रभु को भगवान् के रूप में स्वीकार किये और उनकी स्तुति की। |
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श्लोक 278: जब लोग इस प्रकार से महाप्रभु की स्तुति कर रहे थे, तब श्रीनिवास आचार्य ने महाप्रभु से व्यंग्यपूर्वक कहा, “आप तो घर में गुप्त रहना चाहते थे। किन्तु आपने अपने आपको बाहर क्यों प्रकट कर दिया?” |
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श्लोक 279: श्रीवास ठाकुर ने आगे कहा, “इन लोगों को किसने सिखाया है? ये सब क्या कह रहे हैं? अब आप इनके मुँह अपने हाथ से बन्द कर सकते हैं। |
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श्लोक 280: “यह तो उसी प्रकार है जैसे मानो सूर्य उदय होने के बाद अपने आपको छिपाना चाहे। हम आपके चरित्र (व्यवहार) के ऐसे गुणों को समझ नहीं पाते।” |
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श्लोक 281: महाप्रभु ने उत्तर दिया, “हे श्रीनिवास, यह परिहास बन्द करो। तुम सब लोग इस प्रकार से मुझे शर्मिन्दा करने के लिए आपस में मिल गये हो।” |
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श्लोक 282: इस प्रकार कहकर लोगों पर कृपापूर्वक अपनी शुभ दृष्टि डालकर महाप्रभु अपने कमरे में चले गये। |
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श्लोक 283: इसके बाद रघुनाथ दास श्री नित्यानन्द प्रभु के पास पहुँचे और उनके आदेशानुसार उत्सव का आयोजन किया और चिउड़ा तथा दही से युक्त प्रसाद का वितरण किया। |
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श्लोक 284: बाद में श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी ने अपना घर छोड़ दिया और जगन्नाथ पुरी में श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण ली। उस समय महाप्रभु ने उन्हें स्वीकार किया और आध्यात्मिक उन्नति के लिए स्वरूप - दामोदर के संरक्षण में सौंप दिया। |
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श्लोक 285: बाद में श्री चैतन्य महाप्रभु ने ब्रह्मानन्द भारती का मृगचर्म पहनने की आदत को बन्द करवाया। इस प्रकार महाप्रभु छः वर्षों तक निरन्तर अपनी लीलाएँ करते हुए अनेक प्रकार के दिव्य आनन्द का अनुभव करते रहे। |
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श्लोक 286: इस तरह मैंने मध्यलीला का सारांश कह दिया है। अब कृपा करके महाप्रभु द्वारा अन्तिम बारह वर्षों में सम्पन्न की गई लीलाओं को सुनें। |
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श्लोक 287: श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए एवं सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्री चैतन्य - चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ। |
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