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अध्याय 19: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा श्रील रूप गोस्वामी को उपदेश
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इस अध्याय का सारांश श्रील भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा अमृत-प्रवाह-भाष्य में दिया गया है। रामकेलि नामक गाँव में श्री चैतन्य महाप्रभु से रूप तथा सनातन दोनों भाई मिले और उसके बाद ही वे अपनी -अपनी सरकारी नौकरी से निकलने का उपाय सोचने लगे। दोनों भाइयों ने पुरश्चरण विधि कराने तथा कृष्ण-नाम का कीर्तन करने के लिए कुछ ब्राह्मण नियुक्त किये। श्रील रूप गोस्वामी ने एक बनिये के यहाँ दस हजार स्वर्ण मुद्राएँ जमा कर दीं और शेष धन अपने साथ दो नावों में भरकर बाक्ला चन्द्रद्वीप नामक स्थान पर लेते आये। वहाँ पर उन्होंने यह धन ब्राह्मणों , वैष्णवों तथा अपने सम्बन्धियों में बाँट दिया और कुछ अंश निजी आवश्यकता तथा आपात्काल के लिए रख लिया। उन्हें यह सूचित किया गया कि श्री चैतन्य महाप्रभु मध्य प्रदेश के जंगल से होकर जगन्नाथपुरी से वृन्दावन जा रहे हैं; अतएव उन्होंने यह पता लगाने के लिए दो व्यक्ति भेजे कि महाप्रभु जगन्नाथपुरी से वृन्दावन के लिए कब यात्रा शुरू कर रहे हैं। इस तरह रूप गोस्वामी तो सेवा-निवृत्त हो गये, किन्तु सनातन गोस्वामी ने नवाब से कहा कि मैं बीमार हूँ, अतएव कार्य नहीं कर सकता। यह बहाना बनाकर वे घर पर बैठ गये और विद्वान ब्राह्मणों के संग में श्रीमद्भागवत का अध्ययन करने लगे। नवाब हुसेन शाह ने पहले तो यह देखने के लिए कि असलियत क्या है , अपने निजी वैद्य को भेजा , किन्तु बाद में वह स्वयं सनातन गोस्वामी के पास यह देखने के लिए आया कि वे राज -कार्य पर क्यों नहीं जा रहे हैं। यह जानकर कि वे अपने पद से त्याग -पत्र देना चाहते हैं, नवाब ने उन्हें बन्दी बनाकर जेल में डाल दिया। इसके बाद नवाब उड़ीसा पर आक्रमण करने चला गया। जब श्री चैतन्य महाप्रभु मध्य प्रदेश के जंगल (झारखण्ड) से होकर वृन्दावन के लिए चल पड़े, तब रूप गोस्वामी ने अपना घर छोड़ दिया और सनातन के पास समाचार भेजा कि वे घर छोड़कर अपने छोटे भाई (अनुपम मल्लिक) के साथ महाप्रभु से मिलने जा रहे हैं। अन्त में श्रील रूप गोस्वामी प्रयाग पहुँचे और श्री चैतन्य महाप्रभु से लगातार दस दिनों तक मिले। इसी बीच वल्लभ भट्ट ने बड़े ही आदर के साथ महाप्रभु को अपने यहाँ आमन्त्रित किया। श्री चैतन्य महाप्रभु ने वल्लभ भट्ट से श्रील रूप गोस्वामी का परिचय कराया। इसके बाद रघुपति उपाध्याय नामक एक ब्राह्मण ने आकर महाप्रभ से कृष्णभावनामृत के विषय में विचार-विमर्श किया। इसके बाद कविराज गोस्वामी ने वृन्दावन में श्री रूप और सनातन के रहन -सहन का विस्तार से वर्णन किया है। प्रयाग में दस दिनों के दौरान महाप्रभु ने श्री रूप गोस्वामी को भक्तिरसामृतसिन्धु के मुख्य सिद्धान्तों की शिक्षा दी। इसके बाद महाप्रभु ने रूप गोस्वामी को वृन्दावन भेज दिया। महाप्रभु स्वयं वाराणसी लौट गये और चन्द्रशेखर के घर में रुके। |
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श्लोक 1: इस विराट् जगत् की सृष्टि करने के पूर्व भगवान् ने ब्रह्मा के हृदय में सृष्टि की विस्तृत जानकारी प्रकाशित की और वैदिक ज्ञान प्रकट किया। ठीक उसी तरह से महाप्रभु ने भगवान् कृष्ण की वृन्दावन - लीलाओं को पुनर्जीवित करने के लिए रूप गोस्वामी के हृदय को आध्यात्मिक शक्ति से संचारित किया। श्रील रूप गोस्वामी इस शक्ति से वृन्दावन में कृष्ण की उन लीलाओं को पुनरुज्जीवित कर सके, जो प्रायः विस्मृत हो चुकी थीं। इस तरह उन्होंने सारे विश्व में कृष्णभावनामृत का विस्तार किया। |
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श्लोक 2: श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैतचन्द्र की जय हो तथा महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! |
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श्लोक 3: रामकेलि गाँव में श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने के बाद रूप तथा सनातन दोनों भाई अपने अपने घर लौट गये। |
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श्लोक 4: दोनों भाइयों ने एक उपाय सोचा जिससे वे अपने भौतिक कार्यकलापों को त्याग सकें। |
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श्लोक 5: ब्राह्मणों ने धार्मिक कृत्य सम्पन्न किया और कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण किया, जिससे दोनों भाइयों को शीघ्र ही श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में शरण प्राप्त हो सके। |
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श्लोक 6: इसी समय श्री रूप गोस्वामी अपने साथ नावों में प्रचुर मात्रा में धन लेकर घर लौटे। |
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श्लोक 7: श्रील रूप गोस्वामी ने घर लाये गये धन का बँटवारा कर दिया। उन्होंने पचास प्रतिशत धन ब्राह्मणों तथा वैष्णवों को दान में दे दिया और पच्चीस प्रतिशत अपने सम्बन्धियों को दिया। |
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श्लोक 8: उन्होंने अपनी चौथाई सम्पत्ति एक सम्मानित ब्राह्मण के पास रख दी। इसे उन्होंने अपनी निजी सुरक्षा के लिए रखा, क्योंकि उन्हें आशंका थी कि वे कहीं कोई कानूनी झंझट में न फँस जायें। |
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श्लोक 9: उन्होंने दस हजार सिक्के एक स्थानीय बंगाली बनिये के यहाँ जमा कर दिये थे, जिनका खर्च बाद में श्री सनातन गोस्वामी ने किया। |
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श्लोक 10: श्री रूप गोस्वामी ने सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी लौट गये हैं और जंगल से होकर वृन्दावन जाने की तैयारी कर रहे हैं। |
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श्लोक 11: श्रील रूप गोस्वामी ने यह पता करने के लिए दो व्यक्ति जगन्नाथपुरी भेजे कि श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन के लिए कब प्रस्थान करेंगे। |
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श्लोक 12: श्री रूप गोस्वामी ने दोनों व्यक्तियों से कहा, “तुम लोग जल्दी लौटकर मुझे बताओ कि वे कब प्रस्थान करेंगे। तब मैं समुचित व्यवस्था करूँगा।” |
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श्लोक 13: गौड़देश में रहते हुए सनातन गोस्वामी सोच रहे थे, “नवाब मुझसे अत्यन्त प्रसन्न है। मेरा निश्चित रूप से कर्तव्य बनता है। |
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श्लोक 14: यदि नवाब किसी तरह मुझसे नाराज हो जाए, तो मुझे मुक्ति मिल सकती है। यही मेरा निश्चय है।” |
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श्लोक 15: स्वास्थ्य खराब होने का बहाना करके सनातन गोस्वामी घर पर ही रहे। इस तरह उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी और राज - दरबार नहीं गये। |
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श्लोक 16: उनके लोभी क्लकर् तथा सचिवालय के कर्मचारी सरकारी कामकाज पूरा कर लेते, किन्तु सनातन घर पर रहते और शास्त्रों की चर्चा करते रहते। |
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श्लोक 17: श्री सनातन गोस्वामी बीस - तीस विद्वान ब्राह्मणों की सभा में श्रीमद्भागवत पर चर्चा चलाते थे। |
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श्लोक 18: एक दिन जब सनातन गोस्वामी विद्वान ब्राह्मणों की सभा में श्रीमद्भागवत का अध्ययन कर रहे थे, तब बंगाल का नवाब तथा एक अन्य व्यक्ति सहसा वहाँ आ गये। |
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श्लोक 19: ज्योंही सभी ब्राह्मणों तथा सनातन गोस्वामी ने नवाब को आते देखा, वे सभी खड़े हो गये और उन्होंने आदरपूर्वक उसे बैठने के लिए आसन दिया। |
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श्लोक 20: नवाब ने कहा, “मैंने तुम्हारे पास मेरा वैद्य भेजा था। उसने सूचना दी है कि तुम्हें कोई रोग नहीं है। उसके विचार से तुम पूर्ण स्वस्थ हो। |
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श्लोक 21: “मैं अनेकानेक कार्यों को पूरा करने के लिए तुम पर निर्भर हूँ, किन्तु तुम हो कि अपना सरकारी काम - काज छोड़कर घर पर बैठे रहते हो। |
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श्लोक 22: “तुमने मेरा सारा कामकाज बिगाड़ दिया है। आखिर तुम चाहते क्या हो? कृपया मुझसे साफ साफ कहो।” |
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श्लोक 23: सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया, “अब आप मुझसे किसी प्रकार के कार्य की आशा न करें। कृपा करके किसी दूसरे व्यक्ति को ढूंढ लें, जो आपकी व्यवस्था देख स के।” । |
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श्लोक 24: सनातन गोस्वामी से नाराज होकर नवाब ने कहा, “तुम्हारा बड़ा भाई लुटेरे जैसा व्यवहार कर रहा है। |
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श्लोक 25: “तुम्हारे बड़े भाई ने अनेक जीवों का वध करके समूचे बंगाल को नष्ट कर दिया है। अब तुम मेरी सारी योजनाओं को नष्ट कर रहे हो।” |
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श्लोक 26: सनातन गोस्वामी ने कहा, “आप बंगाल के सर्वोच्च शासक हैं और पूर्णतया स्वतन्त्र हैं। जब भी कोई व्यक्ति त्रुटि करता है, आप उसे उसी के हिसाब से दण्ड देते हैं।” |
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श्लोक 27: यह सुनकर बंगाल का नवाब उठ खड़ा हुआ और वह अपने घर लौट गया। उसने सनातन गोस्वामी को बन्दी बनाये जाने का आदेश दिया, जिससे वे कहीं जा न सकें। |
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श्लोक 28: उस समय नवाब उड़ीसा प्रान्त पर आक्रमण करने जा रहा था और उसने सनातन गोस्वामी से कहा, “तुम मेरे साथ चलो।” |
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श्लोक 29: सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया, “आप तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को कष्ट देने उड़ीसा जा रहे हैं। इसीलिए मैं आपके साथ जाने में अशक्त हूँ।” |
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श्लोक 30: नवाब ने फिर से सनातन गोस्वामी को बन्दी बनाया और जेल में डाल दिया। उस समय श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से वृन्दावन के लिए चल पड़े। |
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श्लोक 31: दो व्यक्तियों ने, जो महाप्रभु के प्रस्थान का पता लगाने जगन्नाथ पुरी गये थे, लौटकर रूप गोस्वामी को सूचित किया कि महाप्रभु पहले ही वृन्दावन के लिए चल चुके हैं। |
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श्लोक 32: इन दोनों सन्देशवाहकों से यह सन्देश पाकर रूप गोस्वामी ने तुरन्त सनातन गोस्वामी को यह पत्र लिखा कि श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन के लिए चल चुके हैं। |
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श्लोक 33: श्रील रूप गोस्वामी ने सनातन गोस्वामी को अपने पत्र में लिखा, “हम दोनों भाई श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने के लिए प्रस्थान करने वाले हैं। तुम भी किसी तरह छूटकर हमसे मिलो।” |
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श्लोक 34: रूप गोस्वामी ने श्रील सनातन गोस्वामी को यह भी सूचित किया, “मैं वहाँ एक बनिये के पास दस हजार मुद्राएँ छोड़ आया हूँ। तुम उस धन का उपयोग अपने आपको जेल से छुड़ाने में करो। |
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श्लोक 35: “किसी तरह से छूटकर वृन्दावन आओ।” यह लिखकर दोनों भाई (रूप गोस्वामी तथा अनुपम) श्री चैतन्य महाप्रभु को मिलने चले गये। |
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श्लोक 36: रूप गोस्वामी का छोटा भाई महान् भक्त था, जिसका सच्चा नाम श्री वल्लभ था ; किन्तु उसका नाम अनुपम मल्लिक रख दिया गया था। |
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श्लोक 37: श्रील रूप गोस्वामी तथा अनुपम मल्लिक प्रयाग गये और यह समाचार सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुए कि श्री चैतन्य महाप्रभु वहीं पर हैं। |
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श्लोक 38: प्रयाग में श्री चैतन्य महाप्रभु बिन्दुमाधव मन्दिर में दर्शन करने गये और लाखों लोग उनसे मिलने मात्र के लिए उनके पीछे पीछे चल रहे थे। |
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श्लोक 39: महाप्रभु के पीछे चलने वालों में से कुछ लोग रो रहे थे, कुछ हँस रहे थे, कुछ नाच और गा रहे थे। उनमें से कुछ “कृष्ण! कृष्ण!” पुकारकर भूमि पर लोट रहे थे। |
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श्लोक 40: प्रयाग, गंगा तथा यमुना - इन दो नदियों के संगम पर स्थित है। यद्यपि ये नदियाँ अपने जल से प्रयाग को जलमग्न नहीं कर सकी थीं, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण - प्रेम की लहरों से पूरे भूभाग को आप्लावित कर दिया। |
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श्लोक 41: बड़ी भीड़ देखकर दोनों भाई एकान्त स्थान पर खड़े रहे। उन्होंने देखा कि श्री चैतन्य महाप्रभु बिन्दु माधव का दर्शन पाकर प्रेमाविष्ट हो गये। |
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श्लोक 42: महाप्रभु हरि नाम का उच्च स्वर से कीतर्न कर रहे थे। प्रेमावेश में नाचते हुए और अपनी भुजाएँ उठाते हुए उन्होंने हर एक से “हरि! हरि!” बोलने के लिए कहा। |
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श्लोक 43: हर व्यक्ति श्री चैतन्य महाप्रभु की महानता देखकर अत्यन्त विस्मित था। मैं महाप्रभु की प्रयाग - लीलाओं का ठीक - ठीक वर्णन नहीं कर सकता। |
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श्लोक 44: श्री चैतन्य महाप्रभु की दक्षिण भारत के एक ब्राह्मण से जान - पहचान हो गई थी और उस ब्राह्मण ने उन्हें भोजन के लिए निमन्त्रित किया। वह उन्हें अपने घर ले गया। |
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श्लोक 45: जब महाप्रभु उस दाक्षिणात्य ब्राह्मण के घर एकान्त में बैठे थे, तब रूप गोस्वामी तथा श्री वल्लभ (अनुपम मल्लिक) उनसे भेंट करने वहाँ आये। |
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श्लोक 46: दूर से महाप्रभु को देखकर दोनों भाइयों ने अपने दाँतों में तिनकों के दो गुच्छे दबा लिए और उन्हें नमस्कार करने के लिए भूमि पर दण्ड के समान गिर पड़े। |
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श्लोक 47: दोनों भाई प्रेमाविष्ट हो गये और अनेक संस्कृत श्लोक पढ़ते हुए बारम्बार उठते और गिरते। |
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श्लोक 48: श्री चैतन्य महाप्रभु श्रील रूप गोस्वामी को देखकर अत्यधिक प्रसन्न थे। उन्होंने उनसे कहा, “उठो! उठो! हे प्रिय रूप! मेरे पास आओ।” |
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श्लोक 49: तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “कृष्ण की कृपा का वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है, क्योंकि उन्होंने तुम दोनों को भौतिक भोग के कुएँ से बाहर निकाल लिया है।” |
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श्लोक 50: “(भगवान् कृष्ण ने कहा:) ‘कोई भले ही संस्कृत वैदिक साहित्य का बहुत बड़ा विद्वान क्यों न हो, यदि उसकी भक्ति शुद्ध नहीं है, तो वह मेरा भक्त नहीं माना जा सकता। भले ही कोई व्यक्ति चण्डाल परिवार में जन्मा हो, वह भी मुझे अत्यन्त प्रिय है, यदि वह मेरा शुद्ध भक्त है, जिसमें सकाम कर्म या मानसिक तकर् वितकर् को भोगने की कोई इच्छा नहीं है। उसे सभी प्रकार से सम्मान दिया जाना चाहिए और वह जो कुछ भी दे, उसे स्वीकार करना चाहिए। ऐसा भक्त मेरे ही समान पूजनीय है।” |
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श्लोक 51: श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह श्लोक पढ़कर दोनों भाइयों का आलिंगन किया और अहैतुकी कृपा करके उनके सिरों पर अपने पाँव रखे। |
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श्लोक 52: महाप्रभु की अहैतुकी कृपा पाकर दोनों भाइयों ने हाथ जोड़े और अत्यन्त दीन - भाव से महाप्रभु की निम्नलिखित स्तुति की। |
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श्लोक 53: “हे परम दयालु अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के शुद्ध प्रेम का उदारता से वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमस्कार करते हैं। |
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श्लोक 54: “हम उन दयालु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को सादर नमस्कार करते हैं, जिन्होंने अज्ञान से मदोन्मत्त तीनों लोकों को बदल डाला है और उन्हें भगवत्प्रेम के कोष के अमृत से उन्मत्त बनाकर रुग्ण अवस्था से उनकी रक्षा की है। हम उन भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य की शरण ग्रहण करते हैं, जिनके कार्यकलाप अद्भुत हैं।” |
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श्लोक 55: इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें अपनी बगल में बैठाया और उनसे पूछा, “सनातन का क्या समाचार है?” |
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श्लोक 56: श्री रूप गोस्वामी ने उत्तर दिया, “सनातन को हुसेन शाह की सरकार ने अब बन्दी बना लिया है। यदि आप कृपा करके उसे बचायें, तो वह उस बन्धन से छूट सकता है।” |
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श्लोक 57: श्री चैतन्य महाप्रभु ने तुरन्त कहा, “सनातन उसके कारागार से छूट चुका है और वह शीघ्र ही आकर मुझसे मिलेगा।” |
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श्लोक 58: तब ब्राह्मण ने श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रार्थना की कि वे भोजन ग्रहण करें। उस दिन रूप गोस्वामी भी वहीं रहे। |
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श्लोक 59: बलभद्र भट्टाचार्य ने दोनों भाइयों को भी भोजन करने को कहा। उन्हें श्री चैतन्य महाप्रभु की थाल से बचा हुआ भोजन प्रदान किया गया। |
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श्लोक 60: श्री चैतन्य महाप्रभु ने गंगा तथा यमुना के संगम के निकट त्रिवेणी नामक स्थान में अपना निवासस्थान चुना। रूप गोस्वामी तथा श्री वल्लभ दोनों भाइयों ने महाप्रभु के निकट ही अपना निवासस्थान चुना। |
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श्लोक 61: उस समय श्री वल्लभ भट्ट आड़ाइल ग्राम में रह रहे थे। जब उन्होंने सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु आये हैं, तो वे उनका दर्शन करने उनके स्थान पर गये। |
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श्लोक 62: वल्लभ भट्टाचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार किया और महाप्रभु ने उनका आलिंगन किया। इसके बाद कुछ समय तक वे कृष्ण - कथाओं के विषय में विचार - विमर्श करते रहे। |
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श्लोक 63: जब वे कृष्ण - कथा के विषय में बातें कर रहे थे, तब श्री चैतन्य महाप्रभु को अत्यधिक प्रेमावेश का अनुभव हुआ, किन्तु उन्होंने अपना भाव रोका, क्योंकि वल्लभ भट्ट के समक्ष उन्हें संकोच हो रहा था। |
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श्लोक 64: यद्यपि महाप्रभु ने बाहर से अपने आपको रोका, किन्तु उनके भीतर ही भीतर प्रेमावेश उमड़ने लगा। उसको रोक पाना सम्भव नहीं था। वल्लभ भट्ट यह पहचानकर आश्चर्यचकित थे। |
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श्लोक 65: इसके बाद वल्लभ भट्ट ने श्री चैतन्य महाप्रभु को भोजन पर बुलाया और महाप्रभु ने रूप तथा वल्लभ दोनों भाइयों का उनसे परिचय करवाया। |
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श्लोक 66: रूप गोस्वामी तथा श्री वल्लभ दोनों भाइयों ने अत्यधिक दीनतावश दूर से ही भूमि पर गिरकर वल्लभ भट्ट को प्रणाम किया। |
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श्लोक 67: जब वल्लभ भट्टाचार्य उनकी ओर बढ़े, तो वे और दूर चले गये। रूप गोस्वामी ने कहा, “मैं अछूत और अत्यन्त पापी हूँ। कृपा करके मुझे न छुएँ।” |
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श्लोक 68: इस पर वल्लभ भट्टाचार्य को अत्यधिक आश्चर्य हुआ। किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न थे ; अतएव उन्होंने रूप गोस्वामी का यह विवरण उन्हें दिया। |
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श्लोक 69: श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “उसे मत छुएँ, क्योंकि वह अत्यन्त निम्न जाति का है। आप तो वैदिक नियमों के अनुयायी हैं और अनेक यज्ञों को सम्पन्न करने में अत्यन्त अनुभवी हैं। आप तो कुलीन भी हैं।” |
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श्लोक 70: दोनों भाइयों को कृष्ण - नाम का निरन्तर जप करते सुनकर वल्लभ भट्टाचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु के संकेतों को समझ सके। |
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श्लोक 71: वल्लभ भट्टाचार्य ने कहा, “जब ये दोनों निरन्तर कृष्ण - नाम का कीर्तन जप रहते हैं, तो फिर ये अस्पृश्य कैसे हो सकते हैं? उल्टे, ये सर्वोत्तम हैं।” |
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श्लोक 72: तब वल्लभ भट्टाचार्य ने यह श्लोक सुनाया, “हे प्रभु, जिस व्यक्ति की जीभ पर आपका पवित्र नाम सदा रहता है, वह दीक्षित ब्राह्मण से भी बढ़कर होता है। भले ही वह चण्डाल कुल में क्यों न उत्पन्न हुआ हो और भौतिक दृष्टि से अत्यन्त नीच व्यक्ति हो, फिर भी वह यशस्वी है। यह भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन का अद्भुत प्रभाव है। अतः निष्कर्ष यह निकलता है कि जो भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करता है, उसे वेदोक्त सारे तप तथा यज्ञ सम्पन्न किया हुआ मान लेना चाहिए। वह पहले से सारे तीर्थों में स्नान कर चुका होता है। वह सारे वेदों का अध्ययन कर चुका होता है और वास्तव में आर्य होता है।” |
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श्लोक 73: वल्लभ भट्ट को भक्त के विषय में शास्त्र से उद्धरण देते सुनकर महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न थे। महाप्रभु ने स्वयं उनकी प्रशंसा की और वे भगवत्प्रेम से आविष्ट होकर शास्त्रों से अनेक श्लोक सुनाने लगे। |
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श्लोक 74: श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “भक्ति प्रज्वलित अग्नि की तरह विगत जीवन के सारे पापों के फलों को जला देती है। जो व्यक्ति उस भक्ति के कारण ब्राह्मण के शुद्ध गुणों से युक्त है, वह निम्न - कुल में जन्म लेने जैसे पापकर्मों के परिणामों से निश्चित रूप से बच जाता है। भले ही वह चण्डाल के परिवार में क्यों न जन्मा हो, विद्वान उसे मान्यता प्रदान करते हैं। किन्तु वैदिक ज्ञान में पंडित व्यक्ति, यदि वह नास्तिक हो, तो उसे मान्यता नहीं मिलती। |
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श्लोक 75: “भक्तिहीन व्यक्ति के लिए उच्च कुल या राष्ट्र में जन्म लेना, शास्त्र - ज्ञान, व्रत - तप तथा वैदिक मन्त्रोच्चार वैसे ही हैं, जैसे मृत शरीर को गहने पहनाना। ऐसे गहने केवल सामान्य जनता के मनोकल्पित आनन्द की ही तुष्टि करने वाले होते हैं।”’ |
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श्लोक 76: महाप्रभु के प्रेमावेश को देखकर वल्लभ भट्टाचार्य अत्यधिक आश्चर्यचकित थे। वे महाप्रभु के भक्ति विषयक ज्ञान तथा उनके शारीरिक सौन्दर्य और प्रभाव से भी आश्चर्यचकित थे। |
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श्लोक 77: तब वल्लभ भट्टाचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों को नाव में चढ़ाया और उन्हें भोजन कराने के लिए अपने स्थान पर ले गये। |
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श्लोक 78: यमुना नदी पार करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने चिकना श्यामल जल देखा, तो वे तुरन्त ही प्रेमावेश में विह्वल हो गये। |
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श्लोक 79: यमुना नदी को देखते ही श्री चैतन्य महाप्रभु ने हुंकार की और पानी में कूद पड़े। यह देखकर सारे लोग भयभीत होकर काँपने लगे। |
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श्लोक 80: उन्होंने शीघ्रतिशीघ्र श्री चैतन्य महाप्रभु को पकड़ा और जल से बाहर निकाला। नाव के ऊपर आकर महाप्रभु नृत्य करने लगे। |
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श्लोक 81: महाप्रभु के भार से नाव हिलने - डुलने लगी। उसमें जल भरने लगा और डूबने को हो गई। |
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श्लोक 82: श्री चैतन्य महाप्रभु ने वल्लभाचार्य के समक्ष अपने आपको यथासम्भव संभालने का प्रयास किया और अपने आपको शान्त रखना चाहा, किन्तु उनका प्रेमभाव रोके न रुका। |
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श्लोक 83: परिस्थिति देखकर महाप्रभु शान्त हो गये, जिससे नाव आड़ाइल के किनारे पहुँचकर लग सकी। |
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श्लोक 84: महाप्रभु की कुशलता के लिए भयभीत वल्लभ भट्टाचार्य उनके साथ रहे। महाप्रभु के स्नान का प्रबन्ध करने के बाद भट्टाचार्य उन्हें अपने घर ले गये। |
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श्लोक 85: जब श्री चैतन्य महाप्रभु वल्लभ भट्टाचार्य के घर पहुँचे, तब अत्यन्त प्रसन्न होने के कारण, उन्होंने महाप्रभु को सुन्दर आसन प्रदान किया और स्वयं उनके चरणों को धोया। |
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श्लोक 86: तब वल्लभ भट्टाचार्य तथा उनके पूरे परिवार ने वह जल अपने सिरों के ऊपर छिड़का। |
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श्लोक 87: वल्लभाचार्य ने सुगन्ध, अगुरु, फूल तथा दीप के द्वारा बड़ी सजधज से महाप्रभु की पूजा की और बड़े ही आदर के साथ (महाप्रभु के रसोइये) बलभद्र भट्टाचार्य को भोजन पकाने के लिए राजी किया। |
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श्लोक 88: इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु को बड़ी ही सावधानी से तथा स्नेह से भोजन परोसा गया। |
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श्लोक 89: वल्लभ भट्टाचार्य ने सबसे पहले श्रील रूप गोस्वामी को महाप्रभु के भोजन का शेष दिया और फिर कृष्णदास को दिया। |
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श्लोक 90: तब महाप्रभु को मुख - शुद्धि के लिए मसाला दिया गया। इसके बाद उन्हें शयन कराया गया और वल्लभ भट्टाचार्य ने अपने हाथों से उनके पाँव दबाये। |
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श्लोक 91: जब वल्लभ भट्टाचार्य उनके पाँव दबा रहे थे, तब महाप्रभु ने उनसे जाकर प्रसाद ग्रहण करने के लिए कहा। वे प्रसाद ग्रहण करके पुनः महाप्रभु के चरणकमलों पर लौट आये। |
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श्लोक 92: उस समय रघुपति उपाध्याय आया जो तिरुहिता जिले का था। वह बहुत बड़ा विद्वान, महान् भक्त तथा सम्मानित व्यक्ति था। |
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श्लोक 93: रघुपति उपाध्याय ने सर्वप्रथम श्री चैतन्य महाप्रभु की वन्दना की और महाप्रभु ने यह कहते हुए आशीर्वाद दिया, “सदैव कृष्णभावनामय बने रहो।” |
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श्लोक 94: रघुपति उपाध्याय महाप्रभु का आशीर्वाद सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ। इसके बाद महाप्रभु ने उससे कृष्ण का वर्णन करने के लिए कहा। |
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श्लोक 95: जब रघुपति उपाध्याय से कृष्ण का वर्णन करने के लिए कहा गया, तो उसने कुछ श्लोक सुनाये, जो उसने कृष्ण - लीला के विषय में स्वयं लिखे थे। उन श्लोकों को सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु प्रेम से विह्वल हो गये। |
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श्लोक 96: रघुपति उपाध्याय ने सुनाया, “इस भौतिक अस्तित्व से भयभीत लोग वैदिक साहित्य की पूजा करते हैं। कुछ स्मृति की पूजा करते हैं, जो वैदिक साहित्य के उपसिद्धान्त हैं, तो कुछ महाभारत की। किन्तु मैं तो कृष्ण के पिता महाराज नन्द की पूजा करता हूँ, जिनके आँगन में परम सत्य, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् खेल रहे हैं।” |
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श्लोक 97: जब महाप्रभु ने रघुपति उपाध्याय से और अधिक सुनाने के लिए कहा, तो उसने तुरन्त ही महाप्रभु को नमस्कार किया और उनके आग्रह को स्वीकार कर लिया। |
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श्लोक 98: “मैं किससे कहूँ और कौन मेरी बातों में विश्वास करेगा, यदि मैं कहूँ कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण यमुना नदी के तट पर गोपियों के साथ कुंजों में विहार कर रहे हैं? भगवान् इस तरह से अपनी लीलाओं को प्रदर्शित करते हैं।” |
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श्लोक 99: श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुपति उपाध्याय से अनुरोध किया कि वह श्रीकृष्ण की लीलाओं के विषय में कहता रहे। इस तरह महाप्रभु प्रेमाविष्ट हो गये और उनका मन तथा शरीर शिथिल पड़ गये। |
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श्लोक 100: जब रघुपति उपाध्याय ने श्री चैतन्य महाप्रभु के भाव - लक्षण देखे, तो उसे यह निश्चित हो गया कि महाप्रभु मनुष्य नहीं, अपितु साक्षात् कृष्ण हैं। |
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श्लोक 101: श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुपति उपाध्याय से पूछा, “तुम्हारे मत के अनुसार सर्वश्रेष्ठ हस्ती कौन है?” रघुपति उपाध्याय ने उत्तर दिया, “भगवान् श्यामसुन्दर ही सर्वश्रेष्ठ स्वरूप हैं।” |
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श्लोक 102: “कृष्ण के समस्त धामों में से तुम किसे सर्वश्रेष्ठ मानते हो?” इसके उत्तर में रघुपति उपाध्याय ने कहा, “मधुपुरी अर्थात् मथुरा धाम निश्चित रूप से सर्वश्रेष्ठ है।” |
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श्लोक 103: श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रश्न किया, “कृष्ण की बाल्यावस्था, पौगण्डावस्था तथा कैशोरावस्था - इन तीनों में से तुम किसे सर्वश्रेष्ठ मानते हो?” रघुपति उपाध्याय ने उत्तर दिया, “कैशोर अवस्था सर्वश्रेष्ठ हैं।” |
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श्लोक 104: जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा, “समस्त रसों में तुम किस रस को सर्वश्रेष्ठ मानते हो?” तो रघुपति उपाध्याय ने उत्तर दिया, “माधुर्य रस ही सर्वोपरि है।” |
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श्लोक 105: तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “तुमने निश्चित रूप से उच्च कोटि के निर्णय दिये हैं।” |
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श्लोक 106: “श्यामसुन्दर रूप सर्वश्रेष्ठ रूप है, मथुरापुरी सर्वश्रेष्ठ धाम है, कृष्ण की कैशोरावस्था सदा ध्यान करने योग्य है और माधुर्य रस ही सर्वश्रेष्ठ रस है।”’ |
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श्लोक 107: तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रेमावेश में रघुपति उपाध्याय का आलिंगन किया। रघुपति उपाध्याय भी प्रेम में विभोर होकर नाचने लगे। |
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श्लोक 108: श्री चैतन्य महाप्रभु तथा रघुपति उपाध्याय को नाचते देखकर वल्लभ भट्टाचार्य आश्चर्यचकित हो गये। वे अपने दोनों पुत्रों को ले आये और उन्हें महाप्रभु के चरणकमलों में डाल दिया। |
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श्लोक 109: यह सुनकर कि श्री चैतन्य महाप्रभु आये हुए हैं, सारे ग्रामवासी उनका दर्शन करने के लिए आये। उनका दर्शन करने मात्र से वे सभी कृष्ण - भक्त बन गये। |
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श्लोक 110: गाँव के सारे ब्राह्मण महाप्रभु को निमन्त्रण देने के लिए उत्सुक थे, किन्तु वल्लभ भट्टाचार्य ने उन सबको ऐसा करने से मना कर दिया। |
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श्लोक 111: तब वल्लभ भट्ट ने श्री चैतन्य महाप्रभु को आड़ाइल में न रखने का निश्चय किया, क्योंकि महाप्रभु प्रेमावेश में यमुना नदी में कूद पड़े थे। इसलिए उन्होंने महाप्रभु को प्रयाग ले जाने का निश्चय किया। |
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श्लोक 112: वल्लभ भट्ट ने कहा, “जिसकी इच्छा हो वह प्रयाग जा सकता है। और महाप्रभु को निमन्त्रण दे सकता है। इस तरह वे महाप्रभु को अपने साथ लेकर प्रयाग के लिए चल पड़े। |
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श्लोक 113: वल्लभ भट्टाचार्य, यमुना नदी से बचने के लिए, महाप्रभु को नाव में चढ़ाकर गंगा नदी से उनके साथ - साथ प्रयाग गये। |
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श्लोक 114: प्रयाग में भारी भीड़ होने के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु दशाश्वमेध घाट गये। यहीं पर उन्होंने श्री रूप गोस्वामी को शिक्षा दी और भक्तियोग - दर्शन में उनमें शक्ति का संचार किया। |
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श्लोक 115: श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रील रूप गोस्वामी को कृष्णतत्त्व, भक्तितत्त्व तथा रसतत्त्व की चरम सीमा की शिक्षा दी, जिसकी चरम परिणति राधा तथा कृष्ण के माधुर्य प्रेम में होती है। |
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श्लोक 116: श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय से जितने भी सिद्धान्त सुने थे, उन सबको रूप गोस्वामी को सिखलाया और उन्हें भलीभाँति शक्ति प्रदान की, जिससे वे उन्हें समझ सकें। |
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श्लोक 117: रूप गोस्वामी के हृदय में प्रवेश करके श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें समस्त सत्यों के सिद्धान्तों के तत्त्व से समझने की शक्ति प्रदान की। महाप्रभु ने उन्हें अनुभवी भक्त बना दिया, जिनके निर्णय गुरु - शिष्य परम्परा के निर्णयों से अनुरूप थे। इस प्रकार श्री रूप गोस्वामी को स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु ने शक्ति प्रदान की। |
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श्लोक 118: शिवानन्द सेन के पुत्र कवि कर्णपूर ने अपनी पुस्तक चैतन्य - चन्द्रोदय में श्री रूप गोस्वामी तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के मिलन का विस्तार से वर्णन किया है। |
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श्लोक 119: “कालक्रम में वृन्दावन में कृष्ण की लीलाओं के दिव्य सन्देश लुप्तप्राय हो गये थे। इन दिव्य लीलाओं की स्पष्ट रूप से स्थापना करने के लिए ही श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रयाग में श्रील रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी को अपनी कृपा का अमृत प्रदान किया, जिससे वे वृन्दावन में यह कार्य सम्पन्न कर सकें।” |
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श्लोक 120: “श्रील रूप गोस्वामी प्रारम्भ से ही श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य गुणों के प्रति अत्यन्त आकृष्ट थे। इस तरह उन्होंने गृहस्थ जीवन से स्थायी रूप से वैराग्य ले लिया। श्रील रूप गोस्वामी तथा उनके छोटे भाई वल्लभ को श्री चैतन्य महाप्रभु का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। |
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श्लोक 121: “श्रील स्वरूप दामोदर के प्रिय मित्र, श्रील रूप गोस्वामी, श्री चैतन्य महाप्रभु की हूबहू अनुकृति थे और वे महाप्रभु को अत्यन्त प्रिय थे। श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रेम की साक्षात् मूर्ति होने के कारण रूप गोस्वामी स्वाभाविक रूप से अत्यन्त सुन्दर थे। उन्होंने महाप्रभु द्वारा स्थापित सिद्धान्तों का सावधानी से पालन कि या और वे भगवान् कृष्ण की लीलाओं की सही व्याख्या करने के लिए उपयुक्त व्यक्ति थे। श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन पर इसीलिए अपनी कृपादृष्टि डाली, ताकि वे दिव्य साहित्य की रचना करके सेवा कर सकें।” |
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श्लोक 122: इस तरह कवि कर्णपूर ने जगह - जगह श्रील रूप गोस्वामी के गुणों का वर्णन किया है। |
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श्लोक 123: श्रील रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु के बड़े - बड़े भक्तों के प्रेम तथा सम्मान के पात्र थे। |
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श्लोक 124: यदि कोई वृन्दावन देखने के बाद अपने देश लौट आता, तो महाप्रभु के पार्षद उस व्यक्ति से प्रश्न करते। |
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श्लोक 125: वृन्दावन से लौटने वाले से वे पूछते, “वृन्दावन में रूप और सनातन कैसे हैं? संन्यास आश्रम में उनके कार्य कैसे हैं? वे किस तरह भोजन की व्यवस्था करते हैं?” वे इस प्रकार से पूछते थे। |
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श्लोक 126: महाप्रभु के पार्षद यह भी पूछते, “रूप तथा सनातन किस तरह चौबीसों घण्टे भक्ति में लगे रहते हैं?” उस समय वृन्दावन से होकर आने वाला व्यक्ति श्री रूप तथा सनातन गोस्वामी की प्रशंसा करता। |
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श्लोक 127: उन दोनों भाइयों का कोई स्थायी निवासस्थान नहीं है। वे वृक्षों के नीचे निवास करते हैं - एक रात एक वृक्ष के नीचे तो दूसरी रात दूसरे वृक्ष के नीचे। |
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श्लोक 128: “श्रील रूप तथा सनातन गोस्वामी ब्राह्मणों के घरों से कुछ भोजन माँग लाते हैं। वे सारे भौतिक भोग का परित्याग करके सूखी रोटी तथा भुने चने ही ग्रहण करते हैं। |
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श्लोक 129: ‘वे एकमात्र कमंडल लिये रहते हैं और फटी गुदड़ी ओढ़ते हैं। वे सदैव कृष्ण के पवित्र नाम का जप करते हैं और उनकी लीलाओं की चर्चा करते हैं। वे अति उल्लास से नृत्य भी करते हैं। |
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श्लोक 130: “वे लगभग चौबीसों घण्टे भगवान् की सेवा में लगे रहते हैं। वे केवल डेढ़ घंटा सोते हैं और कुछ दिनों तो, जब वे निरन्तर पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं, तब बिल्कुल नहीं सोते।” |
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श्लोक 131: “कभी वे भक्ति सम्बन्धी दिव्य साहित्य की रचना करते हैं, तो कभी वे श्री चैतन्य महाप्रभु के विषय में सुनते हैं और उन्हीं के विषय में चिन्तन करने में अपना सारा समय लगाते हैं।” |
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श्लोक 132: जब श्री चैतन्य महाप्रभु के पार्षदगण रूप तथा सनातन गोस्वामियों के कार्यों के विषय में सुनते तो वे कहते, “उस व्यक्ति के लिए कौन - सी विस्मय की बात है, जिसे महाप्रभु की कृपा प्राप्त हो चुकी है?” |
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श्लोक 133: श्रील रूप गोस्वामी ने स्वयं ही अपनी पुस्तक भक्तिरसामृतसिन्धु (1.1.2) के मंगलाचरण में श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा के विषय में लिखा है। |
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श्लोक 134: “यद्यपि मैं मनुष्यों में सबसे नीच हूँ और मुझे कोई ज्ञान नहीं है, किन्तु मुझे भक्ति विषयक दिव्य ग्रन्थ लिखने की प्रेरणा कृपापूर्वक दी गई है। अतएव मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि उन्होंने ही मुझे इन ग्रन्थों की रचना करने का अवसर प्रदान किया है।” |
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श्लोक 135: श्री चैतन्य महाप्रभु प्रयाग में दस दिन रहे और उन्होंने रूप गोस्वामी को आवश्यक शक्ति प्रदान करते हुए शिक्षा दी। |
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श्लोक 136: श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, ‘हे प्रिय रूप, कृपया मेरी बात सुनो। भक्ति का पूरी तरह वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है ; अतएव मैं तुम्हें भक्ति के लक्षणों का सारांश बताने का प्रयास कर रहा हूँ। |
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श्लोक 137: “भक्तिरस का सागर इतना विस्तृत है कि कोई इसकी लम्बाई - चौड़ाई का अनुमान नहीं लगा सकता। फिर भी तुम्हें इसका आस्वादन कराने के लिए मैं उसकी एक बूंद का वर्णन कर रहा हूँ। |
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श्लोक 138: “इस ब्रह्माण्ड में 84, 00, 000 योनियों में असंख्य जीव हैं और वे सारे के सारे इस ब्रह्माण्ड के भीतर भ्रमण करते रहते हैं। |
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श्लोक 139: “जीव की लम्बाई तथा चौड़ाई बाल के अगले भाग के एक दस - हजारवें भाग के बराबर बतलाई जाती है। यह जीव की मूल सूक्ष्म प्रकृति है। |
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श्लोक 140: “यदि हम बाल के अगले भाग के सौ खण्ड करें और इनमें से एक खण्ड लेकर फिर से उसके सौ भाग करें, तो वह सूक्ष्म भाग असंख्य जीवों में से एक के आकार के तुल्य होगा। वे सब चित्कण अर्थात् आत्मा के कण होते हैं, पदार्थ के नहीं।’ |
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श्लोक 141: “यदि हम बाल की नोक को सौ भागों में विभाजित करें और इनमें से एक भाग को लेकर पुनः उसके सौ भाग करें, तो वह दस हजारवाँ भाग ही जीव की माप है। यह मुख्य वैदिक मन्त्रों का निर्णय है।’ |
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श्लोक 142: “(भगवान् कृष्ण कहते हैं:) “इन सूक्ष्मकणों में मैं जीव हूँ।’ |
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श्लोक 143: “हे प्रभु, यद्यपि भौतिक देह धारण करने वाले सारे जीव आध्यात्मिक हैं तथा संख्या में अनन्त हैं, किन्तु यदि वे सर्वव्यापक होते तो उनका आपके अधीन होने का प्रश्न ही न उठता। किन्तु, यदि उन्हें सनातन रूप से अस्तित्व में रहने वाले आध्यात्मिक पुरुष के कणों के रूप में अर्थात् आप सर्वोपरि आत्मा के अंश रूप में स्वीकार किया जाए, तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वे सदैव आपके नियन्त्रण के अधीन हैं। यदि सारे जीव इतने से ही सन्तुष्ट हो जाएँ कि आध्यात्मिक कणों के रूप में वे आपके समान हैं, तो वे अनेक वस्तुओं के नियन्ता के रूप में सुखी हो जायें। यह निर्णय दोषपूर्ण है कि जीव तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् एक हैं। यह तथ्य नहीं है।’ |
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श्लोक 144: “असंख्य जीवों के दो विभाग किये जा सकते हैं - चर तथा अचर। चर जीवों में पक्षी, जलचर तथा पशु आते हैं। |
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श्लोक 145: “यद्यपि जीवों में से मनुष्यों की संख्या अत्यल्प है, किन्तु इस विभाग को और आगे विभाजित किया जा सकता है, क्योंकि म्लेच्छ, पुलिन्द, बौद्ध तथा शबर जैसे अनेक असभ्य मानव हैं। |
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श्लोक 146: “मनुष्यों में जो लोग वैदिक नियमों का पालन करने वाले हैं, उन्हें सभ्य माना जाता है। इनमें से आधे लोग दिखावा करते हैं और इन सिद्धान्तों के विरुद्ध सभी तरह के पापकर्म करते हैं। ऐसे लोग विधि - विधानों की परवाह नहीं करते। |
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श्लोक 147: “वैदिक ज्ञान के अनुयायियों में से अधिकांश सकाम कर्म की विधि का अनुसरण करते हैं और अच्छे तथा बुरे काम में अन्तर करते हैं। ऐसे अनेक निष्ठावान सकाम कर्मियों में ऐसा कोई एक हो सकता है, जो वास्तव में ज्ञानी हो। |
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श्लोक 148: “ऐसे लाखों ज्ञानियों में से कोई एक वास्तव में मुक्त होता है और ऐसे लाखों मुक्त लोगों में से कृष्ण का शुद्ध भक्त ढूंढ पाना अत्यन्त दुर्लभ है। |
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श्लोक 149: “चूँकि भगवान् कृष्ण का भक्त निष्काम होता है, इसलिए वह शान्त होता है। सकाम कर्मी भौतिक भोग चाहते हैं, ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं और योगी भौतिक ऐश्वर्य चाहते हैं ; अतः वे सभी कामी हैं और शान्त नहीं हो सकते। |
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श्लोक 150: “हे महामुनि, अज्ञान से मुक्त लाखों पुरुषों में तथा सिद्धि प्राप्त लाखों सिद्धों में से कदाचित् कोई एक नारायण का शुद्ध भक्त होता है। केवल ऐसा भक्त ही वास्तव में पूर्णतया तुष्ट तथा शान्त होता है।’ |
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श्लोक 151: “सारे जीव अपने - अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में घूम रहे। हैं। इनमें से कुछ उच्च ग्रह - मण्डलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह - मण्डलों को। ऐसे करोड़ों भटक रहे जीवों में से कोई एक अत्यन्त भाग्यशाली होता है, जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है। कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है। |
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श्लोक 152: “जब किसी व्यक्ति को भक्ति का बीज प्राप्त हो जाता है, तब उसे माली बनकर उस बीज को अपने हृदय में बोकर उसका ध्यान रखना चाहिए। यदि वह बीज को क्रमशः श्रवण तथा कीर्तन की विधि से सींचता है, तो वह बीज अंकुरित होने लगेगा। |
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श्लोक 153: “भक्ति - लता - बीज को सींचने पर बीज अंकुरित होता है और लता धीरे - धीरे इस ब्राह्मण्ड की दीवारों को भेदकर वैकुण्ठ तथा भौतिक जगत् के बीच स्थित विरजा नदी के पार चली जाती है। यह ब्रह्मलोक या ब्रह्मज्योति पहुँचती है। ब्रह्मलोक की परत को भी भेदकर भक्ति लता परव्योम तथा गोलोक वृन्दावन पहुँच जाती है। |
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श्लोक 154: “हृदय में स्थित होने से तथा श्रवण - कीर्तन द्वारा सींचे जाने से भक्ति लता अधिकाधिक बढ़ती जाती है। इस तरह इसे कृष्ण के चरणकमल रूपी कल्पवृक्ष का आश्रय प्राप्त हो जाता है, जो परव्योम के सर्वोच्च क्षेत्र गोलोक वृन्दावन में निरन्तर वास करते हैं। |
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श्लोक 155: “यह लता गोलोक वृन्दावन ग्रह में खूब बढ़ती है और यहीं इसमें कृष्ण - प्रेम रूपी फल लगता है। यद्यपि माली भौतिक जगत् में रहता है, किन्तु वह नियमित रूप से श्रवण तथा कीर्तन रूपी जल से उसे सींचता है। |
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श्लोक 156: “यदि कोई भक्त भौतिक जगत् में भक्ति - लता का विकास करते हुए किसी वैष्णव के चरणों में अपराध करता है, तो उसके अपराध की तुलना उस पागल हाथी से की जाती है, जो लता को उखाड़कर उसे छिन्न - भिन्न कर देता है। इस तरह लता की पत्तियाँ सूख जाती हैं। |
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श्लोक 157: “माली को चारों और बाड़ बनाकर लता की रक्षा करनी चाहिए, जिससे अपराधों का शक्तिशाली हाथी भीतर न प्रवेश कर पाए। |
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श्लोक 158: “कभी - कभी भक्ति - लता के साथ - साथ भौतिक भोग की इच्छाओं तथा भौतिक जगत् से मुक्ति की लालसा की अवांछित लताएँ भी बढ़ने लगती हैं। ऐसी अवांछित लताओं की किस्में असंख्य हैं। |
|
श्लोक 159: “भक्ति - लता के साथ बढ़ने वाली कुछ अवांछित लताएँ हैं - सिद्धि प्राप्त करने के प्रयास में लगे लोगों के लिए निषिद्ध आचरण, कूटनीति, जीव - हिंसा, सांसारिक लाभ, संसारी पूजा तथा प्रतिष्ठा। ये सभी अवांछित लताएँ हैं। |
|
श्लोक 160: “यदि भक्ति - लता तथा अन्य लताओं में ठीक से भेद नहीं किया जाता, तो जल सींचने की प्रक्रिया का दुरुपयोग हो जाता है, क्योंकि भक्ति - लता बढ़ नहीं पाती है, जबकि अन्य लताएँ हरी - भरी होती जाती हैं। |
|
श्लोक 161: “जैसे ही कोई बुद्धिमान भक्त मूल लता के पास अवांछित लता को बढ़ते देखे, उस लता को उसे तुरन्त काट देना चाहिए। तब भक्ति - लता रूपी असली लता ठीक से बढ़ती है और वह भगवद्धाम लौटकर कृष्ण के चरणकमलों में आश्रय पाती है। |
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श्लोक 162: “जब भक्ति का फल पककर नीचे गिर जाता है, तब माली उस फल को चखता है। इस तरह वह लता का लाभ उठाकर गोलोक वृन्दावन में कृष्ण के चरणकमल रूपी कल्पवृक्ष तक पहुँच जाता है। |
|
श्लोक 163: “वहाँ पर भक्त भगवान् के कल्पवृक्ष तुल्य चरणकमलों की सेवा करता है। वह बड़े ही आनन्दपूर्वक प्रेम रूपी फल का स्वाद लेता है और शाश्वत रूप से सुखी बन जाता है। |
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श्लोक 164: “गोलोक वृन्दावन में भक्ति रूपी फल का आस्वादन ही जीवन की परम सिद्धि है। इस सिद्धि के आगे चार प्रकार की भौतिक सिद्धियाँ - धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष - तृण के समान हैं। |
|
श्लोक 165: “जब तक कृष्ण के उस शुद्ध प्रेम की रंचमात्र भी सुगंध नहीं होती, जो हृदय के भीतर कृष्ण को वश में लाने की पूर्ण औषधि है, तब तक भौतिक सिद्धियाँ, ब्राह्मण की पूर्णता (सत्य, शम, तितिक्षा इत्यादि) , योगियों की समाधि तथा ब्रह्मानन्द - ये सभी मनुष्य को अद्भुत लगते हैं।’ |
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श्लोक 166: “शुद्ध भक्ति प्राप्त होने पर मनुष्य में भगवत्प्रेम उत्पन्न होता है ; अतएव मैं शुद्ध भक्ति के कुछ लक्षणों का वर्णन करता हूँ। |
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श्लोक 167: “जब प्रथम श्रेणी की भक्ति विकसित होती है, तब मनुष्य को समस्त भौतिक इच्छाओं, अद्वैत - दर्शन से प्राप्त ज्ञान तथा सकाम कर्म से रहित हो जाना चाहिए। भक्त को कृष्ण की इच्छानुसार अनुकूल भाव से उनकी निरन्तर सेवा करनी चाहिए।’ |
|
श्लोक 168: “शुद्ध भक्त को कृष्ण की सेवा करने के अतिरिक्त अन्य कोई कामना नहीं करनी चाहिए। |
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श्लोक 169: “ये कार्य शुद्ध भक्ति कहलाते हैं। जो व्यक्ति ऐसी शुद्ध भक्ति करता है, वह उचित समय आने पर कृष्ण के प्रति अपना मूल प्रेम विकसित कर लेता है। पंचरात्र तथा श्रीमद्भागवत जैसे वैदिक ग्रन्थों में इन लक्षणों का वर्णन हुआ है। |
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श्लोक 170: “‘भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान् की सेवा करता है, तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं।’ |
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श्लोक 171: “जिस तरह गंगा को स्वर्गीय जल अबाध गति से समुद्र में जाकर मिल जाता है, उसी तरह जब मेरे भक्त मेरा श्रवण मात्र करते हैं, तो उनके मन मेरे पास आते हैं। मैं सबके हृदयों में वास करता हूँ। |
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श्लोक 172: “ये पुरुषोत्तम अर्थात् पम भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति के लक्षण हैं ; यह अहैतुकी होती है और किसी तरह रोके नहीं रुकती। |
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श्लोक 173: “मेरे भक्त मेरी सेवा करने की तुलना में सालोक्य, सार्टि, सामीप्य तथा सारूप्य इन मुक्तियों को मेरे देने पर भी स्वीकार नहीं करते। |
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श्लोक 174: “ऊपर बतलाया गया भक्तियोग जीवन का चरम लक्ष्य है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की भक्ति करने से मनुष्य भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों को पार कर जाता है और प्रत्यक्ष भक्ति के स्तर पर आध्यात्मिक पद को प्राप्त करता है।’ |
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श्लोक 175: “यदि कोई भौतिक भोग या भौतिक मुक्ति की कामना से पीड़ित है, तो वह शुद्ध प्रेमाभक्ति के स्तर तक ऊपर नहीं उठ सकता, भले ही वह साधारण विधि - विधानों के अनुसार ऊपरी तौर पर भक्ति क्यों न कर रहा हो। |
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श्लोक 176: “भौतिक जगत् को भोगने की इच्छा तथा भौतिक बन्धन से मुक्त होने की इच्छा - ये दो पिशाचिनियाँ हैं, जो भूतप्रेतों की तरह मँडराती रहती हैं। जब तक ये पिशाचिनियाँ हृदय में रहती हैं, तब तक भला दिव्य आनन्द का अनुभव कैसे हो सकता है? जब तक ये दोनों डायने हृदय में रहती हैं, तब तक भक्ति का दिव्य आनन्द अनुभव करने की सम्भावना नहीं रहती। ’ |
|
श्लोक 177: “नियमित भक्ति करते रहने से मनुष्य क्रमशः पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति अनुरक्त होता है। जब यह अनुरक्ति प्रगाढ़ हो जाती है, तब यही भगवत्प्रेम कहलाती है। |
|
श्लोक 178: “प्रेम के आधारभूत पक्ष धीरे धीरे बढ़कर स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग, भाव तथा महाभाव बन जाते हैं। |
|
श्लोक 179: “प्रेम के क्रमिक विकास की तुलना चीनी की विभिन्न अवस्थाओं से की जा सकती है। पहले गन्ने का बीज, फिर गन्ना, तब गन्ने का रस होता है। जब इस रस को उबाला जाता है, तो प्रवाही शीरा बनता है, जो ठोस बनकर गुड़, फिर चीनी, फिर मिश्री, कठोर मिश्री तथा चूसने की मिश्री प्रदान करता है। |
|
श्लोक 180: “ये सारी अवस्थाएँ मिलकर स्थायी भाव – अर्थात् भक्ति में सतत भगवत्प्रेम - कहलाती हैं। इन अवस्थाओं के अतिरिक्त विभाव तथा अनुभाव भी होते हैं। |
|
श्लोक 181: “जब सात्त्विक तथा व्यभिचारी भावों के लक्षणों को उच्चस्तरीय प्रेमभाव से मिला दिया जाता है, तब भक्त नाना प्रकार के अमृतमय स्वादों में कृष्ण - प्रेम के दिव्य आनन्द का आस्वादन करता है। |
|
श्लोक 182: “इनके स्वाद दही, मिश्री, घी, काली मिर्च तथा कपूर के मिश्रण के स्वाद के तुल्य हैं और मधुर अमृत की भाँति स्वादिष्ट होते हैं। |
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श्लोक 183-184: “भक्त के अनुसार रति पाँच प्रकार की होती है - शान्त रति, दास्य रति, सख्य रति, वात्सल्य रति तथा मधुर रति। ये पाँचों प्रकार की रति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति भक्त की विभिन्न अनुरक्तियों से उत्पन्न होती हैं। भक्ति से प्राप्त होने वाले दिव्य रस भी पाँच प्रकार के होते हैं। |
|
श्लोक 185: “भगवान् के साथ अनुभव किये जाने वाले प्रमुख रस पाँच हैं - शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा मधुर। |
|
श्लोक 186: “पाँच प्रत्यक्ष रसों के अतिरिक्त सात अप्रत्यक्ष या गौण रस होते हैं, जिन्हें हास्य, अद्भुत, वीर, करुण, रौद्र, भयानक तथा बीभत्स नाम से जाना जाता है। |
|
श्लोक 187: “पाँच प्रत्यक्ष रसों के अतिरिक्त सात अप्रत्यक्ष रस हैं, जिन्हें हास्य, अद्भुत, वीर, करुण, रौद्र, बीभत्स तथा भयानक कहा जाता है। |
|
श्लोक 188: “भक्ति के पाँच प्रत्यक्ष दिव्य रस भक्त के हृदय में स्थायी रूप से स्थित रहते हैं, जबकि सात गौण भाव किन्हीं विशेष परिस्थितियों में सहसा प्रकट होते हैं और अधिक प्रबल प्रतीत होते हैं। |
|
श्लोक 189: “शान्त भक्तों के उदाहरणों में नव योगेन्द्र तथा चार कुमार आते हैं। दास्य भक्ति के भक्तों के उदाहरण असंख्य हैं, क्योंकि ऐसे भक्त सर्वत्र हैं। |
|
श्लोक 190: “वृन्दावन में सख्य भक्तों में श्रीदामा तथा सुदामा, द्वारका में भीम तथा अर्जुन, वृन्दावन में वात्सल्य प्रेमी भक्त माता यशोदा तथा पिता नन्द महाराज और द्वारका में भगवान् के माता - पिता वसुदेव तथा देवकी हैं। अन्य गुरुजन भी वात्सल्य प्रेमी भक्त हैं। |
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श्लोक 191: “माधुर्य प्रेम में प्रमुख भक्त हैं - वृन्दावन की गोपियाँ, द्वारका की पटरानियाँ तथा वैकुण्ठ की लक्ष्मियाँ। इन भक्तों की संख्या अनन्त है। |
|
श्लोक 192: “कृष्ण रति दो प्रकार की है — पहली ऐश्वर्य - ज्ञान - मिश्रित रति तथा दूसरी ऐश्वर्य - ज्ञान - रहित शुद्ध रति (केवला)। |
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श्लोक 193: “ऐश्वर्य - ज्ञान - विहीन शुद्ध रति गोलोक वृन्दावन में पाई जाती है। ऐश्वर्य तथा ज्ञान से युक्त रति मथुरा तथा द्वारका इन दो पुरियों तथा वैकुण्ठ में पाई जाती है। |
|
श्लोक 194: “ऐश्वर्य प्रधान होने पर भगवत्प्रेम कुछ संकुचित हो जाता है। किन्तु केवला भक्ति में भक्त कृष्ण की असीम शक्ति को देखते हुए भी अपने आपको उनके समान मानता है। |
|
श्लोक 195: “शान्त तथा दास्य रस के स्तर पर कभी - कभी भगवान् का ऐश्वर्य प्रमुख होता है। किन्तु वात्सल्य, सख्य तथा माधुर्य रसों में ऐश्वर्य संकुचित हो जाता है। |
|
श्लोक 196: “जब कृष्ण ने अपने माता - पिता वसुदेव - देवकी के चरणकमलों की वन्दना की, तो दोनों के मन में उनके ऐश्वर्य के ज्ञान के कारण भय तथा आदर उत्पन्न हुआ। |
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श्लोक 197: “जब देवकी तथा वसुदेव ने यह समझ लिया कि उन्हें प्रणाम करने वाले उनके दोनों पुत्र कृष्ण तथा बलराम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, तो वे भयभीत हो उठे और उन्होंने उनका आलिंगन नहीं किया।’ |
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श्लोक 198: “जब कृष्ण ने अपना विराट् रूप दिखलाया, तो अर्जुन भयभीत हो उठा और उसने मित्र रूप के में कृष्ण के प्रति दिखलाई गई धृष्टता के लिए उनसे क्षमा माँगी।” |
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श्लोक 199-200: “मैंने आपकी महिमा न जानने के कारण और आपको मित्र समझकर ‘हे कृष्ण,” ‘हे यादव,” ‘हे मित्र,” कहकर सम्बोधित किया है। मैंने पागलपन या प्रेम में जो कुछ भी किया है, कृपा करके उसके लिए क्षमा कर दें। मैंने एक ही बिस्तर में लेटे हुए परिहास में, साथ - साथ बैठे या खाते हुए, कभी अकेले में तो कभी अपने मित्रों के सामने कई बार आपका अनादर किया है। हे अच्युत, कृपया मेरे उन सारे अपराधों को क्षमा कर दें। ’ |
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श्लोक 201: “यद्यपि कृष्ण महारानी रुक्मिणी से परिहास कर रहे थे, किन्तु वे सोच रही थीं कि कृष्ण उनका साथ छोड़ने वाले हैं, जिससे उन्हें भय लगा। |
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श्लोक 202: “‘जब कृष्ण द्वारका में रुक्मिणी से परिहास कर रहे थे, तब वे दुःख, भय तथा शोक से संतप्त हो गईं। उनकी बुद्धि भी नष्ट हो गई थी। उन्होंने अपने हाथ की चूड़ियाँ गिरा दीं और जिस पंखे से भगवान् को पंखा झल रही थीं वह भी गिर गया। उनके बाल बिखर गये और वे सहसा बेहोश होकर गिर पड़ीं, मानों तेज हवा से केले का कोई वृक्ष गिर गया हो।’ |
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श्लोक 203: “केवला (शुद्ध भक्ति) की अवस्था में भक्त अनुभव करते हुए भी कृष्ण के असीम ऐश्वर्य को नहीं मानता। वह कृष्ण से अपने सम्बन्ध के विषय में ही गम्भीरता से विचार करता है। |
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श्लोक 204: “जब माता यशोदा ने कृष्ण के मुँह के भीतर सारे ब्रह्माण्डों को देखा, तो क्षण - भर के लिए वे आश्चर्यचकित हो गईं। तीनों वेदों के अनुयायियों द्वारा भगवान्, इन्द्र देव तथा अन्य देवताओं की तरह पूजे जाते हैं। ऐसे अनुयायी भगवान् के लिए यज्ञ करते हैं। उपनिषदों के अध्ययन द्वारा उनकी महानता को जानकर ऋषि गण भगवान् की पूजा निर्विशेष ब्रह्म के रूप में करते हैं। बड़े - बड़े दार्शनिक जो ब्रह्माण्ड का विश्लेषात्मक अध्ययन करते हैं, उनको पुरुष के रूप में पूजते हैं। बड़े - बड़े योगी उन्हें सर्वव्यापक परमात्मा के रूप में तथा भक्त पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में पूजते हैं। फिर भी माता यशोदा उन्हें अपने पुत्र के रूप में मानती थीं।’ |
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श्लोक 205: “यद्यपि कृष्ण इन्द्रिय अनुभूति से परे तथा मनुष्यों के लिए अप्रकट हैं, किन्तु वे भौतिक शरीरधारी मनुष्य का वेश धारण करते हैं। इस तरह माता यशोदा ने उन्हें अपना पुत्र माना और ओखली से एक रस्सी द्वारा भगवान् कृष्ण के बाँध दिया, मानो वे सामान्य बालक हों। ’ |
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श्लोक 206: “जब कृष्ण श्रीदामा से हार गये, तो उन्हें श्रीदामा को अपने कंधों पर ले जाना पड़ा। इसी तरह भद्रसेन ने वृषभ को तथा प्रलम्ब ने रोहिणी सुत बलराम को उठाया था।’ |
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श्लोक 207-209: ““‘हे प्रियतम कृष्ण, आप तुम मेरी पूजा कर रहे हो और उन सारी गोपियों का साथ छोड़ रहे हो, जो आपके साथ आनन्द भोगना चाहती हैं।” ऐसा सोचती हुई श्रीमती राधारानी ने अपने आपको कृष्ण की सर्वाधिक प्रिय गोपी मान लिया। उन्हें गर्व हो गया था और कृष्ण के साथ उन्होंने रासलीला छोड़ दी थी। उन्होंने गहन वन में कहा, ‘हे प्रिय कृष्ण, अब मैं और अधिक नहीं चल सकती। आप जहाँ चाहो मुझे ले चलो।” जब श्रीमती राधारानी ने इस प्रकार से कृष्ण से याचना की तो कृष्ण ने कहा, “तुम मेरे कंधों पर चढ़ जाओ।” ज्योंही राधारानी ऐसा करने लगीं कि वे अदृश्य हो गये। तब श्रीमती राधारानी अपनी प्रार्थना तथा कृष्ण के अदृश्य होने पर शोक करने लगीं। ’ |
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श्लोक 210: “हे कृष्ण, हम सब अपने पतियों, पुत्रों, परिवार, भाइयों तथा मित्रों के आदेश की अवहेलना करके उनका साथ छोड़कर आपके पास आई हैं। आप हमारी इच्छाओं के विषय में सब कुछ जानते हैं। हम तो आपकी परम संगीतमयी बाँसुरी से आकृष्ट होकर आई हैं। तो भी, आप बहुत बड़े ठग हो। भला ऐसा कौन होगा जो इस तरह रात्रि के अंधकार में हम जैसी तरुणियों का साथ त्यागना चाहेगा?’ |
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श्लोक 211: जब कोई कृष्ण के चरणकमलों में पूरी तरह लगा रहता है, तब उसे शमता अवस्था प्राप्त होती है। ‘शमता’ शब्द ‘शम’ से निकला है। अतः शान्त रस (तटस्थ अवस्था) का अर्थ है, भगवान् कृष्ण के चरणों में पूरी तरह लगे रहना। यह साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के मुख से निकला निर्णय है। यह अवस्था आत्म - साक्षात्कार कहलाती है। |
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श्लोक 212: “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के वचन हैं: “जब किसी की बुद्धि मेरे चरणकमलों में पूरी तरह संलग्न रहती है, किन्तु वह व्यक्ति किसी तरह की व्यावहारिक सेवा नहीं करता, तो उसे शान्त - रति या शम अवस्था प्राप्त हुई रहती है।” शान्त रति के बिना कृष्ण के प्रति अनुरक्ति प्राप्त कर पाना अत्यन्त कठिन है।’ |
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श्लोक 213: “शम या शान्त - रस शब्द इसका सूचक है कि मनुष्य कृष्ण के चरणकमलों के प्रति अनुरक्त है। दम का अर्थ है इन्द्रियों को वश में रखना और भगवान् की सेवा से तनिक भी विचलित न होना। दुःख का सहना तितिक्षा है और धृति का अर्थ है जीभ तथा उपस्थ (जननेंद्रियों) को वश में रखना। ’ |
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श्लोक 214: “जो शान्त रस को प्राप्त होता है, उसका कार्य है कि उन इच्छाओं का परित्याग करे, जो कृष्ण से सम्बन्धित नहीं हैं। केवल कृष्ण - भक्त ही इस पद को प्राप्त कर सकता है। इस तरह वह शान्त रस भक्त कहलाता है। |
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श्लोक 215: “जब भक्त शान्त रस की भूमिका पर अवस्थित होता है, तब वह न तो स्वर्ग जाने की इच्छा करता है, न मोक्ष की। ये तो कर्म तथा ज्ञान के फल हैं और भक्त इन्हें नरक के समान मानता है। शान्त रस को प्राप्त व्यक्ति में दो दिव्य गुण प्रकट होते हैं — एक तो समस्त भौतिक इच्छाओं से विरक्ति तथा दूसरा कृष्ण के प्रति पूर्ण अनुरक्ति। |
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श्लोक 216: “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नारायण के प्रति पूरी तरह समर्पित व्यक्ति किसी वस्तु से नहीं डरता। भक्त के लिए स्वर्ग जाना, नरक में पहुँचना तथा भवबन्धन से मुक्ति — ये सभी एक जैसे होते हैं।’ |
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श्लोक 217: “शान्त - रस के ये दोनों गुण सभी भक्तों के जीवन में व्याप्त रहते हैं। ये आकाश में शब्द के गुण के समान हैं। शब्द ध्वनि समस्त भौतिक तत्त्वों में पाई जाती है। |
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श्लोक 218: “यह शान्त - रस का स्वभाव है कि उसमें रंचमात्र भी ममता नहीं रहती। प्रत्युत निर्विशेष ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा का ज्ञान प्रमुख होता है। |
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श्लोक 219: “शान्त - रस के पद पर मनुष्य को केवल अपनी वैधानिक स्थिति का ही पता चल पाता है। किन्तु जब वह दास्य - रस के पद पर उन्नति करता है, तब वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के पूर्ण ऐश्वर्य को अच्छी तरह से समझ पाता है। |
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श्लोक 220: “दास्य - रस पद पर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का ज्ञान सम्भ्रम तथा गौरव समेत प्रकट होता है। भगवान् कृष्ण की सेवा करके दास्य - रस भक्त भगवान् को निरन्तर सुख प्रदान करता है। |
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श्लोक 221: “शान्त - रस के गुण दास्य - रस में भी पाये जाते हैं, किन्तु इसमें सेवा जुड़ जाती है। इस तरह दास्य - रस पद में शान्त - रस तथा दास्य - रस - दोनों के ही गुण रहते हैं। |
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श्लोक 222: “सख्य - रस पद में शान्त - रस के गुण तथा दास्य - रस की सेवा दोनों ही विद्यमान रहते हैं। |
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श्लोक 223: “सख्य - रस पद पर कभी भक्त भगवान् की सेवा करता है, तो कभी बदले में कृष्ण से अपनी सेवा करवाता है। क्रीड़ा - युद्ध में ग्वालबाल कभी कृष्ण के कन्धों पर चढ़ जाते थे और कभी वे कृष्ण को अपने कन्धों पर चढ़ा लेते थे। |
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श्लोक 224: “चूँकि सख्य भाव में आत्मीयता प्रधान होती है, अतएव इसमें संभ्रम तथा गौरव (आदरयुक्त भय) अनुपस्थित रहते हैं। अतएव सख्य - रस में तीन रसों के गुण विद्यमान होते हैं। |
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श्लोक 225: “सख्य - रस के पद पर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपने भक्तों के वश में रहते हैं, क्योंकि वे भक्त कृष्ण के घनिष्ठ होते हैं और अपने आपको उन्हीं के समान मानते हैं। |
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श्लोक 226: “वात्सल्य प्रेम के पद पर शान्त - रस, दास्य - रस तथा सख्य - रस के गुण पालन’ नामक सेवा में परिणत हो जाते हैं। |
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श्लोक 227: “सख्य प्रेम का सार है ममता (घनिष्ठता) जिसमें दास्य - रस की औपचारिकता तथा आदर का अभाव रहता है। अधिक घनिष्ठता का भाव होने से भक्त वात्सल्य रस में कार्य करते हुए भगवान् को सामान्य रूप से दंड देता है और फटकारता है। |
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श्लोक 228: “वात्सल्य रस में भक्त अपने आपको भगवान् का पालक समझता है। इस तरह भगवान् पालन के पात्र रहते हैं, जैसाकि पुत्र होता है। अतएव यह रस शान्त, दास्य, सख्य तथा वात्सल्य रस के चार गुणों से ओतप्रोत रहता है। यह अधिक दिव्य अमृत है। |
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श्लोक 229: “कृष्ण तथा उनके भक्त के बीच आध्यात्मिक आनन्द के आदान - प्रदान की तुलना, जिसमें कृष्ण अपने भक्त के वश में रहते हैं, उस अमृत के सागर से की जाती है, जिसमें भक्त तथा कृष्ण डुबकी लगाते हैं। यह उन विद्वानों का मत है, जो कृष्ण के ऐश्वर्य का गुणगान करते हैं। |
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श्लोक 230: “मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को फिर से सादर नमस्कार करता हूँ। “हे प्रभु, मैं आपको सम्पूर्ण स्नेह के साथ सैकड़ों - हजारों बार नमस्कार करता हूँ, क्योंकि आप अपनी निजी लीलाओं से गोपियों को अमृतसागर में निमग्न कर देते हैं। आपके ऐश्वर्य के कारण भक्तगण सामान्यतया घोषित करते हैं कि आप उनकी भावनाओं द्वारा सदैव वशीभूत होते हैं।’ |
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श्लोक 231: “माधुर्य रस में कृष्ण के प्रति निष्ठा, उनकी सेवा, सख्य का असंकोच भाव तथा पालन की भावना - इन सबकी घनिष्ठता की वृद्धि हो जाती है। |
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श्लोक 232: “माधुर्य रस में भक्त भगवान् की सेवा में अपना शरीर अर्पित कर देता है। अतः इस रस में पाँचों रसों के दिव्य गुण उपस्थित रहते हैं। |
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श्लोक 233: “आकाश आदि भौतिक तत्त्वों में सारे गुण एक के बाद एक विकसित होते जाते हैं। |
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श्लोक 234: “इसी तरह माधुर्य रस में भक्तों के सारे भाव घुलमिल जाते हैं। इसका गाढ़ा स्वाद निश्चित रूप से अद्भुत होता है।” |
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श्लोक 235: तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह कहकर समाप्त किया, “मैंने भक्ति रसों का सामान्य सर्वेक्षण ही प्रस्तुत किया है। इसे किस तरह समंजित किया जाए तथा विस्तारित किया जाए, इसके विषय में आप विचार कर सकते हैं। |
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श्लोक 236: “जब कोई निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करता है, तब उनका प्रेम हृदय के भीतर प्रकट होता है। अनजान होते हुए भी कृष्ण की कृपा से मनुष्य दिव्य प्रेम के सागर के बहुत दूर वाले तट तक पहुँच सकता है।” |
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श्लोक 237: यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रील रूप गोस्वामी का आलिंगन किया। तब महाप्रभु ने बनारस शहर जाने का निश्चय किया। |
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श्लोक 238: अगले दिन प्रातःकाल जब श्री चैतन्य महाप्रभु जगे और वाराणसी (बनारस) के लिए प्रस्थान करने वाले थे, तब श्रील रूप गोस्वामी ने महाप्रभु के चरणकमलों में यह निवेदन किया। |
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श्लोक 239: “यदि आप मुझे आज्ञा दें, तो मैं भी आपके साथ च लुँ। विरह की तरंगों को सहन कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं है।” |
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श्लोक 240: श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम मेरे आदेश का पालन करो। तुम वृन्दावन के निकट आ चुके हो। अब तुम वहीं जाओ। |
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श्लोक 241: “बाद में तुम वृन्दावन से बंगाल (गौड़देश) होते हुए जगन्नाथपुरी जा सकते हो। वहाँ तुम पुनः मुझसे मिलोगे।” |
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श्लोक 242: रूप गोस्वामी का आलिंगन करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु एक नाव में सवार हो गये। रूप गोस्वामी मूर्च्छित होकर उसी स्थान पर गिर पड़े। |
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श्लोक 243: एक दाक्षिणात्य ब्राह्मण रूप गोस्वामी को अपने घर ले गया। तत्पश्चात् दोनों भाई वृन्दावन के लिए चल पड़े। |
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श्लोक 244: चलते चलते श्री चैतन्य महाप्रभु अन्ततः वाराणसी आ पहुँचे, जहाँ शहर से बाहर आ रहे चन्द्रशेखर से उनकी भेंट हुई। |
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श्लोक 245: चन्द्रशेखर ने स्वप्न में देखा था कि श्री चैतन्य महाप्रभु उसके घर आये हुए हैं ; अतः प्रात: काल वे महाप्रभु का स्वागत करने के लिए शहर के बाहर चले आये थे। |
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श्लोक 246: जब चन्द्रशेखर शहर के बाहर प्रतीक्षा कर रहे थे, तब उन्होंने महाप्रभु को सहसा आते देखा। वे उनके चरणों पर गिर पड़े और परम आनन्दित होकर उन्हें अपने घर ले गये। |
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श्लोक 247: तपन मिश्र ने भी वाराणसी में महाप्रभु के आगमन का समाचार सुना, तो वे चन्द्रशेखर के घर उनसे मिलने गये। बातचीत के बाद उन्होंने महाप्रभु को अपने यहाँ भोजन करने के लिए निमन्त्रित किया। |
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श्लोक 248: तपन मिश्र चैतन्य महाप्रभु को अपने घर ले गये और उन्हें भोजन कराया। चन्द्रशेखर ने बलभद्र भट्टाचार्य को अपने घर भोजन करने के लिए आमन्त्रित किया। |
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श्लोक 249: श्री चैतन्य महाप्रभु को भोजन कराने के बाद तपन मिश्र ने महाप्रभु से एक अनुग्रह करने के लिए कहा और प्रार्थना की कि वे उन पर कृपा करें। |
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श्लोक 250: तपन मिश्र ने कहा, “आप जब तक वाराणसी में रुकें, तब तक कृपा करके मेरे अतिरिक्त किसी अन्य का निमन्त्रण न स्वीकार करें।” |
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श्लोक 251: श्री चैतन्य महाप्रभु जानते थे कि उन्हें वहाँ पाँच - सात दिन रुकना है। अतः वे कोई ऐसा निमन्त्रण स्वीकार नहीं करेंगे, जिसमें मायावादी संन्यासी का हाथ हो। |
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श्लोक 252: यह जानकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने तपन मिश्र के घर पर भोजन करना स्वीकार कर लिया। महाप्रभु ने चन्द्रशेखर के घर को अपना निवासस्थान बना लिया। |
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श्लोक 253: महाराष्ट्रीय ब्राह्मण ने आकर महाप्रभु से भेंट की। महाप्रभु ने स्नेहवश उसे कृपा प्रदान की। |
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श्लोक 254: यह सुनकर कि श्री चैतन्य महाप्रभु पधारे हैं, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय जातियों के सारे सम्मानित व्यक्ति उनके दर्शन के लिए आये। |
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श्लोक 255: इस तरह श्री रूप गोस्वामी पर अत्यधिक कृपावृष्टि हुई। मैंने इन सारी कथाओं का संक्षेप में वर्णन किया है। |
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श्लोक 256: जो भी इस कथा को श्रद्धा तथा प्रेम से सुनता है, वह अवश्य ही श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में भगवत्प्रेम विकसित करता है। |
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श्लोक 257: श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए और उनकी कृपा की सदैव आकांक्षा करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करता हुआ श्री चैतन्य - चरितामृत कह रहा हूँ। |
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