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अध्याय 2: श्री चैतन्य महाप्रभु के भावोन्माद की अभिव्यक्ति
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अभिव्यक्ति इस अध्याय में लेखक ने महाप्रभु के जीवन के अन्तिम बारह वर्षों में सम्पन्न की गई लीलाओं का वर्णन किया है। इस तरह इसमें अन्त्यलीला की भी कुछ लीलाएँ वर्णित हुई हैं। ग्रन्थकार ने ऐसा क्यों किया यह समझ पाना सामान्य व्यक्ति के लिए अत्यन्त कठिन है। ग्रन्थकार आशा करते हैं कि महाप्रभु की लीलाएँ पढ़ने से मनुष्य को क्रमशः कृष्ण के प्रति सुप्त प्रेम जाग्रत करने में सहायता मिलेगी। वास्तव में यह चैतन्य -चरितामृत ग्रन्थकार ने अपनी वृद्धावस्था में लिखा था। इस आशंका से कि वे कहीं ग्रन्थ को पूरा न कर सकें, उन्होंने अन्त्यलीला का सारांश इस द्वितीय अध्याय में वर्णित किया है। श्रील कविराज गोस्वामी ने भक्ति के मामले में श्रील स्वरूप दामोदर के मत को प्रामाणिक माना है। इसके अतिरिक्त स्वरूप दामोदर द्वारा लिखित टिप्पिणियों से भी , जिन्हें रघुनाथ दास गोस्वामी ने कण्ठस्थ कर लिया था, चैतन्य -चरितामृत के लेखन में सहायता मिली। स्वरूप दामोदर गोस्वामी के तिरोधान के बाद रघुनाथ दास गोस्वामी वृन्दावन गये। उस समय ग्रंथकार श्रील कविराज गोस्वामी रघुनाथ दास गोस्वामी से मिले , जिनकी कृपा से उन्हें भी सारी लीलाएँ कण्ठस्थ हो गईं। इस तरह से ग्रंथकार इस दिव्य ग्रंथ श्रीचैतन्य-चरितामृत को पूरा कर सके। |
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श्लोक 1: श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के अन्तिम विभाग को सारांश रूप में प्रस्तुत करते हुए इस अध्याय में मैं भगवान् के दिव्य भाव का वर्णन करूँगा, जो कृष्ण से उनके विरह के कारण उन्माद जैसा प्रतीत होता है। |
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श्लोक 2: श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैतचन्द्र की जय हो और महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! |
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श्लोक 3: अन्तिम बारह वर्षों में श्री चैतन्य महाप्रभु ने अविरत कृष्ण के विरह भाव के सारे लक्षण प्रकट किये। |
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श्लोक 4: श्री चैतन्य महाप्रभु की मानसिक दशा दिन - रात वैसी ही रहती थी, जैसी कि राधारानी की थी, जब उद्धव गोपियों से मिलने वृन्दावन आये थे। |
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श्लोक 5: महाप्रभु लगातार विरहजनित उन्माद के भाव में रहते थे। उनके सारे कार्यकलाप विस्मृति तथा उनकी बातचीत सदैव प्रलाप पर आधारित रहती थी। |
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श्लोक 6: उनके शरीर के समस्त रोमछिद्रों से रक्त बहता था और उनके सारे दाँत हिलने लगते थे। किसी क्षण उनका सारा शरीर दुबला हो जाता और दूसरे ही क्षण मोटा हो जाता। |
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श्लोक 7: दालान के आगे का छोटा कमरा गम्भीरा कहलाता है। श्री चैतन्य महाप्रभु उसी कमरे में रहते थे, किन्तु वे एक क्षण - भर भी सोते नहीं थे। वे रात - भर अपना मुँह और सिर दीवार पर रगड़ते रहते थे और उनके सारे मुखमण्डल में घाव हो गये थे। |
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श्लोक 8: यद्यपि घर के तीनों दरवाजे सदैव बन्द रहते थे, किन्तु फिर भी महाप्रभु बाहर चले जाते थे। कभी वे जगन्नाथ मन्दिर के सिंहद्वार पर पाये जाते थे और कभी वे समुद्र में गिर पड़ते थे। |
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श्लोक 9: श्री चैतन्य महाप्रभु बालू के टीलों को गोवर्धन पर्वत समझकर तेजी से दौड़ते। दौड़ते समय महाप्रभु उच्च स्वर में विलाप तथा क्रन्दन करते। |
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श्लोक 10: कभी - कभी श्री चैतन्य महाप्रभु को नगर के छोटे छोटे उद्यानों से वृन्दावन का भ्रम हो जाता। कभी वे वहाँ जाते, नाचते और कीर्तन करते और कभी - कभी आध्यात्मिक भावावेश में अचेत हो जाते। |
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श्लोक 11: दिव्य भावों के कारण महाप्रभु के शरीर में जो अद्वितीय विकार प्रकट होते, वे उनके अतिरिक्त किसी अन्य के शरीर में सम्भव नहीं है। |
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श्लोक 12: कभी - कभी उनके हाथों तथा पैरों के जोड़ आठ इंच (एक बित्ता) तक अलग हो जाते थे और ऊपर से केवल चमड़ी से जुड़े रहते थे। |
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श्लोक 13: कभी - कभी श्री चैतन्य महाप्रभु के हाथ, पैर तथा सिर उनके शरीर के भीतर उसी तरह समा जाते, जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को भीतर समेट लेता है। |
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श्लोक 14: इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु अद्भुत भावपूर्ण लक्षण (भाव) प्रकट करते थे। उनका मन शून्य प्रतीत होता और उनके शब्दों में निराशा तथा हताशा प्रकट होती। |
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श्लोक 15: श्री चैतन्य महाप्रभु अपने मन के भाव इस प्रकार प्रकट करते, “मुरलीवादन करने वाले मेरे प्राणनाथ कहाँ हैं? अब मैं क्या करूँ? मैं महाराज नन्द के बेटे को ढूंढने कहाँ जाऊँ? |
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श्लोक 16: “मैं किससे कहूँ? मेरे दुःख को कौन समझ सकेगा? नन्द महाराज के पुत्र के बिना मेरा हृदय फटा जा रहा है।” |
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श्लोक 17: इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु कृष्ण के विरह में सदैव अपनी विह्वलता प्रकट करते और विलाप करते। ऐसे अवसरों पर वे रामानन्द राय के नाटक, जगन्नाथ - वल्लभ - नाटक से श्लोक का उच्चारण करते। |
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श्लोक 18: [श्रीमती राधारानी विलाप किया करती थीं:]” हमारा कृष्ण इस पर कोई ध्यान नहीं देता कि हमने प्रेम - सम्बन्ध में न जाने कितनी चोटें सही हैं। वास्तव में प्रेम में हमारा दुरुपयोग किया गया है, क्योंकि प्रेम यह नहीं जानता कि कहाँ प्रहार किया जाय और कहाँ नहीं। यहाँ तक कि कामदेव भी हमारी असहाय अवस्था से परिचित नहीं है। मैं किसी से क्या कहूँ? कोई दूसरे की कठिनाइयों को नहीं समझ सकता। हमारा जीवन वास्तव में हमारे वश में नहीं रहा, क्योंकि यौवन तो दो - तीन दिन रहेगा और शीघ्र ही समाप्त हो जायेगा। ऐसी अवस्था में हे विधाता, हमारी गति क्या होगी? |
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श्लोक 19: [कृष्ण के विरह में दुःखी श्रीमती राधारानी ने इस प्रकार कहा:] “ओह! मैं अपने दुःख के बारे में क्या कहूँ? कृष्ण से मिलने के बाद ही मेंरे प्रेम का अंकुर फूटा, किन्तु उनसे विलग होने पर मुझे इतना बड़ा धक्का लगा कि वह व्याधि की तरह जाने का नाम नहीं ले रहा। इस व्याधि के एकमात्र वैद्य स्वयं कृष्ण हैं, किन्तु वे भक्ति के इस अंकुरित पौधे की कोई चिन्ता नहीं कर रहे। मैं कृष्ण के व्यवहार के बारे में क्या कहूँ? बाहर से वे एक आकर्षण तरुण प्रेमी हैं, किन्तु भीतर से महा ठग हैं और दूसरों की पत्नियों को मारने में अत्यन्त निपुण हैं।” |
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श्लोक 20: [कृष्ण से प्रेम करने के परिणामों के विषय में श्रीमती राधारानी ने आगे कहा:] “हे सखी, मैं विधाता के विधान को नहीं समझ पा रही। मैंने तो सुख के लिए कृष्ण से प्रेम किया था, किन्तु परिणाम बिल्कुल विपरीत निकला। अब मैं दुःख के सागर में डूब रही हूँ। हो सकता है कि मैं अब मरने वाली हैं, क्योंकि मेरी जीवनी - शक्ति चुक गई है। ऐसी है मेरी मानसिक दशा। |
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श्लोक 21: “प्रेम - व्यापार प्रकृति से कुटिल होते हैं। उनमें पर्याप्त ज्ञान से प्रवेश नहीं किया जाता, न ही वे इसका विचार करते हैं कि कोई स्थान उपयुक्त है या नहीं। न ही वे परिणामों की चिन्ता करते हैं। क्रूर कृष्ण ने अपने सद्गुणों की डोरी से मेरा गला तथा मेरे हाथ बाँध दिये हैं और अब मैं सुख पाने में असमर्थ हूँ। |
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श्लोक 22: “मेरे प्रेम सम्बन्ध में मदन नाम का एक व्यक्ति है। उसके गुण इस प्रकार हैं - उसका कोई स्थूल शरीर नहीं है, किन्तु वह अन्यों को पीड़ा देने में बहुत ही प्रवीण है। उसके पास पाँच बाण हैं, जिन्हें वह अपने धनुष पर चढ़ाकर निर्दोष स्त्रियों के शरीर में सन्धान करता है। इस प्रकार ये स्त्रियाँ जर्जर हो जाती हैं। अच्छा तो यह होता कि वह बिना हिचक के मेरे प्राण ले लेता, किन्तु वह ऐसा नहीं करता। वह मुझे केवल पीड़ा देता है। |
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श्लोक 23: “शास्त्रों में कहा गया है कि एक मनुष्य दूसरे के मन के दुःख को नहीं जान सकता। अतएव मैं ललिता तथा अपनी अन्य प्रिय सखियों के बारे में क्या कह सकती हूँ? न ही वे मेरे अन्तर के दुःख को समझ सकती हैं। वे बारम्बार यही कहकर मुझे सान्त्वना देती हैं ‘हे सखी, धैर्य धरो।’ |
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श्लोक 24: “मैं कहती हूँ, ‘हे सखियों, तुम मुझे यह कहकर धैर्य धरने को कहती हो कि कृष्ण कृपासिन्धु हैं और एक न एक दिन मुझे स्वीकार कर लेंगे। किन्तु मैं बतला हूँ कि मुझे इससे सान्त्वना नहीं मिल सकेगी। जीव का जीवन क्षणभंगुर है। यह कमल की पंखुड़ी पर टिके जल के समान है। कृष्ण - कृपा की आशा में भला इतने दिन कौन जीवित रहेगा? |
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श्लोक 25: “मनुष्य सौ वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहता। तुम्हें यह भी विचार करना होगा कि स्त्री का यौवन, जो कृष्ण का एकमात्र आकर्षण है, कुछ ही दिनों तक रहता है। |
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श्लोक 26: “यदि तुम यह कहती हो कि कृष्ण दिव्य गुणों के सागर हैं, अतएव कभी न कभी दयालु होंगे, तो मुझे इतना ही कहना है कि वे उस अग्नि के समान हैं, जो अपनी चकाचौंध से पतंगों को आकृष्ट करती है और उन्हें मार डालती है। कृष्ण के गुण ऐसे हैं। वे अपने दिव्य गुण दिखलाकर वे हमारे मनों को आकृष्ट करते हैं और बाद में हमसे विलग होकर हमें दुःख के सागर में डुबा देते हैं।” |
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श्लोक 27: इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु विषाद के महासागर में विलाप करते और अपने दुःख के द्वारों को खोल देते थे। भाव की तरंगों के वशीभूत होकर उनका मन दिव्य रसों में विचरण करता और इस तरह वे एक अन्य श्लोक का उच्चारण करते (जो निम्न है)। |
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श्लोक 28: “हे सखियों, यदि मैं श्रीकृष्ण के दिव्य रूप, गुणों तथा लीलाओं की सेवा नहीं करती, तो मेरे सारे दिन तथा मेरी सारी इन्द्रियाँ पूर्णतया व्यर्थ हो जायेंगे। अभी मैं पत्थर तथा सूखी लकड़ी जैसी अपनी इन्द्रियों का भार व्यर्थ ही ढो रही हूँ। मैं नहीं जानती कि निर्लज्ज बनकर कब तक मैं यह भार ढोती रहूँगी।” |
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श्लोक 29: “उस मनुष्य की आँखों का क्या लाभ, जो कृष्ण के उस चन्द्र जैसे मुख को नहीं देखता, जो सारी सुन्दरता का जन्मस्थान है और उनकी वंशी के अमृततुल्य गीतों का आगार है? अरे! उस मनुष्य के सिर पर वज्रपात हो जाये! उसने ऐसी आँखें क्यों रखी हैं? |
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श्लोक 30: “हे सखियों, कृपया मेरी बात सुनो। विधाता द्वारा प्रदत्त मेरी सारी शक्ति जाती रही है। कृष्ण के बिना मेरा शरीर, मेरी चेतना, मन तथा उसी के साथ मेरी सारी इन्द्रियाँ व्यर्थ हैं। |
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श्लोक 31: “कृष्ण की कथाएँ अमृत की तरंगों के समान हैं। यदि ऐसा अमृत किसी के कानों में प्रविष्ट नहीं करता, तो वे कान टूटे शंख के छिद्र के समान हैं। ऐसे कान को बनाने का प्रयोजन व्यर्थ है। |
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श्लोक 32: “भगवान् कृष्ण के होठों का अमृत तथा उनके दिव्य गुण और चरित्र, सभी अमृत के सार के स्वाद को तुच्छ बनाने वाले हैं, और ऐसे अमृत का आस्वादन करने में कोई दोष नहीं है। जो इसका आस्वादन नहीं करता, उसे जन्म लेते ही मर जाना चाहिए और उसकी जीभ मेंढक की जीभ के समान समझी जानी चाहिए। |
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श्लोक 33: “कृष्ण के शरीर की सुगन्ध कस्तूरी की सुगन्ध के साथ मिली नीले कमल के फूल की सुगन्ध के समान है। जिसने कृष्ण की इस सुगन्ध को नहीं हूँघा, उसके नथुने लोहार की धौंकनी के तुल्य हैं। वस्तुतः ऐसी सुगन्ध कृष्ण के शरीर की सुगन्ध के आगे फीकी पड़ जाती है। |
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श्लोक 34: “कृष्ण के हाथ तथा पैर के तलवे इतने शीतल और सुहावने हैं कि उनकी उपमा करोड़ों चन्द्रमाओं के प्रकाश से ही दी जा सकती है। जिसने ऐसे हाथों तथा पैरों को स्पर्श किया है, उसने सचमुच पारस पत्थर के प्रभाव का अनुभव किया है। यदि किसी ने उनका स्पर्श नहीं किया, तो उसका जीवन व्यर्थ है और उसका शरीर लोहे के समान है।” |
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श्लोक 35: इस प्रकार विलाप करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने हृदय के भीतर शोक के कपाट खोल दिये। उन्होंने हताश, दीन एवं उदास होकर अवसाद भरे हृदय से बार - बार एक श्लोक पढ़ा। |
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श्लोक 36: “यदि दैववश कृष्ण का दिव्य रूप मेरी दृष्टि के सामने आये, तो कष्टों से व्यथित मेरा हृदय, मूर्तिमन्त आनन्द रूप कामदेव द्वारा चुरा लिया जाएगा। चूँकि मैं कृष्ण के सुन्दर रूप को जी - भरकर नहीं देख सकी, अतएव जिस क्षण मैं इस रूप को पुनः देखेंगी, तो उस क्षण को मैं अनेक रत्नों से अलंकृत करूँगी।’ |
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श्लोक 37: “जब भी, यहाँ तक कि स्वप्न में भी, मुझे कृष्ण के मुख तथा उनकी वंशी के दर्शन का अवसर मिलता था, तो मेरे सामने दो शत्रु प्रकट हो जाते थे - आनन्द तथा कामदेव। चूँकि ये मेरे चित्त को हर लेते थे, अतएव मैं नेत्र - भरकर कृष्ण के मुख को न देख सकी। |
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श्लोक 38: “यदि दैववश ऐसा क्षण आये कि मैं पुनः कृष्ण को देख पाऊँ तो मैं उन क्षणों, घड़ियों तथा घंटों की फूल की मालाओं तथा चन्दन - लेप से पूजा करूँगी और उन्हें सभी प्रकार के रत्नों तथा आभूषणों से सजाऊँगी।” |
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श्लोक 39: क्षण - भर में श्री चैतन्य महाप्रभु को बाह्य चेतना आ गई और उन्होंने अपने समक्ष दो व्यक्तियों को देखा। महाप्रभु ने उनसे पूछा, “क्या मैं सचेत हूँ? मैं कौन से स्वपन देख रहा था? मैं कैसा प्रलाप कर रहा था? क्या आपने दैन्य के कुछ वचन सुने?” |
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श्लोक 40: श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “हे मित्रों, तुम लोग मेरे प्राण हो, अतएव मैं तुम्हें बतलाता हूँ कि मेरे पास कृष्ण - प्रेमरूपी धन नहीं है। इसलिए मेरा जीवन दरिद्र है। मेरे अंग तथा इन्द्रियाँ व्यर्थ हैं। |
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श्लोक 41: निराशाभरे शब्दों में उन्होंने पुनः स्वरूप दामोदर तथा राय रामानन्द को सम्बोधित किया, “हाय! मेरे मित्रों, अब तुम मेरे हृदय के निश्चय को जान सकते हो और यह जान लेने के बाद तुम यह निर्णय करो कि मैं सही या नहीं। तुम इस बारे में ठीक से कह सकते हो।” इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने दूसरे श्लोक का उच्चारण किया। |
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श्लोक 42: “छलरहित भगवत्प्रेम इस भौतिक जगत् में सम्भव नहीं है। यदि ऐसा प्रेम है, तो उसमें विरह नहीं हो सकता, क्योंकि विरह में कोई कैसे जीवित रह सकता है?’ |
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श्लोक 43: “कृष्ण का शुद्ध प्रेम जाम्बू नदी से मिलने वाले सोने की तरह है, जो मानव समाज में नहीं पाया जाता। यदि यह होता तो इसमें वियोग नहीं होता। वियोग होने से कोई जीवित नहीं रह सकता।” |
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श्लोक 44: इस प्रकार कहते हुए श्रीमती शचीमाता के पुत्र ने एक दूसरा अद्भुत श्लोक सुनाया, जिसे रामानन्द राय एवं स्वरूप दामोदर ने एकाग्र चित्त से सुना। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मैं अपने मन के कार्य बताने में लज्जा का अनुभव कर रहा हूँ। फिर भी मैं सारी औपचारिकताओं को छोड़कर अपने मन की बात कहूँगा। |
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श्लोक 45: श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “हे मित्रों, मेरे हृदय में रंचमात्र भी भगवत् - प्रेम नहीं है। जब तुम लोग मुझे विरह में रोते देखते हो, तो मैं अपने परम सौभाग्य का मात्र झूठा प्रदर्शन कर रहा होता हूँ। निस्सन्देह, मुरली बजाते हुए कृष्ण के सुन्दर मुखमण्डल का दर्शन किये बिना मैं एक कीट की तरह व्यर्थ जीवन व्यतीत कर रहा हूँ।’ |
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श्लोक 46: “वास्तव में मुझे कृष्ण से बिल्कुल भी प्रेम नहीं है। मैं जो भी करता हूँ, वह सब कपटपूर्ण भगवत्प्रेम का दिखावा है। जब मैं रोता हूँ, तो मात्र अपने सौभाग्य का मिथ्या प्रदर्शन करता हूँ। इसे निश्चत रूप से जानो। |
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श्लोक 47: “यद्यपि मैं वंशी बजाते हुए कृष्ण का चन्द्रमुख नहीं देख पाता, न ही मेरी उनसे भेंट होने की कोई सम्भावना है, तब भी मैं अपने शरीर की देखभाल करता हूँ। यही कामवासना की रीति है। इस प्रकार मैं अपने कीट सदृश जीवन को धारण किए रहता हूँ। |
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श्लोक 48: “कृष्ण - प्रेम गंगाजल के समान अत्यन्त शुद्ध है। ऐसा प्रेम अमृत का समुद्र है। कृष्ण के प्रति ऐसा शुद्ध अनुराग किसी दाग को नहीं छिपाता, जो सफेद वस्त्र पर स्याही के दाग के समान दिखता है। |
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श्लोक 49: “शुद्ध कृष्ण - प्रेम सुख के सागर जैसा है। यदि किसी को उसकी एक बूंद भी मिल जाये, तो उस बूंद में सारा संसार डूब सकता है। यद्यपि ऐसे भगवत्प्रेम को व्यक्त करना उचित नहीं है, तथापि एक उन्मत्त व्यक्ति उसे कह देगा। किन्तु उसके कहने पर भी उस पर कोई विश्वास नहीं करता।” |
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श्लोक 50: इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु नित्य प्रति इन भावों का आनन्द लेते और इन भावों को स्वरूप तथा रामानन्द के सामने प्रकट करते। ऊपर से तो यह दारुण कष्ट प्रतीत होता था, मानों महाप्रभु किसी विषैले प्रभाव से पीड़ित हों, किन्तु हृदय में वे आनन्द का अनुभव करते थे। कृष्ण के दिव्य प्रेम का यही गुण है। |
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श्लोक 51: जो ऐसे भगवत् - प्रेम का आस्वादन करता है, वह इसकी तुलना गर्म गन्ने (ईख) से करता है। गर्म गन्ने को यदि कोई चबाता है, तो उसका मुख जलता है, फिर भी वह उसे छोड़ नहीं सकता। इसी प्रकार किसी में यदि लेश - मात्र भी भगवत्प्रेम हो, तो वह इसके सशक्त प्रभाव का अनुभव कर सकता है। इसकी तुलना अमृत और विष के मिश्रण से ही की जा सकती है। |
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श्लोक 52: चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “हे सुन्दरियों, यदि कोई भगवत्प्रेम अर्थात् नन्द महाराज के पुत्र, कृष्ण के प्रति प्रेम जाग्रत कर लेता है, तो उसके हृदय में इस प्रेम के कड़वे तथा मीठे सभी प्रभाव प्रकट होंगे। ऐसा भगवत्प्रेम दो प्रकार से कार्य करता है। भगवत्प्रेम का विषैला प्रभाव सर्प के ताजे तथा तीव्र विष को भी पराजित करनेवाला है। तथापि उसी के साथ ऐसा दिव्य आनन्द भी मिलता है, जो अमृत के अहंकार को चूर करके उसके मान को घटाता है। दूसरे शब्दों में, कृष्ण - प्रेम इतना शक्तिशाली है कि वह सर्प के विषैले प्रभाव के साथ - साथ सिर पर गिरने वाले अमृत से प्राप्त सुख को भी परास्त करने वाला होता है। इसका अनुभव दो रूपों में किया जाता है — एक साथ विषैला तथा अमृततुल्य।” |
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श्लोक 53: जब श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथजी को श्री बलराम तथा सुभद्रा के साथ देखते, तो वे तुरन्त सोचने लगते कि वे कुरुक्षेत्र पहुँच गये हैं, जहाँ वे सब आये थे। वे अपने जीवन को कृतार्थ समझते, क्योंकि उन्होंने उन कमलनयन के दर्शन किये हैं, जो अपने दर्शन से तन, मन तथा नेत्रों को शान्त करने वाले हैं। |
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श्लोक 54: श्री चैतन्य महाप्रभु गरुड़ - स्तम्भ के पास खड़े रहकर भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करते थे। भला उस प्रेम के बल के विषय में क्या कहा जा सकता है? उस गरुड़ - स्तम्भ के नीचे भूमि पर एक गहरी नाली थी, जो उनके अश्रु - जल से भर जाती थी। |
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श्लोक 55: जगन्नाथ - मन्दिर से घर लौटकर श्री चैतन्य महाप्रभु भूमि पर बैठते और अपने नाखूनों से उसे कुरेदते। |
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श्लोक 56: श्री चैतन्य महाप्रभु यह कहकर विलाप किया करते, “त्रिभंगी कृष्ण कहाँ हैं? कहाँ है उनकी बाँसुरी का मधुर गान? कहाँ है यमुना का तट? कहाँ है रास - नृत्य? कहाँ है वह नृत्य, गीत और हँसी? कहाँ है मेरे नाथ मदनमोहन, जो कामदेव को मोहत करने वाले हैं?” |
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श्लोक 57: इस प्रकार विविध भावावेग उत्पन्न हो ते और चैतन्य महाप्रभु का मन उद्विग्न हो उठता। वे एक क्षण भी निश्चिन्त नहीं रह पाते। इस तरह विरह की प्रबल भावनाओं के कारण उनका धैर्य छूटने लगता और वे विभिन्न श्लोकों का उच्चारण करने लगते। |
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श्लोक 58: “हे प्रभु, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, हे अनाथों के मित्र! आप एकमात्र कृपा के सागर हैं। चूँकि मैं आपसे मिल नहीं पाया, इसलिए मेरे अशुभ दिन तथा रातें असह्य हो गये हैं। मैं समझ नहीं पा रहा कि मैं अपना समय किस तरह व्यतीत करूँ?’ |
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श्लोक 59: “आपके दर्शन के अभाव में ये अशुभ दिन तथा रातें कट नहीं रही हैं। समझ में नहीं आता कि यह समय कैसे काटा जाये। किन्तु आप अनाथों के मित्र और करुणा के सागर हैं। कृपा करके अपना दर्शन दें, क्योंकि मैं बहुत संदिग्ध अवस्था में हूँ।” |
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श्लोक 60: इस प्रकार महाप्रभु भावावेश के कारण अस्थिर हो गये और उनका मन उत्तेजित हो गया। कोई यह समझ नहीं पा रहा था कि यह भाव किधर ले जायेगा। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण से न मिल पाने के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु का मन जलने लगा। वे भगवान् कृष्ण से उन तक पहुँचने का उपाय पूछने लगे। |
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श्लोक 61: “हे कृष्ण, हे वंशीवादक, आपके बाल्यकाल की माधुरी तीनों लोकों में अद्भुत है। आप मेरी चपलता को जानते हैं और मैं आपकी। इसके विषय में अन्य कोई नहीं जानता। मैं आपके सुन्दर आकर्षक मुखमण्डल को एकान्त में देखना चाहता हूँ, किन्तु यह कैसे सम्भव होगा?’ |
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श्लोक 62: “हे प्रिय कृष्ण! आपके सुन्दर रूप की शक्ति को केवल मैं या आप ही जानते हैं और मेरी अस्थिरता (चपलता) का कारण भी वही है। अब मेरी स्थिति ऐसी है कि समझ में नहीं आता क्या करूँ और कहाँ जाऊँ। मैं आपको कहाँ पा सकता हूँ। मैं तो आपसे ही मार्गदर्शन के लिए कह रहा हूँ।” |
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श्लोक 63: विभिन्न प्रकार के भावों के कारण मन में विरोधी दशाएँ उत्पन्न होती, जिससे विभिन्न प्रकार के भावों में डटकर युद्ध होता था। चिन्ता, चपलता, दीनता, क्रोध तथा अधीरता सैनिकों की भाँति युद्ध करते और इसका कारण था भगवत् - प्रेम का उन्माद। |
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श्लोक 64: महाप्रभु का शरीर उस गन्ने के खेत के समान था, जिसमें भांवरूपी उन्मत्त हाथी प्रवेश कर गये हों। |
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श्लोक 65: “हे प्रभु! हे प्रियतम! हे ब्रह्माण्ड के एकमात्र सखा! हे कृष्ण, हे चपल, हे करुणासिन्धु! हे स्वामी, हे मेरे भोक्ता, हे मेरे नयनाभिराम! हाय, आप मुझे अब पुनः कब दर्शन देंगे?” |
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श्लोक 66: उन्माद के लक्षणों से कृष्ण के स्मरण को प्रोत्साहन मिलता था। भावावेश में प्रेम (प्रणय) , मान, मीठे वचनों द्वारा तिरस्कार, गर्व, आदर तथा अ प्रत्यक्ष स्तुति जाग्रत होते थे। इस प्रकार कभी कृष्ण की निन्दा होती और कभी उनका सम्मान होता। |
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श्लोक 67: राधारानी के मनोभाव में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण को इस प्रकार सम्बोधित किया: “हे प्रभु, आप अपनी लीलाओं में रत हैं और आप अपनी इच्छानुसार ब्रह्माण्ड की सारी स्त्रियों का उपभोग करते हैं। आप मुझ पर अत्यन्त कृपालु हैं। आप अपना ध्यान मेरी ओर दें, क्योंकि भाग्यवश आप मेरे समक्ष प्रकट हुए हैं। |
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श्लोक 68: “हे प्रभु, आप ब्रह्माण्ड की सारी स्त्रियों को आकृष्ट करते हैं और जब वे आती हैं, तब आप उन सबका समाधान करते हैं। आप भगवान् कृष्ण हैं और सबके चित्त को हरने वाले हैं, किन्तु अन्ततः आप हैं लंपट (विलासी) ही। भला आपका सम्मान कौन करेगा? |
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श्लोक 69: “हे प्रिय कृष्ण, आपका मन सदैव चंचल रहता है। आप एक स्थान पर नहीं रह सकते, किन्तु इसमें आपका दोष नहीं है। आप तो करुणा के सागर हैं, मेरे प्राण - प्रिय हैं। अतएव आपसे रुष्ट होने का कोई कारण नहीं है। |
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श्लोक 70: “हे नाथ, आप वृन्दावन के स्वामी तथा उसके प्राण हैं। कृपा करके वृन्दावन के उद्धार का उपाय कीजिये। हमें अपने अनेक कामों से तनिक भी अवकाश नहीं है। वास्तव में आप मेरे भोक्ता हैं। आप मुझे सुख प्रदान करने के लिए ही प्रकट हुए हैं और यह आपकी दक्ष लीलाओं में से एक है। |
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श्लोक 71: “मेरे वचनों को निन्दा मानकर भगवान् कृष्ण मुझे छोड़कर चले गये हैं। मैं जानता हूँ कि वे चले गये हैं, किन्तु मेरी स्तुति सुन लीजिये: ‘आप मेरे नेत्रों की तुष्टि हो। आप ही मेरे धन और जीवन हो। हाय! कृपया एक बार फिर मुझे अपना दर्शन दीजिये।” |
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श्लोक 72: श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर में विविध विकार प्रकट होते थे — स्तम्भित त होना, कांपना, पसीना आना, रंग फीका पड़ना, रोना और गला रूँधना। इस प्रकार उनका सारा शरीर दिव्य आनन्द से व्याप्त रहता था। फलस्वरूप श्री चैतन्य महाप्रभु कभी हँसते, कभी रोते, कभी नाचते तो कभी गाते थे। कभी वे उठकर इधर - उधर दौड़ते और कभी भूमि पर गिर जाते और अचेत हो जाते। |
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श्लोक 73: जब श्री चैतन्य महाप्रभु अचेत थे, तब उनकी भेंट पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से हुई। फलस्वरूप वे तुरन्त उठकर जोर से हुंकार करने लगे और उन्होंने ऊँचे स्वर में घोषित किया, “महापुरुष कृष्ण अब उपस्थित हैं।” |
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श्लोक 74: राधारानी के भाव में श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोपियों को सम्बोधित किया, “हे सखियों, कदम्ब पुष्प के समान तेजस्वी, साक्षात् माधुर्य, मेरी आँखों तथा मन के अमृत, गोपियों के बालों को शिथिल करने वाले, दिव्य आनन्द के परम स्रोत और मेरे जीवन - प्राण रूपी मूर्तिमान कामदेव कृष्ण कहाँ हैं? क्या वे मेरे नेत्रों के समक्ष दोबारा प्रकट हुए हैं?” |
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श्लोक 75: तब श्री चैतन्य महाप्रभु इस प्रकार कहने लगे, “क्या कदम्ब वृक्ष के तेज एवं प्रतिबिम्ब के साथ साक्षात् कामदेव उपस्थित है? क्या ये वही व्यक्ति हैं, जो साक्षात् माधुर्य हैं, जो मेरी आँखों तथा मन के आनन्द हैं, जो मेरे जीवन और प्राण हैं? क्या सचमुच कृष्ण मेरी आँखों के सामने आ गये हैं?” |
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श्लोक 76: जिस प्रकार गुरु शिष्य को डांटता है और उसे भक्ति की कला सिख लाता है, उसी प्रकार निर्वेद (उदासी) , विषाद, दीनता, चंचलता, हर्ष, धैर्य और क्रोध आदि भाव महाप्रभु के शरीर तथा मन को शिक्षा देते थे। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु अपना समय बिताते थे। |
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श्लोक 77: वे अपना समय पुस्तकें पढ़ने तथा चण्डीदास और विद्यापति द्वारा रचित गीत गाने और जगन्नाथ वल्लभ नाटक, कृष्णकर्णामृत तथा गीतगोविन्द के उद्धरण सुनने में बिताते थे। इस तरह स्वरूप दामोदर तथा राय रामानन्द के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु परम आनन्द के साथ कीर्तन एवं श्रवण करके दिन तथा रात व्यतीत करते थे। |
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श्लोक 78: श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने पार्षदों में परमानन्द पुरी से वात्सल्य, रामानन्द राय से सख्य, गोविन्द तथा अन्यों से शुद्ध दास्य और गदाधर, जगदानन्द तथा स्वरूप दामोदर से माधुर्य रस का आनन्द प्राप्त होता था। श्री चैतन्य महाप्रभु इन चारों रसों का आस्वादन करते और इस तरह अपने भक्तों के वश में रहते हुए जगन्नाथ पुरी में रहे। |
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श्लोक 79: लीलाशुक (बिल्वमंगल ठाकुर) एक सामान्य मनुष्य थे ; फिर भी उनके शरीर में अनेक भाव उत्पन्न होते थे। तो फिर यदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के शरीर में ये लक्षण प्रकट हों, तो कौन - सा आश्चर्य है? श्री चैतन्य महाप्रभु माधुर्य भाव में सर्वोच्च स्थिति पर थे, अतएव उनके शरीर में समस्त भाव स्वाभाविक रूप से प्रकट होते थे। |
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श्लोक 80: वृन्दावन की अपनी पूर्ववर्ती लीलाओं में भगवान् कृष्ण तीन विभिन्न प्रकार के भावों का आस्वादन करना चाहते थे, किन्तु अत्यधिक प्रयत्नों के बाद भी वे वैसा नहीं कर पाये। ऐसे भावों पर श्रीमती राधारानी का एकाधिकार है। अतएव उनका आस्वादन करने के लिए ही श्रीकृष्ण ने श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में श्रीमती राधारानी का स्थान अंगीकार किया। |
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श्लोक 81: श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं भगवत्प्रेम रस का आस्वादन करके अपने शिष्यों को इस विधि की शिक्षा दी। वे भगवत् - प्रेम रूपी चिन्तामणि (पारस पत्थर) से संपन्न सर्वाधिक धनवान व्यक्ति हैं। वे पात्र - कुपात्र का विचार किये बिना हर एक को यह धन प्रदान करते हैं। इस प्रकार वे अत्यन्त उदार हैं। |
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श्लोक 82: ब्रह्माजी समेत कोई भी इस गुप्त भाव - सिन्धु की एक बूंद का भी पार नहीं पा सकता या आस्वाद न नहीं कर सकता। किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी अहैतुकी कृपा से इस भगवत्प्रेम को सारे विश्व में बाँट दिया है। अतएव श्री चैतन्य महाप्रभु से बढ़कर उदार अन्य कोई अवतार नहीं हो सकता। उनसे बड़ा दाता कोई नहीं है। भला उनके दिव्य गुणों का वर्णन कौन कर सकता है? |
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श्लोक 83: ऐसी कथाएँ सार्वजनिक रूप से कहने के लिए नहीं हैं, क्योंकि ऐसा करने पर भी कोई उन्हें समझ नहीं पायेगा। श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ इतनी अद्भुत हैं। जो उन्हें समझ सकता है, उस पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने निजी दास के दास की संगति प्रदान करके अवश्य कृपा की है। |
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श्लोक 84: श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ सर्वश्रेष्ठ रत्न हैं। वे स्वरूप दामोदर गोस्वामी के भंडार में रखे हुए थे। स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने रघुनाथ दास गोस्वामी को उनके बारे में बतलाया और रघुनाथ दास गोस्वामी ने ये लीलाएँ मेरे सामने दोहरायी। मैंने जो कुछ थोड़ा - बहुत रघुनाथ दास गोस्वामी से सुना, उसी को इस पुस्तक में, सभी भक्तों को भेंट स्वरूप, वर्णित किया है। |
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श्लोक 85: यदि कोई यह कहता है कि श्रीचैतन्य - चरितामृत संस्कृत श्लोकों से भरी होने के कारण साधारण व्यक्तियों की समझ के बाहर है, तो मैं इसका उत्तर यही दूँगा कि मैंने इसमें श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का ही वर्णन किया है और मेरे लिए हर एक को सन्तुष्ट करना सम्भव नहीं है। |
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श्लोक 86: इस चैतन्य - चरितामृत में न तो कोई विरोधात्मक निर्णय है, न ही किसी अन्य के मत को स्वीकृति दी गई है। मैंने यह पुस्तक उस सहज विषयवस्तु का वर्णन करने के लिए लिखी है, जिसे मैंने अपने गुरुजनों से सुना है। यदि मैं किसी की रुचि तथा अरुचि से प्रभावित होता, तो सम्भवतः मैं इस सरल सत्य को न लिख पाता। |
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श्लोक 87: यदि प्रारम्भ में किसी की समझ में नहीं आता, किन्तु वह बार - बार इसे सुनता रहता है, तो उसमें महाप्रभु की लीलाओं के अद्भुत प्रभाव से कृष्ण - प्रेम उत्पन्न हो जायेगा। धीरे - धीरे वह कृष्ण तथा गोपियों एवं वृन्दावन के अन्य पार्षदों की माधुर्य लीलाओं को समझने लगेगा। पूरा लाभ उठाने के लिए हर एक को परामर्श दिया जाता है कि वह बार - बार श्रवण करता रहे। |
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श्लोक 88: जो आलोचक यह कहते हैं कि श्री चैतन्य - चरितामृत संस्कृत श्लोकों से भरा है, उसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि श्रीमद्भागवत भी संस्कृत श्लोकों से भरा है और उसके भाष्य भी। तथापि श्रीमद्भागवत को हर कोई समझ लेता है - वे उन्नत भक्तगण भी, जो संस्कृत भाष्य पढ़ते हैं। तो फिर लोग चैतन्य - चरितामृत को क्यों नहीं समझ पायेंगे? इसमें कुछ ही संस्कृत श्लोक हैं और उनकी व्याख्या बांग्ला भाषा में दी हुई है। तो फिर इसे समझने में क्या कठिनाई है? |
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श्लोक 89: मैंने पहले ही श्री चैतन्य महाप्रभु की अन्तिम लीलाओं से सम्बन्धित सारे तथ्यों को सूत्र रूप में दे दिया है। मेरी इच्छा है कि मैं इनका विस्तृत वर्णन करूँ। यदि मैं अधिक काल तक जीवित रहा और श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा प्राप्त करने का सौभाग्य मिला, तो मैं पुनः इनका विस्तार से वर्णन करने का प्रयास करूँगा। |
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श्लोक 90: मैं अब अत्यन्त वृद्ध हो गया हूँ और अपनी अक्षमता से विचलित हूँ। लिखते समय मेरे हाथ काँपते हैं। न तो मुझे कुछ स्मरण रहता है, न मैं ठीक से देख या सुन सकता हूँ। फिर भी मैं लिखता हूँ ; यह बहुत बड़ा आश्रर्य है। |
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श्लोक 91: इस अध्याय में मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु की अन्तिम लीलाओं के सार का कुछ वर्णन किया है। यदि इसी बीच मैं मर जाऊँ और विस्तार से उनका वर्णन न कर पाऊँ, तो भक्तों को कम - से - कम यह दिव्य कोष तो मिल ही जायेगा। |
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श्लोक 92: मैंने इस अध्याय में संक्षेप में अन्त्य - लीला का वर्णन किया है। जो कुछ बच रहा है, उसका विस्तार से वर्णन भविष्य में करूँगा। यदि श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से मैं इतने दिनों तक जीवित रहा कि मैं अपनी इच्छाएँ पूरी कर पाऊँ, तो इन लीलाओं पर पूरी तरह विचार करूँगा। |
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श्लोक 93: मैं यहाँ छोटे - बड़े सभी भक्तों के चरणकमलों की वन्दना करता हूँ। मेरी उनसे प्रार्थना है कि मुझ से सन्तुष्ट हों। मैं निर्दोष हूँ, क्योंकि मैंने स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा रूप और रघुनाथ दास गोस्वामियों से जैसा समझा है, वैसा ही लिख दिया है। मैंने उसमें अपनी ओर से न तो कुछ जोड़ा है, न कम किया है। |
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श्लोक 94: परम्परा पद्धति के अनुसार मैं श्री चैतन्य महाप्रभु, नित्यानन्द प्रभु, अद्वैत प्रभु तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त पार्षदों यथा स्वरूप दामोदर, रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी और रघुनाथ दास गोस्वामी के चरणकमलों की धूलि लेना चाहता हूँ। मैं उनके चरणकमलों की धूलि अपने मस्तक पर धारण करना चाहता हूँ। इस प्रकार मैं उनकी कृपा का आशीर्वाद चाहता हूँ। |
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श्लोक 95: उपर्युक्त महापुरुषों एवं वृन्दावन के वैष्णवों, विशेषकर गोविन्दजी के पुजारी हरिदास की आज्ञा से मैंने (कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने) श्री चैतन्य महाप्रभु के लीला - सिन्धु की एक लहर के एक बिन्दु के एक कण का वर्णन करने का प्रयास किया है। |
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