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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  मध्य लीला  »  अध्याय 20: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा सनातन गोस्वामी को परम सत्य के विज्ञान की शिक्षा  » 
 
 
 
 
गोस्वामी को परम सत्य के विज्ञान की शिक्षा भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने अमृत-प्रवाह-भाष्य में इस अध्याय का सारांश इस प्रकार दिया है : जब श्रील सनातन गोस्वामी नवाब हुसेन शाह द्वारा बन्दी बना लिये गये थे , तब उन्हें रूप गोस्वामी से समाचार मिला कि श्री चैतन्य महाप्रभु मथुरा चले गये हैं। तत्पश्चात् सनातन गोस्वामी ने जेल अधीक्षक को मीठी वाणी में अनुनय-विनय करके तथा घूस देकर प्रसन्न किया। जेलर को सात हजार स्वर्ण मुद्राएँ देकर सनातन गोस्वामी रिहा हो गये। इसके बाद उन्होंने गंगा नदी पार की और भाग गये। उनका एक सेवक, जिसका नाम ईशान था , उनके साथ रहा ; उसके पास आठ स्वर्ण मुद्राएँ थीं। सनातन गोस्वामी तथा उनके सेवक ने बनारस जाते हुए मार्ग में एक छोटे से होटल में रात बिताई । होटल वाले को पता चल गया था कि उनके पास आठ स्वर्ण मुद्राएँ हैं; इसलिए उसने इन्हें मारकर यह धन ले लेना चाहा। इस प्रकार की योजनाएँ बनाकर उसने आदर के साथ मेहमानों जैसा स्वागत किया। सनातन गोस्वामी ने अपने सेवक से पूछा कि उसके पास कितना धन था और उससे सात स्वर्ण-मुद्राएं लेकर उन्होंने होटल वाले को दे दिया। फलतः उस होटल वाले ने उन्हें पर्वतीय प्रदेश को पार करके वाराणसी की ओर तक पहुँचने में सहायता की। रास्ते में सनातन गोस्वामी अपने बहनोई श्रीकान्त से हाजीपुर में मिले, जिसने उनके कष्टों की कहानी सुनकर उनकी सहायता की। इस तरह सनातन गोस्वामी अन्ततः वाराणसी पहुँच गये और चन्द्रशेखर के द्वार पर जा खड़े हुए। चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें भीतर बुलाया और वस्त्र बदलने के लिए कहा , जिससे वे भद्र व्यक्ति लग सकें। वे तपन मिश्र का पुराना वस्त्र पहनने लगे। बाद में उन्होंने अपना कीमती कम्बल देकर एक फटी रजाई ले ली। इस समय चैतन्य महाप्रभु उनसे अत्यन्त प्रसन्न हुए और सनातन गोस्वामी ने महाप्रभु से परम सत्य विषयक ज्ञान प्राप्त किया। सर्वप्रथम उन्होंने जीवों की वैधानिक स्थिति पर विचार -विमर्श किया और श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को बतलाया कि किस तरह जीव भगवा न् कृष्ण की शक्तियों में से एक है। इसके बाद महाप्रभु ने भक्ति की विधि बतलाई। परम सत्य श्रीकृष्ण के विषय में व्याख्या करते हुए महाप्रभु ने ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् का विश्लेषण करने के साथ ही स्वयंरूप, तदेकात्म तथा आवेश नामक भगवान् के विस्तारों का विवेचन वैभव तथा प्राभव जैसी शाखाओं के अन्तर्गत किया। इस तरह महाप्रभु ने पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर के अनेक स्वरूपों का वर्णन किया। उन्होंने इस जगत् में भगवान् के अवतारों- पुरुष अवतार , मन्वन्तर अवतार , गुणावतार तथा शक्त्यावेश अवतार का भी वर्णन किया। महाप्रभु ने कृष्ण की विभिन्न अवस्थाओं-बाल्य , पौगण्ड आदि–तथा इन अवस्थाओं की विभिन्न लीलाओं का भी वर्णन किया। उन्होंने यह भी बतलाया कि किस तरह युवावस्था प्राप्त होने पर कृष्ण को स्थायी स्वरूप प्राप्त हुआ। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को सारी बातें विस्तार से बतलाईं।
 
 
श्लोक 1:  मैं उन श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ, जिनके पास अनन्त अद्भुत ऐश्वर्य है। उनकी कृपा से नीच से नीच व्यक्ति भी भक्ति के विज्ञान का प्रसार कर सकता है।
 
श्लोक 2:  श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैत आचार्य की जय हो तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो!
 
श्लोक 3:  जब सनातन गोस्वामी बंगाल में बन्दी थे, तब उन्हें श्रील रूप गोस्वामी का पत्र मिला।
 
श्लोक 4:  जब सनातन गोस्वामी को रूप गोस्वामी की यह चिट्ठी मिली, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे तुरन्त मांसाहारी (यवन) जेल अधीक्षक के पास गये और उससे इस तरह बोले।
 
श्लोक 5:  सनातन गोस्वामी ने मुस्लिम जेलर से कहा -’ हे महोदय, आप सन्त पुरुष हैं और बड़े ही भाग्यशाली हैं। आप कुरान तथा अन्य शास्त्रों के ज्ञान से पूर्णतया अवगत हैं।
 
श्लोक 6:  “यदि कोई व्यक्ति बद्धजीव या बन्दी व्यक्ति को धार्मिक नियमों के अनुसार मुक्त कर देता है, तो भगवान् उसे भी भवबन्धन से मुक्त कर देते हैं।”
 
श्लोक 7:  सनातन गोस्वामी ने आगे कहा, “इसके पूर्व मैंने आपके लिए बहुत कुछ किया है। अब मैं संकट में हैं। कृपया मुझे बन्धनमुक्त करके उस उपकार का बदला चुकायें।
 
श्लोक 8:  “ये रही पाँच हजार स्वर्ण मुद्राएँ। कृपया इन्हें स्वीकार करें। मुझे मुक्त करने से आपको पुण्य मिलेगा और भौतिक लाभ भी होगा। इस तरह आपको एक साथ दोहरा लाभ हो गा।”
 
श्लोक 9:  इस प्रकार सनातन गोस्वामी ने जेल अधीक्षक को विश्वास दिलाया। उसने उत्तर दिया, “हे महोदय, कृपया मेरी बात सुनें। मैं आपको छोड़ने के लिए तैयार हूँ, किन्तु मुझे सरकार का डर लग रहा है।”
 
श्लोक 10-11:  सनातन ने कहा, “कोई भय नहीं है। नवाब दक्षिण गया हुआ है। यदि वह लौटकर आता है, तो उससे कहना कि सनातन गंगा नदी के तट पर शौच के लिए गया और गंगा को देखते ही वह उसमें कूद पड़ा।
 
श्लोक 12:  “उससे कहना कि, ‘मैं काफी देर तक उसे ढूंढता रहा, किन्तु उसका तनिक भी पता न चला। वह अपनी हथकड़ियों समेत कूद पड़ा, अतएव वह डूब गया और लहरों में बह गया।’
 
श्लोक 13:  “आपको डरने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मैं इस देश में नहीं रहूँगा। मैं साधु बनकर पवित्र नगरी मक्का जाऊँगा।”
 
श्लोक 14:  सनातन गोस्वामी ने देखा कि उस मांसभक्षक का मन अभी भी प्रसन्न नहीं था। तब उन्होंने उसके आगे सात हजार र्वण मुद्राओं की राशि लगा दी।
 
श्लोक 15:  जब मांसभक्षक ने मुद्राएँ देखीं, तो वह उनके प्रति आकृष्ट हो गया। वह सहमत हो गया और उस रात उसने सनातन की बेड़ियाँ काट दीं और उन्हें गंगा पार करने दिया।
 
श्लोक 16:  इस तरह सनातन गोस्वामी छूट तो गये, किन्तु वे किले के रास्ते से होकर नहीं जा पाये।
 
श्लोक 17:  पातड़ा पहुँचकर वे एक जमींदार से मिले और उन्होंने उससे विनती की कि वह उन्हें इस पहाड़ी इलाके को पार करा दे।
 
श्लोक 18:  उस समय उस जमींदार के यहाँ एक ज्योतिषी टिका हुआ था। सनातन के बारे में जानकर जमींदार के कान में वह इस प्रकार फुसफुसाया।
 
श्लोक 19:  उस ज्योतिषी ने कहा, “इस व्यक्ति सनातन के पास आठ स्वर्ण मुद्राएँ (मोहरें) हैं।” यह सुनकर वह जमींदार बहुत प्रसन्न हुआ और सनातन से इस प्रकार बोला।
 
श्लोक 20:  जमींदार ने कहा, “मैं मेरे लोगों के साथ आपको रात में पर्वत के उस पार भिजवा दूँगा।
 
श्लोक 21:  यह कहकर जमींदार ने सनातन गोस्वामी को पकाने के लिए अन्न दिया। तब सनातन नदी के किनारे गये और उन्होंने वहाँ स्नान किया।
 
श्लोक 22:  चूँकि सनातन दो दिनों से उपवास कर रहे थे, अतः उन्होंने भोजन पकाया और खाया।
 
श्लोक 23:  नवाब का मन्त्री रहने के कारण सनातन सारी कूटनीति समझते थे। अतः उन्होंने सोचा, “यह जमींदार मेरा इतना सम्मान क्यों कर रहा है?” यह सोचकर उन्होंने अपने सेवक ईशान से पूछा।
 
श्लोक 24:  सनातन ने अपने सेवक से पूछा, “ईशान, मेरी समझ में तुम्हारे पास कुछ बहुमूल्य वस्तुएँ हैं।” ईशान ने कहा, “हाँ, मेरे पास सात स्वर्ण मुद्राएँ (मोहरें) हैं।”
 
श्लोक 25:  यह सुनकर सनातन गोस्वामी ने अपने सेवक की भर्सना यह कहते हुए की, “तुम यह मृत्यु की घण्टी क्यों अपने साथ लाये हो?”
 
श्लोक 26:  तत्पश्चात् सनातन गोस्वामी सातों स्वर्ण मुद्राएँ अपने हाथ में लेकर जमींदार के पास गये और उसके समक्ष मुद्राएँ रखकर इस प्रकार बोले।
 
श्लोक 27:  “मेरे पास ये सात स्वर्ण मुद्राएँ हैं। कृपया इन्हें लीजिये और धर्म समझकर मुझे यह पर्वतीय प्रदेश पार कर दीजिये।
 
श्लोक 28:  “मैं सरकारी बन्दी हूँ और मैं किले के परकोटे के रास्ते से नहीं जा सकता। यदि आप यह धन ले लें और मुझे यह पर्वतीय प्रदेश पार करा दें, तो आपको बड़ा पुण्य होगा।”
 
श्लोक 29:  जमींदार ने हँसते हुए कहा, “तुम्हारे देने के पूर्व ही मैं जानता था कि तुम्हारे सेवक के पास आठ स्वर्ण मुद्राएँ हैं।
 
श्लोक 30:  आज रात को ही मैं तुम्हें जान से मारकर तुम्हारी मुद्राएँ ले लेता। यह तो अच्छा हुआ कि तुमने स्वेच्छा से उन्हें लाकर मुझे सौंप दिया। अब मैं इस पापकर्म से बच गया।
 
श्लोक 31:  “मैं तुम्हारे आचरण से अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ। मैं ये स्वर्ण मुद्राएँ नहीं लूँगा, परन्तु मैं केवल पुण्य - लाभ हेतु तुम्हें यह पर्वतीय प्रदेश पार करा दूँगा।”
 
श्लोक 32:  सनातन गोस्वामी ने कहा, “यदि आप इन मुद्राओं को स्वीकार नहीं करेंगे, तो इनके लिए मुझे कोई दूसरा मार डालेगा। अतः अच्छा यही होगा कि आप इन मुद्राओं को स्वीकार करके मेरी प्राण - रक्षा करें।”
 
श्लोक 33:  इस समझौते के बाद जमींदार ने सनातन गोस्वामी को चार रक्षक दिये जो उनके साथ जा सकें। वे सभी रात - भर जंगल के रास्ते से होकर चलते रहे और उन्हें पर्वतीय क्षेत्र के पार ले गये।
 
श्लोक 34:  पर्वत पार करने के बाद सनातन गोस्वामी ने अपने सेवक से कहा, “ईशान, मेरी समझ में तुम्हारे पास अब भी कुछ स्वर्ण मुद्राएँ होंगी।”
 
श्लोक 35:  ईशान ने उत्तर दिया, “अब भी एक स्वर्ण मुद्रा मेरे पास है।” तब सनातन गोस्वामी ने कहा, “यह मुद्रा लेकर तुम अपने घर लौट जाओ।”
 
श्लोक 36:  ईशान को विदा करने के बाद सनातन गोस्वामी हाथ में जलपात्र लेकर अकेले ही चल पड़े। फटी - पुरानी रजाई ओढ़े वे अपनी सारी चिन्ताओं से मुक्त हो गये।
 
श्लोक 37:  चलते चलते सनातन गोस्वामी अन्ततः हाजीपुर नामक स्थान पर पहुँचे। उन्होंने वह सन्ध्या एक बगीचे के भीतर बैठकर बिताई।
 
श्लोक 38:  हाजीपुर में श्रीकान्त नाम का एक व्यक्ति रहता था, जो सनातन गोस्वामी का बहनोई था। वह वहाँ सरकारी नौकरी करता था।
 
श्लोक 39:  श्रीकान्त के पास तीन लाख स्वर्ण मुद्राएँ थीं, जो उसे राजा से घोड़े खरीदने के लिए मिली थीं। इस तरह श्रीकान्त घोड़े खरीद - खरीदकर राजा के पास भेजता रहता था।
 
श्लोक 40:  ऊँचे चबूतरे पर बैठे हुए श्रीकान्त ने सनातन गोस्वामी को देखा। अतः उस रात वे वहाँ अपने साथ एक सेवक को लेकर सनातन गोस्वामी से मिलने गया।
 
श्लोक 41:  जब वे दोनों मिले तो बहुत बातें हुईं। सनातन गोस्वामी ने विस्तार से अपने बन्दी होने और मुक्ति की बातें बताईं।
 
श्लोक 42:  तब श्रीकान्त ने सनातन गोस्वामी से कहा, “यहाँ पर कम - से - कम दो दिन रुकिये और भद्र पुरुषों की तरह वस्त्र पहनिये। इन गन्दे वस्त्रों को त्याग दीजिये।”
 
श्लोक 43:  सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया, “मैं यहाँ पर एक क्षण भी नहीं रुकुँगा। कृपया मुझे गंगा पार करा दें। मैं तुरन्त चला जाऊँगा।”
 
श्लोक 44:  श्रीकान्त ने बड़ी सावधानी से उन्हें एक ऊनी कम्बल दिया और गंगा पार जाने में उनकी सहायता की। इस तरह सनातन गोस्वामी फिर चल पड़े।
 
श्लोक 45:  कुछ दिनों बाद सनातन गोस्वामी वाराणसी आ पहुँचे। वहाँ पर श्री चैतन्य महाप्रभु के आगमन के विषय में सुनकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुए।
 
श्लोक 46:  तब सनातन गोस्वामी चन्द्रशेखर के घर गये और उनके दरवाजे के पास बैठ गये। श्री चैतन्य महाप्रभु जान गये कि क्या हो रहा है, अतः वे चन्द्रशेखर से बोले।
 
श्लोक 47:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “तुम्हारे दरवाजे पर एक भक्त है। कृपया उसे अन्दर बुला लाओ।” बाहर जाने पर चन्द्रशेखर को अपने दरवाजे पर कोई वैष्णव नहीं दिखा।
 
श्लोक 48:  जब चन्द्रशेखर ने महाप्रभु को बतलाया कि उनके दरवाजे पर कोई वैष्णव नहीं है, तो महाप्रभु ने पूछा, “क्या तुम्हारे दरवाजे पर कोई भी है?”
 
श्लोक 49:  चन्द्रशेखर ने उत्तर दिया, “वहाँ एक मुसलमान फकीर है।” महाप्रभु ने तुरन्त कहा, “कृपया उसे यहाँ ले आओ।” तब चन्द्रशेखर ने अपने द्वार पर अभी तक बैठे हुए सनातन गोस्वामी से कहा।
 
श्लोक 50:  “हे मुसलमान फकीर, कृपया अन्दर आइये। महाप्रभु आपको बुला रहे हैं।” यह आदेश सुनकर सनातन गोस्वामी अत्यन्त आनन्दित हुए और चन्द्रशेखर के घर में प्रविष्ट हुए।
 
श्लोक 51:  श्री चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को आँगन में आये हुए देखते ही तेजी से उनके पास गये और उनका आलिंगन किया और स्वयं प्रेमावेश से भावविभोर हो गये।
 
श्लोक 52:  श्री चैतन्य महाप्रभु का द्वारा स्पर्श पाते ही सनातन गोस्वामी भी प्रेमाविष्ट हो गये। उन्होंने रुद्ध वाणी में कहा, “हे प्रभु, आप मेरा स्पर्श न करें।”
 
श्लोक 53:  श्री चैतन्य महाप्रभु तथा सनातन गोस्वामी गले लगकर अत्यधिक रोने लगे। यह देखकर चन्द्रशेखर अत्यधिक चकित हुए।
 
श्लोक 54:  श्री चैतन्य महाप्रभु चन्द्रशेखर का हाथ पकड़कर भीतर ले गये और उन्हें अपनी बगल में एक ऊँचे आसन पर बिठाया।
 
श्लोक 55:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने दिव्य हाथों से सनातन गोस्वामी का शरीर साफ करने लगे, तो सनातन गोस्वामी ने कहा, “हे प्रभु, कृपया मेरा स्पर्श न करें।”
 
श्लोक 56:  महाप्रभु ने उत्तर दिया, “मैं अपने आपको पवित्र बनाने के लिए ही तुम्हारा स्पर्श कर रहा हूँ, क्योंकि तुम अपनी भक्ति के बल से सारे ब्रह्माण्ड को शुद्ध कर सकते हो।
 
श्लोक 57:  “आप जैसे सन्त स्वयं तीर्थस्थान होते हैं। अपनी पवित्रता के कारण वे भगवान् के नित्य पार्षद होते हैं ; अतः वे तीर्थस्थलों को भी पवित्र कर सकते हैं।’
 
श्लोक 58:  “[भगवान् कृष्ण ने कहा:] ‘भले ही कोई व्यक्ति संस्कृत वैदिक साहित्य का कितना ही प्रकाण्ड पण्डित क्यों न हो, जब तक वह भक्ति में शुद्ध न हो, वह तब तक मेरा भक्त नहीं माना जाता। किन्तु भले ही कोई व्यक्ति चण्डाल परिवार में जन्मा हो, वह भी मुझे अत्यन्त प्रिय है, यदि वह शुद्ध भक्त है और सकाम कर्म या मानसिक तर्क को भोगने की इच्छा से रहित है। निस्सन्देह, उसका सभी तरह से आदर होना चाहिए और वह जो भी भेंट करे उसे स्वीकार करना चाहिए। ऐसे भक्त मेरे समान ही पूज्य हैं।’
 
श्लोक 59:  “भले ही ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर कोई बारहों ब्राह्मण - गुणों से युक्त क्यों न हो, किन्तु यदि वह कमल समान नाभि वाले भगवान् कृष्ण के चरणकमलों में भक्ति नहीं रखता, तो वह उस चण्डाल के भी तुल्य नहीं है, जिसने भगवान् की सेवा में अपना मन, वचन, कर्म, सम्पत्ति तथा जीवन समर्पित कर दिया है। केवल ब्राह्मण परिवार में जन्म लेना या ब्राह्मण गुणों से सम्पन्न होना पर्याप्त नहीं है। उसे भगवान् का शुद्ध भक्त होना चाहिए। यदि श्वपच या चण्डाल भक्त होता है, तो वह न केवल अपना, अपितु अपने पूरे परिवार का उद्धार करता है, जबकि कोई ब्राह्मण यदि भक्त न होकर केवल ब्राह्मण - गुणों से सम्पन्न होता है, तो वह अपने आपको भी शुद्ध नहीं कर पाता, अपने परिवार को शुद्ध करना तो दूर रहा।”’
 
श्लोक 60:  श्री चैतन्य महाप्रभु कहते गये, “तुम्हें देखकर, तुम्हें स्पर्श करके तथा तुम्हारे दिव्य गुणों का गान करके कोई भी व्यक्ति इन्द्रिय के सारे कार्यों के उद्देश्य को पूर्ण बना सकता है। यह प्रामाणिक शास्त्रों का निर्णय है।
 
श्लोक 61:  “हे वैष्णव, आप जैसे व्यक्ति का दर्शन करना दृष्टि की पूर्णता है। आपके चरणकमलों का स्पर्श करना स्पर्शेन्द्रिय की पूर्णता है। आपके सद्गुणों का गान करना जीभ का वास्तविक कार्य है, क्योंकि भौतिक जगत् में भगवान् का शुद्ध भक्त खोज पाना अतीव कठिन है।”’
 
श्लोक 62:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “हे सनातन, कृपया मुझसे सुनो। कृष्ण अत्यन्त दयालु हैं और सभी पतितात्माओं के उद्धारक हैं।
 
श्लोक 63:  “हे सनातन, कृष्ण ने तुम्हें जीवन के सबसे गहरे नरक, महारौरव से बचा लिया है। वे दया के सागर हैं और उनकी लीलाएँ अत्यन्त गम्भीर हैं।”
 
श्लोक 64:  सनातन ने उत्तर दिया, “मैं कृष्ण को नहीं जानता। जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं तो एकमात्र आपकी कृपा से बन्दी - गृह से मुक्त किया जा सका हूँ।”
 
श्लोक 65:  तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी से पूछा, “तुम बन्दी - गृह से किस तरह छूटे?” अतः सनातन ने आदि से लेकर अन्त तक सारी कथा कह सुनाई।
 
श्लोक 66:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मैं तुम्हारे दो भाइयों, रूप तथा अनुपम से प्रयाग में मिला था। अब वे वृन्दावन चले गये हैं।”
 
श्लोक 67:  श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश से सनातन गोस्वामी तपन मिश्र तथा चन्द्रशेखर दोनों से मिले।
 
श्लोक 68:  तब तपन मिश्र ने सनातन गोस्वामी को निमन्त्रण दिया और श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन से कहा कि वे अपने बाल कटवा दें।
 
श्लोक 69:  इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने चन्द्रशेखर को बुलाकर उनसे कहा कि सनातन गोस्वामी को अपने साथ ले जाएँ। उन्होंने उनसे यह भी कहा कि सनातन की यह वेशभूषा भी उतार दें।
 
श्लोक 70:  तब चन्द्रशेखर ने सनातन गोस्वामी को भद्र पुरुष की तरह बना दिया। उन्होंने उन्हें गंगास्नान कराया और बाद में उन्हें नये कपड़े दिये।
 
श्लोक 71:  चन्द्रशेखर ने सनातन गोस्वामी को नये वस्त्र दिये, किन्तु सनातन ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह समाचार सुना, तो उन्हें अपार आनन्द हुआ।
 
श्लोक 72:  दोपहर में स्नान करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु तपन मिश्र के घर भोजन करने गये। वे अपने साथ सनातन गोस्वामी को भी लेते गये।
 
श्लोक 73:  अपने पाँव धोने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु भोजन करने बैठ गये। उन्होंने तपन मिश्र से कहा कि सनातन गोस्वामी को भी भोजन प्रदान करें।
 
श्लोक 74:  तब तपन मिश्र ने कहा, “सनातन को अभी कुछ कार्य करने हैं, अतः वे अभी भोजन नहीं कर सकते। भोजन समाप्त हो लेने पर मैं सनातन को शेष प्रसाद दूँगा।”
 
श्लोक 75:  भोजन करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने थोड़ा आराम किया। तपन मिश्र ने चैतन्य महाप्रभु द्वारा छोड़ा गया भोजन सनातन गोस्वामी को दिया।
 
श्लोक 76:  जब तपन मिश्र ने सनातन को नया वस्त्र दिया, तो उन्होंने नहीं लिया। अपितु उन्होंने इस प्रकार कहा।
 
श्लोक 77:  “यदि आप मुझे कोई वस्त्र देना ही चाहते हैं, तो कृपया मुझे अपना पहना हुआ कोई पुराना वस्त्र दे दें।”
 
श्लोक 78:  जब तपन मिश्र ने सनातन को एक पुरानी धोती दी, तो सनातन ने उसे फाड़कर दो अंगोछे तथा एक कौपीन बना लिया।
 
श्लोक 79:  जब चैतन्य महाप्रभु ने महाराष्ट्रीय ब्राह्मण का सनातन से परिचय कराया, तो उस ब्राह्मण ने तुरन्त ही सनातन गोस्वामी को पूर्ण भोजन का निमन्त्रण दिया।
 
श्लोक 80:  उस ब्राह्मण ने कहा, “हे प्रिय सनातन, तुम जब तक काशी में रहो, तब तक मेरे ही घर पर भोजन करो।”
 
श्लोक 81:  सनातन ने उत्तर दिया, “मैं माधुकरी की विधि अपनाऊँगा। मैं किसी ब्राह्मण के घर में पूरा भोजन क्यों स्वीकार करूँ?”
 
श्लोक 82:  सनातन गोस्वामी को संन्यास के सिद्धान्तों का दृढ़ता से पालन करते देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु को अपार आनन्द हुआ। किन्तु वे बारम्बार उस ऊनी कम्बल को देख रहे थे, जिसे सनातन गोस्वामी ने ओढ़ रखा था।
 
श्लोक 83:  चूँकि श्री चैतन्य चैतन्य महाप्रभु इस कीमती ऊनी कम्बल को बारम्बार देख रहे थे, अतः सनातन गोस्वामी समझ गये कि यह महाप्रभु को पसन्द नहीं आ रहा है, अतएव वे इसे त्यागने के उपाय पर विचार करने लगे।
 
श्लोक 84:  यह सोचते हुए सनातन स्नान करने गंगा नदी के किनारे गये। वहाँ उन्होंने देखा कि बंगाल के एक साधु ने अपनी गुदड़ी धोकर सूखाने के लिए फैला रखी है।
 
श्लोक 85:  तब सनातन ने उस बंगाली साधु से कहा, “अरे भाई, मुझ पर एक उपकार करो। इस ऊनी कम्बल के बदले अपनी गुदड़ी मुझे दे दो।”
 
श्लोक 86:  साधु ने उत्तर दिया, ‘हे महाशय, आप तो सम्मानित भद्र व्यक्ति हैं। आप मुझसे परिहास क्यों कर रहे हैं? मेरी फटी गुदड़ी से आप अपना कीमती कंबल क्यों बदलना चाहेंगे?”
 
श्लोक 87:  सनातन ने कहा, “मैं परिहास नहीं कर रहा हूँ ; मैं सच कह रहा हूँ। कृपया अपनी फटी गुदड़ी के बदले यह कम्बल ले लें।”
 
श्लोक 88:  यह कहकर सनातन गोस्वामी ने कम्बल को गुदड़ी से बदल लिया। फिर वे अपने कन्धे में वह गुदड़ी डाले श्री चैतन्य महाप्रभु के पास लौट आये।
 
श्लोक 89:  जब सनातन गोस्वामी लौटे तो महाप्रभु ने पूछा, “तुम्हारा ऊनी कम्बल कहाँ है?” तब सनातन ने महाप्रभु से सारी कहानी कह सुनाई।
 
श्लोक 90-91:  तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मैं पहले ही इस विषय पर विचार कर चुका हूँ। चूँकि भगवान् कृष्ण अत्यन्त दयालु हैं, अतएव उन्होंने भौतिक वस्तुओं के प्रति तुम्हारी आसक्ति को खण्डित कर दिया है। भला कृष्ण तुम्हें भौतिक आसक्ति का अन्तिम चिह्न भी क्यों रखने देते? रोग को नष्ट करने के बाद अच्छा वैद्य रोग के किसी भाग को बचा रहने नहीं देता।
 
श्लोक 92:  “माधुकरी का अभ्यास तथा बहुमूल्य कम्बल ओढ़ना पारस्परिक विरोधी हैं। ऐसा करने से मनुष्य अपनी आध्यात्मिक शक्ति खो देता है और वह हँसी का पात्र बन जाता है।”
 
श्लोक 93:  सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया, “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने मुझे इस भौतिक संसार के पापमय जीवन से बचा लिया है। उनकी इच्छानुसार भौतिक आकर्षण का मेरा अन्तिम चिह्न भी अब चला गया है।”
 
श्लोक 94:  सनातन गोस्वामी से प्रसन्न होकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें अपनी अहैतुकी कृपा प्रदान की। भगवान् की कृपा से सनातन गोस्वामी ने उनसे प्रश्न करने की आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त की।
 
श्लोक 95-96:  इसके पूर्व श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय से आध्यात्मिक प्रश्न पूछे थे, जिनका रामानन्द राय ने महाप्रभु की अहैतुकी कृपा से सही - सही उत्तर दिया था। अब श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से सनातन गोस्वामी महाप्रभु से प्रश्न पूछ रहे थे और स्वयं महाप्रभु ने सत्य का प्रतिपादन किया।
 
श्लोक 97:  पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं सनातन गोस्वामी को भगवान् कृष्ण के वास्तविक स्वरूप के सम्बन्ध में बताया। उन्होंने भगवान् के माधुर्य प्रेम, उनके निजी ऐश्वर्य तथा भक्ति - रस के विषय में भी बतलाया। महाप्रभु ने ये सारे तत्त्व अपनी अहैतुकी कृपावश सनातन गोस्वामी को बतलाये।
 
श्लोक 98:  अपने मुँह में एक तिनका रखकर तथा शीश झुकाकर सनातन गोस्वामी ने महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लिए और विनीत होकर इस प्रकार कहा।
 
श्लोक 99:  “मैं निम्न परिवार में जन्मा था और मेरे संगी भी निम्नवर्ग के लोग हैं। मैं स्वयं पतित और अधम हूँ। निस्सन्देह, मैंने अपना सारा जीवन पापमय भौतिकता के कुएँ में गिरकर बिताया है।
 
श्लोक 100:  “मैं नहीं जानता कि मेरे लिए क्या लाभप्रद है और क्या हानिप्रद है। फिर भी सामान्य व्यवहार में लोग मुझे विद्वान पंडित मानते हैं और मैं भी अपने आपको ऐसा ही सोचता हूँ।
 
श्लोक 101:  आपने अपनी अहैतुकी कृपा द्वारा भौतिकतावादी मार्ग से मेरा उद्धार कर दिया है। अब उसी अहैतुकी कृपा से आप मुझे मेरे कर्तव्य के विषय में बतलायें।
 
श्लोक 102:  ‘मैं कौन हूँ? तीनों ताप मुझे निरन्तर कष्ट क्यों देते हैं? यदि मैं यह नहीं जानता, तो फिर मैं किस प्रकार लाभान्वित हो सकता हूँ?
 
श्लोक 103:  “वास्तविकता तो यह है कि मैं नहीं जानता कि जीवन के लक्ष्य तथा उसे प्राप्त करने की विधि के विषय में किस तरह पूछू। आप मुझ पर कृपा करके इन तत्त्वों को मुझे बतलायें।”
 
श्लोक 104:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “तुम पर भगवान् कृष्ण की पूरी कृपा है, जिसके कारण तुम्हें ये सारी बातें ज्ञात हैं। तुम्हारे लिए तीनों तापों का अस्तित्व नहीं है।
 
श्लोक 105:  “चूँकि तुम्हें कृष्ण की शक्ति प्राप्त है, अतएव तुम इन बातों को जानते हो। किन्तु प्रश्न करना तो साधु का स्वभाव है। यद्यपि साधु इन बातों को जानता है, किन्तु अपने में दृढ़ता लाने के लिए वह प्रश्न करता है।
 
श्लोक 106:  “जो लोग अपनी आध्यात्मिक चेतना जगाने के लिए उत्सुक हैं, जिन लोगों के पास अविचल बुद्धि है और जो विचलित नहीं होते, वे अवश्य ही अति शीघ्र जीवन का इच्छित लक्ष्य प्राप्त करते हैं।
 
श्लोक 107:  “तुम भक्ति सम्प्रदाय का प्रसार करने के लिए योग्य हो। अतएव एक - एक करके मुझसे सारे तत्त्वों के विषय में सुनो। मैं तुम्हें उनके बारे में बतलाऊँगा।
 
श्लोक 108-109:  “कृष्ण का सनातन सेवक होना जीव की वैधानिक स्थिति है, क्योंकि जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति है और वह भगवान् से एक ही समय उसी तरह अभिन्न और भिन्न है, जिस तरह सूर्य - प्रकाश या अग्नि का एक कण। कृष्ण की शक्ति के तीन प्रकार हैं।
 
श्लोक 110:  “जिस तरह एक स्थान पर रखी अग्नि का प्रकाश सर्वत्र फैलता है, उसी तरह परब्रह्म अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की शक्तियाँ इस ब्रह्माण्ड - भर में फैली हुई हैं।’
 
श्लोक 111:  “भगवान् कृष्ण के स्वभावतः तीन शक्ति - रूपान्तर हैं। इनके नाम हैं - आध्यात्मिक शक्ति, जीव शक्ति तथा माया शक्ति।
 
श्लोक 112:  “मूल रूप से कृष्ण की शक्ति आध्यात्मिक है और जीव शक्ति भी आध्यात्मिक है। किन्तु एक शक्ति और भी है, जिसे माया कहते हैं, जो सकाम कर्मों से बनी होती है। यही भगवान् की तीसरी शक्ति है। ’
 
श्लोक 113:  “सारी सृजनात्मक शक्तियाँ परम अद्वय सत्य में विद्यमान रहती हैं। सामान्य व्यक्ति के लिये यह अचिन्त्य होती है। ये अचिन्त्य शक्तियाँ सृजन, पालन तथा संहार की विधि में कार्य करती हैं। हे श्रेष्ठ तपस्वी, जिस तरह अग्नि में दो शक्तियाँ - ऊष्मा तथा प्रकाश - होती हैं, उसी तरह यह अचिन्त्य शक्तियाँ परम सत्य के स्वाभाविक गुण हैं।’
 
श्लोक 114:  “‘हे राजन, क्षेत्रज्ञ शक्ति तो जीव है। यद्यपि उसे भौतिक जगत् अथवा आध्यात्मिक जगत् में रहने की सुविधा प्राप्त है, किन्तु वह भौतिक अस्तित्व के तीन तापों को भोगता है, क्योंकि उसे अविद्या शक्ति प्रभावित करती रहती है, जो उसकी वैधानिक स्थिति को आच्छादित कर देती है।
 
श्लोक 115:  “अविद्या के प्रभाव से आच्छादित यह जीव विभिन्न भौतिक स्थिति में विविध रूपों में विद्यमान रहता है। हे राजा, इस तरह वह कम या अधिक मात्रा में भौतिक शक्ति के प्रभाव से मुक्त होता रहता है।
 
श्लोक 116:  “‘हे महाबाहु अर्जुन, इस अपरा शक्ति के अतिरिक्त मेरी एक परा शक्ति भी है, जो जीवों से बनी है, जो कि निःकृष्ट भौतिक शक्ति के स्रोतों का शोषण कर रहे हैं।
 
श्लोक 117:  “जीव अनन्त काल से कृष्ण को भूलकर बाह्य रूप द्वारा आकृष्ट होता रहा है, अतः माया उसे इस भौतिक संसार में सभी प्रकार के दुःख देती रहती है।
 
श्लोक 118:  “भौतिक अवस्था में जीव कभी उच्चतर ग्रह - मण्डलों में तथा भौतिक समृद्धि तक ऊपर उठा दिया जाता है, तो कभी नरक में डुबो दिया जाता है। उसकी अवस्था ठीक उस अपराधी जैसी है, जिसे राजा पानी में बारम्बार डुबोये और निकाले जाने का दण्ड देता है।
 
श्लोक 119:  “जब जीव कृष्ण से भिन्न ऐसी भौतिक शक्ति द्वारा आकृष्ट होता है, तब वह भय द्वारा ग्रस्त हो जाता है। भौतिक शक्ति द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से अलग होने के कारण जीवन के प्रति उनकी दृष्टि बदल जाती है। दूसरे शब्दों में, वह कृष्ण का नित्य दास होने के बदले कृष्ण का प्रतियोगी बन जाता है। इसे विपर्ययोऽस्मृति: कहते हैं। इस भूल को निरस्त करने के लिए वास्तव में विद्वान तथा उन्नत व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा अपने गुरु, आराध्य देवता तथा जीवन के स्रोत के रूप में करता है। इस तरह वह अनन्य भक्ति की विधि से भगवान् की पूजा करता है।’
 
श्लोक 120:  “यदि कोई बद्धजीव किसी ऐसे साधु पुरुष की कृपा से कृष्णभावनाभावित हो जाता है, जो उसे शास्त्रों का उपदेश देता रहता है। और उसे कृष्णभावनाभावित होने में सहायता देता है, तो वह बद्धजीव माया के पाश से मुक्त हो जाता है, क्योंकि माया उसे छोड़ देती है।
 
श्लोक 121:  “भौतिक प्रकृति के तीन गुणों से युक्त मेरी इस दैवी शक्ति का अतिक्रमण करना कठिन है। किन्तु जिन्होंने मेरी शरण ले रखी है, वे इसे आसानी से पार कर सकते हैं।’
 
श्लोक 122:  “बद्धजीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्णभावना को जाग्रत नहीं कर सकता। किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकी कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सृजन किया।
 
श्लोक 123:  “कृष्ण आत्मविस्मृत बद्धजीव को वैदिक ग्रन्थों, स्वरूपसिद्ध गुरु तथा परमात्मा के माध्यम से शिक्षा देते हैं। जीव इनके द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को उनके यथार्थ रूप में समझ सकता है और यह समझ सकता है कि भगवान् कृष्ण उसके सनातन स्वामी तथा माया के पाश से उद्धार करने वाले हैं। इस तरह वह अपने बद्ध जीवन का वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकता है और मुक्ति प्राप्त करने का उपाय जान सकता है।
 
श्लोक 124:  “वैदिक ग्रन्थ कृष्ण के साथ जीव के सनातन सम्बन्ध के विषय में जानकारी देते हैं। यही सम्बन्ध कहलाता है। जीव द्वारा इस सम्बन्ध की जानकारी तथा तदनुसार कर्म करना अभिधेय कहलाता है। भगवद्धाम लौट जाना जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसे प्रयोजन कहते हैं।
 
श्लोक 125:  “भक्ति अथवा भगवान् की तुष्टि के लिए इन्द्रियों से काम करना अभिधेय कहलाता है, क्योंकि इससे मनुष्य का मूल भगवत्प्रेम विकसित हो सकता है, जो जीवन का लक्ष्य है। यह लक्ष्य जीव का सर्वोच्च हित है और सबसे बड़ा धन है। इस तरह भगवान् के प्रति दिव्य प्रेमाभक्ति प्राप्त होती है।
 
श्लोक 126:  “जब किसी को कृष्ण के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होने का दिव्य आनन्द प्राप्त हो जाता है, तो वह उनकी सेवा करता है और कृष्णभावनामृत - रस का आस्वादन करता है।
 
श्लोक 127:  “निम्नलिखित दृष्टान्त प्रस्तुत किया जा सकता है। एक बार एक निर्धन व्यक्ति के घर एक विद्वान ज्योतिषी आया और उसकी दुःखी दशा देखकर उसने पूछा।
 
श्लोक 128:  “ज्योतिषी ने पूछा, ‘तुम दुःखी क्यों हो? तुम्हारा पिता अत्यन्त धनवान था, किन्तु अन्यत्र मरने के कारण उसने अपनी सम्पत्ति के बारे में तुम्हें नहीं बताया। ’
 
श्लोक 129:  जिस तरह सर्वज्ञ ज्योतिषी के शब्दों से निर्धन व्यक्ति के खजाने का पता चला, उसी तरह जब कोई यह जिज्ञासा करता है कि वह दुःखी अवस्था में क्यों है, तो वैदिक ग्रन्थ उसे कृष्णभावनामृत के विषय में उपदेश देते हैं।
 
श्लोक 130:  “ज्योतिषी के शब्दों से उस खजाने से निर्धन व्यक्ति का सम्बन्ध स्थापित हुआ। उसी तरह वैदिक साहित्य हमें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण के साथ अपने वास्तविक सम्बन्ध के विषय में उपदेश देता है।
 
श्लोक 131:  “वह निर्धन व्यक्ति अपने पिता के धन के प्रति आश्वस्त होकर भी उसे केवल ऐसे ज्ञान के बल पर प्राप्त नहीं कर सकता था। इसीलिए ज्योतिषी को वह साधन बताना पड़ा, जिससे वह उस खजाने को वास्तव में पा सके।
 
श्लोक 132:  “ज्योतिषी ने कहा, ‘खजाना इस स्थान में है, किन्तु यदि तुम दक्षिण दिशा में खोदोगे, तो बर्र तथा मधुमक्खियाँ निकलेंगी और तुम अपना खजाना नहीं पा सकोगे।
 
श्लोक 133:  “यदि तुम पश्चिम दिशा में खोदोगे, तो वहाँ एक प्रेत है। वह ऐसा विघ्न उत्पन्न करेगा कि तुम उस खजाने को हाथ भी नहीं लगा सकोगे।
 
श्लोक 134:  “यदि तुम उत्तर दिशा में खोदोगे, तो वहाँ एक विशाल काला साँप है। यदि तुमने खजाना खोदने का प्रयास किया, तो वह तुम्हें निगल जायेगा।
 
श्लोक 135:  “किन्तु यदि तुम पूर्व की ओर थोड़ी - सी भी मिट्टी खोदोगे, तो तुरन्त ही खजाने का पात्र तुम्हारे हाथों में आ जायेगा।’
 
श्लोक 136:  “प्रामाणिक शास्त्रों का निर्णय है कि मनुष्य को कर्म, ज्ञान तथा योग का परित्याग करके भक्ति को ग्रहण करना चाहिए, जिससे कृष्ण पूर्णतया तुष्ट हो सकें।
 
श्लोक 137:  “[पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण ने कहा:] ‘हे उद्धव, न तो अष्टांग योग से, न निर्विशेष अद्वैतवाद से, न परम सत्य के विश्लेषणात्मक अध्ययन से, न वेदों के अध्ययन से, न तपस्या से, न दान से, न संन्यास ग्रहण करने से कोई व्यक्ति मुझे उतना ही तुष्ट कर सकता है, जितना कि वह मेरी अनन्य भक्ति करके कर सकता है।
 
श्लोक 138:  “भक्तों तथा साधुओं को अत्यन्त प्रिय होने के कारण मुझे अविचल श्रद्धा तथा भक्ति द्वारा प्राप्त किया जाता है। यह भक्तियोग, जो मेरे प्रति अनुरक्ति को क्रमशः बढ़ाता है, चंडाल तक को शुद्ध करने वाला है। अर्थात् भक्तियोग के माध्यम से हर व्यक्ति आध्यात्मिक पद तक ऊपर उठ सकता है।’
 
श्लोक 139:  “निष्कर्ष यह है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तक पहुँचने का एकमात्र उपाय भक्ति है। इसीलिए इस विधि को अभिधेय कहते हैं। यही सभी प्रामाणिक शास्त्रों का निर्णय है।
 
श्लोक 140:  “जब मनुष्य सचमुच धनी बन जाता है, तब वह स्वभावतः सारे सुखों का भोग करने लगता है। जब वह सुखी मुद्रा में होता है, तो सारी दुःखद दशाएँ स्वतः दूर हो जाती हैं। इसके लिए किसी बाह्य प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती।
 
श्लोक 141:  “इसी तरह भक्ति के फलस्वरूप मनुष्य का सुप्त कृष्ण - प्रेम जाग्रत हो उठता है। जब मनुष्य भगवान् कृष्ण की संगति का आस्वादन कर सकने के योग्य हो जाता है, तब यह भौतिक संसार, जन्म तथा मृत्यु का चक्र, समाप्त हो जाता है।
 
श्लोक 142:  “भगवत्प्रेम का लक्ष्य न तो भौतिक दृष्टि से धनी बनना है, न ही भवबन्धन से मुक्त होना है। वास्तविक लक्ष्य तो भगवान् की भक्तिमय सेवा में स्थित होकर दिव्य आनन्द भोगना है।
 
श्लोक 143:  “वैदिक ग्रन्थों में कृष्ण आकर्षण के केन्द्रबिन्दु हैं और उनकी सेवा करना हमारा कर्म है। हमारे जीवन का चरम लक्ष्य कृष्ण - प्रेम प्राप्त करना वही है। अतएव कृष्ण, कृष्ण की सेवा तथा कृष्ण - प्रेम - ये जीवन के तीन महाधन हैं।
 
श्लोक 144:  “वेद इत्यादि सारे प्रामाणिक शास्त्रों के आकर्षण के केन्द्रीय बिन्दु कृष्ण हैं। जब कृष्ण विषयक पूर्ण ज्ञान की अनुभूति हो जाती है, तो माया का बन्धन स्वतः टूट जाता है।
 
श्लोक 145:  “वैदिक शास्त्र तथा पुराण अनेक प्रकार के हैं। उनमें से प्रत्येक में विशेष देवताओं का वर्णन प्रमुख देवताओं के रूप में पाया जाता है। यह समस्त चर तथा अचर प्राणियों में मोह उत्पन्न करने के लिए है। उन्हें निरन्तर ऐसी ही कल्पनाओं में लगे रहने दो। किन्तु जब इन सारे वैदिक शास्त्रों का सामूहिक विश्लेषण किया जाता है, तब निष्कर्ष यही निकलता है कि भगवान् विष्णु ही एकमात्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।’
 
श्लोक 146:  “जब कोई व्यक्ति व्याख्या द्वारा, अथवा शाब्दिक अर्थ के द्वारा वैदिक शास्त्रों को स्वीकार करता है, तब वैदिक ज्ञान की अन्तिम घोषणा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से भगवान् कृष्ण को ही इंगित करती है।
 
श्लोक 147-148:  “[भगवान् कृष्ण ने कहा: ] ‘सारे वैदिक शास्त्रों का प्रयोजन क्या है? उनका लक्ष्य किस पर केन्द्रित होता है? सारे चिन्तन का लक्ष्य कौन है? इन बातों को मेरे अतिरिक्त कोई नहीं जानता। अब तुम यह जान लो कि ये सारे कार्य मेरा ही वर्णन करने के लिए एवं मुझे प्राप्त करने के लिए हैं। वैदिक साहित्य का उद्देश्य विभिन्न मानसिक चिन्तनों द्वारा मुझे जानना है, चाहे वह अप्रत्यक्ष ज्ञान हो या शाब्दिक अर्थ द्वारा हो। हर व्यक्ति मेरे विषय में तर्क करता है। मुझमें और माया में अन्तर करना यही सारे वैदिक ग्रन्थों का सार है। मनुष्य माया पर विचार करने पर मुझे समझ पाता है। इस तरह वह वेदों के विषय में तर्क करने से मुक्त हो जाता है और अन्तिम निष्कर्ष के रूप में मेरे पास आता है और तब तुष्ट होता है।’
 
श्लोक 149:  “कृष्ण का दिव्य स्वरूप अनन्त है और उनका ऐश्वर्य अपार है। वे अन्तरंगा, बहिरंगा तथा तटस्था शक्तियों के स्वामी हैं।
 
श्लोक 150:  “भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही जगत् कृष्ण की क्रमशः बहिरंगा तथा अन्तरंगा शक्तियों के रूपान्तर हैं। अतएव भौतिक तथा आध्यात्मिक सृष्टियों के मूल स्रोत कृष्ण ही हैं।
 
श्लोक 151:  “श्रीमद्भागवत का दसवाँ स्कन्ध दसवें लक्ष्य, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को बतलाने वाला है, जो समस्त शरणागतों के आश्रय हैं। वे श्रीकृष्ण नाम से विख्यात हैं और समस्त ब्रह्माण्डों के परम स्रोत हैं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।’
 
श्लोक 152:  “हे सनातन, अब मुझसे भगवान् कृष्ण के सनातन स्वरूप के विषय में सुनो। वे द्वैत भाव से रहित परम अद्वय सत्य हैं, किन्तु वे वृन्दावन में नन्द महाराज के पुत्र रूप में रहते हैं।
 
श्लोक 153:  “कृष्ण प्रत्येक वस्तु के आदि स्रोत हैं और हर वस्तु के सर्वांश हैं। वे सर्वोत्कृष्ट किशोर रूप में प्रकट होते हैं और उनका सारा शरीर आध्यात्मिक आनन्द से बना हुआ है। वे हर वस्तु के आश्रय तथा हर एक के स्वामी हैं।
 
श्लोक 154:  “गोविन्द नाम से विख्यात कृष्ण परम नियन्ता हैं। उनका शरीर सनातन, आनन्दमय तथा आध्यात्मिक है। वे सबके उद्गम हैं। उनका अन्य कोई उद्गम नहीं है, क्योंकि वे समस्त कारणों के मुख्य कारण हैं।’
 
श्लोक 155:  “आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तो श्रीकृष्ण हैं। उनका मूल नाम गोविन्द है। वे समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं और उनका सनातन धाम गोलोक वृन्दावन कहलाता है।
 
श्लोक 156:  “ईश्वर के ये सारे अवतार पुरुष - अवतार के या तो पूर्ण अंश हैं या पूर्ण अंश के अंश हैं। किन्तु कृष्ण स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। जब संसार इन्द्र के शत्रुओं द्वारा पीड़ित होता है, तब प्रत्येक युग में वे अपने इन विभिन्न रूपों द्वारा संसार की रक्षा करते हैं।’
 
श्लोक 157:  “परम अद्वय सत्य को समझने की तीन प्रकार की आध्यात्मिक विधियाँ हैं - ज्ञान, योग तथा भक्ति। परम सत्य इन तीनों विधियों से क्रमशः ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् रूप में प्रकट होते हैं।
 
श्लोक 158:  “परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवेत्ता इस अद्वय वस्तु को ब्रह्म, परमात्मा या भगवान् कहते हैं।’
 
श्लोक 159:  “निर्विशेष ब्रह्मज्योति की अभिव्यक्ति, जिसमें विविधता नहीं होती, कृष्ण के शारीरिक तेज की किरणें हैं। यह सूर्य के समान है। जब सूर्य को सामान्य आँखों से देखा जाता है, तो इसमें एकमात्र प्रकाश ही दिखता है।
 
श्लोक 160:  “मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, जो महान् शक्ति से सम्पन्न हैं। उनके दिव्य स्वरूप का देदीप्यमान तेज निर्विशेष ब्रह्म है, जो परम, पूर्ण तथा असीम है और जो करोड़ों ब्रह्माण्डों में असंख्य विविध लोकों को उनके विभिन्न ऐश्वर्यों समेत प्रदर्शित करते हैं। ’
 
श्लोक 161:  “परमात्मा उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के पूर्ण अंश हैं, जो समस्त जीवों के आदि आत्मा हैं। कृष्ण ही परमात्मा के आदि स्रोत हैं।
 
श्लोक 162:  “तुम कृष्ण को समस्त आत्माओं (जीवों) के आदि आत्मा जानो। वे अपनी अहैतुकी कृपावश सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लाभ हेतु सामान्य मानव के रूप में प्रकट हुए हैं। उन्होंने अपनी अन्तरंगा शक्ति के बल पर ही ऐसा किया है।’
 
श्लोक 163:  “किन्तु हे अर्जुन, इस विस्तृत ज्ञान की आवश्यकता ही क्या है? मैं तो अपने एक अंश से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हूँ और इसको धारण करता हूँ।’
 
श्लोक 164:  “एकमात्र भक्ति द्वारा मनुष्य भगवान् के उस दिव्य रूप को समझ सकता है, जो सभी प्रकार से पूर्ण है। यद्यपि उनका स्वरूप एक है, किन्तु अपनी परम इच्छा से वे इसका विस्तार असंख्य रूपों में कर सकते हैं।
 
श्लोक 165:  “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तीन प्रधान रूपों में विद्यमान रहते हैं - स्वयं - रूप, तदेकात्म - रूप तथा आवेश - रूप।
 
श्लोक 166:  “भगवान् का आदि रूप (स्वयं - रूप) दो रूपों में प्रदर्शित होता है — स्वयं - रूप तथा स्वयं - प्रकाश। अपने आदि स्वयं - रूप में कृष्ण वृन्दावन में ग्वालबाल के रूप में देखे जाते हैं।
 
श्लोक 167:  “अपने आदि रूप में कृष्ण प्राभव तथा वैभव इन दो स्वरूपों में प्रकट होते हैं। वे अपने एक आदि रूप का अनेक रूपों में विस्तार कर लेते हैं, जैसाकि उन्होंने रासलीला नृत्य के अवसर पर किया था।
 
श्लोक 168:  “जब भगवान् ने द्वारका में 16, 108 पत्नियों से विवाह किया, तब उन्होंने अपने आपका अनेक रूपों में विस्तार किया। ये विस्तार तथा रासनृत्य के अवसर पर हुए विस्तार शास्त्रों के निर्देशानुसार प्राभव - प्रकाश कहलाते हैं।
 
श्लोक 169:  “भगवान् कृष्ण के ये प्राभव - प्रकाश सौभरि मुनि के विस्तारों जैसे नहीं हैं। यदि ऐसा होता, तो नारद उन्हें देखकर विस्मित न हुए होते।
 
श्लोक 170:  “यह विचित्र बात है कि अद्वय कृष्ण ने सोलह हजार रानियों से विवाह करने के लिए उन्हीं के घरों में अपना विस्तार एक जैसे सोलह हजार रूपों में कर लिया। ’
 
श्लोक 171:  “यदि एक रूप या शरीर विभिन्न भावों के अनुसार भिन्न - भिन्न प्रकट हो, तो यह वैभव - प्रकाश कहलाता है।
 
श्लोक 172:  “जब भगवान् अपना विस्तार असंख्य रूपों में करते हैं, तब इन रूपों में कोई भेद नहीं होता, किन्तु विभिन्न लक्षणों, वर्ण तथा अस्त्रों में भिन्नता के कारण उनके नाम भिन्न - भिन्न होते हैं।
 
श्लोक 173:  “विभिन्न वैदिक शास्त्रों में इन विभिन्न रूपों की पूजा करने के विधि - विधान नियत किये गये हैं। जब मनुष्य इन विधि - विधानों से शुद्ध हो जाता है, तब वह आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा करता है। यद्यपि आप अनेक रूपों में प्रकट होते हैं, किन्तु आप एक हैं।’
 
श्लोक 174:  “कृष्ण के वैभव - रूप का प्रथम प्राकट्य श्री बलरामजी हैं। श्री बलराम तथा कृष्ण के शरीरों के रंग भिन्न हैं, अन्यथा बलराम सभी प्रकार से कृष्ण के समान ही हैं।
 
श्लोक 175:  “वैभव - प्रकाश का एक उदाहरण है देवकी के पुत्र। उनके कभी दो हाथ होते हैं तो कभी चार हाथ।
 
श्लोक 176:  “जब भगवान् द्विभुज रहते हैं, तो वे वैभव - प्रकाश कहलाते हैं और जब वे चतुर्भुज होते हैं तो प्राभव - प्रकाश कहलाते हैं।
 
श्लोक 177:  “स्वयं - रूप (अपने मूल रूप) में भगवान् ग्वालबाल के वेश में रहते हैं और अपने आपको ग्वालबाल मानते हैं। जब वे वसुदेव तथा देवकी के पुत्र के रूप में प्रकट होते हैं, तब उनका वेश तथा उनकी चेतना एक क्षत्रिय अर्थात् योद्धा जैसे होते हैं।
 
श्लोक 178:  “जब योद्धा - वासुदेव के सौन्दर्य, ऐश्वर्य, माधुर्य तथा बौद्धिक लीलाओं की तुलना नन्द महाराज के पुत्र ग्वालबाल कृष्ण से की जाती है, तब देखा जाता है कि कृष्ण के लक्षण अधिक सुहावने लगते हैं।
 
श्लोक 179:  “निस्सन्देह, गोविन्द की माधुरी देखकर वासुदेव में क्षोभ उत्पन्न होता है और तब उस माधुरी का आस्वादन करने के लिए उनमें दिव्य लोभ उत्पन्न होता है।
 
श्लोक 180:  “‘हे मित्र, यह अभिनेता मेरे द्वितीय रूप जैसा लगता है। यह चित्र की भाँति आश्चर्यजनक आकर्षक माधुरी तथा सुगन्धि से ओतप्रोत ग्वालबाल की तरह मेरी लीलाएँ प्रदर्शित करता है, जो व्रजबालाओं को अत्यन्त प्रिय हैं। जब मैं इस प्रदर्शन को देखता हूँ, तो मेरा मन उत्तेजित हो उठता है। ऐसी लीलाओं के लिए मेरी भी इच्छा होने लगती है और इच्छा होती है। कि मुझे भी व्रजबालाओं जैसा ही रूप प्राप्त हो जाए।’
 
श्लोक 181:  “एक बार जब वासुदेव ने मथुरा में गन्धर्व - नृत्य देखा, तो कृष्ण के प्रति वासुदेव को आकर्षण का अनुभव हुआ। दूसरी बार द्वारका में हुआ, जब वासुदेव कृष्ण का चित्र देखकर चकित हो गये थे।
 
श्लोक 182:  “वह कौन है, जो मुझसे भी बढ़कर ऐसी प्रभूत माधुरी प्रकट कर रहा है, जिसका अनुभव इसके पूर्व कभी नहीं किया गया और जो सबको चकित करने वाली है? हाय! इस सौन्दर्य को देखकर मेरा मन भी मोहित हो रहा है और मैं स्वयं श्रीमती राधारानी के समान इसका आनन्द उठाने के लिए इच्छुक हूँ।’
 
श्लोक 183:  “जब वह शरीर किंचित् भिन्न रूप में प्रकट होता है और इसके स्वरूप भाव तथा रूप में किंचित् भिन्न होते हैं, तो वह तदेकात्म कहलाता है।
 
श्लोक 184:  “तदेकात्म - रूप के अन्तर्गत विलास (लीला - विस्तार) तथा स्वांश (व्यक्तिगत विस्तार) दो भेद हैं। लीला (विलास) तथा स्वांश के अनुसार विविध विभेद हैं।
 
श्लोक 185:  “पुनः विलास रूपों को दो श्रेणियों में बाँटा गया है - प्राभव तथा वैभव। इन रूपों के विलासों के भी अंसख्य भेद हैं।
 
श्लोक 186:  “मुख्य चतुर्दूहों के नाम हैं वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध। ये प्राभव - विलास कहलाते हैं।
 
श्लोक 187:  “कृष्ण के आदि रूप जैसे ही रूप वाले बलराम वृन्दावन में एक ग्वालबाल हैं और वे अपने आपको द्वारका के क्षत्रिय वंश के एक सदस्य भी मानते हैं। इस तरह उनका रंग तथा वेश भिन्न है और वे कृष्ण के लीला - रूप कहलाते हैं।
 
श्लोक 188:  “श्री बलराम कृष्ण के वैभव - प्रकाश रूप हैं। वे वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के मूल चतुर्व्यूह में भी प्रकट होते हैं। ये भिन्न भावों वाले प्राभव - विलास विस्तार हैं।
 
श्लोक 189:  “चतुर्व्यूह का प्रथम विस्तार अद्वितीय है। उनकी कोई तुलना ही नहीं है। ये चतुर्व्यह - रूप अनन्त चतुर्दूह - रूपों के स्रोत हैं।
 
श्लोक 190:  “भगवान् कृष्ण के ये चार प्राभव - विलास रूप द्वारका तथा मथुरा में शाश्वत निवास करते हैं।”
 
श्लोक 191:  “एक मूल चतुयूँह से चौबीस रूप प्रकट होते हैं। वे अपने चारों हाथों में धारण किये जाने वाले अस्त्रों कि स्थिति के अनुसार भिन्न होते हैं। वे वैभव - विलास कहलाते हैं।
 
श्लोक 192:  “भगवान् कृष्ण पुनः विस्तार करते हैं और परव्योम अर्थात् आध्यात्मिक आकाश में वे अपने मूल चतुर्व्यह रूपों के विस्तार के साथ अपने चतुर्भुजी नारायण रूप में पूर्णरूपेण स्थित हैं।
 
श्लोक 193:  “इस तरह मूल चतुर्व्यूह रूप पुनः द्वितीय चतुर्व्यूह रूप में प्रकट होते हैं। इन द्वितीय चतुर्दूहों के आवास चारों दिशाओं को आच्छादित करते हैं।
 
श्लोक 194:  “इन चतुर्व्यहों का पुनः तीन बार विस्तार होता है, जिनमें केशव आदि आते हैं। यह विलास - रूपों की पूर्ति है।
 
श्लोक 195:  “चतुर्व्यूह में से प्रत्येक रूप के तीन विस्तार होते हैं और वे अस्त्र धारण करने की स्थिति के अनुसार विभिन्न नाम वाले होते हैं। वासुदेव के विस्तार हैं केशव, नारायण तथा माधव।
 
श्लोक 196:  “संकर्षण के विस्तार हैं गोविन्द, विष्णु तथा मधुसूदन। ये गोविन्द मूल गोविन्द से भिन्न हैं, क्योंकि ये महाराज नन्द के पुत्र नहीं हैं।
 
श्लोक 197:  “प्रद्युम्न के विस्तार हैं त्रिविक्रम, वामन तथा श्रीधर। इसी तरह अनिरुद्ध के विस्तार हृषीकेश, पद्मनाभ तथा दामोदर हैं।
 
श्लोक 198:  “ये बारहों बारह महीनों के प्रधान देवता हैं। केशव अग्रहायण मास के और नारायण पौष मास के प्रधान देवता हैं।
 
श्लोक 199:  “माघ मास के प्रधान देवता माधव हैं और फाल्गुन के गोविन्द हैं। विष्णु चैत्र मास के और मधुसूदन वैशाख मास के प्रधान देवता हैं।
 
श्लोक 200:  “ज्येष्ठ मास के प्रधान देवता त्रिविक्रम हैं, आषाढ़ के देवता वामन हैं, श्रावण मास के श्रीधर तथा भाद्र मास के हृषीकेश हैं।
 
श्लोक 201:  “आश्विन मास के प्रधान देवता पद्मनाभ हैं और कार्तिक मास के दामोदर हैं। ये दामोदर वृन्दावन के नन्द महाराज के पुत्र राधा - दामोदर से भिन्न हैं।
 
श्लोक 202:  “शरीर के बारह स्थानों पर तिलक लगाते समय विष्णु के इन बारह नामों वाले मन्त्र का उच्चारण करना होता है। नित्य पूजा के बाद जल से आचमन करते समय इन नामों का उच्चारण करते हुए शरीर के प्रत्येक अंग का स्पर्श करना चाहिए।
 
श्लोक 203:  “वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध से आठ और विलास - रूप आते हैं। हे सनातन, मैं उनके नामों का उल्लेख करता हूँ। उन्हें सुनो।
 
श्लोक 204:  “ये आठ विलास (लीला - विस्तार) हैं – पुरुषोत्तम, अच्युत, नृसिंह, जनार्दन, हरि, कृष्ण, अधोक्षज तथा उपेन्द्र।
 
श्लोक 205:  “इन आठ विस्तारों में से दो तो वासुदेव के विलास हैं। उनके नाम हैं। अधोक्षज तथा पुरुषोत्तम। संकर्षण के दो विलास हैं उपेन्द्र तथा अच्युत।
 
श्लोक 206:  “प्रद्युम्न के विलास (लीला - विस्तार) हैं नृसिंह तथा जनार्दन एवं अनिरुद्ध के विलास हैं हरि तथा कृष्ण।
 
श्लोक 207:  “ये चौबीसों रूप भगवान् के मुख्य प्राभव - विलास हैं। इनके नाम हाथों में धारण किये गये अस्त्रों की स्थिति के अनुसार भिन्न - भिन्न होते हैं।
 
श्लोक 208:  “इन समस्त रूपों में जो रूप वेश तथा आकार में भिन्न होते हैं, वे वैभव - विलास कहलाते हैं।
 
श्लोक 209:  “इनमें से पद्मनाभ, त्रिविक्रम, नृसिंह, वामन, हरि, कृष्ण इत्यादि के शारीरिक रूप भिन्न - भिन्न हैं।
 
श्लोक 210:  “वासुदेव तथा अन्य तीन विस्तार भगवान् कृष्ण के प्रत्यक्ष प्राभव - विलास हैं। इन चतुर्व्यूह रूपों के बीस विलास विस्तार हैं।
 
श्लोक 211:  “ये सारे रूप आध्यात्मिक आकाश धाम में भिन्न - भिन्न वैकुण्ठ लोकों के अधिष्ठाता हैं, जो पूर्व दिशा से क्रमशः प्रारम्भ होते हैं। आठों दिशाओं में प्रत्येक में तीन भिन्न रूप होते हैं।
 
श्लोक 212:  “यद्यपि इन सबका परव्योम में सनातन निवासस्थान है, किन्तु इनमें से कुछ भौतिक ब्रह्माण्डों में स्थित हैं।
 
श्लोक 213:  “परव्योम में नारायण का नित्य निवासस्थान है। इस परव्योम के ऊपरी भाग में कृष्णलोक है, जो समस्त ऐश्वर्यों से परिपूर्ण है।
 
श्लोक 214:  “कृष्णलोक तीन विभागों में बँटा है – गोकुल, मथुरा तथा द्वारका।”
 
श्लोक 215:  “भगवान् केशव का नित्य निवास मथुरा में है और भगवान् पुरुषोत्तम, जो जगन्नाथ नाम से विख्यात हैं, नीलाचल में नित्य निवास करते हैं।
 
श्लोक 216:  प्रयाग में भगवान् बिन्दु माधव के रूप में स्थित हैं और मन्दार पर्वत में मधुसूदन रूप में।
 
श्लोक 217:  “विष्णुकांची में भगवान् विष्णु हैं, मायापुर में भगवान् हरि हैं तथा सारे ब्रह्माण्ड में नाना प्रकार के अनेक रूप हैं।
 
श्लोक 218:  “इस ब्रह्माण्ड के भीतर भगवान् विभिन्न आध्यात्मिक स्वरूपों में स्थित हैं। ये सात द्वीपों के नव खण्डों में विद्यमान हैं। इस तरह उनकी लीलाएँ चलती रहती हैं।
 
श्लोक 219:  “भगवान् अपने भक्तों को प्रसन्न करने के लिए ही सारे ब्रह्माण्डों में विभिन्न रूपों में स्थित हैं। इस तरह भगवान् अधर्म का विनाश करते हैं और धर्म की स्थापना करते हैं।
 
श्लोक 220:  “इन रूपों में से कुछ को अवतार माना जाता है। उदाहरणार्थ भगवान् विष्णु, भगवान् त्रिविक्रम, भगवान् नृसिंह तथा भगवान् वामन।
 
श्लोक 221:  “हे सनातन, अब मुझसे सुनो कि किस तरह विभिन्न विष्णु - मूर्तियाँ अपने - अपने अस्त्र यथा चक्र इत्यादि धारण करती हैं, एवं किस तरह अपने हाथों में धारण किए गये अस्त्रों के अनुसार उनके नाम पड़ते हैं।
 
श्लोक 222:  “गणना करने की विधि यह है कि निचले दायें हाथ से प्रारम्भ करके क्रमशः ऊपरी दाहिने हाथ, ऊपरी बाएँ हाथ तथा निचले बाएँ हाथ तक बढ़े। भगवान् विष्णु का नाम उनके हाथों में धारण किये गये अस्त्रों के क्रम के अनुसार होता है।
 
श्लोक 223:  “सिद्धार्थ - संहिता के अनुसार भगवान् विष्णु के चौबीस रूप हैं। सर्वप्रथम मैं उसी ग्रन्थ के अनुसार चक्र से आरम्भ करके उन अस्त्रों की स्थिति का वर्णन करूँगा।
 
श्लोक 224:  “भगवान् वासुदेव अपने निचले दाहिने हाथ में गदा, ऊपरी दाएँ हाथ में शङ्ख, ऊपरी बाएँ हाथ में चक्र तथा निचले बाएँ हाथ में कमल का फूल धारण करते हैं। संकर्षण अपने निचले दाहिने हाथ में गदा, ऊपरी दाएँ हाथ में शंख, ऊपरी बाएँ हाथ में कमल का फूल तथा निचले बाएँ हाथ में चक्र धारण करते हैं।
 
श्लोक 225:  “प्रद्युम्न चक्र, शंख, गदा तथा कमल धारण करते हैं और अनिरुद्ध चक्र, गदा, शंख तथा कमल धारण करते हैं।
 
श्लोक 226:  “परव्योम में वासुदेव आदि अंश अपने - अपने क्रम से अस्त्रों को धारण करते हैं। उनका वर्णन करने के लिए मैं सिद्धार्थ - संहिता के मत को दुहरा रहा हूँ।
 
श्लोक 227:  “भगवान् केशव पद्म, शंख, चक्र तथा गदा धारण करते हैं। भगवान् नारायण शंख, पद्म, गदा तथा चक्र धारण करते हैं।
 
श्लोक 228:  “भगवान् माधव अपने हाथों में गदा, चक्र, शंख तथा कमल धारण करते हैं। भगवान् गोविन्द चक्र, गदा, पद्म तथा शंख धारण करते हैं।
 
श्लोक 229:  “भगवान् विष्णु अपने हाथों में गदा, पद्म, शंख तथा चक्र लिये रहते हैं। भगवान् मधुसूदन चक्र, शंख, पद्म तथा गदा धारण करते हैं।
 
श्लोक 230:  “भगवान् त्रिविक्रम अपने हाथों में कमल, गदा, चक्र तथा शंख लिये रहते हैं। भगवान् वामन शंख, चक्र, गदा तथा कमल धारण करते हैं।
 
श्लोक 231:  “भगवान् श्रीधर के हाथों में कमल, चक्र, गदा तथा शंख रहते हैं। भगवान् हृषीकेश अपने हाथों में गदा, चक्र, कमल तथा शंख धारण करते हैं।
 
श्लोक 232:  “भगवान् पद्मनाभ शंख, कमल, चक्र तथा गदा लिये रहते हैं। भगवान् दामोदर कमल, चक्र, गदा तथा शंख धारण करते हैं।
 
श्लोक 233:  “भगवान् पुरुषोत्तम चक्र, पद्म, शंख तथा गदा धारण करते हैं। भगवान् अच्युत गदा, कमल, चक्र तथा शंख धारण करते हैं।
 
श्लोक 234:  “भगवान् नृसिंह चक्र, पद्म, गदा तथा शंख धारण करते हैं। भगवान् जनार्दन अपने हाथों में कमल, चक्र, शंख तथा गदा लिये रहते हैं।
 
श्लोक 235:  “श्री हरि अपने हाथों में शंख, चक्र, पद्म तथा गदा लिये रहते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अपने हाथों में शंख, गदा, कमल तथा चक्र धारण करते हैं।
 
श्लोक 236:  “भगवान् अधोक्षज अपने हाथों में कमल, गदा, शंख तथा चक्र लिये रहते हैं। भगवान् उपेन्द्र अपने हाथों में शंख, गदा, चक्र तथा कमल धारण करते हैं।
 
श्लोक 237:  “हयशीर्ष पंचरात्र के अनुसार सोलह पुरुष हैं। मैं अब उस मत का वर्णन करूँगा कि वे किस तरह अस्त्रों को धारण किये रहते हैं।
 
श्लोक 238:  “केशव को कमल, शंख, गदा तथा चक्र धारण किये भिन्न बतलाया जाता है और माधव को हाथों में चक्र, गदा, शंख तथा कमल धारण करने वाले अस्त्रों के अनुसार प्रस्तुत किया जाता है।
 
श्लोक 239:  हयशीर्ष पंचरात्र के अनुसार नारायण तथा अन्यों को भी विभिन्न हाथों में धारण करने वाले अस्त्रों के अनुसार प्रस्तुत किया जाता है।
 
श्लोक 240:  “आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण, जो महाराज नन्द के पुत्र हैं, उनके दो नाम हैं। एक है स्वयं भगवान् तथा दूसरा है लीला पुरुषोत्तम।
 
श्लोक 241:  “भगवान् कृष्ण द्वारका पुरी को उसके रक्षक के रूप में घेरे रहते हैं। वे पुरी के नौ विभिन्न स्थानों में नौ भिन्न - भिन्न रूपों में अपना विस्तार करते हैं।
 
श्लोक 242:  “जिन नौ पुरुषों का उल्लेख हुआ है वे हैं - वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण, नृसिंह, हयग्रीव, वराह तथा ब्रह्मा। ’
 
श्लोक 243:  “मैं विलासों तथा प्रकाशों का वर्णन कर चुका हूँ। अब मुझसे विभिन्न स्वांशों के विषय में सुनो।
 
श्लोक 244:  “प्रथम स्वांश (व्यक्तिगत विस्तार) संकर्षण हैं और अन्य सभी अवतार हैं, मत्स्य इत्यादि। संकर्षण पुरुष अथवा विष्णु के विस्तार हैं। मत्स्य जैसे अवतार विभिन्न युगों में विशिष्ट लीलाओं के लिए प्रकट होते हैं।
 
श्लोक 245:  “कृष्ण के छह तरह के अवतार होते हैं। एक तो विष्णु के अवतार (पुरुषावतार) हैं और दूसरे अवतार विभिन्न लीलाओं को सम्पन्न करने के लिए (लीलावतार) हैं।
 
श्लोक 246:  “फिर गुण - अवतार (जो भौतिक गुणों का नियन्त्रण करते हैं), मन्वन्तर - अवतार (जो प्रत्येक मनु के शासन में प्रकट होते हैं), युग - अवतार (विभिन्न युगों में अवतार लेने वाले) तथा शक्त्यावेश अवतार (शक्ति संचारित जीवों के अवतार) हैं।
 
श्लोक 247:  “अर्चाविग्रह की विशिष्ट अवस्थाएँ हैं - बाल्य तथा पौगण्ड। महाराज नन्द के पुत्र श्रीकृष्ण ने शिशु तथा बालक के रूप में अपनी लीलाएँ सम्पन्न कीं।
 
श्लोक 248:  “कृष्ण के अवतार असंख्य हैं और उनकी गणना कर पाना सम्भव नहीं है। हम चन्द्रमा तथा वृक्ष की शाखाओं का उदाहरण देकर केवल उनका संकेत कर सकते हैं।
 
श्लोक 249:  “‘हे विद्वान ब्राह्मणों, जिस प्रकार विशाल जलाशयों से लाखों छोटे - छोटे झरने नीकलते हैं, उसी तरह से समस्त शक्तियों के आगार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री हरि से असंख्य अवतार प्रकट होते हैं।
 
श्लोक 250:  “प्रारम्भ में कृष्ण स्वयं पुरुष - अवतारों अर्थात् विष्णु - अवतारों के रूप में अवतरित होते हैं। ये तीन प्रकार के हैं।
 
श्लोक 251:  “विष्णु के तीन रूप हैं, जो पुरुष कहलाते हैं। प्रथम महाविष्णु हैं, जो सम्पूर्ण भौतिक शक्ति (महत्) के स्रष्टा हैं, द्वितीय गर्भोदकशायी विष्णु हैं, जो प्रत्येक ब्रह्माण्ड में स्थित हैं तथा तृतीय क्षीरोदकशायी विष्णु हैं, जो प्रत्येक प्राणी के हृदय में रहते हैं। जो इन तीनों को जान लेता है, वह माया के बन्धन से छूट जाता है।’
 
श्लोक 252:  “कृष्ण की शक्तियाँ अनन्त हैं, जिनमें से तीन प्रमुख हैं - ये हैं। इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति तथा क्रियाशक्ति।
 
श्लोक 253:  “इच्छाशक्ति के प्रधान भगवान् कृष्ण हैं, क्योंकि उनकी परम इच्छा से ही हर वस्तु का अस्तित्व है। इच्छा के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। और वह ज्ञान वासुदेव के माध्यम से व्यक्त होता है।
 
श्लोक 254:  “विचार, अनुभव, इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया के बिना सृजन सम्भव नहीं है। परम इच्छा, ज्ञान और क्रिया के मेल से विराट् जगत् की रचना होती है।
 
श्लोक 255:  “भगवान् संकर्षण बलराम हैं। वे क्रियाशक्ति के अधिष्ठाता होने के कारण भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों जगतों की सृष्टि करते हैं।
 
श्लोक 256:  “आदि संकर्षण (भगवान् बलराम) भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही सृष्टियों के कारण हैं। वे अहंकार के अधिष्ठाता हैं। वे कृष्ण की इच्छा से तथा आध्यात्मिक शक्ति के बल पर आध्यात्मिक जगत् का सृजन करते हैं जिसमें गोलोक वृन्दावन तथा वैकुण्ठ लोक सम्मिलित हैं।
 
श्लोक 257:  “यद्यपि आध्यात्मिक जगत् के सृजन का प्रश्न नहीं उठता, तो भी आध्यात्मिक जगत् संकर्षण की परम इच्छा से ही प्रकट होता है। यह आध्यात्मिक जगत् नित्य आध्यात्मिक शक्ति के विलास का धाम है।
 
श्लोक 258:  “परम धाम तथा लोक गोकुल एक हजार पंखुड़ियों वाले कमल के फूल जैसा लगता है। इस कमल की कर्णिका भगवान् कृष्ण का धाम है। यह कमल जैसे आकार वाला परम धाम भगवान् अनन्त की इच्छा से उत्पन्न होता है। ’
 
श्लोक 259:  “वे ही भगवान् संकर्षण भौतिक शक्ति (माया) के द्वारा सारे ब्रह्माण्डों का सृजन करते हैं। जड़ रूप भौतिक शक्ति, जिसे आधुनिक भाषा में प्रकृति कहा जाता है, भौतिक ब्रह्माण्ड का कारण नहीं है।
 
श्लोक 260:  “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की शक्ति के बिना जड़ पदार्थ विराट् जगत् का सृजन नहीं कर सकता। इसकी शक्ति भौतिक शक्ति से उत्पन्न नहीं होती, किन्तु संकर्षण द्वारा प्रदत्त होती है।
 
श्लोक 261:  “अकेला जड़ पदार्थ किसी वस्तु का सृजन नहीं कर सकता। भौतिक शक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के बल पर सृष्टि करती है। लोहे में खुद में जलाने की कोई शक्ति नहीं होती, किन्तु जब इसी लोहे को अग्नि में रखा जाता है, तब यह जलाने की शक्ति प्राप्त कर लेता है।
 
श्लोक 262:  “बलराम तथा कृष्ण इस भौतिक जगत् के मूल, निमित्त एवं भौतिक कारण हैं। वे महाविष्णु तथा भौतिक शक्ति के रूप में भौतिक तत्त्वों में प्रविष्ट होते हैं और नाना शक्तियों द्वारा विविधता उत्पन्न करते हैं। इस तरह वे समस्त कारणों के कारण हैं।’
 
श्लोक 263:  “भगवान् का वह रूप, जो सृष्टि करने के हेतु भौतिक जगत् में अवतरित होता है, अवतार कहलाता है।
 
श्लोक 264:  “भगवान् कृष्ण के सारे विस्तार वास्तव में आध्यात्मिक आकाश के निवासी हैं। किन्तु जब वे भौतिक जगत् में अवतरित होते हैं, तो अवतार कहे जाते हैं।
 
श्लोक 265:  “भौतिक शक्ति (माया) पर दृष्टिपात करने तथा उसे शक्ति प्रदान करने के लिए भगवान् संकर्षण सर्वप्रथम भगवान् महाविष्णु के रूप में अवतरित होते हैं।
 
श्लोक 266:  “सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान् ने भौतिक सृष्टि की समस्त सामग्री के साथ अपना विस्तार पुरुष अवतार के रूप में किया। सर्वप्रथम उन्होंने सृष्टि करने के लिए सोलह प्रमुख शक्तियाँ उत्पन्न कीं। ऐसा उन्होंने भौतिक ब्रह्माण्डों को प्रकट करने के लिए किया। ’
 
श्लोक 267:  “भगवान् के प्रथम अवतार हैं कारणाब्धिशायी विष्णु (महाविष्णु), जो सनातन काल, आकाश, कारण तथा कार्य, मन, तत्त्व, भौतिक अहंकार, प्रकृति के गुण, इन्द्रिय - समूह, भगवान् का विराट् रूप, गर्भोदकशायी विष्णु तथा सारे चर एवं अचर जीवों के स्वामी हैं।’
 
श्लोक 268:  “वे आदि भगवान्, जिनका नाम संकर्षण है, सर्वप्रथम उस विरजा नदी में शयन करते हैं, जो भौतिक जगत् तथा आध्यात्मिक जगत् के बीच में सीमा का कार्य करती है।
 
श्लोक 269:  “विरजा अर्थात् कारण सागर आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों के बीच की सीमा है।
 
श्लोक 270:  “आध्यात्मिक जगत् में न तो रजोगुण है, न तमोगुण, न ही इन दोनों का मिश्रण है। न ही वहाँ मिश्रित सत्त्व है, न काल या स्वयं माया का प्रभाव है। यहाँ केवल भगवान् के शुद्ध भक्त भगवान् के संगी बनकर रहते हैं, जिनकी पूजा देवता तथा असुर दोनों करते हैं।’
 
श्लोक 271:  “माया के दो कार्य हैं। इनमें से एक माया कहलाता है और दूसरा प्रधान। माया सूचक है निमित्त कारण की और प्रधान उन उपादानों (सामग्री) का सूचक है, जिनसे विराट् जगत् की सृष्टि होती है।
 
श्लोक 272:  “जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् भौतिक शक्ति पर दृष्टि डालते हैं, तो वह क्षुब्ध हो जाती है। उस समय भगवान् उसमें जीव रूपी अपना मूल वीर्य प्रविष्ट कर देते हैं।
 
श्लोक 273:  “जीवरूपी बीजों से गर्भित करने के लिए भगवान् भौतिक शक्ति का प्रत्यक्ष स्पर्श नहीं करते, अपितु वे अपने विशेष कार्यकारी विस्तार द्वारा भौतिक प्रकृति का स्पर्श करते हैं। इस तरह सारे जीव, जो उनके अंश रूप हैं, भौतिक प्रकृति में गर्भित हो जाते हैं।
 
श्लोक 274:  “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने अनन्तकाल में तीन गुणों वाली भौतिक प्रकृति को उत्तेजित करके उसके गर्भ में असंख्य जीवों के रूप में अपना वीर्य स्थापित किया। इस तरह भौतिक प्रकृति ने सम्पूर्ण भौतिक शक्ति को जन्म दिया, जो हिरण्मय महत् तत्त्व के नाम से जानी जाती है, जिसका अर्थ है, विश्व - सृष्टि का मूल प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व।’।
 
श्लोक 275:  “कालक्रम में पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् (महावैकुण्ठनाथ) ने अपने स्वांश विस्तार (महाविष्णु) द्वारा भौतिक प्रकृति के गर्भ के भीतर जीवरूपी वीर्य स्थापित किया। ’
 
श्लोक 276:  “सर्वप्रथम समग्र भौतिक शक्ति (महत् तत्त्व) प्रकट होती है, जिससे तीन प्रकार के अहंकार प्रकट होते हैं और ये ही वे मूल स्रोत हैं, जिनसे सभी देवता (नियन्त्रण करने वाले अधिष्ठाता) , इन्द्रियाँ तथा भौतिक तत्त्व विस्तार करते हैं।
 
श्लोक 277:  “विभिन्न तत्त्वों को मिलाकर भगवान् ने सारे ब्रह्माण्डों का सृजन किया। इन ब्रह्माण्डों की संख्या अनन्त है, उन्हें गिन पाना सम्भव नहीं है।
 
श्लोक 278:  “भगवान् विष्णु का प्रथम रूप महाविष्णु कहलाता है। वे ही समग्र भौतिक शक्ति महत् तत्त्व के आदि स्रष्टा हैं। अनन्त ब्रह्माण्ड उनके शरीर के रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं।
 
श्लोक 279-280:  “जब महाविष्णु श्वास छोड़ते हैं, तो ये सारे ब्रह्माण्ड उस वायु में तैरते जाते हैं। ये उन सूक्ष्म कणों की भाँति हैं, जो सूर्य - प्रकाश में तैरते हैं और परदे के छेदों से होकर आते - जाते रहते हैं। इस तरह ये सारे ब्रह्माण्ड महाविष्णु के उच्छ्वास से उत्पन्न होते हैं और जब महाविष्णु श्वास लेते हैं, तो वे सब पुनः उनके शरीर के भीतर चले जाते हैं। महाविष्णु का असीम ऐश्वर्य पूर्णतया भौतिक धारणा के परे है।
 
श्लोक 281:  “सारे ब्रह्मा तथा भौतिक संसार के अन्य स्वामी महाविष्णु के रोमकूपों से प्रकट होते हैं और उनके एक निश्वास की अवधि तक जीवित रहते हैं। मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, क्योंकि महाविष्णु उनके पूर्ण अंश (स्वांश) के अंश हैं। ”
 
श्लोक 282:  “महाविष्णु सारे ब्रह्माण्डों के परमात्मा हैं। कारण सागर में शयन करने वाले वे सारे भौतिक जगतों के स्वामी हैं।
 
श्लोक 283:  “इस प्रकार मैंने प्रथम पुरुष, महाविष्णु की व्याख्या की है। अब मैं द्वितीय पुरुष की महिमा का वर्णन करूँगा।
 
श्लोक 284:  “अनन्त ब्रह्माण्डों की सृष्टि करने के बाद महाविष्णु ने अपना विस्तार असंख्य रूपों में कर लिया और उनमें से हर एक में प्रवेश किया।
 
श्लोक 285:  “जब महाविष्णु अनन्त ब्रह्माण्डों में से हर एक में प्रविष्ट हो गये, तो उन्होंने देखा कि वहाँ चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा है और रहने के लिए कोई स्थान नहीं है। अतः वे इस स्थिति पर विचार करने लगे।
 
श्लोक 286:  “तब भगवान् ने अपने शरीर से पसीना उत्पन्न किया, जिसके जल से आधे ब्रह्माण्ड को भर दिया। तब वे उस जल में भगवान् शेष की शय्या पर लेट गये।
 
श्लोक 287:  “तब उन गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से एक कमल का फूल निकल आया और वही फूल ब्रह्मा का जन्मस्थान बना।
 
श्लोक 288:  “उस कमल फूल के डंठल से चौदह लोक उत्पन्न हुए। तब वे ब्रह्मा बने और उन्होंने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की।
 
श्लोक 289:  “इस प्रकार अपने विष्णु रूप से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सम्पूर्ण भौतिक जगत् का पालन करते हैं। चूँकि वे सदैव भौतिक गुणों से परे हैं, अतः भौतिक प्रकृति (माया) कभी - भी उनका स्पर्श नहीं कर सकती।
 
श्लोक 290:  “वे अपने रुद्र (शिव) रूप में इस भौतिक जगत् का संहार करते हैं। दूसरे शब्दों में, उनकी इच्छा से ही सम्पूर्ण जगत् का सृजन, पालन और संहार होता है।
 
श्लोक 291:  ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव - ये तीनों उनके भौतिक गुणों के अवतार हैं। क्रमशः सृष्टि, पालन और संहार इन तीनों पुरुषों के अधिकार में है।
 
श्लोक 292:  “गर्भोदकशायी विष्णु, जो कि इस ब्रह्माण्ड में हिरण्यगर्भ तथा अन्तर्यामी - अर्थात् परमात्मा के नाम से जाने जाते हैं, उनकी महिमा का गायन वेदों में ‘सहस्रशीर्षा’ शब्द से प्रारम्भ होने वाले स्तोत्र द्वारा किया जाता है।
 
श्लोक 293:  “द्वितीय पुरुष गर्भोदकशायी विष्णु प्रत्येक ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। और बहिरंगा शक्ति (माया) के आश्रय हैं। तो भी वे माया के स्पर्श से परे रहते हैं।
 
श्लोक 294:  विष्णु के तृतीय अंश क्षीरोदकशायी विष्णु हैं, जो सत्त्वगुण के अवतार हैं। इनकी गणना दो प्रकार के अवतारों (पुरुष - अवतार तथा गुणावतार) में की जाती है।
 
श्लोक 295:  “ये क्षीरोदकशायी विष्णु भगवान् के विराट् रूप हैं और प्रत्येक जीव के भीतर के परमात्मा हैं। वे क्षीरोदकशायी कहलाते हैं, क्योंकि वे क्षीरसागर में शयन करते हैं। वे ब्रह्माण्ड के पालक तथा स्वामी हैं।
 
श्लोक 296:  “हे सनातन, मैं विष्णु के तीन पुरुष अवतारों का स्पष्ट वर्णन कर चुका हूँ। अब मुझसे लीलावतारों के विषय में सुनो।
 
श्लोक 297:  “भगवान् कृष्ण के असंख्य लीलावतारों की गणना कोई भी नहीं कर सकता, किन्तु मैं मुख्य - मुख्य अवतारों का वर्णन करूँगा।
 
श्लोक 298:  “कुछ लीलावतार इस प्रकार हैं - मत्स्यावतार, कूर्मावतार, भगवान् रामचन्द्र, भगवान् नृसिंह, भगवान् वामन तथा भगवान् वराह। इनका कोई अन्त नहीं है।
 
श्लोक 299:  “‘हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे यदुकुल श्रेष्ठ, हम आपसे ब्रह्माण्ड के भारी भार को कम करने के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। आपने पूर्वकाल में मत्स्य, अश्व (हयग्रीव) , कच्छप, सिंह (नृसिंह), शूकर (वराह) तथा हंस के रूप में भी अवतरित होकर इस भार को कम किया है। आप भगवान् रामचन्द्र, परशुराम तथा वामन के रूप में भी अवतरित हुए हैं। आपने सदैव इस तरह से हम देवताओं तथा ब्रह्माण्ड की रक्षा की है। कृपया अब भी वैसा ही करते रहें। ’
 
श्लोक 300:  “मैंने लीलावतारों के कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। अब मैं गुणावतारों का वर्णन करूँगा। कृपया सुनें।
 
श्लोक 301:  “इस भौतिक जगत् में तीन प्रकार के कार्य हैं। इसमें हर वस्तु उत्पन्न होती है, वह कुछ काल तक रहती है और अन्त में नष्ट हो जाती है। अतएव भगवान् तीनों गुणों - सतो, रजो तथा तमो गुणों के नियन्ता के रूप में अवतरित होते हैं और इस तरह इस भौतिक जगत् का व्यवहार चलता रहता।
 
श्लोक 302:  “भक्ति - मिश्रित पूर्व पुण्यकर्मों के फलस्वरूप उत्तम जीव अपने चित्त में रजोगुण से प्रभावित होता है।
 
श्लोक 303:  “ऐसे भक्त को गर्भोदकशायी विष्णु शक्ति प्रदान करते हैं। इस तरह ब्रह्मा के रूप में कृष्ण का अवतार, पूरे ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण रचना करता है।
 
श्लोक 304:  “सूर्य अपना तेज रत्न में प्रकट करता है, यद्यपि रत्न पत्थर होता है। इसी प्रकार भगवान् गोविन्द पुण्यात्मा जीव में अपनी विशेष शक्ति प्रकट करते हैं। इस तरह वह जीव ब्रह्मा बनता है और ब्रह्माण्ड के कार्य को सँभालता है। मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ।’
 
श्लोक 305:  “यदि किसी एक कल्प में उपयुक्त जीव ब्रह्मा का पदभार सँभालने के लिए उपलब्ध नहीं होता, तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् स्वयं अपना विस्तार करके ब्रह्मा बन जाते हैं।
 
श्लोक 306:  “भगवान् कृष्ण के लिए सिंहासन का क्या मूल्य है? उनकेचरणकमलों की धूलि को विभिन्न लोकों के स्वामी अपने मुकुट - युक्त सिरों पर धारण करते हैं। वह धूलि तीर्थस्थानों को पवित्र बनाती है और कृष्ण के स्वांश के अंशरूप, ब्रह्मा, शिव, लक्ष्मी तथा मैं स्वयं, उस धूलि को नित्य अपने सिरों पर धारण करते हैं।’
 
श्लोक 307:  “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण अपने एक पूर्ण अंश का विस्तार करते हैं और तमोगुण को स्वीकार करते हुए इस जगत् का संहार करने के लिए रुद्र रूप धारण करते हैं।
 
श्लोक 308:  “रुद्र, शिवजी के विविध रूप हैं, जो माया की संगति से उत्पन्न रूपान्तर हैं। यद्यपि रुद्र जीव - तत्त्व नहीं हैं, फिर भी उन्हें कृष्ण का स्वांश नहीं माना जा सकता।
 
श्लोक 309:  “जब दूध में जामन डाल दिया जाता है, तो वह दही में परिवर्तित हो जाता है। इस तरह दही दूध ही है, किन्तु फिर भी वह दूध नहीं है।
 
श्लोक 310:  “जामन मिलाने से दूध दही में बदल जाता है, किन्तु वास्तव में वैधानिक दृष्टि से वह दूध के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। इसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् गोविन्द भौतिक व्यवहार हेतु शिव (शम्भु) का रूप धारण करते हैं। मैं उन भगवान् के चरणकमलों की वन्दना करता हूँ।”
 
श्लोक 311:  “शिवजी माया के संगी हैं, इसलिए वे तमोगुण में डूबे रहते हैं। किन्तु भगवान् विष्णु माया से तथा माया के गुणों से परे हैं। इसलिए वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।
 
श्लोक 312:  “शिवजी के विषय में सच बात तो यह है कि वे सदैव तीन भौतिक आवरणों - वैकारिक, तैजस तथा तामस – से आवृत रहते हैं। भौतिक प्रकृति के इन तीनों गुणों के कारण वे बहिरंगा शक्ति माया तथा अहंकार का सदैव संग करते हैं।’
 
श्लोक 313:  “श्री हरि अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् भौतिक प्रकृति की पहुँच के बाहर स्थित हैं, अतएव वे दिव्य परम पुरुष हैं। वे सारी वस्तुओं के बाहर और भीतर देख सकते हैं, अतएव वे सभी जीवों के परम दृष्टा हैं। जो व्यक्ति उनके चरणकमलों की शरण में जाता है और उनकी पूजा करता है, उसे भी दिव्य पद प्राप्त होता है।
 
श्लोक 314:  “ब्रह्माण्ड का पालन करने हेतु भगवान् कृष्ण अपने स्वांश विष्णु रूप में अवतरित होते हैं। वे सतोगुण के निर्देशक हैं, अतएव वे भौतिक शक्ति से परे हैं।
 
श्लोक 315:  “भगवान् विष्णु स्वांश श्रेणी में आते हैं, क्योंकि उनमें कृष्ण जैसे ही ऐश्वर्य होते हैं। कृष्ण आदि पुरुष हैं और भगवान् विष्णु उनके स्वांश हैं। समस्त वेदों का यही मत है।
 
श्लोक 316:  “जब एक दीपक अपनी लौ का विस्तार दूसरे दीपक में करता है, और फिर उसे भिन्न स्थान में रख दिया जाता है, तब वह अलग से जलता है और इसका प्रकाश मूल दीपक जैसा ही शक्तिमान होता है। इसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् गोविन्द अपना विस्तार विभिन्न विष्णु रूपों में करते हैं, जो समान रूप से प्रकाशमान, शक्तिमान तथा ऐश्वर्यवान होते हैं। मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ।’
 
श्लोक 317:  “निष्कर्ष यह है कि ब्रह्माजी तथा शिवजी भक्त अवतार हैं, जो आदेशों का पालन करते हैं। किन्तु भगवान् विष्णु पालक हैं और वे भगवान् कृष्ण के निजी स्वरूप हैं।
 
श्लोक 318:  “[ब्रह्माजी ने कहा:] ‘पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने मुझे सृजन करने के लिए नियुक्त किया है। शिवजी उनके आदेशों का पालन करते हुए हर वस्तु का संहार करते हैं। क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् प्रकृति के सारे कार्यों को चलाते हैं। इस तरह भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के अधीक्षक भगवान् विष्णु हैं।’
 
श्लोक 319:  “हे सनातन, अब मन्वन्तर अवतारों के बारे में सुनो। वे असंख्य हैं और उनकी गणना कोई नहीं कर सकता। जरा, उनके स्रोत के विषय में सुनो।
 
श्लोक 320:  “ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु बदलते हैं और इनमें से प्रत्येक मनु के शासनकाल में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का एक अवतार प्रकट होता है।
 
श्लोक 321:  ब्रह्मा के एक दिन में 14 मन्वन्तर अवतार होते हैं, अर्थात् एक मास में 420 और एक वर्ष में 5040 अवतार होते हैं।
 
श्लोक 322:  “ब्रह्मा के एक सौ वर्ष के जीवन में कुल 5, 04, 000 मन्वन्तर - अवतार होते हैं।
 
श्लोक 323:  “यहाँ पर केवल एक ब्रह्माण्ड के मन्वन्तर अवतारों की संख्या दी गई है। अतः असंख्य ब्रह्माण्डों में कितने मन्वन्तर अवतार होंगे, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। इतने सारे ब्रह्माण्ड तथा ब्रह्मा महाविष्णु के एक श्वास - काल तक ही विद्यमान रहते हैं।
 
श्लोक 324:  “महाविष्णु के निश्वासों की कोई सीमा नहीं है। जरा देखो न, केवल मन्वन्तर अवतारों को बतलाना या लिखना कितना दुष्कर है!
 
श्लोक 325:  “स्वायंभुव मन्वन्तर में अवतार का नाम यज्ञ है। स्वारोचिष मन्वन्तर में उनका नाम विभु है। औत्तम मन्वन्तर में उनका नाम सत्यसेन है तथा तामस मन्वन्तर में उनका नाम हरि है।
 
श्लोक 326:  “रैवत मन्वन्तर में अवतार का नाम वैकुण्ठ है और चाक्षुष मन्वन्तर में उनका नाम अजित है। वैवस्वत मन्वन्तर में उसका नाम वामन है और सावर्ण्य मन्वन्तर में उनका नाम सार्वभौम तथा दक्षसावर्ण्य मन्वन्तर में उनका नाम ऋषभ है।
 
श्लोक 327:  “ब्रह्म सावर्ण्य मन्वन्तर में अवतार का नाम विष्वक्सेन है, धर्म सावर्य मन्वन्तर में धर्मसेतु, रुद्रसावर्ण्य मन्वन्तर में सुधामा तथा देवसावर्य में उनका नाम योगेश्वर है।
 
श्लोक 328:  “इन्द्रसावर्ण्य मन्वन्तर में अवतार का नाम बृहद्भानु है। इन चौदह मन्वन्तरों में चौदह अवतारों के ये ही नाम हैं।
 
श्लोक 329:  “हे सनातन, अब मुझसे युग - अवतारों के विषय में सुनो। सर्वप्रथम युग चार हैं - सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग।
 
श्लोक 330:  “चारों युगों - सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग में भगवान् चार रंगों में अवतरित होते हैं।
 
श्लोक 331:  “इस बालक के पहले तीन रंग रह चुके हैं, जो विभिन्न युगों के लिए संस्तुत रंगों के अनुसार थे। पहले वह श्वेत, लाल तथा पीला था, किन्तु अब उसने श्याम रंग धारण किया है।’
 
श्लोक 332:  “सत्ययुग में भगवान् का शरीर श्वेत रंग का था, उनके चार हाथ थे तथा सिर पर जटाजूट था। वे वृक्ष की छाल पहने थे और काला मृगचर्म धारण किये थे। वे उपवीत (जनेऊ) पहने थे और गले में रुद्राक्ष की माला धारण किये थे। वे दण्ड तथा कमण्डलु लिये थे और ब्रह्मचारी थे।’
 
श्लोक 333:  “त्रेतायुग में भगवान् का शरीर रक्त - वर्ण का था और उनकी चार भुजाएँ थीं। उनके उदर में तीन विशिष्ट रेखाएँ थीं और उनके केश सुनहरे थे। उनका स्वरूप वैदिक ज्ञान को प्रकट करने वाला था और वे यज्ञ के चम्मच चुक् - वुवा आदि चिह्नों को धारण किये हुए थे।’
 
श्लोक 334:  “शुक्ल अवतार के रूप में भगवान् ने धर्म तथा ध्यान की शिक्षा दी। उन्होंने कर्दम मुनि को आशीर्वाद दिया और इस तरह उन्होंने अपनी अहैतुकी कृपा प्रदर्शित की।
 
श्लोक 335:  “सत्ययुग में लोग सामान्यतया आध्यात्मिक ज्ञान में अग्रसर होते थे और कृष्ण का सहज ही ध्यान कर सकते थे। त्रेतायुग में लोगों का वृत्तिपरक कार्य बड़े - बड़े यज्ञ को सम्पन्न करना था। भगवान् ने रक्त - वर्ण धारण करके इसे प्रोत्साहित किया।
 
श्लोक 336:  “द्वापर युग में लोगों का वृत्तिपरक कार्य कृष्ण के चरणकमलों का पूजन करना था।
 
श्लोक 337:  “द्वापर युग में भगवान् श्याम - वर्ण के साथ प्रकट होते हैं। वे पीताम्बर धारण किये रहते हैं। वे अपने आयुध लिये रहते हैं तथा कौस्तुभ मणि एवं श्रीवत्स चिह्न से सुशोभित रहते हैं। उनके लक्षणों का वर्णन इस रूप में किया जाता है।’
 
श्लोक 338:  “मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ, जिन्होंने वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध रूप में अपना विस्तार किया।’
 
श्लोक 339:  “इस मन्त्र से लोग द्वापर युग में कृष्ण की पूजा करते हैं। कलियुग में लोगों का वृत्तिपरक कर्म है कृष्ण के पवित्र नाम का सामूहिक कीर्तन करना।
 
श्लोक 340:  “अपने निजी भक्तों के साथ पीत (सुनहला) वर्ण धारण करके भगवान् कृष्ण कलियुग में हरिनाम संकीर्तन अर्थात् हरे कृष्ण मन्त्र के कीर्तन का प्रचार करते हैं। इस तरह वे सामान्य जनता को कृष्ण - प्रेम लाकर देते हैं।
 
श्लोक 341:  “नन्द महाराज के पुत्र भगवान् कृष्ण ने कलियुग के वृत्तिपरक कार्य (धर्म) का स्वयं प्रवर्तन किया। वे कीर्तन करते हैं, भावावेश में नाचते हैं और इस तरह समस्त जगत् सामूहिक संकीर्तन करता है।
 
श्लोक 342:  “कलि युग में बुद्धिमान व्यक्ति कृष्ण - नाम का निरन्तर गान करने वाले भगवान् के अवतार की पूजा करने के लिए संकीर्तन करते हैं। यद्यपि उनका वर्ण श्याम नहीं है, किन्तु वे साक्षात् कृष्ण हैं। उनके साथ उनके पार्षद, सेवक, अस्त्र तथा विश्वस्त संगी रहते हैं।’
 
श्लोक 343:  “अन्य तीन युगों में सत्य, त्रेता तथा द्वापर में लोग विभिन्न प्रकार के आध्यात्मिक कार्य करते हैं। इस प्रकार से उन्हें जो फल मिलता है, उसे कलियुग में वे केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करके प्राप्त कर सकते हैं।
 
श्लोक 344:  “‘हे राजन्, यद्यपि कलियुग दोषों से भरा है, किन्तु फिर भी इस युग में एक उत्तम गुण है। वह यह है कि हरे कृष्ण महामन्त्र के कीर्तन मात्र से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो सकता है और दिव्य धाम को प्राप्त कर सकता है। ’
 
श्लोक 345:  “सत्ययुग में विष्णु का ध्यान करने से, त्रेतायुग में यज्ञ करने से तथा द्वापर युग में भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने से जो फल प्राप्त होता है, उसे कलियुग में हरे कृष्ण महामन्त्र के कीर्तन द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।’
 
श्लोक 346:  “सत्ययुग में ध्यान करने से, त्रेतायुग में यज्ञ करने से या द्वापर युग में कृष्ण के चरणकमलों की पूजा करने से जो फल प्राप्त होता है, उसे कलियुग में केवल केशव के गुणगान द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। ’
 
श्लोक 347:  “जो लोग उन्नत और अत्यन्त योग्य हैं तथा जीवन के सार में रुचि रखते हैं, वे कलियुग के सद्गुणों को जानते हैं। ऐसे लोग कलियुग की पूजा करते हैं, क्योंकि इस युग में हरे कृष्ण महामन्त्र के कीर्तन मात्र से मनुष्य आत्म - ज्ञान में प्रगति कर सकता है और जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। ’
 
श्लोक 348:  “जैसाकि मैंने गुणावतारों का वर्णन करते हुए बतलाया था, उसी तरह इन अवतारों को भी असंख्य समझना चाहिए, क्योंकि किसी के भी द्वारा इनकी गणना नहीं की जा सकती।
 
श्लोक 349:  “इस तरह मैंने चारों युगों के अवतारों का विवरण प्रस्तुत किया है।” यह सब सुनकर सनातन गोस्वामी ने महाप्रभु को अप्रत्यक्ष रूप से इंगित किया।
 
श्लोक 350:  सनातन गोस्वामी नवाब हुसेन शाह के अधीन एक मन्त्री थे और वे निस्सन्देह स्वर्ग के प्रमुख पुरोहित बृहस्पति जैसे ही बुद्धिमान थे। भगवान् की असीम कृपा के फलस्वरूप सनातन गोस्वामी ने बिना किसी संकोच के महाप्रभु से पूछा।
 
श्लोक 351:  सनातन गोस्वामी ने कहा: “मैं अत्यन्त क्षुद्र जीव हूँ। मैं नीच हूँ और मेरा आचरण नीच है। भला मैं कैसे जान सकता हूँ कि कलियुग में कौन अवतार है?”
 
श्लोक 352:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “जिस तरह अन्य युगों के अवतार को शास्त्रों के आदेशानुसार स्वीकार किया जाता है, इस कलियुग में ईश्वर के अवतार को उसी तरह स्वीकार किया जाना चाहिए।
 
श्लोक 353:  “सर्वज्ञ महामुनि व्यासदेव द्वारा रचित वैदिक ग्रन्थ सारे आध्यात्मिक अस्तित्व के प्रमाण हैं। इन्हीं प्रामाणिक शास्त्रों के द्वारा सारे बद्धजीव ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
 
श्लोक 354:  “ईश्वर का वास्तविक अवतार यह कभी नहीं कहता कि, ‘मैं ईश्वर हूँ या मैं ईश्वर का अवतार हूँ।’ महामुनि व्यासदेव ने यह सब जानते हुए पहले से शास्त्रों में अवतारों के लक्षण अंकित कर दिये हैं।
 
श्लोक 355:  “भगवान् का शरीर भौतिक नहीं होता, फिर भी वे अपने दिव्य शरीर में अवतार के रूप में मनुष्यों के बीच आते हैं। अतः यह समझना अत्यन्त कठिन है कि कौन अवतार है। वे कुछ तो अपने अद्वितीय शौर्य से तथा कुछ उन असाधारण कार्यों से, जो देहधारी जीवों के लिए असम्भव हैं, जाने जाते हैं कि वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के अवतार हैं।’
 
श्लोक 356:  “बड़े - बड़े मुनि किसी वस्तु को दो लक्षणों से जान पाते हैं - स्वरूप - लक्षणों तथा तटस्थ लक्षणों से।
 
श्लोक 357:  “आकृति (शारीरिक लक्षण), प्रकृति (स्वभाव) तथा रूप - ये निजी लक्षण हैं। प्रभु के कार्यकलापों का ज्ञान तटस्थ लक्षण प्रस्तुत करता है।
 
श्लोक 358:  “श्रीमद्भागवत के मंगलाचरण में श्रील वेदव्यास ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का वर्णन इन्हीं लक्षणों द्वारा किया है।
 
श्लोक 359:  “हे प्रभु, हे वसुदेव - पुत्र श्रीकृष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान्, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे प्राकट्यों से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतन्त्र हैं, क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं। उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया। उन्हीं के कारण बड़े - बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है। उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रह्माण्ड, जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं, वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं। अतः मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं। मैं उनका ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे ही परम सत्य हैं।’
 
श्लोक 360:  “श्रीमद्भागवत के इस मंगलाचरण में ‘परम्’ शब्द पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण का सूचक है और ‘सत्यम्’ शब्द उनके स्वरूप - लक्षण को बतलाता है।
 
श्लोक 361:  “इसी श्लोक में यह भी कहा गया है कि भगवान् इस विराट् जगत् के स्रष्टा, पालक तथा संहारक हैं और उन्होंने ब्रह्मा को वेदों का ज्ञान प्रदान करके ब्रह्माण्ड की रचना करने के लिए प्रेरित किया। यह भी कहा गया है कि भगवान् को पूर्ण प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष ज्ञान है, वे भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जानने वाले हैं और उनकी निजी शक्ति माया से अलग है।
 
श्लोक 362:  “ये सारे कार्यकलाप ही उनके तटस्थ - लक्षण हैं। महान् मुनि लोग स्वरूप तथा तटस्थ लक्षणों के संकेतों से ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के अवतारों को जान पाते हैं। कृष्ण के सारे अवतारों को इसी तरह से समझना होगा।
 
श्लोक 363:  “भगवान् के अवतार प्रकट होने के समय जगत - भर में विख्यात हो जाते हैं, क्योंकि लोग अवतार के मुख्य लक्षण, जिन्हें स्वरूप तथा तटस्थ कहा जाता है, जानने के लिए शास्त्रों को देखते हैं। इस तरह ये अवतार मुनियों द्वारा जाने जाते हैं।”
 
श्लोक 364:  सनातन गोस्वामी ने कहा, “जिस पुरुष में भगवान् के लक्षण पाये जाते हैं, उसका रंग पीला है। उसके कार्यकलापों में भगवत्प्रेम वितरण तथा भगवन्नाम का कीर्तन सम्मिलित हैं।
 
श्लोक 365:  “इस युग में कृष्ण के अवतार का संकेत इन्हीं लक्षणों से मिलता है। कृपया इसकी पुष्टि अवश्य करें, जिससे मेरे सारे सन्देह दूर हो सकें।”
 
श्लोक 366:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, ‘हे सनातन, तुम अपनी चतुराई छोड़ो। अब तुम शक्त्यावेश अवतार का विवरण समझने का प्रयत्न करो।
 
श्लोक 367:  “भगवान् कृष्ण के शक्त्यावेश अवतार असंख्य हैं। मैं उनमें से मुख्य - मुख्य अवतारों का वर्ण न करता हूँ।
 
श्लोक 368:  “शक्त्यावेश अवतार दो प्रकार के हैं — मुख्य तथा गौण। मुख्य वे हैं, जिन्हें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सीधे शक्ति प्रदान करते हैं और वे अवतार कहलाते हैं। गौण वे हैं, जिन्हें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अप्रत्यक्ष रूप से शक्ति प्रदान करते हैं और तब वे विभूति कहलाते हैं।
 
श्लोक 369:  “कुछ शक्त्यावेश अवतार इस प्रकार हैं - चार कुमार, नारद, महाराज पृथु तथा परशुराम।
 
श्लोक 370:  “वैकुण्ठ लोक में भगवान् शेष तथा भौतिक जगत् में अपने फनों पर असंख्य लोकों को धारण करने वाले भगवान् अनन्त - ये दोनों मुख्य शक्त्यावेश अवतार हैं। अन्यों को गिनने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनकी संख्या अनन्त है।
 
श्लोक 371:  “चारों कुमारों में ज्ञानशक्ति निहित की गई थी और नारद में भक्ति की शक्ति निहित की गई थी। सृजन करने की शक्ति ब्रह्माजी में निहित की गई थी तथा असंख्य लोकों को धारण करने की शक्ति भगवान् अनन्त में निहित की गई थी।
 
श्लोक 372:  “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने व्यक्तिगत सेवा करने की शक्ति भगवान् शेष को प्रदान की और पृथ्वी पर शासन करने की शक्ति राजा पृथु को। भगवान् परशुराम को सारे दुष्टों तथा धूर्ते का वध करने की शक्ति प्राप्त हुई थी।
 
श्लोक 373:  “जब - जब भगवान् अपनी विविध शक्तियों के अंश रूप में किसी में विद्यमान रहते हैं, तब वह जीव शक्त्यावेश अवतार कहलाता है।
 
श्लोक 374:  “जैसाकि भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में बताया गया है, कृष्ण ने सारे ब्रह्माण्ड में अपना विस्तार विभूति नामक अपनी विशिष्ट शक्तियों के माध्यम से अनेक पुरुषों में किया है।
 
श्लोक 375:  “यह जान लो कि समस्त ऐश्वर्यशाली सुन्दर, यशस्वी तथा महिमायुक्त सृष्टियाँ मेरे तेज के स्फुलिंग मात्र से प्रकट होती हैं।
 
श्लोक 376:  “किन्तु हे अर्जुन, इस समस्त विस्तृत ज्ञान की क्या आवश्यकता है? मैं तो अपने एक अंश - मात्र से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हूँ और इसको आश्रय देता हूँ।”
 
श्लोक 377:  “इस तरह मैं विशेष रूप से शक्त्याविष्ट अवतारों का वर्णन कर चुका हूँ। अब मुझसे कृष्ण के बाल्यकाल, पौगण्ड तथा युवावस्था (किशोर) के लक्षणों को सुनो।”
 
श्लोक 378:  “महाराज नन्द के पुत्र के रूप में भगवान् कृष्ण स्वभावतः आदर्श किशोर (युवक) हैं।
 
श्लोक 379:  “स्वयं प्रकट होने के पूर्व भगवान् अपने कुछ भक्तों को अपने माता, पिता तथा घनिष्ठ संगियों के रूप में प्रकट होने देते हैं। इसके बाद वे इस तरह प्रकट होते हैं, मानो जन्म ले रहे हों और फिर बढ़कर क्रमशः शिशु तथा किशोर बनते हैं।”
 
श्लोक 380:  “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नित्य लीला - विलास करते हैं और वे सभी प्रकार की भक्ति के आश्रय हैं। यद्यपि उनकी अवस्थाएँ विविध हैं, किन्तु इनमें किशोर अवस्था (युवा - पूर्व) सर्वोत्तम है।”
 
श्लोक 381:  “जब भगवान् कृष्ण प्रकट होते हैं, तो वे क्षण क्षण अपनी लीलाएँ प्रकट करते हैं - यथा पूतना - वध इत्यादि। ये सारी लीलाएँ एक के बाद एक शाश्वत रूप से प्रदर्शित की जाती हैं।”
 
श्लोक 382:  “कृष्ण की क्रमिक लीलाएँ क्षणानुक्षण अनन्त ब्रह्माण्डों में से किसी - न - किसी में प्रकट होती रहती हैं। इन ब्रह्माण्डों को गिन पाना सम्भव नहीं है, किन्तु तो भी इनमें से किसी - न - किसी ब्रह्माण्ड में भगवान् की कोई - न - कोई लीला प्रकट होती रहती है।”
 
श्लोक 383:  “इस तरह भगवान् की लीलाएँ बहते गंगाजल के समान हैं। ये नन्द महाराज के पुत्र द्वारा इस प्रकार प्रकट की जाती हैं।”
 
श्लोक 384:  “भगवान् कृष्ण बाल्यकाल, पौगण्ड तथा किशोरावस्था की लीलाएँ प्रकट करते हैं। जब वे किशोर हो जाते हैं, तो वे अपना रासनृत्य तथा अन्य लीलाएँ करने के लिए शाश्वत रूप से विद्यमान रहते हैं।”
 
श्लोक 385:  “समस्त प्रामाणिक शास्त्रों में कृष्ण की नित्य लीलाओं का वर्णन मिलता है। किन्तु कोई यह नहीं समझ सकता कि ये लीलाएँ किस तरह से सनातन रूप से चली आती हैं।”
 
श्लोक 386:  “मैं एक दृष्टान्त देता हूँ, जिससे लोग भगवान् कृष्ण की सनातन लीलाओं को समझ सकें। इसका एक उदाहरण राशिचक्र में देखा जा सकता है।”
 
श्लोक 387:  “सूर्य रात - दिन राशिचक्र से होकर घूमता है और सात द्वीपों के मध्य के सागरों को बारी - बारी से पार करता है।”
 
श्लोक 388:  “वैदिक ज्योतिष गणना के अनुसार सूर्य साठ दण्डों में चक्कर पूरा करता है, और यह तीन हजार छह सौ पलों में विभाजित है।”
 
श्लोक 389:  “सूर्य क्रमशः साठ पलों में उदय होता है। साठ पल एक दण्ड के बराबर होते हैं और आठ दण्ड का एक प्रहर होता है।
 
श्लोक 390:  “रात और दिन आठ प्रहरों में विभाजित हैं। चार प्रहर दिन के हैं तो चार प्रहर रात के।
 
श्लोक 391:  “सूर्य की ही तरह कृष्ण की लीलाओं का कक्ष है। ये लीलाएँ एक के बाद एक प्रकट होती हैं। चौदह मन्वन्तरों में यह कक्ष समस्त ब्रह्माण्ड तक विस्तार करता है और क्रमशः फिर से लौट आता है। इस तरह कृष्ण अपनी लीलाओं के माध्यम से एक एक करके सारे ब्रह्माण्डों में विचरण करते हैं।”
 
श्लोक 392:  “कृष्ण किसी एक ब्रह्माण्ड में 125 वर्षों तक रहते हैं और अपनी लीलाओं का आनन्द वृन्दावन तथा द्वारका दोनों में लेते हैं।”
 
श्लोक 393:  “उनकी लीलाओं का चक्र अग्निचक्र के समान है। इस तरह से कृष्ण एक एक करके अपनी लीलाएँ हर ब्रह्माण्ड में प्रकट करते हैं।”
 
श्लोक 394:  “कृष्ण के जन्म, बाल्यकाल, पौगण्ड तथा किशोरावस्था की लीलाएँ पूतना - वध से लेकर मौषल - लीला, अर्थात् यदु - वंश के नाश तक प्रकट होती हैं। ये सारी लीलाएँ प्रत्येक ब्रह्माण्ड में चक्कर लगाती रहती हैं।”
 
श्लोक 395:  “चूँकि कृष्ण की सारी लीलाएँ लगातार घटित होती रहती हैं, अतएव प्रत्येक क्षण कोई लीला किसी - न - किसी ब्रह्माण्ड में विद्यमान रहती है। फलतः वेद तथा पुराण इन्हें नित्य लीला कहते हैं।”
 
श्लोक 396:  “गोलोक नामक आध्यात्मिक धाम, जो सुरभि गौवों की चारण भूमि है, कृष्ण के ही समान शक्तिशाली तथा ऐश्वर्यमय है। कृष्ण की इच्छा से मूल गोलोक तथा गोकुल धाम उनके साथ - साथ सारे ब्रह्माण्डों में प्रकट होते हैं।”
 
श्लोक 397:  “कृष्ण की नित्य लीलाएँ मूल गोलोक - वृन्दावन ग्रह में निरन्तर चलती रहती हैं। यही लीलाएँ भौतिक जगत् में प्रत्येक ब्रह्माण्ड में क्रमशः प्रकट होती हैं।”
 
श्लोक 398:  “आध्यात्मिक आकाश (वैकुण्ठ) में कृष्ण पूर्ण होते हैं। मथुरा तथा द्वारका में वे और अधिक पूर्ण (पूर्णतर) होते हैं, किन्तु अपना सारा ऐश्वर्य प्रकट करने के कारण वे वृन्दावन, व्रज में सर्वाधिक पूर्ण पूर्णतम) होते हैं।
 
श्लोक 399:  “नाट्य ग्रन्थों में इसे पूर्ण, पूर्णतर तथा पूर्णतम कहा गया है। इस तरह भगवान् कृष्ण अपने आपको पूर्ण, पूर्णतर तथा पूर्णतम - इन तीन प्रकारों से प्रकट करते हैं।”
 
श्लोक 400:  “जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपने समस्त गुणों को प्रदर्शित नहीं करते होते, तब वे पूर्ण कहलाते हैं। जब वे सारे गुणों को अपूर्ण रूप से प्रकट करते हैं, तब वे पूर्णतर कहलाते हैं।
 
श्लोक 401:  “कृष्ण के पूर्णतम गुण वृन्दावन में और उनके पूर्ण तथा पूर्णतर गुण द्वारका तथा मथुरा में प्रकट होते हैं।”
 
श्लोक 402:  “वृन्दावन में भगवान् कृष्ण, पूर्णतम भगवान् हैं। अन्यत्र उनके विस्तार या तो पूर्ण हैं या पूर्णतर हैं।
 
श्लोक 403:  “इस तरह मैंने कृष्ण के दिव्य स्वरूपों के प्राकट्य का संक्षिप्त वर्णन किया है। यह विषय इतना विस्तृत है कि भगवान् अनन्त भी पूर्णरूप से इसका वर्णन नहीं कर सकते।”
 
श्लोक 404:  “इस प्रकार कृष्ण के दिव्य रूपों का अनन्त विस्तार हुआ है। कोई भी उनकी गणना नहीं कर सकता। मैंने जो कुछ बतलाया है, वह मात्र एक झलक है। यह उसी तरह है, जैसाकि किसी वृक्ष की शाखाओं में से होकर चाँद को दिखलाना।”
 
श्लोक 405:  “जो भी कृष्ण के शरीर के विस्तारों के इन विवरणों को सुनता है। या सुनाता है, वह निश्चित रूप से अत्यन्त भाग्यवान है। यद्यपि इसे समझ पाना बहुत कठिन है, किन्तु इससे कृष्ण के शरीर के विभिन्न स्वरूपों का कुछ न कुछ ज्ञान प्राप्त हो जाता है।”
 
श्लोक 406:  श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए, सदैव उनकी कृपा का इच्छुक, मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुगमन करते हुए श्री चैतन्य - चरितामृत कह रहा हूँ।
 
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  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
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