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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  मध्य लीला  »  अध्याय 25: वाराणसी के सारे निवासियों का वैष्णव बनना  » 
 
 
 
 
पच्चीसवें अध्याय का सारांश इस प्रकार है। बनारस में रह रहा एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण श्री चैतन्य महाप्रभु का महान् भक्त था। वह महाप्रभु की महिमा को सुनकर परम सुखी रहता था और उसी की योजना से वाराणसी के सारे संन्यासी श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्त बन गये। उसने सारे संन्यासियों को श्री चैतन्य महाप्रभु से भेंट करने के लिए अपने घर में बुलाया। इस घटना का वर्णन आदिलीला के सातवें अध्याय में किया जा चुका है। उस दिन से श्री चैतन्य महाप्रभु वाराणसी नगरी में प्रसिद्ध हो गये और वहाँ के अनेक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति उनके अनुयायी बन गये। धीरे-धीरे महान् संन्यासी प्रकाशानन्द सरस्वती का एक शिष्य श्री चैतन्य महाप्रभु का भक्त बन गया। उसने ही प्रकाशानन्द सरस्वती से महाप्रभु के विषय में बताया और अनेक तर्को द्वारा श्री चैतन्य महाप्रभु के विचारों का समर्थन किया। एक दिन श्री चैतन्य महाप्रभु पंचनद में स्नान करने गये और उसके बाद उनके सारे भक्त बिन्दु माधव मन्दिर के समक्ष हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करने लगे। उसी समय प्रकाशानन्द सरस्वती तथा उनके सारे भक्त महाप्रभु के पास पहुँचे। प्रकाशानन्द सरस्वती तुरन्त ही श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणों पर गिर पड़े और उनके साथ किये गये विगत व्यवहार के लिए बड़ा खेद व्यक्त किया। उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु से वेदान्त-सूत्र के परिप्रेक्ष्य में भक्ति के विषय में जिज्ञासा की और महाप्रभु ने उन्हें वेदान्त -सूत्र जानने वाले महान् आचार्यों द्वारा प्रमाणित भक्ति के विषय में बतलाया। इसके बाद उन्होंने इंगित किया कि श्रीमद्भागवत ही वेदान्त -सूत्र की सही टीका है। फिर उन्होंने श्रीमद्भागवत के चतुःश्लोकी श्लोकों की व्याख्या की , जो कि उस ग्रन्थ के सार हैं । उस दिन से वाराणसी के सारे संन्यासी श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्त बन गये। अपने मुख्यालय जगन्नाथ पुरी लौटने के पूर्व महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को वृन्दावन जाने का उपदेश दिया। तत्पश्चात् महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के लिए चल पड़े। इसके बाद कविराज गोस्वामी श्रील रू प गोस्वामी , सनातन गोस्वामी तथा सुबुद्धि राय के विषय में कुछ बातें बतलाते हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु मध्यभारत के झारिखंड वन से होकर जगन्नाथ पुरी लौट आये। इस अध्याय के अन्त में कविराज गोस्वामी मध्यलीला की घटनाओं का सारांश देते हैं और हर जीव को उपदेश देते हैं कि वह श्रीचैतन्य - चरितामृत नामक इस भव्य ग्रन्थ को पढ़े।
 
 
श्लोक 1:  वाराणसी के समस्त निवासियों को, जिनमें संन्यासी मुख्य थे, वैष्णव बना लेने के बाद तथा वाराणसी में सनातन गोस्वामी को पूरी तरह शिक्षा और उपदेश देने के बाद, श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी लौट गये।
 
श्लोक 2:  श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैतचन्द्र की जय हो तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो!
 
श्लोक 3:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने लगातार दो मास तक श्री सनातन गोस्वामी को भक्ति के सारे सिद्धान्तों की शिक्षा प्रदान की।
 
श्लोक 4:  जब तक श्री चैतन्य महाप्रभु वाराणसी में रहे, चन्द्रशेखर के मित्र परमानन्द कीर्तनिया हरे कृष्ण महामन्त्र तथा अन्य गीतों का कीर्तन बड़े ही विनोदपूर्ण ढंग से श्री चैतन्य महाप्रभु को सुनाया करते थे।
 
श्लोक 5:  जब वाराणसी में मायावादी संन्यासियों ने श्री चैतन्य महाप्रभु की आलोचना की, तो महाप्रभु के भक्त अत्यन्त दुखित हुए। अतः श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें तुष्ट करने के लिए उन संन्यासियों पर अपनी कृपा प्रदर्शित की।
 
श्लोक 6:  आदिलीला के सातवें अध्याय में वाराणसी में श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा संन्यासियों के उद्धार का विस्तृत वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ, किन्तु इस अध्याय में मैं उसको संक्षेप में दुहराऊँगा।
 
श्लोक 7:  जब वाराणसी में मायावादी संन्यासी जगह - जगह श्री चैतन्य महाप्रभु की निन्दा कर रहे थे, तो एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण इस निन्दा को सुनकर अत्यन्त दुखित होकर सोचने लगा।
 
श्लोक 8:  उस महाराष्ट्रीय ब्राह्मण ने सोचा, “जो कोई भी श्री चैतन्य महाप्रभु के स्वभाव को ध्यान से देखता है, वह तुरन्त ही उनके व्यक्तित्व का अनुभव करके उन्हें परम ईश्वर रूप में स्वीकार कर लेता है।”
 
श्लोक 9:  “यदि मैं किसी तरह सारे संन्यासियों को एक साथ इकट्ठे कर सकें, तो वे निश्चय ही महाप्रभु के व्यक्तिगत गुणों को देखकर उनके भक्त बन जायेंगे।”
 
श्लोक 10:  “मुझे अपने शेष जीवन - भर वाराणसी में निवास करना होगा। यदि मैं इस योजना को पूरा न कर सका, तो मैं निश्चय ही मानसिक क्लेश उठाता रहूँगा।”
 
श्लोक 11:  इस तरह सोचते हुए उस महाराष्ट्रीय ब्राह्मण ने वाराणसी के समस्त संन्यासियों को आमन्त्रित किया। ऐसा करने के बाद अन्त में वह श्री चैतन्य महाप्रभु को आमन्त्रित करने पहुँचा।
 
श्लोक 12:  तभी चन्द्रशेखर तथा तपन मिश्र दोनों ने श्री चैतन्य महाप्रभु के विषय में निन्दनीय आलोचना सुनी, तो वे अत्यन्त दुःखी हुए। वे श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में एक निवेदन करने आये।
 
श्लोक 13:  उन्होंने विनती की और श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने भक्तों का दुःख देखकर मायावादी संन्यासियों का मन फिराने का निश्चय किया।
 
श्लोक 14:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु मायावादी संन्यासियों से मिलने के विषय में गम्भीरतापूर्वक विचार कर रहे थे तभी वह महाराष्ट्रीय ब्राह्मण उनके पास पहुँचा। उसने अत्यन्त विनयपूर्वक निमन्त्रण दिया और श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों का स्पर्श किया।
 
श्लोक 15:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और अगले दिन अपने दोपहर के कार्यों से निवृत्त होकर वे उस ब्राह्मण के घर गये।
 
श्लोक 16:  मैं पंचतत्त्व - श्री चैतन्य महाप्रभु, श्री नित्यानन्द प्रभु, अद्वैत प्रभु, गदाधर प्रभु तथा श्रीवास - के यश का वर्णन करते समय आदिलीला के सातवें अध्याय में श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा मायावादी संन्यासियों के उद्धार का पहले ही वर्णन कर चुका हूँ।
 
श्लोक 17:  चूँकि आदिलीला के सातवें अध्याय में मैं इस घटना का विस्तार से वर्णन कर चुका हूँ, अतः दुबारा वर्णन करके इस पुस्तक के आकार को बढ़ाना नहीं चाहता। फिर भी जो कुछ वहाँ वर्णन करने से रह गया था, उसका समावेश मैं इस अध्याय में करने का प्रयास करूँगा।
 
श्लोक 18:  जिस दिन से श्री चैतन्य महाप्रभु ने मायावादी संन्यासियों पर कृपा प्रदर्शित की, तब से वाराणसी के निवासियों के बीच इस घटना के विषय में प्रचुर चर्चाएँ होने लगीं।
 
श्लोक 19:  उस दिन से लोगों के दल के दल श्री चैतन्य महाप्रभु को देखने के लिए आने लगे और विविध शास्त्रों के पण्डित महाप्रभु से विविध विषयों पर चर्चा करने लगे।
 
श्लोक 20:  जब लोग विविध शास्त्रों के सिद्धान्तों की चर्चा करने श्री चैतन्य महाप्रभु के पास आने लगे, तो महाप्रभु ने उनके मिथ्या निष्कर्षों को खण्डित करके भगवद्भक्ति की प्रधानता स्थापित की। उन्होंने विनम्रतापूर्वक तर्क द्वारा उनके मनों को बदल दिया।
 
श्लोक 21:  श्री चैतन्य महाप्रभु से उपदेश पाकर लोग हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने लगे।
 
श्लोक 22:  सभी मायावादी संन्यासियों ने श्री चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार किया और तब वेदान्त तथा मायावाद दर्शन विषयक अपने अध्ययनों को त्यागकर वे उनके आन्दोलन की चर्चा कर ने लगे।
 
श्लोक 23:  श्री प्रकाशानन्द सरस्वती का एक शिष्य जो अपने गुरु के ही समान विद्वान था, उस सभा में श्री चैतन्य महाप्रभु का सम्मान करते हुए बोला।
 
श्लोक 24:  उसने कहा, “श्री चैतन्य महाप्रभु साक्षात् भगवान् नारायण हैं। जब वे वेदान्त - सूत्र की व्याख्या करते हैं, तो वह बहुत ही सुन्दर होती है।”
 
श्लोक 25:  “श्री चैतन्य महाप्रभु उपनिषदों का सीधा अर्थ बतलाते हैं। जब सारे विद्वान इसे सुनते हैं, तो उनके मन तथा कान सुनकर सन्तुष्ट हो जाते हैं।”
 
श्लोक 26:  “शंकराचार्य तो वेदान्त - सूत्र तथा उपनिषदों के मुख्यार्थ को छोड़कर किसी और अर्थ की कल्पना करते हैं।”
 
श्लोक 27:  “शंकराचार्य की सारी व्याख्याएँ काल्पनिक हैं। ऐसी काल्पनिक व्याख्याओं को पण्डित मौखिक रूप से स्वीकार तो कर लेते हैं, किन्तु वे उनके हृदय को नहीं भातीं।”
 
श्लोक 28:  “श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के शब्द दृढ़ तथा विश्वसनीय हैं और मैं उन्हें सत्य मानता हूँ।
 
श्लोक 29:  “हरेर्नाम हरेर्नाम’ से प्रारम्भ होने वाले श्लोक की जो व्याख्या श्री चैतन्य महाप्रभु ने की है, वह न केवल कानों को सुख देने वाली है, अपितु प्रबल वास्तविक प्रमाण है।”
 
श्लोक 30:  “इस कलियुग में भगवद्भक्ति किये बिना कोई व्यक्ति मुक्ति नहीं पा सकता। इस युग में यदि कोई कृष्ण के नाम का ठीक से कीर्तन नहीं करता, तो भी उसे आसानी से मुक्ति मिल जाती है।”
 
श्लोक 31:  “हे प्रभु, आपकी भक्ति ही एकमात्र शुभ मार्ग है। यदि कोई इसका परित्याग केवल शुष्क ज्ञान के लिए अथवा सारे जीव आत्मा हैं और भौतिक जगत् मिथ्या है - इस धारणा के लिए कर देता है, तो उसे बहुत कष्ट मिलता है। उसे केवल कष्टप्रद तथा अशुभ कर्म ही मिलते हैं। उसके कार्य उस पुआल को पीटने के समान है, जो धान से रहित है। उसका सारा श्रम निष्फल जाता है।”
 
श्लोक 32:  “हे कमलसमान नेत्रों वाले, जो लोग यह सोचते हैं कि वे इस जीवन में मुक्त हो चुके हैं, किन्तु जो आपकी भक्ति से रहित हैं, वे शुद्ध बुद्धि से हीन हैं। यद्यपि वे कठोर तपस्या करके आध्यात्मिक पद अर्थात् निर्विशेष ब्रह्म की अनुभूति प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु वे पुनः नीचे गिर जाते हैं, क्योंकि वे आपके चरणकमलों की पूजा की उपेक्षा करते हैं।”
 
श्लोक 33:  “ब्रह्म’ (महानतम) शब्द पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को सूचित करता है, जो छहों ऐश्वर्यों से युक्त हैं। किन्तु यदि हम एक पक्षीय निर्विशेष मत स्वीकार करें, तो उनकी पूर्णता घट जाती है।”
 
श्लोक 34:  “वैदिक साहित्य, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र तथा सारे पुराण भगवान् की आध्यात्मिक शक्ति के कार्यकलापों का वर्णन करते हैं। यदि मनुष्य भगवान् के व्यक्तिगत कार्यकलापों को स्वीकार नहीं कर सकता, तो वह मूर्खतावश उनका उपहास करता है और निर्विशेष विवरण प्रस्तुत करता है।”
 
श्लोक 35:  “मायावादी भगवान् के साकार रूप को आध्यात्मिक तथा आनन्दमय नहीं मानते। यह एक बड़ा पाप है। श्री चैतन्य महाप्रभु के कथन वास्तव में प्रामाणिक हैं।”
 
श्लोक 36:  “हे परम पूर्ण, मैं इस समय जिस दिव्य रूप का दर्शन कर रहा हूँ, वह दिव्य आनन्द से परिपूर्ण है। यह बहिरंगा शक्ति से कलुषित नहीं है। यह तेज से पूर्ण है। हे प्रभु, इससे बढ़कर आपके विषय में दूसरी कोई समझ नहीं है। आप परमात्मा तथा इस भौतिक जगत् के स्रष्टा हैं, किन्तु आप इस भौतिक जगत् से सम्बन्धित नहीं हैं। आप सृजित रूप तथा विविधता से सर्वथा भिन्न हैं। मैं इस समय आपके जिस रूप का दर्शन कर रहा हूँ, उसी की शरण ग्रहण करता हूँ। यह स्वरूप समस्त जीवों तथा उनकी इन्द्रियों का आदि उद्गम है।”
 
श्लोक 37:  “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण समस्त कारणों के कारण हैं। वे भूत, वर्तमान तथा भविष्य हैं एवं वे चर तथा अचर हैं। वे महानतम तथा लघुतम हैं और वे दृश्य तथा प्रत्यक्ष अनुभवगम्य हैं। वे वैदिक साहित्य में विख्यात हैं। हर वस्तु कृष्ण है और उनके बिना कहीं कोई अस्तित्व नहीं है। वे समस्त ज्ञान के मूल हैं और वे समस्त शब्दों द्वारा ज्ञेय हैं।”
 
श्लोक 38:  “हे सर्व - मंगलमय! हमारे कल्याण के लिए आप हमारे ध्यान में प्रकट होते हैं। इस प्रकार आप अपने दिव्य रूप को प्रकट करके हमारी पूजा सम्भव बनाते हैं। हम आप परम पुरुष को सादर नमस्कार करते हैं। और आपकी पूजा करते हैं, जिसे निर्विशेषवादी अल्पज्ञान के कारण नहीं मानते। इस तरह वे नरक को जाने योग्य हैं।”
 
श्लोक 39:  “मूर्ख लोग मेरा अनादर करते हैं, क्योंकि मैं मनुष्य की तरह प्रकट होता हूँ। वे समस्त कारणों के कारण, भौतिक शक्ति के स्रष्टा के रूप में मेरी परम स्थिति को नहीं जानते।”
 
श्लोक 40:  “जो लोग मेरे स्वरूप से ईर्ष्या करते हैं, जो क्रूर तथा दुष्ट हैं और मनुष्यों में अधम हैं, उन्हें मैं निरन्तर नारकीय स्थिति में विविध आसुरी योनियों में डाल देता हूँ।”
 
श्लोक 41:  “परिणामवाद (शक्ति का रूपान्तर) को न मानकर श्रीपाद शंकराचार्य ने इसके बहाने कि व्यासदेव ने त्रुटि की है, मोह के सिद्धान्त (विवर्तवाद) को स्थापित करना चाहा है।”
 
श्लोक 42:  “श्रीपाद शंकराचार्य ने अपनी व्याख्या तथा कल्पित अर्थ दिये हैं। यह किसी भी विवेकवान व्यक्ति के मन को पसन्द नहीं आता। उन्होंने नास्तिकों को विश्वास दिलाने तथा उन्हें अपने वश में करने के लिए ऐसा किया है।”
 
श्लोक 43:  “मायावादी इत्यादि नास्तिक दार्शनिक मुक्ति या कृष्ण - कृपा की परवाह नहीं करते।
 
श्लोक 44:  “निष्कर्ष तो यह है कि शंकराचार्य की काल्पनिक व्याख्या से वेदान्त - सूत्र का अर्थ आच्छादित हो जाता है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जो कुछ कहा है, वह पूर्णतया सत्य है।”
 
श्लोक 45:  “श्री चैतन्य महाप्रभु जो भी अर्थ लगाते हैं वही पूर्ण है। अन्य कोई व्याख्या विकृति मात्र है।”
 
श्लोक 46:  यह कहकर प्रकाशानन्द सरस्वती का शिष्य कृष्ण - नाम का कीर्तन करने लगा। उसे सुनकर प्रकाशानन्द सरस्वती ने निम्नलिखित बात कही।
 
श्लोक 47:  “प्रकाशानन्द सरस्वती ने कहा ‘शंकराचार्य अद्वैतवाद दर्शन की स्थापना करने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे। अतः उन्होंने अद्वैत दर्शन के समर्थन हेतु वेदान्त - सूत्र या वेदान्त - दर्शन की व्याख्या भिन्न ढंग से की।”
 
श्लोक 48:  “यदि हम भगवान् के व्यक्तित्व को स्वीकार कर लें, तो उस दर्शन की स्थापना नहीं हो सकती, जो यह मानता है कि भगवान् तथा जीव एक हैं। इसलिए शंकराचार्य ने सभी प्रकार के शास्त्रों के विरुद्ध तकर् रखा और उनका खण्डन किया।”
 
श्लोक 49:  जो भी व्यक्ति अपना मत या दर्शन स्थापित करना चाहता है, वह प्रत्यक्ष व्याख्या के सिद्धान्तानुसार किसी शास्त्र की विवेचना नहीं कर सकता।
 
श्लोक 50:  “मीमांसावादी दार्शनिकों का मत है कि यदि ईश्वर हैं, तो वे हमारे सकाम कर्मों के अधीन हैं। इसी तरह सांख्य दार्शनिक जो प्रकट जगत् का विश्लेषण करते हैं, कहते हैं कि प्रकट जगत् का कारण भौतिक प्रकृति है।”
 
श्लोक 51:  “न्याय के अनुयायी (नैयायिक) मानते हैं कि परमाणु ही विश्व के प्राकट्य का कारण है और मायावादी चिन्तक मानते हैं कि निर्विशेष ब्रह्मतेज ही विश्व का कारण है।”
 
श्लोक 52:  “पातंजल दार्शनिकों का कहना है कि जब कोई स्वरूपसिद्ध हो जाता है, वह भगवान् को समझता है। इसी प्रकार वेदों तथा वेद मत के अनुसार भगवान् आदि कारण हैं।”
 
श्लोक 53:  “इन छहों दार्शनिक मतों का अध्ययन करने के बाद व्यासदेव ने इन सबको वेदान्त दर्शन के अन्तर्गत सारभूत कर दिया।”
 
श्लोक 54:  “वेदान्त दर्शन के अनुसार परम सत्य एक पुरुष हैं। जब ‘निर्गुण’ शब्द का प्रयोग होता है, तो यह समझना चाहिए कि भगवान् के गुण पूर्णतया आध्यात्मिक हैं।”
 
श्लोक 55:  “उपर्युक्त दार्शनिकों में से कोई भी दार्शनिक समस्त कारणों के कारण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की परवाह नहीं करता। वे अन्यों केदार्शनिक मतों का खण्डन करने और अपने मत को स्थापित करने में ही सदैव लगे रहते हैं।”
 
श्लोक 56:  “छहों दार्शनिक मतों के अध्ययन से परम सत्य तक नहीं पहुँचा जा सकता। इसलिए हमारा कर्तव्य है कि महाजनों के मार्ग का अनुसरण करें। वे जो भी कहते हैं, उसे ही परम सत्य के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए।”
 
श्लोक 57:  “शुष्क तर्क अनिर्णीत होते हैं। जिस महापुरुष का मत अन्यों से भिन्न नहीं होता, वह महान् ऋषि नहीं माना जाता। नाना प्रकार के वेदों के अध्ययन - मात्र से कोई उस सही मार्ग पर नहीं आ सकता, जिससे धार्मिक सिद्धान्त समझे जाते हैं। इन धार्मिक सिद्धान्तों का वास्तविक सत्य तो शुद्ध स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के हृदय में छिपा रहता है। फलतः जैसाकि शास्त्रों द्वारा पुष्टि होती है, मनुष्य को महाजनों के द्वारा बताये गये प्रगतिशील मार्ग को स्वीकार करना चाहिए।”
 
श्लोक 58:  “श्री चैतन्य महाप्रभु के शब्द अमृत की धारा हैं। वे जिसे परम सत्य कहते हैं, वास्तव में वही समस्त आध्यात्मिक ज्ञान का सार है।”
 
श्लोक 59:  इन सारे कथनों को सुनकर वह महाराष्ट्रीय ब्राह्मण खुशी - खुशी श्री चैतन्य महाप्रभु को बताने गया।
 
श्लोक 60:  जब वह महाराष्ट्रीय ब्राह्मण चैतन्य महाप्रभु को मिलने गया, तब महाप्रभु पंचनद में स्नान करके बिन्दु माधव मन्दिर जा रहे थे।
 
श्लोक 61:  जब महाप्रभु रास्ते में जा रहे थे, तब उस महाराष्ट्रीय ब्राह्मण ने उन्हें वह घटना सुनाई जो प्रकाशानन्द सरस्वती के दल में घटी थी। यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु सुखी होकर हँसने लगे।
 
श्लोक 62:  बिन्दु माधव मन्दिर पहुँचकर श्री चैतन्य महाप्रभु बिन्दु माधव भगवान् का सौन्दर्य देखकर भावमय प्रेम में विभोर हो उठे। फिर वे मन्दिर के आँगन में नृत्य करने लगे।
 
श्लोक 63:  श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ चार जन थे - चन्द्रशेखर, परमानन्द पुरी, तपन मिश्र तथा सनातन गोस्वामी। वे सब हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन इस प्रकार कर रहे थे।
 
श्लोक 64:  वे “हरये नमः कृष्ण यादवाय नमः, गोपाल गोविन्द राम श्री मधुसूदन” बोलकर कीर्तन कर रहे थे।
 
श्लोक 65:  चारों दिशाओं में लाखों लोग “हरि! हरि!” बोल उठे। इस तरह तुमुल तथा मंगल ध्वनि से सारा ब्रह्माण्ड भर गया।
 
श्लोक 66:  जब पास ही रह रहे प्रकाशानन्द सरस्वती ने हरे कृष्ण महामन्त्र की तुमुल ध्वनि सुनी, तो वे तथा उनके शिष्य तुरन्त ही महाप्रभु को देखने आये।
 
श्लोक 67:  जब प्रकाशानन्द सरस्वती ने महाप्रभु का दर्शन किया, तो वे स्वयं तथा उनके शिष्य भी श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ कीर्तन करने लगे। प्रकाशानन्द सरस्वती महाप्रभु के नृत्य तथा उनके भावमय प्रेम एवं उनके शारीरिक सौन्दर्य से मुग्ध हो गये।
 
श्लोक 68:  महाप्रभु के शरीर में भावमय आध्यात्मिक रूपान्तर (विकार) होने लगे। उनका शरीर काँपने लगा और उनकी वाणी अवरुद्ध हो गई। उन्हें पसीना आ गया, वे पीले पड़ गये और उनके आँसुओं की निरन्तर धारा से वहाँ पर खड़े सारे लोग भीग गये। महाप्रभु के शरीर में जो रोमांच (पुलक) हुआ, वह कदम्ब पुष्पों जैसा प्रतीत हो रहा था।
 
श्लोक 69:  महाप्रभु के हर्ष तथा दैन्य को देखकर तथा उनकी भावविभोर बातें करते सुनकर सारे लोग चकित हुए। निस्सन्देह, बनारस (काशी) के सारे निवासियों ने महाप्रभु के शारीरिक विकारों को देखा और वे आश्चर्यचकित हो गये।
 
श्लोक 70:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु को बाह्य चेतना आई, तो उन्होंने देखा कि अनेक मायावादी संन्यासी तथा अन्य लोग वहाँ एकत्रित हो गये हैं। अतः उन्होंने उस समय अपना नृत्य रोक दिया।
 
श्लोक 71:  कीतर्न बन्द करने के बाद दैन्य के महान् उदारहण श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रकाशानन्द सरस्वती के चरणों की वन्दना की। इस पर प्रकाशानन्द सरस्वती तुरन्त आगे आये और उन्होंने महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लिये।
 
श्लोक 72:  जब प्रकाशानन्द सरस्वती ने महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लिए, तो महाप्रभु ने कहा, “हे महोदय, आप जगद्गुरु हैं, अतः आप परम पूज्य हैं। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं तो आपके शिष्यों के शिष्य के भी समान नहीं हूँ।”
 
श्लोक 73:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “आप महान् आध्यात्मिक पुरुष हैं, अतः आपको मुझ जैसे व्यक्ति की पूजा नहीं करनी चाहिए। मैं तो बहुत ही तुच्छ हूँ। यदि आप ऐसा करेंगे, तो मेरी आध्यात्मिक शक्ति का ह्रास हो जायेगा, क्योंकि आप निर्विशेष ब्रह्म के तुल्य हैं।
 
श्लोक 74:  “हे महोदय, आपके लिए हर व्यक्ति निर्विशेष ब्रह्म के पद पर है, किन्तु सामान्य जनों को प्रबुद्ध करने के लिए आपको ऐसा नहीं करना चाहिए।”
 
श्लोक 75:  प्रकाशानन्द सरस्वती ने उत्तर दिया, “इसके पूर्व मैंने आपकी निन्दा करके आपके प्रति अनेक अपराध किये हैं, किन्तु अब आपके चरणों का स्पर्श करने से मेरे सारे अपराध नष्ट हो गये हैं।”
 
श्लोक 76:  “यदि मुक्त कहलाने वाला व्यक्ति इस जीवन में अचिन्त्य शक्तियों के आगार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति अपराध करता है, तो वह पुनः नीचे गिर जायेगा और भौतिक भोग के लिए भौतिक वातावरण की इच्छा करेगा।
 
श्लोक 77:  “श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श पाकर वह सर्प तुरन्त ही अपने पापमय जीवन के कर्म फलों से मुक्त हो गया। इस तरह उस सर्प ने अपना शरीर त्याग दिया और सुन्दर विद्याधर देवता का शरीर धारण कर लिया।”
 
श्लोक 78:  जब प्रकाशानन्द सरस्वती ने श्रीमद्भागवत का श्लोक उधृत करते हुए अपनी बात सिद्ध करनी चाही, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने तुरन्त भगवान् विष्णु का नाम लेते हुए प्रतिरोध किया। तत्पश्चात् महाप्रभु ने अपने आपको महापतित जीव के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा, “यदि कोई पतित बद्ध जीवात्मा को विष्णु, भगवान् या अवतार के रूप में स्वीकार करता है, तो वह महान् अपराध करता है।”
 
श्लोक 79:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “सामान्य जीव की क्या बात है, ब्रह्माजी तथा शिवजी को भी विष्णु या नारायण के समान नहीं माना जा सकता। यदि कोई ऐसा करता है, तो उसे अपराधी तथा नास्तिक समझा जाना चाहिए।”
 
श्लोक 80:  “जो व्यक्ति ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं को नारायण के समकक्ष मानता है, उसे पाषण्डी या अपराधी माना जाना चाहिए।”
 
श्लोक 81:  प्रकाशानन्द ने उत्तर दिया, “आप साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण हैं। फिर भी आप अपने आपको उनका सनातन सेवक मान रहे हैं।”
 
श्लोक 82:  “हे प्रभु, आप परमेश्वर हैं और यद्यपि आप अपने आपको भगवान् का दास मानते हैं, तो भी आप पूज्य हैं। आप मुझसे श्रेष्ठ हैं। चूँकि मैंने आपकी निन्दा की है, अतएव मेरी सारी आध्यात्मिक उपलब्धियाँ नष्ट हो चुकी हैं।
 
श्लोक 83:  “हे महर्षि, अज्ञान से मुक्त करोडों मुक्त पुरुषों में से तथा लगभग सिद्धि प्राप्त कर चुके करोड़ों सिद्धों में से शायद ही कोई एक नारायण का शुद्ध भक्त होता है। केवल ऐसा ही भक्त वास्तव में पूर्णतया तुष्ट तथा शान्त होता है।”
 
श्लोक 84:  “जब कोई व्यक्ति महात्माओं से दुर्व्यवहार करता है, तो उसकी आयु, ऐश्वर्य, यश, धर्म, सम्पत्ति तथा सौभाग्य सभी नष्ट हो जाते हैं।”
 
श्लोक 85:  “जब तक मानव समाज उन महात्माओं अर्थात् भक्तों के चरणकमलों की धूल को धारण नहीं करता, जिन्हें भौतिक सम्पत्ति से कुछ लेना - देना नहीं होता, तब तक मनुष्य अपना ध्यान कृष्ण के चरणकमलों की ओर नहीं ले जा सकता। वे चरणकमल भौतिक जीवन की समस्त अवांछित कष्टप्रद स्थितियों का विनाश कर देते हैं।”
 
श्लोक 86:  “आज से मैं आपके चरणकमलों में भक्ति विकसित करूँगा। इसीलिए मैं आपके पास आया हूँ और आपके चरणकमलों पर गिरा हूँ।”
 
श्लोक 87:  यह कहकर प्रकाशानन्द सरस्वती श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ बैठ गये और महा प्रभु से इस प्रकार प्रश्न करने लगे।
 
श्लोक 88:  प्रकाशानन्द सरस्वती ने कहा, “आपने मायावाद दर्शन में जिन दोषों को इंगित किया है, उन्हें हम समझ सकते हैं। शंकराचार्य द्वारा दी गई सारी व्याख्याएँ काल्पनिक हैं।”
 
श्लोक 89:  हे प्रभु, आपने ब्रह्मसूत्र की व्याख्या करते हुए जो भी प्रत्यक्ष अर्थ दिये हैं, वे हम सबके लिए निश्चय ही अत्यन्त चकित करने वाले हैं।
 
श्लोक 90:  “आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, अतएव आपमें अचिन्त्य शक्तियाँ हैं। मैं आपसे ब्रह्मसूत्र के विषय में संक्षेप में सुनना चाहता हूँ।”
 
श्लोक 91:  श्री चैतन्य महा प्रभु ने उत्तर दिया, “मैं एक सामान्य जीव हूँ, अतएव मेरा ज्ञान अत्यन्त तुच्छ है। किन्तु ब्रह्मसूत्र का अर्थ अत्यन्त गहन है, क्योंकि इसके लेखक व्यासदेव तो स्वयं भगवान् हैं।”
 
श्लोक 92:  सामान्य व्यक्ति के लिए वेदान्त - सूत्र का अर्थ समझ पाना कठिन है, किन्तु व्यासदेव ने अहैतुकी कृपावश स्वयं इसका अर्थ बतलाया है।
 
श्लोक 93:  यदि वेदान्त - सूत्र की व्याख्या इसके लेखक स्वयं व्यासदेव द्वारा की जाए, तो सामान्य लोग इसके मूल अर्थ को समझ सकते हैं।
 
श्लोक 94:  “ॐकार ध्वनि का अर्थ गायत्री मन्त्र में निहित है। उसी की विस्तृत व्याख्या श्रीमद्भागवत के चार श्लोकों (चतुःश्लोकी) में हुई है।”
 
श्लोक 95:  “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने श्रीमद्भागवत के उन चार श्लोकों में ब्रह्माजी से जो भी कहा था, उसकी व्याख्या ब्रह्माजी ने नारद से भी की।”
 
श्लोक 96:  “ब्रह्माजी ने नारद मुनि से जो भी कहा था, उसे ही नारद मुनि ने पुनः व्यासदेव से कहा। इसके बाद व्यासदेव ने अपने मन में इन उपदेशों पर विचार किया।”
 
श्लोक 97:  “श्रील व्यासदेव ने विचार किया कि उन्हें नारद मुनि से ॐकार की जो भी व्याख्या मिली है, उसे वे अपने ग्रन्थ श्रीमद्भागवत में ब्रह्मसूत्र की टीका के रूप में विस्तार से बतलायेंगे।”
 
श्लोक 98:  “चारों वेदों तथा 108 उपनिषदों में जितने वैदिक सिद्धान्त थे, उन्हें व्यासदेव ने संचित करके वेदान्त सूत्र के रूप में प्रस्तुत किया।”
 
श्लोक 99:  “वेदान्त - सूत्र में समस्त वैदिक ज्ञान का अर्थ बतलाया गया है और श्रीमद्भागवत में वही अर्थ अठारह हजार श्लोकों में वर्णित हुआ है।”
 
श्लोक 100:  अतः निष्कर्ष यह निकलता है कि ब्रह्मसूत्र की व्याख्या श्रीमद्भागवत में विस्तृत रूप से की गई है और श्रीमद्भागवत के श्लोकों में जो कुछ कहा गया है, उनसे उसी उद्देश्य (अर्थ) की पूर्ति होती है, जो उपनिषदों में दी गई व्याख्या से होती है।
 
श्लोक 101:  “इस ब्रह्माण्ड के भीतर जड़ तथा चेतन सब कुछ भगवान् द्वारा संचालित है और वह उसी भगवान् का है। अतः मनुष्य को केवल वे ही वस्तुएँ स्वीकार करनी चाहिए, जो उसके लिए नियत कर दी गई हैं। उसे यह जानते हुए कि अन्य वस्तुएँ किसकी हैं, उन्हें स्वीकार नहीं करनी चाहिए।”
 
श्लोक 102:  “श्रीमद्भागवत का सार - भगवान् से हमारा सम्बन्ध, उस सम्बन्ध में हमारे कार्य तथा जीवन का लक्ष्य - श्रीमद्भागवत के चार श्लोकों में, जिन्हें चतुःश्लोकी कहते हैं, दिया हुआ है। इन्हीं चार श्लोकों में हर बात की व्याख्या की गई है।
 
श्लोक 103:  “(भगवान् कृष्ण कहते हैं:) ‘मैं सारे सम्बन्धों का केन्द्र हूँ। मेरे सम्बन्ध में ज्ञान तथा उस ज्ञान का व्यावहारिक उपयोग ही वास्तविक ज्ञान है। भक्ति के लिए मेरे पास आना अभिधेय कहलाता है।”
 
श्लोक 104:  “सेवा करने से मनुष्य क्रमशः भगवत्प्रेम के पद तक ऊपर उठता है। यही जीवन का मुख्य लक्ष्य है। भगवत्प्रेम के पद पर मनुष्य भगवान् की सेवा में शाश्वत रूप से लगा रहता है।”
 
श्लोक 105:  “मैं जो कुछ तुमसे कह रहा हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो, क्योंकि मेरे विषय में दिव्य ज्ञान न केवल वैज्ञानिक है अपितु रहस्यों से पूर्ण है।”
 
श्लोक 106:  “हे ब्रह्मा, मैं तुम्हें यह सारा सत्य बतलाऊँगा। क्योंकि तुम जीव हो, अतः मेरे बताये बिना तुम मेरे साथ अपने सम्बन्ध, भक्ति - कार्य तथा जीवन के आखरी प्रयोजन को नहीं समझ सकोगे।
 
श्लोक 107:  “मैं तुम्हें अपने वास्तविक स्वरूप तथा अपनी स्थिति, अपने गुण, कर्म तथा छह ऐश्वर्य बतलाऊँगा।”
 
श्लोक 108:  “भगवान् कृष्ण ने ब्रह्माजी को आश्वासन दिया, ‘मेरी कृपा से ये बातें तुम में जागृत होंगी।’ यह कहकर भगवान् ब्रह्माजी को तीनों तत्त्व (सत्य) बतलाने लगे।”
 
श्लोक 109:  “मेरी अहैतुकी कृपा से मेरा व्यक्तित्व, विविध रस, गुण तथा लीला ये सभी तुममें प्रकाशित हों।”
 
श्लोक 110:  “भगवान् ने कहा, ‘इस सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व मैं विद्यमान था और समग्र भौतिक शक्ति, भौतिक प्रकृति तथा सारे जीव मुझमें स्थित थे।”
 
श्लोक 111:  “इस सृष्टि की रचना के बाद मैंने इसमें प्रवेश किया। तुम इस सृष्टि में जो कुछ देखते हो, वह मेरी शक्ति का विस्तार मात्र है।”
 
श्लोक 112:  “जब सारे ब्रह्माण्ड का लय होता है, तब मैं पूर्णरूपेण बचा रहता हूँ और दिखने वाली हर वस्तु पुनः मुझमें सुरक्षित हो जाती है।”
 
श्लोक 113:  “सृष्टि के पूर्व केवल मैं रहता हूँ और कोई अन्य - चाहे स्थूल हो या सूक्ष्म या आदि - नहीं रहता। सृष्टि के बाद मैं ही हर वस्तु में रहता हूँ और प्रलय के बाद मैं ही शाश्वत बना रहता हूँ।”
 
श्लोक 114:  “अहमेव” से प्रारम्भ होने वाले श्लोक में ‘अहम्’ शब्द तीन बार आया है। प्रारम्भ में ‘अहमेव’ शब्द हैं। दूसरी पंक्ति में ‘पश्चाद् अहम्’ शब्द हैं और इसके अन्त में ‘सोऽस्म्यहम्’ शब्द आये हैं। यह ‘अहम्’ परम पुरुष का सूचक है। ‘अहम्’ की पुनरावृत्ति से छह ऐश्वर्यों से युक्त दिव्य पुरुष की पुष्टि होती है।”
 
श्लोक 115:  “निर्विशेषवादी परमेश्वर के व्यक्तिगत लक्षणों से युक्त साकार रूप को नहीं मानते। इस श्लोक में परम पुरुष पर इसलिए बल दिया गया है, जिससे वे इसे स्वीकार करने की आवश्यकता को समझें।
 
श्लोक 116:  “[भगवान् कृष्ण ने आगे कहा:] ‘इन सारे शब्दों में वास्तविक आध्यात्मिक ज्ञान तथा उसके व्यावहारिक उपयोग पर विचार किया गया है। यद्यपि बहिरंगा शक्ति मुझ से ही उत्पन्न है, किन्तु मैं उससे अलग हूँ।”
 
श्लोक 117:  कभी - कभी सूर्य के बदले सूर्य के प्रतिबिम्ब का अनुभव किया जाता है, किन्तु सूर्य का प्रकाश कभी - भी सूर्य से स्वतन्त्र होकर सम्भव नहीं हो सकता।
 
श्लोक 118:  दिव्य पद प्राप्त करने वाला व्यक्ति मेरा अनुभव कर सकता है। यह अनुभव परमेश्वर के साथ सम्बन्ध का आधार है। मैं इस विषय को और आगे बतलाता हूँ।
 
श्लोक 119:  “मेरे बिना जो सत्य प्रतीत होता है, वह निश्चित रूप से मेरी भ्रामक शक्ति (माया) है, क्योंकि मेरे बिना किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं रह सकता। यह छाया में वास्तविक प्रकाश के प्रतिबिम्ब के समान है, क्योंकि प्रकाश में न तो छाया होती है न प्रतिबिम्ब होता है।
 
श्लोक 120:  अब मुझसे भक्ति की विधि के विषय में सुनो, जो किसी भी देश, व्यक्ति, काल तथा परिस्थिति में लागू होती है।
 
श्लोक 121:  “जहाँ तक धार्मिक सिद्धान्तों का सम्बन्ध है, उसमें व्यक्ति, देश, काल तथा दशा का विचार किया जाता है। किन्तु भक्ति में ऐसा विचार नहीं किया जाता है। भक्ति इन समस्त विचारों के परे है।
 
श्लोक 122:  “अतः हर देश में, हर परिस्थिति में तथा सभी कालों में यह हर एक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह प्रामाणिक गुरु के पास जाए, भक्ति के विषय में उससे प्रश्न करे और भक्ति की व्याख्या को सुने।”
 
श्लोक 123:  “अतः दिव्य ज्ञान में रुचि रखने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह सर्वव्यापक सत्य के विषय में जानने के लिए सदैव प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से प्रश्न करे।”
 
श्लोक 124:  “मेरे लिए परम स्नेह (प्रीति) भगवत्प्रेम कहलाता है और यही जीवन का चरम लक्ष्य (प्रयोजन) है। मैं ऐसे प्रेम के प्राकृतिक लक्षणों की व्याख्या एक व्यावहारिक उदाहरण द्वारा करूँगा।”
 
श्लोक 125:  “प्रत्येक जीव के भीतर तथा बाहर पाँच भौतिक तत्त्व विद्यमान हैं। इसी प्रकार मैं, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् भक्त के हृदय में तथा उसके शरीर के बाहर भी प्रकट रहता हूँ।
 
श्लोक 126:  “जिस प्रकार भौतिक तत्त्व सारे जीवों के शरीर में प्रवेश करते हैं और उन सबके बाहर भी बने रहते हैं, उसी तरह मैं सारी भौतिक सृष्टियों के भीतर विद्यमान रहकर भी उनके भीतर नहीं रहता।
 
श्लोक 127:  “अति उन्नत भक्त मुझ भगवान् को प्रेम द्वारा अपने हृदय में बाँध सकता है। वह जहाँ भी देखता है, मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं देखता।
 
श्लोक 128:  “अपने भक्तों के हर अमंगल को नष्ट करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हरि अपने भक्तों के हृदयों को तब भी नहीं छोड़ते, जब वे उनका स्मरण तथा कीर्तन मन लगाकर न करते हों। इसका कारण यह है कि प्रेम की डोरी भक्तों के हृदयों में भगवान् को सदैव बाँधे रखती है। ऐसे भक्तों को अत्यन्त उच्च (भागवत - प्रधान) माना जाना चाहिए।
 
श्लोक 129:  “भक्ति में उन्नत व्यक्ति (भागवत) आत्माओं के आत्मा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण को हर वस्तु के भीतर देखता है। फलतः वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के स्वरूप को समस्त कारणों के कारण के रूप में देखता है और यह समझता है कि सारी वस्तुएँ उनमें स्थित हैं।”
 
श्लोक 130:  “सारी गोपियाँ कृष्ण के दिव्य गुणों का जोर - जोर से कीर्तन करने के लिए एकत्र हो गईं और वे पागल स्त्रियों की तरह एक जंगल से दूसरे जंगल में घूमने लगीं। वे सारे जीवों के भीतर तथा बाहर स्थित भगवान् के विषय में जिज्ञासा करने लगीं। निस्सन्देह, वे उन परम पुरुष के विषय में सारे पौधौं तथा वनस्पतियों से भी पूछ रही थीं।
 
श्लोक 131:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे बतलाया, “भगवान् से मनुष्य का सम्बन्ध, भक्तिमय कार्यकलाप तथा भक्ति और जीवन के चरम लक्ष्य भगवत्प्रेम की प्राप्ति - ये तीन श्रीमद्भागवत के विषय हैं।
 
श्लोक 132:  “स्वरूपसिद्ध व्यक्ति परम सत्य की एकीकृत पहचान विभिन्न नामों से करते हैं। ये हैं – निर्विशेष ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्।’
 
श्लोक 133:  “ब्रह्माण्ड की सृष्टि के पूर्व सृजनशीलता भगवान् के स्वरूप में समा गई। उस समय सारी शक्तियाँ तथा अभिव्यक्तियाँ भगवान् के शरीर में संरक्षित हो गईं। भगवान् समस्त कारणों के कारण हैं। वे सर्वव्यापी तथा आत्मनिर्भर पुरुष हैं। सृष्टि के पूर्व वे अपनी आध्यात्मिक शक्ति समेत आध्यात्मिक जगत् में विद्यमान थे, जहाँ विविध वैकुण्ठ लोक प्रकट हैं।’
 
श्लोक 134:  “ईश्वर के ये सारे अवतार पुरुष अवतारों के या तो पूर्ण विस्तार हैं या पूर्ण विस्तारों के अंश (कलाएँ) हैं। किन्तु कृष्ण स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। वे प्रत्येक युग में अपने विभिन्न स्वरूपों से संसार की रक्षा करते हैं, जब यह संसार इन्द्र के शत्रुओं द्वारा उपद्रवग्रस्त रहता है।
 
श्लोक 135:  पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से मनुष्य का यही सनातन सम्बन्ध है। अब भक्ति सम्पन्न करने के विषय में सुनो। यह सिद्धान्त श्रीमद्भागवत के प्रत्येक श्लोक में व्याप्त है।
 
श्लोक 136:  “[भगवान् कृष्ण ने कहा:]’ भक्तों तथा साधुओं को अत्यन्त प्रिय होने से मैं अविचल श्रद्धा तथा भक्ति द्वारा प्राप्त किया जाता हूँ। यह भक्तियोग, जिससे मेरे प्रति क्रमशः अनुरक्ति बढ़ती जाती है, चण्डालों में भी जन्में मनुष्य को शुद्ध कर देती है। अर्थात् भक्तियोग के द्वारा हर व्यक्ति आध्यात्मिक स्तर तक पहुँच सकता है।
 
श्लोक 137:  “[पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण ने कहा:] ‘हे उद्धव, कोई न तो अष्टांग योग द्वारा, न निर्विशेषवाद द्वारा या परम सत्य के वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा, न वेदाध्ययन द्वारा, न तपस्या द्वारा, न दान द्वारा, न ही संन्यास द्वारा मुझे उतना प्रसन्न कर सकता है, जितना कि मेरे प्रति अनन्य भक्ति उत्पन्न करके कर सकता है।’
 
श्लोक 138:  जब जीव कृष्ण से भिन्न माया द्वारा आकृष्ट होता है, तब वह भय से आक्रान्त रहता है। भौतिक शक्ति माया द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से अलग हो जाने के कारण उसका जीवन - बोध पलट जाता है। दूसरे शब्दों में, वह कृष्ण का सनातन सेवक होने के स्थान पर कृष्ण का प्रतियोगी बन जाता है। इसे विपर्ययोऽस्मृतिः कहते हैं। इस भूल को सुधारने के लिए विद्वान तथा उन्नत व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को अपने गुरु, पूज्य देव तथा जीवन के स्रोत के रूप में पूजता है। इस तरह वह अनन्य भक्तियोग द्वारा भगवान् की पूजा करता है।
 
श्लोक 139:  अब तुम मुझसे सुनो कि वास्तविक भगवत्प्रेम क्या होता है। यह जीवन का मूल लक्ष्य है।
 
श्लोक 140:  “भक्तों के प्रत्येक अमंगल को दूर करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हरि का मात्र स्मरण करके तथा अन्यों को उनका स्मरण कराते हुए शुद्ध भक्तजन प्रेमानन्द के आध्यात्मिक शरीरिक लक्षण व्यक्त करते हैं। यह पद विधिपूर्वक भक्ति करके और तब रागानुग प्रेम करने के स्तर पर उठने से प्राप्त होता है।”
 
श्लोक 141:  “जब मनुष्य सचमुच भक्ति में उन्नत होता है और अपने प्रिय भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करने में आनन्द का अनुभव करता है, तो वह उत्तेजित हो उठता है और जोर - जोर से नाम कीर्तन करता है। वह आसपास वालों की परवाह किये बिना हँसता है, रोता है, चंचल हो उठता है और पागल की तरह कीर्तन भी करता है।”
 
श्लोक 142:  “श्रीमद्भागवत वेदान्त - सूत्र का सही सही अर्थ बताता है। वेदान्त - सूत्र के लेखक व्यासदेव हैं और स्वयं उन्होंने ही उन सूत्रों की व्याख्या श्रीमद्भागवत के रूप में की है।”
 
श्लोक 143-144:  “वेदान्त - सूत्र का अर्थ श्रीमद्भागवत में पाया जाता है। महाभारत का पूरा सारांश भी इसमें है। ब्रह्म - गायत्री की टीका भी इसी में है और समस्त वैदिक ज्ञान के सहित इसे विस्तृत रूप दिया गया है। श्रीमद्भागवत सर्वश्रेष्ठ पुराण है और इसकी रचना पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने अपने व्यासदेव अवतार के रूप में की। इसमें बारह स्कन्ध हैं, 335 अध्याय हैं। और अठारह हजार श्लोक हैं।’
 
श्लोक 145:  “सारे वैदिक साहित्य तथा समस्त इतिहासों के सार को श्रीमद्भागवत में संकलित कर दिया गया है।”
 
श्लोक 146:  “श्रीमद्भागवत को समस्त वैदिक साहित्य तथा वेदान्त दर्शन का सार माना जाता है। जो भी श्रीमद्भागवत के दिव्य रस का आस्वादन करता है, वह किसी अन्य साहित्य की ओर कभी आकृष्ट नहीं होता।”
 
श्लोक 147:  “श्रीमद्भागवत के प्रारम्भ में ब्रह्म - गायत्री मन्त्र की व्याख्या दी हुई है। ‘सत्यं परं’ अर्थात् परम सत्य सम्बन्ध को सूचित करता है और धीमहि अर्थात् ‘हम उनका ध्यान करते हैं’ भक्ति के सम्पादन का तथा जीवन के चरम लक्ष्य (प्रयोजन) का सूचक है।
 
श्लोक 148:  “हे वसुदेव के पुत्र मेरे प्रभु श्रीकृष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान्, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, जो परम सत्य हैं और प्रकट ब्रह्माण्डों की सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय के समस्त कारणों के मूल कारण हैं। वे समस्त प्राकट्यों से प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से अवगत रहते हैं तथा वे स्वतन्त्र हैं, क्योंकि उनके परे अन्य कोई कारण नहीं है। उन्होंने ही सब से पहले प्रथम जीव ब्रह्मा के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया। उनके द्वारा बड़े - बड़े ऋषि और देवता भी मोहग्रस्त हो जाते हैं, जिस प्रकार कोई अग्नि में जल अथवा जल में भूमि की भ्रमपूर्ण अवस्थिति को देखकर मोहित होता है। उन्हीं के कारण सारे भौतिक ब्रह्माण्ड, जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया द्वारा अस्थायी तौर पर अभिव्यक्त हैं, अवास्तविक होते हुए भी वास्तविक प्रतीत होते हैं। अतः मैं उन परम सत्य भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, जो अपने उस दिव्य धाम में सदैव विद्यमान रहते हैं, जो कि भौतिक जगत् के मोह से सदैव मुक्त रहता है। मैं उन्हीं का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं।
 
श्लोक 149:  यह भागवत पुराण भौतिक दृष्टि से प्रेरित होने वाले समस्त धार्मिक कृत्यों को पूर्णतया बहिष्कृत करते हुए सर्वोच्च सत्य का प्रतिपादन करता है, जो पूर्णतया शुद्ध हृदय वाले भक्तों के द्वारा समझा जा सकता है। यह सर्वोच्च सत्य ऐसी वास्तविकता है, जो माया से पृथक् होते हुए सबके कल्याण के लिए है। ऐसा सत्य तीनों प्रकार के सन्तापों को समूल नष्ट करने वाला है। महामुनि व्यासदेव द्वारा (अपनी परिपक्व अवस्था में) संकलित यह सुन्दर भागवत भगवत् - साक्षात्कार के लिए अपने आप में पर्याप्त है। और किसी शास्त्र की क्या आवश्यकता है? ज्योंही कोई ध्यानपूर्वक तथा विनीत भाव से भागवत के सन्देश को सुनता है, वैसे ही ज्ञान के इस अनुशीलन से परमेश्वर उसके हृदय में स्थापित हो जाते हैं।’
 
श्लोक 150:  “श्रीमद्भागवत कृष्ण - भक्ति से उत्पन्न रस की सीधी सूचना देता है। अतः यह अन्य सारे वैदिक ग्रन्थों से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
 
श्लोक 151:  “श्रीमद्भागवत समस्त वैदिक ग्रन्थों का सार है और यह वैदिक ज्ञानरूपी कल्पतरु का परिपक्व फल माना जाता है। शुकदेव गोस्वामी के मुख से निकलने के कारण यह मीठा बन गया है। आप में से जो विचारवान हैं और रसों का आस्वादन करना चाहते हैं, उन्हें इस पक्व फल का आस्वादन करने का सदैव प्रयत्न करना चाहिए। हे विचारवान भक्तों, जब तक आप दिव्य आनन्द में निमग्न नहीं होते, तब तक आपको इस श्रीमद्भागवत का आस्वादन करना चालु रखना चाहिए और जब आप इस आनन्द में पूरी तरह मग्न हो जाओ, तो इसके रसों का सदा सदा आस्वादन करते रहना चाहिए।’
 
श्लोक 152:  “हम स्तोत्रों तथा स्तुतियों से यशोगान किये जाने वाले भगवान् की दिव्य लीलाओं को सुनते हुए कभी नहीं थकते। जो उनकी संगति का आनन्द उठाते हैं, वे प्रति क्षण उनकी लीलाओं के श्रवण का आस्वादन करते हैं।
 
श्लोक 153:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रकाशानन्द सरस्वती को उपदेश दिया, अत्यधिक छानबीन करके श्रीमद्भागवत का अध्ययन करो। तब आप ब्रह्मसूत्र के वास्तविक अर्थ को समझ सकोगे।”
 
श्लोक 154:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “सदैव श्रीमद्भागवत की चर्चा करो और भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम का निरन्तर जप करो। इस तरह आप आसानी से मुक्ति प्राप्त कर सकोगे और भगवत्प्रेम का आनन्द प्राप्त करने के लिए उन्नत बनोगे।
 
श्लोक 155:  “जो इस तरह दिव्य अवस्था में स्थित है, उसे तुरन्त परम ब्रह्म की अनुभूति होती है और वह पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है। वह न कभी शोक करता है न किसी वस्तु की कामना करता है। वह हर जीव के प्रति समभाव रखता है। उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भक्ति प्राप्त करता है।’
 
श्लोक 156:  “निर्विशेष ब्रह्म तेज में लीन मुक्तात्मा भी कृष्ण की लीलाओं के प्रति आकृष्ट होता है। इस तरह वह अर्चाविग्रह स्थापित करके भगवान् की पूजा करता है।
 
श्लोक 157:  “[शुकदेव गोस्वामी ने परीक्षित महाराज को सम्बोधित किया:]’ हे राजन्, यद्यपि मैं दिव्य पद पर पूर्णतया स्थित था, फिर भी मैं भगवान् कृष्ण की लीलाओं के प्रति आकृष्ट हुआ। इसलिए मैंने अपने पिता से श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया।
 
श्लोक 158:  “जब भगवान् के चरणकमलों से तुलसी दलों तथा केसर की सुगन्ध ले जाने वाली वायु उन मुनियों (कुमारों) के नासारन्न्रों से होकर हृदय में प्रविष्ट हुई, तो उन्हें अपने शरीर तथा मन दोनों में ही विकार का अनुभव हुआ, यद्यपि वे निर्विशेष ब्रह्म के उपासक थे।
 
श्लोक 159:  जो स्वयं सन्तुष्ट आत्माराम हैं और बाह्य भौतिक इच्छाओं के प्रति आकृष्ट नहीं होते हैं, वे भी उन श्रीकृष्ण की प्रेमाभक्ति के प्रति आकृष्ट होते हैं जिनके गुण दिव्य हैं और जिनके कार्यकलाप अद्भुत हैं। भगवान् हरि को कृष्ण कहा जाता है, क्योंकि उनमें ऐसे दिव्य आकर्षक गुण हैं।”
 
श्लोक 160:  उसी समय उस महाराष्ट्रीय ब्राह्मण ने आत्माराम श्लोक की श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा की गई व्याख्या का उल्लेख किया।
 
श्लोक 161:  महाराष्ट्रीय ब्राह्मण ने बतलाया कि श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस श्लोक के 61 प्रकार से अर्थ किये हैं। यह सुनकर सभी लोग चकित हो गये।
 
श्लोक 162:  जब वहाँ पर एकत्र सारे लोगों ने आत्माराम श्लोक के 61 अर्थों को फिर से सुनने की इच्छा व्यक्त की, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने पुनः उनकी व्याख्या की।
 
श्लोक 163:  जब सबने श्री चैतन्य महाप्रभु से आत्माराम श्लोक की व्याख्या सुनी, तो वे आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि श्री चैतन्य महाप्रभु और कोई नहीं, अपितु साक्षात् भगवान् कृष्ण हैं।
 
श्लोक 164:  इन व्याख्याओं को दोबारा देने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु उठे और उन्होंने वहाँ से विदा ली।
 
श्लोक 165:  काशी (वाराणसी) के सारे निवासी प्रेम में भावविभोर होकर हरे। कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने लगे। कभी वे हँसते, कभी रोते, कभी कीर्तन करते और कभी नाचते।
 
श्लोक 166:  इसके बाद वाराणसी के सारे मायावादी संन्यासी तथा पण्डित श्रीमद्भागवत के विषय में विचार - विमर्श करने लगे। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनका उद्धार किया।
 
श्लोक 167:  तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु अपने पार्षदों समेत अपने निवासस्थान पर लौट आये। इस प्रकार उन्होंने सारे वाराणसी नगर को दूसरे नवद्वीप (नदिया नगर) में परिणत कर दिया।
 
श्लोक 168:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने पार्षदों के बीच हँसी करते हुए कहा, “मैं यहाँ अपना भावमय प्रेम बेचने के लिए आया था।
 
श्लोक 169:  “यद्यपि मैं वाराणसी में अपना सामान बेचने आया था, किन्तु यहाँ कोई ग्राहक नहीं थे। अतः मेरे लिए आवश्यक हो गया कि उस सामान को मैं अपने देश वापस ले जाऊँ।
 
श्लोक 170:  “तुम सभी दुःखी थे कि मेरे सामान को कोई खरीद नहीं रहा और मुझे उसे लौटकर ले जाना होगा। अतः तुम सबकी इच्छा से ही मैंने उसे बिना मूल्य ही बाँट दिया।”
 
श्लोक 171:  तब महाप्रभु के सारे भक्तों ने कहा, “आप पतितात्माओं का उद्धार करने के लिए अवतरित हुए हैं। आपने पूर्व तथा दक्षिण में उनका उद्धार किया है और अब आप पश्चिम में उनका उद्धार कर रहे हैं।
 
श्लोक 172:  केवल वाराणसी बच गया था, क्योंकि वहाँ के लोग आपके प्रचार - कार्य के विरुद्ध थे। अब आपने उनका उद्धार कर दिया, जिससे हम सभी अत्यन्त सुखी हुए हैं।”
 
श्लोक 173:  जब इन घटनाओं का समाचार प्रसारित हुआ, तो आसपास के सारे लोग श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने आने लगे।
 
श्लोक 174:  करोड़ों लोग श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने आये, जिनकी कोई गिनती नहीं थी। चूँकि महाप्रभु का आवास छोटा था, इसलिए हर कोई उनका दर्शन नहीं कर सका।
 
श्लोक 175:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु गंगा - स्नान करने तथा विश्वेश्वर मन्दिर में दर्शन करने जाते, तो लोग महाप्रभु को देखने के लिए दोनों ओर पंक्तिबद्ध हो जाते।
 
श्लोक 176:  जब महाप्रभु लोगों के पास से निकलते, तो वे अपनी भुजाएँ उठाकर कहते, “कृष्ण बोल! हरि बोल!” सारे लोग हरे कृष्ण कीर्तन द्वारा उनका स्वागत करते और इसी कीर्तन द्वारा उनको नमस्कार करते।
 
श्लोक 177:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु पाँच दिनों तक लोगों का उद्धार करते रहे। अन्त में अगले दिन वे वहाँ से प्रस्थान करने के लिए उत्सुक हो उठे।
 
श्लोक 178:  छठे दिन जल्दी उठकर जब श्री चैतन्य महाप्रभु प्रस्थान करने लगे, तो पाँच भक्त उनके पीछे - पीछे लग गये।
 
श्लोक 179:  ये पाँच भक्त थे - तपन मिश्र, रघुनाथ, महाराष्ट्रीय ब्राह्मण, चन्द्रशेखर तथा परमानन्द कीर्तनिया।
 
श्लोक 180:  ये पाँचों श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ जगन्नाथ पुरी जाना चाहते थे, किन्तु महाप्रभु ने बड़े ही यत्न से इन सबको विदा किया।
 
श्लोक 181:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “यदि तुम मुझे मिलना चाहते हो, तो बाद में आ सकते हो, किन्तु इस समय मैं अकेले ही झारखंड जंगल से होता हुआ जाऊँगा।”
 
श्लोक 182:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को आदेश दिया कि वे वृन्दावन जाएँ और उन्हें यह बतलाया कि उनके दो भाई पहले ही वहाँ जा चुके हैं।
 
श्लोक 183:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी से कहा, “मेरे जितने भी भक्त वृन्दावन जाते हैं, वे सामान्यतया बहुत निर्धन होते हैं। उनके पास केवल एक फटी रजाई तथा एक छोटा कमंडलु रहता है। अतः हे सनातन, तुम उन्हें शरण देकर उनका पालन करना।”
 
श्लोक 184:  यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने सबका आलिंगन किया और जब वे अपने मार्ग पर चलने लगे, तो वे सबके सब मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़े।
 
श्लोक 185:  कुछ समय के बाद सारे भक्त उठे और अत्यन्त दुःखी मन से अपने - अपने घर लौट गये।
 
श्लोक 186:  जब रूप गोस्वामी मथुरा पहुँचे, तो उनकी भेंट सुबुद्धि राय से यमुना के तट पर न्रुवघाट नामक स्थान पर हुई।
 
श्लोक 187:  पहले सुबुद्धि राय गौड़देश (बंगाल) में एक बहुत बड़े जमींदार थे। तब सैयद हुसेन खान उनका नौकर था।
 
श्लोक 188:  सुबुद्धि राय ने हुसेन खान को एक बड़ी झील खुदवाने का काम सौंपा, किन्तु एक बार उसके काम में त्रुटि पाकर उन्होंने उसे कोड़े से मारा।
 
श्लोक 189:  बाद में हुसेन खान केन्द्रीय मुसलमानी सरकार द्वारा नवाब नियुक्त किया गया। उसने कृतज्ञतावश सुबुद्धि राय के ऐश्वर्य में वृद्धि की।
 
श्लोक 190:  बाद में जब नवाब सैयद हुसेन खान की पत्नी ने उसके शरीर पर चाबुक के निशान देखे, तो उसने उससे सुबुद्धि राय की हत्या कर देने का आग्रह किया।
 
श्लोक 191:  हुसेन खान ने उत्तर दिया, “सुबुद्धि राय ने बड़ी ही सावधानी से मेरा पालन - पोषण किया है। वे मेरे पिता तुल्य ही थे। अब तुम उन्हें मारने के लिए मुझसे कह रही हो। यह अच्छा प्रस्ताव नहीं है।”
 
श्लोक 192:  अन्तिम विकल्प के रूप में नवाब की पत्नी ने उपदेश दिया कि वह सुबुद्धि राय को अपनी जाति से भ्रष्ट करके उसे मुसलमान बना ले। किन्तु हुसेन खान ने कहा कि यदि वह ऐसा करेगा, तो सुबुद्धि राय जीवित नहीं रहेगा।
 
श्लोक 193:  उसके लिए यह संकट आ खड़ा हुआ, क्योंकि उसकी पत्नी सुबुद्धि राय को मार डालने के लिए आग्रह करती रही। अन्त में नवाब ने किसी मुसलमान के जल पीने के घड़े से सुबुद्धि राय के सिर के ऊपर थोड़ा - सा जल छिड़क दिया।
 
श्लोक 194:  अपने ऊपर नवाब द्वारा जल छिड़के जाने को एक सुअवसर मानकर सुबुद्धि राय ने अपना परिवार तथा व्यापार छोड़ दिया और वाराणसी चले आये।
 
श्लोक 195:  जब सुबुद्धि राय ने वाराणसी के विद्वान ब्राह्मणों से पूछा कि किस तरह मुसलमान बनने का प्रायश्चित्त किया जाए, तो उन्होंने उपदेश दिया कि वे गर्म घी पीकर अपना प्राण छोड़ दें।
 
श्लोक 196:  जब सुबुद्धि राय ने कुछ अन्य ब्राह्मणों से पूछा, तो उन्होंने कहा कि उन्होंने कोई गर्हित दोष (अपराध) नहीं किया, अतः उसे गरम घी पीकर प्राण नहीं त्यागना चाहिए। फलस्वरूप सुबुद्धि राय संशय में थे कि वे क्या करें?
 
श्लोक 197:  इसी उलझन में सुबुद्धि राय श्री चैतन्य महाप्रभु से मिले, जब वे वाराणसी में ठहरे थे। सुबुद्धि राय ने सारी स्थिति बतलाई और महाप्रभु से पूछा कि वे क्या करें।
 
श्लोक 198:  महाप्रभु ने उन्हें उपदेश दिया, “तुम वृन्दावन जाओ और वहाँ हरे कृष्ण मन्त्र का निरन्तर कीर्तन करो।”
 
श्लोक 199:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने सुबुद्धि राय को यह भी उपदेश दिया “हरे कृष्ण मन्त्र का जप प्रारम्भ करो और जब तुम्हारा जप प्रायः शुद्ध हो जायेगा, तब तुम्हारे सब पापकर्म के फल जाते रहेंगे। भलीभाँति जप करने के बाद तुम्हें कृष्ण के चरणकमलों में शरण मिल सकेगी।
 
श्लोक 200:  “जब तुम कृष्ण के चरणकमलों में स्थित होते हो, तो तुम्हें कोई पापमय कर्मफल छू नहीं सकता। सारे पापमय कार्यों का यही सबसे अच्छा समाधान है।”
 
श्लोक 201:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु से वृन्दावन जाने की आज्ञा पाकर सुबुद्धि राय वाराणसी से चल पड़े और प्रयाग, अयोध्या तथा नैमिषारण्य होते हुए वृन्दावन की ओर गये।
 
श्लोक 202:  सुबुद्धि राय कुछ काल तक नैमिषारण्य में रहे। उसी बीच श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन भ्रमण करने के बाद प्रयाग गये।
 
श्लोक 203:  मथुरा पहुँचने पर सुबुद्धि राय को महाप्रभु के कार्यक्रम की जानकारी मिली। वे अत्यन्त दुःखी हुए, क्योंकि वे महाप्रभु से सम्पर्क नहीं कर सके।
 
श्लोक 204:  सुबुद्धि राय जंगल से सूखी लकड़ी बीनते और मथुरा शहर में लाकर उसे बेचते। उसे हर बोझ के लिए पाँच या छह पैसे मिलते।
 
श्लोक 205:  सूखी लकड़ी बेचकर जीविकोपार्जन करने वाले सुबुद्धि राय एक पैसे के भुने चने चबाकर रहते और शेष पैसों को वे किसी बनिये के यहाँ जमा कर देते।
 
श्लोक 206:  सुबुद्धि राय अपनी बचत से मथुरा आने वाले बंगाली वैष्णवों को दही खरीदकर देते थे। वह उन्हें पका चावल (भात) तथा मालिश के लिए तेल देते। जब वह किसी दुखियारे वैष्णव को देखते, तो वे अपने धन का उपयोग उसे भोजन कराने में करते।
 
श्लोक 207:  जब रूप गोस्वामी मथुरा आये, तो सुबुद्धि राय प्रेम तथा स्नेहवश अनेक प्रकार से उनकी सेवा करना चाहते थे। वे स्वयं रूप गोस्वामी को वृन्दावन के बारहों वन दिखाने ले गये।
 
श्लोक 208:  रूप गोस्वामी मथुरा तथा वृन्दावन में सुबुद्धि राय के साथ एक मास तक रहे। इसके बाद वे अपने ज्येष्ठ भाई सनातन गोस्वामी की खोज करने के लिए वृन्दावन से चल पड़े।
 
श्लोक 209:  जब रूप गोस्वामी ने सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु गंगा नदी के तट के मार्ग से होकर प्रयाग चले गये हैं, तो रूप तथा उनका भाई अनुपम महाप्रभु से मिलने उसी मार्ग से होकर गये।
 
श्लोक 210:  प्रयाग पहुँचकर सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए राज मार्ग से होकर वृन्दावन गये।
 
श्लोक 211:  जब सनातन गोस्वामी सुबुद्धि राय से मथुरा में मिले, तो उन्होंने उनके छोटे भाइयों रूप गोस्वामी तथा अनुपम के विषय में सब कुछ बतलाया।
 
श्लोक 212:  चूँकि सनातन गोस्वामी आम मार्ग से होकर वृन्दावन गये और रूप गोस्वामी तथा अनुपम गंगातट के मार्ग से होकर गये, अतः वे एक दूसरे से नहीं मिल पाये।
 
श्लोक 213:  सुबुद्धि राय तथा सनातन गोस्वामी संन्यास ग्रहण करने के पूर्व एक दूसरे को जानते थे। अतः सुबुद्धि राय ने सनातन गोस्वामी के साथ बहुत स्नेह प्रदर्शित किया, किन्तु सनातन गोस्वामी उसके भाव तथा स्नेह को स्वीकार करने में संकोच कर रहे थे।
 
श्लोक 214:  संन्यास आश्रम में अत्यन्त उन्नत होने के कारण सनातन गोस्वामी एक वन से दूसरे वन में घूमा करते और कभी - भी पत्थर के बने किसी भी निवासस्थान में आश्रय नहीं लेते थे। वे वृक्षों के नीचे, अथवा कुंजों के नीचे दिन - रात रहा करते।
 
श्लोक 215:  श्रील सनातन गोस्वामी ने मथुरा में पुरातत्व खनन के विषय में कुछ पुस्तकें एकत्र कीं और वन में भ्रमण करके उन सारे तीर्थस्थानों का पुनरुद्धार किया।
 
श्लोक 216:  सनातन गोस्वामी वृन्दावन में बने रहे और रूप गोस्वामी तथा अनुपम वाराणसी लौट आये।
 
श्लोक 217:  जब रूप गोस्वामी बनारस आये, तो वे महाराष्ट्रीय ब्राह्मण, चन्द्रशेखर तथा तपन मिश्र से मिले।
 
श्लोक 218:  वाराणसी में रूप गोस्वामी चन्द्रशेखर के घर में रहे और तपन मिश्र के घर प्रसाद ग्रहण किया।
 
श्लोक 219:  वाराणसी में रहते हुए रूप गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त कार्यकलापों के विषय में सुना। जब उन्होंने मायावादी संन्यासियों का उनके द्वारा किये गये उद्धार के विषय में सुना, तो वे बहुत सुखी हुए।
 
श्लोक 220:  जब रूप गोस्वामी ने देखा कि वाराणसी के सारे लोगों ने श्री चैतन्य महाप्रभु का आदर किया है, तो वे अत्यन्त सुखी हुए। यहाँ तक कि उन्होंने सामान्य लोगों से भी कहानियाँ सुनीं।
 
श्लोक 221:  वाराणसी में लगभग दस दिन रुककर रूप गोस्वामी बंगाल लौट गये। इस तरह मैंने रूप तथा सनातन के कार्यकलापों का वर्णन किया है।
 
श्लोक 222:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी लौट रहे थे, तब वे एकान्त जंगल से होकर निकले और ऐसा करने में उन्हें परम सुख प्राप्त हुआ।
 
श्लोक 223:  श्री चैतन्य महाप्रभु प्रसन्नतापूर्वक अपने सेवक बलभद्र भट्टाचार्य के साथ जगन्नाथ पुरी लौट आये। महाप्रभु ने पहले की ही तरह जंगल के पशुओं के साथ अनेक मनोहर क्रीड़ाएँ कीं।
 
श्लोक 224:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के निकट आठारनाला नामक स्थान पर पहुँचे, तो उन्होंने बलभद्र भट्टाचार्य को अपने भक्तों को बुला लाने के लिए भेजा।
 
श्लोक 225:  बलभद्र भट्टाचार्य से महाप्रभु के आगमन का समाचार सुनकर भक्तगण इतने सुखी हुए मानों उन्हें अपने प्राण वपास मिले हो। ऐसा लग रहा था मानों उनके शरीरों में पुनः चेतना लौट आई हो।
 
श्लोक 226:  परम आनन्द से विह्वल होकर सारे भक्त दौड़कर महाप्रभु से भेंट करने आये। वे उनसे विख्यात झील नरेन्द्र सरोवर के तट पर मिले।
 
श्लोक 227:  जब परमानन्द पुरी तथा ब्रह्मानन्द भारती श्री चैतन्य महाप्रभु से मिले, तो महाप्रभु ने अपने गुरु के इन गुरु - भाइयों को सादर नमस्कार किया। तब उन दोनों ने प्रेमपूर्वक महाप्रभु का आलिंगन किया।
 
श्लोक 228:  स्वरूप दामोदर, गदाधर पण्डित, जगदानन्द, काशीश्वर, गोविन्द तथा वक्रेश्वर - ये सारे भक्त महाप्रभु से मिलने आये।
 
श्लोक 229:  काशी मिश्र, प्रद्युम्न मिश्र, दामोदर पण्डित, हरिदास ठाकुर तथा शंकर पण्डित भी महाप्रभु से मिलने वहाँ आये।
 
श्लोक 230:  अन्य सारे भक्त भी आये और महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़े। बदले में श्री चैतन्य महाप्रभु ने अत्यन्त प्रेमविभोर होकर उन सबका आलिंगन किया।
 
श्लोक 231:  इस तरह वे सब आनन्द सागर में मग्न हो गये। तत्पश्चात् महाप्रभु तथा उनके सारे भक्त अर्चाविग्रह - दर्शन के लिए जगन्नाथ मन्दिर की ओर बढ़े।
 
श्लोक 232:  ज्योंही श्री चैतन्य महाप्रभु ने मन्दिर में जगन्नाथ का दर्शन किया, वे तुरन्त प्रेमाविष्ट हो गये। वे लम्बे समय तक अपने भक्तों के साथ कीर्तन तथा नृत्य करते रहे।
 
श्लोक 233:  पुरोहितगण तुरन्त ही उन सबके लिए फूल - मालाएँ तथा प्रसाद ले आये। मन्दिर का तुलसी नामक चौकीदार भी आया और उसने श्री चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार किया।
 
श्लोक 234:  जब यह समाचार प्रचारित हो गया कि श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में आ गये हैं, तो सार्वभौम भट्टाचार्य, रामानन्द राय तथा वाणीनाथ राय आदि भक्त उनसे मिलने आये।
 
श्लोक 235:  तब महाप्रभु तथा उनके भक्त काशी मिश्र के निवासस्थान पर गये। सार्वभौम भट्टाचार्य तथा पण्डित गोसांई ने भी महाप्रभु को अपने घरों में भोजन करने के लिए आमन्त्रित किया।
 
श्लोक 236:  उनका आमन्त्रण स्वीकार करके महाप्रभु ने उनसे कहा कि वे सारा प्रसाद वहीं ले आयें, जिससे वे अपने भक्तों के साथ भोजन कर सकें।
 
श्लोक 237:  श्री चैतन्य महाप्रभु का आदेश पाकर सार्वभौम भट्टाचार्य तथा पण्डित गोसांई दोनों जगन्नाथ मन्दिर से पर्याप्त प्रसाद ले आये। तब महाप्रभु ने अपने स्थान पर सबके साथ भोजन किया।
 
श्लोक 238:  इस तरह मैंने इसका वर्णन किया कि श्री चैतन्य महाप्रभु किस तरह वृन्दावन से जगन्नाथ पुरी लौट आये।
 
श्लोक 239:  जो भी श्रद्धा तथा प्रेम के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं को सुनता है, वह शीघ्र ही उनके चरणकमलों की शरण प्राप्त करता है।
 
श्लोक 240:  इस तरह मैंने मध्यलीला का सारांश दिया है, जोकि श्री चैतन्य महाप्रभु की जगन्नाथ पुरी आने - जाने की यात्राओं का वर्णन है। निस्सन्देह, महाप्रभु छह वर्षों तक निरन्तर इधर से उधर यात्रा करते रहे।
 
श्लोक 241:  चौबीस वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु चौबीस वर्षों तक और जीवित रहे। इनमें से छह वर्षों तक वे भारत - भर में विस्तृत यात्राएँ करते रहे - कभी जगन्नाथ पुरी आते तो कभी वहाँ से बाहर जाते। छह वर्षों तक यात्रा करने के बाद महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी में निवास किया और अपने जीवन के शेष अठारह वर्षों तक वहीं रहे। इन अठारह वर्षों में वे मुख्यतया अपने भक्तों के साथ हरे कृष्ण कीर्तन करते रहे।
 
श्लोक 242:  अब मैं मध्यलीला के सारे अध्यायों का क्रमवार पुनः अवलोकन करूँगा, जिससे इन विषयों के दिव्य गुणों का आस्वादन किया जा सके।
 
श्लोक 243:  प्रथम अध्याय में मैंने अन्त्यलीला की रूपरेखा दी है। इस अध्याय में महाप्रभु की उन कुछ लीलाओं का विस्तृत वर्णन है, जो उनके जीवन के अन्तिम काल में घटीं।
 
श्लोक 244:  द्वितीय अध्याय में मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु के द्वारा पागल व्यक्ति जैसी बातें करने का वर्णन किया है। इस अध्याय में यह इंगित किया गया है। कि श्री चैतन्य महाप्रभु किस तरह विभिन्न भावभंगिमाएँ प्रकट करते थे।
 
श्लोक 245:  तीसरे अध्याय में मैंने महाप्रभु द्वारा संन्यास ग्रहण करने तथा अद्वैत आचार्य के घर पर उनके द्वारा अपनी लीलाओं का आस्वादन करने का वर्णन कि या है।
 
श्लोक 246:  चौथे अध्याय में मैंने माधवेन्द्र पुरी द्वारा गोपाल अर्चाविग्रह की स्थापना का तथा गोपीनाथ द्वारा रेमुणा में खीरपात्र चुराने का वर्णन किया है।
 
श्लोक 247:  पाँचवे अध्याय में मैंने साक्षीगोपाल की कथा कही है। इसे नित्यानन्द प्रभु ने सुनाया था और श्री चैतन्य महाप्रभु ने सुना था।
 
श्लोक 248:  छठे अध्याय में मैंने बतलाया है कि सार्वभौम भट्टाचार्य का उद्धार कैसे हुआ और सातवें अध्याय में महाप्रभु द्वारा विभिन्न तीर्थस्थलों की यात्रा करने और उनके द्वारा वासुदेव के उद्धार का वर्णन किया है।
 
श्लोक 249:  आठवें अध्याय में मैंने रामानन्द राय के साथ महाप्रभु के विस्तृत संवाद का उल्लेख किया है।
 
श्लोक 250:  नौवें अध्याय में मैंने महाप्रभु की दक्षिण भारत एवं विविध तीर्थस्थानों की यात्रा का वर्णन किया है। दसवें अध्याय में मैंने महाप्रभु के सभी भक्तों से मिलन का वर्णन किया है।
 
श्लोक 251:  ग्यारहवें अध्याय में मैंने उस हरे कृष्ण महामन्त्र के महान् संकीर्तन का वर्णन किया है, जिससे महाप्रभु घिरे थे। बारहवें अध्याय में मैंने गुण्डिचा मन्दिर की सफाई और धुलाई का वर्णन किया है।
 
श्लोक 252:  तेरहवें अध्याय में मैंने जगन्नाथजी के रथ के आगे - आगे श्री चैतन्य महाप्रभु के नृत्य का वर्णन किया है। चौदहवें अध्याय में हेरापंचमी उत्सव का विवरण दिया गया है।
 
श्लोक 253:  चौदहवें अध्याय में ही स्वरूप दामोदर द्वारा गोपियों के भाव का वर्णन और श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा उसका आस्वादन भी दिया गया है।
 
श्लोक 254:  पन्द्रहवें अध्याय में मैंने यह बतलाया है कि श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने भक्तों के गुणों की अत्यधिक प्रशंसा कैसे की और सार्वभौम भट्टाचार्य के घर पर दोपहर का भोजन कैसे ग्रहण किया। उस समय उन्होंने अमोघ का उद्धार किया।
 
श्लोक 255:  सोलहवें अध्याय में श्री चैतन्य महाप्रभु का वृन्दावन के लिए प्रस्थान और बंगाल होकर यात्रा करने का वर्णन है। बाद में महाप्रभु कानाइ नाटशाला से जगन्नाथ पुरी लौट आये।
 
श्लोक 256:  सत्रहवें अध्याय में मैंने झारखण्ड के विकट जंगल से होकर महाप्रभु की यात्रा और मथुरा में उनके आगमन का वर्णन किया है। अठारहवें अध्याय में मैंने वृन्दावन के जंगल में महाप्रभु के भ्रमण का वर्णन दिया हैं।
 
श्लोक 257:  उन्नीसवें अध्याय में मैंने इस बात का वर्णन किया है कि महाप्रभु मथुरा से प्रयाग लौट आते हैं और श्री रूप गोस्वामी को भक्ति का प्रसार करने के लिए शक्ति प्रदान करते हैं।
 
श्लोक 258:  बीसवें अध्याय में सनातन गोस्वामी से महाप्रभु की भेंट का वर्णन हुआ है। महाप्रभु ने विस्तार से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के स्वरूप का वर्णन किया है।
 
श्लोक 259:  इक्कीसवें अध्याय में कृष्ण के सौन्दर्य तथा ऐश्वर्य का वर्णन है और बाइसवें अध्याय में भक्ति सम्पन्न करने के दो प्रकारों का वर्णन है।
 
श्लोक 260:  तेईसवें अध्याय में दिव्य भक्ति के रसों का वर्णन हुआ है और चौबीसवें अध्याय में महाप्रभु द्वारा आत्माराम श्लोक की व्याख्या दी गई है।
 
श्लोक 261:  पच्चीसवें अध्याय में काशीवासियों के वैष्णव बनने तथा वाराणसी से महाप्रभु के पुनः नीलाचल चले जाने का वर्णन है।
 
श्लोक 262:  इस तरह मैंने इन लीलाओं का सार पच्चीसवें अध्याय में दे दिया है। इन्हें सुनकर इस शास्त्र के सम्पूर्ण तात्पर्य को समझा जा सकता है।
 
श्लोक 263:  मैंने अब मध्यलीला के सम्पूर्ण विषय का सारांश दे दिया है। इन लीलाओं का विस्तृत वर्णन करोड़ों पुस्तकों में भी नहीं किया जा सकता।
 
श्लोक 264:  समस्त पतितात्माओं का उद्धार करने के लिए महाप्रभु ने देश - प्रदेश में भ्रमण किया। उन्होंने भक्ति के दिव्य आनन्द का स्वयं आस्वादन किया और उसी के साथ - साथ भक्ति मत का सर्वत्र प्रसार किया।
 
श्लोक 265:  कृष्णभावना का अर्थ है कृष्ण के सत्य को, भक्ति के सत्य को, भगवत्प्रेम के सत्य को, भावात्मक प्रेम के सत्य को, दिव्य रसों के सत्य को तथा भगवान् की लीलाओं के सत्य को समझना।
 
श्लोक 266:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने दिव्य सत्यों का तथा श्रीमद्भागवत के रसों का स्वयं प्रचार किया है।
 
श्लोक 267:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रीमद्भागवत के प्रयोजन का प्रचार किया। उन्होंने कभी अपने भक्तों के लाभ के लिए स्वयं उपदेश दिया और कभी अपने किसी भक्त को बोलने के लिए शक्ति प्रदान करके स्वयं सुना।
 
श्लोक 268:  तीनों लोकों के भीतर सारे विवेकशील व्यक्ति इस प्रमाण को स्वीकार करते हैं कि श्री चैतन्य महाप्रभु से न तो कोई अधिक कृपालु तथा वदान्य है और न उनके समान अपने भक्तों पर अन्य कोई इतना वत्सल है।
 
श्लोक 269:  सारे भक्तों को श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं को श्रद्धापूर्वक तथा प्रेमपूर्वक सुनना चाहिए।
 
श्लोक 270:  श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं को समझने से मनुष्य कृष्ण के विषय में सत्य को समझ सकता है। और कृष्ण को समझने पर वह विविध प्रामाणिक शास्त्रों में वर्णित सारे ज्ञान की सीमा को समझ सकता है।
 
श्लोक 271:  कृष्ण की लीलाएँ समस्त अमृत का सार हैं और वह अमृत सैकड़ों धाराओं में सभी दिशाओं में बहता है। श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ सनातन सरोवर हैं। मनुष्य को चाहिए कि इस दिव्य सरोवर में अपने मनरूपी हंस को तैरने दे।
 
श्लोक 272:  हे समस्त भक्तों, मैं अत्यन्त विनयपूर्वक आपके चरणकमलों पर अपने आपको अर्पित करता हूँ और आपके चरणों की धूल को अपने शरीर पर आभूषण के समान धारण करता हूँ। हे भक्तों, कृपा करके मेरी एक बात और सुनो।
 
श्लोक 273:  कृष्ण - भक्ति कमल के फूलों के प्रफुल्लित जंगल के समान है, जिसमें प्रचुर मधु है। मैं हर एक से इस मधु को चखने की प्रार्थना करता हूँ। यदि सारे ज्ञानी अपने मन रूपी भौंरों को इस कमल के जंगल में ले आयें और हर्षित होकर दिन - रात कृष्ण के प्रेम का आनन्द लूटें, तो उनका ज्ञान पूरी तरह दिव्य रूप से तुष्ट हो जायेगा।
 
श्लोक 274:  जिन भक्तों का कृष्ण से सम्बन्ध है, वे हंसों तथा चक्रवाकों (चकोर) के समान हैं, जो कमलों के वन में क्रीड़ा करते हैं। उन कमल की कलियाँ कृष्ण की लीलाएँ हैं और वे हंस - तुल्य भक्तों के लिए पकवान हैं। भगवान् श्रीकृष्ण सदैव अपनी दिव्य लीलाओं में लगे रहते हैं, अतः भक्तगण श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणचिह्नों पर चलकर उन कमल - कलियों को सदैव ग्रहण कर सकते हैं, क्योंकि वे कृष्ण की लीलाएँ हैं।
 
श्लोक 275:  श्री चैतन्य महप्रभु के सारे भक्तों को उस सरोवर में जाना चाहिए और श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की शरण में सदैव रहकर उस दिव्य जल में हंस तथा चक्रवाक पक्षी बनना चाहिए। उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा करते रहना चाहिए और सदा जीवन का सुख भोगना चाहिए। इस तरह सारे दुःख कम हो जायेंगे, भक्तों को परम सुख मिलेगा तथा उल्लासपूर्ण भगवत्प्रेम का उदय होगा।
 
श्लोक 276:  जिन भक्तों ने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की शरण ले रखी है, वे सारे विश्व में अमृतमय भक्ति के वितरण का उत्तरदायित्व लेते हैं। वे उन बादलों के समान हैं, जो इस जगत् में भगवत्प्रेम रूपी फल का पोषण करने वाली भूमि पर जल बरसाते हैं। भक्तगण फल को जी - भरकर खाते हैं और जो कुछ शेष बचता है, वह साधारण लोग ग्रहण करते हैं। इस तरह वे सुखपूर्वक रहते हैं।
 
श्लोक 277:  श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ अमृत से पूर्ण हैं और श्रीकृष्ण की लीलाएँ कपूर के समान हैं।
 
श्लोक 278:  लोग पर्याप्त अन्न खा - खाकर हृष्ट - पुष्ट बनते हैं, किन्तु जो भक्त केवल सामान्य अन्न खाता है और श्री चैतन्य महाप्रभु तथा कृष्ण की दिव्य लीलाओं का आस्वादन नहीं करता, वह धीरे - धीरे दुर्बल हो जाता है और दिव्य पद से नीचे गिर जाता है। किन्तु यदि कोई कृष्ण की लीलाओं के अमृत की एक बूंद भी पी लेता है, तो उसके शरीर तथा मन प्रफुल्लित हो उठते हैं और वह हँसने, गाने तथा नाचने लगता है।
 
श्लोक 279:  पाठकों को इस अद्भुत अमृत का पान करना चाहिए, क्योंकि इसके समान अन्य कुछ नहीं है।
 
श्लोक 280:  अन्त में मैं श्री चैतन्य महाप्रभु, नित्यानन्द प्रभु, अद्वैत प्रभु तथा अन्य समस्त भक्तों तथा पाठकों से निवेदन करता हूँ कि मैं आप सबके चरणकमलों को अपने सिर पर मुकुट की भाँति धारण करता हूँ। इस तरह मेरा अभीष्ट पूरा हो जायेगा।
 
श्लोक 281:  श्रील रूप गोस्वामी, श्री सनातन गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी तथा जीव गोस्वामी के चरणों को अपने सिर पर रखकर मैं सदैव उनकी कृपा की इच्छा करता हूँ। इस तरह मैं कृष्णदास श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के अमृत का वर्णन करने का विनम्र प्रयास कर रहा हूँ, जोकि भगवान् कृष्ण की लीलाओं के साथ मिली - जुली हैं।
 
श्लोक 282:  श्री मदनगोपाल तथा गोविन्द देव की तुष्टि के लिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि चैतन्य - चरितामृत नामक यह ग्रन्थ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को अर्पित की जाए।
 
श्लोक 283:  यह श्रीचैतन्य - चरितामृत, जिसमें श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ है, अत्यन्त रहस्यमय ग्रन्थ है। यह समस्त भक्तों का प्राणधन है। जो लोग इस ग्रन्थ का आस्वादन करने के अयोग्य हैं, जो शूकरों तथा कुकरों की तरह ईर्ष्यालु हैं, वे निश्चित रूप से इसकी प्रशंसा नहीं करेंगे। किन्तु इससे मेरे प्रयास को क्षति नहीं पहुँचेगी। श्री चैतन्य महाप्रभु की ये लीलाएँ अवश्य ही उन सारे साधु पुरुषों को अच्छी लगेंगी जिनके हृदय स्वच्छ हैं। वे अवश्य ही इसका आनन्द लूटेंगे। हम चाहते हैं कि इससे उनका आनन्द अधिकाधिक बढ़े।
 
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  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
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