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अध्याय 3: श्री चैतन्य महाप्रभु का अद्वैत आचार्य के घर रुकना
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श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपनी पुस्तक अमृत-प्रवाह-भाष्य में तृतीय अध्या य का निम्नलिखित सारांश दिया है। कटवा में संन्यास ग्रहण कर लेने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु लगातार तीन दिनों तक राढ़देश में यात्रा करते रहे और नित्यानन्द प्रभु की युक्ति से अन्ततः वे शान्तिपुर की पश्चिमी दिशा में आये। उन्हें गंगा नदी को ही यमुना नदी होने का विश्वास दिलाया गया। जब वे इस पवित्र नदी की पूजा कर रहे थे, तब अद्वैत प्रभु नाव में वहाँ आये। अद्वैत प्रभु ने उनसे प्रार्थना की कि वे गंगा में स्नान करें और फिर उन्हें वे अपने घर ले गये। वहाँ नवद्वीप के सारे भक्त शचीमाता के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने आये। यह घर शान्तिपुर में था। माता शचीदेवी श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्या नन्द प्रभु के लिए भोजन बनाती थी। उस समय अद्वैत प्र भु तथा नित्यानन्द प्रभु के बीच कई बार हास -परिहास चला। फिर संध्या- समय अद्वैत प्रभु के घर में विशाल सामूहिक कीर्तन हुआ और माता शचीदेवी ने चैतन्य महाप्रभु को विदा होने की अनुमति प्रदान की। उन्होंने अनुरोध किया कि वे अपना मुख्य आवास जगन्नाथ पुरी, नीलाचल को बना यें। श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी माता की बात मान ली और नित्यानन्द प्रभु, मुकुन्द, जगदानन्द तथा दामोदर के साथ शान्तिपुर से विदा हो गये। शचीमाता से विदा लेकर वे सभी छत्रभोग के रास्ते से जगन्नाथ पुरी की ओर चल पड़े। |
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श्लोक 1: संन्यास ग्रहण करने के बाद चैतन्य महाप्रभु कृष्ण के प्रति उत्कट प्रेमवश वृन्दावन जाना चाहते थे, किन्तु लौकिक रूप से भ्रमवश वे राढ़देश में घूमते रहे। बाद में वे शान्तिपुर पहुँचे और वहाँ भक्तों के साथ आनन्दपूर्वक रहे। मैं उन श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ। |
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श्लोक 2: श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत प्रभु की जय हो! श्रीवास आदि श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो! |
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श्लोक 3: चौबीसवें वर्ष के अन्त में माघ मास के शुक्लपक्ष में श्री चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास आश्रम स्वीकार किया। |
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श्लोक 4: संन्यास ग्रहण करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु कृष्ण के प्रगाढ़ प्रेमवश वृन्दावन के लिए चल पड़े। किन्तु भूल से वे लगातार तीन दिनों तक समाधि में राढ़देश नामक भूखण्ड में भ्रमण करते रहे। |
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श्लोक 5: राढ़देश नामक भूभाग में भ्रमण करते समय श्री चैतन्य महाप्रभु ने भावावेश में निम्नलिखित श्लोक सुनाया। |
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श्लोक 6: “[जैसाकि अवन्ती देश के एक ब्राह्मण ने कहा: ] ‘भगवान् कृष्ण के चरणकमलों की सेवा में दृढ़तापूर्वक स्थिर होकर मैं अज्ञान के दुर्लंघ्य सागर को पार कर जाऊँगा। इसकी पुष्टि उन पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा की गई है, जो परमात्मा, पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् की दृढ़ भक्ति में स्थिर थे।” |
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श्लोक 7: श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस श्लोक के तात्पर्य का अनुमोदन भिक्षुक भक्त द्वारा भगवान् मुकुन्द की सेवा में लगने के संकल्प के कारण किया। उन्होंने इस श्लोक को अपनी सहमति दे दी, जिससे सूचित होता है कि यह श्लोक अत्युत्तम है। |
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श्लोक 8: संन्यास स्वीकार करने का वास्तविक प्रयोजन मुकुन्द की सेवा में अपने आप को समर्पित करना है। मुकुन्द की सेवा करने से मनुष्य अवश्य ही भव - बन्धन से मुक्त हो सकता है। |
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श्लोक 9: संन्यास स्वीकार करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने वृन्दावन जाने और वहाँ एकान्त में पूर्ण मनोयोग से केवल मुकुन्द की सेवा में लग जाने का निश्चय किया। |
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श्लोक 10: जब श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन के रास्ते में थे, तब उनमें प्रेमोन्माद के सारे लक्षण प्रकट होने लगे। |
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श्लोक 11: जब श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन की ओर जा रहे थे, तब नित्यानन्द प्रभु, चन्द्रशेखर तथा मुकुन्द प्रभु उनके पीछे - पीछे चल रहे थे। |
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श्लोक 12: जब श्री चैतन्य महाप्रभु राढ़देश से होकर जा रहे थे, तो जो भी उन्हें देखता वह भावावेश में “हरि!” |
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श्लोक 13: श्री चैतन्य महाप्रभु को जाते देखकर सारे ग्वालबाल उनके साथ चलने लगे और उच्च - स्वर से “हरि!” “हरि!” पुकारने लगे। |
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श्लोक 14: जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने सभी ग्वालबालों को “हरि!” “हरि!” उच्चारण करते सुना, तो वे अत्यधिक प्रसन्न हुए। वे उनके पास गये, उनके सिर पर हाथ रखा और उनसे बोले, “इसी तरह कीर्तन करते रहो।” |
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श्लोक 15: इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबको यह कहते हुए आशीर्वाद दिया कि वे सभी भाग्यवान हैं। |
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श्लोक 16: सारे बालकों को एकान्त में बुलाकर और एक तर्कपूर्ण कहानी बतलाते हुए नित्यानन्द प्रभु ने उन सबको इस प्रकार सूचना दी। |
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श्लोक 17: “यदि श्री चैतन्य महाप्रभु तुम लोगों से वृन्दावन का रास्ता पूछे, तो उन्हें गंगा नदी के किनारे का रास्ता दिखला दे ना।” |
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श्लोक 18-19: जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने ग्वालबालों से वृन्दावन का रास्ता पूछा, तो उन बालकों ने गंगा के किनारे वाला रास्ता बतला दिया और महाप्रभु भावावेश में उसी रास्ते चल पड़े। |
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श्लोक 20: ज्योंही महाप्रभु गंगा के किनारे - किनारे चल पड़े, त्योंही श्री नित्यानन्द प्रभु ने आचार्यरत्न (चन्द्रशेखर आचार्य) को तुरन्त अद्वैत आचार्य के घर जाने के लिए कहा। |
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श्लोक 21: श्री नित्यानन्द गोस्वामी ने उनसे कहा, “मैं श्री चैतन्य महाप्रभु को शान्तिपुर में गंगा के तट पर ले जाऊँगा। आप अद्वैत आचार्य से कहें कि वे सावधान होकर एक नाव लेकर किनारे पर रहें।” |
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श्लोक 22: नित्यानन्द प्रभु ने आगे कहा, “उसके बाद मैं अद्वैत आचार्य के घर जाऊँगा और आप नवद्वीप जाकर माता शची तथा अन्य सभी भक्तों को लेकर लौट आना।” |
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श्लोक 23: आचार्यरत्न को अद्वैत आचार्य के घर भेजकर श्री नित्यानन्द प्रभु श्री चैतन्य महाप्रभु के सामने आये और अपने आने की सूचना दी। |
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श्लोक 24: “श्री चैतन्य महाप्रभु भावावेश में थे और उन्होंने पूछा कि नित्यानन्द प्रभु कहाँ जा रहे थे?” |
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श्लोक 25: जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु से पूछा कि अब वृन्दावन कितनी दूर है, तो नित्यानन्द प्रभु ने उत्तर दिया “देखिये! यह रही यमुना नदी।” |
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श्लोक 26: यह कहकर नित्यानन्द प्रभु उन्हें गंगा नदी के पास ले गये और श्री चैतन्य महाप्रभु ने भावावेश के कारण गंगा नदी को ही यमुना नदी के रूप में स्वीकार कर लिया। |
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श्लोक 27: महाप्रभु ने कहा, “ओह, कितना सौभाग्य है! आज मुझे यमुना नदी के दर्शन हुए हैं। इस तरह गंगा को ही यमुना नदी मानकर उन्होंने उसकी स्तुति करनी प्रारम्भ की।” |
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श्लोक 28: “हे यमुना नदी, तुम वह आनन्दमय दिव्य जल हो, जो नन्द महाराज के पुत्र को प्रेम प्रदान करता है। तुम वैकुण्ठ लोक के जल के ही समान हो, क्योंकि तुम हमारे पूरे जीवन में किये गये सारे अपराधों एवं पापफलों को नष्ट करने वाली हो। तुम संसार के लिए सभी मंगल वस्तुओं की जननी हो। हे सूर्यदेव की पुत्री, कृपया तुम अपने पुण्यकर्मों से हम सबको शुद्ध कर दो।” |
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श्लोक 29: इस मन्त्र का उच्चारण करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने नमस्कार करके गंगा नदी में स्नान किया। |
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श्लोक 30: जब श्री चैतन्य महाप्रभु वहाँ दूसरे वस्त्र के बिना खड़े थे, तब अद्वैत आचार्य अपने साथ नया कौपीन तथा बाह्य वस्त्र लेकर नाव से वहाँ आये। |
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श्लोक 31: अद्वैत आचार्य आकर महाप्रभु के समक्ष प्रस्तुत हुए और उन्हें नमस्कार किया। उन्हें देखकर महाप्रभु को सारी परिस्थिति के विषय में सन्देह होने लगा। |
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श्लोक 32: भावावेश में ही महाप्रभु ने अद्वैत आचार्य से पूछा, “आप यहाँ क्यों आये? आपको कैसे पता चला कि मैं वृन्दावन में हूँ?” |
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श्लोक 33: अद्वैत आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु से यह कहकर सारी स्थिति स्पष्ट कर दी, “आप जहाँ हैं, वहीं वृन्दावन है। यह तो मेरा परम सौभाग्य है कि आप गंगा नदी के तट पर आये हैं।” |
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श्लोक 34: तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “नित्यानन्द ने मुझे धोखा दिया है। वह मुझे गंगा के तट पर ले आये और मुझसे यह बतलाया है कि यह यमुना है।” |
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श्लोक 35: जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द पर धोखा देने का आरोप लगाया, तो श्रील अद्वैत आचार्य ने कहा, “नित्यानन्द प्रभु ने आपसे जो कुछ कहा है, वह झूठ नहीं है। आपने सचमुच अभी यमुना नदी में स्नान किया है।” |
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श्लोक 36: फिर अद्वैत आचार्य ने समझाया कि उस स्थान पर गंगा तथा यमुना दोनों साथ - साथ बहती हैं। पश्चिम की ओर यमुना है और पूर्व की ओर गंगा है। |
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श्लोक 37: फिर अद्वैत आचार्य ने प्रार्थना की कि यमुना नदी में स्नान करने के कारण चैतन्य महाप्रभु का कौपीन गीला हो गया है, अतएव उन्हें अपना कौपीन बदलकर सूखा वस्त्र पहन लेना चाहिए। |
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श्लोक 38: अद्वैत आचार्य ने कहा, “कृष्ण - प्रेम के भावावेश में आप तीन दिन से अनवरत उपवास करते आ रहे हैं, अतएव मैं आपको अपने घर पर भिक्षा ग्रहण करने के लिये आमन्त्रित करता हूँ। आप मेरे साथ मेरे घर चलें।” |
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श्लोक 39: अद्वैत आचार्य ने आगे कहा, “मैंने अपने घर में मुट्ठी - भर चावल पकाया है। तरकारियाँ भी अत्यन्त सादी हैं। कोई भी विलासप्रिय व्यंजन नहीं है - केवल थोड़ा सूप है और कुछ शाक है।” |
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श्लोक 40: यह कहकर श्री अद्वैत आचार्य उन्हें नाव में बैठाकर अपने घर ले आये। वहाँ पर अद्वैत आचार्य ने महाप्रभु के चरण प्रक्षालन किये और इस तरह भीतर - भीतर परम आनन्दित हुए। |
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श्लोक 41: सर्वप्रथम अद्वैत आचार्य की पत्नी ने सारे पकवान बनाये। तत्पश्चात् स्वयं श्रील अद्वैत आचार्य ने हर वस्तु भगवान् विष्णु को अर्पित की। |
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श्लोक 42: सारे पकाये गये भोग के तीन बराबर भाग किये गये। एक भाग भगवान् कृष्ण को अर्पित करने के लिए धातु की थाली पर परोसा गया। |
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श्लोक 43: तीन भागों में से एक भाग धातु की थाली पर रखा गया था और शेष दो भाग केले के पत्तों पर। ये पत्तियाँ बीच से विभाजित नहीं थीं और ऐसे केले के वृक्ष से ली गई थी, जिसमें कम - से - कम बत्तीस केले के गुच्छे लगे थे। इन दोनों पत्तों में निम्नलिखित व्यंजन सुन्दर ढंग से भरकर रखे गये थे। |
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श्लोक 44: प्रवीणता से पके चावल का ढेर अत्यन्त सुन्दर दाने वाला था और बीच में गाय के दूध से बनाया गया पीले रंग का घी था। चावल के ढेर के चारों ओर केले के पेड़ों की छाल से बने पात्र थे, जिनमें तरह तरह की तरकारियाँ तथा मूँग की दाल थी। |
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श्लोक 45: पकी तरकारियों में पटोला, सीताफल, मानकचु था तथा अदरक के टुकड़ों और विभिन्न प्रकार की पालक से बना सलाद था। |
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श्लोक 46: सभी प्रकार की तरकारियों के साथ सुख्त, करेला मिला था, जो अमृत के स्वाद को मात करने वाला था। कड़वे तथा चरपरे सुख्त पाँच प्रकार के थे। |
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श्लोक 47: विविध तरकारियों में नीम की ताजा मुलायम पत्तियों को बैंगन के साथ तला गया था। पटोल फल को फुलबड़ी (दाल से बनाया गया एक व्यंजन जिसे पहले मसला जाता है और फिर सुखाया जाता है) के साथ तला गया था। कुष्माण्ड - मानचाकि नामक व्यंजन भी था। |
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श्लोक 48: नारियल के गूदे, दही तथा मिश्री से बना व्यंजन अत्यन्त मीठा था। दूध में पकाये गये सीताफल और केले के फूलों की सब्जी प्रचुर मात्रा में थी। |
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श्लोक 49: मीठी तथा खट्टी चटनी में तैयार की गई छोटी टिक्कियाँ और पाँच - छः तरह के खट्टे व्यंजन थे। सारी तरकारियाँ इतनी बनाई गई थीं कि वहाँ पर उपस्थित सारे लोग प्रसाद - रूप में ग्रहण कर सकें। |
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श्लोक 50: मूँग की दाल के नर्म बड़े, पके केले से बने नर्म बड़े, उड़द की दाल से बने नर्म बड़े, तरह तरह की मिठाइयाँ, क्षीरपुली (चावल के बड़े खीर के साथ) , नारियल से बना व्यंजन तथा सभी प्रकार के बड़े थे। |
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श्लोक 51: सारी तरकारियाँ केले के ऐसे वृक्षों के पत्तों से बने दोनों में परोसी गई थीं, जिनमें कम - से - कम केले के बत्तीस गुच्छे लगे थे। ये दोने काफी मजबूत और बड़े थे और इधर - उधर हिलने - डुलने वाले नहीं थे, न ही तिरछे होने वाले थे। |
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श्लोक 52: भोजन करने के तीनों स्थानों के चारों ओर तरह तरह की तरकारियों से भरे एक सौ दोने थे। |
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श्लोक 53: सभी तरकारियों के चारों ओर घी से मिश्रित खीर रखी थी। इसे नये मिट्टी के बर्तनों में रखा गया था। अच्छी तरह से गाड़े उबले दूध से भरे मिट्टी के बर्तन तीनों स्थानों पर रखे गये थे। |
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श्लोक 54: अन्य व्यंजनों के अतिरिक्त दूध में बना तथा केले से मिला चिवड़ा तथा दूध में पकाया सफेद सीताफल था। वहाँ पर उपस्थित सभी व्यंजनों का वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है। |
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श्लोक 55: दो स्थानों पर दही, सन्देश (दही से बनी एक मिठाई) तथा केले से बना एक अन्य व्यंजन मिट्टी के पात्रों में भरकर रखा हुआ था। मैं उन सबका वर्णन कर पाने में असमर्थ हूँ। |
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श्लोक 56: पके चावल एवं सारी तरकारियों के ढेर के ऊपर तुलसी की मंजरियाँ थीं। सुगन्धित गुलाब - जल से भरे पात्र भी रखे गये थे। |
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श्लोक 57: तीनों आसनों पर मुलायम कपड़े बिछे थे। इस तरह भगवान् कृष्ण को सारी भोज्य सामग्री अर्पित की गई और उन्होंने इसे बड़े ही मन से ग्रहण किया। |
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श्लोक 58: भोग अर्पित करने के बाद भोग - आरती सम्पन्न करने की प्रथा है। अद्वैत प्रभु ने दोनों भाइयों - चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु को आरती देखने के लिए बुलाया। दोनों प्रभु तथा वहाँ उपस्थित सारे लोग आरती समारोह देखने गये। |
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श्लोक 59: मन्दिर में अर्चाविग्रहों की आरती हो चुकने के बाद कृष्ण को शयन कराया गया। तब अद्वैत आचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु से कुछ निवेदन करने के लिए आगे आये। |
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श्लोक 60: श्री अद्वैत प्रभु ने कहा, “हे प्रभु, कृपया इस कमरे में चलें।” तब श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु दोनों भाई प्रसाद ग्रहण करने के लिए आगे आये। |
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श्लोक 61: जब श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु प्रसाद लेने गये, तो उन्होंने मुकुन्द तथा हरिदास को अपने साथ चलने के लिए बुलाया। किन्तु मुकुन्द तथा हरिदास दोनों ने हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा। |
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श्लोक 62: बुलाये जाने पर मुकुन्द ने निवेदन किया, “हे प्रभु, मुझे कुछ काम करना शेष है। मैं बाद में प्रसाद ग्रहण करूँगा, अतएव आप दोनों प्रभु अब कमरे के भीतर जाएँ।” |
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श्लोक 63: हरिदास ठाकुर ने कहा, “मैं अत्यन्त पापी और अधम हूँ। मैं बाहर ही प्रतीक्षा करते हुए बाद में एक मुट्ठी प्रसाद खाऊँगा।” |
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श्लोक 64: अद्वैत आचार्य अपने साथ नित्यानन्द प्रभु तथा चैतन्य महाप्रभु को कमरे के भीतर ले गये, जहाँ दोनों प्रभुओं ने प्रसाद की व्यवस्था देखी। विशेषकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यधिक प्रसन्न हुए। |
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श्लोक 65: श्री चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण को अर्पित किये जाने वाले भोजन के पकाने की सारी विधियों का अनुमोदन किया। वे इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने कहा, “मैं हृदय से कहता हूँ कि जो कोई कृष्ण को इतना अच्छा भोजन अर्पित कर सकता है, उसके चरणकमलों को मैं जन्म - जन्मांतर अपने मस्तक पर धारण करने को प्रस्तुत हूँ।” |
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श्लोक 66: जब श्री चैतन्य महाप्रभु कमरे में प्रविष्ट हुए, तो उन्होंने भोजन के तीन भाग देखे और यह समझा कि ये तीनों कृष्ण के लिए हैं। किन्तु वे अद्वैत आचार्य के मनोभावों को नहीं समझ पाये। |
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श्लोक 67: श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “चलो, इन तीनों स्थानों में बैठकर हम प्रसाद ग्रहण करें। किन्तु अद्वैत आचार्य ने कहा, “मैं प्रसाद का वितरण करूँगा।” |
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श्लोक 68: श्री चैतन्य महाप्रभु ने सोचा कि तीनों थालियाँ वितरण करने के लिए हैं, अतएव उन्होंने यह कहते हुए और दो केले के पत्ते माँगे, “हमें थोड़ी तरकारी तथा चावल दें।” |
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श्लोक 69: अद्वैत आचार्य ने कहा, “कृपया इन आसनों पर बैठे।” उन्होंने उन दोनों के हाथ पकड़कर उन्हें बैठाया। |
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श्लोक 70: श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “संन्यासी के लिए इतनी तरह के व्यंजन ग्रहण करना उचित नहीं है। यदि वह ऐसा करता है, तो फिर वह अपनी इन्द्रियों को किस तरह वश में रख सकता है?” |
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श्लोक 71: जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने पहले से परोसे हुए उस भोजन को ग्रहण नहीं किया, तो अद्वैत आचार्य ने कहा “कृपया अपना छल त्यागिये। मैं जानता हूँ कि आप कौन हैं और मैं आपके द्वारा संन्यास लेने के रहस्य को भी जानता हूँ।” |
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श्लोक 72: अद्वैत आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रार्थना की कि वे वाक् - चातुरी त्यागकर भोजन करें। इस पर महाप्रभु ने उत्तर दिया, “मैं सचमुच इतना भोजन नहीं खा सकता।” |
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श्लोक 73: तब अद्वैत आचार्य ने महाप्रभु से अनुरोध किया कि वे बहाना छोड़कर प्रसाद ग्रहण करें। यदि वे पूरा नहीं खा सकते, तो शेष भाग थाली पर पड़ा रहने दें। |
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श्लोक 74: श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मैं इतना भोजन नहीं खा सकें गा और यह संन्यासी का धर्म नहीं है कि वह जूठन छोड़े।” |
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श्लोक 75: इस सन्दर्भ में श्री अद्वैत आचार्य ने चैतन्य महाप्रभु द्वारा जगन्नाथ पुरी में भोजन करने का उदाहरण दिया। भगवान जगन्नाथ और श्री चैतन्य महाप्रभु अभिन्न हैं। अद्वैत आचार्य ने बतलाया कि जगन्नाथ पुरी में श्री चैतन्य महाप्रभु प्रतिदिन चौवन बार खाते हैं और हर बार वे भोग के सैकड़ों पात्र ग्रहण करते हैं। |
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श्लोक 76: श्री अद्वैत आचार्य ने कहा, “तीन जन जितना खाते हैं वह आपके एक ग्रास के बराबर भी नहीं है। इस गणना के अनुसार ये खाद्य पदार्थ आपके पाँच ग्रास भी नहीं होंगे।” |
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श्लोक 77: अद्वैत आचार्य ने आगे कहा, “यह मेरा परम सौभाग्य है कि आप मेरे घर पधारे हैं। कृपया बातें मत बनाइये। बातें छोड़कर भोजन करना प्रारम्भ कीजिये।” |
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श्लोक 78: यह कहकर अद्वैत आचार्य ने दोनों प्रभुओं को हाथ धोने के लिए जल दिया। तत्पश्चात् दोनों प्रभु बैठ गये और हँसते हुए प्रसाद ग्रहण करने लगे। |
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श्लोक 79: नित्यानन्द प्रभु ने कहा, “मैं लगातार तीन दिनों से उपवास करता रहा हूँ। मुझे आशा थी कि आज मेरा उपवास टूटेगा।” |
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श्लोक 80: जहाँ श्री चैतन्य महाप्रभु सोच रहे थे कि भोजन की मात्रा अत्यधिक है, वहीं नित्यानन्द प्रभु ने सोचा कि वह तो एक ग्रास भी नहीं है। वे तीन दिन से उपवास कर रहे थे और उन्हें पूरी आशा थी कि आज वे अपना उपवास भंग करेंगे। उन्होंने कहा, “यद्यपि अद्वैत आचार्य ने मुझे आज खाने के लिए बुलाया है, किन्तु आज भी मेरा उपवास है। इतने थोड़े भोजन से तो मेरा आधा पेट भी नहीं भरेगा।” |
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श्लोक 81: अद्वैत आचार्य ने उत्तर दिया, “आप तो तीर्थों की यात्रा करने वाले संन्यासी ठहरे। कभी आप फल खाते हैं, तो कभी कन्दमूल और कभी केवल उपवास करते हैं। |
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श्लोक 82: “मैं तो दरिद्र ब्राह्मण हूँ और आप मेरे घर पधारे हैं। आपको जो थोड़ा - बहुत भोजन मिला है, इतने से सन्तुष्ट हों और अपनी लोभी मनोवृत्ति को छोड़ दें।” |
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श्लोक 83: नित्यानन्द प्रभु ने उत्तर दिया, “मैं जो भी होऊँ, आपने मुझे बुलाया है, अतएव आपको चाहिए कि मैं जितना खाना चाहूँ उतना दो।” |
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श्लोक 84: ठाकुर अद्वैत आचार्य को नित्यानन्द की विनोद - पूर्ण बातें सुनने के बाद अवसर मिला कि वे परिहास करें, अतः वे इस प्रकार बोले। |
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श्लोक 85: अद्वैत आचार्य ने कहा, “आप भ्रष्ट परमहंस हो और आपने मात्र पेट भरने के लिए संन्यास ग्रहण किया है। मैं समझ गया हूँ कि आपका पेशा है ब्राह्मणों को कष्ट पहुँचाना।” |
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श्लोक 86: नित्यानन्द प्रभु पर लांछन लगाते हुए अद्वैत आचार्य ने कहा, “आप तो दस - बीस मन चावल खा सकते हो। मैं तो ठहरा निर्धन ब्राह्मण। भला मैं इतना चावल कैसे ला सकता हूँ? |
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श्लोक 87: “जो कुछ आपको दिया है, भले ही वह मुट्ठी - भर चावल क्यों न हो, कृपया उसे खाओ और उठ जाओ। अपना पागलपन मत दिखलाओ और जूठन इधर - उधर मत बिखराओ।” |
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श्लोक 88: इस तरह नित्यानन्द प्रभु तथा चैतन्य महाप्रभु ने भोजन ग्रहण किया और अद्वैत आचार्य से परिहास किया। श्री चैतन्य महाप्रभु को जितनी तरकारियाँ परोसी गयी थीं, उन्होंने उनमें से हर एक को आधा - आधा खाकर छोड़ दिया। |
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श्लोक 89: जब पात्र की आधी तरकारी समाप्त हो जाती, तो अद्वैत आचार्य फिर से उसे पूरा भर देते। इस तरह ज्योंही महाप्रभु आधा व्यंजन समाप्त करते कि अद्वैत आचार्य पुनः पुनः उसे पूरा भर देते। |
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श्लोक 90: दोने को तरकारी से भरकर अद्वैत आचार्य ने उनसे प्रार्थना की कि वे और खायें। किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मैं और कितना खा सकता हूँ?” |
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श्लोक 91: अद्वैत आचार्य ने कहा, “कृपा करके मेरे द्वारा परोसे हुए अन्न को न छोड़े। अब मैं जो भी दे रहा हूँ, उसका आप आधा खाकर छोड़ सकते हैं।” |
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श्लोक 92: इस तरह विविध प्रकार से अनुनय - विनय करके अद्वैत आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु एवं नित्यानन्द प्रभु को भोजन कराया। इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु ने अद्वैत आचार्य की सारी इच्छाएँ पूरी कीं। |
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श्लोक 93: नित्यानन्द प्रभु ने पुनः परिहास में कहा, “मेरा पेट अब भी भरा नहीं है। अपना भोजन ले जाइये। मैंने इसमें से कुछ भी नहीं खाया है।” |
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श्लोक 94: यह कहकर नित्यानन्द प्रभु ने एक मुट्ठी चावल लिया और उसे फर्श पर उनके आगे फेंक दिया, मानों वे क्रुद्ध हों। |
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श्लोक 95: जब इस फेंके हुए चावलों के दो - चार दाने अद्वैत आचार्य के शरीर से लगे, तो वे उसी तरह चावल लगे शरीर से तरह - तरह से नाचने लगे। |
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श्लोक 96: जब नित्यानन्द प्रभु द्वारा फेंके गये चावलों का अद्वैत आचार्य के शरीर से स्पर्श हुआ, तो आचार्य ने परमहंस नित्यानन्द द्वारा फेंके गये उस उच्छिष्ट के स्पर्श से अपने आपको परम पवित्र बना समझा। अतः वे नाचने लगे। |
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श्लोक 97: अद्वैत आचार्य ने हँसी - हँसी में कहा, “हे प्रिय नित्यानन्द, मैंने आपको आमन्त्रित किया और उसका फल भी मुझे मिल चुका है। आपकी कोई जाति या कुल निश्चित नहीं है। आप स्वभाव से पागल हो।” |
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श्लोक 98: “आपने मुझे भी अपने समान पागल बनाने के लिए ही मेरे ऊपर उच्छिष्ट फेंका है। आपको इसका भी डर नहीं हुआ कि मैं एक ब्राह्मण हूँ।” |
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श्लोक 99: नित्यानन्द प्रभु ने उत्तर दिया, “यह भगवान् कृष्ण का उच्छिष्ट है। यदि आप इसे सामान्य जूठन समझते है, तो आपने अपराध किया है।” |
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श्लोक 100: श्रील नित्यानन्द प्रभु ने आगे कहा, “यदि आप एक सौ संन्यासियों को अपने घर बुलाकर उन्हें भरपेट भोजन कराएंगे, तो आपका अपराध खण्डित हो सकेगा।” |
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श्लोक 101: अद्वैत आचार्य ने उत्तर दिया, “अब मैं कभी किसी संन्यासी को नहीं बुलाऊँगा, क्योंकि एक संन्यासी ने ही मेरे सारे ब्राह्मण स्मृति - नियमों को कलुषित कर दिया है।” |
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श्लोक 102: इसके बाद अद्वैत आचार्य ने दोनों प्रभुओं के हाथ और मुँह धुलवाये। फिर उन्हें उत्तम शय्या पर ले जाकर विश्राम कराने के लिए लिटा दिया। |
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श्लोक 103: श्री अद्वैत आचार्य ने दोनों जनों को लौंग तथा इलायची के साथ तुलसी - मंजरी का सेवन करवाया। |
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श्लोक 104: श्री अद्वैत आचार्य ने दोनों प्रभुओं के शरीरों पर चन्दन का लेप किया और फिर उनके वक्षस्थलों पर अत्यन्त सुगन्धित फूलों की मालाएँ पहनाईं। |
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श्लोक 105: जब महाप्रभु शय्या पर लेट गये, तो अद्वैत आचार्य उनके पाँव दबाना चाहते थे, किन्तु महाप्रभु को संकोच हो रहा था, अतएव वे अद्वैत आचार्य से इस प्रकार बोले। |
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श्लोक 106: श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “अद्वैत आचार्य, आपने मुझे बहुत नाच नचाया। अब आप ऐसा करना छोड़ दीजिये। मुकुन्द और हरिदास के साथ जाकर भोजन करें।” |
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श्लोक 107: तत्पश्चात् अद्वैत आचार्य ने मुकुन्द तथा हरिदास के साथ प्रसाद ग्रहण किया और उन तीनों ने भरपेट इच्छानुसार भोजन किया। |
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श्लोक 108: जब शान्तिपुर के लोगों ने सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु वहाँ ठहरे हैं, तो वे तुरन्त ही उनके चरणकमलों का दर्शन करने आये। |
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श्लोक 109: सारे लोग अत्यन्त हर्षित होकर उच्च स्वर से भगवान् के पवित्र नाम - “हरि! हरि!” का उच्चारण करने लगे। वस्तुतः वे महाप्रभु का सौन्दर्य देखकर वे पूर्णतया आश्चर्यचकित हो गये। |
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श्लोक 110: उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त गौर वर्ण शरीर तथा उनकी उज्ज्वल कान्ति को देखा, जो सूर्य के तेज को भी परास्त करने वाली थी। इससे भी बढ़कर उनके केसरिया वस्त्रों का सौन्दर्य था, जो उनके शरीर पर झलमल कर रहे थे। |
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श्लोक 111: लोग बड़े ही हर्ष के साथ आते और जाते थे। इसकी कोई गिनती न थी कि सूर्यास्त तक वहाँ कितने लोग एकत्र हुए थे। |
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श्लोक 112: शाम होते ही अद्वैत आचार्य ने सामूहिक कीर्तन प्रारम्भ किया। वे स्वयं भी नृत्य करने लगे और महाप्रभु उनका नृत्य देखने लगे। |
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श्लोक 113: जब अद्वैत आचार्य नाचने लगे, तो नित्यानन्द प्रभु उनके पीछे पीछे नाचने लगे। हरिदास ठाकुर भी अत्यन्त हर्षित होकर उनके पीछे नाचने लगे। |
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श्लोक 114: अद्वैत आचार्य ने कहा, “हे सखियों! मैं क्या कहूँ? आज मुझे सर्वोच्च दिव्य आनन्द प्राप्त हुआ है। अनेकानेक दिनों के बाद भगवान् कृष्ण मेरे घर पधारे हैं।” |
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श्लोक 115: अद्वैत आचार्य संकीर्तन टोली का नेतृत्व कर रहे थे और उन्होंने इस श्लोक को बड़े हर्ष से गाया। उनके शरीर में भावमय स्वेद, कँपकँपी, रोमांच, अश्रु तथा कभी - कभी गर्जन और हुंकार का प्राकट्य हो रहा था। |
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श्लोक 116: नाचते हुए अद्वैत आचार्य चक्राकार घूमने लगते और श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लेते। |
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श्लोक 117: श्री अद्वैत आचार्य कहने लगे, “आप बहुत दिनों तक बहकाकर मुझसे बचते रहे। अब आप मेरे घर आये हैं और मैं आपको बाँधकर रखूँगा।” |
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श्लोक 118: इस तरह कहते हुए उस रात को अद्वैत आचार्य ने बड़े ही आनन्द के साथ तीन घंटे तक संकीर्तन किया और सारे समय नाचते रहे। |
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श्लोक 119: जब अद्वैत आचार्य इस प्रकार नृत्य कर रहे थे, तब चैतन्य महाप्रभु को कृष्ण के भावोल्लासमय प्रेम की अनुभूति हुई और उनके विरह के कारण प्रेम की लहरें और ज्वालाएँ तीव्रतर हो उठीं। |
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श्लोक 120: भावोल्लास से व्याकुल होकर श्री चैतन्य महाप्रभु सहसा भूमि पर गिर पड़े। यह देखकर अद्वैत आचार्य ने नृत्य करना बन्द कर दिया। |
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श्लोक 121: जब मुकुन्द ने श्री चैतन्य महाप्रभु के भावोल्लास को देखा, तो वे महाप्रभु की मनोदशा को समझते हुए उनके भाव को पुष्ट करने वाले अनेक पद गाने लगे। |
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श्लोक 122: अद्वैत आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु को उठाया जिससे वे नृत्य कर सकें, किन्तु मुकुन्द द्वारा गाये जाने वाले पदों को सुनकर महाप्रभु को उनके शारीरिक लक्षणों के कारण पकड़े नहीं रखे जा सके। |
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श्लोक 123: उनके नेत्रों से अश्रु गिरने लगे और उनका सारा शरीर काँपने लगा। उन्हें रोमांच हो आया, उनका शरीर स्वेदमय हो गया और उनकी वाणी अवरुद्ध हो गई। कभी वे उठ खड़े होते और कभी गिर पड़ते, तो कभी रोदन करने लगते। |
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श्लोक 124: मुकुन्द गाने लगे, “हे प्राण प्रिय सखि! मेरे साथ क्या - क्या नहीं बीता! कृष्ण के प्रेमरूपी विष के प्रभाव से मेरा शरीर तथा मन दोनों अत्यन्त पीड़ित हैं। |
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श्लोक 125: “मेरी भावना इस प्रकार है: मेरा मन दिन - रात जलता है और मुझे तनिक भी आराम नहीं मिलता। |
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श्लोक 126: मुकुन्द ने इस पद को अत्यन्त मधुर स्वर में गाया, किन्तु ज्योंही श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह पद सुना, उनका हृदय विदीर्ण हो गया। |
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श्लोक 127: दिव्य भावों के सारे लक्षण यथा निराशा, खिन्नता, हर्ष, चपलता, गर्व तथा दीनता महाप्रभु के हृदय में सैनिकों की तरह लड़ने लगे। |
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श्लोक 128: श्री चैतन्य महाप्रभु का सारा शरीर विविध भाव - लक्षणों के प्रहार से जर्जर होने लगा। फलस्वरूप वे तुरन्त ही भूमि पर गिर गये और उनकी साँस रुक - सी गई। |
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श्लोक 129: महाप्रभु की यह दशा देखकर सारे भक्त अत्यन्त चिन्तित हो उठे। तभी महाप्रभु सहसा उठ खड़े हुए और गर्जना करने लगे। |
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श्लोक 130: महाप्रभु ने उठकर कहा, “बोलते रहो! बोलते रहो!” इस तरह वे आनन्द - विभोर होकर नाचने लगे। |
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श्लोक 131: नित्यानन्द प्रभु श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ - साथ चलने लगे, जिससे वे गिरे नहीं और अद्वैत आचार्य तथा हरिदास ठाकुर नाचते हुए उनके पीछे - पीछे चलने लगे। |
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श्लोक 132: इस तरह महाप्रभु कम - से - कम तीन घंटे नृत्य करते रहे। कभी - कभी उनमें हर्ष, विषाद तथा अन्य भावों की अनेक तरंगे दृष्टिगोचर होती थीं। |
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श्लोक 133: महाप्रभु तीन दिनों से उपवास कर रहे थे और उसके बाद उन्होंने पर्याप्त भोजन किया था। अतएव जब वे नाचे और ऊँचा कूदे, तो उन्हें थोड़ी थकान हो आई। |
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श्लोक 134: किन्तु भगवत् प्रेम में पूर्णतः मग्न होने के कारण महाप्रभु थकान का अनुभव नहीं कर रहे थे। फिर भी नित्यानन्द प्रभु ने उन्हें पकड़ लिया और उन्हें नाचने से रोका। |
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श्लोक 135: यद्यपि महाप्रभु थके हुए थे, किन्तु नित्यानन्द प्रभु ने उन्हें पकड़कर शान्त किया। उस समय अद्वैत आचार्य ने कीर्तन समाप्त कर दिया और तरह - तरह की सेवाएँ करके महाप्रभु को विश्राम हेतु शयन करवाया। |
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श्लोक 136: अद्वैत आचार्य ने इस प्रकार लगातार दस दिनों तक शाम के समय भोज और कीर्तन का आयोजन किया। वे बिना किसी परिवर्तन के महाप्रभु की इस तरह सेवा करते रहे। |
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श्लोक 137: प्रातःकाल चन्द्रशेखर शचीमाता को उनके घर से पालकी में बैठाकर अनेक भक्तों समेत ले आये। |
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श्लोक 138: इस प्रकार नदिया नगर के सारे लोग – जिसमें स्त्रियाँ, बालक तथा वृद्ध सम्मिलित थे - वहाँ आये। इस तरह वहाँ विशाल भीड़ एकत्र हो गई। |
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श्लोक 139: प्रातःकाल शौच आदि दैनिक कृत्यों से निवृत्त होने के बाद जब महाप्रभु हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन कर रहे थे, तभी शचीमाता के साथ लोग अद्वैत आचार्य के घर पहुँचे। |
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श्लोक 140: ज्योंही शचीमाता वहाँ पहुँचीं, तो चैतन्य महाप्रभु उनके चरणों में दण्ड के समान गिर पड़े। शचीमाता महाप्रभु को गोद में लेकर रोने लगीं। |
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श्लोक 141: एक - दूसरे को देखकर दोनों विह्वल हो उठे। महाप्रभु के शिर को केशविहीन देखकर शचीमाता अत्यन्त विक्षुब्ध हो उठीं। |
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श्लोक 142: स्नेहवश वे महाप्रभु के शरीर पर हाथ फेरने लगीं। कभी वे मुख चूमतीं और ध्यान से उन्हें देखने का प्रयत्न करतीं, किन्तु अश्रुपूरित नेत्र होने के कारण वे देख न सकीं। |
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श्लोक 143: यह समझकर कि चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास ग्रहण कर लिया है, शचीमाता ने रोते हुए महाप्रभु से कहा, “मेरे दुलारे निमाइ! तुम अपने बड़े भाई विश्वरूप की तरह निष्ठुर न बनो।” |
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श्लोक 144: शचीमाता ने कहा, “विश्वरूप ने संन्यास लेने के बाद फिर मुझे कभी दर्शन नहीं दिया। यदि तुम उसी की तरह करोगे, तो तुम समझ लो कि निश्चित रूप से मेरी मृत्यु हो जायेगी।” |
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श्लोक 145: महाप्रभु ने उत्तर दिया, “हे माता! कृपया सुनिये। यह शरीर आपका है। मेरा अपना कुछ भी नहीं है।” |
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श्लोक 146: यह शरीर आपके द्वारा पाला - पोसा गया है और यह आपसे ही उत्पन्न है। मैं करोड़ों जन्मों में भी यह ऋण नहीं चुका सकता। |
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श्लोक 147: “जाने या अनजाने मैंने यह संन्यास स्वीकार किया है। फिर भी मैं आपसे कभी विमुख नहीं होऊँगा।” |
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श्लोक 148: “हे माता, आप मुझे जहाँ भी रहने के लिए कहेंगी, मैं वहीं रहूँगा और आप जो भी आज्ञा देंगी, उसका मैं पालन करूँगा।” |
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श्लोक 149: यह कहकर महाप्रभु ने अपनी माता को बारम्बार प्रणाम किया। शचीमाता ने भी उनसे प्रसन्न होकर उन्हें बारम्बार अपनी गोद में लिया। |
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श्लोक 150: तत्पश्चात् अद्वैत आचार्य शचीमाता को घर के भीतर ले गये। महाप्रभु तुरन्त ही सारे भक्तों से मिलने के लिए तैयार हो गये। |
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श्लोक 151: महाप्रभु एक - एक करके सारे भक्तों से मिले और हर एक के मुख को देखकर उन्होंने उसका दृढ़तापूर्वक आलिंगन किया। |
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श्लोक 152: यद्यपि भक्तगण महाप्रभु के बालों को न देखकर दुःखी थे, फिर भी उनके सौन्दर्य को देखकर परम सुख प्राप्त कर रहे थे। |
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श्लोक 153-155: श्रीवास, रामाइ, विद्यानिधि, गदाधर, गंगादास, वक्रेश्वर, मुरारि, शुक्लाम्बर, बुद्धिमन्त खां, नन्दन, श्रीधर, विजय, वासुदेव, दामोदर, मुकुन्द, संजय तथा अन्य जितने भी नाम मैं गिना सकें - सभी नवद्वीप के निवासी वहाँ आये और महाप्रभु सब पर कृपा दृष्टि डालते हुए तथा मुस्कुराते हुए उनसे मिले। |
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श्लोक 156: हर कोई पवित्र हरिनाम का कीर्तन करते हुए नाच रहा था। इस तरह अद्वैत आचार्य का निवासस्थान श्री वैकुण्ठपुरी में बदल गया था। |
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श्लोक 157: नवद्वीप के अतिरिक्त आसपास के अन्य विभिन्न गाँवों के भी लोग श्री चैतन्य महाप्रभु के दर्शन हेतु आये। |
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श्लोक 158: अद्वैत आचार्य ने महाप्रभु का दर्शन करने के लिए निकट के गाँवों से आये हर व्यक्ति को, विशेषतया नवद्वीप के निवासियों को कई दिनों तक रहने के लिए स्थान और सभी प्रकार की खाद्य सामग्री प्रदान की। |
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श्लोक 159: अद्वैत आचार्य का भण्डार अक्षय तथा अटूट था। वे जितनी भी सामग्री का उपयोग करते, उतनी ही सामग्री फिर से प्रकट हो आती। |
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श्लोक 160: जिस दिन से शचीमाता अद्वैत आचार्य के घर आईं, वे ही भोजन पकाती थीं और श्री चैतन्य महाप्रभु सारे भक्तों के साथ भोजन करते थे। |
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श्लोक 161: दिन में जितने सारे लोग वहाँ आते थे, वे श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करते थे और अद्वैत आचार्य के प्रेमपूर्ण व्यवहार को देखते थे। रात्रि में उन्हें महाप्रभु का नृत्य देखने और उनका कीर्तन सुनने का अवसर प्राप्त होता था। |
|
श्लोक 162: कीर्तन करते समय महाप्रभु में सभी प्रकार के दिव्य लक्षण प्रकट हो जाते थे। वे स्तम्भित एवं कम्पित लगते, उन्हें रोमांच हो जाता और उनकी वाणी अवरुद्ध हो जाती। आंसुओं के साथ प्रलय प्रकट हो जाती। |
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श्लोक 163: महाप्रभु रह - रहकर पछाड़ खाकर भूमि पर गिर पड़ते थे। यह देखकर उनकी माता शची रोने लगतीं। |
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श्लोक 164: श्रीमती शचीमाता ने सोचा कि इस तरह भूमि पर गिरने से निमाइ का शरीर चूर - चूर हो रहा होगा, अतएव वे चित्कार कर उठीं, “हाय” और फिर भगवान् विष्णु से वर माँगने लगीं। |
|
श्लोक 165: “हे प्रभु, मैंने अपने बचपन से लेकर आज तक आपकी जो भी सेवा की है, उसके बदले में कृपा करके मुझे यह वर दें।” |
|
श्लोक 166: “जब - जब निमाइ धरती पर गिरे, तब - तब उसे पीड़ा का अनुभव न हो।” |
|
श्लोक 167: इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रति वात्सल्य - प्रेम से अभिभूत होने पर शचीमाता हर्ष, भय तथा दीनता से विह्वल और साथ ही शारीरिक भाव - लक्षणों से युक्त हो गईं। |
|
श्लोक 168: चूँकि अद्वैत आचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु को भिक्षा तथा भोजन देते थे, अतएव श्रीवास ठाकुर आदि अन्य भक्त भी उन्हें भिक्षा देने और भोजन के लिए आमन्त्रित करना चाह रहे थे। |
|
श्लोक 169: महाप्रभु के अन्य भक्तों द्वारा ऐसे प्रस्तावों को सुनकर शचीमाता ने भक्तों से कहा, “अब मुझे निमाइ के दर्शन पाने के कि तने अवसर हाथ लगेंगे?” |
|
श्लोक 170: शचीमाता ने निवेदन किया, “जहाँ तक आप लोगों की बात है, आप निमाइ अर्थात् श्री चैतन्य महाप्रभु से अन्यत्र भी अनेक बार मिल सकते हो, किन्तु मेरे लिए उससे दोबारा मिलने की क्या सम्भावना है? मुझे तो घर पर रहना होगा। संन्यासी कभी अपने घर वापस नहीं आता।” |
|
श्लोक 171: शचीमाता ने सभी भक्तों से यह दान माँगा, “जब तक श्री चैतन्य महाप्रभु अद्वैत आचार्य के घर में रहें, केवल वे ही उन्हें भोजन प्रदान करेंगी। |
|
श्लोक 172: शचीमाता का यह निवेदन सुनकर सारे भक्तों ने उन्हें नमस्कार करते हुए कहा, “हम सभी लोग शचीमाता की इच्छा से सहमत हैं।” |
|
श्लोक 173: जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी माता की महान् उत्सुकता देखी, तो वे कुछ विचलित हुए। अतएव उन्होंने वहाँ उपस्थित सारे भक्तों को एकत्र किया और उनसे बोले। |
|
श्लोक 174: श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबको बतलाया, “मैं आप लोगों की आज्ञा लिये बिना वृन्दावन जाना चाह रहा था। किन्तु कुछ बाधा उत्पन्न हुई और मुझे लौटना पड़ा।” |
|
श्लोक 175: “हे मित्रों, यद्यपि मैंने अचानक ही यह संन्यास ग्रहण कर लिया है, किन्तु मैं जानता हूँ कि तब भी मैं आप लोगों से कभी उदासीन नहीं होऊँगा।” |
|
श्लोक 176: मेरे प्रिय मित्रों, जब तक मैं जीवित रहूँगा, आप लोगों को कभी नहीं छोड़ूँगा। न ही मैं अपनी माता को छोड़ पाऊँगा। |
|
श्लोक 177: संन्यास स्वीकार करने के बाद संन्यासी का यह धर्म नहीं होता कि वह अपने जन्मस्थान में रहे और अपने कुटुम्बियों से घिरा रहे। |
|
श्लोक 178: “अतएव कुछ ऐसा प्रबन्ध करो, जिससे मैं आप लोगों को न छोड़ें और लोग मुझ पर संन्यास लेने के बाद सम्बन्धियों के साथ रहने का लांछन भी न लगा सकें।” |
|
श्लोक 179: महाप्रभु के वचन सुनकर अद्वैत आचार्य आदि सारे भक्त शचीमाता के पास गये। |
|
श्लोक 180: जब उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के वचन कहे, तो अखिल विश्व की माता शची कहने लगीं। |
|
श्लोक 181: शचीमाता ने कहा, “यह मेरे लिए परम सुख की बात होगी यदि निमाइ (श्री चैतन्य महाप्रभु) यहाँ रहता है। किन्तु यदि कोई उसकी निन्दा करे तो यह मेरे लिए अत्यन्त दुःख की बात होगी।” |
|
श्लोक 182: शचीमाता ने कहा, “यह अच्छा विचार है। मेरे विचार से यदि निमाइ जगन्नाथ पुरी में रहे, तो वह हममें से किसी को छोड़ेगा भी नहीं और उसी के साथ - साथ वह संन्यासी के रूप में अलग भी रह सकता है। |
|
श्लोक 183: “चूँकि जगन्नाथ पुरी और नवद्वीप का निकट सम्बन्ध है - मानों एक ही घर के दो कमरे हों - इसलिए नवद्वीप के लोग सामान्यतः जगन्नाथ पुरी जाते रहते हैं और जगन्नाथ पुरी के लोग नवद्वीप आते रहते हैं। इस आने - जाने से चैतन्य महाप्रभु के समाचार मिलने में सुविधा होगी। इस तरह मुझे उसके समाचार मिलते रहेंगे।” |
|
श्लोक 184: “तुम सारे भक्त आ - जा सकोगे और कभी - कभी वह भी गंगा - स्नान करने के लिए आ सकता है।” |
|
श्लोक 185: “मुझे अपने सुख या दुःख की चिन्ता नहीं है, चिन्ता केवल उसके सुख की है। मैं उसके सुख को ही अपना सुख मानती हूँ।” |
|
श्लोक 186: शचीमाता के वचन सुनकर सारे भक्तों ने उनकी स्तुति की और उन्हें विश्वास दिलाया कि उनका आदेश वेदों के आदेश के समान है, जिसका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। |
|
श्लोक 187: सारे भक्तों ने चैतन्य महाप्रभु को शचीमाता के निर्णय की सूचना दी। यह सुनकर महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए। |
|
श्लोक 188: श्री चैतन्य महाप्रभु ने नवद्वीप तथा अन्य नगरों से आये सभी भक्तों का सम्मान किया और उनसे इस प्रकार कहा : |
|
श्लोक 189: “मेरे प्रिय मित्रों, आप सभी मेरे घनिष्ठ मित्र हो। अब मैं आप सबसे एक भिक्षा माँगता हूँ। कृपा करके मुझे यह भिक्षा दें।” |
|
श्लोक 190: श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबसे प्रार्थना की कि वे घर लौट जाएँ और वहाँ सामूहिक नाम - कीर्तन प्रारम्भ कर दें। उन्होंने यह भी प्रार्थना की कि वे कृष्ण की पूजा करें, उनके पवित्र नाम का कीर्तन करें तथा उनकी पवित्र लीलाओं की चर्चा करें। |
|
श्लोक 191: भक्तों को इस प्रकार उपदेश देने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी जाने की अनुमति चाही। |
|
श्लोक 192: इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने सभी भक्तों का सम्मान करते हुए और सौम्यता से मुस्कुराते हुए सबको विदा किया। |
|
श्लोक 193: सभी भक्तों से घर लौट जाने की विनती करने के बाद महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी जाने का निश्चय किया। उस समय हरिदास ठाकुर क्रन्दन करते हुए करुण वचन बोले। |
|
श्लोक 194: हरिदास ठाकुर ने कहा, “यह तो ठीक है कि आप नीलाचल (जगन्नाथ पुरी) जा रहे हैं, किन्तु मेरी क्या गति होगी? मैं तो नीलाचल जाने में असमर्थ हूँ।” |
|
श्लोक 195: “अत्यन्त नीच व्यक्ति होने के कारण मैं आपके दर्शन नहीं पा सकें गा। मैं अपने पापमय जीवन को किस तरह धारण किये रहूँगा?” |
|
श्लोक 196: महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर से कहा, “कृपया आप अपनी दीनता को नियंत्रित कीजिये। आपकी दीनता देखकर मेरा मन अत्यधिक व्याकुल हो रहा है।” |
|
श्लोक 197: “श्री चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर को आश्वस्त किया कि वे भगवान् जगन्नाथ के समक्ष निवेदन करेंगे और निश्चय ही उन्हें जगन्नाथ पुरी ले चलेंगे।” |
|
श्लोक 198: इसके बाद अद्वैत आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु से अनुनय - विनय की कि वे दो - चार दिन और रहने की कृपा करें। |
|
श्लोक 199: श्री चैतन्य महाप्रभु कभी भी अद्वैत आचार्य की प्रार्थना का उल्लंघन नहीं करते थे ; अतएव वे उनके घर पर रुके रहे और उन्होंने जगन्नाथ पुरी के लिए तुरन्त प्रस्थान नहीं किया। |
|
श्लोक 200: महाप्रभु के निर्णय से अद्वैत आचार्य, शचीमाता तथा सारे भक्त अत्यन्त प्रसन्न हुए। अद्वैत आचार्य प्रतिदिन महान् उत्सवों का आयोजन करते रहे। |
|
श्लोक 201: दिन के समय सारे भक्त कृष्ण - कथाओं की चर्चा करते और रात में अद्वैत आचार्य के घर सामूहिक कीर्तन महोत्सव मनाया जाता। |
|
श्लोक 202: माता शची बड़े आनन्द से भोजन पकातीं और भक्तों सहित श्री चैतन्य महाप्रभु बड़े ही आनन्द के साथ प्रसाद ग्रहण करते। |
|
श्लोक 203: इस तरह अद्वैत आचार्य के सारे ऐश्वर्य - उनकी श्रद्धा, भक्ति, घर, धन और अन्य सब कुछ - श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा में भलीभाँति उपयोग किये गये। |
|
श्लोक 204: शचीमाता का आनन्द निरन्तर अपने पुत्र का मुख देखकर तथा भोजन कराकर बढ़ता रहा तथा अतन्तः पूर्णता को प्राप्त हुआ। |
|
श्लोक 205: इस तरह सारे भक्त अद्वैत आचार्य के घर पर मिले और उन्होंने महोत्सवमय वातावरण में एक साथ कुछ दिन बिताये। |
|
श्लोक 206: अगले दिन चैतन्य महाप्रभु ने सभी भक्तों से अपने - अपने घर लौट जाने की विनती की। |
|
श्लोक 207: श्री चैतन्य महाप्रभु ने सबसे अपने - अपने घरों में भगवन्नाम का सामूहिक संकीर्तन करने के लिए भी कहा और उन्होंने विश्वास दिलाया कि वे उनसे दोबारा अवश्य मिल सकेंगे। |
|
श्लोक 208: श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे कहा, “कभी तुम लोग जगन्नाथ पुरी आओगे और कभी मैं गंगा - स्नान करने आऊँगा।” |
|
श्लोक 209-210: श्री अद्वैत आचार्य ने महाप्रभु के साथ जाने के लिए चार जनों को भेजा। इनके नाम थे — नित्यानन्द गोसांई, जगदानन्द पण्डित, दामोदर पंडित तथा मुकुन्द दत्त। अपनी माता को सान्त्वना देने के बाद महाप्रभु ने उनके चरणकमलों में प्रार्थना की। |
|
श्लोक 211: सभी प्रबंध होने के बाद चैतन्य महाप्रभु ने अपनी माता की प्रदक्षिणा की और तत्पश्चात् वे जगन्नाथ पुरी के लिए चल पड़े। इधर अद्वैत आचार्य के घर में उच्च स्वर से रोदन प्रारम्भ हो गया। |
|
श्लोक 212: श्री चैतन्य महाप्रभु अप्रभावित थे। वे तेजी से चल दिये और अद्वैत आचार्य रोते हुए उनके पीछे चल रहे थे। |
|
श्लोक 213: जब अद्वैत आचार्य चैतन्य महाप्रभु के पीछे - पीछे कुछ दूर तक गये, तो महाप्रभु ने हाथ जोड़कर उनसे याचना की। वे निम्नलिखित मधुर शब्द बोले। |
|
श्लोक 214: श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “कृपया सारे भक्तों को तथा मेरी माता को सान्त्वना दीजिये। यदि आप ही व्यग्र हो जायेंगे, तो फिर कोई जीवित नहीं रह सकेगा।” |
|
श्लोक 215: यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने अद्वैत आचार्य का आलिंगन किया और उन्हें और आगे चलने से मना किया। फिर निश्चित होकर वे जगन्नाथ पुरी के लिए चल पड़े। |
|
श्लोक 216: महाप्रभु चारों व्यक्तियों के साथ गंगा नदी के किनारे - किनारे छत्रभोग के मार्ग से नीलाद्रि अर्थात् जगन्नाथ पुरी की ओर चलने लगे। |
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श्लोक 217: वृन्दावन दास ठाकुर ने अपनी पुस्तक चैतन्य - मंगल (चैतन्य भागवत) में जगन्नाथ पुरी तक महाप्रभु के गमन का विस्तार से वर्णन किया है। |
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श्लोक 218: जो व्यक्ति अद्वैत आचार्य के घर में सम्पन्न महाप्रभु के कार्यकलापों को सुनता है, उसे निश्चय ही तुरन्त कृष्ण - प्रेम रूपी धन प्राप्त होता है। |
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श्लोक 219: श्री रूप और श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए और सदा उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं, कृष्णदास, उनके चरणचिह्नों पर चलकर श्री चैतन्य - चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ। |
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