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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  मध्य लीला  »  अध्याय 5: साक्षीगोपाल की लीलाएँ  » 
 
 
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपनी पुस्तक अमृत-प्रवाह-भाष्य में पाँचवे अध्याय का सारांश इस प्रकार दिया है। याजपुर होते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु कटक नगर पहुँचे, जहाँ वे साक्षीगोपाल का मन्दिर देखने गये। वहाँ पर उन्होंने श्री नित्यानन्द प्रभु के मुख से साक्षीगोपाल की कथा सुनी। एक बार विद्यानगर नामक स्थान में दो ब्राह्मण रहते थे , जिनमें से एक वृद्ध था और दूसरा नवयुवक। दोनों ब्राह्मण अनेक तीर्थस्थलों की यात्रा करते हुए अन्त में वृन्दावन पहुँचे। वृद्ध ब्राह्मण उस तरुण ब्राह्मण की सेवा से अत्यन्त प्रसन्न था ; अतएव वह अपनी सबसे छोटी पुत्री का विवाह उसके साथ करना चाहता था। वृद्ध ब्राह्मण ने वृन्दावन के गोपाल-विग्रह के समक्ष तरुण ब्राह्मण को विवाह का वचन दिया। इस तरह गोपाल -विग्रह साक्षी रूप हुए। जब दोनों ब्राह्मण विद्यानगर लौटे , तो तरुण ब्राह्मण ने इस विवाह की बात उठाई , किन्तु वृद्ध ब्राह्मण ने अपने मित्रों तथा पत्नी के प्रभाव में आकर कहा कि उसे अपना वचन याद नहीं है। फलतः तरुण ब्राह्मण वृन्दावन लौट आया और उसने पूरी कहानी गोपालजी से कह सुनाई। इस तरह गोपालजी उस युवक की भक्ति से वशीभूत होकर उसके साथ दक्षिण भारत गये। गोपालजी तरुण ब्राह्मण के पीछे -पीछे जा रहे थे औ र वह तरुण ब्राह्मण उनके सुंघरुओं की रुनझुन- ध्वनि सुनता जा रहा था। जब विद्यानगर के सारे प्रतिष्ठित व्यक्ति एकत्र हो गये, तो गोपालजी ने वृद्ध ब्राह्मण के वचन की पुष्टि की। इस तरह विवाह सम्पन्न हो गया। बाद में उस देश के राजा ने गोपाल जी के लिए एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण करवाया। इसके बाद कटक के राजा ने उड़ीसा के राजा पुरुषोत्तम देव का अपमान किया, क्योंकि उसने अपनी पुत्री का विवाह उससे करने से मना कर दिया और उसे भगवान जगन्नाथ का झाडू लगाने वाला कहा। फलतः राजा पुरुषोत्तम ने भगवान जगन्नाथ की सहायता से कटक के राजा से लड़ाई की और उसे हरा दिया। इस तरह उसने राजा की पुत्री तथा कटक का राज्य दोनों का भार संभाला। उस समय गोपालजी को राजा पुरुषोत्तम देव की भक्ति के वशीभूत होने के कारण कटक नगर ले आये गये। यह कथा सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवत्प्रेम के भावावेश में गोपाल-मन्दिर में दर्शन किये। कटक से चलकर वे भुवनेश्वर गये और वहाँ शिवजी का मन्दिर देखा। धीरे -धीरे वे कमलपुर पहुँचे और भार्गी नदी के तट पर वे शिवजी के मन्दिर आये , जहाँ उन्होंने अपना संन्यास-दण्ड नित्यानन्द प्रभु को दे दिया। किन्तु नित्यानन्द प्रभु ने उस दण्ड के तीन खण्ड करके उसे आठारनाला नामक स्थान में भार्गी नदी में फेंक दिया। अपना दण्ड पुनः प्राप्त न होने से कृद्ध होकर श्री चैतन्य महाप्रभु नित्यानन्द प्रभु का साथ छोड़कर अकेले ही जगन्नाथ मन्दिर का दर्शन करने चले गये।
 
 
श्लोक 1:  मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् (ब्रह्मण्य - देव) को सादर नमस्कार करता हूँ, जो एक ब्राह्मण पर उपकार करने के लिए साक्षीगोपाल के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने 100 दिनों तक देश की पैदल यात्रा की।
 
श्लोक 2:  श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत प्रभु की जय हो और श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो!
 
श्लोक 3:  चलते चलते श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी टोली सहित वैतरणी नदी के तट पर स्थित याजपुर गाँव आये। वहाँ उन्होंने वराहदेव का मन्दिर देखा और उन्हें नमस्कार किया।
 
श्लोक 4:  वराह देव के मन्दिर में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तन तथा नृत्य किया और प्रार्थनाएँ की। वह रात्रि उन्होंने मन्दिर में ही बिताई।
 
श्लोक 5:  इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु कटक नामक नगर में साक्षीगोपाल का मन्दिर देखने गये। गोपाल विग्रह के सौन्दर्य को देखकर वे अत्यन्त प्रफुल्लित हुए।
 
श्लोक 6:  वहाँ पर श्री चैतन्य महाप्रभु कुछ समय तक कीर्तन तथा नृत्य करते रहे और भावाभिभूत होकर उन्होंने गोपाल की अनेक प्रकार से स्तुति की।
 
श्लोक 7:  उस रात श्री चैतन्य महाप्रभु गोपाल के मन्दिर में रहे और सभी भक्तों सहित उन्होंने साक्षीगोपाल की कथा अत्यन्त उत्साहपूर्वक सुनी।
 
श्लोक 8:  इसके पूर्व जब नित्यानन्द प्रभु ने विभिन्न तीर्थस्थलों का दर्शन करने के लिए पूरे भारत का भ्रमण किया था, तो वे कटक स्थित साक्षीगोपाल का दर्शन करने भी आये थे।
 
श्लोक 9:  उस समय नित्यानन्द प्रभु ने साक्षीगोपाल की कथा उस नगर के लोगों से सुनी थी। अब उन्होंने वही कथा फिर सुनाई और चैतन्य महाप्रभु ने उस कथा को अत्यन्त सुखपूर्वक सुना।
 
श्लोक 10:  प्राचीनकाल में दक्षिण भारत में विद्यानगर में दो ब्राह्मण थे, जिन्होंने विभिन्न तीर्थस्थानों के दर्शनार्थ लम्बी यात्रा की।
 
श्लोक 11:  सर्वप्रथम वे गया गये, फिर काशी और तब प्रयाग। अन्त में वे अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक मथुरा आये।
 
श्लोक 12:  मथुरा पहुँचकर उन्होंने वृन्दावन के विभिन्न वनों का दर्शन करना प्रारम्भ किया। तब वे गोवर्धन पर्वत आये। उन्होंने सारे बारहों वनों के दर्शन किये और अन्त में वृन्दावन नगरी पहुँचे।
 
श्लोक 13:  पंचक्रोशी वृन्दावन ग्राम में, जहाँ अब गोविन्द मन्दिर स्थित है, पहले एक विशाल मन्दिर था जहाँ गोपाल की भव्य सेवा की जाती थी।
 
श्लोक 14:  यमुना नदी के किनारे स्थित विभिन्न घाटों में, यथा केशीघाट तथा कालिय घाट में, स्नान करने के बाद वे दोनों यात्री गोपाल - मन्दिर में दर्शन करने गये। इसके बाद उन्होंने उस मन्दिर में विश्राम किया।
 
श्लोक 15:  गोपाल - विग्रह के सौन्दर्य ने उनके मनों को हर लिया और परम सुख का अनुभव करते हुए वे दोनों दो - चार दिन वहाँ रुके रहे।
 
श्लोक 16:  दोनों ब्राह्मणों में एक वृद्ध था और दूसरा तरुण। यह तरुण व्यक्ति वृद्ध ब्राह्मण की सहायता कर रहा था।
 
श्लोक 17:  निस्सन्देह तरुण ब्राह्मण वृद्ध की सतत सेवा करता था और वह वृद्ध ब्राह्मण उसकी सेवा से सन्तुष्ट होने के कारण उससे प्रसन्न था।
 
श्लोक 18:  बूढ़े व्यक्ति ने उस तरुण से कहा, “तुमने तरह - तरह से मेरी सेवा की है और इन सारे तीर्थस्थानों की यात्रा करने में मेरी सहायता की है।”
 
श्लोक 19:  “मेरा पुत्र भी ऐसी सेवा नहीं करता। तुम्हारी दया से मुझे यात्रा में कोई थकान नहीं हुई।”
 
श्लोक 20:  “यदि मैं तुम्हारा आदर न करूँ, तो मैं कृतघ्न माना जाऊँगा। अतएव मैं वचन देता हूँ कि मैं तुम्हें अपनी कन्या दान में दूँगा।”
 
श्लोक 21:  तरुण ब्राह्मण ने कहा, “हे भद्र ब्राह्मण, कृपया मेरी बात सुनें। आप कुछ असम्भव बात कर रहे हैं।
 
श्लोक 22:  “आप उच्च कुल के व्यक्ति हैं, सुशिक्षित हैं और अत्यन्त धनी हैं। और मैं न तो उच्च कुल का हूँ, न ही मेरे पास उत्तम शिक्षा है, न ही धन है।”
 
श्लोक 23:  “हे महोदय, मैं आपकी कन्या के उपयुक्त वर नहीं हूँ। मैं तो केवल कृष्ण की तुष्टि के लिए आपकी सेवा कर रहा हूँ।”
 
श्लोक 24:  “भगवान् कृष्ण ब्राह्मणों की सेवा करने से अत्यन्त प्रसन्न होते हैं और जब भगवान् प्रसन्न होते हैं, तो भक्ति संपदा बढ़ती है।”
 
श्लोक 25:  उस वृद्ध ब्राह्मण ने कहा, “बेटे, तुम मुझ पर सन्देह मत करो। मैं तुम्हें कन्यादान दूँगा। मैंने पहले ही यह निश्चय कर लिया है।”
 
श्लोक 26:  तरुण ब्राह्मण बोला, “आपके पत्नी तथा पुत्र हैं तथा आपके अनेक परिजन तथा मित्र हैं।”
 
श्लोक 27:  “अपने सारे मित्रों तथा परिजनों की सम्मति के बिना आप अपनी कन्या का दान मुझे नहीं दे सकते।
 
श्लोक 28:  “राजा भीष्मक अपनी कन्या रुक्मिणी का दान कृष्ण को करना चाहते थे, किन्तु उनके बड़े पुत्र रुक्मी ने विरोध किया। अतएव वे अपना निर्णय पूरा नहीं कर सके।”
 
श्लोक 29:  वृद्ध ब्राह्मण ने कहा, “मेरी पुत्री मेरी निजी सम्पत्ति है। यदि मैं किसी को अपनी सम्पत्ति देना चाहूँ, तो किसमें शक्ति है कि मुझे रोक सके?”
 
श्लोक 30:  “प्रिय बालक, मैं तुम्हें अपनी कन्या दान करूँगा और मैं अन्यों की चिन्ता नहीं करूँगा। तुम इसमें मुझ पर सन्देह मत करो। तुम मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लो।”
 
श्लोक 31:  तरुण ब्राह्मण ने उत्तर दिया, “यदि आपने अपनी तरुण कन्या मुझे देने का निश्चय कर लिया है, तो गोपाल - विग्रह के सामने चलकर ऐसा कहें।”
 
श्लोक 32:  उस वृद्ध ब्राह्मण ने गोपाल के समक्ष आकर कहा, “हे प्रभु, आप साक्षी हैं कि मैंने अपनी कन्या इस लड़के को दे दी है।”
 
श्लोक 33:  तब तरुण ब्राह्मण ने विग्रह को सम्बोधित करते हुए कहा, “हे प्रभु, आप मेरे साक्षी हैं। यदि बाद में जरूरत पड़ी, तो मैं आपको साक्षी के रूप में बुलाऊँगा।”
 
श्लोक 34:  इस वार्तालाप के बाद दोनों ब्राह्मण घर के लिए चल पड़े। पहले की ही तरह तरुण ब्राह्मण उस वृद्ध ब्राह्मण के साथ चला, मानो वृद्ध ब्राह्मण उसका गुरु हो और वह उसकी तरह - तरह से सेवा करता रहा।
 
श्लोक 35:  विद्यानगर लौटकर दोनों ब्राह्मण अपने - अपने घर चले गये। कुछ समय बाद वृद्ध ब्राह्मण को चिन्ता सताने लगी।
 
श्लोक 36:  वह सोचने लगा, “मैंने तीर्थस्थान में एक ब्राह्मण को वचन दिया है। और मेरे वचन का अवश्य पालन होना चाहिए। अब मुझे अपनी स्त्री, पुत्रों, अन्य सम्बन्धियों तथा मित्रों को यह बात बता देनी चाहिए।”
 
श्लोक 37:  फलतः उस वृद्ध ब्राह्मण ने एक दिन अपने सारे सम्बन्धियों तथा मित्रों की सभा बुलाई और उसने उन सबको गोपाल के समक्ष हुई पूरी घटना बताई।
 
श्लोक 38:  जब परिवार वालों ने वृद्ध ब्राह्मण का वृत्तान्त सुना, तो वे निराशा प्रकट करते हुए हाहाकार करने लगे। उन सबने यही अनुरोध किया कि वह फिर ऐसा प्रस्ताव न रखे।
 
श्लोक 39:  सबने एक स्वर से कहा, “यदि तुम अपनी कन्या निम्न परिवार में देते हो, तो तुम्हारी कुलीनता जाती रहेगी। जब लोग इसे सुनेंगे, तो वे तुम्हारा उपहास करेंगे।”
 
श्लोक 40:  वृद्ध ब्राह्मण ने कहा, “तीर्थयात्रा के समय पवित्र स्थान में दिया गया वचन मैं कैसे मिटा सकता हूँ? चाहे जो भी हो, मुझे उसे ही कन्यादान करना चाहिए।”
 
श्लोक 41:  सम्बन्धियों ने एकजुट होकर कहा, “यदि तुम अपनी कन्या उस लड़के को दोगे, तो हम तुमसे अपने सारे सम्बन्ध तोड़ देंगे।” उसकी स्त्री तथा पुत्रों ने घोषित किया, “यदि ऐसा होता है, तो हम सभी विष खाकर मर जायेंगे।”
 
श्लोक 42:  वृद्ध ब्राह्मण ने कहा, “यदि मैं अपनी कन्या उस तरुण ब्राह्मण को नहीं देता, तो वह श्री गोपालजी को साक्षी के रूप में बुलायेगा। इस तरह वह मेरी कन्या को बलपूर्वक ले जायेगा और उस दशा में मेरा धर्म नष्ट हो जायेगा।”
 
श्लोक 43:  उसके पुत्र ने उत्तर दिया, “भले ही विग्रह साक्षी हों किन्तु वे दूर देश में हैं। भला वे आपके विरुद्ध साक्षी देने किस तरह आ सकते हैं? आप इसके विषय में इतने चिन्तित क्यों हैं?”
 
श्लोक 44:  “आपको एकदम यह नहीं कहना है कि आपने ऐसी बात नहीं कही थी। ऐसी झूठी बात कहने की आवश्यकता नहीं है। आप केवल इतना ही कहिये कि आपको स्मरण नहीं है कि आपने क्या कहा था।”
 
श्लोक 45:  “यदि आप केवल इतना ही कहें, “मुझे स्मरण नहीं है, तो बाकी मैं निपट लूँगा। मैं तकर् द्वारा उस तरुण ब्राह्मण को हरा दूँगा।”
 
श्लोक 46:  जब वृद्ध ब्राह्मण ने यह सुना, तो उसका मन क्षुब्ध हो उठा। असहाय अवस्था में उसने अपना ध्यान गोपाल के चरणकमलों पर एकाग्र किया।
 
श्लोक 47:  वृद्ध ब्राह्मण ने विनती की, “हे प्रभु गोपाल! मैंने आप के चरणकमलों की शरण ली है, अतएव मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि मेरे धर्म की रक्षा करें और साथ ही मेरे आत्मीय जनों को मरने से बचायें।”
 
श्लोक 48:  अगले दिन जब वह ब्राह्मण इस बारे में गम्भीरतापूर्वक विचार कर रहा था, तभी वह तरुण ब्राह्मण उसके घर आया।
 
श्लोक 49:  तरुण ब्राह्मण ने उसके पास आकर सादर प्रणाम किया। फिर अत्यन्त विनीत भाव से हाथ जोड़कर वह इस प्रकार बोला।
 
श्लोक 50:  “आपने मुझे अपनी कन्या दान करने का वचन दिया है। किन्तु अब आप कुछ नहीं बोल रहे हैं।
 
श्लोक 51:  तरुण ब्राह्मण द्वारा ऐसा कहे जाने पर वृद्ध ब्राह्मण मौन रहा। इस अवसर का लाभ उठाकर वृद्ध ब्राह्मण का पुत्र उस तरुण ब्राह्मण को मारने के लिए लाठी लेकर तुरन्त बाहर निकल आया।
 
श्लोक 52:  पुत्र ने कहा, “अरे नीच! तू मेरी बहन के साथ इस प्रकार विवाह करना चाहता है, जैसे कोई बौना व्यक्ति चाँद को पकड़ना चाहता हो!”
 
श्लोक 53:  उसके हाथ में लाठी देखकर बेचारा तरुण ब्राह्मण भाग गया। किन्तु अगले दिन उसने गाँव के सारे लोगों को एकत्र किया।
 
श्लोक 54:  तब गाँव के सभी लोगों ने वृद्ध ब्राह्मण को सभा - स्थल पर बुलाया। तत्पश्चात् तरुण ब्राह्मण ने उनके समक्ष कहना शुरू किया।
 
श्लोक 55:  “इन महाशय ने अपनी कन्या मुझे देने का वचन दिया था, किन्तु अब ये अपना वचन नहीं निभा रहे हैं। कृपया इनसे इनके इस व्यवहार के विषय में पूछे।”
 
श्लोक 56:  वहाँ पर एकत्रित सभी लोगों ने वृद्ध ब्राह्मण से पूछा, “यदि पहले आप कन्यादान का वचन दे चुके हैं तो अपना वादा पूरा क्यों नहीं कर रहे हैं? आपने वचन दे रखा है।”
 
श्लोक 57:  वृद्ध ब्राह्मण ने कहा, “हे मित्रों, कृपया मेरा निवेदन सुनें। मुझे ठीक से स्मरण नहीं है कि मैंने ऐसा कोई वचन दिया था।”
 
श्लोक 58:  जब वृद्ध ब्राह्मण के पुत्र ने यह सुना, तो उसे शब्दों को तोड़ने - मरोड़ने का अवसर मिल गया। वह सभा के समक्ष अत्यन्त धृष्टतापूर्वक खड़ा हो गया और इस प्रकार बोला।
 
श्लोक 59:  “जगह - जगह की तीर्थयात्रा करते समय मेरे पिता अपने साथ प्रचुर धन ले गये थे। इस धूर्त ने उस धन को ले लेने की ठान ली।”
 
श्लोक 60:  “मेरे पिता के साथ इसके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं था। इस धूर्त ने मेरे पिता को धतूरा खिलाकर पागल बना दिया।”
 
श्लोक 61:  “इस धूर्त ने मेरे पिता का सारा धन लेकर यह कह दिया कि उसे कोई चोर ले गया। अब वह यह दावा कर रहा है कि मेरे पिता ने उसे अपनी कन्या दान करने का वचन दिया है।”
 
श्लोक 62:  “यहाँ पर एकत्र आप सभी लोग सजन हैं। कृपया यह विचार करें क्या इस दरिद्र ब्राह्मण को मेरे पिता का कन्यादान उचित होगा?”
 
श्लोक 63:  ये सब तर्क सुनकर वहाँ पर एकत्र सारे लोग कुछ कुछ शंकित हो गये। उन्होंने सोचा कि यह सम्भव है कि धन के लोभ से कोई अपना धर्म छोड़ दे।
 
श्लोक 64:  उस समय तरुण ब्राह्मण ने कहा, “हे सज्जनों, कृपया मेरी बात सुनें। तकर् में जीतने के लिए ही यह व्यक्ति झूठ बोल रहा है।”
 
श्लोक 65:  मेरी सेवा से अत्यधिक सन्तुष्ट होकर इस ब्राह्मण ने स्वेच्छा से मुझसे कहा कि, ‘मैं तुम्हें अपनी कन्या दान करने का वचन देता हूँ।’
 
श्लोक 66:  उस समय मैंने इनसे यह कहते हुए ऐसा करने से मना किया, “हे ब्राह्मण - श्रेष्ठ, मैं आपकी पुत्री के लिए योग्य वर नहीं हैं।”
 
श्लोक 67:  “कहाँ आप पंडित, धनी और उच्च कुली के व्यक्ति! कहाँ मैं एक गरीब, अशिक्षित तथा कुलहीन व्यक्ति।”
 
श्लोक 68:  “फिर भी इस ब्राह्मण ने हठ किया। इन्होंने बारम्बार मुझसे यह कहते हुए प्रस्ताव स्वीकार करने को कहा, ‘मैंने तुम्हें अपनी कन्या दे दी। तुम उसे स्वीकार करो।”
 
श्लोक 69:  “तब मैंने कहा, ‘कृपया मेरी बात सुनिये। आप विद्वान ब्राह्मण हैं। आपकी पत्नी, आपके मित्र तथा सम्बन्धी इस प्रस्ताव से कभी भी सहमत नहीं होंगे।”
 
श्लोक 70:  “मान्यवर, आप अपना वचन निभा नहीं पायेंगे। अतः आपका वचन भंग होगा।” फिर भी ये ब्राह्मण अपने वचन पर बारम्बार बल देते रहे।
 
श्लोक 71:  “मैंने तुम्हें कन्यादान दिया है। संकोच मत करो। वह मेरी पुत्री है और मैं उसे तुम्हें दूँगा। भला मुझे कौन मना कर सकता है?”
 
श्लोक 72:  “उस समय मैंने अपना मन दृढ़ किया और ब्राह्मण से विनती की कि वे गोपाल - विग्रह के समक्ष वचन दें।”
 
श्लोक 73:  “तब इस महाशय ने गोपाल - विग्रह के समक्ष कहा, ‘हे प्रभु, आप साक्षी हैं। मैंने अपनी कन्या इस ब्राह्मण को दान दे दी है।”
 
श्लोक 74:  “तब मैंने गोपाल - विग्रह को अपना साक्षी बनाकर उनके चरणकमलों में इस प्रकार निवेदन किया।”
 
श्लोक 75:  “यदि बाद में ये ब्राह्मण अपनी कन्या मुझे देने में संकोच करेंगे, तो मैं आपको साक्षी के रूप में बुलाऊँगा। कृपया इसे सावधान होकर सुनें।”
 
श्लोक 76:  “इस तरह इस घटना में मैंने एक महापुरुष का आवाहन किया है। मैंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को मेरा साक्षी बनने को कहा है। भगवान् के वचनों को तीनों लोक सत्य मानते हैं।”
 
श्लोक 77-78:  इस अवसर का लाभ उठाते हुए वृद्ध ब्राह्मण ने तुरन्त पुष्टि की कि यह वास्तव में सच है। उसने कहा, “यदि स्वयं गोपाल साक्षी के रूप मेंयहाँ तक चलकर आयें, तो मैं इस तरुण ब्राह्मण को अपनी कन्या दान दे दूँगा।” उस वृद्ध ब्राह्मण के पुत्र ने तुरन्त ही यह कहकर पुष्टि की, “हाँ, यह बहुत ही उत्तम प्रस्ताव है।”
 
श्लोक 79:  उस वृद्ध ब्राह्मण ने सोचा, “चूँकि भगवान् कृष्ण अत्यन्त दयालु हैं, वे निश्चय ही मेरे कथन को प्रमाणित करने हेतु आयेंगे।”
 
श्लोक 80:  नास्तिक पुत्र ने सोचा, “गोपाल के लिए यह सम्भव नहीं कि वे आकर साक्षी दें।” ऐसा सोचकर पिता तथा पुत्र दोनों सहमत हो गये।
 
श्लोक 81:  तरुण विप्र ने अवसर पाकर कहा, “कृपया यह बात एक कागज पर स्पष्ट रूप से लिख दें, जिससे फिर आप अपने वचनों को बदल न सकें।”
 
श्लोक 82:  वहाँ पर एकत्र सारे लोगों ने यह बात कागज पर स्पष्ट रूप से अंकित करा दी और उन दोनों के हस्ताक्षर लेकर वे मध्यस्थ बन गये।
 
श्लोक 83:  तब तरुण ब्राह्मण ने कहा, “यहाँ पर एकत्र सारे लोग कृपया मेरी बात सुनेंगे? यह वृद्ध ब्राह्मण निस्सन्देह सत्यवादी हैं और धर्म का पालन करने वाले हैं।”
 
श्लोक 84:  “वे अपना वचन भंग करना नहीं चाहते थे, किन्तु इस भय से कि उसके सम्बन्धी आत्महत्या न कर लें, सत्य के पथ से विचलित हो गये।”
 
श्लोक 85:  “मैं इस ब्राह्मण के पुण्य के बल पर भगवान् को साक्षी के रूप में बुलाऊँगा और इसके सत्य वचन की रक्षा करूँगा।”
 
श्लोक 86:  उस तरुण विप्र के ऐसे दृढ़ वचन सुनकर उस सभा में उपस्थित कुछ। नास्तिक उसका उपहास करने लगे। किन्तु किसी एक ने कहा, “अन्ततः ईश्वर दयालु हैं और चाहें तो आ सकते हैं।”
 
श्लोक 87:  सभा समाप्त होने पर वह तरुण ब्राह्मण वृन्दावन के लिए चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर सर्वप्रथम उसने विग्रह को सादर दंडवत् प्रणाम किया और फिर विस्तार से सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
 
श्लोक 88:  उसने कहा, “हे प्रभु, आप ब्राह्मण संस्कृति के रक्षक हैं और आप अत्यन्त दयावान भी हैं। अतएव आप हम दोनों ब्राह्मणों के धर्म की रक्षा करके अपनी परम दया प्रदर्शित करें।”
 
श्लोक 89:  “हे प्रभु, मैं उसकी कन्या को पत्नी रूप में पाकर सुखी बनने की बात नहीं सोच रहा। मैं तो यह सोच रहा हूँ कि उस ब्राह्मण ने अपना वचन तोड़ा है - यही बात मुझे अत्यधिक पीड़ा पहुँचा रही है।”
 
श्लोक 90:  उस तरुण ब्राह्मण ने आगे कहा, “हे प्रभु, आप अत्यन्त कृपालु तथा सर्वज्ञ हैं। अतएव कृपया इस मामले में साक्षी बनें। जो व्यक्ति सही बातें जानते हुए भी साक्षी नहीं बनता, वह पापकर्म का भागी होता है।”
 
श्लोक 91:  कृष्ण ने उत्तर दिया, “हे ब्राह्मण, तुम अपने घर लौट जाओ और वहाँ सारे लोगों को बुलाकर एक सभा करो। उस सभा में तुम मेरा स्मरण मात्र करना।”
 
श्लोक 92:  “मैं वहाँ निश्चित रूप से प्रकट होऊँगा और उस समय मैं दिए हुए वचन का साक्षी बनकर तुम दोनों के सम्मान की रक्षा करूँगा।”
 
श्लोक 93:  तरुण ब्राह्मण ने उत्तर दिया, “हे प्रभु, भले ही आप चतुर्भुज विष्णु - रूप में क्यों न प्रकट हों, तब भी उन लोगों में से कोई भी आपके वाक्यों पर विश्वास नहीं करेगा।”
 
श्लोक 94:  “किन्तु यदि आप इसी गोपाल - रूप में वहाँ चलें और अपने श्रीमुख से कहें, तभी आपकी साक्षी सभी लोगों द्वारा सुनी जायेगी।”
 
श्लोक 95:  भगवान् कृष्ण ने कहा, “मैंने आज तक किसी विग्रह को एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलकर जाते नहीं सुना।” ब्राह्मण ने कहा, “यह सत्य है, किन्तु यह कैसे सम्भव हो रहा है कि आप विग्रह होकर भी मुझसे बातें कर रहे हैं।”
 
श्लोक 96:  “हे प्रभु, आप मूर्ति नहीं हैं, आप तो साक्षात् महाराज नन्द के पुत्र हैं। आप उस वृद्ध ब्राह्मण के लिए आप ऐसा कुछ कर सकते हैं, जो आपने अभी तक न किया हो।”
 
श्लोक 97:  श्री गोपाल ने मुस्कराते हुए कहा, “हे प्रिय ब्राह्मण, मेरी बात सुनो। मैं तुम्हारे पीछे - पीछे च लूँगा और इस तरह तुम्हारे साथ चलूँगा।”
 
श्लोक 98:  भगवान् ने कहा, “तुम मुझे मुड़कर देखने का प्रयत्न मत करना। अन्यथा तुम ज्योंहीं मेरी ओर देखोगे, मैं उसी स्थान पर स्थिर हो जाऊँगा।”
 
श्लोक 99:  “तुम मेरे नुपुर की ध्वनि से जानोगे कि मैं तुम्हारे पीछे - पीछे चल रहा है।”
 
श्लोक 100:  “प्रतिदिन एक किलो चावल पकाकर मुझे अर्पित करना। मैं उसी चावल को खाऊँगा और तुम्हारे पीछे - पीछे च लूँगा।”
 
श्लोक 101:  अगले दिन ब्राह्मण ने गोपाल से आज्ञा माँगी और वह अपने देश के लिए चल पड़ा। गोपाल भी उसके पीछे - पीछे चल पड़े।
 
श्लोक 102:  जब गोपाल उस तरुण ब्राह्मण के पीछे चल रहे थे, तो उनके नुपुरों की रूनझुन ध्वनि सुनाई पड़ने लगी। वह ब्राह्मण अत्यधिक प्रसन्न हुआ और उसने उत्तम चावल गोपाल के भोग के लिए पकाया।
 
श्लोक 103:  इस प्रकार यह तरुण ब्राह्मण चलता रहा, जब तक कि वह अपने देश में नहीं पहुँच गया। जब वह अपने गाँव के निकट पहुँचा, तो वह इस प्रकार सोचने लगा।
 
श्लोक 104:  “अब मैं अपने गाँव पहुँच चुका हूँ और अपने घर जाकर सभी लोगों को बतलाऊँगा कि साक्षी आ गया है।”
 
श्लोक 105:  उस ब्राह्मण ने सोचा कि यदि गाँव वाले गोपाल - विग्रह का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं करेंगे, तो उन्हें विश्वास नहीं होगा कि गोपाल आ गये हैं। उसने सोचा, “किन्तु यदि गोपाल यहीं पर ही रह जाएँ, तो भी डर की कोई बात नहीं है।”
 
श्लोक 106:  यह सोचकर वह देखने के लिए पीछे मुड़ा और उसने देखा कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् गोपाल मुसकाते हुए वहाँ खड़े थे।
 
श्लोक 107:  भगवान् ने ब्राह्मण से कहा, “अब तुम घर जा सकते हो। मैं यहीं रुकुँगा और कहीं नहीं जाऊँगा।”
 
श्लोक 108:  तब उस ब्राह्मण ने अपने गाँव जाकर सबको गोपाल के आगमन की जानकारी दी। यह सुनकर सारे लोग आश्चर्यचकित हो उठे।
 
श्लोक 109:  गाँव के सारे वासी साक्षीगोपाल को देखने गये और जब उन्होंने सचमुच भगवान् को खड़े देखे, तो सबने उन्हें सादर दंडवत् प्रणाम किया।
 
श्लोक 110:  लोग गोपाल की सुन्दरता देखकर अत्यधिक प्रसन्न थे और जब उन लोगों ने यह सुना कि वे सचमुच चलकर आये हैं, तो उन सबके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
 
श्लोक 111:  तब वह वृद्ध ब्राह्मण भी परम आनन्दित होकर गोपाल के सम्मुख आया और तुरन्त ही दण्ड के समान पृथ्वी पर गिर पड़ा।
 
श्लोक 112:  इस तरह गाँव - भर के निवासियों के समक्ष गोपाल इसके साक्षी बने कि उस वृद्ध ब्राह्मण ने तरुण ब्राह्मण को अपनी कन्या दान में दी थी।
 
श्लोक 113:  विवाह सम्पन्न हो जाने के बाद भगवान् ने उन दोनों ब्राह्मणों को बतलाया, “तुम दोनों ब्राह्मण जन्म - जन्मांतर से मेरे सनातन दास हो।”
 
श्लोक 114:  भगवान् ने कहा, “मैं तुम दोनों की सच्चाई से अतीव प्रसन्न हुआ हूँ। अब तुम वर माँग सकते हो।”
 
श्लोक 115:  उन ब्राह्मणों ने कहा, “कृपा करके आप यहीं रहें, जिससे सारे संसार के लोग जान सकें कि आप अपने सेवकों पर कितने कृपालु हैं।”
 
श्लोक 116:  भगवान् गोपाल वहीं रहने लगे और दोनों ब्राह्मण उनकी सेवा में लग गये। यह घटना सुनकर विभिन्न देशों से अनेक लोग गोपाल का दर्शन करने के लिए आने लगे।
 
श्लोक 117:  अन्त में उस देश के राजा ने यह आश्चर्यजनक कथा सुनी, तो वह भी गोपाल का दर्शन करने के लिए आया और अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ।
 
श्लोक 118:  उस राजा ने एक सुन्दर मन्दिर बनवा दिया और नियमित सेवा प्रारम्भ करवाई। गोपाल साक्षीगोपाल के नाम से अत्यन्त विख्यात हो गये।
 
श्लोक 119:  इस प्रकार साक्षीगोपाल ने विद्यानगर में रहकर दीर्घकाल तक सेवा स्वीकार की।
 
श्लोक 120:  बाद में युद्ध हुआ जिसमें उड़ीसा के राजा पुरुषोत्तम देव ने इस देश को जीत लिया।
 
श्लोक 121:  उस राजा ने विद्यानगर के राजा को हरा दिया और उसके माणिक्य सिंहासन’ नामक सिंहासन को अपने अधिकार में कर लिया, जिसमें अनेक रत्न जड़े हुए थे।
 
श्लोक 122:  उस राजा का नाम पुरुषोत्तम देव था। वह महान् भक्त था और आर्य सभ्यता में अग्रसर था। उसने गोपाल के चरणकमलों पर याचना की, “कृपा करके मेरे राज्य में च लें।”
 
श्लोक 123:  जब राजा ने गोपाल से अपने राज्य में चलने के लिए प्रार्थना की, तो गोपाल ने उसकी भक्ति के वश में होकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। इस तरह गोपाल - विग्रह को वह राजा अपने साथ लेकर कटक लौट गया।
 
श्लोक 124:  माणिक्य सिंहासन को जीतकर राजा पुरुषोत्तम देव उसे जगन्नाथ पुरी ले आया और उसने उसे जगन्नाथ भगवान् को समर्पित कर दिया। इस बीच उसने कटक में गोपाल की नियमित पूजा भी स्थापित की।
 
श्लोक 125:  जब गोपाल - विग्रह की स्थापना कटक में हो गई, तो पुरुषोत्तम देव की रानी उनका दर्शन करने गईं और उसने अत्यन्त भक्ति के साथ अनेक प्रकार के आभूषण भेंट किये।
 
श्लोक 126:  रानी ने अपनी नाक में अति मूल्यवान मोती पहन रखा था, जिसे वह गोपाल को भेंट करना चाह रही थी। तब वह इस प्रकार सोचने लगी।
 
श्लोक 127:  “यदि विग्रह की नाक में छेद होता, तो मैं अपना मोती उन्हें पहना सकती थी।”
 
श्लोक 128:  यह विचार करके रानी ने गोपाल को नमस्कार किया और वह अपने महल लौट आई। उस रात उसने सपना देखा कि गोपाल प्रकट हुए हैं। और उससे कह रहे हैं।
 
श्लोक 129:  “बचपन में मेरी माता ने मेरी नाक में छेद करके उसमें बड़े यत्न से एक मोती पहनाया था।”
 
श्लोक 130:  “वह छेद अब भी है। चाहो तो तुम इस छेद का प्रयोग उस मोती को पहनाने के लिए कर सकती हो जिसे तुम मुझे देना चाहती थी।”
 
श्लोक 131:  यह सपना देखने के बाद रानी ने अपने राजा पति से इसकी चर्चा की। तब राजा तथा रानी दोनों ही वह मोती लेकर मन्दिर में गये।
 
श्लोक 132:  विग्रह की नाक में छेद देखकर उन्होंने वह मोती वहाँ पहना दिया और अत्यधिक प्रसन्न होकर उन्होंने विशाल उत्सव का आयोजन किया।
 
श्लोक 133:  तभी से गोपाल कटक नगर में विराजमान हैं और तभी से वे साक्षीगोपाल नाम से विख्यात हैं।
 
श्लोक 134:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोपाल की लीलाओं को सुना। इससे वे तथा उनके भक्त अत्यन्त सन्तुष्ट हुए।
 
श्लोक 135:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु गोपाल - विग्रह के समक्ष बैठे हुए थे, तो सारे भक्तों ने उन्हें तथा विग्रह को एकरूप देखा।
 
श्लोक 136:  दोनों एक ही वर्ण के तथा एक जैसे विराट शरीर वाले थे। दोनों ने केसरिया वस्त्र पहन रखा था और दोनों ही गम्भीर थे।
 
श्लोक 137:  भक्तों ने देखा कि चैतन्य महाप्रभु तथा गोपाल दोनों ही दीप्तिमान तेज से युक्त थे और दोनों के नेत्र कमल जैसे थे। दोनों ही भाव में मग्न थे और उनके मुखमण्डल पूर्णचन्द्रमा सदृश थे।
 
श्लोक 138:  जब श्री नित्यानन्द ने श्री चैतन्य महाप्रभु तथा गोपाल - विग्रह दोनों को इस तरह देखा, तो वे भक्तों से परिहास करने लगे जो सबके सब मुस्कुरा रहे थे।
 
श्लोक 139:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने मन्दिर में वह रात बड़े ही आनन्द से बिताई। प्रातःकालीन मंगल आरती देखने के बाद उन्होंने अपनी यात्रा आरम्भ की।
 
श्लोक 140:  श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने (अपनी पुस्तक चैतन्य भागवत में) श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा भुवनेश्वर जाते समय देखे गये स्थानों का विस्तार से वर्णन किया है।
 
श्लोक 141:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु कमलपुर पहुँचे, तो उन्होंने भार्गीनदी में स्नान किया। स्नानार्थ जाते समय वे अपना संन्यास - दंड नित्यानन्द प्रभु को देते गये।
 
श्लोक 142-143:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु कपोतेश्वर नामक शिव - मन्दिर में गये, तब नित्यानन्द प्रभु ने अपने पास रखे उनके संन्यास - दण्ड के तीन खण्ड करके भार्गीनदी में फेंक दिया। बाद में यह नदी दण्ड - भांगा - नदी कहलाने लगी।
 
श्लोक 144:  दूर से ही जगन्नाथ के मन्दिर को देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु तुरन्त भावाविष्ट हो गये। मन्दिर को दंडवत् प्रणाम करने के बाद वे प्रेमावेश में नृत्य करने लगे।
 
श्लोक 145:  श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ साथ सारे भक्त भी भावाविष्ट हो गये और इस तरह भगवत्प्रेम में मग्न होकर वे मुख्य मार्ग पर जाते हुए नाचने तथा गाने लगे।
 
श्लोक 146:  श्री चैतन्य महाप्रभु हँसते, रोदन करते, नाचते तथा भाव में आकर हुँकार कर रहे थे। यद्यपि मन्दिर केवल छह मील दूरी पर था, किन्तु उन्हें यह दूरी हजारों मील लगी।
 
श्लोक 147:  इस तरह चलते - चलते महाप्रभु आठारनाला नामक स्थान पर पहुँचे। वहाँ आकर उन्होंने श्री नित्यानन्द प्रभु से बातें करते हुए अपनी बाह्य चेतना व्यक्त की।
 
श्लोक 148:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु को बाह्य चेतना आई, तो उन्होंने श्री नित्यानन्द प्रभु से कहा, “मेरा दण्ड लौटा दो।” तब नित्यानन्द प्रभु ने उत्तर दिया, “उसके तो तीन खण्ड हो गये हैं।”
 
श्लोक 149:  नित्यानन्द प्रभु ने कहा, “जब आप भावावेश में गिरे, तो मैंने आपको पकड़ा, किन्तु हम दोनों ही उस दण्ड पर गिर पड़े।”
 
श्लोक 150:  “इस तरह वह दण्ड हम लोगों के भार से टूट गया। मैं नहीं जानता कि उसके टुकड़े कहाँ गये।”
 
श्लोक 151:  “आपका दण्ड निश्चित रूप से मेरे अपराध के कारण टूटा है। अब आप जो उचित समझे, मुझे दण्ड दें।”
 
श्लोक 152:  जिस तरह से उनका दण्ड टूटा था, उसकी कहानी सुनकर महाप्रभु ने थोड़ा दुःख प्रकट किया और कुछ क्रोध में आकर वे इस प्रकार बोले।
 
श्लोक 153:  चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “आप लोगों ने मुझे नीलाचल लाकर मुझ पर उपकार किया है। किन्तु वह दण्ड मेरा एकमात्र धन था, जिसे आप लोग संभालकर नहीं रख पाये।”
 
श्लोक 154:  “अतएव आप सारे लोग या तो मुझसे पहले या मेरे बाद भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करने जाओ। मैं आप लोगों के साथ नहीं जाऊँगा।”
 
श्लोक 155:  मुकुन्द दत्त ने श्री चैतन्य महाप्रभु से कहा, “हे प्रभु, आप आगे - आगे चलें और अन्यों को पीछे - पीछे चलने की अनुमति दें। हम आपके साथ - साथ नहीं जायेंगे।”
 
श्लोक 156:  तब श्री चैतन्य महाप्रभु अन्य सभी भक्तों के आगे - आगे शीघ्रता से चलने लगे। कोई भी दोनों प्रभुओं - चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु - के वास्तविक उद्देश्य को नहीं समझ सका।
 
श्लोक 157:  भक्तगण यह नहीं समझ पाये कि नित्यानन्द प्रभु ने दण्ड क्यों तोड़ा, महाप्रभु ने उन्हें ऐसा क्यों करने दिया और ऐसा करने देने के बाद अब महाप्रभु क्रुद्ध क्यों हो गये।
 
श्लोक 158:  दण्डभंग लीला अत्यन्त गम्भीर है। इसे वही समझ सकता है, जिसकी दोनों प्रभुओं के चरणकमलों पर दृढ़ भक्ति हो।
 
श्लोक 159:  ब्राह्मणों पर कृपालु रहने वाले भगवान् गोपाल की महिमा अपार है। साक्षीगोपाल की यह कथा नित्यानन्द प्रभु द्वारा सुनाई गई और इसके श्रोता थे श्री चैतन्य महाप्रभु।
 
श्लोक 160:  जो व्यक्ति श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक गोपाल के इस आख्यान को सुनता है, उसे शीघ्र ही गोपाल के चरणकमल प्राप्त होते हैं।
 
श्लोक 161:  श्री रूप और श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा उनकी कृपा की सदैव कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्री चैतन्य - चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
 
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