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श्रीचैतन्य चरितामृत  »  मध्य लीला  »  अध्याय 7: महाप्रभु द्वारा दक्षिण भारत की यात्रा  » 
 
 
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने अमृत-प्रवाह-भाष्य में सातवें अध्याय का सारांश इस प्रकार दिया है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने माघ मास (जनवरी फरवरी) में संन्यास ग्रहण किया और फाल्गुन मास (फरवरी-मार्च) में वे जगन्नाथ पुरी गये। उन्होंने फाल्गुन मास में दोलयात्रा उत्सव देखा और चैत्र मास में सार्वभौम भट्टाचार्य का उद्धार किया। वैशाख मास में उन्होंने दक्षिण भा रत की यात्रा प्रारम्भ की। जब उन्होंने अकेले ही यात्रा करने का प्रस्ताव रखा , तो श्री नित्यानन्द प्रभु ने उन्हें कृष्णदास नामक एक ब्राह्मण को सहायक के रूप में दे दि या। जब श्री चैतन्य महाप्रभु चलने लगे, तो सार्वभौम भट्टाचार्य ने उन्हें चार जोड़ी कपड़े दिये और प्रार्थना की कि वे गोदावरी तट पर निवास कर रहे रामानन्द राय से अवश्य मिलें। नित्यानन्द प्रभु अन्य भक्तों के साथ-साथ आलालनाथ तक महाप्रभु के साथ गये। किन्तु वहाँ पर उन सबको छोड़कर भगवान् चैतन्य कृष्णदास ब्राह्मण सहित आगे बढ़ गये। महाप्रभु कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हे मन्त्र का कीर्तन करने लगे। महाप्रभुने जिस भी गाँव में रात बिताई और जो भी व्यक्ति उनके पड़ाव में उनसे मिलने आ या उससे उन्होंने कृष्णभावनामृत आन्दोलन का प्रचार करने की प्रार्थना की। भक्तों की संख्या बढ़ाने के लिए वे एक गाँव के लोगों को शिक्षा देने के बाद दूसरे गाँवों की ओर बढ़ते गये। इस तरह वे अन्त में कूर्मस्थान पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने कूर्म नामक ब्राह्मण को अपनी अहै तुकी कृपा प्रदान की और कुष्ठ रोग से पीड़ित वासुदेव नामक एक अन्य ब्राह्मण को निरोग बनाया। कुष्ठ रोगी ब्राह्मण को अच्छा करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु को वासुदेवामृतप्रद उपाधि मिली, जिसका अर्थ है “जिसने वासुदेव कोढ़ी को अमृत प्रदान किया।”
 
 
श्लोक 1:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने वासुदेव नामक ब्राह्मण पर अत्यन्त कृपालु होकर उसका कुष्ठ रोग ठीक कर दिया। उन्होंने उसे भक्ति से सन्तुष्ट एक सुन्दर पुरुष में परिवर्तित कर दिया। मैं उन महिमावान श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर प्रणाम करता हूँ।
 
श्लोक 2:  श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो एवं श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो!
 
श्लोक 3:  सार्वभौम भट्टाचार्य का उद्धार करने के बाद महाप्रभु को दक्षिण भारत में प्रचार करने की इच्छा हुई।
 
श्लोक 4:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने माघ मास के शुक्लपक्ष में संन्यास ग्रहण किया। उसके अगले मास फाल्गुन में वे जगन्नाथ पुरी गये और वहाँ रहे।
 
श्लोक 5:  फाल्गुन मास के अन्त में उन्होंने दोलयात्रा उत्सव देखा और अपने स्वाभाविक भगवत् प्रेम के भावावेश में आकर उन्होंने उस अवसर पर कीर्तन तथा विविध प्रकार से नृत्य किया।
 
श्लोक 6:  चैत्र मास में जगन्नाथ पुरी में रहते हुए उन्होंने सार्वभौम भट्टाचार्य का उद्धार किया और वैशाख मास के लगते ही उन्होंने दक्षिण भारत जाने का निश्चय किया।
 
श्लोक 7-8:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने सारे भक्तों को बुलाकर और उनके हाथ पकड़कर विनयपूर्वक उनसे इस प्रकार कहा, “तुम सभी लोग मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्यारे हो। मैं अपना प्राण छोड़ सकता हूँ, किन्तु तुम लोगों को छोड़ पाना मेरे लिए कठिन है।”
 
श्लोक 9:  “तुम सब मेरे मित्र हो और तुम लोगों ने मुझे जगन्नाथ पुरी लाकर तथा मन्दिर में भगवान जगन्नाथ का दर्शन करने का अवसर प्रदान करके अपना मित्र - कर्तव्य निभाया है।”
 
श्लोक 10:  “अब मैं तुम लोगों से एक छोटा - सा दान माँग रहा हूँ। कृपा करके मुझे दक्षिण भारत की यात्रा पर प्रस्थान करने की अनुमति प्रदान करें।”
 
श्लोक 11:  “मैं विश्वरूप की खोज करने जाउँगा। तुम लोग मुझे क्षमा करना, किन्तु मैं अकेले जाना चाहता हूँ। मैं किसी को अपने साथ नहीं ले जाना चाहता।”
 
श्लोक 12:  “जब तक मैं सेतुबन्ध से लौट न आऊँ, तब तक तुम सब जगन्नाथ पुरी में ही रहना।”
 
श्लोक 13:  श्री चैतन्य महाप्रभु सर्वज्ञ हैं, इसलिए वे भलीभाँति जानते थे कि विश्वरूप पहले ही चल बसे हैं, किन्तु अनजान बनने का बहाना आवश्यक था, जिससे वे दक्षिण भारत जाकर वहाँ के लोगों का उद्धार कर सकें।
 
श्लोक 14:  श्री चैतन्य महाप्रभु के मुख से यह समाचार सुनकर सारे भक्त अत्यन्त दुःखी हुए, उनके मुख सूख गये और वे मौन हो गये।
 
श्लोक 15:  तब नित्यानन्द प्रभु ने कहा, “यह कैसे हो सकता है कि आप अकेले जाएँ? इसे कौन सहन कर सकता है?”
 
श्लोक 16:  “हममें से एक या दो को अपने साथ चलने दें, अन्यथा आप रास्ते में चोरों तथा धूर्तों के चंगुल में पड़ सकते हैं। हममें से आप जिन्हें चाहें ले लें, किन्तु हर हालत में दो व्यक्तियों को आपके साथ जाना चाहिए।”
 
श्लोक 17:  “मैं दक्षिण भारत के विभिन्न तीर्थस्थलों के सारे मार्ग जानता हूँ। बस, आप आज्ञा दें तो मैं आपके साथ चला चलूँ।”
 
श्लोक 18:  महाप्रभु ने उत्तर दिया, “मैं तो मात्र नर्तक हूँ और तुम डोर खींचने वाले (सूत्रधार) हो। तुम जिस तरह नचाओगे, मैं उसी तरह नाचूँगा।”
 
श्लोक 19:  “संन्यास ग्रहण करने के बाद मैंने वृन्दावन जाने का निश्चय किया, किन्तु तुम मुझे वहाँ न ले जाकर अद्वैत प्रभु के घर ले आये।”
 
श्लोक 20:  “जगन्नाथ पुरी आते समय तुमने मेरा संन्यास - दण्ड तोड़ डाला। मैं जानता हूँ कि तुम सबका मुझ पर अतीव स्नेह है, किन्तु इससे मेरे कार्य में बाधा पहुँचती है।”
 
श्लोक 21:  “जगदानन्द चाहता है कि मैं शारीरिक इन्द्रिय - भोग करूँ और वह मुझसे जो - जो कहता है, वह भयवश मैं करता हूँ।”
 
श्लोक 22:  “यदि कभी मैं उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ करता हूँ, तो वह क्रोधवश तीन दिनों तक मुझसे बात नहीं करता।”
 
श्लोक 23:  “संन्यासी होने के कारण मेरा धर्म है कि जमीन पर सोऊँ और जाड़े में भी प्रतिदिन तीन बार स्नान करूँ। किन्तु मुकुन्द बेचारा मेरी कठोर तपस्या को देखकर अत्यन्त दुःखी होता है।”
 
श्लोक 24:  “हाँ, मुकुन्द कुछ कहता नहीं, किन्तु मैं जानता हूँ कि वह अन्दर से अत्यन्त दुःखी है और उसे दुःखी देखकर मैं उससे दुगना दुःखी हो जाता हूँ।”
 
श्लोक 25:  “यद्यपि मैं संन्यासी हूँ और दामोदर एक ब्रह्मचारी है, फिर भी वह मुझे शिक्षा देने के लिए अपने हाथ में दण्ड लिए रहता है।”
 
श्लोक 26:  “दामोदर के अनुसार सामाजिक व्यवहार में मैं अब भी नौसिखिया हूँ, अतएव उसे मेरी स्वतन्त्र प्रकृति नहीं भाती।”
 
श्लोक 27:  “दामोदर पण्डित तथा अन्य लोगों को भगवान् कृष्ण की अधिक कृपा प्राप्त है, अतएव वे लोग लोक - मत से स्वतन्त्र हैं। इसलिए वे चाहते हैं कि मैं इन्द्रियतृप्ति करूँ, भले ही यह अनैतिक क्यों न हो। किन्तु मैं एक दीन संन्यासी हूँ। मैं संन्यास के कर्तव्यों को नहीं त्याग सकता, अतएव मैं उनका कठोरता से पालन करता हूँ।”
 
श्लोक 28:  “अतएव तुम सभी लोग कुछ दिनों तक यहाँ नीलाचल में रहो, जिससे मैं अकेले ही तीर्थस्थानों की यात्रा कर आऊँ।”
 
श्लोक 29:  वास्तव में महाप्रभु अपने सारे भक्तों के सद्गुणों के वशीभूत थे। उन्होंने दोषारोपण करने के बहाने उन सारे गुणों का आस्वादन किया।
 
श्लोक 30:  अपने भक्तों के प्रति श्री चैतन्य महाप्रभु में जो प्रेम था, उसका सही - सही वर्णन कोई भी नहीं कर सकता। उन्होंने संन्यास ग्रहण करने के फलस्वरूप सभी प्रकार के निजी दुःखों को सदैव सहन किया।
 
श्लोक 31:  कभी - कभी श्री चैतन्य महाप्रभु असह्य नियमों का पालन करते और सारे भक्त उनसे अत्यधिक दुःखी होते। यद्यपि महाप्रभु नियमों का कठोरता से पालन करते, किन्तु वे अपने भक्तों के दुःखों को सहन नहीं कर पाते थे।
 
श्लोक 32:  अतएव उन्हें अपने साथ चलने और दुःखी होने से रोकने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनके गुणों को दोष कहकर घोषित किया।
 
श्लोक 33:  तब चार भक्तों ने बहुत अनुनय - विनय की कि वे महाप्रभु के साथ चलें, किन्तु स्वतन्त्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् होने के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की।
 
श्लोक 34:  तब नित्यानन्द प्रभु ने कहा, “आपकी आज्ञा मेरा कर्तव्य है, चाहे उससे हमें सुख मिले या दुःख।”
 
श्लोक 35:  “फिर भी मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूँ। कृपया इस पर विचार करें और यदि उचित समझे, तो स्वीकार कर लें।”
 
श्लोक 36:  “आप अपने साथ एक लँगोटा, बाह्य वस्त्र तथा एक जलपात्र लें। आप इससे अधिक कुछ भी न लें।”
 
श्लोक 37:  “जब आपके दोनों हाथ सदैव नाम - जप तथा पवित्र नाम जप की गिनती करने में लगे रहेंगे, तो आप जलपात्र तथा बाह्य वस्त्रों को किस प्रकार ले जायेंगे?”
 
श्लोक 38:  “जब आप रास्ते में भगवत्प्रेम के आवेश में अचेत हो जायेंगे, तो आपके सामान की - जलपात्र, वस्त्र आदि की रक्षा कौन करेगा?”
 
श्लोक 39:  श्री नित्यानन्द प्रभु ने आगे कहा, “यह कृष्णदास नामक एक सीधासादा ब्राह्मण है। कृपया आप इसे अपने साथ ले जाएँ। यही मेरी विनती है।”
 
श्लोक 40:  “वह आपका जलपात्र तथा वस्त्र वहन करेगा। आप चाहे जो भी करेंगे, वह एक शब्द भी नहीं बोलेगा।”
 
श्लोक 41:  श्री नित्यानन्द प्रभु के अनुरोध को मानकर भगवान् चैतन्य ने अपने सारे भक्तों को अपने साथ लिया और वे सार्वभौम भट्टाचार्य के घर गये।
 
श्लोक 42:  सार्वभौम भट्टाचार्य ने उनके प्रविष्ट होते ही महाप्रभु को नमस्कार किया और उन्हें बैठने को आसन दिया। फिर अन्य सारे भक्तों को बैठाने के बाद भट्टाचार्य स्वयं बैठे।
 
श्लोक 43:  भगवान् कृष्ण विषयक विविध वार्ताएँ करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को बतलाया, “मैं तो आपके यहाँ आपका आदेश प्राप्त करने आया हूँ।”
 
श्लोक 44:  “मेरा बड़ा भाई विश्वरूप संन्यास लेकर दक्षिण भारत चला गया है। अब मुझे उसकी खोज करने जाना है।”
 
श्लोक 45:  “कृपया मुझे जाने की अनुमति दें, क्योंकि मुझे दक्षिण भारत की यात्रा करनी है। आपकी आज्ञा से मैं शीघ्र ही सुखपूर्वक वापस लौट आऊँगा।”
 
श्लोक 46:  यह सुनकर सार्वभौम भट्टाचार्य अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लिए और विषाद से पूर्ण यह उत्तर दिया।
 
श्लोक 47:  “मुझे कुछ पुण्यकर्मों के कारण अनेक जन्मों के बाद आपका संग मिला था। अब विधाता इस अमूल्य संग का विच्छेद कर रहा है।”
 
श्लोक 48:  “यदि मेरे सिर पर वज्रपात हो जाए अथवा मेरा पुत्र मर जाए, तो मैं उसे सहन कर सकता हूँ। किन्तु मैं आपके वियोग के दुःख को नहीं सह सकता।”
 
श्लोक 49:  “हे प्रभु, आप स्वतन्त्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। आपको जाना निश्चित है, यह मैं जानता हूँ। फिर भी मैं आपसे कुछ दिन और रुकने के लिए निवेदन कर रहा हूँ, जिससे आपके चरणकमलों का दर्शन कर सकूं।”
 
श्लोक 50:  सार्वभौम भट्टाचार्य की विनती सुनकर, चैतन्य महाप्रभु दयार्द्र हो गये। वे कुछ दिन और रुके रहे और प्रस्थान नहीं किया।
 
श्लोक 51:  भट्टाचार्य ने बड़े ही आग्रहपूर्वक चैतन्य महाप्रभु को अपने घर आमन्त्रित किया और उन्हें अच्छी तरह भोजन कराया।
 
श्लोक 52:  भट्टाचार्य की पत्नी का नाम पाठीमाता (पाठी की माता) था। उन्होंने ही भोजन पकाया। इन लीलाओं का वर्णन अत्यन्त आश्चर्यजनक है।
 
श्लोक 53:  बाद में इसका विस्तार से वर्णन करूँगा, किन्तु इस समय मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की दक्षिण भारत यात्रा का वर्णन करना चाहता हूँ।
 
श्लोक 54:  सार्वभौम भट्टाचार्य के घर पर पाँच दिन रुककर श्री चैतन्य महाप्रभु ने दक्षिण भारत के लिए प्रस्थान करने हेतु स्वयं अनुमति माँगी।
 
श्लोक 55:  भट्टाचार्य की अनुमति पाकर श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथजी के मन्दिर में दर्शन करने गये। वे अपने साथ भट्टाचार्य को लेते गये।
 
श्लोक 56:  भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करके श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे भी आज्ञा माँगी। तब पुजारी ने महाप्रभु को तुरन्त प्रसाद और माला लाकर दी।
 
श्लोक 57:  माला के रूप में भगवान जगन्नाथजी की आज्ञा पाकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें नमस्कार किया और अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर दक्षिण भारत जाने की तैयारी की।
 
श्लोक 58:  अपने निजी संगियों तथा सार्वभौम भट्टाचार्य के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथजी की वेदी की प्रदक्षिणा की। तत्पश्चात् वे अपनी दक्षिण भारत की यात्रा पर रवाना हो गये।
 
श्लोक 59:  जब महाप्रभु समुद्र - तट पर स्थित आलालनाथ के मार्ग पर जा रहे थे, तब सार्वभौम भट्टाचार्य ने गोपीनाथ आचार्य को निम्नलिखित आदेश दिया।
 
श्लोक 60:  “मैंने घर पर कौपीन तथा बाहरी वस्त्रों के जो चार जोड़े रख छोड़े हैं, उन्हें लाओ और साथ में कुछ जगन्नाथजी का प्रसाद भी लेते आओ। तुम किसी ब्राह्मण की सहायता से ये चीजें अपने साथ लेते आना।”
 
श्लोक 61:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु विदा हो रहे थे, तो सार्वभौम भट्टाचार्य ने उनके चरणकमलों पर यह निवेदन किया, “हे प्रभु, मेरी एक अन्तिम प्रार्थना है और मुझे आशा है कि आप उसे अवश्य पूरी करेंगे।”
 
श्लोक 62:  “गोदावरी नदी के किनारे स्थित विद्यानगर नामक नगरी में रामानन्द राय नामक एक जिम्मेदार सरकारी अधिकारी हैं।”
 
श्लोक 63:  “आप कृपया उन्हें भौतिक कार्यकलापों में व्यस्त रहने वाला शूद्र समझकर उनकी उपेक्षा न करें। मेरी विनती है कि आप उनसे अवश्य मिलें।”
 
श्लोक 64:  सार्वभौम भट्टाचार्य ने आगे कहा, “रामानन्द राय आपकी संगति के लिए उपयुक्त व्यक्ति है। दिव्य रसों के ज्ञान के विषय में अन्य कोई भक्त उनकी बराबरी नहीं कर सकता।”
 
श्लोक 65:  “वे अत्यन्त विद्वान एवं भक्ति - रस में दक्ष हैं। वे वास्तव में अत्यन्त उन्नत हैं और जब आप उनसे बात करेंगे, तो देखेंगे कि वे कितने महिमावान हैं।”
 
श्लोक 66:  “जब पहले पहल मैंने रामानन्द राय से बात की थी, तो मुझे इसका अनुभव नहीं हो पाया था कि उनकी बातचीत तथा चेष्टाएँ दिव्य और असामान्य हैं। मैंने उनका परिहास किया था, क्योंकि वे वैष्णव थे।”
 
श्लोक 67:  भट्टाचार्य ने कहा, “आपकी कृपा से मैंने अब रामानन्द राय को वास्तव में समझा है। आप उनसे बातें करेंगे, तो आप भी उनकी महानता को स्वीकार करेंगे।”
 
श्लोक 68:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य के इस अनुरोध को मान लिया कि वे रामानन्द राय से अवश्य मिलें। महाप्रभु ने सार्वभौम से विदा लेते हुए उनका आलिंगन किया।
 
श्लोक 69:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने भट्टाचार्य से कहा कि जब वे अपने घर में भगवान् कृष्ण की भक्ति में लगे हों, तब वे उन्हें आशीर्वाद देते रहें, जिससे सार्वभौम की कृपा से वे पुनः जगन्नाथ पुरी वापस आ सकें।
 
श्लोक 70:  यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी यात्रा पर चल पड़े और उधर सार्वभौम भट्टाचार्य तुरन्त मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
 
श्लोक 71:  यद्यपि सार्वभौम भट्टाचार्य मूर्छित हो गये, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस पर ध्यान नहीं दिया, प्रत्युत वे तुरन्त वहाँ से चले गये। भला श्री चैतन्य महाप्रभु के मन तथा मनोभाव को कौन समझ सकता है?
 
श्लोक 72:  एक महान् व्यक्ति के मन का स्वभाव ऐसा ही होता है। कभी वह फूल के समान कोमल हो जाता है, तो कभी वज्र के समान कठोर।
 
श्लोक 73:  “सामान्य व्यक्ति से ऊँचे व्यवहार वालों के हृदय कभी वज्र से भी अधिक कठोर होते हैं, तो कभी फूल से भी अधिक कोमल होते हैं। महापुरुषों में ऐसे विरोधाभासों को समझने में कौन समर्थ हो सकता है?”
 
श्लोक 74:  श्री नित्यानन्द प्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को उठाया और उनके लोगों की सहायता से उन्हें उनके घर भेज दिया।
 
श्लोक 75:  तुरन्त सारे भक्त आ गये और श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ हो लिए। इसके बाद गोपीनाथ आचार्य वस्त्र तथा प्रसाद लेकर आये।
 
श्लोक 76:  सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ - साथ आलालनाथ तक गये। वहाँ उन सबने नमस्कार किया और विविध स्तुतियाँ कीं।
 
श्लोक 77:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कुछ समय तक अत्यधिक भावावेश में नृत्य और कीर्तन किया। पड़ोस के सारे लोग उन्हें देखने आये।
 
श्लोक 78:  गौरहरि के नाम से विख्यात श्री चैतन्य महाप्रभु के चारों ओर लोग जोर - जोर से हरि नाम का उच्चारण करने लगे। श्री चैतन्य महाप्रभु हमेशा की तरह अपने प्रेमावेश में मग्न होकर उन सबके बीच नाचते रहे।
 
श्लोक 79:  श्री चैतन्य महाप्रभु का शरीर प्राकृतिक रूप से अत्यन्त सुन्दर था। यह पिघले सोने के समान था और केसरिया वस्त्र से सज्जित था। वे भाव - लक्षणों यथा रोमांच, अश्रु, कम्पन तथा शरीर - भर में पसीने से अलंकृत होकर अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे।
 
श्लोक 80:  वहाँ पर उपस्थित सारे लोग श्री चैतन्य महाप्रभु के नृत्य तथा उनके शारीरिक परिवर्तनों को देखकर चकित थे। जो भी वहाँ आया वह घर जाने का नाम नहीं ले रहा था।
 
श्लोक 81:  बच्चे, बूढ़े तथा स्त्रियाँ - हर कोई श्रीकृष्ण तथा गोपाल नाम ले - लेकर नाचने - गाने लगा। इस तरह वे सब भगवत्प्रेम के सागर में तैर रहे थे।
 
श्लोक 82:  श्री चैतन्य महाप्रभु के कीर्तन तथा नृत्य को देखकर श्री नित्यानन्द प्रभु ने भविष्यवाणी की कि आगे चलकर गाँव - गाँव में ऐसा नृत्य तथा कीर्तन होगा।
 
श्लोक 83:  यह देखकर कि काफी विलम्ब हो रहा है, नित्यानन्द गोसांई ने भीड़ छटाने का उपाय ढूँढ निकाला।
 
श्लोक 84:  जब नित्यानन्द प्रभु श्री चैतन्य महाप्रभु को दोपहर का भोजन कराने ले गये, तो सारे लोग उनके चारों ओर दौड़ते हुए आये।
 
श्लोक 85:  स्नान करने के बाद वे दोपहर के समय मन्दिर लौट आये। श्री नित्यानन्द प्रभु ने अपने लोगों को भीतर लेकर बाहरी दरवाजे को बन्द कर लिया।
 
श्लोक 86:  तत्पश्चात् गोपीनाथ आचार्य दोनों प्रभुओं के खाने के लिए प्रसाद ले आये, और जब वे खा चुके, तो प्रभुओं के शेष बचे प्रसाद को सभी भक्तों में बाँट दिया गया।
 
श्लोक 87:  यह सुनकर सारे लोग बाहरी दरवाजे पर आ गये और ‘हरि’ ‘हरि’ कहकर कीर्तन करने लगे। इस तरह वहाँ पर कोलाहल मच गया।
 
श्लोक 88:  दोपहर के भोजन के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने दरवाजा खुलवा दिया। इस तरह हर एक ने बड़े ही आनन्द से उनका दर्शन प्राप्त किया।
 
श्लोक 89:  लोग संध्या - समय तक आते और जाते रहे। वे सभी वैष्णव - भक्त बन गये और कीर्तन करने और नाचने लगे।
 
श्लोक 90:  तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने रात वहीं बिताई, और अपने भक्तों के साथ बड़े ही आनन्द से भगवान् कृष्ण की लीलाओं की चर्चा की।
 
श्लोक 91:  प्रातःकाल स्नान करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी दक्षिण - भारत यात्रा पर चल पड़े। उन्होंने भक्तों का आलिंगन करके उनसे विदा ली।
 
श्लोक 92:  यद्यपि वे सब बेहोश होकर भूमि पर गिर पड़े थे, किन्तु महाप्रभु ने मुड़कर उनकी ओर नहीं देखा - वे आगे ही बढ़ते गये।
 
श्लोक 93:  वियोग के कारण महाप्रभु अत्यन्त व्याकुल हो उठे और दुःखी मन से चलते रहे। उनका सेवक कृष्णदास उनका जलपात्र लिए उनके पीछे पीछे चल रहा था।
 
श्लोक 94:  सारे भक्त वहीं बिना खाये पड़े रहे, किन्तु अगले दिन सभी दुःखी मन से जगन्नाथ पुरी लौट गये।
 
श्लोक 95:  प्रायः उन्मत्त सिंह की भाँति श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी यात्रा पर निकल पड़े। वे प्रेमावेश से पूर्ण थे और कृष्ण - नाम का निम्नवत् उच्चारण करते हुए संकीर्तन करते जा रहे थे।
 
श्लोक 96:  महाप्रभु कीर्तन कर रहे थे - कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! हे कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! हे कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! रक्ष माम् कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! पाहि माम् अर्थात् “हे भगवान् कृष्ण! कृपया मेरी रक्षा कीजिये और मेरा पालन कीजिये।” उन्होंने यह भी कीर्तन किया - राम! राघव! राम! राघव! राम! राघव! रक्ष माम्।
 
श्लोक 97:  इस श्लोक का कीर्तन करते हुए गौरहरि श्री चैतन्य महाप्रभु अपने मार्ग पर चले जा रहे थे। जब वे किसी को देखते, तो वे उससे अनुरोध करते कि “हरि! हरि!” बोलो।
 
श्लोक 98:  जो कोई भी श्री चैतन्य महाप्रभु को “हरि! हरि!” बोलते सुनता, वह भी हरि तथा कृष्ण के नामों का उच्चारण करने लगता। इस तरह वे सब महाप्रभु का दर्शन पाने की उत्सुकता से उनके पीछे - पीछे चलने लगते।
 
श्लोक 99:  कुछ समय बाद महाप्रभु उन लोगों का आलिंगन करते और उन्हें आध्यात्मिक शक्ति से ओतप्रोत करने के बाद घर वापस जाने के लिए कहते।
 
श्लोक 100:  इस प्रकार शक्ति को पाकर हर व्यक्ति कृष्ण - नाम का कीर्तन करता और कभी हँसता, रोता और नाचता हुआ अपने घर को लौटता।
 
श्लोक 101:  इस प्रकार शक्ति प्राप्त व्यक्ति जिस किसी को देखता, उसी से प्रार्थना करता कि वह कृष्ण - नाम का उच्चारण करें। इस तरह सारे गाँव वाले भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के भक्त बन जाते।
 
श्लोक 102:  ऐसे शक्ति प्राप्त लोगों का दर्शन करने मात्र से विभिन्न गाँवों के लोग जो उन्हें देखने आते, उनकी कृपादृष्टि से उन्हीं के समान बन जाते।
 
श्लोक 103:  जब शक्ति से संचारित ये लोग अपने अपने गाँवों को लौटते, तो इन्होंने भी दूसरों को भक्त बना लिया।
 
श्लोक 104:  इस प्रकार जैसे जैसे वे सारे शक्ति प्राप्त लोग एक गाँव से दूसरे गाँव जाने लगे, वैसे वैसे दक्षिण भारत के सारे लोग भक्त बनते गये।
 
श्लोक 105:  इस तरह कई सौ लोग वैष्णव बन गये, जो महाप्रभु को रास्ते में मिले और जिन्हें उन्होंने गले लगाया।
 
श्लोक 106:  श्री चैतन्य महाप्रभु जिस - जिस गाँव में भिक्षा ग्रहण करने के लिए रुके, वहीं अनेक लोग उनका दर्शन करने आये।
 
श्लोक 107:  भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से सारे व्यक्ति उच्च कोटि के भक्त बन गये। बाद में वे शिक्षक या गुरु बने और उन्होंने सम्पूर्ण जगत् का उद्धार किया।
 
श्लोक 108:  इस तरह महाप्रभु भारत की दक्षिण सीमा तक गये और उन्होंने सारे प्रान्तों के लोगों को वैष्णव बना दिया।
 
श्लोक 109:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने नवद्वीप में अपनी आध्यात्मिक शक्ति प्रकट नहीं की, किन्तु उन्होंने ने दक्षिण भारत में उसे प्रकट किया और वहाँ के सारे लोगों का उद्धार किया।
 
श्लोक 110:  श्री चैतन्य महाप्रभु अन्यों को किस तरह शक्ति प्रदान करते हैं, उसे केवल वही समझ सकता है, जो वास्तव में भगवद्भक्त है और जिसे उनकी कृपा प्राप्त हो चुकी है।
 
श्लोक 111:  जो व्यक्ति महाप्रभु की असामान्य दिव्य लीलाओं में विश्वास नहीं करता, उसका इस लोक तथा परलोक दोनों में विनाश हो जाता है।
 
श्लोक 112:  मैंने पहले महाप्रभु के गमन के विषय में जो कुछ कहा है, उसे महाप्रभु की दक्षिण भारत की पूरी यात्रा की अवधि पर लागू समझना चाहिए।
 
श्लोक 113:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु कूर्मक्षेत्र नामक तीर्थस्थान में पहुँचे, तो उन्होंने अर्चाविग्रह का दर्शन किया, स्तुति की तथा प्रणाम किया।
 
श्लोक 114:  जब तक श्री चैतन्य महाप्रभु इस स्थान पर रहे, वे यथावत् अपने भगवत्प्रेम के भावावेश में रहे और हँसते, रोते, नाचते तथा कीर्तन करते रहे। जो भी उन्हें देखता, आश्चर्यचकित रह जाता।
 
श्लोक 115:  इन अद्भुत घटनाओं को सुन - सुनकर लोग वहाँ उनके दर्शन करने आते। जब वे महाप्रभु का सौन्दर्य तथा उनकी भावदशा देखते, तो वे आश्चर्यचकित रह जाते।
 
श्लोक 116:  चैतन्य महाप्रभु के दर्शन - मात्र से लोग भक्त बन गये। वे “कृष्ण” तथा “हरि” एवं समस्त पवित्र नामों का कीर्तन करने लगे। वे सभी प्रेमावेश में मग्न होकर अपने हाथ ऊपर उठा - उठाकर नाचने लगे।
 
श्लोक 117:  उन्हें सदैव भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों का कीर्तन करते सुनकर दूसरे सभी गाँवों के लोग भी वैष्णव बन गये।
 
श्लोक 118:  कृष्ण का पवित्र नाम सुन - सुनकर सारा देश वैष्णव बन गया। ऐसा प्रतीत होता था मानो कृष्ण के पवित्र नाम के अमृत ने सम्पूर्ण देश को आप्लावित कर दिया हो।
 
श्लोक 119:  कुछ समय बाद जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने बाह्य चेतना दिखलाई, तो कूर्मदेव के एक पुजारी ने उन्हें विविध भेटें दीं।
 
श्लोक 120:  श्री चैतन्य महाप्रभु की प्रचार - विधि का वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ, अतएव मैं उसे फिर से नहीं दोहराऊँगा। महाप्रभु जिस किसी गाँव में जाते, उनका व्यवहार वैसा ही रहता।
 
श्लोक 121:  एक गाँव में कूर्म नाम का एक वैदिक ब्राह्मण था। उसने बड़े ही सत्कार तथा भक्ति से श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने घर आमन्त्रित किया।
 
श्लोक 122:  यह ब्राह्मण महाप्रभु को अपने घर ले आया, उसने उनके चरणकमल धोये और उस जल को परिवार सहित पिया।
 
श्लोक 123:  उस कूर्म ब्राह्मण ने महाप्रभु को बड़े ही स्नेह तथा आदर से सभी प्रकार का भोजन कराया। उसके बाद जो शेष बचा उसे परिवार के सारे सदस्यों सहित उसने खाया।
 
श्लोक 124:  फिर उस ब्राह्मण ने प्रार्थना करनी शुरू की, “हे प्रभु, आपके जिन चरणकमलों का ध्यान ब्रह्माजी करते हैं, वे ही चरणकमल मेरे घर में पधारे हैं।”
 
श्लोक 125:  “हे प्रभु, मेरे महान् सौभाग्य की कोई सीमा नहीं रही। इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। आज मेरा परिवार, जन्म तथा मेरा धन सभी धन्य हो गये।”
 
श्लोक 126:  उस ब्राह्मण ने श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रार्थना की, “हे प्रभु, आप मुझ पर कृपादृष्टि करें और मुझे अपने साथ चलने दें। मैं अब और अधिक समय तक भौतिक जीवन से उत्पन्न दुःख की लहरों को सहन नहीं कर सकता।”
 
श्लोक 127:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “अब फिर से ऐसा मत कहना। अच्छा यही होगा कि तुम घर पर रहो और सदैव कृष्ण - नाम का जप करो।”
 
श्लोक 128:  “हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो।”
 
श्लोक 129:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कूर्म ब्राह्मण को यह भी उपदेश दिया, “यदि तुम इस उपदेश का पालन करोगे, तो तुम्हारा गृहस्थ जीवन तुम्हारी आध्यात्मिक प्रगति में बाधक नहीं बनेगा। यदि तुम इन नियमों का पालन करोगे, तो हम पुनः यहीं मिलेंगे, अथवा तुम मेरा साथ कभी नहीं छोड़ोगे।”
 
श्लोक 130:  श्री चैतन्य महाप्रभु जिस किसी के घर में प्रसाद ग्रहण करके भिक्षा लेते, वे उस घर के रहने वालों को अपने संकीर्तन आन्दोलन में सम्मिलित कर लेते और उन्हें वैसी ही शिक्षा देते, जैसी कि कूर्म नामक ब्राह्मण को दी थी।
 
श्लोक 131-132:  अपनी यात्रा के दौरान श्री चैतन्य महाप्रभु या तो मन्दिर में या सड़क के किनारे रात बिताते। जब वे किसी व्यक्ति के घर भोजन ग्रहण करते, तो वे उसे वही उपदेश देते, जो उन्होंने कूर्म ब्राह्मण को दिया था।
 
श्लोक 133:  इस तरह मैंने कूर्म के प्रसंग में महाप्रभु के व्यवहार का विस्तार से वर्णन किया है। इसी तरह से आप सारे दक्षिण भारत में महाप्रभु के व्यवहार को जान सकेंगे।
 
श्लोक 134:  इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु एक स्थान में रात - भर रहते, और प्रातःकाल स्नान करके पुनः चल देते।
 
श्लोक 135:  जब महाप्रभु चले, तो कूर्म ब्राह्मण बहुत दूर तक उनके पीछे - पीछे आया, किन्तु अन्त में महाप्रभु ने उसे घर वापस भेज दिया।
 
श्लोक 136:  वासुदेव नाम का एक अन्य ब्राह्मण था, जो एक महान् व्यक्ति था, किन्तु कोढ़ से पीड़ित था। उसका शरीर जीवित कीड़ों से भरा था।
 
श्लोक 137:  यद्यपि वासुदेव कोढ़ से पीड़ित था, किन्तु ज्ञानी था। ज्योंही उसके शरीर से कोई कीड़ा गिर पड़ता, तो वह उसे उठाकर पुनः उसी स्थान में रख देता।
 
श्लोक 138:  एक रात को वासुदेव ने महाप्रभु के आगमन की बात सुनी, और प्रातः होते ही वह कूर्म के घर महाप्रभु का दर्शन करने आया।
 
श्लोक 139:  जब वह कोढ़ी वासुदेव कूर्म के घर चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने गया, तो उसे बताया गया कि महाप्रभु वहाँ से पहले ही जा चुके हैं। इस पर वह बेहोश होकर भूमि पर गिर पड़ा।
 
श्लोक 140:  जब वह कोढ़ी ब्राह्मण वासुदेव महाप्रभु का दर्शन न कर सकने के कारण विलाप कर रहा था, तो महाप्रभु तुरन्त उस स्थान को लौट आये और उन्होंने उसका आलिंगन किया।
 
श्लोक 141:  जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने उसका स्पर्श किया, तो उसका कोढ़ तथा उसका कष्ट एकसाथ दूर भाग गये। वासुदेव का शरीर अत्यन्त सुन्दर हो गया, जिससे उसे परम सुख प्राप्त हुआ।
 
श्लोक 142:  वह ब्राह्मण वासुदेव श्री चैतन्य महाप्रभु की अद्भुत कृपा देखकर चकित था और वह महाप्रभु के चरणकमलों का स्पर्श करके श्रीमद्भागवत का एक श्लोक सुनाने लगा।
 
श्लोक 143:  उसने कहा, “मैं कौन हूँ? एक पापी दरिद्र ब्रह्मबन्धु। और कृष्ण कौन हैं? छः ऐश्वर्ययुक्त पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्। फिर भी उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं में भरकर मेरा आलिंगन किया है।”
 
श्लोक 144-145:  वासुदेव ब्राह्मण ने आगे कहा, “हे दयामय प्रभु, ऐसी कृपा सामान्य जीवों में सम्भव नहीं। ऐसी कृपा तो केवल आप में ही पाई जा सकती है। पापी व्यक्ति भी मुझे देखकर मेरे शरीर की दुर्गंध के कारण दूर चला जाता है, फिर भी आपने मेरा स्पर्श किया। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का व्यवहार ऐसा स्वतन्त्र होता है।”
 
श्लोक 146:  उस दीन विनम्र वासुदेव को चिन्ता थी कि श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से ठीक हो जाने से कहीं वह गर्वित न हो उठे।
 
श्लोक 147:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस ब्राह्मण को इससे बचाने के लिए उपदेश दिया कि वह निरन्तर हरे कृष्ण मन्त्र का जप करे। ऐसा करने से वह कभी भी व्यर्थ गर्वित नहीं होगा।
 
श्लोक 148:  श्री चैतन्य महाप्रभु ने वासुदेव को यह भी सलाह दी कि वह कृष्ण के विषय में उपदेश दे और इस तरह जीवों का उद्धार करे। फलस्वरूप, कृष्ण शीघ्र ही उसका अपने भक्त के रूप में स्वीकार कर लेंगे।
 
श्लोक 149:  वासुदेव ब्राह्मण को इस प्रकार उपदेश देने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु उस स्थान से अदृश्य हो गये।
 
श्लोक 150:  इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु ने जिस तरह वासुदेव कोढ़ी का उद्धार किया, और जिस तरह उनका नाम वासुदेवामृत - प्रद पड़ा, उसका वर्णन मैंने किया है।
 
श्लोक 151:  इस तरह मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की प्रारम्भिक यात्रा का वर्णन समाप्त करता हूँ, जिसमें उन्होंने कूर्म - मन्दिर का दर्शन किया और कोढ़ी ब्राह्मण वासुदेव का उद्धार किया।
 
श्लोक 152:  जो कोई श्री चैतन्य महाप्रभु की इन लीलाओं को अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सुनेगा, उसे तुरन्त ही उनके चरणकमल प्राप्त हो जायेंगे।
 
श्लोक 153:  मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का आदि और अन्त नहीं जानता। फिर भी मैंने जो कुछ लिखा है, उसे महापुरुषों के मुख से सुनकर लिखा है।
 
श्लोक 154:  हे भक्तों, कृपया इस विषय में मेरे अपराधों पर विचार मत करना। आपके चरणकमल ही मेरे एकमात्र शरण हैं।
 
श्लोक 155:  श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों पर प्रार्थना करते हुए और सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्रीचैतन्य - चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
 
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