भारत का कालातीत ज्ञान प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों अर्थात् वेदों में व्यक्त हुआ है, जो मानव ज्ञान के समस्त क्षेत्रों को स्पर्श करने वाले हैं। प्रारम्भ में इसका संरक्षण मौखिक परम्परा द्वारा होता रहा, किन्तु पाँच हजार वर्ष पूर्व सर्वप्रथम "भगवान् के साहित्यिक अवतार" श्रील व्यासदेव ने वेदों को लिखित रूप प्रदान किया। वेदों के संकलन के पश्चात् उन्होंने उनके सारांश को वेदान्त-सूत्र के रूप में प्रस्तुत किया। श्रीमद्भागवत ( भागवत पुराण) स्वयं व्यासदेव द्वारा विरचित उनके वेदान्त-सूत्र का भाष्य है। इसका प्रणयन उन्होंने अपने आध्यात्मिक जीवन की परिपक्व अवस्था में अपने गुरु नारद मुनि के निर्देशन में किया था। “वैदिक वाङ्मय रूपी वृक्ष का परिपक्व फल" कहा जाने वाला यह श्रीमद्भागवत वैदिक ज्ञान का सर्वाधिक पूर्ण एवं प्रामाणिक भाष्य है। श्रीमद्भागवत की रचना कर लेने के पश्चात्, व्यासजी ने अपने पुत्र मुनि शुकदेव गोस्वामी को इसका सार भाग हृदयंगम कराया। तत्पश्चात् शुकदेव गोस्वामी ने हस्तिनापुर (अब दिल्ली) में गंगातट पर विद्वान् मुनियों की एक सभा में महाराज परीक्षित को सम्पूर्ण भागवत सुनाया। महाराज परीक्षित सारे संसार के चक्रवर्ती सम्राट और एक महान् राजर्षि थे। उन्हें जब सचेत किया गया कि एक सप्ताह में उनकी मृत्यु हो जाएगी, तो उन्होंने अपना सारा साम्राज्य त्याग दिया और वे आमरण उपवास करने तथा आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति करने के लिए गंगा नदी के तट पर चले गये। भागवत का शुभारम्भ सम्राट परीक्षित द्वारा शुकदेव गोस्वामी से पूछे गये इस गम्भीर प्रश्न से प्रारम्भ होता है। “आप महान् सन्तों तथा भक्तों के गुरु हैं। अतः मैं आपसे समस्त मनुष्यों के लिए और वशेष रूप से मरणासन्न मनुष्य के लिए, पूर्णता का मार्ग दिखलाने की याचना करता हूँ। कृपया मुझे बताएँ कि मनुष्य के लिए श्रवण, कीर्तन, स्मरण और आराधन का विषय क्या होना चाहिए और उसे क्या नहीं करना चाहिए? कृपया मुझे यह सब समझाइए।”
महाराज परीक्षित द्वारा पूछे गये इस प्रश्न तथा अनेक अन्य प्रश्न, जो आत्मा की प्रकृति से लेकर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के विषय तक से सम्बन्ध रखते हैं, उनका श्रील शुकदेव गोस्वामी ने जो उत्तर दिया उसे ऋषियों की सभा राजा की मृत्युपर्यन्त सात दिनों तक मन्त्रमुग्ध होकर सुनती रही। जब शुकदेव गोस्वामी ने श्रीमद्भागवत की कथा को प्रथम बार सुनाया, तब श्री सूत गोस्वामी जो वहीं उपस्थित थे, उन्होंने नैमिषारण्य के वन में ऋषियों की एक सभा में उसी कथा को पुनः सुनाया। जनसाधारण के आध्यात्मिक कल्याण की इच्छा से ये सभी ऋषिगण आरम्भ होनेवाले कलियुग के दुष्प्रभावों के निवारण हेतु दीर्घकालीन यज्ञ-सत्रों का अनुष्ठान करने के लिए एकत्र हुए थे। जब इन ऋषियों ने प्रार्थना की कि श्री सूत गोस्वामी वैदिक ज्ञान का सार कह सुनाएँ, तो उन्होंने अपनी स्मृति से श्रीमद्भागवत के सभी अठारह हजार श्लोक सुना दिये, जिन्हें शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को सुनाया था। श्रीमद्भागवत का पाठक वस्तुतः महाराज परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रश्नों के शुकदेव गोस्वामी द्वारा दिये गये उत्तर सूत गोस्वामी के मुख से सुनता है। कहीं-कहीं सूत गोस्वामी नैमिषारण्य में एकत्र साधुओं के प्रतिनिधि, शौनक ऋषि द्वारा पूछे गये प्रश्नों के सीधे उत्तर देते हैं। इस प्रकार एकसाथ दो प्रकार के संवाद सुनने को मिलते हैं-एक गंगातट पर महाराज परीक्षित तथा शुकदेव गोस्वामी के मध्य और दूसरा नैमिषारण्य में सूत गोस्वामी तथा वहाँ एकत्रित साधुओं के प्रतिनिधि, शौनक ऋषि के मध्य हुए संवाद। यही नहीं, बीच-बीच में शुकदेव गोस्वामी महाराज परीक्षित को उपदेश देते हुए ऐतिहासिक घटनाओं का भी वर्णन करते जाते हैं। वे उन विस्तृत दार्शनिक चर्चाओं का विवरण भी प्रस्तुत करते हैं, जो मैत्रेय तथा उनके शिष्य विदुर जैसे महात्माओं के मध्य हुईं। भागवत की इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझ लेने पर पाठक इसमें आए हुए संवादों के मिश्रण तथा विभिन्न स्रोतों से आई हुई घटनाओं को सरलता से समझ लेगा। चूँकि मूलपाठ में दार्शनिक वाङ्मय या ज्ञान ही महत्त्वपूर्ण है कालक्रमिकता नहीं, अतः केवल श्रीमद्भागवत की विषयवस्तु के प्रति सचेष्ट रहने की ही आवश्यकता है, जिससे इसके गहन सन्देश का रसास्वादन पूर्णतया किया जा सके। इस संस्करण के अनुवादक (श्रील प्रभुपाद) ने भागवत की तुलना मिश्री से की है-चाहे जहाँ से इसका रसास्वादन करें, सर्वत्र समान मिठास और स्वाद मिलेगा। अतएव श्रीमद्भागवत की मधुरता का रसास्वादन करने के लिए किसी भी भाग से पढ़ना शुरू किया जा सकता है। इस प्रारम्भिक रसास्वादन के पश्चात् गम्भीर पाठक को यह परामर्श दिया जाता है कि वह पुनः प्रथम स्कन्ध पर लौटे और तब श्रीमद्भागवत के विभिन्न स्कन्धों को उचित क्रमानुसार एक के बाद दूसरे स्कन्ध को पढ़े। भागवत का यह संस्करण इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का विस्तृत भाष्य सहित पहला पूर्ण अंग्रेजी अनुवाद है और अंग्रेजी-भाषी जनता को, व्यापक तौर पर उपलब्ध पहला संस्करण है। पहले स्कंध से दसवें स्कन्ध के पहले भाग तक के पहले बारह खण्ड भारतीय धर्म तथा दर्शन के विश्व के सर्वाधिक प्रसिद्ध उपदेशक तथा अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के संस्थापकाचार्य कृष्णकृपामूर्ति श्री श्रीमद् ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद के विद्वत्ता एवं भक्तिमय प्रयास का परिणाम है। उनके उत्कृष्ट संस्कृत-पाण्डित्य और वैदिक संस्कृति तथा आधुनिक जीवन-पद्धति से घनिष्ठ परिचय के फलस्वरूप इस महत्त्वपूर्ण वरेण्य साहित्य का भव्य भाष्य पाश्चात्य देशों को प्रस्तुत किया जा रहा है। १९७७ में इस संसार से श्रील प्रभुपाद के तिरोधान के पश्चात्, श्रीमद्भागवत के अनुवाद एवं टीका का भगीरथ उनके शिष्यों हृदयानंद दास गोस्वामी और गोपीप्राणधन दास द्वारा जारी रखा गया है। पाठकों को यह कृति अनेक कारणों से महत्त्वपूर्ण लगेगी। जो लोग भारतीय सभ्यता के सांस्कृतिक मूल में रुचि रखते हैं, उनके लिए यह लगभग प्रत्येक पक्ष पर विस्तृत जानकारी देने वाला व्यापक स्रोत है। तुलनात्मक दर्शन तथा धर्म के विद्यार्थियों के लिए भागवत भारतीय महान् सांस्कृतिक धरोहर के अर्थ को समझने में पैनी दृष्टि प्रदान करने वाला है। समाज-विज्ञानियों तथा नृतत्त्वशास्त्रियों के लिए भागवत शान्त एवं वैज्ञानिक ढंग से सुनियोजित वैदिक संस्कृति की व्यावहारिक कार्यपद्धति को प्रकट करने वाला है, जिसके सिद्धान्तों का एकीकरण अत्यन्त विकसित सार्वभौम आध्यात्मिक दृष्टिकोण के आधार पर हुआ था। साहित्य के अध्येताओं को भागवत उत्कृष्ट काव्य की सर्वश्रेष्ठ कृति प्रतीत होगा। मनोविज्ञान के अध्येताओं को यह चेतना, मानव आचरण तथा आत्मस्वरूप के दार्शनिक अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करता है। अन्त में, जो आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि की खोज करने वाले हैं, उनके लिए भागवत एक सरल एवं व्यावहारिक पथ-प्रदर्शक का काम देगा, जो सर्वोच्च आत्मज्ञान तथा परम सत्य का साक्षात्कार कराएगा। भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट द्वारा प्रस्तुत किया गया अनेक खण्डों में उपलब्ध यह सम्पूर्ण ग्रन्थ आनेवाले दीर्घकाल तक आधुनिक मानव के बौद्धिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान बनाये रखेगा। - प्रकाशक |