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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 14: ब्रह्मा द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति  » 
 
 
 
 
 
ब्रह्मा ने कहा, “हे भगवान् ! आप ही एकमात्र आराध्य परमेश्वर हैं, अतः मैं आपको विनीत प्रणाम करता हूँ और आपको प्रसन्न करने के लिए स्तुति कर रहा हूँ । आपका शरीर जलपूरित बादलों के रंग वाला है । आप अपने पीताम्बर से उद्भासित रजत रश्मिमंड़ल से चमचमा रहे हैं ।

“मैं महाराज नन्द के उन पुत्र को बारम्बार सादर नमस्कार करता हूँ जो मेरे समक्ष शंख, कुण्डल तथा सिर में मोरपंख धारण किए खड़े हैं । आपका मुख सुन्दर है, आप मुकुट धारण किए हैं, वनफूलों की माला पहने हैं और हाथ में भोजन का एक ग्रास लिये खड़े हैं । आप हाथ में लकुट, बिगुल, सींग तथा बंशी पकड़े हैं । आप लघु चरणकमल वाले भगवान् हैं !

“हे प्रभु ! लोग मुझे समस्त वैदिक ज्ञान का स्वामी कहते हैं और मुझे ही इस ब्रह्माण्ड का स्त्रष्टा कहा जाता है, किन्तु अब यह सिद्ध हो चुका है कि मैं आपको नहीं समझ सकता, भले ही आप बाल-रूप में मेरे समक्ष उपस्थित हैं । आप अपने बाल-मित्रों तथा बछड़ों के साथ खेल रहे हैं, जिसका यह अर्थ लगाया जा सकता है कि आपको पर्याप्त शिक्षा प्राप्त नहीं हुई है । आप एक गँवई बालक की भॉति अपने हाथ में अपना भोजन लिए अपने बछड़ों की खोज कर रहे हैं । तो भी आपके तथा मेरे शरीर में इतना अधिक अन्तर है कि मैं आपकी शक्ति का अनुमान नहीं लगा सकता । जैसाकि मैं ब्रह्मा-संहिता में पहले ही कह चुका हूँ आपका शरीर भौतिक नहीं है ।”

ब्रह्मा-संहिता में बताया गया है कि भगवान् का शरीर आध्यात्मिक (चिन्मय) है । भगवान् के शरीर तथा उनमें कोई अन्तर नहीं है । उनके शरीर का प्रत्येक अंग अन्य किसी अंग का कार्य सम्पन्न कर सकता है । भगवान् अपने हाथों से देख सकते हैं, अपनी आँखों से सुन सकते हैं, अपने पाँवो से भेंट स्वीकार कर सकते हैं तथा मुख से सृष्टि उत्पन्न कर सकते हैं ।

ब्रह्मा ने आगे कहाः “ग्वालबाल के रूप में आपका जन्म भक्तों के लाभ हेतु हुआ है और यद्यपि मैंने आपके बछड़े तथा बालक चुराकर आपके चरणकमलों के प्रति अपराध किया है, किन्तु मैं समझ सकता हूँ कि आपने मुझ पर दया की है । यह आपका दिव्य गुण है कि आप अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त वत्सल रहते हैं । किन्तु मैं अपने प्रति आपका स्नेह होते हुए भी, आपकी शारीरिक शक्तियों की क्षमता का अनुमान नहीं लगा सकता । यह समझना होगा कि जब मैं इस ब्रह्माण्ड का परम पुरुष ब्रह्मा होकर बालरूप श्रीभगवान् के शरीर का अनुमान नहीं लगा सकता तो फिर अन्य का क्या कहना ? और यदि मैं आपके बाल-शरीर की आध्यात्मिक शक्ति का अनुमान नहीं लगा सकता, तो फिर मैं आपकी दिव्य लीलाओं को कैसे समझ सकता हूँ ? अतः जैसाकि श्रीमद् भगवद् गीता में कहा गया है कि जो कोई भगवान् की दिव्य लीलाओं, उनके आविर्भाव तथा तिरोधान के विषय में थोड़ा भी समझ सकता है, वह इस भौतिक शरीर को त्यागने के बाद भगवान् के धाम में प्रवेश करने का अधिकारी बन जाता है । इस कथन की पुष्टि वेदों में भी हुई है । जिनमें कहा गया हैः भगवान् को समझने मात्र से ही कोई भी जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट सकता है । अतः मैं तो यही स्तुति करूँगा कि लोगों को चाहिए कि वे चिन्तन द्वारा आपको समझने का प्रयत्न न करें ।

“आपको समझने की सर्वोत्तम विधि यह है कि चिन्तन को विनम्र भाव से त्याग कर आपके विषय में या तो आपसे सुना जाये जैसाकि आपने ही श्रीमद् भगवद् गीता तथा अन्य समान वैदिक साहित्य में वक्तव्य दिये हैं, अथवा किसी सिद्ध भक्त से सुना जाए जिसने आपके चरणकमलों में शरण ले रखी हो । मनुष्य बिना किसी ऊहापोह के भक्त से श्रवण करे । उसे अपनी सांसारिक स्थिति में परिवर्तन करने की जरुरत नहीं, उसे केवल आपका संदेश सुनना होता है । यद्यपि आप भौतिक इन्द्रियों द्वारा ज्ञेय नहीं हैं, किन्तु केवल आपके विषय में श्रवण करने से अज्ञान के अधंकार को दूर किया जा सकता है । आप अपनी अनुकम्पा से ही भक्तों के समक्ष प्रकट होते हैं । आप अन्य किसी साधन द्वारा अज्ञेय हैं । भक्ति के बिना शुष्क ज्ञान आपकी खोज करने में समय का अपव्यय मात्र है । भक्ति इतनी महत्त्वपूर्ण है कि थोड़े से प्रयास से ही मनुष्य उच्चत्तम सिद्धि की अवस्था को प्राप्त हो सकता है । अतः मनुष्य को चाहिए कि भक्ति की कल्याणदायिनी विधि की उपेक्षा करके चिन्तन विधि का प्रश्रय न ले । चिन्तन द्वारा भले ही आप दृश्य जगत् का आंशिक ज्ञान प्राप्त हो ले, किन्तु प्रत्येंक वस्तु के मूल स्वरूप आप को समझने का प्रयास करना समय का अपव्यय चिन्तन में लगे रहते हैं उनका आप को समझने का प्रयास करना समय का अपव्यय ही हैं, जैसे धान के लिए भूसे को पीटना । थोड़े से धान को चक्की में दल कर चावल के कुछ दाने प्राप्त किए जा सकते हैं, किन्तु धान का छिलका (भूसा) तो पहले ही चक्की से पिस चुका होता है और भूसे की बड़ी मात्रा को पीटने से दाने नहीं निकलते । यह तो व्यर्थ का श्रम हैं ।

“हे भगवान् ! मानव-समाज के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण प्राप्त हैं जब कि मनुष्य दिव्य पद प्राप्त न होने पर मन, वचन तथा कर्म से भक्ति में लग कर सिद्धि प्राप्त करके आपके धाम को जा सका है । भक्ति के बिना चिन्तन या ध्यान द्वारा आपकों समझने की सारी विधियाँ व्यर्थ हैं । अतः मनुष्य को चाहिए कि सांसारिक कार्यों में लगे रह कर भी वह आपकी भक्ति करे और आपके दिव्य यश का श्रवण तथा कीर्तन करते हुए आपके निकट रहे । केवल श्रवण तथा कीर्तन से ही मनुष्य आपके धाम में प्रवेश करने की परम सिद्धि को प्राप्त कर सकता है । अतः यदि कोई आपके यश का श्रवण तथा कीर्तन करते हुए आपका सान्निध्य सदा प्राप्त करता है और अपने सारे कर्मफलों को आपकी तुष्टि के लिए अर्पित करता हैं । जिन लोगों ने अपने हृदय सारे कल्मष से शुद्ध कर लिये हैं उन्हें आपका साक्षात्कार होता है । हृदय की यह शुद्धि आपके यशों के श्रवण तथा कीर्तन द्वारा सम्भव है ।”

श्रीभगवान् सर्वव्यापक हैं । जैसाकि भगवान् ने स्वयं श्रीमद् भगवद् गीता में कहा है “सब कुछ मेरे द्वारा पालित है, किन्तु फिर भी मैं सब में नहीं हूँ । चूँकि श्रीभगवान् सर्वव्यापक हैं, अतः ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसका पता उन्हें न हो । भगवान् की सर्वव्यापकता कभी भी जीव के संकुचित ज्ञान में समाहित नहीं हो सकती । अतः जिस व्यक्ति ने भगवान् के चरणकमलों में अपने मन को स्थिर कर लिया है, वही भगवान् को कुछ हद तक समझ सकता है । मन का तो यह काम हैं कि वह इन्द्रियतृप्ति के लिए विविध विषयों के पीछे दौड़ता रहता है । अतः जो व्यक्ति अपने मन को निरन्तर भगवान् की सेवा में लगाये रहता है, वही मन को वश में कर सकता है और भगवान् के चरणकमलों में स्थिर हो सकता है । भगवान् के चरणकमलों में मन की यह एकाग्रता समाधि कहलाती है । इस समाधि अवस्था को प्राप्त हुए बिना वह भगवान् के स्वभाव को नहीं समझ सकता । कुछ दार्शनिक या विज्ञानी विराट प्रकृति के एक-एक अणु का अध्ययन कर सकते हैं; वे इतने प्रगतिशील भी हो सकते हैं कि विराट आकाश या आकाश के समस्त ग्रहों तथा नक्षत्रों के परमाणुओं का, यहाँ तक कि सूर्य या कि आकाश, तारों तथा अन्य ज्योतिष्कों के चमकीले अणुओं की गणना कर सकते हैं । किन्तु श्रीभगवान् के गुणों की गणना कर पाना सम्भव नहीं है ।

जैसाकि वेदान्तसूत्र के प्रारम्भ में कहा गया है । परम पुरुष समस्त गुणों का मूलाधार है । उन्हें सामान्यतया निर्गुण कहा जाता है । निर्गुण का अर्थ होता है गुणों से रहित (निःगुण) । किन्तु निर्विशेषवादी निर्गुण शब्द का अर्थ किसी भी गुण से विहीन लगाते हैं । चूँकि वे भगवान् के गुणों का अनुमान लगाने में असमर्थ हैं, अत वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भगवान् में कोई गुण नहीं होता । किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है । असल बात तो यह है कि वे समस्त गुणों के मूलाधार हैं । सारे गुण सदा उन्हीं से उद्भूत होते रहते हैं । अतः एक ससीम व्यक्ति किस तरह भगवान् के गुणों की गणना कर सकता है ? वह किसी एक क्षण के लिए भगवान् के गुणों की गणना कर भी ले, किन्तु दूसरे ही क्षण इन गुणों की संख्या बढ़ जाती है, अतः भगवान् के दिव्य गुणों का अनुमान लगाना सम्भव नहीं हैं । इसीलिए वे निर्गुण कहलाते हैं- वे जिनके गुणों की गणना नहीं हो सकती ।

अतः मनुष्य को भगवान् के गुणों की गणना के अनुमान का निरर्थक प्रयास नहीं करना चाहिए । योगसिद्धि प्राप्त करने के लिए शुष्क चिन्तन (ज्ञानयोग) या शारीरिक प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं है । मनुष्य को इतना ही समझ लेना होगा कि इस शरीर में सुख तथा दुःख पूर्वनिर्धारित है । इस शरीर के दुखों को दूर करने या सुख प्राप्त करने के लिए विविध आसन लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है । सर्वोत्कृष्ट मार्ग तो यह है कि मनसा वाचा कर्मणा भगवान् की शरण ग्रहण की जाये और निरन्तर उनकी सेवा में संलग्न रहा जाये यह दिव्य श्रम सार्थक है, किन्तु परम सत्य को समझने के अन्य सारे प्रयास असफल होते हैं । अतः कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति चिन्तन या योगशक्ति द्वारा उस परम पुरुष को समझने का प्रयास नहीं करता, अपितु वह भक्ति में लगकर भगवान् पर ही आश्रित रहता है । वह जानता है कि इस शरीर को जो कुछ भी होता है, वह उसके पूर्वकर्मों का फल है । यदि कोई इस प्रकार का सरल भक्तिमय जीवन व्यतीत करता है, तो वह स्वतः भगवान् के दिव्य धाम का उत्तराधिकारी बन जाता है । वास्तव में प्रत्येक जीव परमेश्वर का भिन्नांश और भगवान् का पुत्र है । प्रत्येक व्यक्ति को भगवान् के दिव्य आनन्द में हाथ बँटाने का प्राकृतिक अधिकार है, किन्तु पदार्थ के सम्पर्क में आने से बद्धजीव इस उत्तराधिकार से वंचित होते रहे हैं । यदि कोई अपने आपकों भक्ति में लगाने की सरल विधि अपनाता है, तो वह स्वतः भौतिक कल्मष से मुक्त होकर परमेश्वर के साहचर्य का दिव्य पद प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है ।

ब्रह्माजी ने भगवान् श्रीकृष्ण के समक्ष अपने आपको सर्वाधिक दंभी जीव के रूप में प्रस्तुत किया क्योंकि वे भगवान् की निजी शक्ति की परीक्षा करना चाह रहे थे । उन्होनें भगवान् के ग्वालों तथा बछड़ों को इसलिए चुरा लिया था कि जरा देखें वे उन्हें किस तरह ढूँढ़ पाते हैं । अपनी चाल के बाद ब्रह्मा ने यह स्वीकार किया कि उनका यह प्रयास अत्यन्त धृष्ट था, क्योंकि वे आदि शक्ति के समक्ष अपनी शक्ति की परीक्षा लेने का प्रयत्न कर रहे थे । अपनी चेतना के लौटने पर ब्रह्मा ने देखा कि यद्यपि वे इस संसार के अन्य समस्त जीवों की नजरों में अत्यन्त शक्तिमान प्राणी हैं, किन्तु भगवान् के बल तथा शक्ति की तुलना में उनकी शक्ति कुछ भी नहीं है । इस भौतिक जगत् के विज्ञानियों ने परमाणु हथियार जैसे आश्चर्यों की खोज कर ली है और जब इनका परीक्षण किसी नगर या इस लोक के किसी नगण्य स्थान में किया जाता है, तो ऐसे शक्तिशाली हथियारों से तथाकथित तहलका मच जाता है, किन्तु यदि इन परमाणु हथियारों का परीक्षण सूर्य में हो, तो उनकी क्या महत्ता रह जाएगी ? वे वहाँ पर नगण्य हैं । इसी प्रकार ब्रह्मा द्वारा श्रीकृष्ण के बछड़ों तथा ग्वालों का चुराया जाना उनकी योगशक्ति का विस्मयकारी प्रदर्शन भले ही लगा हो, किन्तु जब श्रीकृष्ण ने अपनी विस्तृत शक्ति का प्रदर्शन नाना बछड़ों तथा बालकों के रूप में किया और बिना प्रयास के उन सबका भरण किया, तो ब्रह्मा की समझ में आ गया कि उनकी अपनी शक्ति कितनी नगण्य है ।

ब्रह्मा ने भगवान् श्रीकृष्ण को अच्युत कहकर सम्बोधित किया क्योंकि भगवान् अपने भक्त द्वारा की गई छोटी से छोटी सेवा को भी नहीं भूल पाते । वे अपने भक्तों के प्रति इतने दयालु तथा वत्सल हैं कि वे उनके द्वारा सम्पन्न थोड़ी सी सेवा को भी बड़ा करके मानते हैं । ब्रह्मा ने निश्यच ही भगवान् की अत्यधिक सेवा की थी । इस विशेष ब्रह्माण्ड का भार सँभालने वाले परम पुरुष श्रीकृष्ण के वे निस्सन्देह आज्ञाकारी दास हैं, अतः वे श्रीकृष्ण को प्रसन्न कर सके । उन्होनें भगवान् से कहा कि वे उन्हें अपना अधीनस्थ दास समझकर उनकी छोटी से छोटी भूल तथा धृष्टता को क्षमा कर दें । उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें अपने शक्तिशाली पद (ब्रह्मत्व) के कारण गर्व हो गया था । चूँकि वे इस भौतिक जगत् में रजोगण के अवतार हैं, अतः ऐसा होना स्वाभाविक था और इसीलिए उनसे यह भूल हो गई । किन्तु ब्रह्माजी आशा करते थे कि चूँकि वे भगवान् के अधीनस्थ थे, अतः भगवान् श्रीकृष्ण उन पर कृपा करेंगे और इस भारी भूल के लिए उसे क्षमा कर देंगे।

ब्रह्मा को अपनी वास्तविक स्थिति का बोध हुआ । निश्चय ही वे इस ब्रह्माण्ड के परम शिक्षक हैं और इस भौतिक प्रकृति के निर्माण के लिए उत्तरदायी हैं, जो अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी आदि सम्पूर्ण भौतिक शक्ति से युक्त है । ऐसा ब्रह्माण्ड विराट होते हुए भी मापा जा सकता है । जिस प्रकार कि हमारा शरीर सात बित्ते का मापा जाता है । सामान्यतया प्रत्येक मनुष्य के शरीर की माप सात बित्ते (साढे तीन हाथ) परिगणित की जाती है । भले ही यह ब्रह्माण्ड एक विराट शरीर के समान दिखाई दे, किन्तु इसकी माप ब्रह्मा के सात बित्ते ही है । इस ब्रह्माण्ड के अतिरिक्त भी अन्य असंख्य ब्रह्माण्ड हैं, जो इस ब्रह्मा के अधिकार-क्षेत्र के बाहर है । जिस प्रकार एक जालीदार खिड़की के छिद्रों में से होकर अंसख्य सूक्ष्म परमाणु कण निकलते रहते हैं उसी प्रकार महाविष्णु के रोमकूपों से लाखों-करोड़ों ब्रह्माण्ड बीज रूप में प्रकट होते हैं, और ये महाविष्णु श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण विस्तार के अंशमात्र ही होते हैं । ऐसी अवस्था में यद्यपि ब्रह्मा इस ब्रह्माण्ड में सर्वोपरि जीव हैं, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण के सामने उनकी क्या बिसात है ।

अतः ब्रह्मा ने अपनी तुलना उस शिशु से की जो अपनी माता के गर्भ में रहता है । यदि यह शिशु गर्भ में अपने हाथ-पैर चलाता है । और इस तरह खेलते समय वह अपनी माता का शरीर स्पर्श करता है, तो क्या माता इस शिशु से नाराज होती है ? निस्सन्देह नहीं । इसी प्रकार ब्रह्मा चाहे कितने ही महान् पुरुष क्यों न हों, वे तथा अन्य सारे लोग भगवान् के गर्भ के भीतर स्थित हैं । भगवान् की शक्ति सर्वत्र व्याप्त है; इस सृष्टि में कोई ऐसा स्थान नहीं, जहाँ यह शक्ति कार्य नहीं कर रही हों । चूँकि प्रत्येक वस्तु भगवान् की शक्ति के अन्तर्गत है, अतः चाहे इस लोक के ब्रह्मा हो या अन्य लाखों करोड़ों ब्रह्माण्डों के ब्रह्मागण हो, वे सब भगवान् की शक्ति के अन्तर्गत ही विद्यमान हैं । अतः भगवान् को माता और माता के गर्भ में स्थित प्रत्येक वस्तु को उसका शिशु माना जाता है । भली माता कभी शिशु से नाराज नहीं होती, यद्यपि वह अपने पाँवों को हिला जुला कर अपनी माता के शरीर को छूता रहता है ।

तब ब्रह्मा ने कहा कि उनका जन्म नारायण के नाभिकाल से हुआ जो तीनों लोकों भूलोक, भुवलोक तथा स्वलोक के विनाश के बाद खिला । यह ब्रह्माण्ड तीन भागों में विभाजित है । इनके नाम हैं- स्वर्ग, मर्त्य तथा पाताल । प्रलय (विनाश) के समय ये तीनों लोक जल में विलीन हो जाते हैं । उस समय श्रीकृष्ण के पूर्ण अंश (स्वांश) नारायण जल में शयन करते हैं और क्रमशः उनकी नाभि से कमलनाल निकलता है और उस कमल-पुष्प से ब्रह्मा का जन्म होता है । अतः स्वाभाविक तौर पर निष्कर्ष निकाला है कि नारायण ब्रह्मा की माता हैं । चूँकि ब्रह्माण्ड के विनाश के पश्चात भगवान् समस्त प्राणियों के आश्रय हैं, अतः वे नारायण कहलाते हैं । नर का अर्थ है समग्र जीवात्माएँ तथा अयन का अर्थ है आश्रय (वासस्थान) । गर्भोदकशायी विष्णु को नारायध कहा जाता है, क्योंकि वे जल पर शयन करते हैं । साथ ही वे समस्त सजीव प्राणियों के आश्रय भी हैं । इसके अतिरिक्त नारायण प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में उपस्थित हैं, जैसाकि श्रीमद् भगवद् गीता में पुष्टि की गई है । इस अर्थ में भी वे नारायण हैं, क्योंकि आश्रय के साथ-साथ अयन का एक अर्थ ज्ञान का स्रोत भी है । श्रीमद् भगवद् गीता में इसकी भी पुष्टि हुई है कि जीव की स्मृति हृदय के भीतर परमात्मा की उपस्थिति के कारण है । शरीर परिवर्तन होने पर प्राणी अपने गत जीवन की हर बात भूल जाता है, किन्तु उसके हृदय में भगवान् नारायण का वास होने के कारण उसे अपनी पूर्व इच्छा के अनुसार कर्म करने का स्मरण उन्हीं के द्वारा कराया जाता है । ब्रह्माजी यह सिद्ध करना चाहते थे कि श्रीकृष्ण आदि नारायण हैं, वे ही नारायण के स्रोत हैं और नारायण बहिरंगा शक्ति (माया) के प्रदर्शन नहीं, अपितु आध्यात्मिक शक्ति के विस्तार हैं । बहिरंगा शक्ति या माया के कार्य इस दृश्य जगत् की उत्पत्ति के बाद ही प्रकट हो पाते हैं और नारायण की आदि आध्यात्मिक शक्ति सृष्टि-रचना के पहले से कार्य शील थी । अतः नारायण से कारणोदकशायी विष्णु तक, कारणोदकशायी विष्णु से गर्भोदकशायी विष्णु तक गर्भोदकशायी विष्णु से क्षीरोदकशायी विष्णु तक और क्षीरोदकशायी विष्णु से जन-जन के हृदय में वास करने वाले नारायण के विस्तार श्रीकृष्ण के विस्तार और उनकी आध्यात्मिक शक्ति की अभिव्यक्तियाँ हैं । उनका संचालन भौतिक शक्ति (माया) द्वारा न होने के कारण वे क्षणिक नहीं हैं । माया द्वारा संचालित कोई भी वस्तु क्षणिक होती है, किन्तु आध्यात्मिक शक्ति द्वारा कोई भी वस्तु शाश्वत है ।

ब्रह्मा ने अपने कथन की पुनः पुष्टि की कि भगवान् श्रीकृष्ण आदि नारायण हैं । उन्होनें कहा कि विराट शरीर अब भी गर्भोदक-सागर में लेटा हुआ है । वे इस प्रकार बोले ब्रह्माण्ड रूपी यह विराट शरीर आपकी शक्ति की एक अन्य अभिव्यक्ति है ।” जल में शयन करने के कारण यह विराट रूप नारायण भी है और हम सब इस नारायण रूप के गर्भ में स्थित हैं । मुझे आपके विभिन्न नारायण रूपों का सर्वत्र दर्शन हो रहा है । मैं आपका दर्शन जल में, अपने हृदय में और अब अपने समक्ष भी कर रहा हूँ । आप ही आदि नारायण हैं ।

“हे प्रभु ! आपने इस अवतार में यह सिद्ध कर दिया है कि आप माया के परम नियन्ता हैं । आप इस जगत् में रहते हैं, किन्तु यह सारा जगत् आपके भीतर है । यह तथ्य आप पहले ही सिद्ध कर चुके हैं जब आपने अपनी माता के समक्ष अपने मुख के भीतर सारे ब्रह्माण्ड को प्रदर्शित किया था । आप बिना किसी बाहरी सहायता के अपनी योगमाया की अकल्पनीय शक्ति से ऐसी वस्तुएँ बना सकते हैं ।

“हे कृष्ण ! इस समय हम जिस सारे दृश्य जगत् को देख रहे हैं वह आपके शरीर के भीतर है । फिर भी मैं आपकों शरीर के बाहर देख रहा हूँ और आप भी मुझे बाहर देख रहे हैं । ऐसे कार्य आपकी अकल्पनीय शक्ति से प्रभावित हुए बिना कैसे घटित हो सकते हैं ?

यहाँ पर ब्रह्मा ने इस बात पर बल दिया कि श्रीभगवान् की अकल्पनीय (अचिन्त्य) शक्ति को स्वीकार किए बिना वस्तुओं की जिस रूप में हैं उस रूप में व्याख्या नहीं की जा सकती । उन्होंने आगे कहा, हे प्रभु ! यदि हम अन्य सारी बातें छोड़कर केवल आज जो कुछ हुआ हैं - मैनें जो देखा है - उस पर विचार करें तो क्या यह सब आपकी (अचिन्त्य) शक्ति के कारण नहीं हुआ ? सर्वप्रथम मैंने आपको अकेला देखा; तत्पश्चात् आपने अपना विस्तार अपने ग्वाल-मित्रों, बछड़ों तथा वृन्दावन की प्रत्येक वस्तु में कर लिया; फिर मैंने आपको तथा सारे बालकों तथा बछड़ों को चतुर्भज विष्णुओं के रूप में देखा जिसकी पूजा सारे तत्त्व तथा मुझ सहित सारे देवता कर रहे थे । वे फिर से ग्वाल-बाल अदृश्य हो गए और आप पूर्ववत् अकेले रह गए । क्या इसका आशय यह नहीं है कि आप परमेश्वर नारायण हैं, जो प्रत्येक वस्तु के आदि हैं तथा सभी वस्तुएँ आपसे निकलती हैं और पुनः आपमें प्रवेश करती हैं और आप जैसे के तैसे बने रहते हैं ?

“जो व्यक्ति आपकी अचिन्त्य शक्ति से परिचित नहीं हैं, वे यह नहीं समझ सकते कि अकेले आप ही स्त्रष्टा ब्रह्मा, पालक विष्णु तथा संहारकर्त्ता शिव के रूप में अपना विस्तार करते हैं । जो लोग वस्तुओं को ठीक-ठीक नहीं जानते वे मुझ ब्रह्मा को स्त्रष्टा, विष्णु को पालक तथा शिव को संहारकर्त्ता के रूप में समझते हैं । वास्तव में आप ही सब कुछ हैं-स्त्रष्टा, पालक तथा संहर्ता । इसी प्रकार आप अपना विस्तार विभिन्न अवतारों के रूप में करते हैं; देवताओं में आप वामनदेव के रूप में, महान् ॠषियों में परशुराम के रूप में और मनुष्यों में आप स्वयम् के रूप में भगवान् श्रीकृष्ण अथवा भगवान् राम के रूप में, पशुओं में वराह रूप में तथा जलचरों में मत्स्य कें रूप में अवतरित होते हैं । फिर भी आपका कोई स्वरूप नहीं है, आप शाश्वत हैं । आपका प्राकट्य तथा तिरोधान आप की अचिन्त्य शक्ति से भक्तों को सुरक्षा प्रदान करने तथा असुरों के विनाश के लिए होता है । हे भगवान् ! के सर्वव्यापी हे भगवान् ! हे परमात्मा ! हे समस्त योग शक्तियों के नियन्ता ! इन तीन जगतों में आपकी दिव्य लीलाओं का सही-सही आकलन करनें में कोई भी व्यक्ति समर्थ नहीं हैं । कोई इसका अनुमान नहीं लगा सकता कि आपने अपना योगमाया तथा अवतारों को कैसे विस्तार किया और आप अपनी दिव्य शक्ति से किस प्रकार कार्य करते हैं ? हे भगवान् ! यह सारा दृश्य जगत् स्वप्न का तुल्य है और इसका क्षणिक अस्तित्व मन को विचलित कर देता है । फलतः हम इस जगत् में चिन्ताओं से परिपूर्ण रहते हैं और इस भौतिक जगत् में रहने का अर्थ है मात्र दुख और क्लेश । और इस जगत् का क्षणिक अस्तित्व मोहक तथा प्रिय लगता हैं, क्योंकि यह आपके सच्चिदानन्द शरीर से उत्पन्न हैं ।

अतः मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि आप परमात्मा, परम सत्य तथा आदि पुरुष हैं और यद्यपि आपने अपनी अचिन्त्य दिव्य शक्तियों के द्वारा अपने आपकों अनेक विष्णु रूपों या जीवों तथा शक्तियों में विस्तारित कर रखा है, किन्तु आप परम अद्वितीय हैं, आप परम परमात्मा हैं । असंख्य जीव मूल अग्नि के स्फुलिंग मात्र की भाँति हैं । हे भगवान् ! परमात्मा को निर्गुण मानना असत्य है क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि आप ही आदि पुरुष है । एक अल्पज्ञ व्यक्ति सोच सकता है कि महाराज नन्द के पुत्र होने के कारण आप आदि पुरुष नहीं हैं । और एक मनुष्य की भाँति उत्पन्न हुए हैं । किन्तु वे सब भूल रहे हैं । आप वास्तविक आदि पुरुष हैं, ऐसा मेरा निष्कर्ष है । आप नन्द के पुत्र होकर भी आदि पुरुष हैं और इसमें कोई सन्देह नहीं है । आप परम सत्य हैं और इस भौतिक अंधकार से सम्बद्ध नहीं हैं । आप मूल ब्रह्मज्योति तथा सूर्य, चन्द्र एवं नक्षत्रों जैसे भौतिक ज्योतिष्कों के स्रोत हैं। आपका दिव्य तेज ब्रह्मज्योति के समरूप हैं । जैसाकि ब्रह्म-संहिता में कहा गया है, ब्रह्मज्योति और कुछ न होकर साक्षात् आपका शारीरिक तेज है । विष्णु के अनेक अवतार है और आपके विभिन्न गुणों के भी अवतार हैं, किन्तु वे सब अवतार समान स्तर के नहीं है, । आप आदि दीपक हैं । अन्य अवतारों में भी आदि दीपक जैसी प्रकाश शक्ति (कैंड़ल पावर) ही सकती है, किन्तु आदि दीपक सारे प्रकाश का शुभारम्भ है । और चूँकि आप इस भौतिक जगत् में उद्भूत नहीं है, अतः आपका अस्तित्व इस जगत् के संहार के बाद भी इसी रूप में बना रहेगा ।

चूँकि आप आदि पुरुष हैं, अतः आपको गोपाल-तापनी उपनिषद् तथा ब्रहा-संहिता में गोविन्दम् आदि पुरुषम् कहा गया है । गोविन्द आदि पुरुष और सब कारणों के कारण हैं । श्रीमद् भगवद् गीता में भी कहा गया है कि आप ही ब्रह्म तेज के स्रोत हैं । किसी को यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि आपका शरीर किसी सामान्य भौतिक शरीर के समान है । आपका शरीर अक्षर है । भौतिक शरीर सदा ही त्रिविध तापों से पूर्ण रहता है, किन्तु आपका शरीर सच्चिदानन्दविग्रह है अर्थात् आनन्द, ज्ञान तथा अमरता से पूर्ण है । आप निरंजन भी हैं क्योंकि आपकी लीलाएँ, चाहे वे यशोदा के नन्हें पुत्र के रूप में हों या गोपियों के प्रेमी के रूप में हों, कभी भौतिक गुणों से कल्मषग्रस्त नहीं होती । यद्यपि आपने अनेक अनेक ग्वालों, बछड़ों के रूप में अपने आपकों प्रदर्शित किया हैं, किन्तु इससे आपकी दिव्य शक्ति कम नहीं हुई । आप सदैव पूर्ण रहते हैं । जैसाकि वैदिक साहित्य में वर्णित है, यदि पूर्ण-परम सत्य-में से पूर्ण घटाया भी जाये तो पूर्ण परम सत्य ही शेष बचता है । और यद्यपि पूर्ण के अनेक विस्तार देखने में आते हैं, पूर्ण अद्वितीय ही रहता है । चूँकि यद्यपि पूर्ण के अनेक विस्तार देखने में आते हैं, पूर्ण अद्वितीय ही रहता है । चूँकि आपकी सारी लीलाएँ आध्यात्मिक हैं, अतः प्रकृति के गुणों द्वारा उनके कल्मषग्रस्त होने की कोई सम्भावना नहीं रहती । जब आप अपने पिता नन्द तथा माता यशोदा के अधीन रहते हैं, तो आपकी शक्ति घटती नहीं; यह अपने भक्तों के प्रति आपके वात्सल्य की अभिव्यक्ति है । आपके अतिरिक्त आपकी स्पर्धा करने वाला कोई अन्य नहीं है अल्पज्ञ व्यक्ति समझता है कि आपकी लीलाएँ तथा आविर्भाव केवल भौतिक उपाधियाँ हैं । आप अज्ञान तथा ज्ञान से परे हैं जैसाकि गोपाल-तापनी उपनिषद् से पुष्टि होती है । आप मूल अमृत हैं, अक्षय हैं । जैसाकि वेदों में पुष्टि हुई है, अमृतं शाश्वतं ब्रह्मे । ब्रह्म नित्य, प्रत्येक वस्तु की परम उत्पत्ति है, जिसका न तो जन्म होता है न मृत्यु ।

“उपनिषदों में कहा गया है कि परब्रह्म सूर्य के समान तेजस्वी तथा प्रत्येक वस्तु का मूल है और जो कोई भी उस मूल पुरुष को समझ सकता है, वह भौतिक बद्ध जीवन से मुक्त हो जाता है । जो भी भक्ति द्वारा आप में अनुरक्त हो सकता हैं, वही आपकी वास्तविक स्थिति, आपका जन्म, प्रादुर्भाव, तिरोधान तथा कार्यकलाप जान सकता है । जैसाकि श्रीमद् भगवद् गीता में पुष्टि की गई है, आपकी स्वाभाविक स्थिति, प्रादुर्भाव तथा तिरोधान को जान लेने से ही मनुष्य तुरन्त इस शरीर को त्यागकर आध्यात्मिक लोक को प्राप्त होता है । अतः भौतिक अज्ञान के सागर को तैरने के लिए बुद्धिमान मनुष्य आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता है और अत्यन्त सुगमतापूर्वक आध्यात्मिक जगत् को चला जाता है ।

ऐसे अनेक तथाकथित ध्यानी हैं, जिन्हें यह पता नहीं है कि आप परम आत्मा हैं । जैसाकि श्रीमद् भगवद् गीता में कहा गया है आप प्रत्येक हृदय में स्थित परम आत्मा हैं । अतः आपसे परे किसी वस्तु के विषय में ध्यान करने की कोई आवश्यकता नहीं है । जो भी आपके मूल श्रीकृष्ण रूप के ध्यान में सदा मग्न रहता है, वह भौतिक अज्ञान-सागर को सरलता से पार कर लेता हैं । किन्तु जो लोग यह नहीं जानते कि आप परम आत्मा हैं, वे अपने तथाकथित ध्यान के बावजूद इसी संसार में रहते जाते हैं । यदि कोई मनुष्य आपके भक्तों की संगति से यह जान पाता है कि भगवान् श्रीकृष्ण ही आदि परमात्मा हैं, तो उसके लिए भौतिक अज्ञान-सागर को सरलता से पार कर लेता है । किन्तु जो लोग यह नहीं जानते कि आप परम आत्मा हैं, वे अपने तथाकथित ध्यान के बावजूद इसी संसार मे रहते जाते हैं यदि कोई मनुष्य आपके भक्तों की संगति से यह जान पाता है कि भगवान् श्रीकृष्ण ही आदि परमात्मा हैं, तो उसके लिए भौतिक अज्ञान-सागर को पार कर पाना सम्भव होता है । उदाहरणार्थ, ज्योंही मनुष्य रस्सी को सर्प समझ लेता है वह भयभीत हो जाता है, परन्तु जैसे ही वह समझ जाता है कि रस्सी साँप नहीं है, वह भय से मुक्त हो जाता है अतः जो आपके व्यक्तिगत उपदेशों द्वारा आपको समझ जाता है जैसाकि श्रीमद् भगवद् गीता का कथन है या जो आपके शुद्ध भक्तों के उपदेशों के माध्यम से आपको जान लेता है जैसाकि श्रीमद्भागवत् तथा अन्य वैदिक साहित्य में कहा गया है और या अनुभव करने लगता है कि आप ज्ञान के चरम लक्ष्य हैं, तो उसे इस जगत् से और अधिक ड़रने की आवश्यकता नहीं रह जाती ।

तथाकथित मुक्ति तथा बन्धन उस व्यक्ति के लिए निरर्थक है जो आपकी भक्ति में पहले ही लग चुका है, जिस प्रकार जो व्यक्ति यह जान लेता है कि यह सर्प नहीं अपितु रस्सी है, वह भय से रहित हो जाता है । भक्त जानता है कि यह भौतिक जगत् आपका है, अतः वह अपनी प्रत्येक वस्तु को आपकी दिव्य प्रेमा-भक्ति में लगा देता है । इस प्रकार उसके लिए कोई बन्धन नहीं रहता । जो व्यक्ति पहले से सूर्यलोक में स्थित हो, उसके लिए दिन रात में सूर्य के उदय या अस्त का प्रश्न ही नहीं उठता । यह भी कहा जाता है कि आप सूर्य तुल्य हैं और माया अंधकार जैसी है । सूर्य की उपस्थिति में अंधकार होने का पश्न नहीं उठता, अतः जो लोग आप की सेवा में लगे रह कर आपके समक्ष रहते है उनके लिए बन्धन या मोक्ष का प्रश्न ही नहीं रह जाता । वे पहले से ही मुक्त हैं । दूसरी ओर, जो लोग आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण किए बिना ही अपने आपको मुक्त समझते हैं, वे नीचे गिर जाते हैं क्योंकि उनकी बुद्धि विमल नहीं होती ।

“अतः यदि कोई सोचता हो कि परमात्मा आपसे भिन्न कोई वस्तु है और इस तरह वह परमात्मा को या परम ब्रह्म को अन्यत्र- जंगलों या हिमालय की गुफाओं में-ढूँढ़ता है तो उसकी दशा अत्यन्त दयनीय है ।”

श्रीमद् भगवद् गीता में आपने उपदेश दिया है कि मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार की अन्य समस्त विधियों का परित्याग करके केवल आपकी शरण ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि वही पूर्ण है । चूँकि आप हर प्रकार से सर्वोपरि हैं, अतः जो लोग ब्रह्मतेज की खोज में हैं, वे भी आपको ही खोजते हैं और जो लोग परमात्मा के साक्षात्कार की खोज में हैं, वे भी आपकों ही खोजते रहते हैं । आपने श्रीमद् भगवद् गीता में कहा है कि आप स्वयं अपने आंशिक निरूपण से परमात्मा के रूप में इस दृश्य भौतिक जगत् में प्रवेश किए हुए हैं । आप हर एक के हृदय में उपस्थित हैं, और परमात्मा को अन्यत्र कहीं ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है । यदि कोई ऐसा करता है, तो वह अज्ञानवश करता है जो ऐसी स्थिति से ऊपर है, वह जानता है कि आप असीम हैं । आप भीतर भी हैं तथा बाहर भी । अतः आप सर्वत्र हैं । परमात्मा को अन्यत्र न ढूँढ़कर भक्त अपने मन को अपने भीतर आप पर ही एकाग्र करता है । वास्तव में जो देहात्मबुद्धि से मुक्त हैं, वे ही आपकी खोज कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं कर सकता । रस्सी को सर्प समझने की उपमा केवल उन पर लागू होती है, जो अब भी आपके विषय में अज्ञानी बने हुए हैं । वास्तव में जब मनुष्य रस्सी को सांप समझ लेता है, तो उसका अस्तित्व केवल मन के भीतर है । इसी तरह माया का अस्तित्व केवल मन के भीतर होता है, माया आपके प्रति अज्ञानता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । जब कोई आपके व्यक्तित्व को भूल जाता है, वह माया की बद्ध अवस्था में होता है, अतः जो भीतर तथा बाहर से आप में स्थिर हो चुका है, वह मोहग्रस्त नहीं होता ।

“जिसे कुछ भक्ति प्राप्त हो चुकी हो वह आपकी महिमा को समझ सकता है । यदि कोई ब्रह्म-साक्षात्कार या परमात्मा-साक्षात्कार के लिए प्रयास करता है, तो वह आपके विभिन्न रूपों को तब तक नहीं समझ पाता जब तक वह भक्ति का थोड़ा सा फल न पा ले । कोई व्यक्ति अनेक निर्विशेषवादियों का गुरु हो सकता है, या जंगल अथवा पर्वत की गुफा में जा सकता है और अनेकानेक वर्षों तक साधु की तरह ध्यान धर सकता हैं, किन्तु वह तब तक आपकी महिमा को नहीं समझ सकता जब तक उसे कुछ भक्ति प्राप्त न हो ले । ब्रह्म-साक्षात्कार या परमात्मा-साक्षात्कार तब तक सम्भव नहीं हो पाता जब तक कि भक्ति का विचित्र प्रभाव उसका स्पर्श नहीं कर लेता, भले ही कोई वर्षों तक खोज क्यों न करें ।

“हे प्रभु ! मेरी प्रार्थना है कि इस जन्म में या अगले जन्म में मैं जहाँ भी जन्म लॅूं मुझे आपका एक भक्त माना जाने का सौभाग्य प्राप्त हो । मैं चाहे जहाँ भी होऊँ मेरी प्रार्थना है कि मैं आपकी भक्ति में लगा रहूँ । मुझे इसकी तनिक भी परवाह नहीं है कि भविष्य में मुझे कैसा जीवन प्राप्त होगा, क्योंकि मैं देखता हूँ कि गायों तथा बछड़ों या ग्वालबालों के रूप में भी भक्त इतने भाग्यवान् होते हैं कि वे आपकी दिव्य प्रेमा-भक्ति तथा साहचर्य में लगे रहते हैं । अतः मेरी इच्छा है कि मैं वर्तमान की भाँति सम्मानित पुरुष न होकर उन्हीं के समान बनूँ, क्योंकि मैं अज्ञान से पूर्ण हूँ । वृन्दावन की गोपिकाएँ तथा गायें इतनी भाग्यवान् है कि वे आपको अपने स्तन का दूध दे सकी हैं । वे व्यक्ति जो बड़े-बड़ें यज्ञ करने में लगे रहते हैं तथा अनेक कीमती बकरों की बलि चढ़ाते हैं, वे आपको ठीक से नहीं समझ पाते , किन्तु केवल भक्ति करने से ये अनजान ग्राम-वधुएँ तथा गायें आपको अपने दुग्ध से प्रसन्न कर सकी हैं; आपने जी भरकर उनका दुग्ध-पान किया है, फिर भी आप यज्ञ में व्यस्त लोगों से कभी-भी इतने सन्तुष्ट नहीं हुए । अतः मुझे महाराज नन्द, माता यशोदा यथा गोप-गोपियों के भाग्य पर आश्चर्य हो रहा है, क्योंकि आप परम सत्य श्रीभगवान् के रूप में उनके अत्यन्त प्रिय पात्र हैं । हे प्रभु ! इन वृन्दावनवासियों के सौभाग्य को कोई भी भली-भाँति नहीं जान सकता । हम सारे देवता जीवों की विविध इन्द्रियों को नियंत्रित करते हैं और हम इसी पर गर्वित रहते हैं, किन्तु हमारी स्थिति तथा इन वृन्दावनवासियों की स्थिति की कोई तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि वे अपने संवेदनात्मक कार्यों से आपकी उपस्थिति तथा संगति का वास्तविक आनन्द उठा रहे हैं । भले ही हमें इन्द्रियों के नियामक होने का गर्व हो, किन्तु यहाँ के वृन्दावनवासी इतने दिव्य हैं कि वे हमारे नियंत्रण में नहीं आते । वास्तव में वे आपकी सेवा के माध्यम से इन्द्रियों का सुखोपभोग कर रहे हैं । अतः इसे मैं अपना परम सौभाग्य मानूँगा यदि भविष्य में मुझे वृन्दावन की इस स्थली में जन्म लेने का सुअवसर प्राप्त हो सके ।

“अतः हे प्रभु ! मुझे न तो भौतिक ऐश्वर्य की कामना है न मुक्ति की ही । आपके चरणकमलों में यही विनीत प्रार्थना है कि आप इस वृन्दावन जंगल के अन्तर्गत मुझे किसी भी प्रकार का जन्म दें जिससे मुझे वृन्दावन के कुछ भक्तों की चरण-रज प्राप्त करने का अवसर मिल सकें । यदि मुझे इस भूमि पर तुच्छ घास बनकर उगने का अवसर दिया जाये, तो वह मेरे लिए अत्यन्त कल्याणकारी जन्म होगा । किन्तु यदि मै इतना भाग्यशाली न होऊँ कि वृन्दावन-जंगल के अन्तर्गत जन्म ले सकूँ , तो वृन्दावन के बाहर के क्षेत्र (परिक्रमा) में ही मुझे जन्म लेने की अनुमति दी जाये जिससे भक्तगण चलते समय मेरे ऊपर चरण रख सकें । यह भी मेरे लिए परम सौभाग्य होगा । मैं तो ऐसे ही जन्म की कामना करता हूँ जिसमें मैं भक्तों की चरण-रज से धूसरित होता रहूँ । क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि यहाँ सारे व्यक्ति कृष्णभावनामृत से ओत-प्रोत हैं; वे मुकुन्द अथवा श्रीकृष्ण के चरणकमलों के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं जानते । निस्सन्देह सारे वेद उन्हीं की खोज करते हैं ।

श्रीमद् भगवद् गीता में इसकी पुष्टि की गई है कि वैदिक ज्ञान का उदे्श्य श्रीकृष्ण की खोज है । ब्रह्म-संहिता में कहा गया है कि वैदिक साहित्य के क्रमबद्ध अध्ययन से भगवान् श्रीकृष्ण को प्राप्त कर पाना कठिन है किन्तु शुद्ध भक्त की कृपा से वे सहज उपलब्ध हो सकते हैं । वृन्दावन के शुद्ध भक्त भाग्यशाली हैं, क्योंकि वे पूरे समय मुकुन्द (भगवान कृष्ण) का दर्शन करते रहते हैं । मुकुन्द शब्द को दो प्रकार से समझा जा सकता है । मुक् का अर्थ है मोक्ष । भगवान् श्रीकृष्ण मोक्ष देने वाले है अर्थात् दिव्य आनन्द के दाता हैं । यह शब्द उनके हास्यमय मुख का भी द्योतक है, जो कुन्द पुष्प की तरह है । कुन्द एक अत्यन्त सुन्दर फूल है, जो हँसता हुआ प्रतीत होता है इसीलिए यह उपमा दी जाती है ।

वृन्दावन के विशुद्ध भक्तों तथा अन्य भक्तों में यही अन्तर है कि वृन्दावन के वासियों में श्रीकृष्ण के सान्निध्य के अतिरिक्त कोई कामना नहीं रहती । श्रीकृष्ण भक्तों पर निरन्तर दयालु होने के कारण उनकी इच्छाओं को पूरा करते हैं और चूँकि वे श्रीकृष्ण का निरन्तर साहचर्य चाहते हैं, इसीलिए भगवान् इसके लिए सदा तैयार रहते हैं । वृन्दावन के भक्त स्वाभाविक प्रेमी भी हैं । उन्हें विधि-विधानों के पालन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि उनमें पहले से श्रीकृष्ण के लिए दिव्य प्रेम विकसित रहता है । इन विधि-विधानों की आवश्यकता उन लोगों को पड़ती है जिन्होनें इस स्वाभाविक प्रेम की स्थिति प्राप्त नहीं की हैं । ब्रह्मा भी भगवान् के भक्त हैं, किन्तु वे एक सामान्य भक्त हैं, जिन्हे विधि-विधानों का पालन करना होता है । वे श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें वृन्दावन में जन्म लेने का अवसर प्राप्त हो जिससे वे सहज प्रेम की स्थिति को प्राप्त कर सकें ।

ब्रह्मा ने आगे कहा, हे भगवान् ! कभी-कभी मैं शंकित हो जाता हूँ कि आप इन वृन्दावनवासियों की भक्ति से किस प्रकार उॠण हो सकेंगे । यद्यपि मैं जानता हूँ कि आप समस्त आशीषों में परम स्रोत हैं, किन्तु मैं यह सोच कर आशंका में पड़ जाता हूँ कि आप वृन्दावन के वासियों की जितनी सेवाएँ प्राप्त कर रहे हैं उनसे किस प्रकार उॠण हो सकेंगे । मैं सोचता हूँ कि आप कितने दयालु, कितने उदार हैं कि पूतना भी, जो अत्यन्त वात्सल्यमयी माता का वेष धारण करके आपको ठगने आईं थीं, मोक्ष तथा असली माता का पद प्राप्त कर सकी । उसी कुल के अन्य असुरों, यथा अघासुर तथा बकासुर को भी मोक्ष मिला और वे आपकों पा सके । ऐसी अवस्था में मुझे आश्चर्य हो रहा है । इन वृन्दावनवासियों ने आपको सर्वस्व-अपना शरीर, मन, प्रेम तथा घर अपना धन-दौलत-अर्पित कर दिया है । उनकी हर वस्तु आपके काम में लाई जाती है । अतः उनके इस ॠण को आप किस प्रकार चुका सकेंगे ? आपने स्वयं को पहले ही पूतना को समर्पित कर दिया है ! मेरी निश्चित धारणा है कि आप वृन्दावनवासियों की प्रेमपूर्ण सेवा से कभी भी उॠण नहीं हो सकेंगे, उनके सदैव ॠणी बने रहेंगे । हे प्रभु ! मैं जानता हूँ कि वृन्दावनवासियों की सेवा सर्वोत्कृष्ट इसलिए हैं, क्योंकि वे अपनी सारी भावनाओं को आपकी सेवा में हर समय रत रखते हैं । कहा जाता है कि भौतिक वस्तुओं तथा घर के प्रति आसक्ति का कारण मोह है, जिससे जीव इस संसार में बँध जाता है । किन्तु ऐसा उन लोगों के साथ होता है जो कृष्णभावनाभावित नहीं होते । वृन्दावनवासियों के साथ ऐसे अवरोध, यथा घर-बार की आसक्ति, है ही नहीं । चूँकि उनकी आसक्ति आपमें केन्द्रित हो चुकी है और उनके घर मन्दिर बन चुके हैं, क्योंकि आप वहाँ सदैव उपस्थित रहते हैं और चूँकि वे आपके लिए सब कुछ भूल चुके हैं अतः उनके समक्ष कोई अवरोध नहीं रह गया । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के लिए घर-बार जैसी वस्तु का न तो अवरोध है, न कोई मोह ।

“मैं यह भी जानता हूँ कि एक नन्हें ग्वाल-बाल के रूप में आपका प्राकट्य कोई भौतिक क्रिया नहीं है । आप उनके प्रेम के प्रति अत्यधिक कृतज्ञ हैं और आप अपनी दिव्य उपस्थिति के द्वारा उन्हें अधिकाधिक प्रेमा-भक्ति के लिए प्रेरित करने आए हैं । वृन्दावन में भौतिक तथा आध्यात्मिक वस्तुओं में कोई अन्तर नहीं हैं, क्योंकि प्रत्येक वस्तु आपकी सेवा में समर्पित है । हे भगवान् ! आपकी ये वृन्दावनलीलाएँ आपके भक्तों को प्रेरणा देने के लिए ही हैं । यदि कोई आपकी वृन्दावनलीलाओं को ऐहिक मानता हैं, तो वह भ्रम में होगा ।

“हे कृष्ण ! जो लोग यह कर कर आपकी हँसी उड़ाते हैं कि आपको सामान्य पुरुष जैसा भौतिक शरीर प्राप्त हुआ है, उन्हें श्रीमद् भगवद् गीता में आसुरी तथा अल्पज्ञ कहा गया है । आप तो सदैव दिव्य हैं अभक्त लोग इसलिए ठगे जाते हैं क्योंकि वे आपकी उत्पत्ति भौतिक मानते हैं वस्तुतः आपने यह सामान्य ग्वाल-बाल का शरीर अपने भक्तों की श्रद्धा तथा उनका दिव्य आनन्द बढ़ाने के लिए धारण किया है ।

“हे भगवान् ! मुझे उन लोगों के विषय में कुछ नहीं कहना, जो यह विज्ञापित करते हैं कि उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार हो चुका है या आपकी अनुभूति के कारण वे स्वयं ईश्वर बन गए हैं । किन्तु जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं यह स्पष्ट स्वीकार करता हूँ कि मेरे लिए मनसा, वाचा या कर्मणा आपको समझ पाना सम्भव नहीं है । भला मैं आपके विषय में कह ही क्या सकता हूँ या आपको अपनी इन्द्रियों के द्वारा किस तरह समझ सकता हूँ ? मैं इन्द्रियों के स्वामी मन के द्वारा आपके विषय में ठीक से सोच भी नहीं सकता । इस संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं, जो आपके गुणों, कार्यों तथा आपके शरीर के विषय में कल्पना भी कर सके । केवल आपकी कृपा से ही कोई कुछ हद तक जान सकता हैं कि आप क्या हैं । हे स्वामी ! आप समस्त सृष्टि के परमेश्वर हैं, यद्यपि भ्रान्तिवश कभी-कभी मैं अपने आपको इस ब्रह्माण्ड का स्वामी मान बैठता हूँ । मैं इस ब्रह्माण्ड का स्वामी होऊँ भी तो ऐसे तो अंसख्य ब्रह्माण्ड हैं और ऐसे असंख्य ब्रह्मा हैं, जो उन ब्रह्माण्डों के नियामक हैं । किन्तु वास्तव में आप उन सबके स्वामी हैं । प्रत्येक प्राणी के हृदय में परमात्मास्वरूप रहकर आप हर बात जानते हैं । अतः आप मुझे अपनी शरण में ले लें । मुझे आशा है कि मैंने आपके ग्वालबालों तथा बछड़ों के साथ आपकी लीलाओ में जो व्यवधान डाला है उसके लिए मुझे क्षमा कर देंगे । यदि आप अब मुझे आज्ञा दें, तो मैं चला जाऊँ जिससे आप मेरी अनुपस्थिति में अपने मित्रों तथा बछड़ों के साथ आनन्द भोग सकें ।

“हे कृष्ण ! आपका नाम ही यह बताता है कि आप सब को आकर्षित करने वाले हैं । सूर्य तथा चन्द्रमा का आकर्षण आपके ही कारण है । सूर्य के आकर्षण द्वारा आप यदुवंश को सौन्दर्य प्रदान कर रहे हैं । चन्द्रमा के आकर्षण के कारण आप भूमि, देवताओं, ब्राह्मणों, गायों तथा सागरों की शक्ति को बढ़ा रहे हैं । आपके परम आकर्षण के कारण ही कंस आदि असुरों का संहार हुआ । अतः मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि इस सृष्टि में आप ही एकमात्र पूजनीय विग्रह हैं । कृपया इस जगत् के संहार तक मेरा सादर नमस्कार स्वीकार करें । जब तक इस जगत् में सूर्य का प्रकाश हैं, तब तक मेरा विनत प्रणाम स्वीकार करें ।”

इस प्रकार इस ब्रह्माण्ड के स्वामी ब्रह्मा भगवान् को सादर प्रणाम करके तथा तीन बार उनकी परिक्रमा कर लेने के बाद अपने धाम ब्रह्मालोक को जाने के लिए उद्यत हुए । भगवान् ने संकेत द्वारा उन्हें वापस जाने की अनुमति दे दी ।

जैसे ही ब्रह्मा चले गए, श्रीकृष्ण तुरन्त यमुना तट पर लौट आए और अपने बछड़ों तथा ग्वाल मित्रों के साथ आ मिले जो उसी अवस्था में थे जिस दिन वे गुम होने की स्थिति में थे । कृष्ण ने अपने मित्रों को यमुना तट पर कलेवा करते छोड़ा था और यद्यपि वे ठीक एक वर्ष बाद लौटे थे, किन्तु उन्हें लग रहा था कि वे एक सेकंड़ (क्षण) में ही वापस आ गए हैं । श्रीकृष्ण की विभिन्न शक्तियों तथा कार्यों की यही शैली हैं । श्रीमद् भगवद् गीता में कहा गया है कि श्रीकृष्ण स्वयं सबके हृदयों में वास करते हैं और वे ही स्मृति तथा विस्मृति उत्पन्न करते हैं । सारे जीवों का संचालन श्रीकृष्ण की परा प्रकृति द्वारा होता है और ये जीव कभी अपनी स्वाभाविक स्थिति को स्मरण रखते हैं, तो कभी भूल जाते है । उनके मित्र इस प्रकार से नियंत्रित होने के कारण यह न जान पाये कि श्रीकृष्ण एक वर्ष तक यमुना के तट से दूर रहे और ब्रह्मा की माया के वश में थे । जब वे बालकों के समक्ष प्रकट हुए, तो उन्होंने समझा कि श्रीकृष्ण एक मिनट के भीतर लौट आए हैं । वे यह सोचकर हँसने लगे कि श्रीकृष्ण कलेवा के समय भी उनका साथ नहीं छोड़ना चाह रहे थे । वे अत्यन्त प्रसन्न थे, अतः उन्होनें श्रीकृष्ण को बुलाया, “हे कृष्ण ! तुम इतनी जन्दी लौट आए । ठीक है, अभी तो हमने कलेवा करना शुरू भी नहीं किया, एक भी कौर नहीं खाया । आओ और हमारे साथ कलेवा करो ।” श्रीकृष्ण हँसे और उनका आमंत्रण स्वीकार कर मित्रों की मण्डली का आनन्द लूटने लगे । कलेवा करते समय श्रीकृष्ण सोच रहे थे, “ये बालक सोच रहे हैं कि मै एक क्षण में लौट आया हूँ, किन्तु ये यह नहीं जानते है कि मैं विगत एक वर्ष से ब्रह्मा के माया-कर्मों में लगा रहा हूँ ।”

कलेवा समाप्त करके श्रीकृष्ण तथा उनके मित्र बछड़ों के सहित अपने घर वृन्दावन वापस आने लगे । घर आते समय उन्होनें विशाल सर्प रूप में अघासुर के मृत कंकाल को देखा । जब श्रीकृष्ण व्रजभूमि लौट आए, तो वृन्दावन के समस्त वासियों ने उन्हें देखा । वे अपने मुकुट में मोर पंख लगाये थे और वह वनफूलों से सजा हुआ था । उन्होनें फूलों की मालाएँ भी पहन रखी थीं और गोवर्धन पर्वत की गुफाओं से एकत्र किए गए विविध रंगीन खनिजों से शरीर को रँग रखा था । गोवर्धन पर्वत प्राकृतिक लाल रंगो का सदैव से प्रदाता रहा है और श्रीकृष्ण तथा उनके मित्रों ने इन रंगों से अपने शरीरों को रंग रखा था । हर एक के पास भैंस के श्रृंग से बना एक बिगुल एक लकुट तथा एक बंशी थी और हर एक अपने-अपने बछड़ों को उनके नाम ले-लेकर बुला रहा था । उन्हें श्रीकृष्ण के अद्भुत कार्यों पर इतना गर्व था कि जब वे गाँव में प्रवेश कर रहे थे तो सब ने श्रीकृष्ण का यशोगान किया । वृन्दावन की समस्त गोपियों ने सुन्दर श्रीकृष्ण को गाँव में घुसते देखा । बालकों ने सुन्दर-सुन्दर गीत बनायें जिनमें इसका वर्णन था कि वे किस प्रकार भयंकर सर्प द्वारा निगल लिए जाने से बचाये गए थे और सर्प किस तरह मारा गया । कोई श्रीकृष्ण को यशोदा का पुत्र कहता, तो कोई नन्द महाराज का । वे कहने लगे, “वे इतने अद्भुत हैं कि उन्होंने हमें भयंकर सर्प के चंगुल से बचाया और उसका वध किया ।” किन्तु उन्हें इसका बिल्कुल पता न था कि अघासुर को मारे एक वर्ष का समय हो गया था ।

इस प्रसंग में महाराज परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा कि वृन्दावनवासियों में सहसा श्रीकृष्ण के प्रति इतना प्रेम क्यों उमड़ने लगा, यद्यपि श्रीकृष्ण उनके परिवारों के सदस्य न थे । महाराज परीक्षित ने पूछा, “असली ग्वालबालों की अनुपस्थिति में जब श्रीकृष्ण ने अपना विस्तार किया, तो फिर इन ग्वालाबालों के माता-पिता अपने पुत्रों की अपेक्षा श्रीकृष्ण के प्रति इतने वत्सल क्यों हो उठे ? यही नहीं, गायें भी इन बछड़ों के प्रति अपने निजी बछड़ों की अपेक्षा क्यों अधिक स्नेहिल हो गई ।”

श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को बताया कि प्रत्येक जीव मूलतः अपने प्रति अत्यधिक आसक्त होता है । घर, परिवार, मित्र, देश, समाज, सम्पत्ति, ऐश्वर्य, यश जैसी बाह्य सामग्रियाँ जीव को प्रसन्न करने में केवल गौंण हैं । ये सब इसलिए अच्छी लगती हैं, क्योंकि इनसे सुख प्राप्त होता है । इसीलिए मनुष्य आत्मकेन्द्रित होता है और शरीर तथा आत्म के प्रति वह पत्नी, संतान तथा मित्र जैसे परिजनों की अपेक्षा अधिक अनुरक्त रहता है । यदि किसी के ऊपर कोई आसन्न संकट आता है, तो वह पहले अपनी (आत्म की) रक्षा करता है, और दूसरों की बाद में । यह स्वाभाविक भी है । इसका अर्थ यह हुआ कि वह अन्य किसी वस्तु की अपेक्षा अपने आपको (आत्म को) प्यार करता है । तत्पश्चात् दूसरी वस्तु, जो उसे स्वयं के बाद प्रिय होती है, वह उसका भौतिक शरीर है । जिस व्यक्ति को आत्मा के विषय में कुछ पता नहीं रहता वह अपने शरीर के प्रति अत्यधिक आसक्त रहता है ।, यहाँ तक कि बुढ़ापे में भी वह अपने शरीर को कई कृत्रिम साधनों से बनाये रखना चाहता है, क्योंकि वह सोचता है कि उसका वृद्ध तथा जर्जर शरीर बचाया जा सकता है । प्रत्येक व्यक्ति या तो देहात्मबुद्धि के कारण या आध्यात्मिक बोध के कारण अपने आपको आनन्द प्रदान करने के लिए अहर्निश श्रम करता रहता है । हम भौतिक वस्तुओं के प्रति इसीलिए आसक्त रहते हैं, क्योंकि वे इन्द्रियों को या शरीर को सुख प्रदान करती हैं । इस शरीर के प्रति आसक्ति का एकमात्र कारण यही है कि इस शरीर के भीतर मैं अर्थात् आत्मा है । इसी प्रकार जब मनुष्य और ऊपर उठ जाता हैं, तो वह समझने लगता है कि आत्मा प्रिय है, क्योंकि यह श्रीकृष्ण का अंश है । अन्ततोगत्वा श्रीकृष्ण ही प्रिय एवं आकर्षक हैं । वे ही हर वस्तु की परम आत्मा हैं और हमें यही जानकारी देने के लिए श्रीकृष्ण अवतरित होते हैं और बताते हैं कि वे ही समस्त आकर्षण के केन्द्र हैं । श्रीकृष्ण का अंश बने बिना कुछ भी आकर्षक नहीं हैं ।

दृश्य जगत् में जो भी आकर्षण हैं, वह श्रीकृष्ण के कारण है । अतः श्रीकृष्ण समस्त आनन्द के आगार हैं । श्रीकृष्ण ही प्रत्येक वस्तु के सक्रिय तत्त्व हैं और जितने परम सिद्ध अध्यात्मवादी हैं, वे हर वस्तु को उन्हीं से सम्बन्धित देखते हैं । चैतन्य-चरितामृत में यह कहा गया है कि महाभागवत अर्थात् अत्यन्त सिद्ध भक्त श्रीकृष्ण को समस्त चराचर जीवों का सक्रिय तत्त्व मानता है । अतः वह इस दृश्य जगत् की प्रत्येक वस्तु को श्रीकृष्ण से सम्बन्धित देखता है । जिस भाग्यशाली व्यक्ति ने श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली है उसके लिए पहले से मुक्ति रखी है । वह इस भौतिक जगत् से दूर रहता है । इसकी पुष्टि श्रीमद् भगवद् गीता में हुई है । जो भी श्रीकृष्ण की भक्ति में लगा हुआ है, वह पहले से ब्रह्मभूत पद पर हैं । श्रीकृष्ण नाम ही पवित्रता तथा मुक्ति का सूचक है जो भी श्रीकृष्ण के चरणारविन्द की शरण में आता है, वह अज्ञान-सागर पार करने के लिए नाव में चढ़ जाता है । उसके लिए इस जगत् का महान् विस्तार गोखुर में जल जैसा नगण्य बन जाता है । श्रीकृष्ण समस्त महान् आत्माओं के केन्द्र हैं और समस्त जगतों के आश्रय भी हैं । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के लिए वैकुण्ठ दूर नहीं हैं । वह इस भौतिक जगत् में नहीं रहता, जहाँ पद-पद पर संकट हैं ।

इस प्रकार श्रील शुकदेव गोस्वामी ने परीक्षित महाराज से पूरी तरह से कृष्णभावनामृत (भक्ति) की व्याख्या की । यहाँ तक कि शुकदेव जी ने उन्हें भगवान् ब्रह्मा के वक्तव्य तथा उनकी प्रार्थनाएँ भी सुनाई । भगवान् श्रीकृष्ण की ये बाल-लीलाएँ-बालकों के साथ क्रीड़ा करना, यमुना तट पर उनके साथ कलेवा करना तथा ब्रह्मा द्वारा उनकी स्तुति- ये सारी घटनाएँ दिव्य हैं । जो कोई इन्हें सुनता है, पढ़ता है, या इनका कीर्तन करता है उसकी समस्त आध्यात्मिक इच्छाएँ पूरी होती हैं । इस प्रकार वृन्दावन में श्रीकृष्ण के बाल्यकाल की बलराम तथा ग्वालबालों के साथ क्रीड़ा का वर्णन किया गया ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “ब्रह्मा द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति” नामक चौदहवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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