राजा कंस ने न केवल यदु, भोज तथा अन्धक वंशों के राज्यों तथा शूरसेन के राज्य को अपने अधिकार में कर लिया, अपितु उसने अन्य सभी आसुरी राजाओं से मैत्री भी स्थापित की । उनके नाम है- प्रलम्ब, बक, चाणूर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक, अरिष्ट, द्विविद, पूतना, केशी तथा धेनुक । उस समय जरासंध मगध प्रान्त (आजकल बिहार राज्य) का राजा था । इस तरह, कूटनीति से कंस ने जरासंध के संरक्षण में उस समय का सबसे शक्तिशाली राज्य सुगठित कर लिया । उसने बाणासुर तथा भौमासुर जैसे राजाओं से भी मैत्री स्थापित कर ली जब तक कि वह सर्वाधिक प्रबल नहीं बन गया । फिर वह यदु-वंश के प्रति, जिसमें कृष्ण को जन्म लेना था, अत्यधिक शत्रुता बरतने लगा । कंस के द्वारा समाये जाने के कारण यदु, भोज तथा अंधक राजा अन्य राज्यों, यथा कुरु, पंचाल, केकय, शाल्व, विदर्भ, निषध, विदेह तथा कोशल राज्य की शरण में जाने लगे - कंस ने यदु राज्य तथा उसी के साथ भोज तथा अन्धक राज्यों की एकता को ध्वस्त कर दिया । उसने उस समय भारतवर्ष नाम से विख्यात विशाल भूभाग में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली ।
जब कंस के एक-एक करके देवकी तथा वसुदेव के छह शिशुओं का वध कर दिया, तो कंस के अनेक मित्र तथा परिजन उसके पास पहुँचे और उन्होंने प्रार्थना की कि वह इस जघन्य कर्म को त्याग दे । किन्तु बाद में वे सब कंस के प्रशंसक बन गए ।
जब देवकी सातवीं बार गर्भवती हुईं, तो उनके गर्भ में अनन्त नामक कृष्ण का पूर्ण अंश प्रकट हुआ । देवकी हर्ष तथा विषाद से अभिभूत थीं । वे हर्षित थीं, क्योंकि उन्हें पता था कि उनके गर्भ में भगवान् विष्णु ने आश्रय लिया है, किन्तु साथ ही वे खिन्न थीं, कि शिशु के उत्पन्न होते ही कंस का वध कर देगा । उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने कंस के द्वारा किए गए अत्याचारों से यदुओं की भयभीत स्थिति पर दयालु होकर अपनी अंतरंगा शक्ति योगमाया को प्रकट होने का आदेश दिया । कृष्ण सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी है, किन्तु यदुवंश के वे विशेष रूप से स्वामी है ।
योगमाया भगवान् की प्रमुख शक्ति है । वेदों में कहा गया है कि श्रीभगवान् की अनेक शक्तियाँ हैं- परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते । ये विभिन्न शक्तियाँ बाहर तथा भीतर से कार्य कर रही हैं और योगमाया समस्त शक्तियों में प्रमुख है । उन्होंने आदेश दिया कि योगमाया व्रज भूमि वृन्दावन में अवतरित हो, जो सदैव सुन्दर गायों
से पूरित तथा सुशोभित रहता है । वसुदेव की एक पत्नी रोहिणी वृन्दावन में राजा नन्द तथा रानी यशोदा के घर में निवास कर रही थीं । कंस के अत्याचारों से भयभीत होकर न केवल रोहिणी, अपितु अन्य अनेक यदुबंशी सारे देश में बिखर चुके थे । कुछ पर्वतों की गुफाओं में रह रहे थे ।
अतः भगवान् कृष्ण योगमाया से इस प्रकार बोले, देवकी तथा वसुदेव कंस के कारागार में बन्दी हैं और इस समय मेरा पूर्ण अंश, शेष, देवकी के गर्भ में है । तुम शेष को देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर सकती हो । इस व्यवस्था के बाद मैं अपनी समस्त शक्तियों के सहित स्वयं देवकी के गर्भ में अवतरित होने जा रहा हूँ । फिर मैं देवकी तथा वसुदेव के पुत्र के रूप में प्रकट हूँगा । तब तुम वृन्दावन में नन्द-यशोदा की पुत्री के रूप में प्रकट होगा ।
चूँकि तुम मेरी समकालीन बहन के रूप में जन्मोगी, और चूँकि तुम शीघ्र इन्द्रिय-तृप्ति की इच्छाओं की पूर्ति करोगी । अतः संसार के सभी लोग सभी प्रकार की मूल्यवान भेंटो यथा अगुरु, बत्ती, पुष्प तथा यज्ञ की हवि से- तुम्हारी पूजा करेंगे । जिन लोगों को भौतिकता से प्रेम है वे तुम्हारे अंश के विभिन्न रूपों में, जो दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्यका, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा तथा अम्बिका नाम से अभिहित होंगे, तुम्हारी पूजा करेंगे ।
कृष्ण तथा योगमाया भाई तथा बहिन-परम शक्तिमान तथा परम शक्ति के रूप में प्रकट हुए । यद्यपि शक्तिमान तथा शक्ति में कोई स्पष्ट अन्तर नहीं है, तथापि शक्ति सदैव ही शक्तिमान के अधीन रहती है । जो लोग भौतिकवादी हैं, वे शक्ति के उपासक हैं, किन्तु जो अध्यात्मवादी हैं, वे शक्तिमान के पूजक हैं । कृष्ण परम शक्तिमान हैं और भौतिक जगत् में दुर्गा परम शक्ति हैं । वास्तव में वैदिक संस्कृति में लोग शक्तिमान तथा शक्ति दोनों की एकसाथ पूजा करते हैं । विष्णु तथा देवी के ऐसे लाखों मन्दिर होंगे और कहीं-कहीं तो इन दोनों की एकसाथ पूजा की जाती हैं । शक्ति दुर्गा अथवा कृष्ण की बहिरंगा शक्ति के उपासकों को सरलतापूर्वक सभी प्रकार की भौतिक सफलताएँ प्राप्त हो सकती हैं, किन्तु यदि कोई आध्यात्मिक दृष्टि से ऊपर उठना चाहता हैं, तो उसे कृष्णचेतना (कृष्णभावनामृत) के अनुसार शक्तिमान की पूजा करनी चाहिए ।
भगवान् ने योगमाया से यह भी घोषित कर दिया कि उनका पूर्णांश ‘अनन्त या शेष’ देवकी के गर्भ में स्थित है । रोहिणी के गर्भ में बलपूर्वक ले जाये जाने के कारण वे संकर्षण कहलाएँगे और वे समस्त दैवी शक्ति या बल के स्रोत होंगे जिसके द्वारा लोग जीवन का सर्वोच्च आनन्द, जिसे रमण कहते हैं, प्राप्त कर सकेंगे । अतः पूर्णांश अनन्त अपने अवतार के पश्चात संकर्षण या बलराम नाम से प्रसिद्ध होंगे ।
उपनिषदों का कथन है- नायमात्म बल हिनेन लभ्यः । तात्पर्य यह कि कोई परमेश्वर या किसी प्रकार के आत्म-साक्षात्कार के परम स्तर को तब तक प्राप्त नहीं कर सकता जब तक बलराम की पर्याप्त कृपा न हो । बल का अर्थ शारीरिक शक्ति नहीं हैं । न ही शारीरिक शक्ति से किसी को आध्यात्मिक सिद्धि मिल सकती है । उसमें आध्यात्मिक शक्ति होनी चाहिए, जो बलराम या संकर्षण द्वारा प्रदत्त की जाती है । अनन्त या शेष उस शक्ति का स्रोत है, जो समस्त लोकों को उनकी विविध स्थितियों में धारण किए रहती है । भौतिक रूप से धारण करने की यह शक्ति गुरुत्वाकर्षण कहलाती है, किन्तु वास्तव में यह संकर्षणशक्ति का ही प्रदर्शन है । बलराम या संकर्षण आध्यात्मिक शक्ति या आदि गुरु है । अतः भगवान् नित्यानन्द प्रभु, जो बलराम के अवतार भी हैं, आदि गुरु हैं और गुरु भगवान् बलराम का प्रतिनिधि होता है, जो आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है । चैतन्यचरितामृत में इसकी पुष्टि की गई है कि गुरु कृष्ण की कृपा का प्राकट्य है ।
जब भगवान् ने योगमाया को इस तरह आदेश दिया, तो उसने उनकी प्रदक्षिणा की और तब उनकी आज्ञानुसार वह इस भौतिक जगत् में प्रकट हुई । जब भगवान् की परम शक्ति योगमाया ने शेष को देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित किया, तो वे दोनों ही योगमाया के वश में थीं, जिसे योगनिद्रा कहते हैं । जब ऐसा हो चुका, तो लोगों ने समझा कि देवकी का सातवाँ गर्भ विनष्ट हो गया । इस तरह यद्यपि बलराम देवकी के पुत्र रूप में अवतरित हुए, किन्तु रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित किए जाने के कारण उनके पुत्र कहलाये । इस व्यवस्था के बाद, अपने निष्काम भक्तों की रक्षा करने के लिए सदैव तत्पर रहने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी पूर्ण अचिन्त्य शक्तियों सहित सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी के रूप में वसुदेव के मन में प्रवेश किया । इस प्रसंग में यह ज्ञातव्य हो कि भगवान् कृष्ण पहले वासुदेव के निष्काम हृदय में प्रविष्ट हुए और तत्पश्चात देवकी के हृदय में स्थानांतरित हुए । वे देवकी के गर्भ में वीर्य द्वारा स्थापित नहीं हुए थे । भगवान् अपनी अचिन्त्य शक्ति से किसी रूप में प्रकट हो सकते हैं । उनके लिए यह अनिवार्य नहीं कि वे स्त्री के गर्भ में वीर्य-क्षेपण की सामान्य विधि द्वारा प्रकट हों ।
जब वसुदेव भगवान् को अपने हृदय में धारण किए हुए थे, तो वे उस देदीप्यमान सूर्य की भाँति लग रहे थे जिसकी प्रखर किरणें सदा असह्य होती हैं और सामान्य जनों को झुलसाने वाली होती हैं । वसुदेव के शुद्ध निष्काम हृदय में स्थित भगवान् का रूप कृष्ण के आदि रूप से भिन्न नहीं था । कहीं भी और विशेष रूप से हृदय के भीतर श्रीकृष्ण के रूप का उदय धाम कहलाता है । धाम से कृष्ण के केवल रूप का नहीं, अपितु उनके नाम , गुण तथा साज-सम्मान का भी बोध होता है । यह सब एक साथ प्रकट होता है ।
इस प्रकार भगवान् शाश्वत रूप अपनी पूर्ण शक्तियों समेत वसुदेव के मन से देवकी के मन में उसी तरह स्थानांतरित हुआ जिस प्रकार अस्त होते हुए सूर्य की किरणें पूर्व में उदय होने वाले पूर्ण चन्द्रमा में चली जाती हैं ।
भगवान् कृष्ण वसुदेव के शरीर से देवकी के शरीर में प्रविष्ट हुए । वे सामान्य जीव की परिस्थितियों से परे थे । चूँकि कृष्ण वहाँ थे, अतः यह समझना चाहिए कि उनके सारे पूर्ण अंश यथा नारायण तथा सभी अवतार, यथा नृसिंह, वराह इत्यादि उनके साथ-साथ थे और उन पर भी इस जगत् की परिस्थितियाँ काम नहीं कर रही थी । इस प्रकार देवकी उन भगवान् का वासस्थान बन गईं, जो अद्वितीय हैं और सारी सृष्टि के कारण हैं । यद्यपि देवकी परम सत्य का वासस्थान बन गईं, किन्तु कंस के घर के भीतर रहने के कारण वे शमित अग्नि या दुरुपयुक्त विद्या की भाँति दिखाई पड़ती थीं । जब अग्नि किसी पात्र में रखी जाती है या किसी (बन्द) घड़े में रखी जाती हैं, तो अग्नि की प्रकाशमान किरणें नहीं दिखतीं । इसी प्रकार से, वह दुरुपयुक्त ज्ञान, जिससे सामान्य जनता को लाभ नहीं पहुँचता, प्रशंसित नहीं होता । इसी प्रकार देवकी कंस के महल के कारागार की दीवालों के भीतर रखी गई थीं । जिससे कोई भी उनके उस दिव्य सौन्दर्य को देख नहीं सकता था, जो उनके गर्भ में भगवान् के आने से उत्पन्न हुआ था ।
किन्तु कंस ने अपनी बहन के इस दिव्य सौन्दर्य को देखा और वह तुरन्त इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि भगवान् ने उसके गर्भ में शरण ले ली है । इसके पहले वह इतनी अधिक सुन्दर कभी नहीं
लगी थी । वह स्पष्ट रूप से समझ गया कि देवकी के गर्भ में कोई कुतूहल पूर्ण वस्तु अवश्य है । अतः कंस विचलित हो गया । उसे विश्वास था कि भविष्य में उसका वध करने वाले भगवान् का आगमन हो चुका है । कंस सोचने लगा: अब देवकी का क्या किया जाए ? उसके गर्भ में निश्चित रूप से विष्णु या कृष्ण हैं, अतः यह निश्चित है कि कृष्ण देवताओं का उद्देश्य पूरा करने के लिए आ गए हैं । यदि मैं तुरन्त देवकी का वध कर भी दूँ, तो उनका उद्देश्य विफल नहीं हो सकता । कंस भली-भाँति जानता था कि विष्णु के उद्देश्य को कोई विफल नहीं कर सकता । कोई भी बुद्धिमान पुरुष जान सकता है कि भगवान् के नियमों का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता । सारे असुर चाहे कितने ही विघ्न क्यों न डालें, भगवान् का उद्देश्य पूरा होकर रहेगा । कंस ने सोचा “यदि इस समय मैं देवकी को मारता हूँ, तो विष्णु अपनी परम इच्छा को अधिक तीव्रता से लागू करेंगे । देवकी को इस समय मारना सबसे घृणित कार्य होगा । भले कोई कितनी ही विषम परिस्थिति में क्यों न हो, किन्तु वह अपनी ख्याति नष्ट करना नहीं चाहता । यदि इस समय मैं देवकी को मारता हूँ, तो मेरी ख्याति नष्ट हो जाएगी । आखिर, देवकी एक अबला है और वह मेरी शरण में है, वह गर्भवती है और यदि मैं उसे मारता हूँ, तो मेरी ख्याति, मेरे जीवन भर के पुण्यों का फल, तदा मेरे जीवन की अवधि है, समाप्त हो जाएँगी ।” उसने आगे भी विचार किया, “जो व्यक्ति अत्यधिक क्रूर होता है, वह इसी जीवनकाल में मृत तुल्य रहता है । क्रूर पुरुष अपने जीवनकाल में किसी को प्रिय नहीं होता और उसकी मृत्यु के बाद लोग उसे कोसते हैं । अपनी देहात्म-बुद्धि के कारण मनुष्य का पतन होता है और नरक के गहनतम भाग में धकेल दिया जाता है ।” कंस ने उस समय देवकी के वध के पक्ष और विपक्ष पर इस प्रकार से विचार किया ।
अन्त में कंस ने देवकी को तुरन्त न मार कर अपरिहार्य भविष्य की प्रतीक्षा करने का निर्णय लिया । किन्तु उसका मन भगवान् के प्रति शत्रुता से भर गया । वह धैर्यपूर्वक शिशु-जन्म की प्रतीक्षा करने लगा, जिससे वह उनका वध कर सके जैसाकि उसने देवकी के अन्य बालकों के साथ किया था । इस प्रकार भगवान् के प्रति शत्रुता के सागर में निमग्न वह बैठते, सोते, चलते, फिरते, खाते, काम करते-जीवन की सभी अवस्थाओं में-कृष्ण अथवा विष्णु के ही विषय में सोचने लगा । उसका मन भगवान् के विचार में इतना लीन हो गया कि उसे अपने चारों ओर विष्णु या कृष्ण ही दिखते । दुर्भाग्यवश, यद्यपि उसका मन विष्णु के विचार में इतना लीन था, तथापि वह भक्त नहीं माना जाता, क्योंकि वह कृष्ण को शत्रु के रूप में सोचता था । महान् भक्त के मन की दशा भी ऐसी ही होती है कि वह सदैव कृष्ण में लीन रहता है, किन्तु भक्त भगवान् के अनुकूल सोचता है, प्रतिकूल नहीं । कृष्ण के अनुकूल सोचना कृष्ण-भक्ति है, किन्तु कृष्ण के विपरीत सोचना कृष्ण-भक्ति नहीं है ।
उस समय ब्रह्मातथा शिवजी नारद जैसे ॠषियों तथा अन्य अनेक देवताओं के साथ कंस के घर में अदृश्य रूप में प्रकट हुए । वे भक्तों को अत्यन्त प्रिय एवं उनकी कामनाओं को पूर्ण करने वाली चुनी हुई स्तुतियों से भगवान् अपने प्रण के सच्चे होते हैं । जैसाकि भगवद्-गीता में कहा गया है, श्रीकृष्ण इस भौतिक जगत् में पवित्रात्माओं की रक्षा करने तथा दुष्टों का विनाश करने के लिए अवतरित होते हैं । यही उनका प्रण है । देवता जान गए थे कि अपने प्रण को पूरा करने के लिए उन्होंने देवकी के गर्भ में वास किया है । देवता परम प्रसन्न थे कि भगवान् अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए प्रकट हो रहे हैं, अतः उन्होंने उन्हें सत्यम् परम् कह कर सम्बोधित किया ।
प्रत्येक व्यक्ति सत्य की खोज में लगा है । यही जीवन की दार्शनिक रीति है । देवतागण जानकारी देते हैं कि परम सत्य कृष्ण ही हैं । जो पूर्णतः कृष्णभावनाभावित हो जाता है, वह परम सत्य को प्राप्त कर सकता है । कृष्ण ही परम सत्य हैं । शाश्वत काल की तीन अवस्थाओं में सत्य हैं, सापेक्ष सत्य नहीं । काल भूत, वर्तमान तथा भविष्य में विभाजित है । भौतिक जगत् में प्रत्येक वस्तु परम काल द्वारा- भूत, वर्तमान तथा भविष्य के द्वारा- नियंत्रित हो रही है; किन्तु सृष्टि के पूर्व कृष्ण विद्यमान थे; सृष्टि के हो जाने पर प्रत्येक वस्तु कृष्ण पर आश्रित है और जब यह सृष्टि समाप्त होगी, तो कृष्ण बचे रहेंगे । अतः वे सभी परिस्थितियों में परम सत्य हैं यदि भौतिक जगत् में सत्य हैं, तो यह परम सत्य से उद्भूत है । यदि इस भौतिक जगत् में कहीं वैभव हैं, तो इस के स्रोत कृष्ण ही हैं । यदि संसार कुछ में ख्याति है, तो कृष्ण ही उसके कारण हैं । यदि संसार में कोई बल (शक्ति) हैं, तो इस शक्ति के कारण कृष्ण हैं । यदि संसार में कोई ज्ञान तथा शिक्षा है, तो उसके कारण-स्वरूप कृष्ण हैं । इस तरह कृष्ण सारे सत्यों के स्रोत हैं ।
यह भौतिक जगत् पाँच प्रमुख तत्त्वों-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश- से बना हुआ है और ये सारे तत्त्व कृष्ण से ही उद्भूत हैं । भौतिक विज्ञानी इन पाँच मूल तत्त्वों को भौतिक सृष्टि का कारण मानते हैं, किन्तु सारे तत्त्व अपनी स्थूल तथा सूक्ष्म अवस्थाओं में कृष्ण द्वारा ही उत्पन्न हैं । इस भौतिक जगत् में कार्यरत समस्त जीव भी उनकी तटस्था शक्ति के प्रतिफल हैं । भगवद्-गीता के सातवें अध्याय में स्पष्ट कहा गया है कि यह सारा संसार कृष्ण की परा तथा अपरा नामक दो प्रकार की शक्तियों का संयोग है । जीवात्माएँ भगवान् की परा शक्ति हैं और निर्जीव भौतिक तत्त्व अपरा शक्ति हैं । सुप्तावस्था में प्रत्येक वस्तु कृष्ण में समाहित रहती है ।
देवतागण भौतिक प्राकट्य के विश्लेषण-अध्ययन द्वारा भगवान् के परम रूप की सादर प्रार्थना करते रहे । यह भौतिक प्राकट्य क्या है ? यह एक वृक्ष के समान है । वृक्ष भूमि पर खड़ा रहता है । इसी तरह भौतिक प्राकट्य रूपी यह वृक्ष प्रकृति रूपी भूमि पर खड़ा है । इस भौतिक प्राकट्य की तुलना वृक्ष से की जाती है क्योंकि समय आने पर वृक्ष को काट लिया जाता है । वृक्ष का अर्थ है, वह जो अन्ततः काट लिया जायेगा । अतः भौतिक प्राकट्य का यह वृक्ष परम सत्य नहीं माना जा सकता क्योंकि इस पर काल का प्रभाव पड़ता है, किन्तु कृष्ण का शरीर शाश्वत है । वे भौतिक प्राकट्य (सृष्टि) के पहले भी विद्यमान थे, भौतिक जगत् के अस्तित्त्व में होने पर भी विद्यमान हैं और जब इसका विलय हो जायेगा तब भी वे विद्यमान रहेंगे । अतः केवल कृष्ण को ही परम सत्य माना जा सकता है ।
कठोपनिषद् में भी प्रकृति रूपी भूमि पर खड़े हुए भौतिक जगत् रूपी वृक्ष का उदाहरण मिलता है । इस वृक्ष में दो प्रकार के फल होते है । सुख तथा दुःख । इस शरीर रूपी वृक्ष में रहने वाले प्राणी दो पक्षियों के समान होते हैं । एक पक्षी कृष्ण का अन्तर्यामी स्वरूप हैं, जो परमात्मा कहलाता है और दूसरा पक्षी जीव है । जीव इस भौतिक जगत् के फलों को खा रहा है । कभी यह सुख का फल खाता है, तो कभी दुःख का फल । किन्तु दूसरा पक्षी सुख या दुःख के फलों को खाने में रुचि नहीं लेता, क्योंकि वह आत्म-तुष्ट है । कठोपनिषद् में कहा गया है कि इस शरीर में रूपी वृक्ष का एक पक्षी फल खा रहा है और दूसरा केवल साक्षी रूप में देख रहा है । इस वृक्ष की जड़ें तीन दिशाओं में फैली हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि वृक्ष की ये जड़ें प्रकृति के तीन गुण है- सतो, रजो तथा तमोगुण । जिस प्रकार वृक्ष की जड़ें फैलती हैं उसी प्रकार प्रकृति के गुणों (सतो, रजो तथा तमो) के संसर्ग से मनुष्य अपनी जीवन-अवधि बढ़ाता है । इन फलों का स्वाद चार प्रकार का है- धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष । प्रकृति के तीनों गुणों के साथ विभिन्न प्रकार के संसर्गों के फलस्वरूप जीव विभिन्न प्रकार के धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का स्वाद लेता है । व्यावहारिक रूप में सारा भौतिक कार्य अज्ञान (तमोगुण) में किया जाता है, किन्तु तीन प्रकार के गुण होने से कभी-कभी यह अज्ञान (तमोगुण) सतो या रजोगुण से आच्छादित रहता है । इन भौतिक फलों का स्वाद पाँच इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जाता है । पाँच इन्द्रियाँ जिनके द्वारा ज्ञान अर्जित किया जाता है, छह प्रकार के कोड़ों (दोषों) से प्रभावित होती हैं- शोक, मोह, दुर्बलता, मृत्यु, भूख तथा प्यास । यह भौतिक शरीर या भौतिक जगत् सात कोशों (आवरणों) से ढका है- त्वचा, पेशी, मांस, मज्जा, अस्थि, व्यवस्था तथा वीर्य । वृक्ष की आठ शाखाएँ हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु शून्य (आकाश), मन, बुद्धि तथा अहंकार । इस शरीर के भीतर दस प्रकार के आन्तरिक वायु (प्राण) हैं-प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान इत्यादि । जैसाकि ऊपर कहा जा चुका हैं, इस वृक्ष पर बैठे दो पक्षी जीवात्मा तथा अन्तर्यामी भगवान् हैं ।
यहाँ पर वर्णित भौतिक जगत् के मूल कारण भगवान् ही हैं । वे अपना विस्तार करते हैं और भौतिक जगत् के तीन गुणों को अपने अधिकार में करते हैं । विष्णु सतोगुण को सँभालते हैं, ब्रह्मारजोगुण को और शिवजी तमोगुण का भार ग्रहण करते हैं । ब्रह्मारजोगुण से इस सृष्टि को उत्पन्न करते हैं, विष्णु सतोगुण से इसका पालन करते हैं और शिवजी तमोगुण से इसका संहार करते हैं, विष्णु सतोगुण से इसका पालन करते है और शिवजी तमोगुण से इसका संहार करते हैं । अतः सम्पूर्ण सृष्टि परमेश्वर पर आश्रित है । वे ही इसकी उत्पत्ति, पालन तथा संहार के कारण हैं । और जब इस सम्पूर्ण सृष्टि कस विलय हो जाता हैं, तो भगवान् की शक्ति के रूप में यह सूक्ष्म सृष्टि भगवान् के शरीर के भीतर स्थित रहती है ।
देवताओं ने स्तुति की, “इस समय परमेश्वर कृष्ण इस जगत् के पालन हेतु जन्म ले रहे हैं ।” वास्तव में परम कारण एक ही है, किन्तु प्रकृति के तीन गुणों के द्वारा भ्रमित हो जाने के कारण अल्पज्ञानी व्यक्ति समझते हैं कि यह जगत् विभिन्न कारणों से प्रकट हो रहा है । जो बुद्धिमान हैं, वे देख सकते हैं कि इसका कारण एक, कृष्णा, हैं । जैसा ब्रह्म-संहिता में कहा गया है - ईश्वरः परमः कृष्णः...सर्व-कारण-कारणम् । “भगवान् कृष्ण समस्त कारणों के कारण है ।” ब्रह्मासृष्टि के लिए नियुक्त किए गए प्रतिनिधि हैं, विष्णु पालन के लिए कृष्ण के अंश हैं और शिवजी विलय के लिए कृष्ण के अंश हैं ।
देवताओं ने स्तुति की, “हे स्वामी ! आपके शाश्वत स्वरूप को समझ पाना दुष्कर है । सामन्यजन आपके वास्तविक रूप को समझने में अक्षम रहते हैं, अतः आप अपना आदि शाश्वत रूप प्रकट करने के लिए स्वयं अवतार ले रहे हैं । लोग किसी तरह आपके विभिन्न अवतारों को तो समझ सकते हैं, किन्तु दो भुजाओं वाले कृष्ण के शाश्वत रूप को, मनुष्यों के बीच उन्हीं के समान विचरण करते देख कर वे उलझन में पड़ जाते हैं । आपका यह शाश्वत रूप भक्तों के दिव्य आनन्द को बढ़ाता रहता है, किन्तु अभक्तों के लिए यह घातक है ।” जैसाकि भगवद्-गीता में कहा गया है कृष्ण साधु के लिए अत्यन्त मोहक हैं । परित्राणाय साधूनाम् । किन्तु यह रूप असुरों के लिए अत्यन्त घातक है, क्योंकि कृष्ण असुरों के वध के लिए अवतरित होते हैं । अतः वे एक ही साथ भक्तों के लिए मोहक और असुरों के लिए घातक हैं ।
“हे कमल के समान नेत्रों वाले प्रभु ! आप शुद्ध सत्त्व के स्रोत हैं । ऐसे अनेक ॠषि हैं जिन्होंने केवल समाधि के द्वारा या आपके चरणकमलों के आध्यात्मिक ध्यान के द्वारा और इस तरह आपके विचार में लीन रह कर प्रकृति द्वारा उत्पन्न अज्ञान के महासागर को गोखुर में समाने वाले जल के समान बना दिया है । ध्यान का उद्देश्य मन को भगवान् के चरणकमलों से प्रारम्भ करके उन पर केन्द्रित करना है । भगवान् के चरणकमलों के ध्यान से ही बड़े-बड़े मुनि इस विशाल भवसागर को बिना कठिनाई के पार कर लेते हैं ।
“हे स्वयंप्रकाशित ! जिन महान् सन्तों ने आपके चरणकमलों की दिव्य नाव के सहारे अज्ञान सागर को पार कर लिया है वे उस नाव को अपने साथ नहीं ले गए । वह अब भी इस पार पड़ी हुई है ।” यदि कोई नाव द्वारा नदी पार करता है, तो वह नाव को भी उस पार लेता जाता है । अतः जब वह अपने गंतव्य पर पहुँच जाता है, तो फिर वही नाव किस प्रकार उन लोगों के लिए उपलब्ध हो सकती है, जो इस ओर प्रतीक्षा कर रहे हैं ? इस कठिनाई का उत्तर देने के लिए देवता अपनी स्तुति में कहते हैं कि भगवान् के चरणकमलों की यह नाव ले नहीं जाई जाती । जो भक्तगण अब भी भवसागर के इस पार खड़े है वे दूसरी ओर जाने में समर्थ होते हैं, क्योंकि शुद्ध भक्त सागर को पार करते समय उसे अपने साथ नहीं ले जाते । जब कोई इस नाव के पास जाता हैं, तो भौतिक अज्ञान का सारा समुद्र सिमट कर गोपद में समा जाता है । अतः भक्तों को दूसरी ओर जाने के लिए नाव की आवश्यकता ही नहीं पड़ती; वे तुरन्त समुद्र पार कर लेते हैं । चूँकि महान् साधु पुरुष समस्त बद्धजीवों के प्रति दयालु होते हैं, अतः नाव तब भी इस ओर पड़ी रहती है । कोई किसी समय उनके चरणारविन्दों का ध्यान करके भौतिक अज्ञान के महासागर को पार कर सकता है ।
ध्यान का अर्थ हैं भगवान् के चरणकमलों पर एकाग्रता । चरणकमल भगवान् के सूचक हैं । किन्तु जो निर्विशेषवादी हैं, वे भगवान् के चरणकमलों को नहीं मानते, अतः उनके ध्यान का विषय निराकार होता है । देवताओं का यह पक्का निर्णय है कि जो लोग शून्य या निराकार का ध्यान करने में रुचि रखते हैं, वे अज्ञान के सागर को पार नहीं कर सकते । ऐसे लोग केवल यही सोचते हैं कि वे मुक्त हो गए हैं । “हे कमलनेत्र प्रभु ! उनकी बुद्धि कल्मषग्रस्त हो जाती है क्योंकि वे आपके चरणकमलों का ध्यान करने में असफल रहते हैं ।” इस उपेक्षा-भाव के कारण निर्विशेषवादी संसार के बद्ध जीवन में पुनः आ गिरते हैं, भले ही कुछ काल के लिए वे निराकार साक्षात्कार के पद तक पहुँच जाए । निर्विशेषवादी ब्रह्मतेज में लीन होने के लिए कठिन तपस्या करते हैं, किन्तु उनके मन भौतिक कल्मष से मुक्त नहीं होते, वे चिन्तन की भौतिक विधियों का निषेध मात्र करते रहते हैं । इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं कि वे मुक्त हो चुकें हैं । इस तरह वे नीचे गिर जाते है ।
भगवद्-गीता में कहा गया है कि निर्विशेषवादियों को चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए महान् यातनाएँ सहनी पड़ती है । श्रीमद्-भागवत के प्रारम्भ में इसका भी उल्लेख है कि भगवान् की शक्ति के बिना किसी को सकाम कर्मों के बन्धन से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । भगवद्-गीता में भगवान् कृष्ण का और श्रीमद्-भागवत में नारद मुनि का कथन है और यहाँ भी देवता इसकी पुष्टि करते हैं, जो लोग भक्ति नहीं करते उन्हें ज्ञान का चरम लक्ष्य ज्ञात नहीं रहता । ऐसे लोगों को आपकी कृपा प्राप्त नहीं होती । निर्विशेषवादी केवल यही सोचते है कि वे मुक्त हैं, किन्तु वास्तव में उनमें भगवान् के लिए कोई भावना नहीं होती । वे सोचते हैं कि जब कृष्ण इस जगत् में आते हैं, तो वे भौतिक शरीर धारण करते हैं । इस प्रकार वे कृष्ण के दिव्य शरीर की उपेक्षा कर देते हैं । भगवद्-गीता में इसकी पुष्टि हुई है- अवजानन्ति मां मूढाः । फलतः निर्विशेषवादी भौतिक वासना पर विजय पाने तथा मुक्ति तक पहुँचने के बावजूद नीचे गिर जाते हैं । यदि वे ज्ञान के लिए ही वस्तुओं को जानने में व्यस्त रहते हैं और भगवान् की भक्ति नहीं करते, तो उन्हें वांछित फल प्राप्त नहीं हो सकता । उनके हाथ लगता है केवल उनके द्वारा उठाया गया कष्ट, इससे अधिक कुछ नहीं ।
भगवद्-गीता में स्पष्ट कहा गया है कि ब्रह्म-साक्षात्कार ही सब कुछ नहीं है । ब्रह्म-साक्षात्कार द्वारा भौतिक आसक्ति या विरक्ति के बिना भी मनुष्य प्रसन्न रह सकता हैं और समभाव के पद को प्राप्त हो सकता हैं, किन्तु इस अवस्था के बाद भक्ति करनी ही होती हैं । जब मनुष्य ब्रह्म-साक्षात्कार पद तक उठ जाने के बाद भक्ति करता हैं, तो वह आध्यात्मिक राज्य(वैकुण्ठ) में प्रवेश करता है, जहाँ वह भगवान् की संगति में स्थायी निवास करता है । भक्ति का यही परिणाम होता है । भगवान् के भक्त कभी भी निर्विशेषवादी की भाँति नीचे नहीं गिरते । यदि वे नीचे गिरते भी हैं, तो भगवान् में प्रेमपूर्वक अनुरक्त रहते हैं । भक्ति के मार्ग में भले ही उन्हें समस्त प्रकार के अवरोध मिलते हों, किन्तु वे बिना ड़र के स्वतंत्रतापूर्वक ऐसे अवरोधों को पार कर सकते हैं । शरणागत होने के कारण उन्हें विश्वास रहता है कि कृष्ण सदा उनकी रक्षा करेंगे । कृष्ण के भगवद्-गीता में वचन में रखा गया है कि मेरे भक्तों का कभी विनाश नहीं होता ।
देवताओं ने आगे कहा, “हे प्रिय भगवान्, इस भौतिक जगत् के सभी जीवों के कल्याण के लिए आप अपने आदि विशुद्ध रूप में- शुद्ध सत्त्व के सनातन रूप में प्रकट हुए हैं । आप के प्राकट्य का लाभ लेते हुए अब वे सभी पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर की प्रकृति एवं रूप को अत्यन्त सरलता से समझ सकते हैं । चारों आश्रमों के व्यक्ति (ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी) सभी आपके प्राकट्य का लाभ उठा सकते हैं ।” “हे लक्ष्मीपति भगवान् ! जो भक्त आपकी सेवा में लगे हुए हैं, वे निर्विशेषवादियों की तरह अपने उच्च पद से नीचे नहीं गिरते । भक्तगण आपके द्वारा रक्षित होकर मुक्ति के मार्ग में बाधक माया के अनके सेनापतियों के सिरों को लाँघ जाते हैं । हे प्रभु ! आप जीवों के लाभ के लिए अपने दिव्य शाश्वत रूप में प्रकट होते हैं जिससे वे आपका साक्षात् दर्शन कर सकें और वेदों के अनुष्ठानों, योगिक ध्यान तथा शास्त्रविहित भक्ति के द्वारा आपको पूजा की भेंटें अर्पित कर सकें । हे भगवान् ! यदि आप अपने सत्, चित् आनन्द रूप में, जो आपके पद के बारे सभी प्रकार की मन गढ़न्त अविद्या को दूर करने वाला है, न प्रकट होते तो सभी लोग अपने-अपने भौतिक गुणों के अनुसार आपके विषय में केवल कल्पना करते रहते ।” कृष्ण अवतार भगवान् के समस्त काल्पनिक मूर्तिविज्ञान का मुँहतोड़ जबाव है । प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के बारे में अपने-अपने गुण के अनुसार भगवान् के स्वरूप की कल्पना करता है । ब्रह्म-संहिता में कहा गया है कि भगवान् पुरातन पुरुष हैं, अतः कुछ धर्मानुयायी कल्पना करते हैं कि ईश्वर अत्यन्त प्राचीन होगा, अतः वे भगवान् को अत्यन्त वृद्ध पुरुष की भाँति अंकित करते हैं । किन्तु उसी ब्रह्म-संहिता में इसका प्रतिवाद भी हुआ है कि यद्यपि वे समस्त जीवों से प्राचीन हैं, तथापि उनका शाश्वत रूप सदैव तरुण है । श्रीमद्-भागवत में इस प्रसंग में ये शब्द प्रयुक्त हैं- विज्ञानम् अज्ञानभिद् आपमार्जनम् । विज्ञानम् का अर्थ है भगवान् सम्बन्धी दिव्य ज्ञान । विज्ञानम् का अर्थ अनुभूत ज्ञान भी है । दिव्य ज्ञान गुरु-परम्परा की अवरोही विधि से स्वीकार किया जाता हैं, जैसे ब्रह्म-संहिता में ब्रह्माइस कृष्ण-ज्ञान को प्रस्तुत किया । यह ज्ञान अज्ञानभिद् आपमार्जनम् हैं, जिसका अर्थ है, वह जो सभी प्रकार के ज्ञान की कल्पनाओं को नष्ट कर सकें । अज्ञान के वशीभूत होकर लोग भगवान् के स्वरूप की कल्पना करते है और उनकी कल्पना के अनुसार कभी वे साकार होते हैं, तो कभी निराकार । किन्तु ब्रह्म-संहिता में कृष्ण का प्रस्तुतिकरण विज्ञानम् है अर्थात् वैज्ञानिक है, अनुभूत ज्ञान है जिसे ब्रह्माने प्रदान किया है कि यह विज्ञान समस्त प्रकार की चिन्तनपरक विद्या को सदैव मात देता है । “अतः आपके कृष्ण रूप में अवतार लिये बिना न तो अज्ञानभिद् आपर्माजनम् (चिन्तनपरक ज्ञान के अज्ञान का नाश), न ही विज्ञान का साक्षात्कार किया जा सकता है । अज्ञानभिद् आपमार्जनम्-
दूसरे शब्दों में आपके अवतार से काल्पनिक ज्ञान की अविद्या मिट जाएगी और भगवान् ब्रह्माजैसे अधिकारियों के अनुभूत ज्ञान की स्थापना होगी । मनुष्य भौतिक प्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित होकर प्रकृति के गुणों के अनुसार अपने ईश्वर की कल्पना करते हैं । इस प्रकार ईश्वर को अनेक प्रकार से प्रस्तुत किया जाता हैं, किन्तु आपके प्राकट्य ये यह सिद्ध हो जाएगा कि ईश्वर का असली रूप क्या हैं ।” निर्विशेषवादियों की सबसे भयंकर भूल उनका यह विचार है कि जब भगवान् अवतरित होते हैं, तो वे सतोगुणी पदार्थ का रूप स्वीकार करते हैं । वस्तुतः कृष्ण या नारायण का रूप किसी भौतिक विचार के परे होता है । यहाँ तक कि महान्तम मायावादी शंकाराचार्य ने भी स्वीकार किया है कि नारायणः परोऽव्यक्तात्- भौतिक सृष्टि द्रव्य (पदार्थ) के अव्यक्त प्राकट्य से या द्रव्य के अप्रत्यक्ष संरक्षण से उत्पन्न होती है और कृष्ण इस भौतिक बोध से परे हैं । इसे श्रीमद्-भागवत में शुद्ध सत्त्व या दिव्य सत्त्व कहा गया है । इनका सम्बन्ध सतो गुण से नहीं है । वे भौतिक सत्त्व से ऊपर हैं । वे सच्चिदानन्दस्वरूप हैं ।
“हे प्रभु ! जब आप विभिन्न अवतारों में प्रकट होते हैं, तो विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार आप भिन्न-भिन्न नाम और रूप धारण करते हैं । सर्व-आकर्षक होने के कारण आपका नाम कृष्ण है । अपने दिव्य सौन्दर्य के कारण आप श्यामसुन्दर कहलाते हैं ।
श्याम का अर्थ है साँवला, फिर भी कहा जाता है कि आप हजारों कामदेवों से अधिक सुन्दर हैं । कन्दर्प कोटि कमनीय । यद्यपि आपका रंग श्याम बादल जैसा हैं, किन्तु दिव्य परम होने के कारण आपका सौन्दर्य कामदेव के कोमल शरीर से कई गुना आकर्षक हैं । कभी-कभी आप गिरिधारी कहे जाते हैं, क्योंकि आपने गोवर्धन पर्वत धारण किया था । कभी-कभी आप नन्दनन्दन, वासुदेव या देवकीनन्दन कहलाते हैं, क्योंकि आप महाराज नन्द या वसुदेव अथवा देवकी के पुत्र रूप में जन्म लेते हैं । निर्विशेषवादी सोचते है कि आपके अनेक नाम अथवा रूप आपके किसी विशिष्ट कार्य तथा गुण के कारण हैं, क्योंकि वे अपने को भौतिक प्रेक्षक (दर्शक) मान कर आपको स्वीकार करते है ।” “हे प्रिय ! आपकी प्रकृति, रूप तथा कार्यकलाप को कल्पना द्वारा नहीं जाना जा सकता । आपकी प्रकृति, दिव्य रूप, नाम तथा गुणों को समझने के लिए मनुष्य को पहले भक्ति करनी होगी । वस्तुतः जिस व्यक्ति में आपके चरणकमलों की सेवा के लिए रंच भी रुचि होती है, वही आपकी प्रकृति, रूप तथा गुण को समझ सकता है । अन्य लोग लाखों वर्षों तक चिन्तन करते रहने पर भी आपकी वास्तविक स्थिति का एक अंश भी नहीं समझ पाते ।” दूसरे शब्दों में, अभक्त कभी भगवान् कृष्ण को नहीं समझ सकते, क्योंकि योगमाया का आवरण कृष्ण के वास्तविक स्वरूप को ढके रहता हैं जैसाकि भगवद्-गीता में पुष्टि हुई है- नाहं प्रकाशः सर्वस्य । भगवान् कहते हैं कि, “मैं हर एक के लिए प्रकाशित नहीं हूँ” जब कृष्ण ने अवतार लिया, तो वे वस्तुतः कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में उपस्थित थे और सब ने उन्हें देखा भी था । किन्तु उनमें से हर एक व्यक्ति यह नहीं जान सका कि वे भगवान् हैं । फिर भी उनकी उपस्थिति में मरने वाले प्रत्येक व्यक्ति को भव-बन्धन से पूर्ण मुक्ति मिली और वह वैकुण्ठ लोक को भेज दिया गया ।
“हे भगवान् ! निर्विशेषवादी या अभक्त यह नहीं समझ सकते कि आपका नाम आपके रूप से अभिन्न हैं ।” चूँकि भगवान् परम हैं, अतः उनके नाम तथा वास्तविक रूप में कोई अन्तर नहीं है । भौतिक जगत् में नाम तथा रूप में अन्तर होता हैं । आम का फल आम के नाम से भिन्न होता है । कोई केवल “आम ““आम “की रट लगाकर आम का स्वाद नहीं पा सकता । किन्तु भक्त जानता है कि भगवान् के नाम तथा रूप में कोई अन्तर नहीं, अतः वह हरे कृष्ण महामंत्र - हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे - का कीर्तन करता है और अपने आपको सदैव कृष्ण की संगति में अनुभव करता है ।
जो व्यक्ति परमेश्वर के परम ज्ञान में बहुत सिद्ध नहीं हैं उन्हें भगवान् कृष्ण अपनी दिव्य लीलाएँ दिखलाते हैं । वे केवल भगवान् की इन लीलाओं का ही चिन्तन कर सकते हैं और पूरा लाभ उठा सकते हैं । चूँकि भगवान् के दिव्य नाम तथा रूप में कोई अन्तर नहीं होता । जो अल्पज्ञानी हैं (यथा स्त्रियाँ, श्रमिक या वणिक वर्ग), उनके लिये व्यासदेव ने महाभारत की रचना की है ।
महाभारत में कृष्ण अपने विभिन्न कार्यकलापों के साथ विद्यमान हैं । महाभारत इतिहास है । अल्पज्ञानी लोग श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं के अध्ययन, श्रवण तथा स्मरण मात्र से ही क्रमशः शुद्ध भक्त के पद को प्राप्त होते है ।
शुद्ध भक्त जो कृष्ण के दिव्य चरणकमल के विचार में सदैव लीन रहते हैं और सदैव पूर्ण कृष्णभावनामृत में रहते हुए कृष्णभक्ति में लगे रहते हैं, उन्हें कभी भी इस जगत् में रहते हुए नहीं मानना चाहिए । श्रील रूप गोस्वामी ने कहा है कि जो लोग मनसा वाचा कर्मणा कृष्णभक्ति में लगे रहते हैं उन्हें इसी शरीर में रहते हुए भी मुक्त हुआ मानना चाहिए । भगवद्-गीता में इस की पुष्टि की गई है- जो व्यक्ति भगवान् की भक्ति में लगे हुए हैं, उन्होंने पहले ही भवसागर को पार कर लिया है ।
श्रीकृष्ण भक्तों तथा अभक्तों को समान रूप से जीवन का अन्तिम लक्ष्य प्राप्त करने का अवसर देने के लिए प्रकट होते हैं । भक्तों को भगवान् का साक्षात् दर्शन करने तथा उन्हें पूजने का अवसर प्राप्त होता है । जो लोग उस पद को प्राप्त नहीं हैं उन्हें उनके कार्यकलापों से परिचित होने तथा उनके ही समान पद तक उठने का अवसर प्राप्त होता है ।
“हे प्रिय प्रभु ! हे सर्वोपरि नियंता, आप के पृथ्वी पर प्रकट होने पर कंस तथा जरासंध जैसे सभी असुर नष्ट हो जायेंगे और सारा जगत् सौभाग्य से व्याप्त हो जायेगा । जब आप इस ग्रह पर चलते हैं, तब आपके पादपद्मों के तलवे से भूमि पर छाप उठेगी, जैसे कि ध्वज, त्रिशूल तथा बिजली । इस प्रकार आप पृथ्वी एवं स्वर्ग लोक में रहने वाले हम सभी पर भी कृपा करेंगे, क्योंकि हमें उन चिह्नों को देखने का सौभाग्य प्राप्त होगा ।” देवताओं ने आगे कहा, “हे प्रभु ! आप अजन्मा हैं, अतः आपके प्रकट होने का यदि कोई कारण हो सकता हैं, तो वह आपकी आनन्ददायक लीलाएँ ही हैं ।” यद्यपि भगवान् के प्रकट होने का कारण भगवद्-गीता में बताया गया है (वे भक्तों की रक्षा करने तथा अभक्तों का विनाश करने के लिए अवतरित होते हैं), किन्तु वस्तुतः वे अपने भक्तों से आनन्द-मिलन के लिए अवतरित होते हैं, अभक्तों के विनाश के लिए नहीं । ये अभक्त तो प्रकृति की मात्र एक ठोकर के द्वारा ही विनष्ट कर दिये जाते है । “प्रकृति की बहिरंगा शक्ति के कार्य-कारण (उत्पत्ति, पालन तथा संहार) स्वतः चलते रहते हैं । किन्तु आपके पवित्र नाम का आश्रय लेने मात्र से ही-क्योंकि आपका नाम तथा आपका व्यक्तित्व अभिन्न हैं- भक्तगण पर्याप्त सुरक्षित रहते हैं ।” जब भगवान् अवतरित होते हैं, तो भक्तों की सुरक्षा तथा अभक्तों का विनाश वास्तव में भगवान् के कार्य नहीं होते । ये तो उनके दिव्य मनोविनोद के लिए हैं । उनके अवतार लेने का कोई अनय कारण नहीं हो सकता ।
“हे प्रभु ! आप यदुवंश में सर्वश्रेष्ठ के रूप में प्रकट हो रहे हैं और हम आपके चरणकमलों में अपना सादर विनम्र नमस्कार कर रहे हैं । इस अवतार के पहले आप मत्स्य, अश्व, कूर्म, अर्ध-पुरुष अर्ध सिंह, वराह, हंस, भगवान् रामचन्द्र, परशुराम इत्यादि अनेक अवतार ले चुके हैं । आप भक्तों की ही रक्षा के लिए प्रकट होते रहे हैं, अतः हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप अपने प्रस्तुत रूप में हमें तीनों लोकों में वैसी ही सुरक्षा प्रदान करें और शान्तिपूर्ण जीवनयापन के लिए मार्ग के समस्त अवरोधों को दूर कर दें ।” “हे माता देवकी ! आपके गर्भ में भगवान् हैं, जो अपने समस्त पूर्ण अंशों सहित प्रकट होने वाले हैं । वे हमारे कल्याण के लिए प्रकट होने वाले आदि भगवान् हैं । अतः आपको अपने भाई भोजराज से भयभीत नहीं होना चाहिए । आपके पुत्र भगवान् कृष्ण जो आदि भगवान् हैं पवित्र यदुवंश की रक्षा हेतु प्रकट होंगे । भगवान् अकेले नहीं अवतार ले रहे, वे अपने पूर्ण अंश बलदेव के साथ होंगे ।” देवकी अपने भाई कंस से अत्यन्त भयभीत थीं, क्योंकि उसने उनके कई शिशु मार डाले थे । वे कृष्ण के विषय में अत्यन्त चिन्तित रहती थीं । विष्णु पुराण में कहा गया है कि देवकी को सान्त्वना प्रदान करने के लिए सभी देवता अपनी पत्नियों सहित उनसे मिलते रहते और प्रोत्साहित करते रहते कि वे ड़रे नहीं कि उनके पुत्र को कंस मार देगा । उनके गर्भ में स्थित कृष्ण को न केवल संसार का भार कम करने, अपितु उन्हें यदुवंश के हित की रक्षा करने और विशेष रूप से देवकी तथा वसुदेव की रक्षा करने के लिए प्रकट होना था । ऐसा माना जाता है कि कृष्ण को वसुदेव के मन से देवकी के मन में और फिर वहाँ से उनके गर्भ में स्थानान्तरित कर दिया गया था । अतः सभी देवताओं ने कृष्ण की माता देवकी की पूजा की ।
इस प्रकार भगवान् के दिव्य रूप की पूजा करने के पश्चात, ब्रह्मातथा शिवजी को आगे करके सभी देवता अपने स्वर्गिक लोकों को चले गए ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत, “देवताओं द्वारा गर्भस्थ भगवान् कृष्ण की स्तुति” नामक द्वितीय अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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