वसुदेव द्वारा सारी वस्तुएँ कृष्ण को गोकुल ले जाने से पहले की भाँति ठीक कर लेने के पश्चात् तथा सारे द्वार तथा किवाड़ बन्द कर लेने पर पहरेदार जाग गए और उन्हें नवजात शिशु का क्रन्दन सुनाई पड़ा । कंस शिशु-जन्म का समाचार सुनने की प्रतीक्षा कर ही रहा था कि पहरेदारों ने तुरन्त आकर जानकारी दी कि शिशु उत्पन्न हुआ हैं । उस समय वह तेजी से अपनी शय्या से उठ बैठा और चिल्लाया, “अतः मेरे जीवन का क्रूर काल उत्पन्न हो गया है ।” कंस चिन्तित हो गया कि उसकी मृत्यु निकट आ गयी है, अतः उसे रोमांच हो आया । वह अविलम्ब उस स्थान की ओर चला जहाँ शिशु ने जन्म लिया था ।
अपने भाई को आते देखकर देवकी ने कंस से अत्यन्त विनीत भाव से प्रार्थना की, “मेरे भ्राता ! इस लड़की को मत मारो । मैं वचन देती हूँ कि यह तुम्हारे पुत्र की पत्नी बनेगी । अतः इसका वध न करो । तुम्हारा वध किसी कन्या द्वारा तो होना नहीं, यही आकाशवाणी है । तुम्हारा वध तो एक बालक द्वारा होना हैं, अतः कृपा करके इसका वध न करो । मेरे भाई ! तुमने मेरे कितने सारे सूर्य जैसे प्रतापी नवजात शिशुओं का वध किया है । यह तुम्हारा दोष नहीं है । तुम्हारे आसुरी मित्रों ने मेरे पुत्रों को मारने की सलाह दी है । किन्तु अब मैं प्रार्थना करती हूँ कि इस कन्या को तो न मारो । इसे मेरी पुत्री बनकर जीने दो ।” किन्तु कंस इतना क्रूर था कि उसने अपनी बहन देवकी की एक भी दर्द भरी प्रार्थना न सुनी । उसने अपनी बहन को डाँटते हुए नवजात शिशु को बलपूर्वक छीन लिया और उसे निर्दयतापूर्वक पत्थर पर पटकना चाहा । यह एक क्रूर असुर का ऐसा सजीव उदाहरण हैं, जो अपनी व्यक्तिगत तृप्ति के लिए सारे सम्बन्धों की बलि दे सकता है । किन्तु वह शिशु तुरन्त ही उसके हाथों से फिसल गया और आकाश में जाकर विष्णु की अष्टभुजा अनुजा (छोटी बहन) के रूप में प्रकट हुआ । वह सुन्दर वस्त्रों, पुष्प मालाओं तथा आभूषणों से सुशोभित थी और अपनी आठों
भुजाओं में धनुष, भाला, तीर, तलवार, शंख, चक्र, गदा तथा ढाल धारण किए हुए थी ।
कन्या को प्रकट होते देखकर (जो वास्तव में देवी दुर्गा थी) सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, किन्नर तथा उरग लोकों के सारे देवतागण उसे विविध वस्तुएँ भेंट करने लगे और अपनी-अपनी ओर से प्रार्थनाएँ करने लगे । ऊपर से उस देवी ने कंस को सम्बोधित किया, “अरे धूर्त ! तू मुझे कैसे मार सकता है ? तुझे मारने वाला बालक इस संसार में कहीं पहले ही प्रकट हो चुका है । तू अपनी बहन के प्रति इतना क्रूर मत बन ।” इस प्राकट्य के बाद देवी दुर्गा विश्व के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न नामों से विख्यात हो गईं ।
इन शब्दों को सुनकर कंस अत्यधिक भयभीत हुआ । सहानुभूति के कारण उसने तुरन्त वसुदेव तथा देवकी की हथकड़ियाँ तथा बेड़ियाँ कटवा दीं और अत्यन्त विनम्र होकर उनसे बोला, “हे बहन तथा बहनोई ! मैंने अपने भांजों आपके शिशु का वध का असुर की तरह आचरण किया हैं । मैंने अपने घनिष्ठ सम्बन्धों की रंचमात्र भी परवाह नहीं की । मैं नहीं जानता कि मेरे इन द्वेषपूर्ण कार्यों का क्या परिणाम होगा । सम्भवतया मुझे नरक का भोग करना पड़े जहाँ ब्रह्महत्या करने वाले भेजे जाते हैं, किन्तु मैं विस्मित हूँ कि आकाशवाणी सच नहीं उतरी । असत्य प्रचार केवल मानव-समाज तक ही सीमित नहीं हैं । अब तो ऐसा प्रतीत होता है कि स्वर्ग के देवता भी असत्य भाषण करते है । स्वर्ग के निवासियों की वाणी पर विश्वास करके ही मैंने अपनी बहन के शिशुओं को मारकर इतना पाप किया है । प्रिय वसुदेव तथा देवकी ! आप दोनों ही महान् आत्माएँ हैं । मुझे आप दोनों से कुछ नहीं कहना, किन्तु फिर भी मेरी प्रार्थना है कि आप अपनी सन्तानों की मृत्यु के लिए शोक न करें । हम में से प्रत्येक व्यक्ति पराशक्ति के वश में है और वह पराशक्ति हमें एक साथ नहीं रहने देती । हमें कालक्रम में अपने मित्रों तथा परिजनों से विलग होना पड़ता है । किन्तु हमें यह निश्चित रूप से जान लेना चाहिए कि विभिन्न भौतिक शरीरों के न रहने पर भी आत्मा अक्षत रूप में निरन्तर बनी रहती है । उदाहरणार्थ, मिट्टी के अनेक पात्र (घट) हैं, वे पहले बनाये जाते हैं और फिर तोड़ दिये जाते हैं किन्तु तो भी मिट्टी सदा मिट्टी ही रहती हैं इसी प्रकार विभिन्न परिस्थितियों में आत्मा के शरीर बनाये और बिगाड़ें जाते रहते हैं, किन्तु आत्मा शाश्वत रह जाती है । अतः शोक करने की कोई बात नहीं है; प्रत्येक व्यक्ति को समझना चाहिए कि यह भौतिक शरीर आत्मा से भिन्न है और जब तक कोई इसे समझ नहीं लेता, तब तक उसे देहान्तर प्रक्रिया स्वीकार करनी होती है । मेरी बहन देवकी ! आप इतनी भद्र तथा दयालु हैं । कृपया मुझे क्षमा कर दें, मैंने आपकी सन्तानों का जो वध किया है आप उनकी मृत्यु से शोक-संतप्त न हों । वास्तव में यह सब मैंने नहीं किया, क्योंकि ये सब पूर्वनिर्धारित कार्यकलाप हैं । मनुष्य को पूर्वनिर्धारित योजना के अनुसार कर्म करना होता हैं , भले ही वह अनिच्छा से क्यों न करे । लोगों की भ्रामक धारणा है कि शरीर की मृत्यु के साथ आत्मा भी नष्ट हो जाता है, अथवा वे सोचते हैं कि एक प्राणी दूसरे का वध कर सकता है । इन भ्रान्त धारणाओं के कारण मनुष्य को संसार की परिस्थितियों को स्वीकार करना पड़ता है । दूसरे शब्दों में, जब तक आत्मा की नित्यता का दृढ़ विश्वास नहीं हो लेता, तब तक मनुष्य हन्ता (मारने वाला) तथा हन्यमान (मारा जाने वाला) का कष्ट भोगता रहता है । हे मेरी बहन देवकी तथा बहनोई वसुदेव ! मैंने आप लोगों के प्रति जो अत्याचार किए हैं उन्हें क्षमा कर दें । मैं क्षुद्र हृदय हूँ और आप इतने विशाल हृदय हैं, अतः मुझ पर दया दिखाएँ और मुझे क्षमा करें ।” जब कंस इस प्रकार अपनी बहन तथा बहनोई से बातें कर रहा था, तो उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी और वह उनके चरणों पर गिर पड़ा । कंस ने जिस दुर्गा देवी को मारने का प्रयत्न किया था, उसी के वचनों पर विश्वास करते हुए उसने अपने बहनोई तथा बहन को तुरन्त बन्धनमुक्त कर दिया । उसने स्वयं उनकी हथकड़ियाँ खोल दी और उनके प्रति परिवार के एक सदस्य की भाँति वह सहानुभूति दिखाने लगा ।
जब देवकी ने अपने भाई को इस तरह पश्चाताप करते देखा, तो वे शान्त हो गईं और अपनी सन्तानों के प्रति किए गए सारे अत्याचारों को भूल गईं । वसुदेव भी विगत घटनाओं को विस्मरण करते हुए अपने साले से हँस कर बोले, “हे भाग्यशाली साले ! तुम भौतिक शरीर तथा आत्मा के विषय में जो कुछ कह रहे हो वह बिल्कुल ठीक है । प्रत्येक जीवात्मा जन्म से अज्ञानी है और वह अपने आपको भौतिक शरीर समझ बैठता है । यह जीवात्म-बुद्धि अज्ञानजनित है और इसी अज्ञानता के आधार पर हम शत्रुता या मित्रता पैदा करते हैं । शोक, हर्ष, भय, ईर्ष्या, लोभ, मोह तथा उन्माद हमारी देहात्मबुद्धि के विभिन्न पक्ष हैं । इस प्रकार से प्रभावित मनुष्य भौतिक देह के कारण ही शत्रुता में प्रवृत्त होता है । ऐसे कार्यों में लग जाने के कारण हम भगवान् से अपना शाश्वत सम्बन्ध भूल जाते हैं ।” वसुदेव ने कंस की उदारता का लाभ उठाकर उसे बताया कि उसके नास्तिक कार्यकलाप भी इसी देहात्मबुद्धि से जन्य हैं । जब वसुदेव ने कंस से इस प्रकार ज्ञानप्रद बातें कीं, तो वह अत्यधिक प्रसन्न हुआ और उससे उसे अपने भांजों को मारने की अपराध-भावना कुछ कम हुई । अपनी बहन देवकी तथा बहनोई वसुदेव से आज्ञा लेकर वह शान्तचित्त अपने घर लौट आया ।
किन्तु दूसरे ही दिन कंस ने सारे मंत्रियों को बुलाकर उनसे विगत रात्रि में जो कुछ घटा था कह सुनाया । कंस के सारे मंत्री असुर थे और थे देवताओं के परम शत्रु, अतः वे अपने स्वामी से रात्रि की घटनाओं को सुनकर उदास से हो गए । अधिक अनुभवी या विद्वान न होने पर भी वे कंस को इस तरह सलाह देने लगे : “श्रीमन् ! हमें चाहिए कि सारे नगरों, कस्बों, गाँवों तथा गोचरों में विगत दस दिनों में जितने बालक उत्पन्न हुए हों, उन सबको मार दिए जाने का प्रबन्ध करें । हमें चाहिए कि इस योजना को बिना किसी भेद-भाव के कार्यान्वित करें । हमारा विचार है कि यदि हम ये कुकृत्य (अत्याचार) करेंगे, तो फिर देवताओं को हमारे विरुद्ध कुछ भी करने का साहस नहीं हो सकेगा । वे हमसे युद्ध करने से सदैव ड़रते हैं और यदि वे हमारे कार्यों को रोकना भी चाहेंगे, तो भी उनमें ऐसा करने का साहस नहीं जुट पायेगा ।आपके धनुष की अपार शक्ति से वे भयभीत रहते हैं । निस्सन्देह, हमें इसका अनुभव है कि जब-जब युद्ध के लिए सन्नद्ध होकर आपने उन पर बाणों की वर्षा की हैं । तब-तब वे अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए चारों दिशाओं में भागे-भागे फिरे हैं । अनेक देवता आपसे युद्ध करने में असमर्थ रहे हैं और उन्होंने तुरन्त ही अपनी पगड़ी उतार कर तथा अपने बालों की ग्रन्थियाँ खोल कर आपकी शरण ग्रहण की है और हाथ जोड़ कर अपने प्राणों की भिक्षा माँगते हुए कहा है, “हे स्वामी ! हम आपके पराक्रम से भयभीत हैं । आप हमें इस घातक युद्ध से उबारिये । हमने कई बार यह भी देखा है कि जब कभी शत्रु अत्यन्त भयभीत हो जाते, उनके धनुष, बाण तथा रथ विनष्ट हो चुके होते और वे अपने सैनिक कौशल को भूलकर लड़ने में असमर्थ हो जाते, तो आप ऐसे शरणागत शत्रुओं का वध नहीं करते थे । अतः वस्तुतः हमें इन देवताओं से भयभीत नहीं होना चाहिए । इन लोगों को शान्तिकाल में युद्धभूमि से बाहर रहकर महान् योद्धा होने का अत्यन्त गर्व है, किन्तु वास्तव में वे युद्ध-भूमि में कोई कौशल या सैनिक शक्ति प्रदर्शित नहीं कर सकते । यद्यपि इन्द्र समेत भगवान् विष्णु, शिवजी तथा ब्रह्माजी इनकी सहायता के लिए सदैव उद्यत रहते हैं, किन्तु हमें उनसे ड़रने का कोई कारण नहीं है । जहाँ तक भगवान् विष्णु का प्रश्न हैं, वे तो पहले ही जन-जन के हृदयों में अन्तर्हित हो चुके हैं और वे बाहर नहीं आ सकते । और शिवजी ने तो अपने सारे कार्यकलापों का परित्याग कर रखा हैं । वे पहले ही वनवासी हो चुके हैं । और ब्रह्माहैं कि उन्हें नाना प्रकार की तपस्याओं तथा ध्यान से फुरसत नहीं मिलती । इन्द्र तो आपकी शक्ति के समक्ष तिनके जैसा हैं । अतः हमें इन देवताओं से ड़रने की कोई बात नहीं । किन्तु हमें असावधान भी नहीं रहना क्योंकि देवता हमारे कट्टर शत्रु हैं । हमें अपनी रक्षा करने के लिए सावधान रहना चाहिए । उनको समूल नष्ट करने के लिए सावधान रहना चाहिए । उनको समूल नष्ट करने के लिए हमें आपकी सेवा करनी चाहिए और आपकी आज्ञा के पालन के लिए सदैव सन्नद्ध रहना चाहिए ।” असुरों ने आगे कहा: “यदि शरीर में कोई रोग हो और उसकी परवाह न की जाये, तो वह असाध्य बन जाता है । इसी प्रकार यदि इन्द्रियों को छूट दे दी जाये, तो उनको वश में कर पाना दुष्कर हो जाता है । अतः हमें इन देवताओं से सदैव सावधान रहना चाहिए अन्यथा ये दबाये नहीं दबेंगे । देवताओं की आधारभूत शक्ति तो भगवान् विष्णु हैं, क्योंकि सारे धर्मों का चरम लक्ष्य उन्हें ही प्रसन्न करना है । वैदिक आदेश, ब्रह्मण, गाय, तप, त्याग, दान, पुण्य- ये सारे कृत्य भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने के लिए हैं । अतः हमें चाहिए कि हम तुरन्त ही उन सारे ब्रह्मणों का जो वैदिक ज्ञान की निधि हैं तथा उन ॠषियों का वध करना प्रारम्भ कर दें, जो अनुष्ठान-कार्यों को सम्पन्न करने में लगे हुए हैं । हमें सारी गायों का वध कर देना चाहिए जो माखन की स्रोत हैं ताकि यज्ञ के लिए घी न मिल सके । कृपया हमें इन समस्त प्राणियों का वध करने की अनुमति प्रदान करें ।” वास्तव में ब्रह्मण, गाय, वैदिक ज्ञान, तपस्या, सत्य, इन्द्रिय, तथा मन का संयम, स्वामीभक्ति, दान, सहिष्णुता तथा यज्ञ- ये ही भगवान् विष्णु के दिव्य शरीर के अंगस्वरूप हैं । भगवान् विष्णु सब के हृदय में विद्यमान हैं और वे शिव तथा ब्रह्मासहित समस्त देवताओं के नायक हैं । मंत्रियों ने कहा, “हमारे विचार से भगवान् विष्णु को मारने के लिए समस्त ॠषियों तथा ब्रह्मणों को दंड़ दिया जाये ।” इस प्रकार असुर-मंत्रियों द्वारा मंत्रणा किए जाने पर महाधूर्त कंस ने जो सर्वभक्षी अनन्तकाल की हथकड़ी-बेड़ियों में जकड़ा था ब्रह्मणों तथा वैष्णवों को दण्डित करने का निश्चय किया । उसने असुरों को आदेश दिया कि वे सभी साधु पुरुषों को सताएँ और तब वह अपने घर चला गया । कंस के अनुयायी रजो तथा तमोगुण के प्रभाव में आ गए और उनका एकमात्र कार्य बन गया साधु पुरुषों से शत्रुता करना । ऐसे कार्यों से मात्र जीवन-अवधि घटती हैं । असुरों ने इस क्रिया को मानो त्वरित करके अपनी मृत्यु को बुलावा दे दिया । साधु पुरुषों को दण्डित करने का परिणाम केवल अकाल मृत्यु ही नहीं होता । यह कार्य इतना घातक होता हैं कि कर्ता क्रमशः अपना सौंदर्य, अपना यश तथा धर्म खो देता हैं और उसके उच्च लोकों में जाने की प्रगति रुक जाती है । विविध प्रकार के मनोरथों के वशीभूत होकर ये असुर सभी प्रकार के शुभ कार्यों को क्षीण बना देते हैं । भक्तों तथा ब्रह्मणों के चरणकमलों के प्रति किया गया अपराध श्रीभगवान् के चरणकमलों के प्रति किए गए अपराध से भी बड़ा होता है । वह सभ्यता जो ऐसे पाप-कर्म करती है, सामान्यतः भगवान् में श्रद्धा खो देती है और ऐसी ईश्वर-विहीन सभ्यता मानव समाज में विपत्तियों का घर बन जाती है ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “कंस द्वारा उत्पीड़न” नामक चतुर्थ अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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