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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 42: यज्ञ भूमि में धनुर्भग  » 
 
 
 
 
 
माली के गृह से प्रस्थान करने पर श्रीकृष्ण तथा बलराम जी ने एक कुबड़ी युवती कुब्जा को देखा। वह हाथ में चन्दन के लेप का एक पात्र लेकर गली से जा रही थी। समस्त सुखों के सागर श्रीकृष्ण उस कुब्जा से विनोद करके अपने सभी सहयोगियों को हर्षित करना चाहते थे। श्रीकृष्ण ने उसे सम्बोधित किया, "हे तन्वंगी! तुम कौन हो? तुम अपने हाथ में यह चन्दन का लेप किसके लिए ले जा रही हो? मेरा विचार है कि तुम यह चन्दन मुझे अर्पित कर दो। यदि तुम ऐसा करोगी, तो निश्चय ही अति सौभाग्यशालिनी बनोगी।" श्रीकृष्ण श्रीभगवान् हैं और वे कुब्जा के विषय में सब कुछ जानते थे। अपने इस प्रश्नों से उन्होंने यह इंगित किया कि एक असुर की सेवा करने में कोई लाभ नहीं है; उत्तम यही है कि वह श्रीकृष्ण एवं बलराम जी की सेवा करके अपनी सेवा का फल तत्काल पा ले।
युवती ने श्रीकृष्ण को उत्तर दिया, "प्रिय श्यामसुन्दर! हे कन्हैया! सम्भवतः आपको पता होगा कि मैं कंस के यहाँ दासी का कार्य करती हूँ। मैं प्रतिदिन उसके लिए चन्दन का लेप ले जाती हूँ। इस उत्तम वस्तु को उसे देने के कारण राजा मुझसे अति प्रसन्न है, किन्तु अब मुझे ज्ञात हो गया है कि आप दोनों भाइयों से श्रेष्ठ और कोई नहीं है, जिसे यह चन्दन का लेप अर्पित किया जा सके।" श्रीकृष्ण तथा बलराम जी के मनोहारी मुख, उनके वार्तालाप, उनके मन्द हास तथा उनकी चितवन जट पर मुग्ध होकर कुब्जा सन्तुष्टि एवं भक्ति से उनके शरीर पर चन्दन का लेप करने लगी। दोनों दिव्य भ्राता, श्रीकृष्ण और बलराम, नैसर्गिक रूप से अति सुन्दर हो उनका वर्ण अत्यन्त मनोहारी थी और उन्होंने उत्तम रंगीन वस्त्र धारण किए हुए ही उनके शरीर पहले से ही अत्यन्त आकर्षक थे और जब कुब्जा ने उनके शरीर पर चन्दन का लेप कर दिया, तो वे और अधिक सुन्दर दिखने लगे। श्रीकृष्ण इस सेवा से अत्यधिक प्रसन्न हो गए और सोचने लगे कि उसे क्या पारितोषिक दिया जाये। दसरे शब्दों में, भगवान् को आकृष्ट करने के लिए कृष्णभावनाभावित भक्त को प्रेमाभक्ति में उनकी सेवा करनी पड़ती है। उनके प्रति दिव्य प्रेममयी सेवा के अतिरिक्त श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने का और कोई मार्ग नहीं है। इस प्रकार विचार करते हुए श्रीकृष्ण ने कुब्जा के पैरों पर अपना पैर रख कर दबा दिया तथा उसके गालों को अपने हाथों से पकड़ कर उसे सीधा करने के लिए एक झटका दिया। तत्काल ही कुब्जा विस्तृत नितम्बों, क्षीण कटि तथा सुन्दर एवं सुपुष्ट स्तनों वाली एक सीधे शरीर वाली युवती बन गई। चूँकि श्रीकृष्ण कुब्जा की सेवा से प्रसन्न थे और उसे श्रीकृष्ण के करकमलों का स्पर्श प्राप्त हुआ था, अत: वह नारियों में सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी बन गई। यह घटना दर्शाती है कि श्रीकृष्ण की सेवा के द्वारा भक्त को तत्काल सर्वश्रेष्ठ गति प्राप्त हो जाती है। प्रत्येक दृष्टि से भक्ति में इतनी शक्ति है कि जो कोई भक्ति करता है, वह सभी दैवी गुणों से युक्त हो जाता है। श्रीकृष्ण कुब्जा की ओर उसके सौन्दर्य के कारण नहीं, अपितु उसकी सेवा के कारण आकर्षित हुए थे। जैसे ही उसने भगवान् की सेवा की, वह उत्तम सुन्दरी बन गई। कृष्णभावनाभावित भक्त को सुन्दर अथवा गुणवान् होना आवश्यक नहीं है; कृष्णभावनामृत में संलग्न होने तथा कृष्ण की सेवा करने के उपरान्त वह अत्यन्त गुणवान् तथा सुन्दर हो जाता है।
जब कुब्जा श्रीकृष्ण के अनुग्रह से अनुपम सुन्दर युवती बन गई, तो वह स्वाभाविक रूप से श्रीकृष्ण के प्रति अत्यन्त आभार मानने लगी। वह उनके सौन्दर्य से आकर्षित भी हो गई। वह बिना हिचक के श्रीकृष्ण के वस्त्र का पिछला छोर पकड़ कर खींचने लगी। उसने भावभंगिमापूर्ण मुसकान की और स्वीकार किया कि वह कामवासना से पीड़ित है। उसे यह भी विस्मृत हो गया कि वह श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता तथा सखाओं के सम्मुख गली में खड़ी है।
उसने श्रीकृष्ण के सम्मुख स्पष्ट प्रस्ताव रखा, "मेरे प्रिय ! हे वीर ! मैं इस प्रकार आपको नहीं छोड़ सकती हूँ। आपको मेरे घर चलना पड़ेगा। मैं आपके सौन्दर्य प्रति अत्यन्त आकर्षित हूँ; अतः भली-भाँति आपका स्वागत करना चाहती हूँ। आप पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ हैं। आप भी मुझ पर दयालु होइए।" स्पष्ट शब्दों में उसने अपनी कामवासना-तृप्त करने के लिए श्रीकृष्ण से अपने घर चलने का प्रस्ताव किया। अपने ज्येष्ठ भ्राता बलराम की उपस्थिति में उसके इन वचनों को सुन कर श्रीकृष्ण किंचित् संकोच में पड़ गए, किन्तु उन्हें ज्ञात था कि वह युवती अत्यन्त सरल स्वभाव की थी तथा उनके प्रति अत्यन्त आकर्षित थी। अतएव उसके शब्द सुन कर श्रीकृष्ण केवल मुस्करा दिए। अपने ग्वालबाल सखाओं की ओर दृष्टि करके उन्होंने उसे उत्तर दिया, "हे सुन्दरी! मैं तुम्हारे निमंत्रण से अत्यन्त प्रसन्न हूँ और यहाँ का अन्य कार्य समाप्त करके मैं अवश्य ही तुम्हारे घर आऊँगा। मेरे समान अविवाहित तथा घर से दूर युवकों के लिए तुम्हारे समान सुन्दरी ही सन्तुष्टि का एकमात्र साधन है। निश्चय ही तुम्हारे जैसी एक उपयुक्त सखी ही हमें सब प्रकार की मानसिक अशान्ति से मुक्ति दिला सकती हो।" इस प्रकार मधुर वचनों से श्रीकृष्ण ने कुब्जा को सन्तुष्ट कर दिया। उसे वहीं छोड़ कर वे बाजार की ओर आगे बढ़े जहाँ मथुरा के नागरिक विभिन्न प्रकार के उपहारों, विशेष रूप से पान, पुष्प व चन्दन लेकर उनके स्वागत में तैयार खड़े थे।
बाजार के व्यापारियों ने श्रीकृष्ण और बलराम जी की अत्यधिक आदरपूर्वक पूजा की। जब श्रीकृष्ण गली में से जा रहे थे तब आसपास के घरों की सभी स्त्रियाँ श्रीकृष्ण के दर्शनार्थ आ गईं। कुछ कम आयु की युवतियाँ तो श्रीकृष्ण के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर मूछित हो गईं। उनके केश तथा वस्त्र ढीले पड़ गए और उन्हें यह भी विस्मृत हो गया कि वे कहाँ पर खड़ी हैं।
तदुपरान्त श्रीकृष्ण ने नागरिकों से पूछा कि यज्ञ कहाँ पर हो रहा है। कंस ने धनुर्यज्ञ का आयोजन किया था और इस विशिष्ट यज्ञ की सूचना देने के लिए उसने यज्ञवेदी के समीप एक विशाल धनुष रखवा दिया था। वह धनुष अत्यन्त विशाल तथा अद्भुत था और आकाश में इन्द्रधनुष के समान प्रतीत होता था। यज्ञ की रंगभूमि में इस धनुष की रक्षा के लिए कंस ने अनेक सैनिकों तथा द्वारपालों को नियुक्त कर दिया था। जब श्रीकृष्ण तथा बलराम धनुष की ओर बढ़े, तो उन्हें धनुष के निकट न जाने की चेतावनी दी गई, किन्तु श्रीकृष्ण ने इस चेतावनी की उपेक्षा कर दी। वे हठपूर्वक आगे बढ़े और उस विशाल धनुष को अपने बाएँ हाथ में उठा लिया। जन समुदाय की उपस्थिति में उन्होंने धनुष पर डोरी चढ़ाई और उसे खींच ३१९ न को उसी प्रकार बीच से दो भागों में तोड़ दिया जैसे हाथी खेत में गन्ने को ता है। उपस्थित जनसमुदाय ने श्रीकृष्ण के बल की प्रशंसा की। धनुष-भंग के से धरती और आकाश गूंज उठे। कंस ने भी इस ध्वनि को सुना। जब कंस को पटना की जानकारी मिली, तो उसे अपने प्राणों का भय होने लगा। धनुष के पास ही खड़े थे और जब उन्होंने, समस्त घटना देखी अत्यन्त क्रोधित हो उठे। और अपने अपने हाथों में शस्त्र लेकर श्रीकृष्ण को पकड़ने के लिए दौड़े। “बन्दी बना लो, वध कर दो, वध करो" चिल्लाते हुए लोगों के मध्य श्रीकृष्ण तथा बलराम जी घिर गए। जब उन्होंने रक्षकों की धमकाने वाली क्रियाएँ समझी, तो वे कुद्ध हो गए और टूटे हुए धनुष के दोनों भाग उठा कर सभी रक्षकों पर प्रहार करने लगे। जब यह उपद्रव हो रहा था तभी कंस ने सेना की एक छोटी टुकड़ी रखवालों की सहायता के लिए भेजी, किन्तु श्रीकृष्ण तथा बलरामजी ने उनसे युद्ध करके उनका संहार कर दिया।
इसके पश्चात् श्रीकृष्ण यज्ञ की रंगभूमि में आगे न बढ़कर द्वार से बाहर आ गए और अपने विश्रामस्थल की ओर बढ़े। मार्ग में उन्होंने मथुरा नगर के विभिन्न स्थानों को अत्यन्त हर्ष से देखा। श्रीकृष्ण के अद्भुत कौशल तथा कार्यों को देख कर मथुरा के सभी नागरिक सोचने लगे कि ये दोनों भाई देवता हैं, जो मथुरा आए हैं। वे अत्यन्त आश्चर्य से उन पर दृष्टिपात करने लगे। दोनों बन्धु निश्चिंत होकर कंस के नियमों व आदेशों की परवाह न करते हुए गलियों में विचरण करने लगे।
सन्ध्या होने पर श्रीकृष्ण और बलराम अपने ग्वालबाल सखाओं के साथ नगर की सीमा पर गए। वहाँ उनकी सभी बैलगाड़ियाँ एकत्र थीं। इस प्रकार श्रीकृष्ण और बलराम ने अपने आगमन का तथा दूसरे दिन यज्ञ की रंगभूमि में कंस पर आने वाली घोर आपत्ति का कुछ प्राथमिक आभास कंस को दे दिया। कंस समझ गया कि अगले दिन यज्ञ स्थल पर उस पर किस प्रकार का घोर संकट आने वाला है।
जब श्रीकृष्ण और बलराम वृन्दावन से मथुरा जा रहे थे तब वृन्दावनवासियों ने मथुरा के नागरिकों के परम सौभाग्य की कल्पना की थी। उन्होंने कल्पना की कि, शुद्ध भक्तों तथा भाग्य की देवी लक्ष्मी के आराध्य श्रीकृष्ण के अद्भुत सौन्दर्य का मथुरावासी दर्शन कर सकेंगे। वृन्दावन के निवासियों की कल्पनाएँ अब वस्तुतः सत्य हो गईं, क्योंकि मथुरा के नागरिक श्रीकृष्ण के दर्शनों से पूर्णरूपेण सन्तुष्ट हो गए।
जब श्रीकृष्ण अपने विश्राम-स्थल पर वापस आए तब उनके अनुचर उनकी सेवा में तत्पर हो गए। उन्होंने श्रीकृष्ण के पदारविन्दों को पखार कर उन्हें असर आसन दिया। तत्पश्चात् उन्होंने श्रीकृष्ण को सुस्वादु भोजन तथा दूध अर्पित किया। भोजनोपरान्त अगले दिवस के कार्यक्रम के विषय में विचार करते हुए श्रीकण शान्तिपूर्वक विश्राम करने लगे। इस तरह उन्होंने वहाँ पर रात्रि व्यतीत कर दी।
दूसरी ओर जब कंस को श्रीकृष्ण द्वारा उस अद्भुत धनुष के तथा रक्षकों और सैनिकों के वध का महत्त्व समझ में आया तब उसे श्रीभगवान् की शक्ति का किञ्चित आभास हुआ। उसे अनुभव हुआ कि देवकी के आठवें पुत्र का आगमन हो चुका है और अब उसकी मृत्यु आसन्न है। वह समस्त रात्रि विश्राम न कर सका और अपनी आसन्न मृत्यु के विषय में सोचता रहा। उसे बहुत से अशुभ लक्षण दिखाई पड़ने लगे तथा उसे समझ में आ गया कि मथुरा की सीमा के समीप आए हुए श्रीकृष्ण और बलराम उसकी मृत्यु के दूत थे। जाग्रतावस्था तथा स्वप्नावस्था में उसे अनेकानेक अशुभ लक्षण दिखाई देने लगे। जब उसने दर्पण में देखा, तो उसे उसका सिर नहीं दिखाई दिया, यद्यपि उसका सिर वास्तव में विद्यमान था। आकाश के नक्षत्र उसे दो दो दिखाई देने लगे, यद्यपि वस्तुतः वे सभी एक-एक थे। अपनी छाया में उसे छिद्र दिखाई दिए तथा कानों में एक तीव्र भनभनाहट सुनाई पड़ी। उसे अपने सामने के सभी वृक्ष स्वर्णनिर्मित प्रतीत हुए और धूलि अथवा कीचड़ में उसे अपने पदचिह्न नहीं दीख पड़े। स्वप्न में उसने अनेक प्रकार की प्रेतात्माओं को गधों से खेंची जा रही गाड़ी पर सवार हो कर जाते हुए देखा। उसने यह स्वप्न भी देखा कि किसी ने उसे विष दिया है और वह विषपान कर रहा है। उसने स्वप्न देखा कि वह एक पुष्पमाला पहन कर तेल लगी हुई नग्न देह के साथ जा रहा है। इस प्रकार निद्रा तथा जाग्रतावस्था में मृत्यु के विभिन्न लक्षणों को देख कर कंस समझ गया कि उसकी मृत्यु सुनिश्चित थी। इस प्रकार अत्यन्त उद्विग्न होने के कारण वह उस रात विश्राम न कर सका। रात्रि समाप्त होते ही वह मल्लयुद्ध के आयोजन में व्यस्त हो गया।
मल्लयुद्ध की रंगभूमि अच्छी तरह से साफ करके पताकाओं, बन्दनवारों तथा पुष्पों से सजाई गई थी। नगाड़े बजा कर प्रतियोगिता की घोषणा की गई। पताकाओं और रंगीन कागज की पटिट्यों से सज्जित होने के कारण मंच अत्यन्त शोभायमान दिख रहा था। राजाओं, ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की दीर्घा पंक्तियों का प्रबन्ध किया गया था। विभिन्न राजाओं के सिंहासन आरक्षित थे तथा अन्य लोगों के भी आसन निश्चित थे। अन्त में अपने मंत्रियों तथा सभासदों सहित कंस आया और वह अपने लिए विशेष रूप से निर्मित उच्च मंच पर बैठ गया। यद्यपि वह अपने मुख्य मण्डलेश्वरों के मध्य बैठा था, फिर भी दुर्भाग्यवश उसका हृदय मृत्यु भय से काँप रहा था। क्रूर मृत्यु कंस के समान बलशाली व्यक्ति की भी चिन्ता करती है। मृत्यु जब आती है, यह किसी उच्च पद की चिन्ता नहीं करती।
जब सारा प्रबन्ध पूर्ण हो गया तब सभा के सामने अपना कौशल दिखलाने वाले पल्लों ने रंगभूमि में प्रवेश किया। उन्होंने बहुमूल्य वस्त्राभूषण धारण कर रखे थे। उनमें से कुछ प्रसिद्ध मल्लों के नाम चाणूर, मुष्टिक, शल, कूट तथा तोशल थे। संगीत की ध्वनि से प्रेरित होकर वे अत्यन्त फुर्ती के साथ वहाँ से गुज़रे । नन्द सहित वन्दावन से आए सभी सम्मानित ग्वालों का कंस ने स्वागत किया। कंस को अपने साथ लाए हुए दुग्धनिर्मित पदार्थों का उपहार देने के पश्चात् ग्वालों ने भी अपने आसन ग्रहण किए। उनके लिए विशेषरूप से निर्मित मंच राजा के मंच के समीप ही था।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत "यज्ञ भूमि में धनुआंग" नामक बयालीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
 
 
 
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