जब कंस के मल्लों ने अपना लड़ने का संकल्प व्यक्त किया, तो श्रीभगवान् मधुसूदन ने चाणूर का सामना किया तथा रोहिणी के पुत्र बलराम जी ने मुष्टिक का सामना किया। हाथ से हाथ और पैर से पैर भिड़ा कर श्रीकृष्ण और चाणूर तथा बलराम एवं मुष्टिक विजयी होने के लिए एक दूसरे को धकेलने लगे। उन्होंने हाथ से हाथ, सिर से सिर, पिण्डली से पिण्डली तथा छाती से छाती भिड़ा दी और एक दूसरे पर प्रहार करने लगे। एक दूसरे को एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर धकेलते हुए वे अत्यन्त भयंकर युद्ध करने लगे। एक ने दूसरे को पकड़ कर धरती पर पटक दिया, तो कोई पीछे से दूसरे के सामने की ओर दौड़ा और दाँव लगा कर उसे पराजित करने का प्रयास करने लगा। धीरे-धीरे युद्ध की गति में तीव्रता आने लगी। कभी वे एक दूसरे को पकड़ लेते थे, तो कभी घसीटते थे और कभी ढकेलते थे, तदनन्दर वे एक-दूसरे को हाथ-पैर से आबद्ध कर लेते थ। प्रत्येक ने अपने विरोधी को पराजित करने के प्रयास में मल्लयुद्ध की समस्त कलाओं का उत्तम प्रदर्शन किया।
किन्तु रंगभूमि के दर्शक सन्तुष्ट नहीं थे, क्योंकि उन्हें प्रतियोगी बराबरी के नहीं प्रतीत हो रहे थे। शिला के समान सुदृढ़ शरीर वाले चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों के समक्ष उन्हें श्रीकृष्ण तथा बलराम नितान्त बालक लग रहे थे। श्रीकृष्ण ती बलराम के प्रति दर्शकों में से बहुत सी महिलाओं के मन में करुणा व पक्षपात था। वे आपस में इस प्रकार वार्तालाप करने लगे, "प्रिय मित्रो! यहाँ तो अन्याय लगता है।" दूसरे ने कहा, "राजा की उपस्थिति में भी असंगत पक्षों के मध्य यह युद्ध चल रहा है।" महिलाओं को इस युद्ध में आनन्द नहीं आ रहा था। बलशाली तथा निर्बल के मध्य युद्ध को प्रोत्साहन देने में वे असमर्थ थे। "मुष्टिक और चाणूर विशाल पर्वतों की भाँति बलशाली तथा वज्र के समान कठोर हैं, जबकि श्रीकृष्ण और बलराम अल्पायु के कोमल बालक हैं। न्याय के सिद्धान्त ने इस सभा का त्याग कर दिया है। न्यायोचित सिद्धान्तों को जानने वाले व्यक्ति इस अनुचित प्रतियोगिता को देखने के लिए यहाँ नहीं रुकेंगे। जो इस मल्लयुद्ध प्रतियोगिता को देख रहे हैं, वे ज्ञानी नहीं हैं, अतएव वे कुछ कहें अथवा मौन रहें, वे पाप के भागी हो रहे हैं।"
उस सभा में से एक दूसरी महिला बोल उठी, "मेरे प्रिय मित्रो! श्रीकृष्ण के मुख की ओर तो दृष्टि डालो! अपने शत्रु का पीछा करने के कारण उनके मुख पर श्रमबिन्दु आ गए हैं जिससे उनका मुख जल-बिन्दुओं से विभूषित कमलपुष्प के समान शोभायमान हो रहा है।
एक दूसरी महिला ने कहा, "क्या तुम देख रहे हो कि बलराम जी का मुख कितना सुन्दर हो गया है ? उनके गोरे मुख पर लालिमा छा गई है, क्योंकि वे मुष्टिक के साथ घोर युद्ध में संलग्न हैं।"
सभा में उपस्थित नारियों में से एक अन्य ने दूसरी को सम्बोधित किया “प्रिय सखि! ज़रा विचार करो कि वृन्दावन की भूमि कितनी सौभाग्यशालिनी है कि श्री भगवान् स्वयं वहाँ उपस्थित हैं और पुष्पमालाओं से विभूषित वे अपने भ्राता बलराम जी के साथ सदैव गोचारण में व्यस्त रहते हैं। उनके ग्वालबाल सखा सदैव उनके साथ रहते हैं और वे अपनी दिव्य वंशी बजाते रहते हैं। वृन्दावन के निवासी भाग्ययशाली हैं कि उन्हें शिव, आदि देवताओं तथा लक्ष्मी जी द्वारा पूजित, श्रीकृष्ण व बलराम जी के पदकमलों के सतत दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है। हम अनुमान भी नहीं लगा सकती हैं कि व्रजभूमि की गोपियों ने कितने पुण्यकर्म किए थे, जिसके फलस्वरूप उन्हें श्रीभगवान् के दिव्य शरीर के अद्वितीय सौन्दर्य के दर्शन का आनन्द प्राप्त हुआ। भगवान् का सौन्दर्य अतुलनीय है। शरीर के लावण्य अथवा वर्ण के सौन्दर्य में न कोई उनसे बढ़कर है, न बराबर ही है। श्रीकृष्ण और बलराम सभी प्रकार के ऐश्वर्य, जैसे धन-सम्पत्ति, शक्ति, सौन्दर्य, यश, ज्ञान तथा वैराग्य के सागर हैं। गोपियाँ इतनी सौभाग्यवती हैं कि वे चौबीसों घंटे श्रीकृष्ण के दर्शन एवं उनका चिंतन कर सकती हैं। प्रात: गो-दोहन से प्रारम्भ करके धान कूटने तथा प्रात:काल वन बिलोने तक अपनी दिनचर्या के प्रतिक्षण वे श्रीकृष्ण का दर्शन और चिन्तन कर सकती हैं। अपने घरों को झाड़ते-बुहारते समय अथवा मार्जन करते समय, वे सर्वदा ही श्रीकृष्ण के चिन्तन में लीन रहती हैं।"
विभिन्न प्रकार के भौतिक क्रियाकलापों में व्यस्त रहते हुए भी कोई किस प्रकार कृष्णभावनामृत में डूबा रह सकता है, गोपियाँ इसका आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। यदि कोई सतत श्रीकृष्ण के चिन्तन में लीन रहे, तो भौतिक क्रियाकलापों के प्रदषण उसे प्रभावित नहीं कर सकते। अतएव गोपियाँ योगिक शक्ति की उच्चतम पर्णता की स्थिति, समाधि, में स्थित हैं। श्रीमद् भगवद् गीता में यह पुष्ट किया गया है कि सतत रूप से श्रीकृष्ण का चिन्तन करने वाला व्यक्ति सभी प्रकार के योगियों में सर्वश्रेष्ठ योगी है। एक स्त्री ने दूसरी से कहा “मेरी सखियो! हमें गोपियों के क्रिया कलापों को सर्वोत्कृष्ट पुण्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए, अन्यथा उन्हें प्रातः एवं सायंकाल दोनों समय श्रीकृष्ण के दर्शनों का सुअवसर किस प्रकार प्राप्त हो पाया? प्रात:काल जब श्रीकृष्ण अपने ग्वालबाल सखाओं तथा गउओं के साथ गोचारण के लिए जाते हैं तथा सन्ध्या समय जब वे लौटते हैं तब गोपियों को उनके दर्शन का सुअवसर प्राप्त होता है। बार-बार वंशी-वादन में रत तथा मन्द मुस्कान से युक्त लौटते हैं।"
जब प्रत्येक जीव के परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण को यह ज्ञात हुआ कि सभा में उपस्थित स्त्रियाँ उनके विषय में उद्विग्न हैं, तब उन्होंने द्वन्द्व युद्ध को जारी न रख कर, उन मल्लयोद्धाओं का तत्काल ही वध करने का निश्चय कर लिया। श्रीकृष्ण एवं बलराम के माता-पिता नन्द महाराज, यशोदा, वसुदेव और देवकी भी अपने पुत्रों की असीम शक्ति को न जानने के कारण उद्विग्न थे। बलराम जी उसी प्रकार से मुष्टिक से कर रहे थे जिस प्रकार से भगवान् श्रीकृष्ण चाणूर से द्वन्द्व युद्ध कर रहे थे। चाणूर के प्रति क्रूर प्रतीत होते हुए श्रीकृष्ण ने अपनी मुट्ठी से तत्काल उस पर तीन प्रहार किए। दर्शकों को यह देख कर अत्यधिक आश्चर्य हुआ कि श्रीकृष्ण के प्रहार से वह महान् मल्ल डगमगा गया। तब अन्तिम प्रयास करते हुए चाणूर ने इस प्रकार श्रीकृष्ण पर आक्रमण किया जैसे एक बाज दूसरे पर झपटता है। वह दोनों हाथ बाँध कर श्रीकृष्ण के वक्ष पर आघात करने लगा। चाणूर के आघातों से भगवान् श्रीकृष्ण तनिक भी विचलित नहीं हुए। जैसे एक गज पुष्पहार से आघात किए जाने पर तनिक भी विचलित नहीं होता है, श्रीकृष्ण ने चाणूर के दोनों हाथों को शीघ्रता से पकड़ लिया और उसे चारों ओर घुमाने लगे। केवल इस घुमाने की क्रिया द्वारा चाणूर का प्राणान्त हो गया। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने उसे धरती पर फेंक दिया। चाणा इन्द्र के ध्वज के समान गिर पड़ा और उसके सभी सुनिर्मित आभूषण इधर-उभा बिखर गए।
मुष्टिक ने भी बलराम जी पर प्रहार किया और उसके उत्तर में बलराम जी ने अत्यन्त बलपूर्वक प्रहार किया। मुष्टिक काँपने लगा और मुख से रक्त वमन करने लगा। अत्यन्त पीड़ित होकर उसने अपने प्राण त्याग दिए और जैसे आँधी में कोई वृक्ष गिर पड़ता है, उसी प्रकार वह गिर पड़ा। इन दोनों मल्लों के वध के उपरान्त कूट नामक एक मल्ल आगे आया। बलराम ने तत्क्षण उसे अपने बाएँ हाथ से पकड़ कर रूखेपन से उसका वध कर दिया। शल नामक एक दूसरा मल्ल आगे बढ़ा तो श्रीकृष्ण ने तत्काल ठोकर मार कर उसका सिर तोड़ दिया। तदनन्तर आगे आने वाला तोशल नामक मल्ल भी उसी भाँति मारा गया। इस प्रकार सभी महान् मल्लों को श्रीकृष्ण एवं बलराम के द्वारा मार दिया गया और बचे हुए सभी मल्ल अपने प्राणों की रक्षा के लिए भयभीत होकर सभा से भागने लगे। श्रीकृष्ण और बलराम के सभी सखाओं ने उसके समीप जाकर अत्यन्त आनन्दपूर्वक उन्हें बधाई दी। एक ओर दुन्दुभी बज रही थी तो दूसरी ओर ढोल बजने लगे। श्रीकृष्ण और बलराम के पाँव के धुंघरू भी झनक रहे थे।
वहाँ उपस्थित सभी व्यक्ति अत्यन्त आनन्दपूर्वक तालियाँ बजाने लगे और उनके हर्ष की सीमा न रही। उपस्थित ब्राह्मण अत्यन्त आनन्दपूर्वक श्रीकृष्ण और बलराम की प्रशंसा करने लगे। केवल कंस ही दुखी था। उसने न तो ताली बजाई, न ही श्रीकृष्ण को आशीर्वाद दिया। श्रीकृष्ण की विजय के निमित्त बजते हुए नगाड़े कंस को अच्छे नहीं लग रहे थे। उसे इस बात का अत्यन्त दुख था कि उसके सभी मल्ल या तो मार दिये गए थे या सभा से भाग गए थे। उसने तत्कल नगाड़े बजाना बन्द करने का आदेश दिया और वह अपने मित्रों को इस प्रकार सम्बोधित करने लगा, "मेरा आदेश है कि वसुदेव के इन दोनों पुत्रों को तत्काल मथुरा से निकाल दिया जाए। इनके साथ आए हुए गोपों को लूट कर उनकी सम्पत्ति ले ली जाए। नन्द महाराज को उनके धूर्त व्यवहार के लिए बन्दी बना कर उनका वध कर दिया जाए। दुष्ट वसुदेव का भी अविलम्ब वध कर दिया जाए। मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरे शत्रुओं का पक्ष लेने वाले मेरे पिता उग्रसेन की भी हत्या कर दी जाए।"
जब कंस ने इस प्रकार के शब्द कहे, तो श्रीकृष्ण उस पर अत्यन्त कुपित हो उठे। क्षण भर में ही वे कंस के ऊँचे मचं पर कूद पड़े। कंस श्रीकृष्ण के आक्रमण लिए तैयार था, क्योंकि उसे प्रारम्भ से ही ज्ञात था कि श्रीकृष्ण ही उसकी मृत्यु कारण होंगे। उसने तत्काल अपनी तलवार म्यान से निकाल ली और तलवार बाल लेकर श्रीकृष्ण की चुनौती का उत्तर देने को तत्पर हो गया। कंस अपनी तलवार अपर नीचे, इधर उधर घुमा रहा था तभी परम शक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण ने उसे अत्यन्त बलपूर्वक पकड़ लिया। जिनके नाभिकमल से सम्पूर्ण सृष्टि का प्रकाश होता है तथा जो सम्पूर्ण सृष्टि के आश्रय हैं, उन श्रीभगवान् ने तत्क्षण कंस के शीश पर से गजमकट को गिरा दिया और उसके लम्बे केशों को अपने हाथों से पकड़ लिया। फिर वे कंस को उसके आसन पर से घसीट कर मल्लयुद्ध के मंच पर ले आये और उसे नीचे फेंक दिया। तब श्रीकृष्ण उसकी छाती पर चढ़ बैठे और बारम्बार उस पर प्रहार करने लगे। केवल उनके मुष्टि-प्रहार से ही कंस ने प्राण त्याग दिए।
अपने माता-पिता को कंस की मृत्यु का विश्वास दिलाने के हेतु उन्होंने कंस को उसी प्रकार घसीटा जैसे कोई सिंह किसी हाथी का वध करने के पश्चात् उसे घसीटता है। यह दृश्य देख कर चारों ओर से कोलाहल होने लगा। कुछ लोग अपने हर्ष को व्यक्त कर रहे थे, तो कुछ शोक के कारण क्रन्दन कर रहे थे। जिस दिन से कंस ने यह सुना था कि उसका वध देवकी का आठवाँ पुत्र करेगा तब से वह निरन्तर, चौबीसों घण्टे, सुदर्शन चक्रधारी श्रीकृष्ण का चिन्तन करता रहता था। भोजन करते हुए, चलते हुए, यहाँ तक कि श्वास लेते हुए भी वह श्रीकृष्ण का चिन्तन करता रहता। अतएव स्वाभाविक रूप से उसे मुक्ति का वरदान मिला। श्रीमद् भगवद् गीता में भी कहा गया है-सदा तद्भावभावितः-किसी भी प्राणी को अगला जन्म वैसा ही प्राप्त होता है, जिस प्रकार के विचारों में वह सदैव मग्न रहता है। कंस चक्रधारी श्रीकृष्ण का चिन्तन कर रहा था का अर्थ है चक्र, शंख, गदा व पद्मधारी नारायण।
आचार्यों के मतानुसार कंस को मृत्यु के उपरान्त सारूप्य मुक्ति मिली अर्थात् उसे नारायण (विष्णु) के समान रूप प्राप्त हुआ। वैकुण्ठ लोक में सभी वैकुण्ठवासियों का रूप नारायण के समान ही होता है। मृत्यु के पश्चात् कंस को मुक्ति प्राप्त हुई और उसे वैकुण्ठ लोक में स्थान मिला। इस घटना से हम समझ सकते हैं कि श्रीभगवान् का शत्रु के रूप में चिन्तन करने वाला व्यक्ति भी मुक्ति प्राप्त करके वैकुण्ठ लोक में स्थान प्राप्त करता है, तो फिर शुद्ध भक्तों का तो कहना ही क्या जो सतत श्रीकृष्ण के प्रति अनुकूल भाव से चिन्तन करते हैं। श्रीकृष्ण द्वारा मारा गया शत्रु भी मुक्तिलाभ करता है और निर्विशेष ब्रह्मज्योति में स्थान प्राप्त करता है। चूँकि श्रीभगवान् सर्वमंगलकारी हैं, अतएव शत्रु अथवा मित्र किसी भी रूप में उनका चिन्तन करने वाला व्यक्ति मुक्ति प्राप्त करता है। किन्तु भक्त और शत्रु को एक ही प्रकार की मुक्ति नहीं प्राप्त होती है। शत्रु को साधारणतः सायुज्य मुक्ति प्राप्त होती है और कभी-कभी उसे सारूप्य मुक्ति प्राप्त होती है।
कंस के आठ भाई थे जिनमें से कंक बड़ा था। वे सभी उससे छोटे थे। जब उन्हें जानकारी मिली कि उनके ज्येष्ठ भ्राता का वध कर दिया गया है, तो वे सब मिल कर अत्यन्त क्रोध में श्रीकृष्ण का वध करने के लिए उनकी ओर दौड़े। कंस तथा उसके भाई सभी श्रीकृष्ण के मामा थे। वे सभी श्रीकृष्ण की माता देवकी के भाई थे। जब श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया था, तो वह मामा का वध था। यह कार्य वैदिक आदेश के विपरीत था। यद्यपि श्रीकृष्ण सभी वैदिक आदेशों से स्वतंत्र हैं, तथापि वे वैदिक आदेशों का उल्लंघन केवल अनिवार्य स्थितियों में ही करते हैं। कंस का वध श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता था, अतएव श्रीकृष्ण को ही उसका वध करना पड़ा। किन्तु जहाँ तक कंस के आठों भाइयों का सम्बन्ध था, उनके वध का कार्य बलरामजी ने अपने ऊपर ले लिया। बलराम की माता रोहिणी वसुदेव जी की पत्नी तो थीं, किन्तु वे कंस की बहन नहीं थीं। अतएव बलराम ने कंस के आठों भाइयों के वध का कार्य संभाला। उन्होंने तत्काल ही एक अस्त्र उठाया (सम्भवतः कुवलयापीड़ हाथी का दाँत, जो उनके पास था) और उन आठों भाइयों का एक के बाद एक इस प्रकार वध कर दिया जैसे एक सिंह मृगों के झुंड का वध करता है। इस प्रकार श्रीकृष्ण और बलराम ने इस कथन की पुष्टि कर दी कि श्रीभगवान् साधुओं की रक्षा और देव-द्रोही तथा दुष्ट असुरों के नाश के लिए प्रकट होते हैं।
श्रीकृष्ण और बलराम का अभिनन्दन करते हुए स्वर्गलोक से देवता पुष्पवृष्टि करने लगे। सभी देवगण एकत्र होकर कंस की मृत्यु पर अपने हर्ष का प्रदर्शन करने लगे। उन देवताओं में ब्रह्मा तथा शिव आदि अत्यन्त शक्तिशाली विभूतियाँ भी सम्मिलित थीं। स्वर्ग लोक में दुन्दुभी बजने लगी तथा वहाँ से पुष्प-वर्षा होने लगी। देवांगनाएँ आनन्दमग्न हो कर नृत्य करने लगीं।
कंस तथा उसके आठों भाइयों की पत्नियाँ अपने पतियों की अचानक मृत्यु से विषादग्रस्त हो गईं; अश्रुधारा बहाते हुए वे अपने सिर पीटने लगीं। कुशती के मंच पर रखे अपने पतियों के शरीरों का आलिंगन करती हुई वे उच्चस्वर में विलाप करने लगीं। कंस तथा उसके आठों भाइयों की पत्नियाँ मृत शरीरों को सम्बोधित करती हुई इस प्रकार विलाप करने लगीं, "हे स्वामी! आप अत्यन्त दयालु तथा अपने श्रितों की रक्षा करने वाले हैं। आपकी मृत्यु के उपरान्त आपके घर व सन्तान त हम भी मृत हैं। हम अब सौभाग्यवती नहीं रहीं। धनुर्यज्ञ आदि जो भी गलिक कार्य सम्पादित होने वाले थे वे आपकी मृत्यु के कारण बिगड़ गए हैं। हे । आपने निरपराध प्राणियों को कष्ट दिया था, इसी कारण आपका वध हुआ। तो अनिवार्य ही था, क्योंकि निरपराध व्यक्ति को कष्ट देने वाला प्रकृति के नियमानुसार अवश्य ही दण्ड का भागी होता है। हमें ज्ञात है कि श्रीकृष्ण भगवान् हैं। वे परम स्वामी व परम भोक्ता हैं। अतएव जो उनकी सत्ता का तिरस्कार करता है. वह कभी सुखी नहीं रह सकता है और अन्ततः आप ही के समान मृत्यु को प्राप्त करता है।"
श्रीकृष्ण अपनी मामियों के प्रति दयालु एवं स्नेही थे, अतएव जहाँ तक सम्भव हुआ वे उन्हें सान्त्वना देने लगे। तब मृत्यु के बाद की सभी शास्त्रोक्त विधियाँ श्रीकृष्ण ने अपने व्यक्तिगत निर्देशन में सम्पादित करायीं, क्योंकि वे सभी मृत राजाओं के भाले थे। यह कार्य समाप्त करके श्रीकृष्ण एवं बलराम ने कंस द्वारा बन्दी बनाए गए अपने माता-पिता, वसुदेव और देवकी को तत्काल मुक्त कर दिया। श्रीकृष्ण एवं बलराम ने अपने माता-पिता के चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया और उनकी वन्दना की। वसुदेव और देवकी ने इतने कष्ट सहे थे, क्योंकि श्रीकृष्ण उनके पुत्र थे। श्रीकृष्ण के कारण ही कंस उन्हें सदैव कष्ट देता था। वसुदेव और देवकी को ज्ञात था कि श्रीकृष्ण भगवान् हैं । अतः यद्यपि श्रीकृष्ण ने उनके चरणस्पर्श किए और उनको नमन व प्रणाम किया, तथापि उन्होंने श्रीकृष्ण का आलिंगन नहीं किया, अपितु श्रीभगवान् के वचन सुनने के लिए वे खड़े हो गए। अतः यद्यपि श्रीकृष्ण ने उनके पुत्र के रूप में जन्म लिया था, फिर भी वसुदेव और देवकी श्रीकृष्ण के वास्तविक पद को कभी भी भूले नहीं और उन्हें सदैव ही श्रीकृष्ण के परमोत्कृष्ट स्थान का ध्यान रहता था।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत "कंस का उद्धार" नामक चौवालीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
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