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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 46: उद्धव जी की वृन्दावन यात्रा  » 
 
 
 
 
 
नन्द महाराज श्रीकृष्ण और बलरामजी के बिना वृन्दावन लौट आए थे। उनके साथ केवल गोप और ग्वाले ही आए थे। गोपियों, माता यशोदा, श्रीमती राधारानी और वृन्दावन के सभी निवासियों के लिए निश्चय ही यह एक अत्यन्त कारुणिक दृश्य था। अनेक भक्तों ने श्रीकृष्ण की वृन्दावन से अनुपस्थिति के विषय में सांमजस्य स्थापित करने की चेष्टा की है, क्योंकि विशेषज्ञों के मतानुसार, भगवान् श्रीकृष्ण कभी-भी वृन्दावन से एक पग भी बाहर नहीं जाते हैं। वे सदैव वहीं रहते हैं। विशेषज्ञ भक्तों ने स्पष्टीकरण किया है कि श्रीकृष्ण वास्तव में वृन्दावन से अनुपस्थित नहीं थे। वे अपने वचन के अनुसार नन्द महाराज के साथ ही लौट आए।
जब श्रीकृष्ण अक्रूर जी के रथ पर मथुरा जा रहे थे और गोपियों ने उनका मार्ग प्रायः अवरुद्ध कर दिया था, उस समय श्रीकृष्ण ने उन्हें आश्वासन दिया था कि वे मथुरा में अपना कार्य समाप्त करने के पश्चात् ही लौट आएँगे। श्रीकृष्ण ने गोपियों को व्याकुल न होने के लिए कहा और इस प्रकार उन्होंने उनको सान्त्वना दी। किन्तु जब वे नन्द महाराज के साथ नहीं लौटे, तो ऐसा लगता था कि या तो उन्होंने उनके साथ छल किया अथवा वे अपना वचन न निभा सके। किन्तु महाभागवतों का ना है कि श्रीकृष्ण न तो छली हैं, न ही वचनभंग करने वाले हैं। अपने मूल स्वरूप में श्रीकृष्ण नन्द महाराज के साथ लौट आए थे और माता यशोदा तथा नयों के साथ अपने भाव अंश के रूप में निवास कर रहे थे। श्रीकृष्ण और बलराम जी मथुरा में अपने मूलरूप में नहीं रहे थे अपितु अपने अंश श्रीवासुदेव तथा श्रीसंकर्षण के रूप में रहे थे। अपने भाव अंशों में वास्तविक श्रीकृष्ण व बलराम जी बन्दावन में थे, जबकि मथुरा में वे प्रभव तथा वैभव अंशों के रूप में प्रकट हुए। श्रीकृष्ण के उत्तम अधिकारी भक्तों का यह विशेषज्ञ-मत है। बाह्यरूप में वे वृन्दावन से अनुपस्थित थे। किन्तु जब नन्द महाराज वृन्दावन लौटने का आयोजन कर रहे थे उस समय उनके, श्रीकृष्ण और बलराम जी के मध्य यह चर्चा हुई थी कि नन्द जी से वियुक्त होकर वे बालक किस प्रकार रह सकेंगे। अलग होने का निर्णय पारस्परिक सहमति से लिया गया था।
वसुदेव जी और देवकी जी जो श्रीकृष्ण के वास्तविक माता-पिता थे, कंस की मृत्यु के कारण अब श्रीकृष्ण को अपने साथ रखना चाहते थे। जब तक कंस जीवित था श्रीकृष्ण और बलराम को नन्द महाराज के संरक्षण में वृन्दावन में रखा गया था। स्वाभाविक ही था कि श्रीकृष्ण व बलराम जी के माता-पिता अब उन्हें अपने साथ रखना चाहते थे। इसका विशेष कारण यह था कि वे श्रीकृष्ण और बलराम जी का यज्ञोपवीत संस्कार करना चाहते थे, जो परिष्कार या शुद्धि करने वाला संस्कार है। वे दोनों भाइयों को उचित शिक्षा भी देना चाहते थे, क्योंकि यह पिता का कर्तव्य होता है। दूसरा विचार यह भी था कि मथुरा से बाहर रहने वाले कंस के सभी मित्र मथुरा पर आक्रमण करने की योजना बना रहे थे। इस कारण भी श्रीकृष्ण की उपस्थिति आवश्यक थी। श्रीकृष्ण नहीं चाहते थे कि दन्तवक्र तथा जरासन्ध जैसे शत्रुओं के द्वारा वृन्दावन में अशान्ति उत्पन्न की जाए। यदि श्रीकृष्ण वृन्दावन गए होते, तो ये शत्रु न केवल मथुरा पर आक्रमण करते अपितु वृन्दावन जाकर वहाँ के शान्तिप्रिय निवासियों को भी क्षुब्ध करते। अतएव श्रीकृष्ण ने मथुरा में ही रहने का निश्चय किया और नन्द महाराज वृन्दावन लौट गए। यद्यपि वृन्दावन के निवासी श्रीकृष्ण के वियोग का अनुभव कर रहे थे, तथापि अपनी लीलाओं के माध्यम से श्रीकृष्ण सदैव उनके साथ थे और इस तथ्य के द्वारा वे भावविभोर रहा करते थे।
जब से श्रीकृष्ण वृन्दावन से मथुरा गए थे, वृन्दावन के निवासी, विशेष रूप से माता यशोदा, नन्द महाराज, श्रीमती राधारानी, गोपियाँ तथा ग्वालबाल पग-पग पर कवल श्रीकृष्ण का ही चिन्तन कर रहे थे। वे सोच रहे थे, "श्रीकृष्ण इस प्रकार क्रीडा किया करते थे। श्रीकृष्ण अपनी वंशी बजाया करते थे। श्रीकृष्ण हमसे निक किया करते थे। तथा हमें हृदय से लगाया करते थे।" इसे लीला-स्मरण कहते है। महान भक्तों ने श्रीकृष्ण से सम्पर्क की इस विधि को सर्वश्रेष्ठ बताया है। भगवान चैतन्य ने भी पुरी में श्रीकृष्ण के लीला-स्मरण संग का आनन्द लिया था। भक्ति तथा आनन्द की सर्वोच्च स्थिति में रहने वाले भक्त श्रीकृष्ण की लीलाओं के स्मरण द्वारा सदैव श्रीकृष्ण के साथ रह सकते हैं। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने कृष्णभगवनामृत नामक एक दिव्य साहित्य हमें प्रदान किया है, जो श्रीकृष्ण की लीलाओं से परिपूर्ण है। उच्च भक्त इस प्रकार के ग्रन्थों का अध्ययन करके श्रीकृष्ण चिन्तन में लीन रह सकते हैं। श्रीकृष्ण का लीला सम्बन्धी कोई ग्रन्थ, जैसे लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण नाम का यह ग्रन्थ तथा हमारा "भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत" नामक ग्रन्थ श्रीकृष्ण के वियोग का अनुभव करने वाले सभी भक्तों को सान्त्वना प्रदान करता है।
श्रीकृष्ण तथा बलराम जी वृन्दावन नहीं आए, इस बात का इस प्रकार सामंजस्य बिठाया जा सकता है उन्होंने अपना वृन्दावन लौटने का वचन भंग नहीं किया, न ही वे अनुपस्थित थे, किन्तु मथुरा में उनकी उपस्थिति आवश्यक थी।
इस बीच श्रीकृष्ण के चचेरे भाई उद्धव द्वारका से उनसे मिलने आए। वे वसुदेव जी के भाई के पुत्र थे और आयु में श्रीकृष्ण के बराबर ही थे। रूपरेखा में वे श्रीकृष्ण जैसे ही लगते थे। गुरुकुल से लौटने पर अपने सर्वप्रिय सखा उद्धव को देख कर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो गए। श्रीकृष्ण वृन्दावन के नागरिकों के गहन वियोग भाव को शान्त करने के लिए उद्धव को सन्देश देकर वृन्दावन भेजना चाहते थे।
जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, ये यथा माम् प्रपद्यन्तेतान् तथैव भजामि अहम् श्रीकृष्ण अत्यन्त भावग्राही हैं; भक्त की भक्ति में प्रगति के अनुरूप ही वे स्नेह का आदान-प्रदान करते हैं। गोपियाँ श्रीकृष्ण के वियोग के कारण दिन के चौबीसों घंटे श्रीकृष्ण का चिन्तन करती रहती थीं कृष्ण भी उसी प्रकार गोपियों माता यशोदा, नन्द महाराज तथा वृन्दावन के अन्य निवासियों का चिन्तन करते रहते थे। यद्यपि श्रीकृष्ण उनसे दूर प्रतीत होते थे, तथापि श्रीकृष्ण समझ सकते थे कि वे किस प्रकार आध्यात्मिक रूप से दुखी हैं और इसीलिए वे उनको धैर्य बँधाने वाला सन्देश देने के लिए उद्धव जी को तत्काल भेजना चाहते थे।
उद्धव जी को वृष्णि वंश का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति माना जाता है। उन्हें श्रीकृष्ण के लगभग समान समझा जाता है। वे श्रीकृष्ण के अनन्य मित्र थे, देवताओं के गुरु तथा सहित बहस्पति के शिष्य होने के कारण वे अत्यन्त बुद्धिमान तथा निर्णय लेने में शान थे। बौद्धिक दृष्टिकोण से वे अत्यन्त योग्य थे। उद्धव जी श्रीकृष्ण के परम प्रय मित्र थे, अतएव श्रीकृष्ण उन्हें वृन्दावन भेजना चाहते थे। साथ ही यह भी योजन था कि वे वृन्दावन में सम्पन्न की जाने वाली अत्यन्त उच्चकोटि की भाव भक्ति का अध्ययन कर सकें। चाहे कोई भौतिक ज्ञान में अति उत्कृष्ट हो और बहस्पति का शिष्य हो, तब भी यदि श्रीकृष्ण से अतिशय प्रेम करना हो, तो उसे गोपियों तथा वृन्दावनवासियों से सीखना पड़ता है। वृन्दावनवासियों को धैर्य देने के लिए सन्देश देकर उद्धव जी को वृन्दावन भेजना श्रीकृष्ण का उद्धव के प्रति विशेष अनुग्रह था।
भगवान् श्रीकृष्ण का नाम हरि भी है, जिसका अर्थ है, वह जो शरणागत भक्तों के सभी दुख हर लेते हैं । चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि जैसी उपासना गोपियों में थी कभी-भी कोई उपासना उससे उत्कृष्ट कोटि की नहीं हो सकती। श्रीकृष्ण गोपियों के दुख के विषय में अत्यन्त चिन्तित थे। उन्होंने उद्धव से वार्तालाप करके उनसे विनयपूर्वक वृन्दावन जाने की प्रार्थना की। उन्होंने उद्धव जी का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा, "मेरे सौम्य सखा उद्धव! कृपया तुम तत्काल वृन्दावन जाओ और मेरे माता-पिता, नन्द महाराज तथा यशोदा देवी और गोपियों को सान्त्वना देने का प्रयत्न करो। किसी भंयकर रोग से पीड़ित व्यक्ति की भाँति वे अत्यन्त ही दुखी हैं। तुम जाकर उन्हें एक सन्देश दो। मुझे आशा है कि उनकी व्याधियाँ अंशतः शान्त हो जाएँगी। गोपियाँ सदैव मेरे चिन्तन में लीन रहती हैं। उन्होंने अपना शरीर, कामनाएँ, जीवन तथा आत्मा-सभी मुझे समर्पित कर दिया है। मैं न केवल गोपियों के लिए चिन्तित हूँ, अपितु जो भी प्राणी मेरे लिए समाज, मैत्री, प्रेम और व्यक्तिगत सुखों का त्याग करता है, उसके लिए मैं व्याकुल रहता हूँ। ऐसे उत्कृष्ट भक्तों की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है। गोपियाँ मुझे सर्वाधिक प्रिय हैं। वे इस प्रकार सदैव मेरा चिन्तन करती रहती हैं कि वे मेरे वियोग मैं व्याकुल और मृतप्राय रहती हैं। वे केवल यह सोच कर जीवित हैं कि मैं शीघ्र ही उनके पास लौट रहा हूँ।"
भगवान् श्रीकृष्ण के इस प्रकार आग्रह करने पर उद्धव जी ने तत्काल अपने रथ पर सवार होकर प्रस्थान किया और गोकुल को सन्देश ले गए। सूर्यास्त के समय जब गाएँ गोचरभूमि से लौट रही थीं, तब वे वृन्दावन के समीप पहुँचे। उद्धव जी और उनका रथ गोरज से आवृत हो गए। उन्होंने वृषभों को समागम के लिए गायों के पीछे दौड़ते हुए देखा। दुग्धभार से बोझिल थनों वाली दूसरी गायों को उन्होंने दूध पिलाने के लिए बछड़ों के पीछे भागते देखा। उद्धव जी ने देखा कि वृन्दावन की समस्त धरती श्वेत गउओं और बछड़ों से भरी हुई है। गोकुल में यत्र-तत्र सर्वत्र ग दौड़ रही थीं। उन्हें गोदोहन की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। वृन्दावन में प्रत्येक घर सूर्यदेव तथा अग्निदेव की उपासना के लिए सज्जित था। प्रत्येक घर में अतिथियों गउओं, ब्राह्मणों और देवताओं के स्वागत का प्रबन्ध था। घर को पवित्र बनाने के लिए प्रत्येक घर दीपक से प्रकाशित था और उसमें धूप जल रही थी। वृन्दावन में सर्वत्र पुष्पों से भरे उत्तम उद्यान, चहचहाते पक्षी तथा मधु-मक्खियों की गुनगुनाहट थी। सरोवरों में कमल-पुष्प, बत्तखें तथा हंस भरे हुए थे।
उद्धव जी ने नन्द महाराज के घर में प्रवेश किया। वासुदेव के प्रतिनिधि के रूप में वहाँ उनका स्वागत किया गया। नन्द महाराज ने उन्हें आसन दिया और श्रीकृष्ण, बलराम जी तथा मथुरा में रहने वाले परिवार के अन्य सदस्यों के सन्देश के विषय में पूछने के लिए वे उनके पास बैठ गए। वे जानते थे कि उद्धव श्रीकृष्ण के अत्यन्त अन्तरंग सखा हैं, अतएव वे शुभ सन्देश लेकर ही आए होंगे। नन्द महाराज ने कहा, "प्रिय उद्धव! मेरे मित्र वसुदेव जी कैसे हैं? वे अब कंस के कारागृह से मुक्त हो गए हैं और अब वे अपने मित्रों और अपने पुत्रों, श्रीकृष्ण और बलराम जी, के साथ हैं; अतएव वे अत्यन्त प्रसन्न होंगे। मुझे उनके और उनकी कुशलता के विषय में बताइए। हम भी अत्यन्त प्रसन्न हैं कि सर्वाधिक पापी असुर कंस की अब मृत्यु हो चुकी है। वह सदैव ही यदुवंश और उनके सम्बन्धियों से द्वेष रखता था। अब उसके पापकर्मों के कारण अपने सभी भाइयों सहित उसका संहार हो चुका है।
“कृपया अब हमें बताइए कि क्या श्रीकृष्ण वृन्दावन में रहने वाले अपने माता पिता, सखाओं और साथियों का स्मरण करते हैं? क्या वे अपनी गउओं, अपनी गोपियों, अपने गोवर्धन पर्वत और अपनी वृन्दावन की गोचर भूमि का स्मरण करते हैं? ऐसा तो नहीं कि अब वे यह सब भूल गए हों? क्या श्रीकृष्ण के अपने सखाओं और सम्बन्धियों के पास लौटने की सम्भावना है, जिससे हम उन्नत नासिका और कमलनयनों वाले उनके सुन्दर मुख के फिर दर्शन कर सकें? हम सब को याद है कि किस प्रकार उन्होंने हमें दावानल से बचाया था और यमुना में रहने वाले कालिय नाग से भी उन्होंने हमारी किस प्रकार रक्षा की थी। अन्य अनेकानेक असुरों से भी हमारी रक्षा उन्होंने ही की थी। हम केवल यही विचार करते रहते हैं कि इतनी सारी भयानक स्थितियों में हम सबोंको सुरक्षा प्रदान करने के लिए हम उनके कितने अधिक आभारी हैं। प्रिय उद्धव! जब हम श्रीकृष्ण के सुन्दर मुख और नयनों तथा की यहाँ वृन्दावन में विभिन्न लीलाओं का चिन्तन करते हैं, तो हम इतने व्याकुल जाते हैं कि हमारे सभी कार्यकालाप रुक जाते हैं। हम सभी केवल श्रीकृष्ण का लान करते हैं कि वे कैसे मुस्काते थे और कैसे हमारी ओर चितवन करते थे। जब यमना नदी अथवा वृन्दावन के अन्य सरोवरों के तट पर जाते हैं, अथवा गोवर्धन पर्वत या गोचर भूमि के निकट जाते हैं, तो अभी-भी हमें वहाँ की धरती पर श्रीकृष्ण चरणचिह्नों के दर्शन होते हैं, क्योंकि वे उन स्थानों पर निरन्तर जाते थे, अत: वहाँ पर क्रीड़ा करते हुए श्रीकृष्ण का हमें अत्यधिक स्मरण हो आता है। जब हमारे मन में श्रीकृष्ण का स्वरूप प्रकट हो जाता है, तब हम तत्काल उनके चिन्तन में लीन हो जाते हैं।"
"अतएव हम विचार करते हैं कि सम्भवतः श्रीकृष्ण और बलराम जी स्वर्गलोक के प्रमुख देवता हैं, जो पृथ्वी पर कुछ विशिष्ट कर्तव्यों के सम्पादन के लिए हमारे सम्मुख सामान्य बालकों के रूप में प्रकट हुए हैं। गर्गमुनि ने भी श्रीकृष्ण की जन्मकुण्डली बनाते समय इस बात की भविष्यवाणी की थी। यदि श्रीकृष्ण एक महान् व्यक्ति न होते, तो दस सहस्त्र हाथियों का बल रखने वाले कंस को कैसे मार सकते थे? कंस के अतिरिक्त कई और अत्यन्त बलशाली मल्ल भी थे और साथ ही कुवलयापीड़ नामक विशालकाय हाथी भी था। इन सब पशुओं और असुरों का श्रीकृष्ण ने उसी प्रकार वध कर दिया जैसे कोई सिंह एक साधारण पशु का वध करता है। यह कितना अद्भुत है कि तीन जुड़े हुए ताड़ के वृक्षों से निर्मित विशाल और भारी धनुष को श्रीकृष्ण ने एक हाथ से उठा लिया और शीघ्रता से उसे तोड़ दिया! यह कितना आश्चर्यजनक है कि श्रीकृष्ण ने लगातार सात दिनों तक गोवर्धन पर्वत को एक हाथ में धारण किए रखा! यह कितना अद्भुत है कि श्रीकृष्ण ने प्रलम्बासुर, धेनुकासुर, अरिष्टासुर, तृणावर्त तथा बकासुर जैसे सभी असुरों का वध कर दिया! वे असुर इतने बलशाली थे कि स्वर्गलोकों में देवता भी उनसे भयभीत थे, किन्तु श्रीकृष्ण ने कितनी सरलता से उनका वध कर दिया!"
उद्धव के सामने श्रीकृष्ण के असामान्य कार्यों का वर्णन करते-करते नन्द महाराज धीरे-धीरे व्याकुल हो गए और आगे कुछ न बोल सके। जहाँ तक यशोदा मैया का प्रश्न है, वे अपने पति के समीप मौन बैठ कर श्रीकृष्ण की लीलाओं का श्रवण कर रही थीं। वे केवल अविरत क्रन्दन कर रही थीं और उनके स्तनों से दूध बह रहा था। जब उद्धव जी ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण के चिन्तन में नन्द महाराज और यशोदा जी असामान्य रूप से व्याकुल हैं और जब उद्धव जी ने श्रीकृष्ण के प्रति उनके असामान्य स्नेह का अनुभव किया, तो वे भी व्याकुल हो गए। उन्होंने कहा "माता यशोदा और नन्द महाराज! आप दोनों मनुष्यों में सर्वाधिक आदरणीय है क्योंकि इस प्रकार दिव्य भाव में मग्न होकर आपके अतिरिक्त और कोई ध्यान नहीं कर सकता है।"
उद्धव कहते रहे, श्रीकृष्ण व बलराम जी दोनों ही मूल भगवान् हैं और उन्हीं से सृष्टि की उत्पत्ति होती है। सभी व्यक्तियों में वे प्रमुख हैं। वे दोनों ही इस भौतिक सृष्टि के मूल कारण हैं । भौतिक शक्ति का मार्गदर्शन पुरुष अवतार करते हैं और वे सब श्रीकृष्ण और बलराम जी के अन्तर्गत कार्य करते हैं। अपने आंशिक प्रतिनिधित्व के द्वारा वे सभी प्राणियों के हृदय में प्रवेश कर जाते हैं। वे सभी ज्ञान तथा विस्मृतियों के भी स्रोत हैं। इस बात की पुष्टि भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में की गई है-"मैं सबके हृदय में उपस्थित हूँ, मैं ही स्मृति और विस्मृति का कारण हूँ। मैं ही वेदान्त का मूल रचयिता हूँ और मैं ही वेदों का वास्तविक ज्ञाता हूँ।" यदि मृत्यु के समय कोई क्षण भर भी अपने शुद्ध मन को श्रीकृष्ण पर स्थिर कर ले, तो वह अपने भौतिक शरीर को त्याग कर मूल आध्यात्मिक शरीर को प्राप्त करने का अधिकारी बनता है। यह ठीक उसी प्रकार है, जिस प्रकार सूर्य अपने पूर्ण प्रकाश में उदित होता है। इस प्रकार प्राण त्यागने के पश्चात् वह तत्काल वैकुण्ठ लोक में प्रवेश करता है।
यह कृष्णभावनामृत के साधन का फल है। यदि हम मन व शरीर से स्वस्थ रहते हुए इस वर्तमान शरीर में पवित्र महामंत्र का जप करते हुए कृष्णभावनामृत का अभ्यास करें, तो पूर्ण सम्भावना है कि मृत्यु के समय हम अपना मन श्रीकृष्ण पर केन्द्रित करें। यदि हम ऐसा करें, तो निस्सन्देह हमारा जीवन सफल हो जाए। किन्तु यदि हम अपने मन को सदा सकाम कर्म में लीन रखें, जिससे हमें भौतिक सुख की प्राप्ति हो, तो स्वाभाविक है कि मृत्यु के समय भी हम ऐसे ही कर्मों के विषय में सोचेंगे। इसका परिणाम यह होगा कि हमें भौतिक जगत के त्रिताप को सहने के लिए पुनः भौतिक और बद्ध शरीर में प्रवेश करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। अतएव जैसाकि महाराज नन्द, यशोदा तथा गोपियों ने प्रदर्शित किया है, कृष्णभावनामृत में सदा मग्न रहना ही वृन्दावन के निवासियों के लिए एकमात्र जीवन का मापदण्ड था। यदि हम उनके चरणचिह्नों का किञ्चित भी अनुसरण कर सकें, तो निश्चित रूप से हमारे जीवन सफल हो जाएँगे और हम आध्यात्मिक जगत अर्थात् वैकुण्ठ लोक में प्रवेश करेंगे।
उद्धव जी ने आगे कहा “प्रिय यशोदा मैया और नन्द महाराज! इस प्रकार अपने निराकर ब्रह्म के स्त्रोत, दिव्य स्वरूप वाले श्रीभगवान् नारायण पर अपने मन रूपेण केन्द्रित कर लिया है। ब्रह्मज्योति नारायण के शरीर की अंगकान्ति है। कि आप सदैव श्रीकृष्ण तथा बलराम जी के परमानन्दस्वरूप-चिन्तन में मान रहते हैं, अत: आप के लिए कोई अन्य पुण्य कार्य करना शेष नहीं रह जाता। श्रीकृष्ण का सन्देश लाया हूँ, और वे शीघ्र ही वृन्दावन आएँगे और आप दोनों को अपनी उपस्थिति से सन्तुष्ट करेंगे। श्रीकृष्ण ने वचन दिया था कि मथुरा में अपना कार्य समाप्त होते ही वे वृन्दावन लौट आएँगे। वे निश्चय ही इस वचन को पूर्ण करेंगे। आप लोग परम सौभाग्यशाली हैं, अतः मेरा आपसे निवेदन है, कि आप श्रीकृष्ण के वियोग के कारण दुखी न हों।"
"आप तो पहले ही चौबीसों घण्टे श्रीकृष्ण की उपस्थिति को प्रतीति कर रहे हैं, फिर भी वे शीघ्र ही आकर आपसे भेंट करेंगे। वास्तव में जैसे काष्ठ में अग्नि उपस्थित है, उसी भाँति श्रीकृष्ण सर्वत्र और सबके हृदय में उपस्थित हैं। चूंकि श्रीकृष्ण परमात्मा हैं, वे सब पर समभाव रखते हैं। अतः न कोई उनका मित्र है न शत्रु; वे किसी को छोटा अथवा बड़ा नहीं समझते हैं। वास्तव में न कोई उनकी माता है, न पिता, न भाई है, न सम्बन्धी, न ही उन्हें समाज, मैत्री और प्रेम की आवश्यकता है। उनका हमारी भाँति कोई भौतिक शरीर नहीं है। तो वे साधारण जीवों की भाँति प्रकट होते हैं, अथवा जन्म लेते हैं। जो अपने पूर्व सकाम कर्मों के कारण जन्म लेने को बाध्य हैं, ऐसे साधारण जीवों की भाँति श्रीकृष्ण जीवन की उच्च अथवा निम्न योनियों में प्रकट नहीं होते हैं। अपनी अन्तरंगाशक्ति के द्वारा वे केवल अपने भक्तों की रक्षा करने के लिए ही प्रकट होते हैं। श्रीकृष्ण कभी भी भौतिक प्रकृति के गुणों से प्रभावित नहीं होते हैं। किन्तु जब वे इस भौतिक जगत में प्रकट होते हैं, तब वे भौतिक प्रकृति के गुणों (सत, रज, तम) के प्रभाव के अन्तर्गत रहने वाले साधारण मानवों की भाँति कार्य करते हुए प्रतीत होते हैं । वस्तुत: वे इस सृष्टि के द्रष्टा हैं और प्रकृति के भौतिक गुणों से प्रभावित न होकर समस्त जगत का सृजन, पालन और संहार करते हैं। श्रीकृष्ण और बलराम जी को साधारण मानव मानना हमारी त्रुटि है जैसे चक्कर काटता हुआ मनुष्य समस्त संसार को अपने चारों ओर चक्कर काटता हुआ देखता है। श्रीभगवान् किसी के पुत्र नहीं हैं, वास्तव में वे सबके पिता, माता तथा परम ईश्वर हैं। इस विषय में कोई सन्देह नहीं है। जो कुछ भी अनुभव हो रहा है, या नहीं हो रहा है, जो कुछ भी है, जो कुछ नहीं भी है, या भविष्य में जो कुछ भी होगा, उस सबका श्रीभगवान् से अलग कोई अस्तित्त्व नहीं है। जो कुछ भी लघुतम है और जो कुछ भी विशालतम है, उसका भी श्रीभगवान अलग कोई अस्तित्त्व नहीं है। सब कछ उन्हीं में अवस्थित है किन अभिव्यक्त कोई भी वस्तु उन्हें स्पर्श नहीं कर सकती है।"
इस प्रकार श्रीकृष्ण के विषय में वार्तालाप करते हुए नन्द महाराज तथा उद्धव ने सम्पूर्ण रात्रि व्यतीत कर दी। प्रात:काल दीपक जला कर और माखन मिश्रित दही छिड़क कर गोपियों ने प्रात:कालीन आरती की तैयारी की। मंगल-आरती समाप्त करने के पश्चात् वे दही मथने में व्यस्त हो गईं। जब गोपियाँ इस प्रकार व्यस्त थीं, तब उनके आभूषणों पर प्रतिबिम्बित होकर दीपक और अधिक प्रकाशित हो उठे। उनकी मथनी, उनकी बाहें, उनके कर्णफूल, उनकी चूड़ियाँ और उनके स्तन सभी चलायमान हो रहे थे। कुमकुम से उनके मुखों को एक ऐसी अरुण आभा प्राप्त हो रही थी जिसकी तुलना उगते हुए सूर्य से की जा सकती है। दही मथते हुए मधुर ध्वनि के निकलने के साथ साथ गोपियाँ श्रीकृष्ण का यशगान भी कर रही थीं। दोनों ध्वनियों की गूंज मिल कर आकाश तक जा रही थी और समस्त वातावरण को पावन कर रही थी।
सूर्यादय के पश्चात् सदा की भाँति गोपियाँ नन्द महाराज तथा यशोदा को प्रणाम करने आईं, किन्तु जब उन्होंने उद्धव के स्वर्णिम रथ को द्वार पर खड़े देखा, तो वे परस्पर जिज्ञासा करने लगीं। वह रथ क्या है और किसका है? उनमें से कुछ ने प्रश्न किया: क्या श्रीकृष्ण को ले जाने वाले अक्रूर फिर लौट आए हैं ? वे अक्रूर से प्रसन्न नहीं थी, क्योंकि कंस का सेवक होने के कारण वे कमलनयन श्रीकृष्ण को मथुरा नगरी ले गए थे। सभी गोपियाँ अनुमान करने लगीं कि हो सकता है अक्रूर जी पुन: कोई और क्रूर योजना पूर्ण करने आए हैं। किन्तु उन्होंने विचार किया, "अपने परम स्वामी श्रीकृष्ण के बिना हम तो अब मृत शरीर-मात्र हैं। इन मृत शरीरों पर अब वे और कौन सा दुष्कार्य कर सकते हैं।" जब वे इस प्रकार वार्तालाप कर रही थीं, तभी उद्धव जी अपना प्रातः कर्म, प्रार्थना, जप आदि समाप्त करके उनके समक्ष आए।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत "उद्धव जी की वृन्दावन यात्रा" नामक छियालीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
 
 
 
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