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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 48: श्रीकृष्ण का भक्तों को आनन्द प्रदान करना  » 
 
 
 
 
 
अनेक दिनों तक श्रीकृष्ण उद्धव जी से उनकी वृन्दावन यात्रा का विवरण 1सुनते रहे, विशेषकर अपने माता-पिता, गोपियों तथा ग्वालबालों की दशा का विवरण। भगवान् श्रीकृष्ण पूर्णतया सन्तुष्ट थे कि उद्धव जी अपने उपदेशों तथा श्रीकृष्ण के सन्देश द्वारा वृन्दावन के निवासियों को सान्त्वना देने में सफल हुए।
तब भगवान् श्रीकृष्ण ने कुब्जा के घर जाने का निश्चय किया। कुब्जा वह कुबड़ी युवती थी जिसने श्रीकृष्ण को मथुरा में प्रवेश करते समय चन्दन अर्पण करके प्रसन्न कर दिया था। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है श्रीकृष्ण सदा अपने भक्तों को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं और भक्त श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने का। जैसे भक्त सदैव अपने हृदय में श्रीकृष्ण का चिन्तन करते हैं, उसी प्रकार श्रीकृष्ण भी अपने अन्त:करण में अपने भक्तों का चिन्तन करते हैं। जब कुब्जा एक सुन्दर नगर बाला के रूप में परिवर्तित हो गयी तब उसकी इच्छा थी कि श्रीकृष्ण उसके घर पधारें जिससे कि वह अपनी रीति से उनका सत्कार और उनकी उपासना कर सके। साधारणतय नगरबालाएँ अपने ग्राहकों को सन्तुष्ट करने के लिए पुरुषों के उपभोग हेतु अपना शरीर अर्पित करती हैं। किन्तु यह नगरबाला कुब्जा, श्रीकृष्ण के साथ अपनी इन्द्रियतृप्ति करने की वासना के वशीभूत थी। जब श्रीकृष्ण ने कुब्जा के घर जाने की इच्छा की तब निश्चय ही उन्हें इन्द्रियतृप्ति की कोई कामना नहीं थी। श्रीकृष्ण को चन्दन का लेप अर्पित करके कुब्जा ने पहले ही उनकी इन्द्रियों को संतुष्ट कर दिया था। उसकी इन्द्रियतृप्ति की विनती पर, श्रीकृष्ण ने उसके घर जाने का निश्चय किया था। परन्तु वास्तव में उनका उद्देश्य इन्द्रियतृप्ति न होकर उसे एक शद्ध भक्त में परिवर्तित करना था। सहस्रों लक्ष्मियाँ निरन्तर श्रीकृष्ण की सेवा करती रहती हैं, अतएव इन्द्रियतृप्ति के लिए उन्हें एक नगरबाला के पास जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। किन्तु वे सबके प्रति कृपालु हैं, अतएव उन्होंने कुब्जा के घर जाने का निश्चय किया। कहा जाता है कि कुटिल व्यक्ति के आँगन को भी चन्द्रमा अपनी चाँदनी से वंचित नहीं करता है। उसी भाँति श्रीकृष्ण किसी को भी अपनी दिव्य दया से वंचित नहीं करते हैं भले ही उसने काम, क्रोध, भय अथवा शुद्ध प्रेम किसी भी कारण से अपनी सेवा अर्पित की हो। चैतन्य-चरितामृत में कहा गया है कि यदि कोई श्रीकृष्ण की सेवा करना चाहता है और साथ ही साथ अपनी वासनात्मक इच्छाओं की तुष्टि भी करना चाहता है, तो श्रीकृष्ण उससे ऐसा व्यवहार करते हैं कि भक्त अपनी वासनात्मक इच्छाओं को भूल जाता है और पूर्णतः शुद्ध हो जाता है और सतत भगवान् की सेवा में संलग्न हो जाता है।
अपने वचनों को पूर्ण करने के लिए उद्धव सहित श्रीकृष्ण कुब्जा के घर गए जो अपनी कामवासनाओं की तुष्टि के लिए कृष्ण को बुलाने को अत्यन्त उत्सुक थी। जब श्रीकृष्ण उसके घर पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि उसके घर की समस्त सज्जा इस प्रकार की गई थी, जो मानव की वासना को उत्तेजित कर सके। इससे ऐसा आभास मिलता है कि वहाँ बहुत से नग्न चित्र थे जिनके ऊपर मण्डप तथा मोतियों की मालाओं से सुसज्जित ध्वज थे, सुखदायक पलंग तथा गद्देदार आसन थे, कक्षों में पुष्पमालाएँ लटकी हुई थीं और वे धूप और अगुरु से सुगन्धित थे। कक्षों में सुगन्धित जल का छिड़काव किया गया था। सुन्दर दीपक कमरों को प्रकाशित कर रहे थे।
जब कुब्जा ने देखा कि उसके घर आने के अपने वचन का पालन करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण उसके घर आए हैं, तो वह तत्काल उनके स्वागतार्थ आसन से उठ गई। अपनी अनेक सखियों के साथ वह श्रीकृष्ण से अत्यन्त आदर व सम्मानपूर्वक वार्तालाप करने लगी। श्रीकृष्ण को बैठने के लिए उत्तम आसन प्रदान करने के पश्चात् उसने अपने पद के अनुकूल भगवान् कृष्ण की उपासना की। कुब्जा व उसकी सखियों ने उद्धव जी का भी इसी भाँति स्वागत किया। किन्तु उद्धव जी श्रीकृष्ण की बराबरी के स्तर पर बैठना नहीं चाहते थे, अत: वे धरती पर ही बैठ गए।
साधारणतया ऐसी परिस्थितियों में लोग जैसा करते हैं, श्रीकृष्ण समय नष्ट किया बिना कुब्जा के शयन-कक्ष में प्रविष्ट हुए। इसी बीच कुब्जा ने स्नान करके अपने शरीर पर चन्दन का लेप लगा लिया। उसने उत्तम वस्त्र, मूल्यवान आभूषण तथा पष्प मालाएँ धारण की। पान तथा अन्य नशीली वस्तुएँ चबाते हुए तथा अपने ऊपर सुगन्ध छिड़कते हुए वह श्रीकृष्ण के समक्ष आई। माधव नाम से प्रसिद्ध, लक्ष्मीपति श्रीकृष्ण के समक्ष वह अत्यन्त शिष्टता से खड़ी हो गई। उसकी स्मित दृष्टि और चंचल नेत्र स्त्रीसुलभ लज्जा से पूर्ण थे। जब श्रीकृष्ण ने देखा कि कुब्जा उनके निकट आने में असमंजस कर रही है, तो तत्काल उन्होंने चूड़ियों से सुशोभित उसका हाथ पकड़ लिया। अत्यन्त स्नेहपूर्वक उसे अपने पास खींच कर, उन्होंने उसे अपने समीप बैठा लिया। भगवान् श्रीकृष्ण को पहले चन्दन अर्पित करने मात्र से कुब्जा को सभी पापों के फल से मुक्ति मिल गई थी और वह श्रीकृष्ण के संग का आनन्द लेने के योग्य बन गई थी। तदनन्तर कुब्जा ने श्रीकृष्ण के चरणकमलों को उठा कर, वासना की ज्वाला से दग्ध अपने स्तनों पर रख लिया। श्रीकृष्ण के पदकमलों की सुगन्ध को सूंघ कर उसे तत्काल सभी वासनाओं से मुक्ति मिल गई। इस प्रकार उसे अपनी भुजाओं में श्रीकृष्ण का आलिंगन करने की अनुमति मिल गई और उसकी यह दीर्घकालीन कामना भी पूर्ण हुई कि श्रीकृष्ण उसके घर अतिथि बन कर आएँ।
भगवद्गीता में कहा गया है कि भौतिक पापों के फल से मुक्ति मिले बिना कोई भी भगवान् की दिव्य प्रेममयी सेवा में संलग्न नहीं हो सकता है। श्रीकृष्ण को चन्दन का लेप अर्पित करने मात्र से कुब्जा को यह पुरस्कार प्राप्त हुआ। वह श्रीकृष्ण की उपासना की अन्य किसी भी रीति में प्रशिक्षित नहीं थी। अतएव वह अपने व्यवसाय के द्वारा श्रीकृष्ण को सन्तुष्ट करना चाहती थी। भगवद्गीता में इस बात की पुष्टि की गई है कि यदि कोई निश्छल हृदय से भगवान् के सुख के लिए, अपने व्यवसाय को अर्पित करे, तो व्यवसाय के द्वारा भी भगवान् की उपासना की जा सकती है। तदनन्दर कुब्जा ने श्रीकृष्ण से कहा, "प्रिय सखा! कृपया कुछ दिवस मेरे साथ रहिए। मेरे कमलनयन सखा! मेरे साथ कुछ दिन रहिए और मेरे साथ आनन्द भोग कीजिए। मैं आपको तत्काल नहीं छोड़ सकती हूँ। कृपया मेरी प्रार्थना स्वीकार कीजिए।"
जैसाकि वैदिक सूत्रों में कहा गया है श्री भगवान् की अनेक शक्तियाँ हैं। साजनों के विचार में कुब्जा श्रीकृष्ण की भू-शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है, जैसे श्रीमती राधारानी उनकी चित्-शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं । यद्यपि कुब्जा ने. कोकण से कुछ दिनों तक उसके साथ रहने की प्रार्थना की, किन्तु उन्होंने वियपर्वक उसे प्रतीति करा दी कि उनके लिए उसके साथ रहना सम्भव नहीं है। इस भौतिक जगत में श्रीकृष्ण कभी-कभी ही आते हैं, किन्तु आध्यात्मिक जगत से उनका सम्बन्ध नित्य है। वैकुण्ठ लोक अथवा गोलोक वृन्दावन में श्रीकृष्ण सदैव उपस्थित रहते हैं। आध्यात्मिक जगत में उनकी उपस्थिति के लिए जो परिभाषात्मक शब्द प्रयुक्त होता है वह है, "प्रकट लीला।"
मधुर शब्दों से कुब्जा को सन्तुष्ट करने के उपरान्त श्रीकृष्ण सम्बन्ध उद्धव सहित अपने घर लौट आए। श्रीमद्भागवत में एक चेतावनी दी गई है कि श्रीकृष्ण की उपासना सरल नहीं है, क्योंकि वे विष्णु तत्त्वों में प्रमुख श्रीभगवान् हैं। श्रीकृष्ण की उपासना करना अथवा उनसे सम्बन्ध रखना कोई सरल कार्य नहीं है। विशेष रूप से उन भक्तों के लिए एक चेतावनी है, जो माधुर्य प्रेम के माध्यम से श्रीकृष्ण की ओर आकर्षित होते हैं। श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सम्बन्ध के द्वारा इन्द्रियतृप्ति की कामना करना उनके लिए हितकर नहीं है। वास्तव में इन्द्रियतृप्ति की क्रियाएँ भौतिक हैं। आध्यात्मिक जगत में चुम्बन, आलिंगन जैसे लक्षण तो हैं, किन्तु भौतिक जगत में जैसी इन्द्रियतृप्ति की प्रक्रिया होती है वैसी वहाँ कोई प्रक्रिया नहीं है। यह चेतावनी मुख्यतः उन लोगों के लिए है, जो "सहजिया" के नाम से जाने जाते हैं और यह मान कर चलते हैं कि श्रीकृष्ण एक सामान्य मानव हैं। वे एक विकृत तरीके से उनके साथ यौन जीवन भोगना चाहते हैं। आध्यात्मिक सम्बन्ध में इन्द्रियतृप्ति सर्वाधिक नगण्य है। जो कोई श्रीकृष्ण के साथ विकृत इन्द्रियतृप्ति का सम्बन्ध रखने की कामना करता है, उसे अल्पबुद्धि समझना चाहिए। उसकी प्रवृत्ति के शुद्धिकरण की आवश्यकता है।
कुछ काल पश्चात् श्रीकृष्ण ने अक्रूर जी के घर जाने के अपने वचन को पूर्ण किया। श्रीकृष्ण से अक्रूर जी का उनके सेवक का सम्बन्ध था और श्रीकृष्ण उनसे कुछ सेवा लेना चाहते थे। बलराम जी व उद्धव, दोनों के साथ श्रीकृष्ण अक्रूरजी के घर गए। जब श्रीकृष्ण, बलरामजी तथा उद्धव जी अक्रूर जी के घर पहुंचे, तब अक्रूर जो आगे आकर उद्धव से गले मिले और भगवान् कृष्ण और बलराम जी दोनों को सादर प्रणाम किया। श्रीकृष्ण, बलरामजी तथा उद्धव जी ने भी अक्रूर जी को प्रणाम किया। अक्रूर जी ने उन सबको बैठने के लिए उचित आसन दिया। जब सुविधापूर्वक बैठ गए तब अक्रूर जी ने उनके चरण पखारे और वह जल अपने पर छिड़का। तत्पश्चात् नियमित उपासना के रूप में अक्रूर जी ने उन्हें उत्तम वन पुष्प तथा चन्दन का लेप अर्पित किया। वे तीनों ही अक्रूर जी के व्यवहार से अन्य सन्तुष्ट हो गए। तत्पश्चात् भूमि पर शीश रख कर अक्रूर जी ने श्रीकृष्ण के समक्ष प्रणाम किया। इसके उपरान्त श्रीकृष्ण के पदारविन्दों को अपनी गोद में रख कर अक्रूर जी उन्हें धीरे-धीरे दबाने लगे। जब अक्रूर जी श्रीकृष्ण और बलराम जी की उपस्थिति से पूर्णरूप से सन्तुष्ट हो गए, तब कृष्णप्रेम के कारण उनके नयनों में अश्र भर आए और वे इस प्रकार स्तुति करने लगे
"प्रिय भगवन् कृष्ण तथा बलराम! यह आपकी अतीव कृपा है कि आपने कंस तथा उसके सहयोगियों का वध कर दिया। यदुवंश के समस्त परिवार को आपने महान् संकट से उबार लिया। महान् यदुवंश की रक्षा के आपके कार्य को यदुवंशी सदैव स्मरण करेंगे। प्रिय भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलराम जी! आप दोनों ही मूल पुरुष हैं जिनसे सभी वस्तुओं की उत्पत्ति होती है। आप सभी कारणों के मूल कारण हैं। आपकी शक्ति अचिन्त्य है और आप सर्वव्यापी हैं। आपके अतिरिक्त और कोई स्थूल या सूक्ष्म कार्य-कारण नहीं है। वेदों के अध्ययन से प्रतीत होने वाले परब्रह्म आप ही हैं। अपनी अचिन्त्य शक्ति के द्वारा आप हम सबके सम्मुख दृष्टिगोचर होते हैं। आप अपनी ही शक्तियों से इस सृष्टि की रचना करते हैं और आप स्वयं इसमें प्रवेश कर जाते हैं। जिस प्रकार पचंभूत, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश विभिन्न प्रकार के शरीरों द्वारा व्यक्त सभी पदार्थों में वितरित रहते हैं, उसी भाँति अपनी ही शक्ति से निर्मित अनेक प्रकार के शरीरों में आप अकेले ही प्रवेश कर जाते हैं। आप शरीर में व्यष्टिक आत्मा के रूप में तथा साथ ही साथ स्वतंत्र परमात्मा के रूप में प्रवेश करते हैं। भगवद्गीता में इस बात की पुष्टि की गई है कि भौतिक शरीर का निर्माण आपकी अपरा शक्ति के द्वारा होता है। और आत्माएँ आपके ही विभिन्न अंश हैं तथा परमात्मा आपका अन्तर्यामी प्रतिनिधि है। यह भौतिक शरीर, जीव तथा परमात्मा एक व्यष्टिक प्राणी का निर्माण करते हैं, किन्तु मूल रूप से वे सब एक भगवान् की ही विभिन्न शक्तियाँ हैं।
अक्रूरजी ने आगे कही, "इस भौतिक जगत में सत, रज तथा तम नामक त्रिगुणों की अन्तक्रिया के द्वारा आप समस्त सृष्टि की रचना, पालन तथा संहार कर रहे हैं। आप उन भौतिक गुणों की क्रियाओं में नहीं फँसते हैं, क्योंकि आपका परम ज्ञान सर्वदा अप्रभावित रहता है, जबकि जीवों का ज्ञान प्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित हो जाता है।"
भगवान इस भौतिक सृष्टि में प्रविष्ट होते हैं और समयानुसार रचना, पालन व वार करते हैं। उसी भाँति उनके विभिन्नांश जीव भौतिक तत्त्वों में प्रविष्ट होते हैं और उनके लिए भौतिक शरीर की रचना होती है। भगवान् तथा जीवों में यह अन्तर है कि जीव भगवान् का अंश है और उसकी प्रवृत्ति भौतिक गुणों की क्रिया प्रतिक्रिया से प्रभावित हो जाने की होती है। परब्रह्म श्रीकृष्ण सदैव पूर्ण ज्ञान में अवस्थित होने के कारण इन क्रियाओं से अप्रभावित रहते हैं; इसीलिए श्रीकृष्ण का नाम अच्युत है, जिसका अर्थ है, वह व्यक्ति जिसका कभी भी पतन नहीं होता है। श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक स्वरूप का ज्ञान भौतिक क्रियाओं से कभी प्रभावित नहीं होता है, जबकि उनके विभिन्न सूक्ष्म अंश भौतिक क्रियाओं के कारण अपनी आध्यात्मिक पहचान भूल जाने की प्रवृत्ति रखते हैं। वैयक्तिक जीव नित्यरूप से भगवान् के विभिन्न अंश हैं। मूल अग्नि, श्रीकृष्ण, के चित्कण के रूप में उनकी प्रवृत्ति बुझ जाने की होती है। अत: जीव भौतिक क्रियाओं से प्रभावित हो सकते हैं जबकि कृष्ण कभी नहीं हो सकते।
अक्रूर जी ने आगे कहा, “अल्पज्ञ मानव भ्रमवश आपके दिव्य रूप को भी भौतिक शक्ति (माया) से निर्मित समझते हैं। वह धारणा किसी भी रूप में आपके लिए प्रयुक्त नहीं की जा सकती है। वस्तुत: आप पूर्ण रूप से आध्यात्मिक हैं और आप में तथा आपके श्रीविग्रह में कोई भेद नहीं है। इसी कारण आपके बद्ध अथवा मुक्त होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। जीवन की किसी भी स्थिति में आप सर्वदा मुक्त हैं। जैसाकि श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है "केवल मूढ़ तथा दुर्जन ही आपको एक सामान्य मनुष्य मानते हैं।" आपको अपने जैसा एक भौतिक प्रकृति से बद्ध प्राणी मानना हमारे अपूर्ण ज्ञान के कारण होने वाली एक त्रुटि है। जब लोग वेदों के मूल ज्ञान से विचलित हो जाते हैं, तब वे साधारण जीवों को आप भगवान् से एकात्म करने का प्रयास करते हैं। आप इस धरा पर इस शुद्ध ज्ञान की पुनर्स्थापना के हेतु अपने मूल रूप में प्रकट हुए हैं जीव न तो भगवान् के बराबर हैं, न ही उनसे एक है। प्रिय भगवन् ! आप सदैव शुद्धसत्व में अवस्थित रहते हैं। वास्तविक वैदिक ज्ञान की स्थापना के हेतु आपका अवतार आवश्यक है। नास्तिक दर्शन यह प्रतिपादित करने का प्रयास करता है कि ईश्वर और जीव एक ही हैं, जब कि वैदिक ज्ञान इसके विरुद्ध है। प्रिय भगवन् श्रीकृष्ण! इस बार आप वसुदेव के घर उनके पुत्र के रूप में प्रकट हुए हैं। आपके साथ आपके पूर्ण अंश श्रीबलराम भी प्रकट हए है। समस्त नास्तिक राजपरिवारों का उनकी विशाल सैन्य शक्ति के साथ वध कर आपका प्रयोजन है। पृथ्वी के भार को कम करने के लिए आप स्वयं अवतरित हारा हैं । इस ध्येय की पूर्ति के हेतु यदुवंश के एक परिवार के सदस्य के रूप में प्रकट होकर आपने यदुवंश को यशस्वी बनाया है।
"प्रिय भगवन् ! आपकी उपस्थिति से आज मेरा घर पावन हो गया है। मैं जगत का सर्वाधिक भाग्यशाली व्यक्ति हो गया हूँ। समस्त देवों, पितरों, जीवों, राजाओं तथा सम्राटों के पूज्य श्रीभगवान्, जो कि सबके परमात्मा हैं, मेरे घर पधारे हैं। उनके चरणकमलों का जल (गंगाजल) तीनों लोकों को पावन कर रहा है और अब वे दया करके मेरे घर पधारे हैं । वस्तुतः तीनों लोकों के ज्ञानीजनों में ऐसा कौन है, जो आपके पदकमलों की शरण में आकर, आपके प्रति समर्पण नहीं करेगा? यह जानते हुए कि अपने भक्तों के प्रति आपके समान स्नेहमय और कोई नहीं हो सकता है, कौन ऐसा मूर्ख है, जो आपका भक्त बनना अस्वीकार करेगा? समस्त वैदिक साहित्य में यह घोषणा की गई है कि आप सभी जीवों के सर्वाधिक प्रिय मित्र हैं। भगवद्गीता में भी इस बात की पुष्टि की गई है-सुहृदं सर्वभूतानाम् । आप अपने भक्तों की इच्छाओं को पूर्ण करने में पूर्णरूप से समर्थ श्रीभगवान् हैं। आप सबके सच्चे मित्र हैं। यद्यपि आप भक्तों को आत्मदान करते हैं फिर भी आपकी मूल शक्ति का कभी ह्रास नहीं होता है। आपकी शक्ति की न तो कभी क्षति होती है न कभी उसमें वृद्धि होती है।
"प्रिय भगवन् ! महान् योगियों और देवों के लिए भी आपकी लीलाओं को ठीक-ठीक समझना कठिन है। वे भी आप तक पहुँचने में असमर्थ हैं; फिर भी अपनी अहैतुकी दया के कारण आप मेरे घर आने को सहमत हुए हैं। मेरे भौतिक जीवन की यात्रा का यह सर्वाधिक मांगलिक क्षण है। आपकी अनुकम्पा से ही मैं अब समझ सकता हूँ कि मेरा घर, मेरी पत्नी, मेरी सन्तान और मेरी सांसारिक सम्पत्ति सब भौतिक जीवन के विभिन्न बन्धन हैं । कृपया इस ग्रन्थि को काट कर झूठे समाज, मैत्री तथा प्रेम के इस प्रगाढ़ बन्धन से मेरी रक्षा कीजिए।"
भगवान् श्रीकृष्ण अक्रूर जी की स्तुति से अत्यन्त प्रसन्न हुए। उनकी मुस्कान अक्रूर जी को और अधिक मुग्ध कर रही थी। भगवान् ने उनके विनम्र भक्तिमय कथन का इस प्रकार उत्तर दिया, "प्रिय अक्रूर जी! आपकी विनम्रता के बावजूद मैं आपको अपने से श्रेष्ठ मानता हूँ। आप मेरे पिता, गुरु और सर्वाधिक हितैषी मित्र के स्तर के हैं। अतएव आप मेरे पूज्य हैं । आप मेरे चचा हैं, अत: आप सदैव मेरा रक्षण करेंगे। मैं चाहता हूँ कि आप मेरा पालन करें, क्योंकि मैं भी आपकी सन्तानों में से क हैं। इस वात्सल्य सम्बन्ध के अतिरिक्त भी आप सदैव पूज्य हैं। सौभाग्य की सामना करने वाले व्यक्तियों को आप जैसे महानुभाव की सादर वन्दना करनी चाहिए। आप देवताओं से भी बढ़कर हैं। लोगों को जब किसी इन्द्रियतृप्ति की आवश्यकता होती है, तब वे देवताओं की उपासना करते हैं। देवता अपने भक्तों को अपनी उपासना करने के पश्चात् वर देते हैं। किन्तु अक्रूर जी जैसे भक्त लोगों का चरम कल्याण करने को सदैव तत्पर रहते हैं। एक सन्त या भक्त किसी का भी कल्याण करने के लिए मुक्त होता हैं, जबकि देवता लोग अपनी पूजा किए जाने के उपरान्त ही वर दे सकते हैं। तीर्थ स्थान का लाभ वहाँ जाने पर ही प्राप्त किया जा सकता है। किसी देवता विशेष की उपासना करने पर इच्छापूर्ति में बहुत अधिक समय लगता है, किन्तु प्रिय अक्रूर जी! आपके समान सन्त भक्तों की सभी इच्छाओं की पूर्ति तत्काल कर सकते हैं। प्रिय अक्रूर जी! आप सदैव हमारे मित्र तथा शुभचिन्तक हैं। आप सदैव हमारे कल्याण के लिए कार्य करने को तत्पर रहते हैं। अतएव आप कृपा करके हस्तिनापुर जाइए और देखिए कि पाण्डवों के लिए क्या व्यवस्था की गई है?"
श्रीकृष्ण पाण्डु पुत्रों के विषय में जानने को अत्यन्त उत्सुक थे, क्योंकि जब पाण्डव अत्यन्त अल्पायु के थे तभी उनके पिता का देहावसान हो गया था। अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त दयालु होने के कारण श्रीकृष्ण उनके विषय में जानने के लिए उत्सुक थे। अतएव उन्होंने अक्रूर जी को अपना प्रतिनिधि बना कर वास्तविक स्थिति की जानकारी प्राप्त करने के लिए हस्तिनापुर जाने के लिए कहा। श्रीकृष्ण ने आगे कहा, “मैंने सुना है कि राजा पाण्डु की मृत्यु के उपरान्त उनके अल्पायु पुत्र युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव अपनी विधवा माँ के साथ धृतराष्ट्र के सरंक्षण में आ गए हैं, जो उनके संरक्षक के रूप में उनकी देखरेख करने वाले हैं। किन्तु मैंने यह भी सुना है कि धृतराष्ट्र न केवल जन्म से ही अन्धे हैं, अपितु वे अपने क्रूर पुत्र दुर्योधन के स्नेह में भी अंधे हैं । पाँचों पाण्डव राजा पाण्डु के पुत्र हैं, किन्तु दुर्योधन की योजनाओं तथा कुचक्रों के कारण धृतराष्ट्र पाण्डवों के प्रति अनुकूल व्यवहार नहीं करते हैं। कृपया आप वहाँ जाइए और इस तथ्य का अध्ययन कीजिए कि धृतराष्ट्र पाण्डवों से कैसा व्यवहार कर रहे हैं। आपका विवरण मिलने पर मैं विचार करूँगा कि पाण्डवों पर किस प्रकार अनुग्रह किया जाए।" इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने अक्रूर जी को हस्तिनापुर जाने का आदेश दिया और तत्पश्चात् वे बला जी तथा उद्धव जी के साथ घर लौट आए।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत "श्रीकृष्ण द्वारा भी को आनन्द प्रदान करना" नामक अड़तालीसवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
 
 
 
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