कंस की मृत्यु के पश्चात् कंस की दोनों पत्नियाँ विधवा हो गई थीं । वैदिक सभ्यता के अनुसार स्त्री कभी भी स्वतंत्र नहीं रहती है । उसके जीवन के तीन चरण होते हैं-बाल्यावस्था में स्त्री को अपने पिता के संरक्षण में रहना चाहिए युवती को अपने युवा पति के संरक्षण में रहना चाहिए और पति की मृत्यु होने के पश्चात् उसे या तो अपने वयस्क पुत्रों के सरंक्षण में रहना चाहिए अथवा वयस्क पुत्र न होने पर उसे अपने पिता के घर जाकर उसके संरक्षण में विधवा का जीवन व्यतीत करना चाहिए । ऐसा प्रतीत होता है कि कंस के कोई वयस्क पुत्र नहीं था । अत: विधवा होने पर उसकी पत्नियाँ अपने पिता के संरक्षण में चली गई । कंस की दो रानियाँ थीं । एक का नाम अस्ति था और दूसरी का प्राप्ति । वे दोनों ही बिहार प्रदेश (उन दिनों में मगधराज के नाम से प्रसिद्ध) के स्वामी राजा जरासन्ध की पुत्रियाँ थीं । घर पहुँच कर दोनों रानियों ने कंस की मृत्यु के उपरान्त अपनी विषम स्थिति का विवरण अपने पिता को दिया । कंस के वध के कारण उनकी दयनीय दशा के विषय में सुन कर मगधराज जरासन्ध शोकाकुल हुआ । कंस की मृत्यु का समाचार प्राप्त होते ही जरासन्ध ने पृथ्वी को यदुवंशियों से रहित करने का निश्चय कर लिया । उसने निश्चय किया कि चूँकि श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया था, अत: समस्त यदुवंश का विनाश कर देना चाहिए । उसने अपने अगणित सैन्य व्यूहों सहित मथुरा के राज्य पर आक्रमण करने के लिए विशाल स्तर पर प्रबन्ध करना प्रारम्भ कर दिया । उसके व्यूहों में कई सहस्र रथ, अश्व, गज तथा पैदल सैनिक थे । कंस की मृत्यु का प्रतिकार करने के लिए जरासन्ध ने इस प्रकार की तेरह अक्षौहिणी सेना एकत्र की और अपनी समस्त सैन्य शक्ति सहित उसने यदु राजाओं की राजधानी मथुरा को चारों ओर से घेर कर उसपर आक्रमण कर दिया । साधारण मानव के रूप में अवतार लेने वाले श्रीकृष्ण ने जरासन्ध की विशाल (सैन्य) शक्ति को देखा । उसकी सैन्य शक्ति किसी भी क्षण तट को ढक लेने को आतुर समुद्र की भाँति प्रतीत होती थी । उन्होंने यह भी देखा कि मथुरावासी भय से व्याकुल हो गए हैं । वे अपने अन्त:करण में एक अवतार के रूप में अपने उद्देश्य पर विचार करने लगे । वे यह विचार भी करने लगे कि प्रस्तुत परिस्थिति का सामना किस प्रकार किया जाए । उन्होंने सोचा कि चूँकि उन्हें मगधराज्य को नहीं जीतना था, अत: मगध के राजा जरासन्ध को मारने से कोई लाभ न था । उनका प्रयोजन समस्त जगत् की बढ़ती हुई जनसंख्या को कम करना था, अतएव उन्होंने इतने अधिक पुरुषों, रथों, हाथियों तथा अश्वों का सामना करने के अवसर का लाभ उठाया । जरासन्ध की सैन्य शक्ति उनके सम्मुख प्रस्तुत हुई थी और उन्होंने जरासन्ध की सम्पूर्ण सेना का वध करने का निश्चय किया जिससे कि वह फिर लौट कर पुनः अपनी सैन्य शक्ति का पुनर्गठन कर सके । जब भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार विचार कर रहे थे तभी उनके लिए सारथि, शस्त्रों, ध्वजों तथा अन्य उपकरणों से पूर्णरूप से सुसज्जित, दो रथ बाह्य आकाश से वहाँ पहुँचे । श्रीकृष्ण ने अपने सम्मुख उपस्थित दोनों रथों को देखा और तत्काल ही उन्होंने संकर्षण नाम से विख्यात अपने ज्येष्ठ भ्राता बलराम जी से कहा, "प्रिय ज्येष्ठ भ्राता ! आप आर्यश्रेष्ठ हैं, आप ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं और विशेष रूप से आप यदुवंश के रक्षक हैं । जरासन्ध के सैनिकों के समक्ष यदुवंशियों को महान् संकट का अनुभव हो रहा है और वे अत्यन्त व्याकुल हैं । उनकी रक्षा करने के लिए ही अस्त्रों-शस्त्रों से पूर्ण आपका रथ भी यहाँ उपस्थित है । मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि रथ पर बैठ कर आप शत्रु की समस्त सैन्य शक्ति (इन सैनिकों) का विनाश कर दीजिए । इस प्रकार की अनावश्यक युद्धतत्पर शक्तियों का नाश करने तथा पुण्यात्मा भक्तों को सुरक्षा देने के लिए ही हम दोनों ने इस पृथ्वी पर अवतार लिया है । अब हमें अपना ध्येय पूर्ण करने का अवसर प्राप्त हुआ है । आइए, हम अपने ध्येय को पूरा करें ।" इस प्रकार दशाह के वंशज श्रीकृष्ण तथा बलराम जी ने जरासन्ध की तेरह अक्षौहिणी सेना का नाश करने का निश्चय किया । सैनिक वेश भूषा धारण कर, कृष्ण और बलराम अपने अपने रथों पर सवार हो गए । जिस रथ के सारथि का नाम दारुक था; उस रथ पर विराजमान होकर वे शंख-ध्वनि करते हुए छोटी-सी सेना सहित मथुरा नगर के बाहर आए । आश्चर्य तो यह था कि यद्यपि दूसरे पक्ष की सैन्य शक्ति अधिक थी, फिर भी श्रीकृष्ण के शंख की ध्वनि को सुन कर शत्रुओं के हृदय काँप उठे । जब जरासन्ध ने बलराम जी तथा श्रीकृष्ण को देखा, तब उसे किंचित दया आ गई, क्योंकि श्रीकृष्ण तथा बलराम दोनों का ही उससे दौहित्र (नाती) का सम्बन्ध था । उसने विशेष रूप से श्रीकृष्ण को पुरुषाधम कह कर सम्बोधित किया, जिसका अर्थ है पुरुषों में सर्वाधिक निकृष्ट । वास्तव में समस्त वैदिक साहित्य में श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम नाम से विख्यात हैं, जिसका अर्थ है पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ । श्रीकृष्ण को पुरुषोत्तम नाम से सम्बोधित करने की जरासन्ध की कोई इच्छा नहीं थी । महान् विद्वानों ने पुरुषाधम का वास्तविक अर्थ यह निश्चित किया है कि, "वह पुरुष जो अन्य सभी व्यक्तियों को नीचा दिखा दे ।" वास्तव में श्रीभगवान् के बराबर अथवा उनसे श्रेष्ठ और कोई नहीं हो सकता है । जरासन्ध ने कहा, “श्रीकृष्ण और बलराम जैसे बालकों से युद्ध करना मेरे लिए एक महान् अपमान होगा ।" चूँकि श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया था, अत: जरासन्ध ने विशेष रूप से उन्हें स्वजनों का घातक कहकर सम्बोधित किया । कंस ने अपने इतने भांजों का वध किया था, किन्तु जरासन्ध ने उस पर ध्यान नहीं दिया । चूँकि, श्रीकृष्ण ने अपने मामा कंस का वध किया था, अत: जरासन्ध ने उनकी आलोचना करने का प्रयास किया । आसुरी व्यवहार की यही रीति है । असुर अपने अथवा अपने मित्रों के दोष ढूँढने की अपेक्षा अपने शत्रुओं के दोष ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं । जरासन्ध ने कृष्ण के क्षत्रिय न होने के लिए भी उनकी आलोचना की । चूँकि श्रीकृष्ण का पालन-पोषण महाराज नन्द ने किया था, अतएव श्रीकृष्ण एक क्षत्रिय न हो कर वैश्य थे । सामान्यतया वैश्यों को गुप्त कहा जाता है और गुप्त शब्द का प्रयोग "छुपे हुए" के लिए भी होता है । नन्द महाराज ने श्रीकृष्ण का पालन भी किया था और उन्हें छिपा कर भी रखा था । जरासन्ध ने श्रीकृष्ण पर तीन दोषारोपण किए । पहला यह कि उन्होंने अपने मामा का वध किया था, दूसरा यह कि उन्हें उनके बाल्यकाल में छिपा कर रखा गया था और तीसरा यह कि वे क्षत्रिय भी नहीं थे । यही कारण था कि जरासन्ध को उनसे युद्ध करने में लज्जा का अनुभव हो रहा था । तत्पश्चात् बलराम जी की ओर मुड़ कर जरासन्ध ने उन्हें सम्बोधित किया, “बलराम ! यदि तुम्हारी इच्छा हो तो श्रीकृष्ण के साथ-साथ तुम भी मुझसे युद्ध कर सकते हो । यदि तुममें धैर्य है, तब तुम मेरे बाणों से मारे जाने की प्रतीक्षा कर सकते हो । इस प्रकार तुम्हें स्वर्गलोक प्राप्त होगा ।” भगवद्-गीता में कहा गया है कि युद्ध करते हुए क्षत्रिय को दो प्रकार के लाभ हो सकते हैं । यदि वह युद्ध में विजय प्राप्त करता है, तो उसे विजय के फल भोगने का आनन्द प्राप्त होता है, किन्तु यदि वह युद्ध में वीरगति प्राप्त करता है, तब भी उसे स्वर्गलोक प्राप्त होता है जरासन्ध को इस प्रकार कहते सुनकर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, "प्रिय राजन् जरासन्ध ! जो शूरवीर होते हैं, वे अधिक बातें नहीं करते । उसके स्थान पर वे अपना कौशल प्रदर्शित करते हैं । चूँकि तुम अत्यधिक बातें कर रहे हो । इस से प्रतीत होता है कि तुम्हें विश्वास है कि इस युद्ध में तुम्हारी मृत्यु होगी । हमें तुम्हारी और अधिक उस व्यक्ति की बातें सुनने से कोई लाभ नहीं ।" जरासन्ध ने श्रीकृष्ण से युद्ध करने के निमित्त उनको चारों ओर से विशाल सैन्य शक्ति द्वारा घेर लिया । जैसे सूर्य कोहरे और धूलि से ढका हुआ प्रतीत होता है उसी भाँति परम सूर्य श्रीकृष्ण को भी जरासन्ध की सैन्य शक्ति ने ढक लिया था । श्रीकृष्ण तथा बलराम जी के रथ क्रमश: गरुड़ तथा तालवृक्षों के चित्रों से अंकित थे । मथुरा की सभी नारियाँ इस अद्भुत युद्ध को देखने के लिए घरों, महलों तथा द्वारों के ऊपर खड़ी थीं । किन्तु जब जरासन्ध की सैन्य शक्ति ने श्रीकृष्ण के रथ को घेर लिया और वह अतृश्य हो गया तब वे इतनी भयभीत हो गई कि कुछ नारियाँ मूर्छित हो गई । श्रीकृष्ण ने स्वयं को जरासन्ध की सैन्य शक्ति से अभिभूत हुआ पाया । उनके मुट्ठी भर सैनिकों को जरासन्ध की सेना व्याकुल कर रही थी । अतएव श्रीकृष्ण ने तत्काल ही शाङ्ग नामक अपना धनुष उठा लिया । श्रीकृष्ण ने अपने तरकश में से एक के बाद एक बाण निकाल कर, उन्हें धनुष की डोरी पर रख कर शत्रु की ओर मारना प्रारम्भ कर दिया । उनके बाणों का लक्ष्य इतना अचूक था कि जरासन्ध के हाथी, अश्व और पैदल सैनिक अति शीघ्र मारे गए । श्रीकृष्ण की अनवरत बाण-वर्षा ऐसी प्रतीत होती थी मानो एक प्रज्ज्वलित अग्नि का बवन्डर हो, जो जरासन्ध की सेना का वध कर रहा था । जब श्रीकृष्ण ने बाण छोड़े, तो हाथियों के सिर बाणों से कट गए और सभी हाथी धीरे-धीरे गिरने लगे । उसी प्रकार सभी अश्वों की गर्दन कटने लगीं और वे गिर पड़े और ध्वज-सहित सारे रथ भी गिर गए । रथ पर सवार योद्धा तथा सारथि भी गिर गए । लगभग सभी पैदल सैनिकों के सिर, हाथ और पैर कट गए थे और वे युद्धभूमि में गिर गए थे । इस भाँति कई सहस्र हाथी, सैनिक तथा घोड़े मारे गए और उनका रक्त नदी की धारा के समान प्रवाहित होने लगा । उस नदी में सैनिकों की कटी हुई भुजाएँ सर्प के समान प्रतीत होती थीं, उनके सिर कछुए के समान तथा हाथियों के मृत शरीर छोटे-छोटे द्वीपों के समान प्रतीत होते थे । मृत अश्व शार्क मछलियों के समान प्रतीत होते थे । भगवान् की इच्छा से वहाँ युद्ध-सामग्रियों से पूर्ण रक्त की एक महान् नदी बह रही थी । पैदल सैनिकों के हाथ-पैर विभिन्न मछलियों के समान और उनके केश समुद्री खरपतवार और दलदल के समान तैर रहे थे और सैनिकों के तैरते हुए धनुष नदी की तंरगों के समान प्रतीत होते थे । सैनिकों तथा सेनापतियों के शरीरों के आभूषण रक्त की नदी में बहते हुए कंकड़ों के समान प्रतीत होते थे । संकषर्ण के नाम से प्रसिद्ध बलराम जी अपनी गदा से इतनी वीरता से युद्ध करने लगे कि श्रीकृष्ण द्वारा निर्मित रक्त की नदी में बाढ़ आ गई । जो कायर थे वे इस भयंकर और विकराल दृश्य को देखकर अत्यधिक भयभीत हो गए और जो शूर वीर थे वे प्रसन्नतापूर्वक दोनों भाइयों के शौर्य के विषय में परस्पर चर्चा करने लगे । यद्यपि जरासन्ध के पास सैन्य शक्ति का एक विशाल सागर था, तथापि बलराम जी तथा भगवान् कृष्ण के युद्ध ने पूरी स्थिति को सामान्य युद्ध से कहीं बढ़कर एक भयंकर दृश्य में परिवर्तित कर दिया था । साधारण मस्तिष्क वाले व्यक्ति सोच भी नहीं सकते हैं कि यह किस प्रकार सम्भव हुआ । किन्तु जब इन गतिविधियों को श्रीभगवान् की लीला मान लें जिनकी इच्छा से प्रत्येक वस्तु सम्भव है, तब यह बात समझी जा सकती है । श्रीभगवान् अपनी इच्छा मात्र से सृष्टि की रचना, पालन तथा संहार करते हैं । उनके लिए शत्रु से युद्ध करते हुए विनाश का इतना विशाल दृश्य निर्मित करना कोई इतनी अद्भुत घटना नहीं है । किन्तु फिर भी, चूँकि श्रीकृष्ण तथा बलराम जी जरासन्ध से साधारण मानवों की भाँति युद्ध कर रहे थे, अत: यह घटना अद्भुत प्रतीत हुई । जब जरासन्ध के सभी सैनिकों का वध हो गया था और वह अकेला ही जीवित बचा था, तो निश्चित रूप से वह उस समय अत्यन्त निराश हो गया । जिस प्रकार एक सिंह महान् शक्ति से दूसरे सिंह को पकड़ता है उसी प्रकार श्रीबलराम जी ने तत्काल उसे बन्दी बना लिया । किन्तु जब वे जरासन्ध को साधारण डोरी तथा वरुण पाश से बाँध रहे थे, तब भविष्य की एक अन्य बड़ी योजना का विचार करके श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि जरासन्ध को बन्दी न बनाएँ । तदनन्तर श्रीकृष्ण ने जरासन्ध को मुक्त कर दिया । जरासन्ध महान् शूरवीर योद्धा था, अत: इस पराजय से वह अत्यन्त लज्जित हुआ । उसने निश्चय किया कि अब वह राजा का जीवन व्यतीत नहीं करेगा, अपितु अपने राजा के पद का त्याग करके वन में जाकर कठोर संयम तथा तपस्या करते हुए ध्यान का अभ्यास करेगा । जब वह अपने अन्य मित्र नृपों के साथ घर लौट रहा था तब उन्होंने उसे संन्यास न ग्रहण करने की मंत्रणा दी । उन्होंने उससे कहा कि वह निकट भविष्य में श्रीकृष्ण से पुन: युद्ध करने के निमित्त शक्ति एकत्र करे । जरासन्ध के मित्र राजा उसे उपदेश देने लगे कि सामान्यतया यदुराजाओं की शक्ति द्वारा उसकी पराजय सम्भव नहीं थी, किन्तु उसकी जो पराजय हुई थी उसका कारण केवल उसका दुर्भाग्य था । राजाओं ने जरासन्ध को प्रोत्साहित किया । उन्होंने कहा कि उसका युद्ध कौशल निश्चित रूप से शौर्यपूर्ण था; अतएव उसे अपनी पराजय को इतनी गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए । उसकी पराजय का कारण उसके विगत कर्म थे । उसके युद्ध कौशल में कोई दोष नहीं था । इस प्रकार मगध देश का राजा जरासन्ध अपनी समस्त शक्ति खो कर और बन्दी बनाए जाने तथा उसके पश्चात् मुक्त किए जाने पर अपमानित होकर अपने राज्य को लौटने के अतिरिक्त और कुछ न कर सका । इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के सैनिकों पर विजय प्राप्त की । यद्यपि जरासन्ध की तुलना में श्रीकृष्ण की सेना छोटी सी थी, फिर भी उनकी सेना की अल्प मात्र भी क्षति नहीं हुई, जबकि जरासन्ध के सभी सैनिक मारे गए । उस समय स्वर्ग के निवासी अत्यन्त प्रसन्न हो गए और भगवान् का यशगान एवं उन पर पुष्प वर्षा करके उनको प्रणाम करने लगे । उन्होंने इस विजय की अत्यन्त प्रशंसा की । जरासन्ध अपने राज्य को लौट गया और इस प्रकार मथुरा नगर पर निकट भविष्य में आक्रमण का भय नहीं रहा । मथुरा के नागरिकों ने व्यावसायिक गायकों जैसे सूत, मागधों तथा सुन्दर गीतों की रचना में पटु कवियों के सम्मिलित गान का आयोजन किया । वे कवि तथा गायक श्रीकृष्ण की विजय का यशगान करने लगे । विजय के उपरान्त जब भगवान् श्रीकृष्ण ने नगर में प्रवेश किया, तो अनेक तुरही, शंख तथा दुन्दुभी बजने लगीं । विभिन्न वाद्यों जैसे भेर्य, तूर्य, वीणा, मुरली तथा मृदंग की सम्मिलित ध्वनि ने उनका सुन्दर स्वागत किया । श्रीकृष्ण के नगर में प्रवेश के समय समस्त नगर अत्यन्त स्वच्छ किया गया था और विभिन्न गलियों तथा पथों पर जल का छिड़काव किया गया था । नगरनिवासी प्रसन्न थे और उन्होंने अपने घरों तथा अपनी दूकानों को कागज की रंगीन पट्टियों से सुसज्जित किया था । अनेक स्थानों पर ब्राह्मण लोग वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे । लोगों ने चौराहों, तथा गलियों पर द्वारों का निर्माण किया था । सुन्दरता से सज्जित मथुरा नगरी में, श्रीकृष्ण के उल्लसित भाव से प्रवेश करने के समय मथुरा की नारियों तथा कन्याओं ने इस अवसर को और अधिक शुभ बनाने के लिए विभिन्न प्रकार की पुष्पमालाएँ बनाई । वैदिक रीति के अनुसार उन्होंने ताजी दूर्वा मिश्रित दही लिया और विजयोल्लास को और अधिक शुभ बनाने के लिए उसे इधर-उधर छिड़कने लगीं । जब श्रीकृष्ण गलियों से होकर गए तब सभी स्त्रियाँ अत्यन्त स्नेह से उनका दर्शन करने लगीं । श्रीकृष्ण जी और बलराम रणक्षेत्र से एकत्र किए हुए आभूषण और रत्नादि अनेक प्रकार की सामग्री लिये जा रहे थे, जिसे उन्होंने राजा उग्रसेन को उपहार में दिया । इस प्रकार श्रीकृष्ण ने अपने नाना के प्रति आदर प्रदर्शित किया, क्योंकि उस समय वही यदुवंश के राजा थे । मगधराज जरासन्ध ने मथुरा नगर पर न केवल एक बार आक्रमण किया, अपितु उतने ही सैन्य व्यूहों से सुसज्जित होकर, उसने मथुरा पर उसी तरह सत्रह बार आक्रमण किया । प्रत्येक बार उसकी पराजय हुई और उसके सभी सैनिकों का श्रीकृष्ण ने वध कर दिया । प्रत्येक बार जरासन्ध को उसी भाँति निराश लौटना पड़ा । प्रत्येक बार यदुबंशी राजा उसी प्रकार जरासन्ध को बन्दी बनाते थे और तत्पश्चात् अपमानजनक ढंग से मुक्त कर देते थे । प्रत्येक बार जरासन्ध निर्लज्जतापूर्वक घर लौट जाता था । जब जरासन्ध इसी प्रकार अठारहवें आक्रमण का प्रयास कर रहा था, तब मथुरा के दक्षिण में रहने वाले एक यवन राजा ने भी यदुवंश के ऐश्वर्य से आकर्षित हो कर नगर पर आक्रमण कर दिया । कहा जाता है कि इस यवन राजा कालयवन को आक्रमण करने के लिए नारद जी ने प्रेरणा दी थी । विष्णु पुराण में इस कथा का वर्णन आया है । एक बार यदुवंश के पुरोहित गर्गमुनि पर उनके साले ने व्यंग्य किया था । जब यदु राजाओं ने वह व्यंग्य सुना, तो वे गर्गमुनि पर हँस पड़े और गर्गमुनि यदु राजाओं पर कुपित हो गए ।
अतएव उन्होंने निश्चय किया कि वे ऐसे किसी व्यक्ति को उत्पन्न करेंगे जिससे यदुवंश भयभीत रहेगा । अत: उन्होंने शिवजी को प्रसन्न करके एक पुत्र का वरदान प्राप्त किया । एक यवन राजा की पत्नी के गर्भ से उन्होंने यह पुत्र उत्पन्न किया । इस कालयवन ने नारद जी से पूछा, "जगत् में सर्वाधिक शक्तिशाली राजा कौन हैं ?" नारद जी ने उसे जानकारी दी कि यदुबंशी सर्वाधिक शक्तिशाली हैं । नारद से इस प्रकार जानकारी प्राप्त करके कालयवन ने मथुरा नगर पर उसी समय आक्रमण कर दिया, जब जरासन्ध उस पर अठारहवीं बार आक्रमण करने का प्रयास कर रहा था । कालयवन जगत् के एक ऐसे राजा के साथ युद्ध घोषित करने को अत्यन्त उत्सुक था, जो उसके लिए उपयुक्त प्रतिद्वंद्वी हो, किन्तु उसे अभी तक कोई उपयुक्त प्रतिद्वन्दी प्राप्त नहीं हुआ हो । अब नारद द्वारा मथुरा के विषय में जानकारी प्राप्त होने पर उसने इस नगर पर आक्रमण करना बुद्धिमानी समझा । मथुरा पर आक्रमण करते समय वह अपने साथ तीन करोड़ यवन सैनिक लाया था । जब मथुरा इस प्रकार घिर गई तब भगवान् श्रीकृष्ण विचार करने लगे कि जरासन्ध तथा कालयवन नामक दो भयानक शत्रुओं के आक्रमण के भय के कारण यदुवंश घोर विपत्ति में है । समय कम होता जा रहा था । कालयवन ने पहले से ही मथुरा को चारों ओर से घेर रखा था । उसे आशा थी कि पहले सत्रह प्रयासों में जितनी सैन्य टुकड़ियाँ थीं, उतनी ही टुकड़ियाँ पुन: लेकर जरासन्ध भी अगले दिन आ जाएगा । श्रीकृष्ण को विश्वास था कि अब जबकि कालयवन भी मथुरा पर आक्रमण कर रहा है, उसी समय मथुरा को जीतने के अवसर का लाभ जरासन्ध अवश्य उठाएगा । अतएव उन्होंने मथुरा नगर की सुरक्षा के लिए दो सैनिक बिन्दुओं से पहले से प्रबन्ध करना उचित समझा । यदि श्रीकृष्ण और बलराम जी दोनों एक स्थान पर कालयवन से युद्ध में रत होंगे, तो जरासन्ध दूसरे स्थान से आकर पूरे यदु परिवार पर आक्रमण करके अपना बदला ले सकता है । जरासन्ध अत्यन्त बलशाली था और सत्रह बार पराजित होने के कारण, वह यदु परिवार के सदस्यों की निर्दयतापूर्वक हत्या कर सकता था, अथवा उन्हें बन्दी बना कर अपने राज्य में ले जा सकता था । अतएव श्रीकृष्ण ने एक ऐसे स्थान पर एक अजेय दुर्ग का निर्माण करने का निश्चय किया, जहाँ कोई भी द्विपद जीव, चाहे वह मनुष्य हो अथवा असुर, प्रवेश न कर सके । उन्होंने अपने सम्बन्धियों को उस दुर्ग में रखने का निश्चय किया जिससे स्वयं श्रीकृष्ण शत्रुओं से युद्ध करने के लिए मुक्त रह सकें । ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्वकाल में द्वारका भी मथुरा राज्य का एक भाग था, क्योंकि श्रीमद्-भागवत में कहा गया है कि श्रीकृष्ण ने सागर के मध्य दुर्ग का निर्माण किया । श्रीकृष्ण द्वारा निर्मित दुर्ग के अवशेष आज भी द्वारका की खाड़ी में हैं । सर्वप्रथम उन्होंने छियानवे वर्ग मील में फैली हुई एक अत्यन्त सुदृढ़ दीवार का निर्माण किया । यह दीवार भी समुद्र के अन्दर थी । यह परकोटा अद्भुत था और विश्वकर्मा ने इसकी योजना बनाई थी और तथा निर्माण किया था । कोई साधारण शिल्पी सागर के मध्य ऐसे दुर्ग का निर्माण नहीं कर सकता था, किन्तु विश्वकर्मा जैसा शिल्पकार, जिसे देवताओं में अभियन्ता माना जाता है, ब्रह्माण्ड के किसी भाग में, कहीं भी ऐसी अद्भुत शिल्पकारी कर सकता है । यदि श्रीभगवान् के प्रबन्ध के द्वारा बाह्य आकाश अन्तरिक्ष की भारहीनता में विशालकाय ग्रहों को तैराया जा सकता है, तब सागर में छियानवे वर्ग मील के क्षेत्र में
फैले हुए एक दुर्ग का शिल्पपूर्ण निर्माण कोई अति अद्भुत कार्य नहीं था । श्रीमद्-भागवत में कहा गया है कि सागर के मध्य में विकसित सुनिर्मित इस नवीन नगर में सुनियोजित मार्ग तथा गलियाँ थीं । न केवल वहाँ सुनियोजित मार्ग व गलियाँ थीं, अपितु सुनियोजित पथ तथा उद्यान भी थे । उद्यान कल्पवृक्षों से पूर्ण थे । ये कल्पवृक्ष भौतिक जगत् के साधारण वृक्षों की भाँति नहीं हैं । कल्पवृक्ष अध्यात्मिक जगत् में पाए जाते हैं । श्रीकृष्ण की परम इच्छा से सब कुछ सम्भव है, अत: श्रीकृष्ण द्वारा निर्मित इस द्वारका नगर में कल्पवृक्ष लगाए गए थे । नगर में अनेक प्रासाद और गोपुर अथवा विशाल द्वार भी थे । बड़े मन्दिरों में से कुछ में अभी-भी गोपुर पाए जाते हैं । वे अत्यन्त ऊँचे होते हैं और अत्यधिक कलात्मक ढंग से बनाए जाते हैं । इन प्रासादों और गोपुरों पर स्वर्णिम कलश थे । राजमहलों में अथवा द्वारों पर ये कलश शुभ शकुन माने जाते हैं । लगभग सभी प्रासाद गगनचुम्बी थे । प्रत्येक घर में, भूमिगत कक्षों में बड़े-बड़े स्वर्ण तथा चाँदी से निर्मित पात्रों में अन्न संचित रहता था । कक्षों में अनेक स्वर्णिम जल-कलश थे । शयनकक्षों की सज्जा रत्नों से की गई थी । भूमितल पर मरकत मणि की पच्चीकारी की गई थी । यदुवंशियों के उपास्य विष्णु की मूर्ति नगर के प्रत्येक घर में स्थापित की गई थी । निवासस्थानों का प्रबन्ध इस प्रकार किया गया था कि विभिन्न जातियों-ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों-के अपने-अपने स्थान थे । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय भी जाति प्रथा प्रचलित थी । नगर के मध्य में एक और निवासस्थान था जिसका निर्माण विशेष रूप से राजा उग्रसेन के लिए किया गया था । सभी घरों में वह सर्वाधिक शोभायमान था । जब इन्द्र देवता ने देखा कि श्रीकृष्ण अपनी रुचि के एक विशेष नगर का निर्माण कर रहे है, तब उन्होंने स्वर्ग के प्रसिद्ध परिजात पुष्प को उस नए नगर में लगाने के लिए भेजा । उन्होंने सुधर्मा नामक एक सभाभवन भी भेजा । इस सभागृह का विशेष गुण यह था कि इसके अन्दर किसी बैठक में भाग लेने वाला व्यक्ति की वृद्धावस्था निर्बलता पर विजय प्राप्त कर सकता था । वरुण देवता ने मन की गति से दौड़ने में समर्थ एक श्वेत अश्व जिसके कान काले थे । देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर ने भौतिक ऐश्वर्य की आठों सिद्धियों को प्राप्त करने की कला प्रदान की । इस प्रकार सभी देवता अपने-अपने सामथ्रय के अनुसार अपने-अपने उपहार अर्पित करने लगे । सब मिला कर तैतीस करोड़ देवता हैं और प्रत्येक को ब्रह्माण्ड के किसी विशेष विभाग का प्रबन्ध-कार्य सौंपा गया है । श्रीभगवान् अपनी रुचि के एक नगर का निर्माण कर रहे थे, इस अवसर का लाभ उठाते हुए सभी देवताओं ने उन्हें अपने-अपने उपहार अर्पित किए और इस प्रकार द्वारका नगर ब्रह्माण्ड में अद्वितीय बन गया । इससे इस बात की पुष्टि होती है कि निस्सन्देह देवता असंख्य हैं, किन्तु वे श्रीकृष्ण से स्वतंत्र नहीं हैं । जैसाकि चैतन्य-चरितामृत में कहा गया है, श्रीकृष्ण परम ईश्वर (स्वामी) हैं और अन्य सब सेवक हैं । अतएव सभी सेवकों ने ब्रह्माण्ड में श्रीकृष्ण की उपस्थिति का लाभ उठाकर उनकी सेवा करने का सुअवसर प्राप्त किया । इस उदाहरण का अनुसरण सभी को, विशेषरूप से कृष्णभक्तों को, करना चाहिए, क्योंकि सबको अपनी-अपनी योग्यता के द्वारा श्रीकृष्ण की सेवा करनी चाहिए । जब योजनानुसार नवीन नगर का निर्माण पूर्ण हो गया तब श्रीकृष्ण ने मथुरा के सभी नागरिकों को वहीं स्थानान्तरित कर दिया और श्री बलराम को नगर-पिता बना दिया । इसके पश्चात् उन्होंने बलराम जी से मंत्रणा की और कमल की माला धारण करके शस्त्रास्त्र उठाए बिना कालयवन का सामना करने के लिए नगर से बाहर आए, कालयवन ने मथुरा पर पहले ही घेरा डाल दिया था ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “श्रीकृष्ण द्वारा द्वारिका दुर्ग का निर्माण करना” नामक पचासवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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