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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 56: स्यमन्तक मणि की कथा  » 
 
 
 
 
 
द्वारकाधाम के क्षेत्र में सत्राजित नामक एक राजा था । वह सूर्यदेव का महान् भक्त था । सूर्यदेव ने उसे स्यमन्तक मणि प्रदान की थी । इस स्यमन्तक मणि के कारण राजा सत्राजित तथा यदुवंश के मध्य एक मिथ्याबोध उत्पन्न हो गया था । बाद में सत्राजित ने जब स्वेच्छा से अपनी पुत्री सत्यभामा तथा स्यमन्तक मणि श्रीकृष्ण को अर्पित की तब यह भ्रम समाप्त हो गया । स्यमन्तक के कारण न केवल सत्यभामा का श्रीकृष्ण से विवाह हुआ था, अपितु जाम्बवान् की पुत्री जाम्बवती का भी श्रीकृष्ण से विवाह हुआ । ये दोनों विवाह प्रद्युम्न के आगमन के पूर्व हो चुके थे, जिसका वर्णन पिछले अध्याय में किया गया है । राजा सत्राजित ने यदुवंश को किस प्रकार अप्रसन्न किया और किस प्रकार बाद में उसे सद् -बुद्धि प्राप्त हुई और उसने अपनी पुत्री तथा स्यमन्तक मणि श्रीकृष्ण को अर्पित की, इसका वर्णन निम्न प्रकार से किया जाता है । सूर्यदेव का महान् भक्त होने के कारण राजा सत्राजित का शनै: शनै: उनसे अत्यन्त मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध हो गया । सूर्यदेव उससे अत्यन्त प्रसन्न थे और उन्होंने उसे स्यमन्तक नामक एक विलक्षण मणि प्रदान की । जब सत्राजित ने यह मणि अपने कण्ठ में धारण की तब वह सूर्यदेव की एक प्रतिकृति प्रतीत हुआ । यह मणि पहनकर जब वह द्वारका में जाता था, तब लोग सोचते थे कि श्रीकृष्ण से भेंट करने सूर्यदेव नगर में आए हैं । उन्हें ज्ञात था कि कभी-कभी देवता लोग भगवान् श्रीकृष्ण से भेंट करने आते हैं, अत: जब सत्राजित द्वारका आया तब श्रीकृष्ण के अतिरिक सभी ने उसे सूर्यदेव ही समझा । यद्यपि सभी राजा सत्राजित से परिचित थे, किन्तु स्यमन्तक मणि की जाज्वल्यमान् कान्ति के कारण वह पहचाना नहीं जाता था । एक बार उसे सूर्यदेव समझ कर द्वारका के कुछ गण्यमान्य व्यक्ति तत्काल श्रीकृष्ण को सूचना देने गए कि सूर्यदेव उनसे मिलने आए हैं । उस समय श्रीकृष्ण चौपड़ खेल रहे थे । द्वारका के एक गण्यमान्य नागरिक ने इस प्रकार कहा, “प्रिय भगवन् नारायण ! आप श्रीभगवान् हैं । अपने नारायण अथवा विष्णु अंश में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म युक्त आपकी चार भुजाएँ हैं । आप वस्तुत: प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं । किन्तु भगवान् नारायण होने पर भी आप यशोदा माता के पुत्र के रूप में अभिनय करने के हेतु वृन्दावन में अवतरित हुए हैं । यशोदा माता कभी-कभी आपको रस्सियों से बाँध देती थीं, अतएव आप दामोदर नाम से भी प्रसिद्ध हैं ।" द्वारका के निवासी भी श्रीकृष्ण को भगवान् श्रीनारायण मानते थे । श्रीकृष्ण के भगवान् श्रीनारायण होने की पुष्टि महान् मायावादी दार्शनिक शंकराचार्य ने भी की थी । शंकराचार्य द्वारा भगवान् को निराकार मानने का यह अर्थ नहीं है कि उन्होंने भगवान् के साकार रूप को अस्वीकार किया है । उनका कहने का तात्पर्य यह था कि इस भौतिक जगत् की वह प्रत्येक वस्तु जिसका आकार है, सृष्टि, पालन तथा विनाश की भागी होती है, किन्तु भगवान् श्रीनारायण का स्वरूप इन सीमाओं से सीमित होने वाला भौतिक स्वरूप नहीं है । जो लोग श्रीकृष्ण को एक साधारण मानव मानते हैं, ऐसे अल्पबुद्धि वर्ग को समझाने के हेतु ही शंकराचार्य ने भगवान् को निराकार बताया । इस निराकार भाव का अर्थ है कि वे इस भौतिक स्थिति के व्यक्ति नहीं हैं । वे भौतिक शरीर से रहित एक दिव्य व्यक्ति हैं । द्वारका के नागरिकों ने भगवान् श्रीकृष्ण को न केवल दामोदर कहकर अपितु गोविन्द कह कर भी सम्बोधित किया, जिससे संकेत मिलता है कि श्रीकृष्ण गायों तथा बछड़ों के प्रति अत्यन्त स्नेहमय हैं । श्रीकृष्ण से अपने घनिष्ठ सम्बन्ध के सन्दर्भ में उन्होंने श्रीकृष्ण को यदुनन्दन कहकर भी सम्बोधित किया । वे यदुवंश में उत्पन्न हुए हैं तथा वसुदेवजी के पुत्र हैं । फलत: द्वारका के नागरिकों ने निष्कर्ष निकाला कि वे समस्त ब्रह्माण्ड के परम स्वामी श्रीकृष्ण को सम्बोधित कर रहे हैं । उन्हें द्वारका के नागरिक होने में गर्व था, क्योंकि वे प्रतिदिन श्रीकृष्ण के दर्शन कर सकते थे, अत: उन्होंने विभिन्न प्रकार से श्रीकृष्ण को सम्बोधित किया ।

जब सत्राजित द्वारका में आया, तो द्वारका के नागरिकों ने यह सोचकर अत्यन्त गर्व का अनुभव किया कि, यद्यपि श्रीकृष्ण द्वारका में एक साधारण मानव के समान निवास कर रहे हैं, तथापि देवता उनके दर्शन करने के लिए आ रहे हैं । इस प्रकार उन्होंने श्रीकृष्ण को सूचित किया कि अपनी चित्ताकर्षक शारीरिक कान्ति सहित सूर्यदेव उनके दर्शन करने आ रहे हैं । द्वारका के नागरिकों ने पुष्टि की कि सूर्यदेव का द्वारका आना कोई अत्यन्त अद्भुत घटना नहीं थी, क्योंकि समस्त ब्रह्माण्ड में श्रीभगवान् की खोज में रत सभी लोगों को ज्ञात था कि वे यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं और उस परिवार के एक सदस्य के रूप में द्वारका में रह रहे हैं । इस प्रकार, इस अवसर पर नागरिकों ने अपने हर्ष का प्रदर्शन किया । अपने नागरिकों के इस कथन को सुनकर सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्ण ने मन्द हास्य किया । द्वारकावासियों से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने उन्हें सूचित किया कि जिस व्यक्ति का वर्णन वे सूर्यदेव के रूप में कर रहे हैं, वह वास्तव में राजा सत्राजित है, जो कि सूर्यदेव से प्राप्त की गई बहुमूल्य मणि के रूप में, अपने वैभव का प्रदर्शन करने के लिए द्वारका आया है । सत्राजित श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए नहीं आया था, अपितु स्यमन्तक मणि के कारण वह अत्यन्त मदोन्मत्त हो गया था । उसने मणि को एक मन्दिर में स्थापित कर दिया और उसकी उपासना के लिए ब्राह्मणों को नियुक्त किया । यह इस बात का उदाहरण है कि किस प्रकार एक अल्पबुद्धि मानव किसी भौतिक वस्तु की उपासना करता है । भगवद्-गीता में कहा गया है कि अपने सकाम कर्मों के तत्काल फल प्राप्त करने के लिए अल्पबुद्धि मनुष्य देवताओं की उपासना करते हैं । देवताओं की सृष्टि इस ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत की गई है । भौतिकतावादी का अर्थ है, वह व्यक्ति जो भौतिक जगत् में इन्द्रियतृप्ति से सम्बन्ध रखता है । यद्यपि श्रीकृष्ण ने बाद में स्यमन्तक मणि माँगी, तथापि सत्राजित ने वह मणि उन्हें नहीं दी । उसने मणि को उपासना के प्रयोजन से मन्दिर में स्थापित किया । ऐसी मणि की अर्चना कौन नहीं करेगा ? स्यमन्तक मणि इतनी सामथ्वान्र्य थी कि प्रतिदिन वह विशाल मात्रा में स्वर्ण (सोना) उत्पन्न करती थी । स्वर्ण को भार नामक माप से नापा जाता है । वैदिक नियमानुसार एक भार सोलह पौण्ड स्वर्ण के बराबर होता है । एक मन में बयासी पौण्ड होते हैं । वह मणि प्रतिदिन लगभग एक सौ सत्तर पौण्ड स्वर्ण उत्पन्न कर रही थी । इसके अतिरिक्त वैदिक साहित्य से ज्ञात होता है कि जगत् के जिस किसी भी भाग में इस मणि की उपासना होती है, वहाँ कभी अकाल नहीं पड़ता है । यही नहीं, जहाँ भी यह मणि रहती है, वहाँ महामारी अथवा व्याधि जैसी किसी भी अशुभ घटना की सम्भावना नहीं रहती है । श्रीकृष्ण जगत् को शिक्षा देना चाहते थे कि प्रत्येक सर्वश्रेष्ठ वस्तु देश के प्रशासन-प्रमुख को अर्पित की जानी चाहिए । राजा उग्रसेन अनेक राजवंशों के राजाधिराज थे तथा वे श्रीकृष्ण के नाना भी थे । श्रीकृष्ण ने सत्राजित से कहा कि वह स्यमन्तक मणि राजा उग्रसेन को भेंट कर दे, क्योंकि सर्वश्रेष्ठ वस्तु राजा को अर्पित करनी चाहिए । किन्तु देवोपासक होने के कारण सत्राजित अत्यधिक भौतिकवादी हो गया था और श्रीकृष्ण का आदेश स्वीकार करने के स्थान पर उसने प्रतिदिन एक सौ सत्तर पौण्ड स्वर्ण प्राप्ति के लिए मणि की उपासना करने को बुद्धिमत्ता समझा । जिन्हें इतनी अधिक मात्रा में स्वर्ण प्रतिदिन प्राप्त हो सकता है, वे भौतिकतावादी व्यक्ति श्रीकृष्ण की भक्ति में रुचि नहीं लेते हैं । अतएव कभी-कभी विशेष अनुग्रह के प्रदर्शन के लिए श्रीकृष्ण किसी व्यक्ति को उसकी संचित, विशाल भौतिक संपत्ति से वंचित कर देते हैं और इस प्रकार उस व्यक्ति को महान् भक्त बना लेते हैं । किन्तु सत्राजित ने श्रीकृष्ण की आज्ञा को अस्वीकार कर दिया और वह मणि उन्हें नहीं दी ।

इस घटना के पश्चात् परिवार के वैभव का प्रदर्शन करने के लिए सत्राजित के छोटे भाई ने उस मणि को अपने कण्ठ में धारण कर लिया और अपने भौतिक ऐश्वर्य का प्रदर्शन करते हुए, घोड़े पर चढ़कर जंगल में गया । जब प्रसेन नामक सत्राजित का भाई वन में इधर-उधर घूम रहा था, तब एक विशाल सिंह ने उस पर आक्रमण कर दिया और उसे तथा उसके घोड़े का वध कर दिया । तदनन्तर सिंह उस मणि को अपनी गुफा में ले गया । जब यह जानकारी ऋक्षराज जाम्बवान् को प्राप्त हुई, तब उन्होंने सिंह को गुफा में मार कर वह मणि ले ली । जाम्बवान् भगवान् रामचन्द्र के समय से ही भगवान् के एक महान् भक्त थे, अतएव उन्होंने उस मूल्यवान मणि को अत्यन्त आवश्यक वस्तु के रूप में नहीं लिया था । उन्होंने वह मणि अपने पुत्र को एक खिलौने के रूप में दे दी । जब सत्राजित का छोटा भाई प्रसेन मणि सहित वन से नगर में नहीं लौटा, तो सत्राजित अत्यन्त अशान्त हो गया । उसे ज्ञात नहीं था कि उसके भाई का सिंह ने तथा सिंह का जाम्बवान् ने वध कर दिया । इसके स्थान पर वह विचार करने लगा कि चूँकि श्रीकृष्ण को यह मणि चाहिए थी और उन्हें नहीं दी गयी, अतएव हो सकता है कि श्रीकृष्ण ने यह मणि प्रसेन से बलपूर्वक लेकर उसका वध कर दिया हो । इस विचार को एक जनश्रुति का रूप देकर सत्राजित ने उसे द्वारका के प्रत्येक भाग में फैला दिया । यह मिथ्या जनश्रुति कि श्रीकृष्ण ने प्रसेन का वध कर के मणि ले ली है, सर्वत्र दावाग्नि की भाँति फैल गई । श्रीकृष्ण को स्वयं के ऊपर कलंक लगना रुचिकर नहीं लगा, अतएव उन्होंने निश्चय किया कि द्वारका के कुछ निवासियों सहित वे वन में जाएँगे और स्यमन्तक मणि को ढूँढेंगे । अत: द्वारका के प्रमुख व्यक्तियों सहित श्रीकृष्ण सत्राजित के भाई प्रसेन को ढूँढ़ने गए और उन्होंने उसे मृत पाया, क्योंकि सिंह ने उसका वध कर दिया था । साथ ही साथ श्रीकृष्ण ने जाम्बवान् द्वारा मारे गए सिंह को भी पाया । जाम्बवान् को सामान्यतया ऋक्ष के नाम से पुकारा जाता है । देखने से ज्ञात हुआ कि ऋक्ष ने बिना किसी शस्त्र की सहायता से सिंह को अपने हाथों से मारा था । तदनन्तर श्रीकृष्ण तथा द्वारका के नागरिकों को वन में एक विशाल गुफा मिली, जिसे ऋक्ष के घर का मार्ग कहा जाता था । श्रीकृष्ण को ज्ञात था कि द्वारकावासी गुफा में प्रवेश करने से भयभीत होंगे, अत: उन्होंने उन्हें बाहर ही रुकने को कहा । उन्होंने स्वयं ऋक्ष जाम्बवान् को ढूँढ़ने के लिए अकेले ही अन्धेरी गुफा में प्रवेश किया । सुरंग में प्रविष्ट होने के पश्चात् श्रीकृष्ण ने देखा कि बहुमूल्य स्यमन्तक मणि ऋक्षपुत्र को खिलौने के रूप में दे दी गई है । बालक से मणि लेने के लिए श्रीकृष्ण वहाँ जाकर उसके समक्ष खड़े हो गए । जब ऋक्ष के बालक की देखभाल करने वाली दाई ने श्रीकृष्ण को अपने सम्मुख खड़ा देखा, तो वह भयभीत हो गई । उसे भय था कि कहीं श्रीकृष्ण उस बहुमूल्य स्यमन्तक मणि को ले न लें । भय के कारण वह उच्च स्वर से चिल्लाने लगी ।

दाई की चीत्कार सुनकर अत्यन्त कृद्ध होकर जाम्बवान् वहाँ गए । जाम्बवान् वास्तव में भगवान् श्रीकृष्ण के महान् भक्त थे, किन्तु अत्यन्त क्रोध में होने के कारण वे अपने स्वामी को पहचान न सके । उन्होंने सोचा कि श्रीकृष्ण एक साधारण मानव हैं । इससे भगवद्-गीता का वह कथन स्मरण हो आता है, जिसमें भगवान् अर्जुन को आध्यात्मिक स्तर तक उन्नति करने के लिए क्रोध, लोभ तथा काम से मुक्त होने का परामर्श देते हैं । काम, क्रोध तथा लोभ हृदय में साथ-साथ रहते हैं और अध्यात्म के मार्ग पर व्यक्ति की उन्नति में बाधा डालते हैं ।

अपने स्वामी को न पहचान कर जाम्बवान् ने प्रथम उन्हें युद्ध के लिए चुनौती दी । तदनन्तर जाम्बावान् तथा श्रीकृष्ण के मध्य एक भयंकर युद्ध हुआ जिसमें वे दो विरोधी गिद्धों के समान लड़े । जब कभी-भी, कहीं खाने योग्य शव होता है, तब उस शिकार के लिए गिद्ध युद्ध करते हैं । पहले तो श्रीकृष्ण तथा जाम्बवान् ने शस्त्रों से युद्ध करना प्रारम्भ किया । तदनन्तर वे पत्थरों, बड़े-बड़े वृक्षों से लड़ने लगे । अन्तत: वे द्वन्द्ध युद्ध करने लगे जिसके अन्त में वे एक दूसरे पर मुष्टि-प्रहार करने लगे । प्रत्येक आघात बिजली गिरने के समान प्रतीत होता था । प्रत्येक को दूसरे पर विजय प्राप्त करने की आशा थी । यह युद्ध रात- दिन कई दिनों तक निरन्तर चलता रहा । इस भाँति अट्ठाइस दिनों तक युद्ध होता रहा ।

यद्यपि जाम्बवान् उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली जीव थे, तथापि श्रीकृष्ण के घूंसों के निरन्तर प्रहार से उनके शरीर के समस्त जोड़ तथा अंग-प्रत्यंग शिथिल पड़ गए और उनकी शक्ति लगभग शून्य हो गई । जाम्बवान् का समस्त शरीर पसीने से डूब गया और वे अत्यन्त थक गए । जाम्बवान् चकित थे कि यह कौन विरोधी है, जो उन्हें बलहीन किए दे रहा है ? जाम्बवान् को अपनी अलौकिक शक्ति का आभास था, किन्तु श्रीकृष्ण के प्रहारों से जब वे श्रम का अनुभव करने लगे, तब समझ गए कि श्रीकृष्ण और कोई नहीं, अपितु उनके आराध्यदेव श्रीभगवान् ही हैं । भक्तों के लिए इस घटना का विशेष महत्त्व है । प्रारम्भ में जाम्बवान् श्रीकृष्ण को नहीं समझ सके, क्योंकि उनकी दृष्टि पर भौतिक आसक्ति रूपी आवरण था । उनकी आसक्ति अपने पुत्र तथा बहुमूल्य स्यमन्तक मणि के प्रति थी और वे यह मणि श्रीकृष्ण को नहीं देना चाहते थे । वास्तव में जब श्रीकृष्ण वहाँ आए, तब जाम्बवान् यह सोचकर कि वे मणि ले जाने आए हैं, अत्यन्त कृद्ध हो गए । यह भौतिक दशा है । कोई शरीर से अत्यन्त बलवान् हो सकता है, किन्तु इससे श्रीकृष्ण को समझने में उसे कोई सहायता नहीं मिल सकती है ।

क्रीड़ा करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण अपने भक्त के साथ युद्ध का स्वांग करना चाहते थे । जैसाकि श्रीमद्-भागवत के पृष्ठों से हमें अनुभव होता है, श्रीभगवान् में मानवोचित सभी रुचियाँ तथा प्रवृत्तियाँ हैं । कभी-कभी वे क्रीड़ा की भावना से अपनी शारीरिक शक्ति के लिए युद्ध करना चाहते हैं । जब उनकी ऐसी इच्छा होती है, तब स्वयं को यह सुख देने के लिए, वे अपने किसी योग्य भक्त का चुनाव करते हैं । श्रीकृष्ण की कामना जाम्बवान् के साथ ऐसे ही युद्ध के स्वांग का सुख प्राप्त करने की थी । यद्यपि स्वभाव से जाम्बवान् भक्त थे, किन्तु अपने शारीरिक बल के माध्यम से भगवान् की सेवा करते समय, उन्हें श्रीकृष्ण का ज्ञान नहीं था । किन्तु जैसे ही भगवान् उस युद्ध से प्रसन्न हो गए वैसे ही जाम्बवान् को तत्काल ज्ञान हो गया कि उनके विरोधी स्वयं भगवान् के अतिरिक्त और कोई नहीं है । निष्कर्ष यह निकलता है कि वे अपनी सेवा के द्वारा श्रीकृष्ण को समझ सके । कभी-कभी श्रीकृष्ण युद्ध के द्वारा भी सन्तुष्ट होते हैं । अतएव जाम्बवान् ने भगवान् से कहा, "प्रिय प्रभो ! अब मैं समझ सकता हूँ कि आप कौन हैं । आप प्रत्येक प्राणी के बल, धन, सम्पत्ति, यश, सौन्दर्य, बुद्धि और त्याग के स्रोत भगवान् श्रीविष्णु हैं ।" वेदान्त-सूत्र से भी जाम्बवान् के इस कथन की पुष्टि होती है, जिसमें भगवान् को प्रत्येक वस्तु का स्रोत घोषित किया गया है । जाम्बवान् ने श्रीकृष्ण को भगवान् श्रीविष्णु के रूप में पहचान लिया, "प्रिय भगवन् ! ब्रह्माण्ड के प्रपचों के रचयिताओं के भी रचयिता आप हैं ।" यह कथन उस सामान्य मानव के लिए अत्यन्त शिक्षाप्रद है, जो विशेष बुद्धि वाले मानव के कार्यों द्वारा चकित हो जाता है । साधारण मानव किसी महान् वैज्ञानिक के आविष्कारों को देखकर चकित हो जाता है, किन्तु जाम्बवान् का कथन इस तथ्य की पुष्टि करता है कि यद्यपि एक वैज्ञानिक अनेक अद्भुत वस्तुओं का रचयिता हो सकता है, तथापि श्रीकृष्ण उस वैज्ञानिक के भी रचयिता हैं । वे केवल एक वैज्ञानिक के ही नहीं, अपितु समस्त ब्रह्माण्ड में लाखों तथा करोड़ों वैज्ञानिकों के रचयिता हैं । जाम्बवान् ने आगे कहा, "आप न केवल सृष्टिकर्ता की सृष्टि करने वाले हैं, अपितु आप उन भौतिक तत्वों के भी सृष्टिकर्ता हैं, जिनका उपयोग तथाकथित रचयिता करते हैं ।" वैज्ञानिक भौतिक तत्वों तथा प्रकृति के नियमों का उपयोग करके कुछ अद्भुत कार्य करते हैं, किन्तु वास्तव में ये नियम तथा तत्त्व भी श्रीकृष्ण की सृष्टियाँ हैं । यही वास्तविक वैज्ञानिक ज्ञान है । अल्पबुद्धि मनुष्य यह समझने का प्रयास नहीं करते हैं कि वैज्ञानिक के मस्तिष्क की रचना किसने की । वे तो वैज्ञानिक की अद्भुत रचना अथवा आविष्कार को देखने मात्र से सन्तुष्ट हो जाते हैं । जाम्बवान् ने आगे कहा "प्रिय भगवन् ! समस्त भौतिक तत्वों को संयुक्त करने वाला काल भी आपका प्रतिनिधि है । आप ही वह परम काल हैं जिसमें समस्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि, पालन तथा अन्त में संहार होता है । न केवल काल तथा भौतिक तत्त्व अपितु सृष्टि के अंगों तथा लाभों का उपयोग करने वाले व्यक्ति भी आप के ही अंश हैं । अतएव जीव एक स्वतंत्र रचयिता नहीं है । सभी तथ्यों का उचित दृष्टिकोण से अध्ययन करने पर हम देख सकते हैं कि आप परम ईश्वर हैं तथा सबके स्वामी हैं । अतएव प्रिय भगवन् ! मैं समझ सकता हूँ कि आप वही श्रीभगवान् हैं, जिनकी मैं श्रीरामचन्द्र के रूप में उपासना करता हूँ । मेरे भगवान् श्रीरामचन्द्र समुद्र पर पुल बाँधना चाहते थे और मैंने स्वयं देखा कि किस प्रकार भगवान् के दृष्टिपात-मात्र से समुद्र विचलित हो उठा । जब समस्त समुद्र में हलचल होने लगी तब समुद्र में निवास करने वाले सभी प्राणी जैसे व्हेल, घड़ियाल तथा तिमिंगिल मछली व्याकुल हो उठे । (समुद्र में तिमिंगिल मछली व्हेल जैसे विशालकाय जलजीवों को एक बार में निगल सकती है ।) इस प्रकार समुद्र मार्ग देने को बाध्य हो गया, जिससे कि रामचन्द्र जी लंका नामक द्वीप तक जा सकें (आजकल लंका को सीलोन माना जाता है) । कन्याकुमारी से श्रीलंका तक समुद्र पर इस पुल का निर्माण आज भी सर्वविदित है । पुल के निर्माण के पश्चात् रावण की राजधानी में चारों ओर आग लगा दी गई । रावण से युद्ध करते समय आपके तीक्ष्ण बाणों के द्वारा रावण के अंगों को छिन्नभिन्न कर दिया गया और उसका सिर धरती पर गिर पड़ा । अब मैं समझ सकता हूँ कि आप और कोई नहीं, अपितु मेरे स्वामी भगवान् श्रीरामचन्द्र ही हैं । ऐसी असीम शक्ति और किसी के पास नहीं है । अन्य कोई मुझे इस प्रकार नहीं पराजित कर सकता था ।"

जाम्बवान् की स्तुति तथा कथनों से श्रीकृष्ण सन्तुष्ट हो गए । उनके शरीर की पीड़ा शान्त करने के लिए श्रीकृष्ण जाम्बवान् के समस्त शरीर पर अपने हस्तकमल फेरने लगे । तत्काल ही जाम्बवान् उस भयंकर युद्ध की थकान से मुक्त हो गए । तदनन्दर भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें राजा जाम्बवान् कह कर सम्बोधित किया, क्योंकि सिंह नहीं अपितु वे ही वास्तव में वन के राजा थे । बिना शस्त्र के केवल अपने हाथ से जाम्बवान् ने सिंह का वध किया था । श्रीकृष्ण ने जाम्बवान् को सूचित किया कि वे उनके पास स्यमन्तक मणि माँगने आए हैं, क्योंकि जब से स्यमन्तक मणि चोरी हुई है श्रीकृष्ण के नाम को अल्पबुद्धि लोग कलंक लगा रहे हैं । श्रीकृष्ण ने उन्हें स्पष्ट रूप से सूचित किया कि वे इस कलंक से मुक्ति प्राप्त करने के लिए ही यह मणि माँगने आए हैं । जाम्बवान् को सारी परिस्थिति समझ में आ गई और भगवान् को सन्तुष्ट करने के लिए उन्होंने तत्काल न केवल स्यमन्तक मणि दी, अपितु अपनी विवाह योग्य कन्या जाम्बवती को भी श्रीकृष्ण को समर्पित कर दी ।

स्यमन्तक मणि श्रीकृष्ण को गुफा में प्रदान की गई तथा वहीं पर उनका जाम्बवती से विवाह हुआ । यद्यपि श्रीकृष्ण तथा जाम्बवान् के बीच अट्ठाइस दिनों तक युद्ध चला था, किन्तु द्वारकावासियों ने बारह दिनों तक गुफा के बाहर प्रतीक्षा की । तदनन्तर उन्होंने निश्चय किया कि कुछ अप्रिय घटना घट गई है । वास्तव में क्या हुआ था, इसे वे निश्चित रूप से नहीं समझ सके और अत्यन्त दुखित तथा भ्रमित होकर वे द्वारका नगरी वापस लौट गए । यह देख कर कि नागरिक श्रीकृष्ण के बिना वापस लौट आए हैं, श्रीकृष्ण की माँ देवकी, उनके पिता वसुदेव जी तथा उनकी पटरानी रुक्मिणी जी आदि परिवार के सभी सदस्य समस्त मित्रों, सम्बन्धियों तथा महल के वासियों सहित अत्यन्त दुखी हो गए । उन्हें श्रीकृष्ण से स्वाभाविक स्नेह था, अत: उनके अप्रकट होने के कारण वे सत्राजित को अपशब्द कहने लगे । वे देवी चन्द्रभागा की उपासना करने गए और श्रीकृष्ण के वापस लौटने की प्रार्थना करने लगे । देवी द्वारका के नागरिकों की स्तुति से संतुष्ट हो गई और उन्होंने तत्काल उन्हें अपना आशीर्वाद दिया । उसी समय अपनी नवीन पत्नी जाम्बवती के साथ श्रीकृष्ण वहाँ प्रकट हुए और समस्त द्वारकावासी तथा श्रीकृष्ण के सम्बन्धी हर्षित हो उठे । द्वारकावासी इतने हर्षित थे जितना कोई किसी मृत सम्बन्धी के पुन: जीवित होने पर हर्षित होता है । द्वारकावासियों ने निष्कर्ष निकाल लिया था कि युद्ध के कारण श्रीकृष्ण किसी महान् कठिनाई में पड़ गए हैं और वे उनके वापस लौटने के प्रति लगभग निराश हो चुके थे । किन्तु जब उन्होंने देखा कि वास्तव में न केवल श्रीकृष्ण लौटे हैं, अपितु एक नई पत्नी के साथ आए हैं, तब उन्होंने तत्काल एक और उत्सव का आयोजन किया । तदनन्तर उग्रसेन जी ने समस्त महत्त्वपूर्ण एवं प्रमुख राजाओं की सभा बुलाई । उन्होंने सत्राजित को भी निमंत्रित किया और श्रीकृष्ण ने समस्त सभा के समक्ष जाम्बवान् से स्यमन्तक मणि को प्राप्त करने की घटना का वर्णन किया । श्रीकृष्ण वह बहुमूल्य मणि राजा सत्राजित को लौटा देना चाहते थे । किन्तु सत्राजित लज्जित था, क्योंकि उसने अनावश्यक रूप से श्रीकृष्ण पर कलंक लगाया था । उसने वह मणि अपने हाथ में ले ली । राजाओं तथा प्रमुखों की सभा के मध्य वह अपना सिर झुकाकर मौन रहा और मणि लेकर बिना कुछ कहे घर लौट गया । तदनन्तर वह विचार करने लगा कि श्रीकृष्ण की निन्दा करके उसने जो निन्दनीय कर्म किया था, उससे वह किस प्रकार मुक्त हो सकता है । उसे इस बात का ज्ञान था कि उसने श्रीकृष्ण के प्रति घोर अपराध किया है और उसे उस त्रुटि को सुधारने का एक ऐसा मार्ग ढूँढ़ना है, जिससे कि श्रीकृष्ण पुन: उससे प्रसन्न हो जाँए । राजा सत्राजित ने अपनी मूढ़ता से जो चिन्ता उत्पन्न कर ली थी, वह उससे मुक्ति पाने को उत्सुक था । भौतिक वस्तुओं और विशेष रूप से स्यमन्तक मणि के प्रति आकर्षण इस उत्सुकता का कारण था । श्रीकृष्ण के प्रति उसने जो अपराध किया था उससे सत्राजित वास्तव में अत्यन्त दुखी था और वह वास्तव में भूल सुधार करना चाहता था । श्रीकृष्ण ने उसे अन्दर से सदुद्धि दी और सत्राजित ने श्रीकृष्ण को स्यमन्तक मणि तथा अपनी पुत्री सत्यभामा दोनों ही देने का निश्चय किया । इस स्थिति का अन्त करने का और कोई विकल्प नहीं था, अतएव उसने अपनी सुन्दर पुत्री तथा श्रीकृष्ण के विवाह-संस्कार का प्रबन्ध किया । उसने श्रीभगवान् को मणि तथा अपनी पुत्री सत्यभामा दोनों ही दान में दी । सत्यभामा इतनी रूपवती तथा गुणवती थी कि अनेक राजाओं ने उसका हाथ माँगा था, किन्तु सत्राजित एक योग्य जामाता की प्रतीक्षा कर रहा था । श्रीकृष्ण की अनुकम्पा से उसने अपनी पुत्री उन्हें देने का निश्चय किया ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने सत्राजित से प्रसन्न होकर उसे सूचित किया कि उन्हें स्यमन्तक मणि की कोई आवश्यकता नहीं है । उन्होंने कहा, "जैसे तुमने इसे रखा था, उसी भाँति इसे मन्दिर में रहने देना ही उत्तम है । तब हममें से प्रत्येक को इस मणि का लाभ प्राप्त होगा । द्वारका नगर में मणि की उपस्थिति के कारण यहाँ दुर्भिक्ष अथवा महामारी, अत्यधिक ताप एवं शीत से होने वाले उत्पात नहीं होंगे ।"

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “स्यमन्तक मणि की कथा” नामक छप्पनवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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