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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 59: भौमासुर का उद्धार  » 
 
 
 
 
 
विभिन्न राजाओं के महलों से उनका हरण कर के किस प्रकार भौमासुर ने सोलह हजार राजकुमारियों को बन्दी बनाया था और किस प्रकार अद्भुत चरित्र वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने उसका वध किया, यह सम्पूर्ण कथा श्रीमद्-भागवत में श्रीशुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित को बताई है । साधारणतया असुर सदैव ही देवद्रोही होते हैं । अत्यधिक शक्तिशाली हो जाने पर इस असुर भौमासुर ने बलात् वरुण देव के सिंहासन का छत्र छीन लिया था । देवताओं की माता अदिति के कर्णफूल भी उसने ले लिए थे । स्वर्गलोक के मेरु पर्वत के एक भाग पर उसने विजय प्राप्त कर ली थी और मणिपर्वत नामक भूभाग पर अधिकार कर लिया था । अतएव भौमासुर के उत्पातों के विषय में श्रीकृष्ण को सूचित करने के लिए स्वर्गलोक से राजा इन्द्र द्वारका आए । स्वर्गाधिपति इन्द्र से भौमासुर के विषय में सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ तत्काल भौमासुर के निवासस्थान की ओर प्रस्थान किया । वे दोनों गरुड़ पर सवार होकर चले । गरुड़ आकाश मार्ग से उन्हें भौमासुर की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर ले गया । प्राग्ज्योतिषपुर नगर में प्रवेश करना कोई सरल कार्य नहीं था, क्योंकि इसकी भली-भाँति किलेबन्दी की गई थी । चारों दिशाओं से नगर की सुरक्षा के हेतु चार सुदृढ़ दुर्ग थे । सुदृढ़ सैन्य शक्ति के द्वारा नगर चारों ओर से सुरक्षित था । दूसरी सीमा के रूप में नगर के चारों ओर जल से भरी खाई थी । इसके साथ ही नगर चारों ओर से विद्युत् के तारों से घिरा हुआ था । अगली किलेबन्दी अनिल नामक गैसीय पदार्थ की थी । इसके उपरान्त मुर नामक असुर द्वारा निर्मित काँटेदार तारों का एक जाल था । ऐसा प्रतीत होता था कि आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति के दृष्टिकोण से भी नगर भली-भाँति रक्षित था ।

जब श्रीकृष्ण वहाँ पहुँचे, उन्होंने अपनी गदा के प्रहार से समस्त दुर्ग भंग कर दिया । श्रीकृष्ण के बाणों के सतत आक्रमण से सैन्य शक्ति इधर-उधर बिखर गई । अपने प्रसिद्ध सुदर्शन चक्र से उन्होंने विद्युतीकृत सीमा को विफल कर दिया, जल की खाई तथा गैसीय सीमा को नष्ट कर दिया और मुर द्वारा निर्मित विद्युतीकृत तारों के जाल को भी छिन्न-भिन्न कर दिया । अपने शंख की ध्वनि से उन्होंने न केवल महान् योद्धाओं के हृदय भंग किए, अपितु वहाँ के सभी युद्ध सम्बन्धी यंत्रों को भी भंग कर दिया । उसी भाँति उन्होंने अपनी अजेय गदा से नगर के चारों ओर की दीवार खण्डित कर दी । उनके शंख की ध्वनि सृष्टि के प्रलय के समय होने वाले वज्रपात की ध्वनि के समान प्रतीत होती थी । असुर मुर ने जब शंख की ध्वनि सुनी तो वह जाग गया और यह देखने के लिए स्वयं बाहर आया कि क्या हुआ है । उसके पाँच सिर थे और दीर्घ काल से वह जल में रह रहा था । मुर राक्षस इतना प्रकाशवान् था जैसे प्रलय के समय का सूर्य और उसका क्रोध प्रज्ज्वलित अग्नि के समान था । उसके शरीर की कान्ति इतनी चमकदार थी कि खुली दृष्टि से उसे देखना कठिन था । बाहर आते ही वह अपना त्रिशूल उठा कर भगवान् श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा । उसका क्रोध अत्यन्त भयंकर था और वह तीनों लोकों के भक्षण के लिए तत्पर दिखाई देता था । सर्वप्रथम उसने अपना त्रिशूल घुमा कर श्रीकृष्ण के वाहन गरुड़ पर आक्रमण किया और अपने पाँचों मुखों से वह घोर सिंहनाद करने लगा । उसके मुखों से निकलने वाली गर्जन-ध्वनि पूरे ब्रह्माण्ड में फैल गई, यहाँ तक कि वह गूंज न केवल पूर्ण विश्व, अपितु ऊपर नीचे दसों दिशाओं में और अन्तरिक्ष में भी फैल गई । इस प्रकार वह ध्वनि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में गूँज रही थी ।

भगवान् कृष्ण ने देखा कि मुर का त्रिशूल धीरे-धीरे उनके वाहन गरुड़ की ओर बढ़ रहा है । उन्होंने तत्काल अपने हस्तकौशल से दो बाण त्रिशूल की ओर फेंके जिससे कि त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े हो गए । उसी के साथ-साथ उन्होंने अनेक बाणों से असुर मुर के मुखों को भेद दिया । जब मुर ने देखा कि श्रीभगवान् ने उसके कौशल को विफल कर दिया है, तब उसने अत्यन्त क्रोध में आकर अपनी गदा से भगवान् पर प्रहार करना प्रारम्भ किया । किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने इसके पहले कि असुर की गदा उनके समीप पहुँचे अपनी गदा से मुर की गदा को छिन्न-भिन्न कर दिया । अपने अस्त्र से वंचित होकर असुर ने अपनी बलशाली बाहुओं से श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने का निश्चय किया, किन्तु श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से तत्काल ही असुर के पाँचों सिर उसके शरीर से अलग कर दिए । वह असुर उसी भाँति जल में गिर पड़ा जिस भाँति इन्द्र के वज्र के आघात के पश्चात् कोई पर्वत का शिखर सागर में गिरता है ।

मुर असुर के सात पुत्र थे जिनके नाम थे ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, वसु, नभस्वान और अरुण । अपने पिता की मुत्यु के कारण वे क्रोध से उन्मत्त हो उठे और प्रतिशोध की ज्वाला में जलने लगे । बदला लेने की भावना से वे अत्यन्त क्रोध में श्रीकृष्ण से युद्ध करने के लिए तत्पर हो गए । उन्होंने स्वयं को आवश्यक आयुधों से सज्जित किया और पीठ नामक एक अन्य असुर को युद्ध में सेनानायक की भाँति कार्य करने के लिए नियुक्त किया । भौमासुर के आदेश पर उन सबने सम्मिलित रूप से श्रीकृष्ण पर आक्रमण किया । जब वे भगवान् श्रीकृष्ण के समक्ष आए तब वे उन पर खड्ग, गदा, भाला, बाण और त्रिशूल आदि अनेक आयुधों की वर्षा करने लगे । किन्तु उन्हें ज्ञात नहीं था कि श्रीभगवान् की शक्ति असीम एवं अजेय है । अपने बाणों से श्रीकृष्ण ने भौमासुर के दैत्यों के समस्त आयुधों को छिन्न-भिन्न कर दिया । तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण के शस्त्र-प्रहार से भौमासुर का सेनापति पीठ एवं उसके सभी सहायक गिर पड़े । उनके सैनिकों के वस्त्र फट गए थे और उनके सिर, पैर, भुजाएँ और जाँघे कट कर अलग हो गई थीं । वे सभी यमराज के पास भेज दिए गए । भौमासुर का एक नाम नरकासुर भी था, क्योकि वह मूर्तिमती पृथ्वी का पुत्र था । जब उसने देखा कि युद्ध भूमि में उसके सभी सैनिकों, सेनापतियों तथा योद्धाओं का श्रीभगवान् के शस्त्रों के आघात से संहार कर दिया गया है, तब वह भगवान् पर अत्यन्त कुद्ध हुआ । तत्पश्चात् वह सागर तट पर उत्पन्न और पले हुए हाथियों की विशाल संख्या के साथ नगर के बाहर आया ।

वे सभी हाथी अत्यधिक मतवाले थे । जब वे बाहर आए तब उन्होंने देखा कि विद्युत् के प्रकाश से चमकते हुए सूर्य को घेरने वाले श्याम मेघ के समान श्रीकृष्ण और उनकी पत्नी ऊपर अन्तरिक्ष में स्थित हैं । तत्काल भौमासुर ने शतघ्नी नाम की शक्ति चलाई, जिससे वह एक ही प्रहार से सैकड़ों योद्धाओं का वध कर सकता था । उसी समय उसके सभी सहायकों ने भी अपने-अपने अस्त्र श्रीभगवान् पर चलाए । श्रीकृष्ण अपने बाणों से इन सभी आयुधों को काटने लगे । इस युद्ध का परिणाम यह हुआ कि भौमासुर के सभी सेनानायक और सैनिक भूमि पर गिर पड़े । उनके हाथ, पैर और सिर उनके शरीर से अलग हो गए थे और उनके हाथी तथा घोड़े भी उनके साथ ही गिर पड़े । इस प्रकार भौमासुर द्वारा चलाए गए सभी अस्त्र भगवान् के बाणों के द्वारा खण्ड़-खण्ड़ कर दिए गए ।

भगवान् गरुड़ की पीठ पर बैठकर युद्ध कर रहे थे । घोड़ों-हाथियों पर अपने पंखों से प्रहार करके तथा अपने तीक्ष्ण नखों व चोंच से उनके सिर पर खरोंच कर गरुड़ भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता भी कर रहे थे । गरुड़ के आक्रमण से हाथियों को अत्यधिक पीड़ा हो रही थी और वे सब युद्धभूमि से पलायन कर रहे थे । एकाकी भौमासुर ही युद्धभूमि में रह गया और वह श्रीकृष्ण से युद्ध करता रहा । उसने देखा कि श्रीकृष्ण का वाहन गरुड़ हाथियों को अत्यन्त विचलित कर रहा है, अतएव अत्यन्त क्रोध में उसने गरुड़ पर पूर्ण शक्ति से प्रहार किया । उसका यह प्रहार वज़ाघात को भी लज्जाने वाला था । सौभाग्यवश गरुड़ साधारण पक्षी नहीं था और भौमासुर का प्रहार उसे ऐसा ही प्रतीत हुआ जैसे किसी विशाल हाथी को पुष्पमाला का आघात अनुभव होता है ।

इस प्रकार भौमासुर को समझ में आने लगा कि उसका कोई भी छल श्रीकृष्ण पर काम नहीं करेगा और उसे ज्ञात हो गया कि श्रीकृष्ण का वध करने की समस्त चातुरी में उसे निराशा ही प्राप्त होगी । फिर भी उसने एक त्रिशूल लेकर अन्तिम बार श्रीकृष्ण पर प्रहार करने का प्रयास किया । श्रीकृष्ण इतने दक्ष थे कि उसका त्रिशूल उनका स्पर्श कर सके, उसके पूर्व ही उन्होंने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया । कर्णफूलों तथा मुकुट से सुशोभित उसका सिर युद्ध-भूमि पर गिर पड़ा । श्रीकृष्ण द्वारा भौमासुर के उद्धार के अवसर पर असुर के सभी सम्बन्धी निराश होकर चीत्कार करने लगे और सन्त-जन भगवान् के वीरतापूर्ण कार्यों का यशोगान करने लगे । इस अवसर का लाभ उठा कर स्वर्गलोक से देवगण भगवान् पर पुष्पवर्षा करने लगे । इस समय मूर्तिमती पृथ्वी भगवान् श्रीकृष्ण के समक्ष आई और उन्होंने वैजयन्ती रत्नों की एक माला से श्रीकृष्ण का स्वागत किया । उन्होंने रत्न और स्वर्ण से सज्जित अदिति के प्रकाशवान् कर्णफूल भी वापस लौटा दिये । उन्होंने वरुण का छत्र भी लौटा दिया । एक और बहुमूल्य रत्न उन्होंने श्रीकृष्ण को अर्पित किया । इसके पश्चात् मूर्तिमती पृथ्वी श्रेष्ठ देवताओं के उपास्य और सम्पूर्ण जगत् के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगी । उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में दण्डवत्-प्रणाम किया और अत्यन्त भक्तिभावपूर्वक कहा:

“शंख, चक्र, गदा और पद्म के चारों चिह्नों से विभूषित, समस्त देवताओं के ईश्वर आप भगवान् को मेरा सादर प्रणाम है । कृपया मेरा सादर प्रणाम स्वीकार कीजिए । प्रिय भगवन् ! आप परमात्मा हैं और अपने भक्तों की कामना सन्तुष्ट करने के हेतु आप अपने विभिन्न दिव्य अवतारों में पृथ्वी पर अवतीर्ण होते हैं । आपके समस्त अवतार भक्तों की भक्तिपूर्ण इच्छाओं के अनुकूल होते हैं । कृपया मेरा सादर प्रणाम स्वीकार कीजिए ।

"प्रिय भगवन् ! कमलपुष्प आपकी नाभि से निकलता है और आप सदैव कमलपुष्पों की माला से सुशोभित रहते हैं । आपके नेत्र सदैव कमल की पंखुड़ियों के समान फैले रहते हैं, अतएव वे दूसरों के नेत्रों को सर्व सुख प्रदान करने वाले होते हैं । आपके चरणकमल इतने मृदु और कोमल हैं कि आपके अनन्य भक्त सदैव उनकी उपासना करते रहते हैं । आपके चरणकमल आपके भक्तों के हृदयकमलों को शान्ति प्रदान करते हैं । अतएव आपको मेरा बारम्बार सादर प्रणाम है । “आप सभी प्रकार के धर्म, यश, संपत्ति, ज्ञान और वैराग्य के सागर हैं, आप षड्-ऐश्वर्यों के आश्रय हैं । यद्यपि आप सर्वव्यापी हैं, फिर भी आप श्री वसुदेव के पुत्र के रूप में प्रकट हुए हैं अतएव कृपया आप मेरा सादर प्रणाम स्वीकार कीजिए । आप आदि श्रीभगवान् हैं और समस्त कारणों के परम कारण हैं । केवल आप ही समस्त ज्ञान के सागर हैं । मेरा आपको सादर प्रणाम है । आप स्वयं अजन्मा हैं, किन्तु फिर भी आप समस्त सृष्टि के पिता हैं । आप समस्त शक्तियों के सागर तथा आश्रय हैं । आप ही इस सृष्टि को प्रकट करते हैं और आप इस सृष्टि के कारण एवं कार्य दोनों ही हैं । अतएव कृपया मेरा सादर प्रणाम स्वीकार कीजिए । "प्रिय भगवन् ! जहाँ तक तीनों देवताओं-ब्रहमा, विष्णु तथा महेश-का प्रश्न है वे भी आपसे स्वतंत्र नहीं हैं । जब इस सृष्टि के निर्माण की आवश्यकता होती है, तब आप अपने रजोगुणी आविर्भाव ब्रह्माकी रचना करते हैं । जब आप इस सृष्टि का पालन करना चाहते हैं, तब आप श्रीविष्णु के रूप में अपना विस्तार करते हैं, जो कि समस्त सतोगुण के सागर हैं । इसी भाँति आप तमोगुण के स्वामी शिव के रूप में प्रकट होते हैं और इस प्रकार समस्त सृष्टि का संहार करते हैं । इस भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों का निर्माण करने पर भी आपकी त्रिगुणातीत स्थिति बनी रहती है ।

सामान्य जीवों की भाँति आप प्रकृति के इन तीनों गुणों से कभी भी बद्ध नहीं होते हैं । "प्रिय भगवन् ! आप ही प्रकृति हैं, आप ही जगत्पिता हैं और प्रकृति और भौतिक निर्माता का संयोग करने वाले शाश्वत काल भी आप ही हैं । आप सदैव ही इन सब भौतिक कार्यकलापों से परे हैं । प्रिय प्रभो, हे भगवन् ! मुझे ज्ञात है कि पृथ्वी जल, पावक, गगन व समीर, पाँचों इन्द्रियाँ पंचों तन्मात्राएँ मन, इन्द्रियाँ और उनके अधिष्ठातृ देवता, अहंकार तथा महत् तत्त्व-सम्पूर्ण चराचर जगत्-आप पर ही निर्भर हैं । प्रत्येक वस्तु आप ही से उत्पन्न होती है, अतएव किसी भी वस्तु को आपसे पृथक् नहीं किया जा सकता है । फिर भी आपकी दिव्य स्थिति के कारण किसी भी भौतिक वस्तु का आपसे तादात्म्य नहीं स्थापित किया जा सकता है । अतएव प्रत्येक वस्तु का एक ही समय में आपसे ऐक्य भी है और वैभिन्य भी है । जो दार्शनिक प्रत्येक वस्तु को आपसे पृथक् करने का प्रयास करते हैं उनका दृष्टिकोण निश्चय ही दोषपूर्ण है ।

"प्रिय भगवन् ! यदि आपकी अनुमति हो, तो मैं आपको सूचित करूं कि यह बालक, जिसका नाम भगत्त है, मेरे पुत्र भौमासुर का पुत्र है । यह अपने पिता की मृत्यु के कारण निर्मित भयंकर परिस्थिति से अत्यन्त प्रभावित हो गया है और वर्तमान स्थिति से भयभीत होने के कारण यह अत्यन्त भ्रमित हो गया है । अतएव मैं इसे आपके चरणारविन्द की शरण में लाई हूँ । मेरी प्रार्थना है कि भगवन् ! आप इस बालक को शरण दीजिए एवं इसे अपने चरणकमलों से आशीर्वाद दीजिए । मैं उसे आपके पास लाई हूँ जिससे कि वह अपने पिता के पापों के फल से मुक्त हो सके ।" जब भगवान् श्रीकृष्ण ने पृथ्वीमाता की स्तुति सुनी, तो तत्काल उन्होंने उसे समस्त भयप्रद स्थितियों से मुक्ति का आश्वासन दिया । उन्होंने भगदत्त से कहा, "भयभीत न हो ।" तत्पश्चात् श्रीकृष्ण ने समस्त ऐश्वर्यों से युक्त भौमासुर के महल में प्रवेश किया । भौमासुर के महल में भगवान् श्रीकृष्ण ने सोलह हजार एक सौ युवती राजकुमारियों को देखा, जिनका हरण करके उसने उन्हें बन्दी बना कर रखा गया था । जब राजकुमारियों ने महल में प्रवेश करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन किए, वे तत्काल भगवान् के सौन्दर्य पर मुग्ध हो गई और उनकी अहैतुकी दया की प्रार्थना करने लगीं । बिना किसी असमंजस के उन्होंने अपने हृदय में भगवान् श्रीकृष्ण को पतिरूप में स्वीकार करने का निश्चय किया । वे सब की सब विधाता से प्रार्थना करने लगीं कि श्रीकृष्ण उनके पति हों । निष्ठापूर्वक तथा गम्भीरता से उन्होंने विशुद्ध भक्तिभाव से अपने-अपने हृदय श्रीकृष्ण के चरणकमलों में अर्पित किए । सबके हृदयवासी अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में श्रीकृष्ण उनकी निर्दोष इच्छा को समझ सकते थे और वे उन राजकुमारियों को पत्नी रूप में स्वीकार करने के लिए सहमत हो गए । इस प्रकार उन्होंने उन सबके लिए उपयुक्त वस्त्राभूषणों का प्रबन्ध किया और प्रत्येक को पालकी पर बैठा कर द्वारका भेज दिया । श्रीकृष्ण ने महल से रथों, घोड़ों, रत्नों तथा मूल्यवान वस्तुओं के साथ-साथ असीम सम्पदा भी एकत्र की । श्रीकृष्ण ने महल से चौंसठ सफेद हाथी भी लिये, उनमें से प्रत्येक के चार दाँत थे । उन सबको उन्होंने द्वारका भेज दिया ।

इस घटना के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण एवं सत्यभामा ने स्वर्ग की राजधानी अमरावती में प्रवेश किया । तत्काल ही उन्होंने राजा इन्द्र तथा उसकी पत्नी शची देवी के महल में प्रवेश किया, जहाँ शची देवी तथा इन्द्र ने उनका स्वागत किया । तत्पश्चात् श्रीकृष्ण ने अदिति के कुण्डल इन्द्र को दिए ।

जब श्रीकृष्ण तथा सत्यभामा इन्द्र की राजधानी से वापस आ रहे थे, तब सत्यभामा को स्मरण हो आया कि श्रीकृष्ण ने उन्हें पारिजात पुष्प का एक पौधा देने का वचन दिया था । स्वर्ग की राजधानी में आने के इस अवसर का लाभ उठा कर, सत्यभामा ने पारिजात का एक पौधा उखाड़ कर उसे गरुड़ की पीठ पर रख लिया । एक बार नारद जी ने एक पारिजात पुष्प ले जाकर श्रीकृष्ण की एक पटरानी रुक्मिणीदेवी को दिया था । इस कारण सत्यभामा में हीनता की भावना विकसित हो गई और वे भी श्रीकृष्ण से एक पारिजात पुष्प प्राप्त करना चाहती थीं । श्रीकृष्ण अपनी सह-पत्नियों के प्रतियोगितापूर्ण स्त्रियोचित स्वभाव को समझ सकते थे, अत: वे मुस्कराए । उन्होंने तत्काल सत्यभामा से प्रश्न किया, "तुम केवल एक पुष्प क्यों माँग रही हो ? मैं तुम्हें पारिजात पुष्पों का एक पूर्ण वृक्ष देना चाहूँगा ।" वस्तुत: श्रीकृष्ण अपनी पत्नी सत्यभामा को अपने साथ इसी प्रयोजन से ले गए थे कि वे स्वयं अपने हाथों से पारिजात ले सकेंगी । किन्तु इन्द्र सहित स्वर्ग के सभी नागरिक अत्यन्त क्रोधित हो गए । उनकी अनुमति के बिना ही सत्यभामा ने पृथ्वी लोक पर अप्राप्य पारिजात का पौधा उखाड़ लिया था । अन्य देवताओं सहित इन्द्र ने श्रीकृष्ण तथा सत्यभामा के द्वारा उस पौधे को ले जाने का विरोध किया । किन्तु अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा को प्रसन्न करने के लिए श्रीकृष्ण भी दृढ़ व कठोर बन गए, अतएव देवताओं तथा श्रीकृष्ण के मध्य युद्ध हुआ । सदा की भाँति श्रीकृष्ण विजयी हुए और अपनी पत्नी के द्वारा चुने गए पारिजात के पौधे को वे गौरव सहित पृथ्वी लोक में द्वारका ले आए । इसके पश्चात् पौधे को सत्यभामा के महल के उद्यान में लगा दिया गया । इस असामान्य वृक्ष के कारण सत्यभामा का उद्यान-भवन असामान्य रूप से सुन्दर बन गया । जब पारिजात का पौधा पृथ्वी लोक पर आया तब उसकी सुगन्ध भी आई और उसकी सुगन्ध और मधु की खोज में स्वर्ग के राजहंस भी पृथ्वी पर उतर आए ।

श्रीशुकदेव गोस्वामी जैसे महान् सन्तों ने श्रीकृष्ण के प्रति इन्द्र के व्यवहार की निन्दा की । इन्द्र की माता के कुण्डल भौमासुर ने हर लिए थे । अपनी अहैतुकी कृपा के कारण श्रीकृष्ण वे कर्णफूल इन्द्र को देने के लिए स्वर्गलोक अमरावती गए और इन्द्र उन कर्णफूलों को प्राप्त करके अत्यन्त प्रसन्न हुआ । किन्तु जब पुष्प का एक पौधा श्रीकृष्ण ने स्वर्ग लोक से ले लिया, तो इन्द्र युद्ध करने को तत्पर हो गया । यह इन्द्र का स्वार्थ था । श्रीकृष्ण के चरणकमलों में शीश झुका कर उसने स्तुति की किन्तु जैसे ही उसका प्रजोजन सिद्ध हो गया, वह बदल गया । भौतिकतावादी मानवों का व्यवहार इसी प्रकार का होता है । भौतिकतावादी मानव सदैव अपने ही लाभ में रुचि रखते हैं । इस प्रयोजन से वे किसी का भी किसी भी प्रकार से सम्मान कर सकते हैं, किन्तु जब उनका व्यक्तिगत लाभ पूर्ण हो जाता है, तब उनकी मैत्री भी समाप्त हो जाती है । ऐसा स्वार्थी स्वभाव न केवल इस लोक के सम्पन्न वर्ग के लोगों में पाया जाता है, अपितु यह इन्द्र तथा अन्य देवताओं में भी उपस्थित है । अत्यधिक सम्पत्ति मानव को स्वार्थी बना देती है । स्वार्थी मनुष्य श्रीकृष्ण भक्ति को अपनाने को तत्पर नहीं होता है और श्रीशुकदेव गोस्वामी आदि महान् भक्त उसकी निन्दा करते हैं । दूसरे शब्दों में, अत्यधिक भौतिक धन का होना कृष्णभावनामृत के मार्ग में प्रगति के लिए एक अयोग्यता है । इन्द्र को परास्त करने के पश्चात् श्रीकृष्ण ने भौमासुर के महल से मुक्त करा कर लाई गई सोलह हजार एक सौ कन्याओं के साथ विवाह का आयोजन किया । सोलह हजार रूपों में अपना विस्तार करके श्रीकृष्ण ने विभिन्न महलों में एक ही शुभ घड़ी में उन सबसे विवाह किया । इस प्रकार उन्होंने इस सत्य को स्थापित कर दिया कि अन्य कोई नहीं, अपितु केवल श्रीकृष्ण ही स्वयं भगवान् हैं । उनके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है, क्योंकि श्रीकृष्ण ही परम ईश्वर हैं, वे सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक तथा अविनाशी हैं, अतएव इस लीला में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है । श्रीकृष्ण की सोलह हजार से भी अधिक रानियों के सभी महल योग्य उपवनों, साज-सामानो और अन्य ऐसी सामग्रियों से पूर्ण थे जिनकी इस जगत् में कोई उपमा नहीं है । श्रीमद्भागवत की इस कथा में कोई अतिशयोक्ति नहीं है । श्रीकृष्ण की समस्त रानियाँ श्रीदेवी लक्ष्मी जी की अंश हैं । श्रीकृष्ण उनके साथ विभिन्न महलों में रहते थे और उनके साथ एकदम उसी भाँति व्यवहार करते थे जैसे एक सामान्य पुरुष अपनी पत्नी के साथ करता है ।

हमें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि भगवान् श्रीकृष्ण एक मानव की भाँति अभिनय कर रहे थे । यद्यपि उन्होंने सोलह हजार से भी अधिक पत्नियों से सोलह हजार से अधिक महलों में एकसाथ विवाह कर के अपने असाधारण ऐश्वर्यों का प्रदर्शन किया था, तथापि सामान्य गृह में पति-पत्नी से जिस प्रकार के सम्बन्ध की आशा की जाती है, उन्होंने उनके साथ वैसा ही सम्बन्ध दृढ़तापूर्वक निभाया, अतएव परमब्राह्म भगवान् श्रीकृष्ण के लक्षणों को समझना अत्यन्त कठिन है । ब्रह्मा जैसे देवता तथा अन्य देवता भी भगवान् की दिव्य लीलाओं को समझने में असमर्थ रहते हैं । श्रीकृष्ण की पत्नियाँ इतनी सौभाग्यशालिनी थीं कि उन्हें पति रूप में श्रीभगवान् प्राप्त हुए । उनके पति का चरित्र ब्रह्मा जैसे देवताओं को भी अज्ञात था । पति-पत्नी के रूप में व्यवहार करते हुए श्रीकृष्ण और उनकी रानियाँ परस्पर मुस्कराते थे, वार्तालाप करते थे, विनोद और आलिंगन करते थे । उनका दाम्पत्य सम्बन्ध दिनोदिन विकसित होता रहा । इस प्रकार श्रीकृष्ण तथा उनकी रानियों ने अपने गृहस्थ जीवन में दिव्य आनन्द का आस्वादन किया । यद्यपि प्रत्येक रानी की सेवा के लिए हजारों दासियाँ नियुक्त थीं, तथापि वे सभी श्रीकृष्ण की सेवा स्वयं करती थीं । श्रीकृष्ण के महल में प्रवेश करते समय प्रत्येक रानी स्वयं उनका स्वागत करती थी । वे श्रीकृष्ण को उत्तम आसन पर आसीन करने, उन्हें सर्वप्रकार की उपासना की सामग्री अर्पित करने, गंगाजल से उनके चरणकमल धोने, उन्हें पान देने तथा उनके चरण दबाने में संलग्न हो जाती थीं । इस प्रकार वे घर से दूर रहने की उनकी थकान दूर करती थीं । वे भलीभाँति उन्हें पंखा झलती थीं, सुगन्धित पुष्पों का तेल अर्पित करती थीं और पुष्पमालाओं से उनकी सज्जा करती थीं । वे श्रीकृष्ण के केश संवारती थीं, उनको विश्राम करातीं, स्वयं उनको स्नान करातीं और उन्हें स्वादिष्ट भोजन कराती थीं । ये सारे कार्य रानियाँ स्वयं करती थी । वे दासियों की प्रतीक्षा नहीं करती थीं । दूसरे शब्दों में, श्रीकृष्ण और उनकी विभिन्न रानियों ने पृथ्वी पर आदर्श गृहस्थ-जीवन का प्रदर्शन किया ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “भौमासुर का उद्धार” नामक उनसठवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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