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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 62: उषा एवं अनिरुद्ध का मिलाप  » 
 
 
 
 
 
अनिरुद्ध और उषा का मिलाप अत्यन्त रहस्यमय व रोचक है, क्योंकि इसके कारण भगवान् श्रीकृष्ण और शिवजी के मध्य भयंकर युद्ध हुआ । महाराज परीक्षित श्रीशकुदेव गोस्वामी से यह समस्त कथा सुनने को उत्सुक थे अत: शुकदेव जी ने इस प्रकार कथा कही-"प्रिय राजन् ! तुमने राजा बलि का नाम सुना होगा । वे एक महान् भक्त थे जिन्होंने श्री विष्णु के ब्राह्मण रूप में अवतरित भगवान् वामन को अपना सर्वस्व अर्थात् समस्त जगत् दान में दे दिया । राजा बलि के एक सौ पुत्र थे और उनमें सबसे बड़ा बाणासुर था ।"

यह महान् शूरवीर बाणासुर महाराज बलि का पुत्र था और शिवजी का एक महान् भक्त था । वह शिवजी की सेवा करने के लिए सदैव तत्पर रहता था । अपनी भक्ति के कारण उसे समाज में उच्च पद प्राप्त हुआ और प्रत्येक दृष्टि से उसको सम्मान प्राप्त था । वास्तव में वह अत्यन्त बुद्धिमान तथा उदार भी था । उसके समस्त कार्यकलाप प्रशंसनीय थे, क्योंकि वह भी अपने वचन तथा प्रण से विचलित नहीं होता था । वह अत्यन्त सत्यवादी तथा अपने प्रण का पक्का था । उन दिनों वह शोणितपुर नगर पर राज्य कर रहा था । भगवान् शिव की कृपा से बाणासुर के एक हजार हाथ थे और वह इतना बलशाली हो गया कि राजा इन्द्र के समान देवता भी उसके आज्ञाकारी दास की भाँति उसकी सेवा करते थे ।

बहुत काल पूर्व जब शिवजी अपना प्रसिद्ध ताण्डव-नृत्य कर रहे थे, जिसके लिए वे नटराज के नाम से विख्यात हैं, तब बाणासुर ने अपने एक हजार हाथों से लयपूर्वक नगाड़े बजा कर शिवजी की उनके नृत्य में सहायता की थी । भगवान् शिव अति शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं, अतएव वे आशुतोष नाम से प्रसिद्ध हैं । वे अपने भक्तों पर अत्यन्त स्नेह भी रखते हैं । वे अपनी शरण में आने वाले की रक्षा करते हैं और इस भौतिक जगत् में वे समस्त जीवों के स्वामी हैं । बाणासुर से प्रसन्न होकर उन्होंने कहा, "मैं तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ, अतएव तुम्हें जिस वस्तु की इच्छा हो, तुम मुझसे माँग सकते हो ।" बाणासुर ने उत्तर दिया, "प्रिय भगवन् ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो आप शत्रुओं से मेरी रक्षा करने के हेतु मेरे नगर में निवास कीजिए ।"

एक बार बाणासुर शिवजी को प्रणाम करने आया । सूर्यमण्डल के समान चमकते हुए अपने शिरस्त्राण से शिवजी के चरणकमलों का स्पर्श करके उसने उन्हें प्रणाम किया । उनकी सादर वन्दना करते हुए बाणासुर ने कहा, "प्रिय भगवान् ! जिस व्यक्ति की आकांक्षा अपूर्ण हो वह आपके चरणकमलों का आश्रय ले कर अपनी इच्छा पूर्ण कर सकता है, क्योंकि आपके चरण कल्पतरु की भाँति हैं । उनसे व्यक्ति अपनी वांछित वस्तु प्राप्त कर सकता है । प्रिय भगवान् ! आपने मुझे एक हजार भुजाएँ दी हैं, किन्तु मुझे समझ में नहीं आता है कि मैं उनसे क्या करूं । कृपया मुझे क्षमा कीजिए, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि मैं युद्ध में उनका उचित उपयोग नहीं कर सकता हूँ । आप भौतिक जगत् के आदि पिता हैं, आपके अतिरिक्त मुझे अपने से युद्ध करने में सक्षम कोई और दिखाई नहीं देता है । कभी-कभी मुझे अपनी भुजाओं से युद्ध करने की अति इच्छा होती है और जब मैं कोई योग्य योद्धा ढूँढने जाता हूँ तो, दुर्भाग्यवश, मेरी असामान्य शक्ति से परिचित होने के कारण सब लोग पलायन कर जाते हैं । कोई योग्य प्रतिद्वन्दी न मिलने से व्यग्र हो कर अपने हाथों की खुजली दूर करने के लिए मैं उन्हें पर्वतों पर पटकता हूँ । इस रीति से मैं अनेक विशाल पर्वतों को छिन्न-भिन्न कर देता हूँ ।"

भगवान् शिव समझ गए कि उनका वरदान बाणासुर के लिए दुःखदायी हो गया है, अतएव उन्होंने कहा, "अरे दुष्ट ! तुम युद्ध करने को अत्यन्त उत्सुक हो और तुम्हें कोई युद्ध करने वाला नहीं मिलता है, अतएव तुम दुखी हो । यद्यपि तुम सोचते हो कि मेरे अतिरिक्त इस जगत् में और कोई तुमसे युद्ध नहीं कर सकता है, किन्तु मेरा कथन है कि अन्तत: तुम्हें अपने साथ युद्ध करने के लिए समर्थ व्यक्ति प्राप्त होगा । उस समय तुम्हारे दिन समाप्त हो जाएँगे और तुम्हारी विजय-पताका फिर नहीं फहराएगी । तब तुम देखोगे कि तुम्हारी मिथ्या प्रतिष्ठा धूलि में मिल जाएगी ।"

भगवान् शिव के इन वचनों को सुनकर बाणासुर अपनी शक्ति के मद से फूल गया । वह अत्यन्त प्रसन्न था कि उसे कोई ऐसा व्यक्ति मिलेगा, जो उसको छिन्न-भिन्न करने में समर्थ होगा । तदुपरान्त बाणासुर अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक घर लौट गया और सदैव उस दिन की प्रतीक्षा करता रहा, जब एक योग्य योद्धा आ कर उसके बल को चूर-चूर कर डालेगा । वह बहुत ही मूर्ख असुर था । ऐसा प्रतीत होता है कि जब ऐसे मूर्ख आसुरी मानवों के पास भौतिक ऐश्वर्यों का बाहुल्य हो जाता है, तब वे इन ऐश्वर्यों का प्रदर्शन करना चाहते हैं और ऐसे मूर्ख व्यक्तियों को इन ऐश्वर्यों की समाप्ति पर सन्तोष का अनुभव होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि कृष्णभावनामृत के लाभों से अनजान होने के कारण वे यह नहीं जानते हैं कि अपनी शक्ति को उचित उद्देश्य के लिए किस प्रकार व्यय किया जाए । यथार्थ में मनुष्यों के दो वर्ग होते हैं-एक वह जो कृष्णभावनाभावित है और दूसरा वह जो कृष्णभावनाभावित नहीं है । जो कृष्णभावनाभावित नहीं हैं, वे व्यक्ति सामान्यतया देव-भक्त होते हैं, जबकि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति श्रीभगवान् के भक्त होते हैं । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति प्रत्येक वस्तु का उपयोग भगवान् की सेवा के लिए करते हैं । जो व्यक्ति कृष्णभावनाभावित नहीं हैं, वे प्रत्येक वस्तु का उपयोग इन्द्रियतृप्ति के हेतु करते हैं और बाणासुर ऐसे व्यक्ति का एक आदर्श उदाहरण था । अपनी सन्तुष्टि के लिए वह युद्ध करने की अपनी असाधारण शक्ति का उपयोग करने के लिए अत्यधिक उत्सुक था । कोई प्रतिद्वंद्वी न मिलने पर वह अपने बलशाली हाथों से पत्थरों पर प्रहार करता था और उनके टुकड़े-टुकड़े कर डालता था । इसके विपरीत अर्जुन के पास भी युद्ध की असाधारण शक्तियाँ थीं । किन्तु वे उनका उपयोग केवल श्रीकृष्ण के लिए करते थे ।

बाणासुर की एक अतीव सुन्दरी कन्या थी जिसका नाम उषा था । अब उसकी अवस्था विवाह योग्य हो गई थी और एक रात्रि जब वह अपनी सखियों के मध्य शयन कर रही थी, तब उसने स्वप्न में देखा कि श्री अनिरुद्ध उसके समीप थे और वह उनके साथ दाम्पत्य सम्बन्ध का उपभोग कर रही थी । इसके पूर्व उषा ने न तो कभी श्री अनिरुद्ध को देखा था, न ही उनके विषय में सुना था । वह उच्च स्वर में पुकारती हुई स्वप्न से जाग गई, "हे प्रिय ! तुम कहाँ हो ?" अपनी सखियों के समक्ष इस प्रकार बात खुल जाने से वह किंचित लज्जा गई । उषा की सखियों में से एक का नाम चित्रलेखा था, वह बाणासुर के प्रधान मंत्री की पुत्री थी । चित्रलेखा व उषा धनिष्ठ सखियाँ थीं । चित्रलेखा ने अत्यधिक जिज्ञासावश प्रश्न किया, "हे सुन्दरी राजकन्या ! अभी तक तुम्हारा किसी किशोर से विवाह नहीं हुआ है, न ही तुमने अभी तक किसी किशोर के दर्शन किए हैं, अतएव तुम्हें इस प्रकार पुकारते देख कर मुझे आश्चर्य हो रहा है । तुम किसे ढूँढ रही हो ? तुम्हारा विवाह-योग्य साथी कौन है?” चित्रलेखा के प्रश्नों को सुन कर उषा ने उत्तर दिया, "प्रिय सखी ! मैंने स्वप्न में एक श्रेष्ठ युवक को देखा जो अतिशय सुन्दर है । उसका वर्ण श्यामल है, उसके नेत्र कमलदल के समान हैं और उसने पीत वस्त्र धारण किए हैं । उसकी भुजाएँ प्रलम्ब हैं और उसके सामान्य शारीरिक लक्षण इतने मुदित करने वाले हैं कि कोई भी किशोरी उसकी ओर आकर्षित हो जाएगी । यह कहते हुए मुझे अत्यन्त अभिमान हो रहा है कि यह सुन्दर युवक मेरा चुम्बन ले रहा था और उसके चुम्बन का मधुपान करने में मुझे अत्यन्त आनन्द का अनुभव हो रहा था । तुम्हें यह सूचित करते हुए मुझे अत्यन्त दुःख हो रहा है कि इसके तत्काल बाद वह तिरोहित हो गया और मुझे निराशा के भँवर में डुबो गया है । प्रिय सखी ! अपने हृदय के वांछित स्वामी, इस अद्भुत युवक को प्राप्त करने के लिए मैं अत्यन्त अधीर हूँ ।"

उषा के वचनों को सुन कर चित्रलेखा ने तत्काल उत्तर दिया, "मैं तुम्हारे वियोग के दुःख को समझ सकती हूँ । मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ कि यदि यह युवक उच्च, मध्य व निम्न तीनों लोकों में कहीं भी है, तब मैं तुम्हारी सन्तुष्टि के लिए उसे अवश्य ही ढूँढ लाऊँगी । यदि तुम अपने स्वप्न के उस युवक को पहचान लोगी, तो मैं अवश्य ही तुम्हारी मानसिक शान्ति ले आऊँगी । अब मैं तुम्हारे सम्मुख कुछ चित्र बनाती हूँ । तुम उन्हें देखो और जैसे ही तुम्हें तुम्हारे वांछित पति का चित्र दिखे, तुम मुझे बता देना । वह कहाँ है इससे कोई भेद नहीं पड़ता है । मुझे उसको यहाँ लाने की कला ज्ञात है । अतएव जैसे ही तुम उसे पहचान लोगी, मैं तत्काल उसे यहाँ लाने का प्रबन्ध कर दूँगी ।" इस प्रकार वार्तालाप करते हुए चित्रलेखा ने स्वर्गलोक में निवास करने वाले देवताओं के चित्र बनाने प्रारम्भ कर दिए । तदनन्तर उसने गन्धवों, सिद्धों, चारणों, पन्नगों, दैत्यों, विद्याधरों, यक्षों और मानवों के भी चित्र बनाए । (श्रीमद्भागवत तथा अन्य वैदिक साहित्य के कथनों से यह निश्चित रूप से सिद्ध हो जाता है कि प्रत्येक ग्रह पर विभिन्न प्रकार के जीव निवास करते हैं । अतएव यह कहना मूर्खता है कि पृथ्वी पर रहने वाले जीवों के अतिरिक्त और कोई जीव नहीं हैं ।) चित्रलेखा ने कई चित्र बनाए । मानवों के चित्रों में वृष्णि वंश के चित्र भी थे । उसमें श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव जी, पितामह शूरसेन जी, श्रीबलराम जी, भगवान् श्रीकृष्ण तथा अन्य अनेक व्यक्तियों के चित्र थे । जब उषा ने प्रद्युम्न का चित्र देखा, तो वह किंचित् लज्जा गई किन्तु जब उसने अनिरुद्ध का चित्र देखा, तो वह इतनी लज्जा गई कि उसने तत्काल अपना सिर झुका लिया और मुस्कुराने लगी । जिसे वह ढूँढ रही थी वह पुरुष उसे प्राप्त हो गया था । उसने अनिरुद्ध का चित्र पहचान कर चित्रलेखा को बताया कि उसका हृदय चुराने वाला पुरुष वही है ।

चित्रलेखा एक महान् योगिनी थी । यद्यपि उसने तथा उषा ने न तो कभी अनिरुद्ध को देखा था, न उनका नाम ही सुना था तथापि जैसे ही उषा ने चित्र को पहचाना, चित्रलेखा तत्काल ही समझ गई कि वह चित्र श्रीकृष्ण के एक पौत्र अनिरुद्ध का है । उसी रात्रि में अन्तरिक्ष मार्ग से यात्रा करके वह अल्पकाल में ही श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित द्वारका नगरी में पहुँच गई । उसने महल में प्रवेश किया और अनिरुद्ध को अपने शयन-कक्ष में एक भव्य शैया पर सोते हुए देखा । अपनी योगमाया से चित्रलेखा सोते हुए अनिरुद्ध को तत्काल शोणितपुर नगर में ले आई, जिससे कि उषा अपने वांछित पति का दर्शन कर सके । उषा तत्काल प्रसन्नता से खिल गई और अत्यन्त सन्तोषपूर्वक अनिरुद्ध के संग का आनन्द उठाने लगी । जिस महल में उषा तथा चित्रलेखा निवास करती थीं वह इतनी भलीभाँति सुरक्षित था कि किसी भी पुरुष के लिए उसमें प्रवेश करना अथवा उसके अन्दर देख पाना असम्भव था । उषा तथा अनिरुद्ध महल में साथ-साथ निवास करते थे । दिन प्रति-दिन अनिरुद्ध के प्रति उषा का प्रेम बढ़ने लगा । उषा ने अपने मूल्यवान वस्त्रों, पुष्पों, मालाओं, सुगन्धों तथा धूप आदि से अनिरुद्ध को प्रसन्न कर दिया । उनकी शैया के समीप के आसन के निकट खान-पान के प्रयोजन की अन्य सामग्रियाँ भी थीं जैसे दूध और शरबत आदि उत्तम पेय तथा चबाने अथवा निगलने योग्य उत्तम खाद्य पदार्थ । सबसे बढ़कर उषा ने अनिरुद्ध को अपने मधुर वचनों और सेवा से प्रसन्न कर दिया । उषा अनिरुद्ध की इस तरह उपासना करती थी जैसे वे श्रीभगवान् हों । उषा की अत्युतम सेवा से प्रसन्न होकर अनिरुद्ध सब कुछ भूल गए । इस प्रकार उषा अपने अनन्य प्रेम व ध्यान से अनिरुद्ध को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हुई । इस प्रेम और सेवामय वातावरण में अनिरुद्ध स्वयं को भी लगभग भूल गए और उन्हें यह भी स्मृति न रही कि वे कितने दिनों से अपने वास्तविक गृह से दूर हैं ।

कुछ समय पश्चात् उषा में कुछ ऐसे शारीरिक लक्षण दिखाई दिए जिनसे संकेत मिलता था कि वह किसी पुरुष मित्र के साथ समागम कर रही थी । वे लक्षण इतने स्पष्ट थे कि उसकी गतिविधियाँ किसी से भी गुप्त नहीं रखी जा सकती थीं । अनिरुद्ध के संग उषा सदैव ही प्रसन्न रहती थी उसके सन्तोष की सीमा न थी । नौकर और महल के द्वारपाल सरलता से अनुमान लगा सकते थे कि उसका किसी पुरुष से सम्बन्ध है तथा अधिक की प्रतीक्षा न करके, तत्काल उन सबने अपने स्वामी बाणासुर को जानकारी दी । वैदिक सभ्यता में किसी अविवाहिता कन्या का किसी पुरुष से सम्बन्ध रखना कन्या के परिवार के लिए महान् कलंक होता है । अतएव महल की देखभाल करने वाले व्यक्ति ने सावधानीवश अपने स्वामी को सूचित किया कि उषा में एक कलंकपूर्ण सम्बन्ध का संकेत देने वाले लक्षण विकसित हो रहे हैं । सेवकों ने अपने स्वामी को सूचित किया कि वे महल की रक्षा में तनिक भी असावधानी नहीं कर रहे हैं, वे रात दिन चौकस रहते हैं कि कोई युवक महल में प्रवेश न कर सके । वे इतने सावधान थे कि कोई पुरुष यह देख भी नहीं सकता था कि महल में क्या हो रहा है, अत: वे चकित थे कि उषा किस प्रकार दूषित हो गई । वे इस स्थिति का कारण नहीं ढूँढ सके, अतएव उन्होंने सम्पूर्ण स्थिति अपने स्वामी के समक्ष प्रस्तुत कर दी ।

यह जानकर बाणासुर को आघात लगा कि उसकी कन्या उषा अब कुमारी नहीं रही । यह बात उसके हृदय पर भार बन गई और वह अविलम्बन उस महल की ओर दौड़ा जिसमें उषा निवास करती थी । वहाँ उसने देखा कि उषा तथा अनिरुद्ध साथ बैठ कर वार्तालाप कर रहे थे । साक्षात् कामदेव प्रद्युम्न के पुत्र होने के कारण अनिरुद्ध तथा उषा साथ-साथ बैठे अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होते थे । बाणासुर ने भी देखा कि अनिरुद्ध तथा उसकी पुत्री उषा की जोड़ी अत्यन्त उपयुक्त है, फिर भी अपने परिवार की प्रतिष्ठा के लिए यह संयोग तनिक भी रुचिकर नहीं लगा । बाणासुर यह नहीं समझ सका कि वास्तव में वह युवक कौन था ? वह यह तथ्य समझ सकता था कि उषा तीनों लोकों में उस युवक से अधिक सुन्दर अन्य किसी व्यक्ति का चुनाव नहीं कर सकती थी ।

अनिरुद्ध का वर्ण श्यामल व प्रभापूर्ण था । उन्होंने पीत वस्त्र धारण किए थे और उनके नयन कमलदल के समान थे । उनकी भुजाएँ अतिशय लम्बी थीं और उनके केश काले और कुंचित थे । उनके प्रकाशवान् कुण्डलों की प्रकाशित किरणें और उनके अधरों की सुन्दर मुस्कान निश्चय ही अत्यन्त मोहक थीं । फिर भी बाणासुर अत्यन्त क्रोधित था ।

जब बाणासुर ने उनको देखा, तब अनिरुद्ध उषा के साथ क्रीड़ा करने में संलग्न था । अनिरुद्ध ने उत्तम वस्त्र धारण किए थे और उषा ने उसे विभिन्न सुन्दर पुष्पमालाएँ पहनाई थीं । स्त्रियों के स्तनों पर लगाया जाने वाला कुमकुम स्थान-स्थान पर माला पर लगा हुआ था । इससे संकेत मिलता था कि उषा ने उसका आलिंगन किया था । बाणासुर को आश्चर्य हुआ कि उसकी उपस्थिति में भी अनिरुद्ध शांतिपूर्वक उषा के सम्मुख बैठा था । अनिरुद्ध को ज्ञात था कि उसके भावी श्वसुर प्रसन्न नहीं हैं और वे उस पर आक्रमण के हेतु महल में अनेक सैनिकों को एकत्र कर रहे हैं ।

इस प्रकार अन्य कोई अस्त्र न प्राप्त होने पर अनिरुद्ध ने एक बड़ी सी लौह शलाका ले ली और बाणासुर तथा उसके सैनिकों के सम्मुख खड़े हो गए । वे दृढ़तापूर्वक ऐसी मुद्रा में खड़े हो गए जिससे संकेत मिलता था कि यदि उन पर आक्रमण होगा, तो वे लौह शलाका से समस्त सैनिकों को धाराशायी कर देंगे । बाणासुर तथा उसके सैनिकों ने देखा कि अपने अजेय दण्ड के साथ साक्षात् यमराज की भाँति वह युवक उनके सम्मुख खड़ा है । अब बाणासुर के आदेश पर सभी दिशाओं से सैनिकों ने उन्हें पकड़ने व बन्दी बनाने का प्रयास किया । जब वे सैनिक साहस करके अनिरुद्ध के सामने आए, तो अनिरुद्ध ने उनपर शलाका से प्रहार किया और उनके सिर, पैर, हाथ व जंघाएँ तोड़ डालीं । एक के पश्चात् एक सैनिक भूमि पर गिरने लगा । अनिरुद्ध ने उनका उसी प्रकार वध कर दिया जैसे बाजों के दल का नेता भौंकने वाले कुत्तों को एक-एक कर के मार डालता है । इस रीति से अनिरुद्ध महल से बच निकलने में सफल हो गए । बाणासुर को विभिन्न युद्ध कलाएँ ज्ञात थीं और शिवजी की कृपा से उसे नाग-पाश के द्वारा शत्रु को बन्दी बनाने की क्रिया भी ज्ञात थी । अतएव महल से बाहर आते समय अनिरुद्ध को बन्दी बना लिया गया । जब उषा को यह समाचार प्राप्त हुआ कि उसके पिता ने अनिरुद्ध को बन्दी बना लिया है, तब वह शोक और किंकर्तव्यविमूढ़ता से व्याकुल हो गई । उसके नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होने लगे और स्वयं को रोकने में असफल हो कर वह अत्यन्त उच्च स्वर से क्रन्दन करने लगी ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “उषा एवं अनिरुद्ध का मिलाप” नामक बासठवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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