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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 63: भगवान् श्रीकृष्ण का बाणासुर से संग्राम  » 
 
 
 
 
 
जब वर्षाऋतु के चातुर्मास व्यतीत हो गए और फिर भी अनिरुद्ध घर नहीं लौटे, तो यदु परिवार के समस्त सदस्य अत्यन्त व्यग्र हो उठे । उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि अनिरुद्ध किस प्रकार अब तक अनुपस्थित थे । सौभाग्यवश एक दिन देवर्षि नारद ने आकर यदु परिवार को अनिरुद्ध के महल से अन्तर्धान होने के विषय में जानकारी दी । उन्होंने यह स्पष्ट किया कि किस प्रकार अनिरुद्ध का हरण करके बाणासुर की राजधानी शोणितपुर ले जाया गया था तथा किस प्रकार अनिरुद्ध के द्वारा बाणासुर के सैनिकों के परास्त हो जाने पर बाणासुर ने उन्हें नागपाश के द्वारा बन्दी बना लिया था । देवर्षि नारद ने यह समाचार पूर्ण विवरण सहित सुनाया और समस्त कथा उनके सम्मुख स्पष्ट रूप से कही । तदुपरान्त श्रीकृष्ण से अत्यन्त स्नेह रखने वाले यदुवंश के समस्त सदस्य शोणितपुर नगर पर आक्रमण करने को तत्पर हो गए । श्रीप्रद्युम्न, श्रीसात्यकि, श्रीगद, श्रीसाम्ब, श्रीसारण, श्रीनन्द, श्रीउपनन्द और श्रीभद्र सहित परिवार के लगभग सभी नेता संयुक्त हो गए और उन्होंने व्यूह रचना करके अठारह अक्षौहिणी सेना एकत्र की । तदनन्तर वे सब शोणितपुर गए और नगर को चारों ओर से सैनिकों, हाथियों, घोड़ों और रथों से घेर लिया । जब बाणासुर ने सुना कि विभिन्न परकोटों, द्वारों तथा समीपस्थ उद्यानों को छिन्न-भिन्न करते हुए यदुवंश के सैनिक समस्त नगर पर आक्रमण कर रहे हैं तब अत्यन्त क्रुद्ध हो कर उसने यदु सैनिकों के समान ही बलशाली अपने सैनिकों को उनका सामना करने का आदेश दिया । शिवजी बाणासुर पर इतने कृपालु थे कि अपने शूरवीर पुत्रों कार्तिकेय तथा गणपति सहित स्वयं उसकी सेना के सेनापति के रूप में आए । अपने प्रिय बैल नन्दीश्वर पर आसीन हो कर शिवजी ने भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलराम जी के विरुद्ध युद्ध का नेतृत्व किया । हम कल्पना कर सकते है कि वह युद्ध कितना भयंकर रहा होगा जिसमें एक ओर अपने वीर पुत्रों सहित शिवजी थे तथा दूसरी ओर भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके ज्येष्ठ भ्राता श्रीबलराम थे । वह युद्ध इतना भयंकर था कि उसे देखने वाले आश्चर्यचकित रह गए और उन्हें रोमांच हो आया । शिवजी श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष युद्ध कर रहे थे तथा प्रद्युम्न कार्तिकेय के साथ युद्ध में संलग्न थे । भगवान् श्रीबलराम बाणासुर के सेनापति कुम्भाण्ड के साथ युद्ध में संलग्न थे और कूपकर्ण कुम्भाण्ड की सहायता कर रहा था । श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब बाणासुर के पुत्र के साथ युद्ध में संलग्न थे एवं स्वयं बाणासुर यदुवंश के सेनापति सात्यकि के साथ युद्ध में संलग्न था । इस प्रकार यह युद्ध हो रहा था ।

इस युद्ध का समाचार समस्त ब्रह्माण्ड में प्रसारित हो गया । ब्रह्माजी जैसे स्वर्गलोक के देवता, महान्, ऋषि-मुनि, सिद्ध, चारण व गन्धर्व-सभी भगवान् श्रीकृष्ण तथा शिवजी एवं उनके सहायकों के मध्य युद्ध देखने को उत्सुक थे । कौतूहल से परिपूर्ण वे सब अपने-अपने वायुयानों में युद्धभूमि के ऊपर मंड़रा रहे थे । अनेक प्रकार के प्रबल भूत-पिशाच तथा नरक के निवासी, जैसे भूत, प्रेत, प्रमथ, सेवा करते हैं, इस कारण शिवजी को भूतनाथ कहा जाता है । (सभी प्रकार के भूतों में, ब्राह्मराक्षस अत्यन्त शक्तिशाली होते हैं । वे ब्राह्मण, जो भूत बन जाते हैं, ब्राह्मराक्षस कहलाते हैं ।)

भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने प्रसिद्ध धनुष, शाङ्र्गधनुष, के प्रहार से इन सब भूतों को युद्धभूमि से भगा दिया । तब शिवजी अपने समस्त चुने हुए अस्त्र-शस्त्रों से श्रीभगवान् पर प्रहार करने लगे । भगवान् श्रीकृष्ण ने बिना किसी कठिनाई के इन सभी अस्त्रों को अपने अस्त्रों से काट दिया । परमाणु बम के समान ब्रहमास्त्र को श्रीकृष्ण ने अन्य ब्रहमास्त्र से काट दिया और वायु अस्त्र को पर्वतास्त्र से काट दिया । जब शिवजी ने अंधड़ लाने वाला अस्त्र चलाया, तो भगवान् श्रीकृष्ण ने उसके विपरीत पर्वतास्त्र चलाया जिसने आँधी को तत्काल रोक दिया । उसी तरह जब शिवजी ने प्रलयंकारी अग्नि अस्त्र चलाया, तो श्रीकृष्ण ने उसे घनघोर वर्षा से काट दिया ।

अन्त में जब शिवजी ने पाशुपत-अस्त्र नामक अपना व्यक्तिगत अस्त्र चलाया तब श्रीकृष्ण ने तत्काल उसे नारायण-अस्त्र से काट दिया । तब भगवान् श्रीकृष्ण से युद्ध करने में शिवजी अत्यन्त उत्तेजित हो उठे । श्रीकृष्ण ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए जम्भाई का अस्त्र चलाया । इस अस्त्र के चलाने पर शत्रु पक्ष भ्रमित हो जाता है, युद्ध बन्द कर देता है और जम्भाई लेने लगता है । इस अस्त्र के परिणामस्वरूप शिवजी इतने थकित हो गए कि उन्होंने युद्ध करना अस्वीकार कर दिया और वे जम्भाई लेने लगे । अब श्रीकृष्ण को शिवजी के आक्रमण से हटाकर अपना ध्यान बाणासुर के प्रयास पर केन्द्रित करने का अवसर प्राप्त हुआ । वे बाणासुर के सैनिकों का कटार और गदा से वध करने लगे । इसी मध्य भगवान् श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न देवताओं के सेनापति कार्तिकेय से घोर युद्ध कर रहे थे । कार्तिकेय घायल थे और उनके शरीर से रक्तधारा प्रवाहित हो रही थी । इस दशा में और अधिक युद्ध न करके कार्तिकेय अपने वाहन मयूर पर सवार होकर युद्धभूमि से चले गए । इसी तरह भगवान् श्रीबलराम बाणासुर के सेनापति कुम्भाण्ड पर अपनी गदा का प्रहार करके उसे त्रस्त कर रहे थे । कूपकर्ण भी घायल था और कुम्भाण्ड तथा वह दोनों रणभूमि में गिर पड़े । सेनापति कुम्भाण्ड बुरी तरह से घायल था । मार्गदर्शन न मिलने के कारण बाणासुर के सैनिक इधर-उधर तितर-बितर हो गए । जब बाणासुर ने देखा कि उसके सैनिक तथा सेनापति परास्त हो गए हैं, तो उसका क्रोध और बढ़ गया, उसने श्रीकृष्ण के सेनापति सात्यकि से युद्ध रोक देना बुद्धिमत्ता समझी और इसके स्थान पर उसने प्रत्यक्ष रूप से भगवान् श्रीकृष्ण पर आक्रमण कर दिया । अब बाणासुर को अपने एक हजार हाथों का उपयोग करने का अवसर प्राप्त हुआ था । एकसाथ पाँच सौ धनुषों तथा दो हजार बाणों का प्रयोग करते हुए वह श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा । श्रीकृष्ण ने तत्काल बिना किसी कठिनाई के बाणासुर के प्रत्येक धनुष के दो-दो टुकड़े कर दिए और उसे आगे बढ़ने से रोकने के लिए उसके रथ के घोड़ों को धराशायी कर दिया । तत्पश्चात् रथ खण्ड़-खण्ड़ हो गया । ऐसा करने के पश्चात् श्रीकृष्ण ने अपना पांचजन्य शंख बजाया । बाणासुर कोटरा नामक एक देवी की उपासना करता था और उससे उसका माता तथा पुत्र की भाँति सम्बन्ध था । माता कोटरा बाणासुर के प्राणों पर संकट देख कर विचलित हो गई, अतएव वह वहाँ प्रकट हुई । वह बिखरे हुए बालों तथा निर्वस्त्र देह में श्रीकृष्ण के सम्मुख खड़ी हुई । इस निर्वस्त्र स्त्री को देखना श्रीकृष्ण को रुचिकर नहीं लगा, अतएव उसे देखने से बचने के लिए श्रीकृष्ण ने मुख घुमा लिया । श्रीकृष्ण के आक्रमण से बचने का यह अवसर प्राप्त होने पर बाणासुर रणभूभि से पलायन कर गया । उसके धनुषों की डोरियाँ टूट चुकी थीं और कोई सारथि भी नहीं था, अतएव अपने नगर लौट जाने के अतिरिक्त उसके पास और कोई विकल्प नहीं था । उसने युद्ध में अपना सर्वस्व खो दिया । श्रीकृष्ण के बाणों से बुरी तरह से त्रस्त होकर शिवजी के सभी गण, पिशाच भूत, प्रेत व क्षत्रिय रणक्षेत्र छोड़ कर चले गए । तब शिवजी ने अन्तिम विकल्प का उपयोग किया । उन्होंने अपना महान् मारक अस्त्र शिवज्वर चलाया । शिवज्वर अतिशय ताप के द्वारा विनाश करता है । कहा जाता है कि सृष्टि के अन्त अर्थात् प्रलय के समय सूर्य सामान्य से बारह गुना अधिक तप्त हो जाता है । यह बारह गुना अधिक ताप शिवज्वर कहलाता है । जब मूर्तिमान् शिवज्वर को चलाया गया तब उसके तीन सिर तथा तीन पैर थे और जैसे-जैसे वह श्रीकृष्ण की ओर आ रहा था, तो ऐसा प्रतीत होता था कि वह प्रत्येक वस्तु को भस्म कर रहा है । वह इतना शक्तिशाली था कि उसने समस्त दिशाओं में प्रज्वलित अग्नि का निर्माण कर दिया है और श्रीकृष्ण ने देखा कि वह विशेषरूप से उनकी ओर आ रहा था । जिस प्रकार शिवज्वर एक अस्त्र है, उसी भाँति नारायणज्वर नामक अस्त्र भी है । नारायणज्वर से अतिशीत का निर्माण होता है । जब अतिशय ताप होता है, तब लोग किसी न किसी प्रकार उसे सहन कर सकते हैं, किन्तु जब अतिशय शीत होता है, तब प्रत्येक वस्तु शक्तिहीन हो जाती है । व्यक्ति को वास्तव में यह अनुभव मृत्यु के समय होता है । मृत्यु के समय प्रथम तो शरीर का ताप एक सौ सात डिग्री तक बढ़ जाता है, तत्पश्चात् समस्त शरीर शक्तिहीन हो जाता है और तत्काल बर्फ के समान ठण्डा हो जाता है । शिवज्वर के झुलसाने वाले ताप को काटने के लिए नारायणज्वर के अतिरिक्त और कोई अस्त्र नहीं था । जब भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि शिवजी ने शिवज्वर चलाया है, तब नारायणज्वर चलाने के अतिरिक्त उनके पास और कोई चारा न रहा । भगवान् श्रीकृष्ण आदिनारायण एवं नारायणज्वर अस्त्र के नियन्ता हैं । नारायणज्वर चलाए जाने पर दोनों ज्वरों के मध्य घमासान युद्ध हुआ । जब अतिशय उष्णता पर तीव्र शीत की प्रतिक्रिया होती है, तब स्वाभाविक है कि उष्ण ताप शनै:शनै: कम होने लगता है । शिवज्वर तथा नारायणज्वर के मध्य युद्ध में भी यही हुआ । शनै:शनै: शिवज्वर का ताप कम हो गया और वह शिवजी से सहायता करने के लिए कहने लगा । किन्तु नारायणज्वर की उपस्थिति में शिवजी उसकी सहायता करने में असमर्थ थे । शिवजी से सहायता प्राप्त करने में असमर्थ होकर शिवज्वर समझ गया कि स्वयं श्रीनारायण अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण के समक्ष आत्मसमर्पण करने के अतिरिक्त उसके बचने का और कोई साधन नहीं है । देवताओं में सर्वश्रेष्ठ शिवजी ही जब उसकी सहायता नहीं कर सके, तब अन्य देवताओं का तो कहना ही क्या ? अतएव श्रीकृष्ण के सम्मुख नमन करके और उनकी स्तुति करते हुए शिवज्वर ने भगवान् के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया जिससे कि भगवान् प्रसन्न हो जाँए और उसे अभयदान दें । भगवान् श्रीकृष्ण तथा शिवजी के अन्तिम अस्त्रों के मध्य युद्ध की इस घटना से सिद्ध हो जाता है कि जिसकी रक्षा श्रीकृष्ण करते हैं उसका वध कोई नहीं कर सकता है । किन्तु यदि श्रीकृष्ण किसी को कोई सुरक्षा नहीं देते हैं, तब तो कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर सकता है । शिवजी को महादेव कहा जाता है, जिसका अर्थ है देवताओं में सर्वश्रेष्ठ । यद्यपि कभी-कभी ब्रह्माजी को देवताओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि वे सृष्टि कर सकते हैं, जबकि शिवजी ब्रह्माकी सृष्टि का संहार कर सकते हैं । किन्तु ब्रह्माजी तथा शिवजी दोनों ही एक-एक कार्य कर सकते हैं । ब्रह्माजी सृष्टि कर सकते हैं और शिवजी संहार कर सकते हैं, किन्तु दोनों में से कोई भी पालन नहीं कर सकते । किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण न केवल पालन करते हैं, अपितु वे सृष्टि एवं संहार भी करते हैं । तथ्य तो यह है कि सृष्टि ब्रह्मा नहीं करते हैं, क्योंकि स्वयं ब्रह्माकी सृष्टि भी भगवान् विष्णु करते हैं । शिवजी का जन्म ब्रह्मासे होता है । इस प्रकार शिवज्वर समझ गया कि श्रीकृष्ण अथवा नारायण के अतिरिक्त और कोई उसकी सहायता नहीं कर सकता । अतएव उसने भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण की और हाथ जोड़ करके वह निम्न प्रकार से स्तुति करने लगा ।

"प्रिय भगवन् ! मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ, क्योंकि आपके पास असीम शक्तियाँ हैं । आपकी शक्तियों का कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता है और इस प्रकार आप सबके भगवान् हैं । सामान्यतया लोग शिवजी को भौतिक जगत् का सर्वाधिक हैं । यही तथ्य है । आप आदि चेतना अथवा ज्ञान हैं । ज्ञान अथवा चेतना के बिना कुछ भी शक्तिमान नहीं हो सकता है । कोई भौतिक वस्तु अत्यन्त शक्तिशाली हो सकती है, किन्तु ज्ञान अथवा चेतना के स्पर्श के बिना वह कार्य नहीं कर सकती है । कोई भौतिक यंत्र अत्यन्त विशाल तथा अद्भुत हो सकता है, किन्तु किसी चेतना ज्ञानयुक्त व्यक्ति के स्पर्श के बिना भौतिक यंत्र बेकार होता है । प्रिय भगवन् ! आप पूर्ण ज्ञान हैं और आपके व्यक्तित्व में भौतिक दूषण का लेशमात्र भी नहीं है । समस्त सृष्टि का संहार करने वाली अपनी विशिष्ट शक्ति के कारण शिवजी एक अत्यन्त शक्तिमान देवता हो सकते हैं । उसी भाँति ब्रह्माअत्यन्त शक्तिमान हो सकते हैं, क्योंकि वे समस्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि कर सकते हैं, किन्तु वास्तव में ब्रह्माजी अथवा शिवजी किसी भी सृष्टि के मूल कारण नहीं हैं । आप परम सत्य परब्राह्म हैं तथा आप ही मूल कारण हैं । निराकार ब्राह्म ज्योति सृष्टि का मूल कारण नहीं है । वह आपके व्यक्तित्व पर आश्रित है । जैसाकि श्रीमदगवद्गीता में प्रमाणित किया गया है, निराकार ब्राह्म का कारण भगवान् श्रीकृष्ण हैं । ब्राह्म ज्योति की तुलना सूर्यगोलक से निकलने वाले सूर्यप्रकाश से की गई है । अतएव निराकार ब्राह्म अन्तिम कारण नहीं हैं । प्रत्येक वस्तु का अन्तिम कारण श्रीकृष्ण का परम शाश्वत रूप है । किन्तु कृष्ण के नित्यरूप साकार ब्राह्म में कोई क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं है । अतएव हे भगवन् ! आपका शरीर पूर्ण रूप से शान्तिपूर्ण एवं आनन्दमय है, वह भौतिक दूषणों से रहित है । "भौतिक शरीर में भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों की क्रिया-प्रतिक्रिया होती है । काल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है और अन्य सब तत्वों से ऊपर है, क्योंकि काल के क्षोभ से भौतिक सृष्टि पर प्रभाव पड़ता है । इस प्रकार प्राकृतिक पदार्थों का जन्म होता है और जैसे ही पदार्थों की उत्पत्ति होती है, सकाम कर्म भी दृष्टिगोचर होते हैं । इन सकाम कर्मों के फलस्वरूप जीव को अपना आकार प्राप्त होता है । वह एक विशेष प्रकार की प्रकृति प्राप्त करता है, जो एक सूक्ष्म शरीर तथा प्राणवायु, अहं, दसों इन्द्रियों, मन तथा पंचभूतों से निर्मित स्थूल शरीर में निहित रहती हैं । तत्पश्चात् ये सब इस प्रकार के शरीर की सृष्टि करते हैं, जो कि बाद में आत्मा के देहान्तर के द्वारा एक के बाद एक प्राप्त विभिन्न शरीरों का मूल कारण बन जाता है । ये सारी अभिव्यक्तियाँ आपकी भौतिक शक्ति की संयुक्त क्रियाएँ हैं । विभिन्न तत्वों की क्रिया-प्रतिक्रिया से अप्रभावित रहने वाले आप इस बहिरंगा शक्ति के कारण हैं । आप भौतिक शक्ति के इन दबावों से ऊपर हैं और परम शान्ति हैं । भौतिक दूषण से मुक्ति के आप ही अन्तिम आश्रय हैं । अतएव, मैं अन्य समस्त आश्रयों को त्याग कर आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण कर रहा हूँ । "प्रिय भगवन् ! एक मानव के रूप में अभिनय करने के लिए श्रीवसुदेव के पुत्र के रूप में आपका प्रकट होना आपकी पूर्ण स्वतंत्र लीलाओं में से एक है । भक्तों के लाभ तथा नास्तिकों के संहार के हेतु आप अनेक अवतारों में प्रकट होते हैं । भगवद्-गीता में आपने वचन दिया है कि जैसे ही प्रगतिशील जीवन-प्रणाली में असामंजस्य होता है, वैसे ही आप प्रकट होते हैं । इस वचन को पूर्ण करने के लिए ही ऐसे समस्त अवतार होते हैं । जब अनियमित विधानों के कारण अव्यवस्था फैलती है, तब हे भगवन् ! आप अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा प्रकट होते हैं । आपका मुख्य कार्य देवताओं तथा आध्यात्मिक रुचि वाले मानवों की रक्षा एवं पालन तथा भौतिक व्यवस्था के स्तर को बनाए रखना है । इस प्रकार की व्यवस्था को बनाए रखने के साथ-साथ दुष्टों एवं असुरों के प्रति आपकी हिंसा पूर्णरूप से उपयुक्त है । आपने अभी पहली बार अवतार नहीं लिया है । हमें यह समझना चाहिए कि आपने ऐसा अनेकानेक बार पहले भी किया है । "प्रिय भगवन् ! मैं यह निवेदन करना चाहता हूँ कि आपके द्वारा छोड़े गए नारायणज्वर से मुझे समुचित दण्ड मिल गया है । यह वास्तव में अत्यन्त शीतल करने वाला है, किन्तु साथ-साथ यह हम सबके लिए अत्यन्त संकटप्रद एवं असह्य भी है । प्रिय भगवन् ! जब तब व्यक्ति भौतिक इच्छाओं के वशीभूत हो कर तथा आपके चरणकमलों के अन्तिम आश्रय से अनजान रहते हुए कृष्णभवानामृत को भुलाये रहता है, तब तक भौतिक शरीर वाला प्राणी प्रकृति के त्रिताप से पीड़ित रहता है । चूँकि व्यक्ति आपकी शरण ग्रहण नहीं करता है, अतएव वह निरन्तर कष्ट सहन करता है ।" शिवज्वर की स्तुति सुन कर भगवान् श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, "हे त्रिशीशधारी ! मैं तुम्हारे कथन से प्रसन्न हुआ । निर्भय रहो । अब तुम्हें नारायणज्वर से और कष्ट नहीं होगा । अब न केवल तुम नारायणज्वर के भय से मुक्त हो, अपितु भविष्य में जो व्यक्ति शिवज्वर तथा नारायणज्वर के मध्य के इस युद्ध का स्मरण करेगा । वह भी समस्त भय से मुक्त हो जाएगा ।" श्रीभगवान् के वचनों को सुन कर शिवज्वर ने उनके चरणकमलों में सादर प्रणाम किया और वहाँ से चला गया । इसी मध्य बाणासुर ने किसी प्रकार अपनी दुर्बलताओं पर विजय करके अपनी शक्ति का पुन: संचार किया और युद्ध करने के लिए लौट आया । इस बार बाणासुर अपने सहस्रों हाथों में विभिन्न प्रकार के शस्त्रास्त्र ले कर रथारूढ़ भगवान् श्रीकृष्ण के सम्मुख प्रकट हुआ । बाणासुर अत्यन्त अशान्त था । वह भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर पर अपने विभिन्न अस्त्रों की वर्षा करने लगा । जब भगवान् श्रीकृष्ण ने बाणासुर के अस्त्रों को अपनी ओर आते हुए इस तरह देखा जैसे छलनी में से पानी बाहर आता है, तब उन्होंने अपना तीक्ष्ण धार वाला सुदर्शन चक्र लेकर एक के बाद एक की एक सहस्र भुजाएँ काटनी प्रारम्भ कर दीं । उन्होंने उसकी भुजाएँ उसी प्रकार काट दीं जिस प्रकार तेज कैंची से कोई माली पेड़ की डालियों को काटता है । शिवजी ने देखा कि उनकी उपस्थिति में भी उनके भक्त बाणासुर की रक्षा नहीं हो सकती है, तब उनको सदुद्धि आ गई और वे स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के सम्मुख आए और निम्न प्रकार से स्तुति करके उन्हें शान्त करने लगे । शिवजी ने कहा, "प्रिय भगवन् ! वैदिक स्तोत्रों के आप उपास्य हैं । आपको न जानने वाला निराकार ब्राह्मज्योति को ही सर्वोच्च परम सत्य मानता है । उसे यह ज्ञात नहीं होता है कि आप अपने आध्यात्मिक तेज के पीछे अपने नित्य धाम में निवास कर रहे हैं । अतएव हे भगवन् ! आपको परम ब्राह्म कहा जाता है । भगवद्-गीता में आपकी पहचान के लिए परम ब्राह्म शब्द का प्रयोग किया गया है । यद्यपि आप किसी भी भौतिक वस्तु से अप्रभावित हैं और आकाश की भाँति सर्वव्यापक हैं, तथापि ऐसे सजन पुरुष, जिन्होंने अपने हृदय से समस्त भौतिक दूषणों को धो दिया है, आपके दिव्य स्वरूप को पहचान सकते हैं । केवल भक्त ही आपका साक्षात्कार कर सकते हैं और कोई नहीं । आपके परम अस्तित्त्व से संबधित निर्विशेषवादियों की धारणा के अनुसार आकाश आपकी नाभि के समान है, अग्नि आपका मुख है और जल आपका वीर्य है । स्वर्ग लोक आपका शीश, समस्त दिशाएँ आपके कान हैं, उर्वी लोक आपके चरणकमल हैं, चन्द्रमा आपका मन है और सूर्य आपका नेत्र है । जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मैं

आपके अहं के रूप में कार्य करता हूँ । सागर आपका उदर है और स्वर्ग लोक का राजा इन्द्र आपकी भुजा है । वृक्ष व पौधे आपके शरीर के रोम हैं, मेघ आपके शीश के केश हैं और ब्रह्माजी आपकी बुद्धि हैं । समस्त महान् पूर्वपुरुष जिन्हें प्रजापति के नाम से जाना जाता है, आपके लाक्षणिक प्रतिनिधि हैं । धर्म आपका हृदय है । आपके परम शरीर के निराकार लक्षणों को इस रीति से समझा जा सकता है, किन्तु अन्तत: आप परम पुरुष हैं । आपके परम शरीर का निराकार लक्षण आपकी शक्ति का लघु अंश है । आपकी तुलना आदि अग्नि से की जाती है और ये प्रकाश आपके ताप तथा प्रभा हैं ।" शिवजी ने आगे कहा, "प्रिय भगवन् ! यद्यपि आपकी अभिव्यक्ति सार्वभौम रूप से होती है, ब्रह्माण्ड के विभिन्न अंग आपके शरीर के विभिन्न अंग हैं, तथापि अपनी अचिन्त्य शक्ति के द्वारा आप एकसाथ स्थानीय व सार्वभौम दोनों हो सकते हैं । ब्राह्मसहिता में कहा गया है कि यद्यपि आप सदैव अपने निवासस्थान गोलोक वृन्दावन में ही रहते हैं, तथापि आप सर्वत्र उपस्थित हैं । जैसाकि श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि आप भक्तों की रक्षा करने के लिए प्रकट होते हैं और यह समस्त ब्रह्माण्ड के लिए सौभाग्य का सूचक है । आपकी की कृपा से समस्त देवता ब्रह्माण्ड के विभिन्न व्यापारों का निर्देशन कर रहे हैं । इस प्रकार सप्त उच्च लोकों का पालन आपके द्वारा होता है और सृष्टि के अन्त में आपकी सारी शक्तियों की अभिव्यक्तियाँ आप ही में प्रवेश कर जाती हैं, चाहे वे देवताओं, मानवों अथवा निम्नकोटि के पशुओं के किसी भी रूप में हों । अस्तित्त्व के विशिष्ट लक्षणों से रहित सृष्टि के समस्त निकटती अथवा दूरवर्ती कारण आप ही में विश्राम लेते हैं । अन्तत: आप में एवं आपके स्तर के अलावा आपके अन्तर्गत किसी अन्य वस्तु में भेद करने की कोई सम्भावना नहीं है । आप एक ही साथ इस सृष्टि के कारण तथा अवयव दोनों हैं । आप परम पूर्ण तथा अद्वय हैं । पदार्थों की अभिव्यक्ति में तीन स्थितियाँ होती हैं चेतना की स्थिति, स्वप्न में अर्धचेतना की स्थिति तथा अचेतन स्थिति । किन्तु, आप अस्तित्त्व की इन तीनों भौतिक स्थितियों से ऊपर हैं । अतएव आप एक चतुर्थ आयाम में अवस्थित हैं एवं आपका प्राकट्य तथा तिरोभाव आपसे परे किसी वस्तु पर निर्भर नहीं है । आप सबके परम कारण हैं, किन्तु आपका कोई कारण नहीं है । हे भगवन् ! आपकी स्थिति दिव्य है, तथापि आप स्वयं अपना प्राकट्य व तिरोभाव करते हैं । आप अपने षडैश्वर्यों के प्रदर्शन तथा अपने दिव्य गुणों के विज्ञापनार्थ ऐसा करते हैं । अपने व्यक्तिगत प्रकाश के द्वारा आप मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, केशव आदि अपने विभिन्न अवतारों में प्रकट हुए हैं । अपने वियुक्त प्रकाश के द्वारा आप विभिन्न जीवों के रूप में प्रकट हैं । अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा आप विष्णु के विभिन्न अवतारों के रूप में प्रकट होते हैं तथा अपनी बहिरंगा शक्ति के द्वारा आप पदार्थ जगत् के रूप में प्रकट होते हैं । "सामान्य मानव की दृष्टि में जब दिन मेघाच्छादित होता है, तब सूर्य (मेघों से) आच्छादित प्रतीत होता है । किन्तु तथ्य यह है कि सूर्य का प्रकाश बादलों का निर्माण करता है, अतएव यदि सम्पूर्ण आकाश घटाओं से पूर्ण हो तब भी सूर्य वास्तव में कभी भी आच्छादित नहीं हो सकता है । इसी भाँति मानवों का अल्पबुद्धि वर्ग दावा करता है कि ईश्वर नहीं है, किन्तु जब विभिन्न जीवों का प्राकट्य एवं उनके कार्यकलाप दिखाई पड़ते हैं, तब ज्ञानी जन प्रत्येक अणु में आपकी उपस्थिति देखते हैं । आपकी बहिरंगा एवं तटस्था शक्ति के माध्यम से भी वे अणु-अणु में आपके दर्शन करते हैं । अत्यन्त ज्ञानी भक्तों को आपके असीम कार्यकलापों का अनुभव होता है, किन्तु आपकी बहिरंगा शक्ति के प्रभाव से भ्रमित व्यक्ति इस भौतिक जगत् से अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं । उनको समाज, मैत्री व प्रेम से मोह हो जाता है, इस प्रकार वे भौतिक जगत् के त्रितापों को स्वीकार कर लेते हैं और सुख-दुःख के द्वैत के भागी होते हैं । कभी-कभी वे मोह के सागर में डूब जाते हैं और कभीकभी इससे उबार लिए जाते हैं ।" "प्रिय भगवन् ! केवल आपकी दया व कृपा से ही जीव को मानव-शरीर प्राप्त हो सकता है और तभी उसे भौतिक जगत् की दुःखपूर्ण स्थिति हो मुक्ति प्राप्त करने का अवसर मिलता है । किन्तु यदि मानव-शरीर प्राप्त करके कोई व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाता है, तब वह विषयभोग की लहरों में बह जाता है । इस प्रकार वह आपके चरणकमलों की शरण लेकर आपकी भक्ति-सेवा में संलग्न होने से वंचित रह जाता है । इस प्रकार के व्यक्ति का जीवन दुर्भाग्यपूर्ण है । इस प्रकार का तामसिक जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति स्वयं को ठग रहा है और दूसरों को भी ठग रहा है । अतएव कृष्णभावनामृत से रहित मानव-समाज ठगों तथा ठगे जाने वालों का समाज है । "प्रिय भगवन् ! आप वास्तव में समस्त जीवों के प्रियतम परमात्मा हैं एवं समस्त वस्तुओं के परम नियन्ता हैं । सदैव भ्रम में पड़ा हुआ मानव अन्तिम मृत्यु से भयभीत रहता है । केवल विषय-भोगों के मोह में पड़ा हुआ व्यक्ति स्वेच्छा से दुःखपूर्ण भौतिक जीवन स्वीकार करता है और इस प्रकार इन्द्रियसुख की मृगमरीचिका के पीछे भटकता रहता है । वह वास्तव में सर्वाधिक मूढ़ व्यक्ति है, क्योंकि वह अमृत को त्याग कर के विषपान करता है । प्रिय भगवन् ! ब्रह्माजी तथा मेरे सहित सभी देवताओं, महान् सन्तों तथा ऋषि-मुनियों ने अपने हृदयों को भौतिक मोह से विरत कर लिया है और आपकी कृपा से हम सबने सम्पूर्ण हृदय से आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण कर ली है । हम सबने आपको परमेश्वर तथा अपना प्राणपति स्वीकार कर लिया है, अतएव हम सबने आपकी शरण ग्रहण की है । आप इस सृष्टि के मूल कारण हैं, आप इसके परम पालक हैं एवं आप ही इसके प्रलय के भी कारण हैं । आप सबके प्रति समभाव रखते हैं, आप प्रत्येक जीव के सर्वाधिक शान्तिप्रिय परम मित्र हैं । आप सब के आराध्य हैं । प्रिय भगवन् ! हम सदैव आपकी दिव्य प्रेम सेवा में संलग्न रहें जिससे कि हम इस भौतिक बन्धन से मुक्ति प्राप्त कर सकें ।

"प्रिय भगवन् ! अन्तत: मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूँ कि बाणासुर मुझे अत्यन्त प्रिय है । उसने मेरी बहुमूल्य सेवा की है, अतएव मैं सदैव उसे सुखी देखना चाहता हूँ । उससे प्रसन्न होकर मैंने उसे सुरक्षा का आश्वसान दिया है । प्रिय भगवन् ! मेरी आपसे प्रार्थना है कि जिस प्रकार आप उसके पूर्वज राजा प्रह्वाद एवं बलि महाराज पर प्रसन्न हुए थे उसी भाँति आप उस पर भी प्रसन्न हों ।" शिवजी की स्तुति सुन कर भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उन्हें भगवान् कह कर सम्बोधित किया और कहा, "प्रिय भगवन् शिव ! मैं आपके कथनों को स्वीकार करता हूँ तथा बाणासुर के प्रति आपकी इच्छा भी मुझे स्वीकार है । मुझे ज्ञात है कि यह बाणासुर बलि महाराज का पुत्र है और मैं उसे नहीं मार सकता हूँ, क्योंकि मैंने ऐसा वचन दिया है । मैंने राजा प्रह्लाद को वरदान दिया था कि उनके परिवार में जन्म लेने वाले असुरों का मैं कभी-भी वध नहीं करूंगा । अतएव इस बाणासुर का वध न करके मैंने उसके मिथ्या अभिमान से वंचित करने के लिए केवल उसकी भुजाएँ काट दी हैं । उसके सैनिकों की विशाल संख्या इस धरती का बोझ बन गई थी और उस बोझ को कम करने के लिए मैंने उन सबका वध कर दिया है । अब बाणासुर के पास चार भुजाएँ शेष हैं और वह भौतिक दुःख-सुख से अप्रभावित रह कर अमर रहेगा । मुझे ज्ञात है कि वह आपके प्रमुख भक्तों में से एक है, अतएव अब आप विश्वास रखें कि अब से उसे किसी भी वस्तु से भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है ।” जब बाणासुर को इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण का आशीर्वाद प्राप्त हो गया, तब उसने भगवान् के सम्मुख आ कर अपना सिर भूमि पर रख कर उन्हें प्रणाम किया, उसने तत्काल अपनी पुत्री उषा सहित अनिरुद्ध को रथ पर वहाँ लाने का प्रबन्ध किया और उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण के समक्ष प्रस्तुत किया । शिवजी के आशीर्वाद से उषा भौतिक रूप से अत्यन्त ऐश्वर्यमयी हो गई थी । इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्ण ने उषा तथा अनिरुद्ध को अपने संरक्षण में ले लिया । इस प्रकार एक अक्षौहिणी सेना को आगे कर के श्रीकृष्ण द्वारका की ओर अग्रसर होने लगे । इसी मध्य द्वारकावासियों को यह समाचार प्राप्त हुआ कि अत्यन्त ऐश्वर्य सहित श्रीकृष्ण अनिरुद्ध तथा उषा के साथ लौट रहे हैं । अतएव उन्होंने नगर के कोने-कोने को पताकाओं, कागज की रंगीन पटिटयों तथा पुष्प-मालाओं से अलंकृत किया । समस्त प्रशस्त मार्गों एवं चौराहों को भलीभाँति स्वच्छ करके उन पर चन्दन मिश्रित जल छिड़क दिया गया । अत: चारों ओर चन्दन की सुगन्ध व्याप्त थी । अपने बन्धु-बान्धवों सहित द्वारका के समस्त नागरिकों ने अत्यन्त हर्षोंल्लास के साथ भगवान् श्रीकृष्ण का स्वागत किया । उस समय भगवान् का स्वागत करने के लिए शंखों, नगाड़ों, एवं तुरही की कोलाहलपूर्ण ध्वनि गूँज उठी । इस रीति से भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी राजधानी द्वारका में प्रवेश किया । श्री शुकदेव गोस्वामी ने परीक्षित को आश्वासन दिया कि शिवजी तथा श्रीकृष्ण के मध्य युद्ध की यह कथा सामान्य युद्धों की भाँति अशुभ नहीं है । इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति प्रात:काल भगवान् श्रीकृष्ण एवं शिवजी के मध्य इस युद्ध की कथा का स्मरण करता है और भगवान् श्रीकृष्ण की विजय में सुख अनुभव करता है, तो उसे जीवन-संग्राम में कही भी पराजय नहीं होगी । बाणासुर का श्रीकृष्ण से संग्राम तथा बाद में शिवजी की कृपा से उसकी रक्षा की घटना श्रीमद्भगवद्गीता के कथन की पुष्टि करती है । भगवद्-गीता में कहा गया है कि देवोपासक परमेश्वर श्रीकृष्ण की अनुमति के बिना कोई वरदान नहीं प्राप्त कर सकते हैं । इस कथा में हम पाते हैं कि यद्यपि बाणासुर शिवजी का महान् भक्त था, किन्तु जब श्रीकृष्ण के हाथों उसकी मृत्यु होने वाली थी तब शिवजी उसकी रक्षा करने में समर्थ नहीं हुए । किन्तु शिवजी ने श्रीकृष्ण से अपने भक्त की रक्षा करने की प्रार्थना की और इस प्रकार भगवान् ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की । भगवान् श्रीकृष्ण का यही पद है । इस सम्बन्ध में भगवद्-गीता में प्रयुक्त शब्द हैं- मयैव विहितान् हि तान् । इसका अर्थ है कि परम भगवान् की अनुमति के बिना कोई भी देवता अपने उपासकों को कोई वरदान नहीं दे सकता है ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “भगवान् श्रीकृष्ण का बाणासुर से संग्राम” नामक तिरसठवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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