भगवान् श्रीबलराम अपने माता-पिता यशोदा जी एवं नन्द महाराज के दर्शन के लिए अत्यन्त उत्सुक थे । अतएव उन्होंने अत्यन्त उत्साह के साथ वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया । वृन्दावनवासी दीर्घ काल से श्रीकृष्ण एवं बलराम जी के दर्शन के लिए उत्सुक थे । जब भगवान् श्रीबलराम ने वृन्दावन में प्रवेश किया तब गोप तथा गोपियाँ सभी वयस्क हो चुके थे । तो भी इनके आगमन पर उन सबने उनका आलिंगन किया तथा बलराम जी ने भी गोप गोपियों का आलिंगन किया । इसके पश्चात् वे नन्द महाराज और यशोदा जी के समक्ष गए और उन्हें सादर प्रणाम किया । इसके प्रत्युत्तर में माता यशोदा तथा नन्द महाराज ने उन्हें आशीर्वाद दिया । उन्होंने बलराम जी को जगदीश्वर अर्थात् ब्रह्माण्ड का स्वामी कह कर सम्बोधित किया । जगदीश्वर वे हैं, जो सबका पालन करते हैं । इसका कारण यह था कि श्रीकृष्ण एवं बलराम जी दोनों समस्त जीवों का पालन करते हैं, फिर भी उनकी अनुपस्थिति के कारण नन्द जी व यशोदा जी ने इतने कष्ट सहन किए थे । इस प्रकार अनुभव करते हुए उन्होंने बलराम जी का आलिंगन किया और उन्हें अपनी गोद में बिठा कर वे लगातार रोते रहे । उन्होंने अश्रुओं से बलराम जी को भिगो दिया । तत्पश्चात् बलरामजी ने वयोवृद्ध गोपों को सादर प्रणाम किया तथा छोटे गोपों का प्रणाम स्वीकार किया । इस प्रकार गोपों के वय तथा सम्बन्ध के अनुसार बलराम जी ने उनसे मैत्री-भाव का आदान-प्रदान किया । अपने समान आयु वाले मित्रों का हाथ पकड़ कर उन्होंने उच्च स्वर में हँसते हुए प्रत्येक मित्र का आलिंगन किया । जब गोपों तथा गोपबालों, गोपियों, राजा नन्द तथा माता यशोदा ने उनका स्वागत किया तब सन्तोष का अनुभव करते हुए भगवान् श्रीबलराम जी ने आसन ग्रहण किया और उन सब लोगों ने उनको घेर लिया । सर्वप्रथम भगवान् श्री बलराम जी ने उनसे उनका कुशल समाचार पूछा । तत्पश्चात् वृन्दावनवासी उनसे विभिन्न प्रश्न करने लगे, क्योंकि उन्होंने दीर्घकाल से बलराम जी के दर्शन नहीं किए थे । भगवान् श्रीकृष्ण के कमलनयनों पर मुग्ध होकर वृन्दावनवासियों ने भगवान् के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया था । श्रीकृष्ण से प्रेम करने की अपनी महान् इच्छा के कारण, उन्होंने स्वर्गलोक-प्राप्ति अथवा परम सत्य से एकाकार होने के लिए ब्राह्मज्योति में लीन होने जैसी किसी वस्तु की भी कामना कभी नहीं की थी । ऐश्वर्यशाली जीवन का उपभोग करने में भी उनकी अभिरुचि नहीं थी । वे गोपों के रूप में वृन्दावन ग्राम में सरल जीवन व्यतीत करने में ही सन्तुष्ट थे । वे सदैव श्रीकृष्ण के चिन्तन में मग्न रहते थे और किसी व्यक्तिगत लाभ की कामना नहीं करते थे । उन्हें श्रीकृष्ण से इतना अधिक प्रेम था कि उनकी अनुपस्थिति में जब वे बलराम जी से प्रश्न करने लगे तब उनकी वाणी लड़खड़ा गई । सर्वप्रथम नन्दमहाराज एवं यशोदामाई ने प्रश्न किया, "प्रिय बलराम ! क्या वसुदेव जी तथा परिवार के अन्य हमारे मित्र सुखपूर्वक हैं ? अब तुम तथा कृष्ण बाल-बच्चों वाले विवाहित पुरुष हो । अपने पारिवारिक जीवन के सुख में क्या तुम कभी अपने दीन माता पिता यशोदा देवी तथा नन्द महाराज का स्मरण करते हो ? यह अत्यन्त सुख का समाचार है कि अत्यन्त पापी राजा कंस का तुम्हारे द्वारा वध कर दिया गया है तथा वसुदेव जी और उनके समान अन्य लोग, जिन्हें कंस ने पीड़ित कर दिया था, अब मुक्त हो गए हैं । यह भी अतिशय सुसमाचार है कि तुमने तथा श्रीकृष्ण ने जरासन्ध और कालयवन को पराजित कर दिया है और अब वे मृत हैं । यह समाचार भी शुभ है कि तुम अब द्वारका नगरी के सुदृढ़ दुर्ग में निवास कर रहे हो ।"
जब गोपियाँ वहाँ आई, भगवान् श्रीबलराम ने प्रेमपूर्ण नयनों से उन पर दृष्टिपात किया । श्रीकृष्ण तथा बलराम जी की अनुपस्थिति के कारण दीर्घकाल से दुखी गोपियाँ अब अत्यन्त हर्षित हो गई और दोनों भाइयों की कुशलता के विषय में प्रश्न करने लगीं । उन्होंने बलराम जी से विशेष रूप से प्रश्न किया कि क्या श्रीकृष्ण द्वारकापुरी की विदुषी स्त्रियों से घिरे हुए जीवन का आनन्द ले रहे हैं ? क्या वे कभीकभी अपने पिता नन्द जी तथा माता यशोदा जी एवं अपने अन्य मित्रों का स्मरण करते हैं, जिनके साथ यहाँ वृन्दावन में वे अत्यन्त आत्मीयतापूर्वक व्यवहार करते थे ? क्या श्रीकृष्ण की अपनी माता यशोदा जी के दर्शन हेतु यहाँ आने की कोई योजना है ? और क्या वे उनके सानिध्य से वंचित हम दीन गोपियों का कभी स्मरण करते हैं ? हो सकता है कि द्वारका की सुसंस्कृत नारियों के मध्य श्रीकृष्ण हमें भूल गए हों, किन्तु जहाँ तक हमारा सम्बन्ध है, हम फूल एकत्र करके माला गूंथ कर अभी भी श्रीकृष्ण का स्मरण कर रही हैं । किन्तु जब वे नहीं आते हैं तब हम रो-रोकर अपना समय व्यतीत कर देती हैं । काश ! वे यहाँ आ कर हमारी बनाई हुई ये मालाएँ स्वीकार कर लेते ! दशार्ह के वंशज हे भगवान् श्रीबलराम ! आपको ज्ञात है कि श्रीकृष्ण की मैत्री के लिए हम कुछ भी त्याग देंगी । अत्यन्त दुःख में भी व्यक्ति अपने परिवार के सदस्यों से सम्बन्ध नहीं छोड़ पाता है । यद्यपि यह अन्य लोगों के लिए असम्भव हो सकता है, किन्तु हमने अपने त्याग की चिन्ता किए बिना अपने माता, पिता, बहन व सम्बन्धियों को छोड़ दिया था । फिर अचानक श्रीकृष्ण ने हमें त्याग दिया और दूर चले गए । उन्होंने हमारे घनिष्ठ सम्बन्ध को बिना गम्भीरता से सोचे-विचारे ही, तोड़ दिया और परदेश चले गए । किन्तु वे इतने चतुर व चालाक थे कि उन्होंने सुन्दर शब्दों की रचना कर ली । उन्होंने कहा, "प्रिय गोपियो ! चिन्ता मत करो । तुमने मेरी जो सेवा की है उसका मूल्य चुकाना मेरे लिए असम्भव है ।" कुछ भी हो हम स्त्रियाँ हैं, तो हम उनपर अविश्वास कैसे कर सकती थीं ? अब हम समझ सकती हैं कि उनके मीठे शब्द केवल हमें छलने के लिए ही थे ।” श्रीकृष्ण की वृन्दावन से अनुपस्थिति पर उलाहना देती हुई एक अन्य गोपी कहने लगी, "प्रिय बलराम जी ! वास्तव में हम तो ग्रामबालाएँ हैं, अतएव श्रीकृष्ण इस प्रकार हमको छल सके, किन्तु द्वारका की नारियों का क्या होगा ? मेरे विचार में वे हमारी जैसी मूर्ख नहीं हैं । हम ग्रामीण युवतियों को श्रीकृष्ण छल सकते हैं, किन्तु द्वारका नगर की युवतियाँ अत्यन्त चतुर व बुद्धिमती हैं । अतएव यदि ऐसी नागरी युवतियों को भी श्रीकृष्ण छल सकें और वे उनके शब्दों पर विश्वास कर सकें, तो मुझे अत्यन्त आश्चर्य होगा ।"
तत्पश्चात् एक अन्य गोपी ने कहना प्रारम्भ किया, "प्रिय सखा ! शब्दों के उपयोग में श्रीकृष्ण अत्यन्त चतुर हैं । इस कला में कोई उनसे प्रतियोगिता नहीं कर सकता है । वे इतने मधुर शब्दों की रचना कर सकते हैं और इतना मधुर वार्तालाप कर सकते हैं कि किसी भी स्त्री का हृदय धोखा खा जाएगा । इसके अतिरिक्त उन्होंने अत्यन्त आकर्षक ढंग से मुस्कराने की कला में पूर्णता प्राप्त कर ली है । उनकी मुस्कान के दर्शन करके स्त्रियाँ उनके पीछे पागल हो जाती हैं और बिना किसी असमंजस के उनको आत्मसमर्पण कर देती हैं ।"
यह सुन कर एक अन्य गोपी ने कहा, "प्रिय सखियो ! श्रीकृष्ण के विषय में वार्तालाप करने से क्या लाभ ? यदि वार्तालाप करके ही समय व्यतीत करने में तुम्हारी रुचि है, तो आओ श्रीकृष्ण के अतिरिक्त किसी अन्य विषय पर वार्तालाप करें । यदि क्रूर श्रीकृष्ण हमारे बिना अपना समय व्यतीत कर सकते हैं, तब हम श्रीकृष्ण के बिना अपना समय क्यों नहीं व्यतीत कर सकतीं ? वास्तव में श्रीकृष्ण हमारे बिना भी अपने दिवस अत्यन्त सुखपूर्वक व्यतीत कर रहे हैं, किन्तु भेद यह है कि हम उनके बिना अपने दिवस सुखपूर्वक नहीं व्यतीत कर सकती हैं ।"
जब गोपियाँ इस प्रकार वार्तालाप कर रही थीं, तब श्रीकृष्ण के प्रति उनकी भावनाएँ तीव्रतर होती गई । वे श्रीकृष्ण की मुस्कान, श्रीकृष्ण के प्रेमपूर्ण शब्द, श्रीकृष्ण की आकर्षक आकृति, श्रीकृष्ण के लक्षणों एवं श्रीकृष्ण के आलिंगनों का अनुभव कर रही थीं । उनकी आनन्दमयी अनुभूतियाँ इतनी तीव्र थीं कि उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि श्रीकृष्ण स्वयं वहाँ उपस्थित हैं और उनके समक्ष नृत्य कर रहे हैं । श्रीकृष्ण की मधुर स्मृतियों के कारण वे अपने अश्रुओं को न रोक सकीं और बिना विचार किए रोने लगीं ।
भगवान् श्रीबलराम गोपियों की आनन्दमयी अनुभूतियों को समझ सकते थे, अतएव वे उन्हें सान्त्वना देना चाहते थे । वे निवेदन प्रस्तुत करने में निपुण थे और इस प्रकार गोपियों से अत्यन्त सम्मानपूर्वक व्यवहार करते हुए उन्होंने इतनी चतुराई से श्रीकृष्ण की कथाएँ प्रारम्भ कीं कि गोपियाँ सन्तुष्ट हो गईं । वृन्दावन में गोपियों को सन्तुष्ट रखने के हेतु भगवान् श्रीबलराम ने निरन्तर दो मास तक वहाँ निवास किया । वे दो मास थे-चैत्र (मार्च-अप्रैल) तथा वैशाख (अप्रैल-मई) । उन दो महीनों तक उन्होंने गोपियों के साथ निवास किया और दाम्पत्य प्रेम की उनकी कामना को सन्तुष्ट करने के लिए उन्होंने प्रत्येक रात्रि गोपियों के साथ वन में व्यतीत की । इस प्रकार उन दो महीनों में बलराम जी ने गोपियों के साथ रासलीला का भी आनन्द उठाया । वह वसन्त ऋतु का समय था । अतएव यमुना के तट पर विभिन्न पुष्पों की सुगन्ध लिए मन्द समीर बह रहा था, वायु में विशेष रूप से कौमुदी पुष्पों की सुगन्ध मिश्रित थी । आकाश में चन्द्रिका का साम्राज्य था और सर्वत्र चाँदनी फैली हुई थी जिससे कि यमुना के तट अत्यन्त प्रकाशित एवं मनमोहक प्रतीत हो रहे थे । भगवान् श्रीबलराम ने वहाँ गोपियों के सान्निध्य का आनन्द उठाया ।
वरुण नामक देवता ने अपनी पुत्री वारुणी को वृक्षों से स्रवित होते हुए मधुपर्क के रूप में वहाँ भेजा । इस मधुपर्क के कारण समस्त वन सुगन्धित हो गया । मधुपर्क वारुणी की मधुर गन्ध ने बलराम जी को मुग्ध कर लिया । वारुणी के स्वाद पर बलराम जी एवं समस्त गोपियाँ अत्यधिक आकर्षित हो गई और उन सबने एकसाथ उसका पान किया । इस प्राकृतिक मदिरा का पान करते हुए गोपियों ने भगवान् बलराम जी का यशोगान किया और भगवान् श्रीबलराम ने अत्यन्त सुख का अनुभव किया, जैसे कि वे वारुणी नामक मदिरा पीकर मदोन्मत्त हो गए हों । उनके नेत्र मनोहर मुद्रा में घूम रहे थे । उन्होंने लम्बी-लम्बी वनमालाएँ धारण की थीं और इस दिव्य आनन्द के कारण समस्त स्थिति प्रसन्नता का एक महान् उत्सव प्रतीत होती थी । भगवान् श्रीबलराम अत्यन्त मोहकता से मुस्करा रहे थे और उनके मुख को विभूषित करते हुए श्रमबिन्दु शीतल ओस-कणों के समान प्रतीत होते थे ।
जब बलराम जी इस प्रकार की प्रसन्न मन:स्थिति में थे, तब उन्होंने यमुना के जल में गोपियों के सान्निध्य का आनन्द उठाने की कामना की । अतएव, उन्होंने यमुना को समीप आने का आदेश दिया । किन्तु उन्हें मदोन्मत्त मान कर यमुना ने उनके आदेश की उपेक्षा की । यमुना द्वारा अपने आदेश की उपेक्षा होने पर भगवान् श्रीबलराम अत्यन्त अप्रसन्न हो गए । वे तत्काल ही नदी के समीप की भूमि को अपने हल से खोद देना चाहते थे । भगवान् श्रीबलराम जी के पास हल तथा गदा नामक दो अस्त्र हैं और वे आवश्यकता पड़ने पर उनसे कार्य लेते हैं । इस समय वे यमुना को बलपूर्वक लाना चाह रहे थे और उन्होंने अपने हल की सहायता ली । वे यमुना को दण्ड देना चाहते थे, क्योंकि उसने उनके आदेश का पालन नहीं किया था । उन्होंने यमुना को सम्बोधित किया, "अरे नीच नदी ! तुमने मेरे आदेश की चिन्ता नहीं की । अब मैं तुम्हें पाठ पढ़ाऊँगा । तुम स्वेच्छा से मेरे समीप नहीं आई । अब अपने हल की सहायता से मैं तुम्हें आने के लिए बाध्य कर दूँगा । मैं तुम्हें सैकड़ों बिखरी हुई जलधाराओं में विभक्त कर दूँगा ।"
जब यमुना को इस संकट का आभास हुआ, तो वह बलराम जी की शक्ति से अत्यन्त भयभीत हो गई । वह तत्काल स्वयं वहाँ आई और इस प्रकार से स्तुति करते हुए उनके चरणकमलों पर गिर पड़ी-"प्रिय बलराम जी ! आप सर्वाधिक बलशाली व्यक्ति हैं तथा आप सबको सुख देने वाले हैं । दुर्भाग्यवश मैं आपके यशस्वी व श्रेष्ठ पद को भूल गई थी, किन्तु अब मुझे बुद्धि आ गई है । मुझे स्मरण है कि आप अपने अंश-मात्र शेषनाग के रूप में समस्त लोकों का भार अपने शीश पर उठाए हुए हैं । आप समस्त ब्रह्माण्ड के पालक हैं । प्रिय श्रीभगवान् ! आप षड्ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं । आपकी सर्वशक्तिमता को भूल जाने के कारण मैंने भ्रमवश आपके आदेश की अवव्हेलना की है और इस प्रकार मैं
भयंकर दोषिनी बन गई हूँ । किन्तु प्रिय भगवन् ! कृपया यह जान लीजिए कि मैं आपकी शरणागत हूँ । आप अपने भक्तों के प्रति अतिशय स्नेह रखते हैं ! अतएव कृपया आप मेरी धृष्टता एवं भूल को क्षमा करें और अपनी अहैतुकी दया से अब आप मुझे बन्धन से मुक्त कर दें ।"
इस विनम्र प्रवृत्ति के प्रदर्शन के पश्चात् यमुना को क्षमा कर दिया गया और वह समीप आ गई । भगवान् श्रीबलराम उसी प्रकार गोपियों के साथ उसके जल में जलविहार का आनन्द-लाभ करना चाहते थे जैसे एक हाथी अपनी अनेक हथिनियों के साथ जलक्रीड़ा का आनन्द लेता है । दीर्घकाल के पश्चात् जब भगवान् श्रीबलराम ने जी-भरकर आनन्द-उपभोग कर लिया तब वे जल से बाहर आए । तत्काल ही एक श्रीदेवी ने उन्हें एक उत्तम नीलाम्बर और स्वर्णनिर्मित एक मूल्यवान कण्ठहार अर्पित किया । यमुना में स्नान करने के उपरान्त नीलाम्बरधारी तथा स्वर्णाभूषणों से सज्जित भगवान् श्रीबलराम सबको अत्यन्त आकर्षक लगे । भगवान् श्रीबलराम गौरवर्ण के हैं और जब वे उचित रूप से वस्त्रादि धारण कर चुके, तो वे स्वर्ग में राजा इन्द्र के श्वेत हाथी के समान दिखाई दिए । भगवान् श्रीबलराम के हल से खोदी जाने के कारण यमुना नदी की अभी-भी बहुत सी छोटी-छोटी शाखाएँ हैं और यमुना नदी की ये समस्त शाखाएँ अभी-भी भगवान् श्रीबलराम की सर्वशक्तिमता का यशवर्धन कर रही हैं ।
दो मास तक भगवान् श्रीबलराम तथा गोपियो ने नित्य रात्रि को साथ–साथ लीलाओं का आनन्दोपभोग किया । किन्तु समय इतनी शीघ्रता से व्यतीत हो गया कि वे सब रात्रियाँ केवल एक रात्रि के समान प्रतीत हुई । भगवान् श्रीबलराम की उपस्थिति में समस्त गोपियाँ तथा वृन्दावनवासी उतने ही प्रसन्न थे जितने कि पहले दोनों भाइयों, भगवान् श्रीकृष्ण व भगवान् श्रीबलराम, की उपस्थिति में रहते थे इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “भगवान् श्रीबलराम की वृन्दावन यात्रा” नामक पैंसठवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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