महाराज युधिष्ठिर अजातशत्रु के नाम से विख्यात थे अर्थात् वे ऐसे व्यक्ति थे जिसका कोई शत्रु न था । अत: जब सभी पुरुषों, देवताओं, राजाओं, ऋषियों एवं सन्तों ने महाराज युधिष्ठिर द्वारा आयोजित राजसूय महायज्ञ की सफल समाप्ति देखी, तो वे बहुत प्रसन्न हुए । परन्तु अकेले दुर्योधन का अप्रसन्न होना महाराज परीक्षित को आश्चर्यजनक लगा और इसलिए उन्होंने इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए श्रील शुकदेव गोस्वामी से अनुरोध किया ।
श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा, "मेरे प्रिय महाराज परीक्षित ! तुम्हारे पितामह महाराज युधिष्ठिर एक श्रेष्ठ आत्मा थे । उनका अनुकूल स्वभाव सभी को मित्र के रूप में आकर्षित करता था, अतएव वे अजातशत्रु के नाम से प्रख्यात थे-अर्थात् उन्होंने कोई शत्रु नहीं बनाया था । उन्होंने कुरु वंश के सभी सदस्यों को राजसूय यज्ञ की व्यवस्था के लिए विभिन्न विभागों पर नियंत्रण करने के कार्य में संलग्न किया । उदाहरणार्थ, भीमसेन को रसोई घर का, दुर्योधन को कोश-विभाग का, सहदेव को स्वागत-सत्कार विभाग का एवं नकुल को भण्डार-विभाग का नेतृत्व दिया गया । अर्जुन का कार्य वयोवृद्ध व्यक्तियों की सुविधा की देखभाल करना था । सबसे आश्चर्यजनक विशेषता यह थी कि भगवान् श्रीकृष्ण ने आने वाले अतिथियों के चरण धोने का कार्य अपनाया । भाग्य की लक्ष्मी रूपी महारानी द्रौपदी भोजन-वितरण के प्रबन्ध की प्रभारी थीं और दान देने में प्रसिद्ध कर्ण को दान-विभाग का अध्यक्ष बनाया गया । उसी प्रकार सात्यकि, विकर्ण, हार्दिक्य, विदुर, भूरिश्रवा तथा बाहीक के पुत्र सन्तर्दन-इन सभी को राजसूय यज्ञ के कार्यों का संचालन करने के लिए विभिन्न विभागों में संलग्न किया गया । वे सब महाराज युधिष्ठिर से स्नेह में इतने पगे थे कि वे उन्हें प्रसन्न करना चाहते थे ।
श्रीकृष्ण की कृपा से जब शिशुपाल की मृत्यु हो गई तथा वह आध्यात्मिक शरीर में लीन हो चुका तथा राजसूय यज्ञ के बाद जब सभी मित्रों, अतिथियों एवं शुभ-चिन्तकों को उचित रूप से सम्मानित एवं पुरस्कृत किया जा चुका, तब महाराज युधिष्ठिर गंगा-स्नान करने के लिए चले गए । हस्तिनापुर नगर आज यमुना के तट पर स्थित है । श्रीमद्-भागवतम् का कथन कि महाराज युधिष्ठिर गंगा में स्नान करने गए, यह इस बात का संकेत करता है कि पाण्डवों के काल में यमुना नदी को भी गंगा कहा जाता था । जब महाराज अवभूथ-स्नान कर रहे थे, तब मृदंग, शंख, ढोल, नगारे एवं बिगुल आदि वाद्य-यंत्र बजने लगे । इसके अतिरिक्त, नृत्य करने वाली युवतियों की पायल छनक रही थी । सुनिपुण गायकों के अनेक दल वीणा, बाँसुरी, घड़ियाल तथा करताल बजा रहे थे । इस प्रकार आकाश में एक तुमुल ध्वनि गूंज उठी । अनेक राज्यों, जैसे सृंजय काम्बोज, कुरु, केकय तथा कोशल, से राजकुमार अतिथि अपने विभिन्न झण्डों एवं शानदार रूप में अलंकृत हाथी, रथ, घोड़ों एवं सैनिकों के साथ उपस्थित हुए । सभी एक शोभायात्रा बनाकर जा रहे थे तथा महाराज युधिष्ठिर सबसे आगे थे । प्रशासक सदस्य, जैसे पुरोहित, धार्मिक मंत्रीगण एवं ब्राह्मण एक यज्ञ का सम्पादन करते हुए वैदिक मंत्रों का जोर-जोर से उच्चारण कर रहे थे । पितृलोक एवं गन्धर्वलोक के निवासियों ने तथा अनेकानेक ऋषियों ने आकाश से फूलों की वर्षा की । हस्तिनापुर अर्थात् इन्द्रप्रस्थ के पुरुष एवं स्त्रियों के शरीर विभिन्न प्रकार के इत्र एवं पुष्प-तेलों से लिप्त थे । वे सभी रंगीन वस्त्र धारण किए हुए थे एवं मालाओं, रत्नों एवं आभूषणों से अलंकृत थे । वे सभी उस समारोह का आनन्द उठा रहे थे और वे एक-दूसरे पर जल, तेल, दूध, मक्खन एवं दही के समान द्रव पदार्थ फेंक रहे थे । कुछ लोगों ने तो इन पदार्थों को एक दूसरे के शरीर पर पोत दिया । इस प्रकार, वे उत्सव का आनन्द उठा रहे थे ? वारांगनाएँ भी आनन्दविभोर होकर इन द्रव पदार्थों को पुरुषों के शरीर पर लगाने के कार्य में मग्न थीं तथा पुरुष भी उसी प्रकार आदान-प्रदान कर रहे थे । सभी द्रव पदार्थ हल्दी एवं केसर में मिलाये गए थे, अत: उत्पन्न हुए पदार्थ का रंग चमकदार पीला था ।
उस महान् समारोह के लिए अनेक देवताओं की पत्नियाँ विमानो से आयी थीं तथा वे आकाश में दृष्टिगोचर हो रही थीं । उसी प्रकार, संपन्न परिवार की रानियाँ सुसज्जित होकर एवं अंगरक्षकों से घिरी हुई विभिन्न पालकियों पर आयीं । इस बीच, पाण्डवों के भ्राता श्रीकृष्ण तथा उनके विशेष मित्र श्रीअर्जुन दोनों ही रानियों के शरीरों पर द्रव पदार्थ फेंक रहे थे । रानियाँ एकदम लज्जा गई, परन्तु साथ-साथ उनकी सुन्दर मुस्कुराहटों ने उनके चेहरों को प्रकाशमय बना दिया । उनके शरीर पर द्रव पदार्थ पड़ने के कारण उनके शरीर की साड़ियाँ पूर्णतया भीग गयीं । गीले कपड़ों के कारण उनके सुन्दर शरीर के विभिन्न अंग, विशेष रूप से उनकी कमर और वक्षस्थल, आंशिक रूप से दृष्टिगोचर होने लगे । रानियाँ भी द्रव पदार्थों से भरी बाल्टियाँ लाई और उन्हें अपने देवरों पर छिड़कने लगीं । जब वे इस प्रकार की उल्लसित कर देने वाली गतिविधियों में संलग्न थीं, तो उनके केशों के बन्धन टूट गए और शरीर को सज्जित करने वाले फूल गिरने लगे । जब भगवान् श्रीकृष्ण, श्रीअर्जुन और रानियाँ इस आनन्ददायक कार्यों में लीन थीं, तब अशुद्ध हृदयों वाले व्यक्तियों के मन कामुक इच्छाओं से उत्तेजित हो गए । दूसरे शब्दों में, शुद्ध पुरुषों एवं स्त्रियों में ऐसा व्यवहार आनन्ददायक है, परन्तु भौतिक दृष्टि से दूषित व्यक्ति कामुक हो उठते हैं ।
महाराज युधिष्ठिर द्रौपदी एवं अन्य रानियों के साथ उत्कृष्ट घोड़ों से खींचे जा रहे शानदार रथ में उपस्थित थे । यज्ञ का आनन्दोत्सव इतना सुन्दर था कि ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो यज्ञ के कार्यों के साथ स्वयं राजसूय मूर्तिमान् होकर वहाँ खड़े हैं ।
राजसूय यज्ञ के पश्चात् पत्नीसंयाज नामक वैदिक कर्मकाण्ड हुआ करता था । यह यज्ञ अपनी पत्नी के साथ सम्पन्न किया जाता है तथा उसी प्रकार महाराज युधिष्ठिर के पुरोहितों द्वारा सम्पन्न हुआ । जब महारानी द्रौपदी एवं महाराज युधिष्ठिर अवभृथ-स्नान कर रहे थे, तब हस्तिनापुर के नागरिक एवं देवता गण आनन्दविभोर होकर ढोल और तुरही बजाने लगे तथा आसमान से फूलों की वर्षा होने लगी । जब महाराज एवं महारानी गंगा में स्नान कर चुके, तब अन्य सभी नागरिकों ने, जिसमें सभी जाति अथवा वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एव शूद्र-सम्मिलित थे, गंगा में स्नान किया । वेदों ने गंगा में स्नान करने की संस्तुति की है, क्योंकि इस प्रकार स्नान करने से व्यक्ति सभी पापपूर्ण कर्मों से मुक्त हो जाता है । यह भारत में आज भी विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण शुभ अवसरों पर प्रचलित है । ऐसे समय में लाखों लोग गंगा में स्नान करते हैं ।
स्नान करने के पश्चात् महाराज युधिष्ठिर ने रेशमी चादर एवं नवीन रेशमी वस्त्र धारण किए तथा स्वयं को बहुमूल्य आभूषणों से अलंकृत किया । महाराज ने मात्र स्वयं को सज्जित एवं अलंकृत नहीं किया, अपितु उन्होंने पुरोहितों एवं यज्ञ में भाग लेने वाले सभी लोगों को नूतन वस्त्र एवं आभूषण दिए । इस प्रकार, वे सभी महाराज युधिष्ठिर के द्वारा पूजे गए । वे निरन्तर अपने मित्रों, पारिवारिक सदस्यों, सम्बन्धियों, शुभचिन्तकों एवं सभी उपस्थित जनों की उपासना करते थे और श्रीनारायण के महान् भक्त एवं वैष्णव होने से उन्हें ज्ञात था कि किस प्रकार लोगों के साथ सद्व्यवहार करना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति को भगवान् के रूप में देखने का मायावादी दार्शनिकों का प्रयास एकता की ओर एक कृत्रिम मार्ग है, परन्तु वैष्णव अर्थात् श्रीनारायण का भक्त प्रत्येक जीवात्मा को श्रीभगवान् का एक अंश मानता है । अतएव, अन्य जीवात्माओं के साथ वैष्णव का व्यवहार परम स्तर पर स्थित होता है । जिस प्रकार व्यक्ति अपने शरीर के एक अंग से दूसरे अंग की अपेक्षा भिन्न व्यवहार नहीं कर सकता, क्योंकि वे दोनों अंग एक ही शरीर के हैं उसी प्रकार वैष्णव किसी मनुष्य को पशु से भिन्न नहीं देखता । दोनों में वह आत्मा एवं परमात्मा को साथ-साथ विद्यमान पाता है ।
जब स्नान करने के पश्चात् सभी लोग आनंदित हो उठे तथा उन्होंने कौशेय (रेशमी) वस्त्रों के साथ रत्नजटित कर्णफूल, फूल-मालाएँ पगड़ी, दुशाले तथा मोती की मालाएँ धारण कर लीं, तो वे स्वर्ग के देवताओं के समान प्रतीत हो रहे थे । ऐसा उन स्त्रियों के लिए सत्य था, जो बहुत सुन्दर ढंग से सज्जित थीं । प्रत्येक स्त्री ने कमर में करधनी बाँध रखी थी । वे सभी मुस्करा रही थीं, उनके शरीर पर तिलक के चिह्न एवं घुंघराले केश इधर-उधर लहरा रहे थे । यह बहुत ही आकर्षक दृश्य था ।
जिन व्यक्तियों ने, जिनमें अत्यन्त सुसंस्कृत पुरोहित, यज्ञ में सहायता करने वाले ब्राह्मण, सभी वर्णों के नागरिक, राजा, देवता, ऋषि, सन्त एवं पितृ-लोक के नागरिक सम्मिलित थे, राजसूय यज्ञ में भाग लिया महाराज युधिष्ठिर के व्यवहार से अत्यन्त सन्तुष्ट थे और अन्तत: वे प्रसन्नचित्त अपने-अपने घर गए । अपने घरों को लौटते हुए, वे महाराज युधिष्ठिर के व्यवहार के विषय में चर्चा करने लगे और उनकी महान्ता के विषय में निरन्तर चर्चा करते रहने पर भी वे तृप्त नहीं हुए, ठीक उसी प्रकार जैसे अमृत को निरन्तर पीते रहने पर भी व्यक्ति सन्तुष्ट नहीं होता । सबके प्रस्थान के पश्चात् महाराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण सहित निकटतम मित्रों को रोके रखा तथा उन्हें जाने नहीं दिया । भगवान् श्रीकृष्ण तो महाराज के निवेदन को इनकार नहीं सके, अतएव उन्होंने साम्ब तथा अन्य यदुवंश के सभी वीरों को वापस भेज दिया । वे सभी द्वारका लौट गए तथा महाराज को सुख पहुँचाने के लिए श्रीकृष्ण स्वयं वहीं रुके रहे ।
इस भौतिक जगत् में प्रत्येक व्यक्ति की कुछ इच्छाएँ होती हैं, परन्तु वह उन्हें पूर्ण सन्तुष्टि के साथ पूरी नहीं कर पाता । परन्तु श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अटल भक्ति के कारण महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का सम्पादन करके अपनी सारी इच्छाएँ पूर्ण कीं । राजसूय यज्ञ के सम्पादन के वर्णन के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसा समारोह ऐश्वर्य की इच्छाओं का महासागर होता है । साधारण व्यक्ति के लिए ऐसे भव्य महासागर को पार करना सम्भव नहीं है । तो भी, भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से महाराज युधिष्ठिर ने अत्यन्त सहजतापूर्वक उस सागर को पार कर लिया और इस प्रकार वे सभी चिन्ताओं से मुक्त हो गए ।
जब दुर्योधन ने देखा कि राजसूय यज्ञ करने के पश्चात् महाराज युधिष्ठिर को अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई है और वे हर दृष्टि से तृप्त हैं, तो वह ईर्ष्या की आग में जलने लगा, क्योंकि उसका मन सदैव विषाक्त रहता था । वह उस शानदार महल से ईर्ष्या रखता था, जिसे पाण्डवों के लिए "मय" नामक असुर ने निर्मित किया था । वह महल मय की चौंका देने वाली कलात्मक कारीगरी का उत्तम नमूना था तथा महान् राजकुमारों, राजाओं अथवा असुरों के राजा के लिए अनुकूल था । उस भव्य महल में, पाण्डव अपने परिवार के साथ रह रहे थे तथा महारानी द्रौपदी शान्तिपूर्वक अपने पतियों की सेवा कर रही थीं । चूँकि उन दिनों भगवान् श्रीकृष्ण वहीं थे, अतएव उनकी सहस्रों रानियों के कारण महल सज्जित था । जब रानियाँ अपनी पतली कमर एवं भारी स्तनों के साथ महल में भ्रमण करती थीं और पायल उनकी चाल के साथ सुरीली आवाज उत्पन्न करते थे, तब सम्पूर्ण महल स्वर्ग से भी अधिक ऐश्वर्यवान् प्रतीत होने लगता था । उनके वक्षस्थलों का एक भाग केशर-चूर्ण से युक्त था, अतएव उनके वक्षस्थलों पर स्थित मोतियों की मालाएँ लाल प्रतीत हो रही थीं । अपने बड़े बड़े कर्णफूलों एवं लहराते हुए केशो में रानियाँ अत्यन्त सुन्दर लग रही थीं । महाराज युधिष्ठिर के महल में ऐसी सुन्दरियों को देख कर दुर्योधन को ईर्ष्या होने लगी । वह द्रौपदी देवी की सुन्दरता को देखकर विशेष रूप से कामुक एवं ईर्ष्यालु हो उठा, क्योंकि पाण्डवों के साथ द्रौपदी के विवाह के काल से दुर्योधन उसके प्रति एक विशेष आकर्षण रखता था । द्रौपदी के स्वयंवर समारोह में दुर्योधन भी उपस्थित था और अन्य राजकुमारों की भाँति वह भी द्रौपदी की सुन्दरता पर मोहित हो उठा था, परन्तु उसे प्राप्त करने के प्रयास में वह असफल रहा था ।
एक बार मयासुर द्वारा निर्मित महल में महाराज युधिष्ठिर अपने स्वर्ण सिंहासन पर बैठे थे । उनके चारों भ्राता एवं अन्य सम्बन्धी तथा उनके शुभ-चिन्तक श्रीकृष्ण वहाँ उपस्थित थे । महाराज युधिष्ठिर का भौतिक ऐश्वर्य ब्रह्माजी के ऐश्वर्य से तनिक भी कम नहीं लग रहा था । जब वे अपने मित्रों से घिरे हुए सिंहासन पर विराजमान थे एवं सुन्दर गीतों के रूप में गायक उनकी स्तुति कर रहे थे, तब दुर्योधन अपने छोटे भ्राता के साथ महल में प्रविष्ट हुआ । दुर्योधन एक शिरस्त्राण से सज्जित था एवं वह हाथ में एक तलवार धारण किए हुए था । वह सदैव क्रोधित एवं ईर्ष्यालु मनोदशा में रहता था, अतएव थोड़े से टोकने पर वह द्वारपालों से तीखे स्वर में बोलने लगा और क्रोधित हो उठा । वह इसलिए उत्तेजित था, क्योंकि वह जल एवं धरती के बीच अन्तर करने में असफल रहा था । मयासुर की शिल्पकारिता से महल विभिन्न भागों में कुछ इस प्रकार से बनाया गया था कि जो उन युक्तियों से अपरिचित होता, वह जल को स्थल एवं स्थल को जल समझ बैठता था । दुर्योधन इस शिल्पकारिता से भ्रमित हो गया था और जब वह जल को स्थल समझकर उस पर चलने लगा, तो वह गिर पड़ा । जब अपनी मूर्खता के कारण दुर्योधन गिर पड़ा, तो रानियाँ उस घटना का हँस-हँसकर आनन्द उठाने लगीं । महाराज युधिष्ठिर दुर्योधन के मनोभाव को समझ गए एवं वे रानियों को हँसने से रोकने लगे, परन्तु श्रीकृष्ण ने संकेत किया कि महाराज को स्थिति का आनन्द उठा रही रानियों को हँसने से नहीं रोकना चाहिए । श्रीकृष्ण की इच्छा थी कि दुर्योधन इस प्रकार मूर्ख बन जाएगा तथा सभी उसके मूर्खतापूर्ण व्यवहार का आनन्द उठायेंगे । जब सभी हँसने लगे, तो दुर्योधन ने स्वयं को अपमानित अनुभव किया तथा क्रोध में उसके केश खड़े हो गए । इस तरह अपमानित होने पर उसने अपना सिर झुकाते हुए तुरन्त महल से प्रस्थान किया । वह शान्त था एवं उसने कोई विरोध नहीं किया । जब दुर्योधन इतना क्रोधित होकर वहाँ से गया, तो सभी ने उस घटना पर खेद प्रकट किया तथा महाराज युधिष्ठिर भी उदास हो गए । परन्तु इन सब घटनाओं के तत्पश्चात् भी श्रीकृष्ण शान्त थे । वे घटना के पक्ष अथवा विरोध में कुछ नहीं बोले । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि भगवान् श्रीकृष्ण की परम इच्छा के कारण वह इस भ्रम में डाला गया था तथा इस प्रकार कुरु-वंश के दो पक्षों में शत्रुता का आरम्भ हुआ । ऐसा प्रतीत होता था कि यह संसार के भार को कम करने के सन्देश की योजना का एक अंश था ।
महाराज परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा था कि राजसूय महायज्ञ के सम्पादन पर दुर्योधन असन्तुष्ट क्यों था और इस प्रकार श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उसका वर्णन किया ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “दुर्योधन ने स्वयं को अपमानित क्यों अनुभव किया” नामक पचहत्तरवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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