श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान » अध्याय 78: दन्तवक्र, विद्रथ तथा रोमहर्षण का वध » |
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| | अध्याय 78: दन्तवक्र, विद्रथ तथा रोमहर्षण का वध 
 | | | | शाल्व एवं पौण्ड्र के निधन के उपरान्त, अपने मित्र शाल्व की मृत्यु का बदला लेने के लिए एक अन्य मूर्ख दुष्ट राजा, जिसका नाम दन्तवक्र था, श्रीकृष्ण को मारना चाहता था । वह इतना उत्तेजित हो उठा कि वह बिना अस्त्र-शस्त्र तथा बिना रथ के व्यक्तिगत रूप से युद्धभूमि पर उपस्थित हुआ । उसका एकमात्र शस्त्र उसका क्रोध था, जो अपनी चरम सीमा पर था । वह अपनी भुजाओं में केवल एक गदा धारण किए हुए था, परन्तु वह इतना शक्तिशाली था कि उसके हिलने पर सभी को धरती के काँपने का अनुभव होता था; जब श्रीकृष्ण ने उसे अत्यन्त तीव्रतापूर्वक आगे बढ़ते हुए देखा, तो वे तत्काल ही रथ से उतर गए, क्योंकि सैन्य शिष्टाचार का यह सिद्धान्त है कि समान शक्ति वाले व्यक्तियों के बीच में ही युद्ध होना चाहिए । यह जानकर कि दन्तवक्र अकेला है तथा केवल एक गदा से ही युक्त है, श्रीकृष्ण ने उसी प्रकार उत्तर दिया तथा हाथ में गदा लेकर स्वयं तत्पर हुए । जब श्रीकृष्ण उसके समक्ष प्रकट हुए, तब दन्तवक्र की वीरतापूर्ण गति तत्काल ही रूक गई, ठीक उसी प्रकार जैसे सागर की भव्य भयंकर लहरें तट पर आकर रुक जाती हैं । उस समय, दन्तवक्र जो करूष का राजा था, अपनी गदा के साथ दृढ़तापूर्वक खड़ा हो गया तथा श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहने लगा: "कृष्ण ! यह अत्यन्त प्रसन्नता की बात है तथा शुभ अवसर है कि हम दोनों आमने-सामने खड़े हैं । प्रिय कृष्ण ! अन्तत: तुम मेरे सनातन चचेरे भाई हो तथा मुझे तुमको इस प्रकार नहीं मारना चाहिए, परन्तु दुर्भाग्य से मेरे मित्र शाल्व को मारकर तुमने एक भयंकर भूल की है । इसके अतिरिक्त, तुम मेरे मित्र का वध करके भी सन्तुष्ट नहीं हो । मुझे ज्ञात है कि तुम मुझे भी मारना चाहते हो । तुम्हारी धृष्टता के कारण मुझे अपनी गदा से तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े करके तुम्हें मारना होगा । कृष्ण ! यद्यपि तुम मेरे सम्बन्धी हो, तद्यपि तुम मूर्ख हो । तुम हमारे सबसे बड़े शत्रु हो, अतएव आज तुम्हें उसी तरह मारना होगा, जिस तरह शल्य-क्रिया के द्वारा व्यक्ति अपने फोड़े को काटकर अलग कर देता है । मैं अपने मित्रों के प्रति सदैव कृतज्ञ रहा हूँ, अतएव मैं अपने प्रिय मित्र शाल्व के प्रति ऋणी हूँ । तुम्हारा वध करने मात्र से ही अपने ऋण को मैं उतार सकता हूँ ।"
जिस प्रकार महावत हाथी को नियंत्रण में रखने के लिए उस पर अंकुश से वार करता है, उसी प्रकार दन्तवक्र ने कठोर शब्द कहकर श्रीकृष्ण को नियंत्रण में लाने का प्रयत्न किया । अपने दुर्वचनों के पश्चात् उसने अपनी गदा से श्रीकृष्ण के सिर पर वार किया तथा सिंह के समान गर्जना की । यद्यपि दन्तवक्र ने अपनी गदा से श्रीकृष्ण पर जोरदार वार किया था, तथापि श्रीकृष्ण एक इंच भी नहीं हिले और न उन्होंने तनिक भी दर्द का अनुभव किया । अपनी कौमोदकी गदा उठाकर तथा कुशलतापूर्वक घूमकर श्रीकृष्ण ने दन्तवक्र के हृदय पर इतने भयंकर रूप से आक्रमण किया कि दन्तवक्र की छाती दो टुकड़ों में बिखर गयी । परिणामस्वरूप, दन्तवक्र रक्त की उलटी करने लगा, उसके केश तितर-बितर हो गए तथा अपने हाथों एवं पैरों को फैलाकर वह धरती पर गिर पड़ा । कुछ ही मिनटों के उपरान्त दन्तवक्र का मृत शरीर-मात्र शेष रह गया । दन्तवक्र की मृत्यु के पश्चात् शिशुपाल की मृत्यु के समय की ही भाँति, वहाँ पर विद्यमान सभी व्यक्तियों की उपस्थिति में, उस असुर में से दिव्य ज्योति का एक सूक्ष्म कण निकला और आश्चर्यजनक रूप से भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर में समा गया ।
दन्तवक्र का एक भ्राता था, जिसका नाम विदूरथ था । दन्तवक्र की मृत्यु होने पर वह दुःख से अभिभूत हो गया । दुःख एवं क्रोध के कारण, विदूरथ अत्यन्त जोर-जोर से साँस ले रहा था तथा अपने भ्राता का बदला लेने के लिए वह एक तलवार और एक ढाल लेकर श्रीकृष्ण के सम्मुख उपस्थित हुआ । वह श्रीकृष्ण को तत्काल ही मार डालना चाहता था । जब श्रीकृष्ण समझ गए कि विदूरथ उन्हें अपनी तलवार से मारने के अवसर की प्रतीक्षा कर रहा है, तब उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग किया, जो एक उस्तरे की धार के समान तेज था तथा बिना विलम्ब किए उन्होंने कर्णफूल और शिरस्त्राण सहित विदूरथ का सिर काट डाला ।
इस प्रकार, शाल्व का वध करके, उसका विमान नष्ट करके तथा उसके उपरान्त दन्तवक्र और विदूरथ का वध करके, अन्तत: श्रीकृष्ण ने अपने नगर द्वारका में प्रवेश किया । ऐसे महान् वीरों का वध करना श्रीकृष्ण के अतिरिक्त किसी के लिए सम्भव नहीं था, अतएव स्वर्ग के सभी देवता तथा ब्रह्माण्ड के सभी मानव उनकी जयजयकार करने लगे । महान् ऋषि तथा तपस्वी, सिद्ध और गन्धर्व लोकों के निवासी, विद्याधर, वासुकि तथा महानाग कहलाने वाले निवासी, सुन्दर देवदूत, पितृलोक के निवासी, यक्ष, किन्नर तथा चारण सभी उनपर फूल बरसाने लगे तथा अत्यन्त उल्लास के साथ विजय के गीत गाने लगे । अत्यन्त आनन्द के साथ सम्पूर्ण नगर को सजाकर, द्वारका के नागरिकों ने एक उत्सव का आयोजन किया और जब भगवान् श्रीकृष्ण नगर में से होकर निकले, तो वृष्णि वंश के सभी सदस्यों तथा यदुवंश के वीरों ने अत्यन्त आदरपूर्वक उनका अनुगमन किया । ये श्रीकृष्ण की कुछ दिव्य लीलाएँ हैं, जो सभी अद्भुत शक्तियों के स्वामी हैं तथा सम्पूर्ण विराट जगत् के अधिपति हैं । जो मूर्ख हैं, जो पशु के समान हैं, वे कभी-कभी सोचते हैं कि श्रीकृष्ण पराजित हो गए, परन्तु वस्तुत: वे श्रीभगवान् हैं तथा कोई भी उन्हें पराजित नहीं कर सकता । वे सदैव सभी पर विजयी रहते हैं । वे ही एकमात्र भगवान् हैं तथा अन्य सभी उनके आज्ञाकारी सेवक हैं ।
एक समय की बात है, भगवान् बलरामजी ने सुना कि कुरु वंश में दोनों विरोधी दलों के बीच युद्ध की तैयारियाँ की जा रही है । एक का नेतृत्व दुर्योधन कर रहा है और दूसरे का पाण्डव । उन्हें यह बात पसन्द नहीं आई कि वे युद्ध को रोकने के लिए एकमात्र मध्यस्थ हैं । इस विषय को असहनीय मानकर कि वे दोनों में से किसी भी दल में सक्रिय भाग नहीं ले रहे हैं, उन्होंने द्वारका से इस बहाने से प्रस्थान किया कि वे तीर्थयात्रा के विभिन्न पवित्र स्थलों के दर्शन हेतु जा रहे हैं । सर्वप्रथम उन्होंने प्रभास क्षेत्र नामक पवित्र स्थल के दर्शन किए । उन्होंने वहाँ पर स्नान किया तथा स्थानीय ब्राह्मणों को सन्तुष्ट किया । तब देवताओं, पितरों, महर्षियों तथा सामान्य जनता के वैदिक कर्मकांडों के अनुसार तर्पण किया । पवित्र स्थानों के दर्शन करने की यही वैदिक पद्धति है । इसके पश्चात् आदरणीय ब्राह्मणों के साथ, उन्होंने सरस्वती नदी के तट पर स्थित विभिन्न स्थानों के दर्शन करने का निर्णय किया । क्रमश: उन्होंने पृदक, बिंदुसर, त्रितकूप, सुदर्शनतीर्थ, विशालतीर्थ, ब्राह्मतीर्थ तथा चक्रतीर्थ नामक स्थानों के दर्शन किए । इनके अतिरिक्त उन्होंने पूर्व की ओर बहने वाली नदी सरस्वती के तट पर स्थित सभी विभिन्न पवित्र स्थानों के दर्शन किए । इसके उपरान्त, उन्होंने यमुना तथा गंगा तट पर स्थित सभी प्रमुख पवित्र स्थलों के दर्शन किए । इस प्रकार, अन्त में वे नैमिषारण्य नामक पवित्र स्थान पर पहुँचे ।
यह पवित्र स्थान, नैमिषारण्य, अभी भी भारत में विद्यमान है तथा प्राचीन काल में इसका उपयोग महर्षियों एवं सन्त पुरुषों की सभा के लिए होता था, जिसमें उनका लक्ष्य आध्यात्मिक जीवन को समझना एवं आत्म-साक्षात्कार करना होता था । जब भगवान् श्रीबलराम उस स्थान पर पहुँचे, तब वहाँ पर आध्यात्मवादियों की एक भव्य सभा द्वारा आयोजित एक भव्य यज्ञ सम्पन्न हो रहा था । ऐसी सभा सहस्रों वर्षों तक चलती रहती थी । जब श्रीबलराम वहाँ उपस्थित हुए, तब सभा के सभी भाग लेने वाले-महर्षि तपस्वी, ब्राह्मण तथा विद्वान-तत्काल ही उठ खड़े हुए और उन्होंने अत्यन्त आदर एवं सम्मान के साथ उनका स्वागत किया । कुछ व्यक्तियों ने उनकी सादर वन्दना की तथा जो वयोवृद्ध महर्षि तथा ब्राह्मण थे, उन्होंने खड़े होकर श्रीबलराम को आशीर्वाद दिए । इस औपचारिकता के पश्चात् बलरामजी को एक उचित सिंहासन दिया गया तथा सभी उपस्थित लोगों ने उनकी उपासना की । बलराम जी की उपस्थिति में सारे सदस्य खड़े हो गए, क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि बलरामजी श्रीभगवान् हैं । शिक्षा अथवा ज्ञान का अर्थ होता है श्रीभगवान् को समझना । यद्यपि बलरामजी एक क्षत्रिय के रूप में पृथ्वी पर प्रकट हुए, परन्तु सभी ब्राह्मण एवं ऋषि इसलिए खड़े हो गए, क्योंकि वे जानते थे कि बलराम जी कौन हैं ।
दुर्भाग्य से, अपने सिंहासन पर बैठने एवं पूजे जाने के उपरान्त, बलरामजी की दृष्टि व्यासदेव (श्रीभगवान् के साहित्यिक अवतार) के शिष्य रोमहर्षण पर पड़ी, जो अभी भी अपने व्यासासन पर बैठा हुआ था । वह न अपने स्थान से उठा और न ही उसने बलराम जी की वन्दना की । चूंकि वह अपने व्यासासन पर विराजमान था, अत: मूर्खतापूर्वक उसने सोचा कि वह श्रीभगवान् से भी श्रेष्ठ है, अतएव वह अपने स्थान से नहीं उठा और न ही श्रीभगवान् के सम्मुख प्रणाम किया । तत्पश्चात् भगवान् श्रीबलराम ने रोमहर्षण के इतिहास पर विचार किया: वह सूत परिवार में जन्मा था, उसकी माता ब्राह्मणी तथा पिता क्षत्रिय था, अतः यद्यपि रोमहर्षण ने श्रीबलराम को क्षत्रिय माना, तब भी उसे अपनी उच्च गद्दी पर बैठे नहीं रहना चाहिए था । बलरामजी ने विचार किया कि जन्म की अपनी स्थिति के अनुसार रोमहर्षण को उच्च सिंहासन स्वीकार नहीं करना चाहिए था, क्योंकि वहाँ पर अनेक विद्वान ब्राह्मण तथा ऋषि उपस्थित थे । उन्होंने यह भी अवलोकन किया कि सभा में बलरामजी के प्रवेश करने पर उनको सम्मान देने के लिए वह अपनी गद्दी पर से उठा ही नहीं । बलरामजी को रोमहर्षण का दुस्साहस अरुचिकर लगा तथा वे उससे अत्यन्त क्रोधित हो उठे ।
जब व्यक्ति व्यासासन पर विराजमान होता है, तब सामान्यत: उसे सभा में प्रवेश कर रहे किसी विशेष व्यक्ति के सत्कार के लिए उठना नहीं पड़ता, परन्तु इस सम्बन्ध में स्थिति कुछ और थी, क्योंकि श्रीबलदेव कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे । अतएव, यद्यपि रोमहर्षण सूत को व्यासासन के लिए योग्य व्यक्ति के रूप में सभी ब्राह्मणों द्वारा स्वीकार किया गया था, उसे वहाँ पर उपस्थित सभी अन्य विद्वान ऋषियों एवं ब्राह्मणों के आचरण का अनुसरण करना चाहिए था और उन्हें यह ज्ञात होना चाहिए था कि बलरामजी भगवान् हैं । उनके प्रति सम्मान सदैव उचित है, जबकि ऐसा सम्मान सामान्य व्यक्ति के सम्बन्ध में टाला जा सकता है । श्रीकृष्ण और श्रीबलराम का प्राकट्य विशेष रूप से धार्मिक सिद्धान्तों की पुनस्र्थापना के लिए होता है । भगवद्-गीता के कथनानुसार, सर्वश्रेष्ठ धार्मिक सिद्धान्त श्रीभगवान् के प्रति समर्पण करना है । श्रीमद्-भागवत में भी इसकी पुष्टि की गई है कि धार्मिकता की सर्वोच्चतम सिद्धि श्रीभगवान् की भक्ति में संलग्न रहना है ।
जब बलरामजी ने देखा कि सभी वेदों का अध्ययन करने के उपरान्त भी रोमहर्षण सूत ने धार्मिकता का सर्वोच्चतम सिद्धान्त नहीं समझा है, तब निस्सन्देह ही वे उसकी स्थिति का समर्थन नहीं कर सके । रोमहर्षण सूत को पूर्ण ब्राह्मण बनने का अवसर दिया गया था, परन्तु श्रीभगवान् के साथ उसके दुष्ट आचरण के कारण उसके निम्न जन्म का तत्काल ही स्मरण हुआ । रोमहर्षण सूत को ब्राह्मण की स्थिति प्रदान की गई थी, परन्तु उसका जन्म ब्राह्मण परिवार में नहीं हुआ था, उसका जन्म प्रतिलोम परिवार में हुआ था । वैदिक धारणा के अनुसार मिश्रित परिवार-परम्परा दो प्रकार की होती है । जब एक उच्च जाति का पुरुष निम्न जाति की कन्या के साथ विवाह करता है, तो उससे उत्पन्न संतान को अनुलोम कहते हैं, परन्तु जब एक पुरुष उच्च जाति की स्त्री से विवाह करता है, तो उनकी संतान को प्रतिलोम कहा जाता है । रोमहर्षण सूत प्रतिलोम परिवार का था, क्योंकि उसका पिता क्षत्रिय था तथा माता ब्राह्मणी थी । चूँकि रोमहर्षण की दिव्य अनुभूति पूर्ण नहीं थी, अतएव बलरामजी को ब्राह्मण प्रतिलोम परम्परा का स्मरण हुआ । कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी व्यक्ति को ब्राह्मण बनने का सुअवसर दिया जा सकता है, परन्तु यदि बिना वास्तविक अनुभूति किए वह ब्राह्मण की स्थिति का अनुचित रूप से उपयोग करता है, तो ब्राह्मण पद पर में उसकी उन्नति वैध नहीं है ।
रोमहर्षण में अनुभूति की कमी देखने के उपरान्त, बलरामजी ने रोमहर्षण द्वारा गर्वित होने के लिए उसकी निन्दा करने का निश्चय किया । अतएव, बलराम जी ने इस प्रकार कहा, "यह व्यक्ति मृत्यु दण्ड के योग्य है । यद्यपि श्रीव्यासदेव का शिष्य होने का गुण इसमें विद्यमान है तथा इस महाजन ने इतने सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का ज्ञान प्राप्त किया है, फिर भी श्रीभगवान् की उपस्थिति में वह विनम्र नहीं है ।"
भगवद्गीता के कथनानुसार, जो व्यक्ति वास्तव में ब्राह्मण है तथा अत्यन्त विद्वान है, उसे स्वयं ही विनम्र बन जाना चाहिए । रोमहर्षण सूत के सन्दर्भ में, यद्यपि वह अत्यन्त विद्वान था और उसे ब्राह्मण बनने का अवसर दिया गया था, फिर भी वह विनम्र नहीं बना था । इससे हम समझ सकते हैं कि जब व्यक्ति भौतिक लाभ से फूला नहीं समाता है, तब वह ब्राह्मण के योग्य नम्र व्यवहार की प्राप्ति नहीं कर सकता । ऐसे व्यक्ति का ज्ञान सर्प के फण को सुसज्जित करने वाले बहुमूल्य रत्न के समान होता है । अपने फण पर बहुमूल्य रत्न होने के पश्चात् भी, वह सर्प सर्प ही रहता है और किसी अन्य सर्प की भाँति भय का कारण होता है । यदि व्यक्ति विनम्र एवं विनीत नहीं बनता, तब वेदों एवं पुराणों का उसका अध्ययन तथा शास्त्रों का उसका विशाल ज्ञान एक बाहरी वस्त्र मात्र रह जाता है, ठीक उस नट कलाकार की भाँति जो मंच पर नृत्य करता है । अतएव, बलरामजी इस प्रकार कहने लगे: "मैं मिथ्या व्यक्तियों की निन्दा करने के लिए प्रकट हुआ हूँ, जो भीतर से अशुद्ध होते हैं परन्तु बाहर से अत्यन्त विद्वान एवं धार्मिक होने का ढोंग करते हैं । ऐसे व्यक्तियों का वध करना उन्हें आगामी पापपूर्ण कार्यों से रोकना है ।"
श्रीबलराम ने कुरुक्षेत्र के युद्ध में भाग नहीं लिया था, फिर भी अपनी स्थिति की वजह से, धार्मिक सिद्धान्तों की पुनस्र्थापना उनका प्रमुख कर्तव्य था । इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने कुश के तिनके से रोमहर्षण को मारकर उसका वध कर दिया । वह तिनका घास की एक पत्ती मात्र था । यदि कोई व्यक्ति यह प्रश्न करे कि बलरामजी कुश-मात्र से रोमहर्षण का वध किस प्रकार कर सकते थे, तो इसका उत्तर श्रीमद्-
भागवत में "प्रभु" शब्द के प्रयोग के रूप में दिया गया है । श्रीभगवान् की स्थिति सदैव दिव्य है । चूँकि वे सर्वशक्तिमान हैं, अतएव वे अपनी इच्छानुसार भौतिक नियमों एवं सिद्धान्तों के प्रति कृतज्ञ हुए बिना कार्य कर सकते हैं । अतएव उनके लिए एक कुश (घास) मात्र से रोमहर्षण सूत को मारना सम्भव था ।
रोमहर्षण सूत की मृत्यु होने पर सभी उपस्थित जन अत्यन्त दुखी हो गए । तब गर्जना एवं चिल्लाने की ध्वनि सुनाई पड़ी । यद्यपि सभी उपस्थित ब्राह्मण एवं ऋषि गणों को ज्ञात था कि श्रीबलराम भगवान् हैं, तथापि भगवान् की इस गतिविधि का विरोध करने में वे तनिक भी नहीं हिचकिचाए । उन्होंने नम्रतापूर्वक निवेदन किया, "हमारे प्रिय भगवान् ! हमारा विचार है कि आपका यह कार्य धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार नहीं है । प्रिय भगवान् ! यदुनन्दन ! हम आपको सूचित करना चाहेंगे कि हम ब्राह्मणों ने इस महायज्ञ के मध्य श्रेष्ठ स्थिति पर बैठने के लिए रोमहर्षण सूत को नियुक्त किया था । हमारे चुनाव के द्वारा वह व्यासासन पर विराजमान था तथा जब कोई व्यासासन पर विराजमान होता है, तो किसी व्यक्ति का स्वागत करने के लिए अपने सिंहासन पर से उसका उठना अनुचित है । इसके अतिरिक्त, हमने रोमहर्षण सूत को अविचल आयु प्रदान की थी । इन परिस्थितियों में क्योंकि आप श्रीमान् ने पूर्ण तथ्यों को जाने बिना ही उसका वध कर दिया है, अतएव हमारा विचार है कि आपकी यह क्रिया किसी ब्राह्मण को मारने के समान है । प्रिय भगवन् ! पतित आत्माओं के उद्धारक ! हमें निस्सन्देह ज्ञात है कि आप सभी वैदिक सिद्धान्तों के ज्ञाता हैं, आप सभी अद्भुत शक्तियों के स्वामी हैं, अतएव सामान्य रूप से वैदिक आदेशों को आप पर लागू नहीं किया जा सकता । परन्तु हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि रोमहर्षण सूत के इस वध के लिए प्रायश्चित करके आप दूसरों पर अपनी अहैतुकी कृपा प्रदर्शित करें । तथापि, हम यह सुझाव नहीं देते कि आप उसका वध करने के हेतु प्रायश्चित करने के लिए किस प्रकार का कार्य करें, हम केवल यह सुझाव देते हैं कि आप प्रायश्चित की कोई विधि ग्रहण करें जिससे अन्य सभी लोग आपके कार्य का अनुसरण कर सकें । महान् व्यक्ति के द्वारा किए गए कार्यों का सामान्य व्यक्ति पालन करता है ।"
श्रीभगवान् ने उत्तर दिया, "हाँ, मुझे इस क्रिया के लिए अपने लिए उचित प्रायश्चित करना चाहिए, परन्तु दूसरों के लिए यह अनुचित है । अतएव मेरे विचार से यह मेरा कर्तव्य है कि मैं प्रामाणिक साहित्य के आदेशानुसार प्रायश्चित के योग्य कार्य का निष्पादन करूं । साथ-साथ मैं इस रोमहर्षण सूत को पुन: जीवन दे सकता हूँ, जो अत्यधिक लम्बी अवधि का हो, पर्याप्त शक्ति तथा इन्द्रियों की पूर्ण शक्ति से परिपूर्ण हो । इतना ही नहीं, यदि आप चाहें, तो मैं उसे जो आप कहेंगे, वह दे सकता हूँ । आपकी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए मैं इन सभी वरदानों को प्रदान करने में अत्यन्त प्रसन्नता अनुभव करुँगा ।"
बलरामजी का यह कथन निश्चित रूप से इस बात की पुष्टि करता है कि श्रीभगवान् किसी भी प्रकार का कार्य करने के लिए स्वतंत्र हैं । यद्यपि यह मान लिया जाए कि उनके द्वारा रोमहर्षण सूत का वध अनुचित था, तो वे तत्काल ही अपने इस कार्य का सभी को अधिक लाभ देकर प्रभावहीन कर सकते थे । अतएव, किसी व्यक्ति को श्रीभगवान् के कार्यों का अनुकरण नहीं करना चाहिए, उसको श्रीभगवान् के आदेशों का केवल अनुसरण करना चाहिए । सभी उपस्थित विद्वान महर्षियों ने अनुभव किया कि यद्यपि वे श्रीबलराम जी के कार्य को अनुचित मानते थे, किन्तु श्रीभगवान् अपने कार्य की पूर्ति और भी महान् लाभों के द्वारा करने को तत्पर थे । रोमहर्षण सूत को मारने में भगवान् के उद्देश्य को घटाने की इच्छा न रखते हुए, सभी जनों ने प्रार्थना की, "प्रिय भगवन् ! रोमहर्षण सूत को मारने में कुश अस्त्र का असामान्य उपयोग जैसे का तैसा रहे, उसका वध करने की आपकी इच्छा के फलस्वरूप उसे पुन: जीवित नहीं किया जाना चाहिए ! उसी के साथ आप स्मरण रखें कि हम ऋषियों तथा ब्राह्मणोंने उसे दीर्घायु प्रदान की थी, अतएव ऐसे वरदान को व्यर्थ नहीं जाना चाहिए ।" अत: सभा में सभी उपस्थित ब्राह्मणों का निवेदन द्रव्यर्थक था, क्योंकि वे उनके द्वारा दिए गए वरदान को बनाए रखना चाहते थे कि रोमहर्षण सूत की उस महायज्ञ के अन्त तक स्थिति बनी रहे, परन्तु साथ ही साथ वे श्री बलरामजी के द्वारा उसको मारने के कार्य को व्यर्थ नहीं करना चाहते थे । अतएव श्रीभगवान् ने समस्या का हल इस प्रकार निकाला, जो उनकी श्रेष्ठ स्थिति के उपयुक्त था । उन्होंने कहा, "क्योंकि पुत्र की उत्पत्ति पिता के शरीर से होती है, यह वेदों का आदेश है कि पुत्र ही पिता का प्रतिनिधि होता है । अतएव मेरा कहना है कि रोमहर्षण सूत का पुत्र उग्रश्रवा, अपने पिता की स्थिति ग्रहण करे और पुराणों पर व्याख्या करने की क्रिया को कायम रखे और आप लोग रोमहर्षण की दीर्घ आयु चाहते थे, अतएव यह वरदान उसके पुत्र में हस्तान्तरित हो जाएगा । इस तरह उसका पुत्र उग्रश्रवा आप लोगों के द्वारा दी गई सुविधाओं को प्राप्त करेगा, जो इस प्रकार हैं-स्वस्थ शरीर, बिना किसी कठिनाई तथा सभी इन्द्रियों की पूर्ण शक्ति के साथ दीर्घ जीवन-अवधि ।
तत्पश्चात् बलरामजी ने सभी ब्राह्मणों एवं ऋषियों से प्रार्थना की कि रोमहर्षण को प्रदान किए गए वरदान के अतिरिक्त, उन्हें किसी अन्य वरदान की भी माँग करनी चाहिए, जिसे वे पूरा करने को तैयार हैं । इस तरह उन्होंने स्वयं को सामान्य क्षत्रिय की स्थिति में रखा तथा सभी ऋषियों को सूचित किया कि उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि वे किस प्रकार रोमहर्षण के वध के लिए प्रायश्चित कर सकते हैं, परन्तु यदि वे कोई सुझाव दें, तो उसे सहर्ष स्वीकार करेंगे ।
ब्राह्मण लोग श्रीभगवान् का उद्देश्य समझ सकते थे, अतएव उन्होंने सुझाव दिया कि वे अपने कार्य का कुछ इस प्रकार प्रायश्चित करें, जो उन सब के लिए लाभप्रद हो । उन्होंने कहा, "प्रिय भगवन् ! बल्वल नाम का एक असुर है । वह इल्वल का पुत्र है, परन्तु वह एक अत्यन्त शक्तिशाली असुर है तथा यज्ञ के इस पवित्र स्थान में प्रत्येक पखवारे, पूर्णिमा एवं अमावस्या के दिन आता है तथा हमारे यज्ञ-कार्यों के निष्पादन में घोर विध्न डालता है । हे दशाह परिवार के वंशज ! हम सभी प्रार्थना करते हैं कि आप इस असुर का वध करें । हमारा विचार है कि यदि आप कृपापूर्वक उसका वध कर डालेंगे, तो हमारी ओर से यही आपका प्रायश्चित होगा । यह असुर समय-समय पर यहाँ आता है और प्रचुर मात्रा में पीब, रक्त, मल, मूत्र तथा शराब जैसे दूषित एवं अशुद्ध पदार्थ हम पर फेंकता है तथा ऐसी गन्दगी को हम पर बरसा कर इस पवित्र स्थान को दूषित कर देता है । बल्वल का वध करने के पश्चात् आप इन सभी पवित्र स्थानों की तीर्थयात्रा बारह महीनों तक कर सकते हैं और इस प्रकार आप सभी संदूषणों से मुक्त हो जाएँगे । यही हमारा आदेश है ।"
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “दन्तवक्र, विदूरथ तथा रोमहर्षण का वध” नामक अठह्त्तरवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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