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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 8: विराट रूप का दर्शन  » 
 
 
 
 
 
इस घटना के बाद वसुदेव ने अपने कुल पुरोहित गर्गमुनि से कहा कि वे नन्द महाराज के यहाँ जाकर ज्योतिष के अनुसार श्रीकृष्ण के भविष्य की गणना करें । गर्गमुनि महान् ॠषि थे जिन्होंने अनेक तपस्याएँ की थीं और जो यदुवंश के पुरोहित नियुक्त हुए थे । जब गर्गमुनि नन्द महाराज के यहाँ पहुँचे, तो वे उन्हें देखकर परम प्रसन्न हुए और तुरन्त ही हाथ जोड़ कर खड़े हो गए तथा उन्होंने उनका सादर अभिवादन किया । उन्होंने गर्गमुनि का इस भाव से स्वागत किया मानो कोई ईश्वर या श्रीभगवान् की पूजा कर रहा हो । उन्होंने उन्हें उत्तम आसन दिया और जब वे बैठ गए, तो उनका हार्दिक स्वागत किया । उन्हें अत्यन्त विनम्र भाव से सम्बोधित करते हुए नन्द महाराज ने कहा : “हे ब्रह्मण ! इस गृहस्थ के घर आपका आगमन केवल प्रकाश प्रदान करने के लिए हुआ है । हम सदैव गृहस्थी के कार्यों में लगे रहते हैं । जिससे आत्म-साक्षात्कार के वास्तविक कार्य के लिए हमें अवसर ही नहीं मिल पाता । हमारे घर में आपका पदार्पण हमें आध्यात्मिक जीवन के विषय में किञ्चित् प्रकाश प्रदान करने के निमित्त हुआ है । आपका गृहस्थों के घर पधारने का इसके अतिरिक्त कोई अन्य प्रयोजन नहीं हो सकता ।” वास्तव में किसी साधु पुरुष या ब्रह्मण का ऐसे गृहस्थों के घर में जाने का कोई प्रयोजन नहीं है, जो निरन्तर आर्थिक क्रियाकलापों (धन) में व्यस्त रहते हैं । साधु पुरुषों तथा ब्रह्मणों का गृहस्थ के घर जाने का कारण केवल उसे प्रकाश प्रदान करना होता है । यदि कोई यह पूछे कि, “गृहस्थजन ज्ञान-प्राप्ति के लिए किसी साधु पुरुष या ब्रह्मण के पास क्यों नहीं जाते ?” तो इसका उत्तर यही होगा कि गृहस्थजन सोचते हैं कि गृहस्थजन अत्यन्त संकुचित हृदय वाले होते हैं । सामान्यतया गृहस्थजन सोचते हैं कि उनका प्रधान कार्य पारिवारिक मामलों में व्यस्त रहना हैं और आत्म-साक्षात्कार या आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश गौण है । केवल दयावश ही साधु पुरुष तथा ब्रह्मण-जन गृहस्थों के घर जाते हैं ।

नन्द महाराज ने गर्गमुनि को ज्योतिष विज्ञान का सबसे बड़ा पण्डित कह कर सम्बोधित किया । सूर्य या चन्द्रगहण जैसी घटनाओं के विषय में फलितज्योतिष की भविष्यवाणियाँ आश्चर्यचकित गणनाएँ हैं और इसी विज्ञान विशेष के द्वारा मनुष्य भविष्य को स्पष्ट रूप से समझ सकता है । गर्गमुनि इस ज्ञान में पटु थे इस ज्ञान के द्वारा यह जाना जा सकता है कि मनुष्य के विगत कर्म क्या थे जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य जीवन में सुख या दुःख भोग सकता है ।

नन्द महाराज ने गर्गमुनि को “सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मण” भी कहा । ब्रह्मण वह है, जो परमेश्वर के ज्ञान में दक्ष हो । परमेश्वर के ज्ञान के बिना मनुष्य ब्रह्मण नहीं माना जा सकता । इस प्रसंग में प्रयुक्त सही शब्द ब्रह्मविदाम् है, जिसका अर्थ है, वे पुरुष जो परमेश्वर को भलीभाँति जानते हैं । एक दक्ष ब्रह्मण अन्य उप जातियों-क्षत्रिय तथा वैश्यों-को सुधारने की सुविधाएँ प्रदान कर सकता है । शूद्र कोई संस्कार सम्पन्न नहीं करते । ब्रह्मण को क्षत्रिय तथा वैश्य का गुरु या पुरोहित माना जाता है । नन्द महाराज जाति के वैश्य थे और वे गर्गमुनि को सर्वोच्च ब्रह्मण मानते थे । अतः उन्होंने अपने दोनों धर्मपुत्रों, श्रीकृष्ण तथा बलराम, को संस्कार कराने के लिए उन्हें समर्पित किया । नन्द महाराज ने कहा कि न केवल इन दोनों बालकों को अपितु सारे मनुष्यों को चाहिए कि जन्म के पश्चात् किसी योग्य ब्रह्मण को अपना गुरु बनाएँ ।

इस प्रार्थना पर गर्गमुनि ने उत्तर दिया, “वसुदेव ने मुझे इन बालकों का, विशेष रूप से श्रीकृष्ण का, संस्कार कराने के लिए भेजा है । मैं उनका कुल-पुरोहित हूँ और अगर मैं इन को संस्कार कराऊँ तो संयोगवश यह लगेगा कि श्रीकृष्ण देवकी के पुत्र हैं ।” अपनी फलितज्योतिष गणना से गर्गमुनि समझ गए थे कि श्रीकृष्ण देवकी के पुत्र हैं, किन्तु नन्द इससे सर्वथा अनजान थे । परोक्ष रूप से उन्होंने यह कहा कि श्रीकृष्ण तथा बलराम दोनों वसुदेव के पुत्र थे । बलराम वसुदेव के पुत्र रूप में विख्यात थे, क्योंकि उनकी माता रोहिणी विद्यमान थीं, किन्तु श्रीकृष्ण के विषय में नन्द को ज्ञात न था । गर्गमुनि ने अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रकट कर दिया कि श्रीकृष्ण देवकी के पुत्र हैं । उन्होंने नन्द महाराज को यह भी आगाह कर दिया कि यदि वे संस्कार सम्पन्न कराएँगे, तो पापी कंस समझ जाएगा कि श्रीकृष्ण देवकी तथा वसुदेव के पुत्र हैं । गणना के अनुसार देवकी के कन्या नहीं होनी चाहिए, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति यही कहता है कि देवकी की आठवीं सन्तान कन्या है । इस प्रकार गर्गमुनि ने नन्द महाराज को सूचित किया कि कन्या तो यशोदा के उत्पन्न हुई थी और श्रीकृष्ण देवकी से उत्पन्न थे और वे परस्पर बदल लिये गए थे । उस कन्या या दुर्गा ने भी कंस को सूचित किया था कि उसे मारने वाले बालक ने अन्यत्र जन्म ले लिया है । गर्गमुनि ने कहा, “यदि मैं आपके पुत्र का नामकरण संस्कार करता हूँ और यदि वह उस कन्या द्वारा कंस के प्रति की गई आकाशवाणी को पूरा कर देता है, तो सम्भव है कि वह पापी असुर आकर नामकरण के बाद इस बालक का भी वध कर दे । अतः मैं इन सभी भावी विपत्तियों का उत्तरदायी नहीं बनना चाहता ।”

गर्गमुनि के वचन सुनकर नन्द महाराज बोले, “यदि ऐसा आशंका है, तो अच्छा होगा कि नामकरण संस्कार का भव्य आयोजन न किया जाये । आपके लिए यही श्रेयस्कर होगा कि आप केवल वैदिक मंत्रों का उच्चारण करके संस्कार सम्पन्न करा दें । हम द्विज हैं और मैं तो आपकी उपस्थिति का लाभ उठा रहा हूँ । अतः बिना धूम-धड़ाका के नामकरण संस्कार सम्पन्न करा दें ।” नन्द महाराज नामकरण संस्कार को गुप्त रखना चाहते थे, किन्तु यह भी चाह रहे थे कि गर्गमुनि यह संस्कार सम्पन्न करें ।

जब नन्द महाराज ने इतनी उत्सुकता के साथ गर्गमुनि से प्रार्थना की तो उन्होंने गुप्त रूप से नन्द की गोशाला में नामकरण संस्कार सम्पन्न किया । उन्होंने नन्द को बताया कि रोहिणी-पुत्र बलराम अपने परिवारवालों तथा परिजनों के लिए अत्यन्त मोहक होगा, अतः राम कहलाएगा । भविष्य में वह अद्वितीय बलशाली सिद्ध होगा, अतः बलराम कहलाएगा । गर्गमुनि ने आगे बताया, “चूँकि आपके कुल तथा यदुकुल में घनिष्ठ सम्बन्ध है, अतः उस बालक का एक नाम संकर्षण भी होगा ।” इसका अर्थ यह हुआ कि गर्गमुनि ने रोहिणी के पुत्र के तीन नाम रखे- बलराम, संकर्षण तथा बलदेव । उन्होंने चातुरी से यह बात प्रकट न होने दी कि बलराम भी देवकी के गर्भ में प्रकट हुए थे और बाद में उन्हें रोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित किया गया था । श्रीकृष्ण तथा बलराम सगे भाई (सहोदर) हैं और मूलतः देवकी के पुत्र हैं ।

तब गर्गमुनि ने नन्द महाराज को जानकारी दी, “जहाँ तक आपके पुत्र का प्रश्न है इस बालक ने विभिन्न युगों में विभिन्न शारीरिक रंग धारण किए हैं । सर्वप्रथम इसने श्वेत रंग धारण किया, फिर लाल, तब पीला और अब श्याम रंग धारण किया है । इसके अतिरिक्त यह पहले वसुदेव का पुत्र था, अतः इसका नाम वासुदेव तथा श्रीकृष्ण होना चाहिए । अतः कुछ लोग इसे श्रीकृष्ण कह कर पुकारेंगे और कुछ वासुदेव कह कर । किन्तु आपको एक बात जान लेनी चाहिए कि अपनी विभिन्न लीलाओं के कारण इस बालक के अन्य अनेक नाम तथा कार्यकलाप होते रहे हैं ।”

गर्गमुनि ने नन्द महाराज को यह भी संकेत किया कि उनका पुत्र गिरिधारी भी कहलाएगा, क्योंकि यह गोवर्धन पर्वत उठाने का असाधारण कृत्य करेगा । चूँकि वे भूत तथा भविष्य के जानने वाले ज्योतिषी थे, अतः वे बोले, “मैं इसके कार्यों तथा नाम के विषय में हर बात जानता हूँ, किन्तु अन्य लोग नहीं जानते । यह बालक समस्त ग्वालों तथा गायों को अत्यन्त प्यारा होगा । वृन्दावन में अत्यन्त लोकप्रिय होने के कारण यह आपके लिए कल्याणकारी होगा । इसकी उपस्थिति से आप समस्त सांसारिक विपत्तियों को पार कर सकेंगे, चाहे कितने ही विरोधी तत्त्व क्यों न आ जायें ।

गर्गमुनि ने आगे कहा, “हे व्रजराज ! जब-जब राजनीतिक कुव्यवस्था हुई है इस बालक ने अपने पूर्वजन्मों में चोर-उचक्कों से साधुजनों की कई बार रक्षा की है । आपका पुत्र इतना शक्तिशाली है कि जो भी इसका भक्त होगा उसे शत्रु सता नहीं पाएँगे । जिस प्रकार विष्णु सदैव देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी तरह आपके पुत्र के भक्त भी नारायण भगवान् के द्वारा सदैव सुरक्षित रहेंगे । नारायण अर्थात् भगवान् के स्तर पर आपका बालक शक्ति, सौन्दर्य तथा ऐश्वर्य में हर तरह से उन्नति करेगा । अतः मेरी सलाह है कि आप इसकी सुरक्षा अत्यन्त सतर्कतापूर्वक करें, जिससे यह किसी व्यवधान के बिना विकास कर सके ।” दूसरे शब्दों में गर्गमुनि ने नन्द महाराज को यह भी बताया कि चूँकि वे नारायण के परम भक्त हैं, अतः भगवान् नारायण ने उन्हें अपने ही समान पुत्र दिया है । साथ ही गर्गमुनि ने यह भी संकेत किया, “आपके पुत्र को अनेक असुर सताएंगे, अतः सावधान रहें और उसकी रक्षा करें ।” इस प्रकार गर्गमुनि ने नन्द महाराज को विश्वास दिलाया कि साक्षात् नारायण उनके पुत्र बने हैं । उन्होंने अनेक प्रकार से उनके पुत्र के दिव्य गुणों का वर्णन किया । यह जानकारी देकर गर्गमुनि अपने घर वापस चले गए । नन्द महाराज अपने को परम भाग्यशाली व्यक्ति मानने लगे और ऐसा आशीर्वाद प्राप्त करके उन्हें परम सन्तोष हुआ ।

इस घटना के कुछ समय बाद बलराम तथा श्रीकृष्ण दोनों ही हाथों और घुटनों के बल सरकने लगे । इस प्रकार चलते हुए वे अपनी माताओं को प्रमुदित करते रहते । उनकी कमर तथा पैरों में बँधी घंटियाँ रुनझुन बजतीं और वे मनोहर ढंग से इधर-उधर घूमते । कभी-कभी वे सामान्य बच्चों की भाँति दूसरे बच्चों से ड़र कर अपनी रक्षा के लिए अपनी-अपनी माताओं के पास दौड़े चले आते । कभी वृन्दावन की मिट्टी में रेंगने के कारण उनके शरीर मिट्टी से लथपथ हो जाते । वास्तव में उनकी मालाओं द्वारा उनके शरीरों पर केसर और चंदन का लेप मला होता था । किन्तु मिट्टी में रेंगने के कारण उनके शरीरों पर मिट्टी लग जाती । ज्योंही वे यशोदा तथा रोहिणी के पास रेंगते आते, वे उन्हें गोद में उठाकर साड़ी के आँचल से ढक कर दूध पिलातीं । जब वे पयपान करते रहते, तो माताएँ उनकी दँतुलियाँ देखती रहतीं । अपने पुत्रों को बढ़ता देखकर उनकी प्रसन्नता बढ़ जाती । कभी-कभी नटखट बालक गोशाला तक रेंग जाते और बछड़े की पूँछ पकड़ कर खड़े हो जाते । इससे बछड़े विचलित होकर इधर-उधर दौड़ने लगते और बच्चे मिट्टी तथा गोबर के ऊपर घिसट जाते । इस कौतूहल को देखने के लिए यशोदा तथा रोहिणी अपनी पड़ोसिनों को, यानी गोपियों को बुला लेतीं । ये गोपियाँ श्रीकृष्ण की लीलाएँ देखकर दिव्य आनन्द में लीन हो जातीं और प्रसन्नतावश वे जोर-जोर से हँसने लगतीं ।

श्रीकृष्ण तथा बलराम दोनों ही इतने चंचल थे कि यशोदा तथा रोहिणी अपने-अपने गृहकार्यों में व्यस्त रहते हुए उन्हें गायों, बैलों, बन्दरों, जल, अग्नि तथा पक्षियों से बचाने का प्रयत्न करती रहतीं । अपने बालकों की सुरक्षा के लिए सदैव उत्सुक रहने तथा गृह-कार्यों में व्यस्त रहने के कारण वे शान्तिपूर्वक रह भी न पाती थीं । अल्पकाल में श्रीकृष्ण तथा बलराम दोनों ही उठकर खड़े होने लगे और अपने पैरों से कुछ-कुछ चलने लगे । जब वे दोनों चलने लगे, तो उनके हमजोली उनके साथ हो लेते और वे सब मिलकर गोपियों को तथा विशेष रूप से यशोदा तथा रोहिणी को परमानंद प्रदान करते ।

यशोदा तथा रोहिणी की समस्त गोपी सखियाँ वृन्दावन में श्रीकृष्ण तथा बलराम के नटखट बाल-सुलभ कार्यकलापों का आनन्द लूटने लगीं । इससे भी अधिक आनन्द-प्राप्ति के उद्देश्य से वे सब एकत्र होती और माता यशोदा के पास इन चंचल बालकों की शिकायत करने पहुँच जाती । श्रीकृष्ण माता यशोदा के सम्मुख बैठे होते, तभी सारी गोपियाँ यशोदा माता से उनकी शिकायतें करने लगती जिससे वे सुन सकें । वे कहती, “यशोदा जी ! आप अपने नटखट श्रीकृष्ण को क्यों नहीं बरजतीं ? वह हर प्रातः तथा सायंकाल बलराम के साथ हमारे घरों में आता है और गाएँ दुही जाने के पूर्व ही उनके बछड़ों को खोल देता है, जिससे वे गायों का सारा दूध पी जाते हैं । अतः जब हम दुहने जातीं हैं, तो दूध न होने के कारण हमें खाली बर्तन लेकर लौटना पड़ता है । यदि हम इस कृत्य के लिए श्रीकृष्ण तथा बलराम को धमकाती हैं, तो वे ऐसी मनोहर हँसी हँसते है कि हम कुछ भी नहीं कर पातीं । यही नहीं, आपके श्रीकृष्ण तथा बलराम को हमारा दही तथा माखन चुराने में बड़ा आनन्द आता हैं, उसे चाहे हम कहीं भी क्यों न रखें । जब हम उन्हें दही तथा माखन चुराते पकड़ लेती हैं, तो वे कहते हैं, “आप हम पर चोरी का आरोप क्यों लगाती हैं ? क्या आप समझती है कि हमारे घर में दही तथा मक्खन का अभाव है ?” कभी-कभी वे मक्खन, दही तथा दूध चुराकर बन्दरों को बाँट देते हैं । जब बन्दर भरपेट खा लेते हैं, तो वे चिढ़ाते हैं कि यह दूध यह दही तथा माखन रद्दी हैं, यहाँ तक कि बन्दर भी इन्हें नहीं खाते । वे पात्रों को तोड़-फोड़ कर इधर-उधर बिखेर देते हैं । यदि हम दही, माखन तथा दूध को किसी एकान्त अँधेरे स्थान में रखती हैं, तो आपके श्रीकृष्ण तथा बलराम अपने शरीर के आभूषणों तथा रत्नों के तेज से उस अन्धेरे स्थान में भी ढूँढ़ लेते हैं । यदि कदाचित् उन्हें छिपाया हुआ दही और मक्खन नहीं मिलता, तो वे जाकर हमारे बच्चों को चिकोटी काटते है । जिससे वे रोने लगते हैं और वे दोनों भाग जाते हैं । यदि हम मक्खन दही को छींके पर ऊँचे टाँग देती हैं, तो अपनी पहुँच के बाहर होने पर भी चक्की के ऊपर काठ के बक्से रख कर वहाँ तक पहुँच जाते हैं । यदि वे वहाँ तक नहीं पहुँच पाते, तो पात्र में छेद कर देते हैं । अतः हम सोचती हैं कि आप अपने बालकों के शरीर से सारे रत्नजटित आभूषण निकाल लें, तो अच्छा हो ।”

यह सुनकर यशोदा कहतीं, “बहुत अच्छा, मैं श्रीकृष्ण के सारे रत्न उतार लूँगी जिससे वह अँधेरे में रखा माखन न ढूँढ़ पाये ।” तब गोपियाँ कहतीं, “नहीं, नहीं आप ऐसा न करें । आप इनके रत्नों को उतार कर क्या करेंगी ? हम नहीं जानती कि ये कैसे बालक हैं, जो बिना आभूषणों के भी एक प्रकार का तेज फैलाते रहते हैं जिससे वे अँधेरे में भी प्रत्येक वस्तु देख सकते हैं ।” तब माता यशोदा उन्हें बतातीं, “अच्छा, तुम लोग अपना माखन तथा दही सावधानी से रखा करो जिससे वे वहाँ पहुँच न सकें ।” तो उत्तर में गोपियाँ कहतीं, “हाँ, वास्तव में हम ऐसा ही करती हैं, किन्तु कभी-कभी हम गृहकार्यों में व्यस्त रहतीं हैं और ये नटखट बालक न जाने कैसे घर में घुस कर सारी वस्तुएँ तहस-नहस कर देते हैं । कभी-कभी दही तथा माखन न चुरा सकने पर ये गुस्से में आकर स्वच्छ फर्श पर पेशाब कर देते हैं । कभी-कभी उस पर थूक देते है । आप अपने बच्चे को देखो न !-वे किस प्रकार इस शिकायत को सुन रहे हैं । वे सारे दिन हमारे दही तथा माखन चुराने की योजना बनाते रहते हैं और अब किस तरह वे शान्त अच्छे बालकों की तरह बैठे है । जरा उनके मुखमंड़ल तो देखें !” जब माता यशोदा ने सारे उलाहने सुनकर अपने बच्चे को डाँटना चाहा, तो उसके भाले भाले मुखमंड़ल को देखकर हँस पड़ी और डाँट नहीं पाईं ।

किसी और दिन जब श्रीकृष्ण तथा बलराम अपने मित्रों के साथ खेल रहे थे, तो सारे बालकों ने बलराम के साथ मिलकर यशोदा से कहा कि श्रीकृष्ण ने मिट्टी खाई है । यह सुनकर माता यशोदा ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया और कहा, “बेटे ! तुमने अकेले में मिट्टी क्यों खाईं ? देखो न, बलराम सहित तुम्हारे सारे मित्र तुम्हारी शिकायत कर रहे हैं ।” अपनी माता के ड़र से श्रीकृष्ण ने कहा, “हे माता ! ये सारे लड़के, जिनमें भइया बलराम भी सम्मिलित हैं, झूठ बोल रहे हैं । मैंने मिट्टी कभी नहीं खाईं । आज भइया बलराम मेरे साथ खेलते-खेलते मुझसे रुष्ट हो गए, अतः वे मेरी शिकायत करने के उद्देश्य से अन्य बालकों से मिल गए हैं । वे सभी एकजुट होकर शिकायत करने आए हैं जिससे आप क्रुद्ध हों और मुझे प्रताड़ित करें । यदि आप सोचती हैं कि वे सच बोल रहे हैं, तो आप मेरे मुँह के भीतर देख सकती हैं कि मैंने मिट्टी खाई है अथवा नहीं ।” उनकी माता बोलीं, “अच्छा, यदि तुमने मिट्टी नहीं खाई, तो अपना मुँह खोलो, मैं देखूँगी ।”

जब श्रीकृष्ण की माता ने इस प्रकार आदेश दिया, तो उन्होंने एक सामान्य बालक की भाँति तुरन्त अपना मुँह खोल दिया । तब माता यशोदा ने मुँह के भीतर सृष्टि का पूर्ण ऐश्वर्य देखा । माता यशोदा ने मुँह के भीतर चारों ओर सम्पूर्ण बाह्य आकाश, पर्वत, द्वीप, सागर, ग्रह, वायु, अग्नि, चन्द्रमा तथा नक्षत्र देखे । चन्द्र तथा नक्षत्रों के साथ ही उन्होंने सम्पूर्ण तत्त्वों- जल, आकाश, विस्तृत शून्य, अहंकार, चित्त, बुद्धि, सारे देवता तथा इन्द्रियविषयों- यथा ध्वनि, गंध आदि एवं प्रकृति के तीनों गुणों को देखा । उन्होंने मुख के भीतर सारे जीवों, नित्य काल, भौतिक प्रकृति, आध्यात्मिक प्रकृति, गति, चेतना तथा समग्र सृष्टि के विभिन्न रूपों को देखा । यशोदा ने उनके मुख में दृश्य जगत् के लिए अनिवार्य सारी वस्तुएँ देखीं । उन्होंने उनके मुख के भीतर श्रीकृष्ण को गोद लिए तथा अपना पयपान कराते अपने आपको भी देखा । वे यह सब देख कर भयभीत हो गईं और आश्चर्य करने लगीं कि वे सपना देख रही हैं या वास्तव में कुछ विचित्र दृश्य देख रही हैं । उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि वे या तो स्वप्न देख रही थीं या भगवान् की माया का खेल देख रही थीं । उन्होंने सोचा कि ये विचित्र वस्तुएँ देखकर वे मानसिक रूप से विक्षिप्त तो नहीं हो गईं । फिर सोचा, “हो सकता है कि वह मेरे पुत्र की विराट योग शक्ति हो, अतः उसके मुख के भीतर ऐसा दृश्य देखकर मैं विचलित हो गई हूँ । अतः मैं उन श्रीभगवान् को नमस्कार करती हूँ जो चेतना, मन, कर्म एवं दार्शनिक कल्पना की अभिव्यक्ति से दूर हैं और जिनकी विविध शक्तियाँ व्यक्त तथा अव्यक्त का सृजन करती हैं । उनकी शक्ति से आत्मा तथा शारीरिक सत्ता का बोध होता है ।” उन्होंने फिर कहा, “मुझे उनको सादर नमस्कार करना चाहिए जिनकी माया से मैं नन्द को अपना पति तथा श्रीकृष्ण को अपना पुत्र समझ रही हूँ और यह सोच रही हूँ कि नन्द की सारी सम्पत्ति मेरी है और सारे ग्वाले तथा ग्वालिनें मेरी प्रजा हैं । यह सब भ्रान्ति परमेश्वर की माया के कारण है । अतः मैं उनसे प्रार्थना करती हूँ कि वे सदैव मेरी रक्षा करते रहें ।”

जब माता यशोदा इस प्रकार के दार्शनिक भावों से भरी हुई थीं, तो भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी अन्तरंगा शक्ति का फिर विस्तार किया जिससे वे मातृ-प्रेम से मोहग्रस्त हो जाये । अतः तुरन्त ही माता यशोदा के सारे दार्शनिक भाव विस्मृत हो गए और उन्होंने श्रीकृष्ण को अपने पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया । उन्हें अपनी गोदी में उठाकर भौतिक वे मातृ-प्रेम से अभिभूत हो गईं और सोचने लगीं, “उन्हें उपनिषद् और वेदान्तसूत्र या योग पद्धति तथा सांख्य दर्शन से ग्रहण किए ज्ञान द्वारा ही समझा जा सकता है ।” फिर वे श्रीभगवान् को अपने द्वारा जन्में बालक के रूप में सोचने लगीं ।

निश्चय ही यशोदा ने अनेकानेक पुण्यकर्म किए होंगे जिसके फलस्वरूप उन्हें परम सत्य श्रीभगवान् उनके पुत्र के रूप में प्राप्त हुए जिन्होंने उनका स्तन-पान किया । इसी प्रकार नन्द महाराज ने भी अनेक महान् यज्ञ तथा पुण्यकर्म किए होंगे जिससे श्रीकृष्ण उनके पुत्र बने और उन्हें अपना पिता कह कर सम्बोधित करने लगा । किन्तु यह आश्चर्यजनक है कि वसुदेव तथा देवकी श्रीकृष्ण की दिव्य बाल-लीलाओं से वंचित रहे यद्यपि श्रीकृष्ण उन्हीं के असली पुत्र थे । आज भी अनेक साधु तथा सन्त पुरुष श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का गुणगान करते हैं, किन्तु वसुदेव तथा देवकी इस बाल्यकाल की लीलाओं का साक्षात् आनन्द न उठा सकें । इसका कारण श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को इस प्रकार बतलाया:-

जब ब्रह्माने द्रोण नामक सर्वश्रेष्ठ वसु को अपनी पत्नी धरा के साथ सन्तान वृद्धि करने का आदेश दिया, तो उन्होंने ब्रह्माजी से कहा, “हे पिता ! हमें आप आशीर्वाद दें ।” भविष्य में जब हम पुनः इस ब्रह्माण्ड में जन्म धारण करें, तो भगवान् श्रीकृष्ण अपने अत्यन्त मनोहर बाल्यपन के कारण उनका सारा ध्यान आकृष्ट करें । श्रीकृष्ण के साथ हमारे व्यवहार इतने प्रगाढ़ हों कि उनके साथ श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं के श्रवण मात्र से ही प्रत्येक मनुष्य जन्म तथा मृत्यु के अविद्या-सागर को पार कर सके ।” ब्रह्माजी ने उन्हें यह वर दे दिया जिसके फलस्वरूप द्रोण वृन्दावन में नन्द महाराज के रूप में और धरा नन्द की पत्नी माता यशोदा के रूप में प्रकट हुईं ।

इस प्रकार नन्द महाराज तथा उनकी पत्नी यशोदा ने श्रीभगवान् को पुत्र रूप में प्राप्त करके अपनी शुद्ध भक्ति बढ़ाई और समस्त गोपियों तथा ग्वालों ने जो श्रीकृष्ण के सहयोगी थे सहज ही श्रीकृष्ण के लिए अपनी प्रेम भावनाएँ विकसित कीं ।

अतः ब्रह्माजी के वरदान की पूर्ति करने के लिए ही श्रीकृष्ण अपने पूर्ण अंश बलराम सहित प्रकट हुए और समस्त वृन्दावनवासियों के दिव्य आनन्द को बढ़ाने के लिए सारी बाल-लीलाएँ सम्पन्न कीं ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “विराट् रूप का दर्शन” नामक आठवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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