सभी जीवात्माओं के परमात्मा, भगवान् श्रीकृष्ण प्रत्येक व्यक्ति के हृदय को भली-भाँति जानते हैं । वे ब्राह्मणों तथा भक्तों के प्रति विशेष रूप से उन्मुख हैं । भगवान् श्रीकृष्ण को ब्राह्मण्यदेव कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है कि वे ब्राह्मणों द्वारा पूजे जाते हैं । अतएव यह समझा जाता है कि जो भक्त श्रीभगवान् के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित है, उसने स्वयं ही ब्राह्मण की स्थिति प्राप्त कर ली है । ब्राह्मण बने बिना कोई भगवान् कृष्ण तक नहीं पहुँच सकता । कृष्ण अपने भक्तों के कष्ट को दूर करने के लिए विशेष रूप से चिन्तित रहते हैं तथा शुद्ध भक्त के वे ही एकमात्र शरण हैं । भगवान् श्रीकृष्ण बहुत समय से अपने पूर्वकालीन सम्बन्ध के विषय में सुदामा विप्र से वार्ता करने में संलग्न थे । तत्पश्चात्, अपने पुराने मित्र के संग का लाभ उठाने के लिए, भगवान् श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए पूछा, "प्रिय मित्र ! तुम मेरे लिए क्या लाए हो ? क्या तुम्हारी पत्नी ने मेरे लिए तुम्हें कुछ भोज्य-पदार्थ दिया है ?" अपने मित्र को सम्बोधन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उसकी ओर देखते हुए अत्यन्त प्रेम के साथ मुस्करा रहे थे । उन्होंने आगे कहा, "प्रिय मित्र ! तुम अपने घर से मुझे देने के लिए अवश्य कोई वस्तु लाए होगे ।"
श्रीकृष्ण को ज्ञात था कि सुदामा उन तुच्छ चावलों को भेंट में देने के लिए हिचक रहे हैं, जो खाने के योग्य नहीं थे तथा सुदामा विप्र के मन की बात जानने के पश्चात् श्रीभगवान् ने कहा, "प्रिय मित्र ! अवश्य ही मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, परन्तु यदि मेरा भक्त प्रेमभाव में मुझे कुछ अर्पित करता है, चाहे वह वस्तु कितनी भी उपेक्ष्य हो, मैं पूर्णानन्द के साथ उसे स्वीकार करूंगा । इसके विपरीत, यदि कोई व्यक्ति अभक्त है, फिर चाहे वह अत्यन्त मूल्यवान वस्तु मुझे अर्पित करे, मैं उसे स्वीकार करना नहीं चाहूँगा । वास्तव में, मैं केवल उन्हीं वस्तुओं को स्वीकार करता हूँ, जो प्रेमा-भक्ति के साथ मुझे अर्पित की जाती हैं, अन्यथा चाहे वह वस्तु कितनी भी मूल्यवान हो, मैं उसे स्वीकार नहीं करता । यदि मेरा शुद्ध भक्त छोटे से फूल, छोटी सी पत्ती, थोड़े से जल जैसी नगण्य वस्तुएँ भी मुझे अर्पित करता है, परन्तु उस चढ़ावे को वह भक्ति-प्रेम से सिक्त कर देता है, तो मैं न केवल ऐसे समर्पण को सहर्ष स्वीकार करता हूँ, अपितु अत्यन्त आनन्दपूर्वक उसका सेवन भी करता हूँ ।" कृष्ण ने सुदामा विप्र को आश्वासन दिया कि वे चाव से उन निकृष्ट चावलों को स्वीकार करेंगे, जो वह अपने घर से लाया है । तथापि अत्यन्त शर्म के कारण सुदामा विप्र उन चावलों को भगवान् को देने में संकोच कर रहा था । वह सोच रहा था, "ऐसी तुच्छ वस्तु को मैं श्रीकृष्ण के प्रति कैसे अर्पित कर सकता हूँ ?" उसने केवल अपना सिर झुका लिया ।
भगवान् श्रीकृष्ण प्रत्येक व्यक्ति के हृदय की सभी बातें जानते हैं । वे प्रत्येक व्यक्ति के संकल्पों एवं कामनाओं को जानते हैं । अतएव वे सुदामा विप्र का अपने पास आने का कारण जानते थे । उन्हें ज्ञात था कि अत्यन्त दरिद्रता के कारण, अपनी पत्नी के आग्रह पर वह उनके पास आया है । सुदामा को अपने अत्यन्त प्रिय सहपाठी मित्र के रूप में स्मरण करते हुए वे समझ गए कि उनके प्रति सुदामा का प्रेम किसी भी भौतिक लाभ की आकांक्षा से दूषित नहीं है । श्रीकृष्ण ने सोचा, "सुदामा मेरे पास कुछ माँगने नहीं आया है, परन्तु पत्नी के आग्रह करने पर विवश होकर, वह केवल अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिए मेरे पास आया है, अतएव कृष्ण ने निश्चय किया कि वे सुदामा विप्र को इतना अधिक भौतिक ऐश्वर्य देंगे, जिसकी कल्पना स्वर्ग का राजा भी नहीं कर सकता ।
तत्पश्चात् उन्होंने सुदामा के कंधे पर लटक रही चावल की पोटली छीन ली, जो कि चादर के एक कोने में बँधी हुई थी और कहा, "यह क्या है ? प्रिय मित्र ! तुम मेरे लिए इतना बढ़िया, स्वादिष्ट चावल लाए हो ।" उन्होंने सुदामा विप्र को प्रोत्साहित करते हुए कहा, "मेरा विचार है कि चावल की इतनी मात्रा केवल मुझे नहीं, अपितु सम्पूर्ण सृष्टि को सन्तुष्ट करेगी ।" इस कथन से यह समझा जाता है कि प्रत्येक वस्तु के मूल स्रोत भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण सृष्टि के कारण हैं । जिस प्रकार वृक्ष की जड़ में पानी डालने से सम्पूर्ण वृक्ष के प्रत्येक भाग को पानी मिलता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण को अर्पण की गई वस्तु को, अथवा श्रीकृष्ण के लिए किए गए किसी भी कार्य को सभी के लिए सर्वोच्च कल्याणकारी समझना चाहिए, क्योंकि ऐसे अर्पण को सम्पूर्ण सृष्टि में वितरित किया जाता है । श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम सभी जीवात्माओं में वितरित हो जाता है ।
जब श्रीकृष्ण सुदामा विप्र के साथ वार्तालाप कर रहे थे, तब उसकी पोटली में से उन्होंने चावल का एक ग्रास खाया और जब उन्होंने दूसरा ग्रास खाने का प्रयास किया, तो भाग्य-लक्ष्मी रुक्मिणी देवी ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया । श्रीकृष्ण के हाथ का स्पर्श करने के पश्चात् रुक्मिणी ने कहा, " श्रीभगवान् ! चावल का यह एक ग्रास उसके अर्पणकर्ता को इस जीवन में और अगले जीवन में इतना अधिक ऐश्वर्यवान् बनाने के लिए पर्याप्त है । भगवन् ! आप अपने भक्त के प्रति इतने उदार हैं कि चावल का यह एक ग्रास भी देने वाले को इस जीवन में तथा अगले जीवन में ऐश्वर्यवान् बनाए रखता है ।" यह संकेत करता है कि जब भगवान् श्रीकृष्ण को प्रेम एवं भक्ति के साथ अन्न अर्पित किया जाता है तथा वे प्रसन्न होकर उसे भक्त से स्वीकार कर लेते हैं, तो भाग्य-लक्ष्मी रुक्मिणी उस भक्त के प्रति इतनी कृतज्ञ हो जाती हैं कि व्यक्तिगत रूप से उस भक्त के निवासस्थान पर जाकर उसे विश्व के सर्वाधिक ऐश्वर्यवान् घर में परिवर्तित करना पड़ता है । यदि व्यक्ति श्रीनारायण को शानदार ढंग से तृप्त करता है, तब भाग्य की देवी लक्ष्मी स्वयं ही उस व्यक्ति के घर में निवास करती हैं, जिसका अर्थ है कि उस व्यक्ति का घर ऐश्वर्य बन जाता है । विद्वान ब्राह्मण सुदामा ने वह रात श्रीकृष्ण के घर पर व्यतीत की और जब तक वहाँ पर रहा, उसने अनुभव किया कि वह वैकुण्ठधाम में निवास कर रहा है । वास्तव में वह वैकुण्ठ में रह रहा था क्योंकि जहाँ स्वयं नारायण श्रीकृष्ण तथा भाग्यदेवी रुक्मिणी निवास करते हैं, वह स्थान वैकुण्ठ लोक से भिन्न नहीं होता ।
ऐसा प्रतीत हुआ कि श्रीकृष्ण के महल में रहते हुए सुदामा ब्राह्मण को कोई भी ठोस वस्तु नहीं प्राप्त हुई है, तथापि उसने श्रीकृष्ण से किसी भी वस्तु की माँग नहीं की । अगले दिन प्रात:काल वह अपने घर के लिए चल पड़ा । वह रास्ते भर श्रीकृष्ण द्वारा किए गए उसके स्वागत के विषय में सोचता रहा और इस प्रकार वह दिव्यानन्द में लीन रहा । वह घर जाते हुए रास्ते में श्रीकृष्ण के साथ उनके सम्बन्ध के विषय में स्मरण करता रहा और श्रीभगवान् का दर्शन करके वह अत्यन्त प्रसन्न था ।
ब्राह्मण इस प्रकार स्मरण करने लगा: "भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन करना अत्यन्त सुखद है, क्योंकि वे ब्राह्मणों के प्रति सर्वाधिक समर्पित हैं ।
ब्राह्मण-संस्कृति के कितने महान् प्रेमी हैं वे ! वे स्वयं परब्राह्म हैं, तथापि वे ब्राह्मणों के साथ आदान प्रदान करते हैं । वे ब्राह्मणों का इतना आदर करते हैं कि उन्होंने मेरे समान दरिद्र ब्राह्मण को अपने हृदय से लगा लिया, जबकि वे रुक्मिणी देवी के अतिरिक्त अन्य किसी को अपने हृदय से नहीं लगाते । मुझ जैसे दरिद्र, पापी ब्राह्मण एवं भगवान् के बीच क्या तुलना की जा सकती है, जो भाग्यदेवी के एकमात्र शरण हैं ? तथापि, मुझे ब्राह्मण मानकर उन्होंने सहर्ष अपनी दोनों दिव्य भुजाओं से मेरा आलिंगन किया । श्रीकृष्ण मेरे साथ इतने उदार थे कि उन्होंने मुझे उसी शैय्या पर बैठने का अवसर दिया, जिस पर भाग्यदेवी विश्राम करती हैं । उन्होंने मुझे अपना वास्तविक भ्राता माना । अपने प्रति उनके समर्पण की प्रशंसा मैं किस प्रकार कर सकता हूँ ? जब मैं थक गया था, तब भाग्यदेवी श्रीमती रुक्मिणी देवी अपने हाथ में चामर पकड़ कर हवा करने लगीं । उन्होंने श्रीकृष्ण की प्रथम पत्नी के रूप में अपनी श्रेष्ठ स्थिति का कभी ध्यान नहीं किया । श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों के प्रति अपने आदर के कारण मेरी सेवा की, पैरों की मालिश की तथा अपने हाथों से मुझे भोजन खिलाकर एक तरह से उन्होंने मेरी उपासना की । स्वर्गलोक जाने, मुक्ति अथवा सभी प्रकार के भौतिक ऐश्वर्य अथवा रहस्यमय योगिक सिद्धि की कामना रखते हुए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रत्येक प्राणी भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की उपासना करता है । तो भी, श्रीभगवान् मेरे प्रति इतने दयालु थे कि उन्होंने मुझे एक छदाम भी नहीं दिया, क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि मैं दरिद्र पुरुष हूँ और तनिक भी धन की प्राप्ति करने पर खुश हो जाऊँगा और भौतिक ऐश्वर्य के प्रति पागल होकर उनको भूल जाऊँगा ।
ब्राह्मण सुदामा का कथन सही है । यदि कोई साधारण दरिद्र मनुष्य भगवान् से भौतिक ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करता है और यदि वह किसी प्रकार भौतिक ऐश्वर्यों का धनी बन जाता है, तब तत्काल ही वह श्रीभगवान् के प्रति अपनी कृतज्ञता को भूल जाता है । अतएव श्रीकृष्ण अपने भक्तों को तब तक किसी भौतिक ऐश्वर्य की प्राप्ति नहीं कराते, जब तक भक्त पूर्णरूपेण निराश्रय नहीं हो जाता । यदि नवदीक्षित भक्त निष्ठापूर्वक भगवान् की सेवा करता है तथा साथ ही साथ भौतिक ऐश्वर्य की कामना करता है, तो भगवान् अपने भक्त को उसकी प्राप्ति नहीं कराते ।
इस प्रकार विचार करके, सुदामा धीरे-धीरे अपने निवास-स्थान पर पहुँच गया । परन्तु वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि प्रत्येक वस्तु आश्चर्यजनक रूप से बदल गई थी । उसने देखा कि उसकी कुटिया के स्थान पर वहाँ भव्य महल थे, जो बहुमूल्य मणियों तथा रत्नों से निर्मित थे और वे सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्नि की किरणों की भाँति प्रकाशमय थे । वहाँ पर भव्य महल ही नहीं थे, अपितु थोड़ी दूरी पर सुन्दर रूप से सुसज्जित उद्यान थे, जिनमें अनेक सुन्दर पुरुष एवं नारियाँ टहल रहे थे । उन उद्यानों में कमलपुष्पों एवं सुन्दर कुमुदिनी फूलों से परिपूर्ण सुन्दर तालाब थे और वहाँ पर बहुरंगी पक्षियों के अनेक झुण्ड थे । अपने निवासस्थान का इतना अद्भुत रूपान्तर देखकर ब्राह्मण सुदामा मन ही मन सोचने लगा, "मैं इतना सारा परिवर्तन कैसे देख रहा हूँ ? क्या यह स्थान मेरा ही है, अथवा किसी अन्य का ? यदि यह वही स्थान है जहाँ मैं रहा करता था, तो यह इतने आश्चर्यजनक रूप में कैसे बदल गया ?"
जब सुदामा इस पर विचार कर रहा था, तब देवताओं के सदृश रूप वाले स्त्री-पुरुष का एक समूह सुदामा का स्वागत करने के लिए वहाँ आया । उनके साथ गायक भी थे । वे सभी शुभ गीतों का गान कर रहे थे । सुदामा की पत्नी अपने पति के आगमन का समाचार सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई तथा अविलम्ब ही वह महल के बाहर आ गई । सुदामा की पत्नी इतनी सुन्दर लग रही थी कि उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि सुदामा का स्वागत करने के लिए स्वयं भाग्यदेवी आई हैं । जैसे ही उसने अपने पति को अपने सामने पाया, वैसे ही उसके नेत्रों से प्रसन्नता के आँसू बहने लगे और उसकी आवाज इतनी रुद्ध हो गई कि वह अपने पति को सम्बोधन भी नहीं कर सकी । आनन्द में उसने केवल अपने नेत्र बन्द कर लिए । परन्तु अत्यन्त प्रेम एवं करुणा के साथ वह अपने पति के सम्मुख झुक गयी तथा मन ही मन उसने सुदामा का आलिंगन करने का विचार किया । वह स्वर्ण कण्ठाभरण एवं आभूषणों से पूर्णरूपेण सुसज्जित थी तथा दासियों के बीच खड़ी वह किसी देवता की पत्नी के सदृश प्रतीत हो रही थी, जो अभी-अभी विमान से उतरी हों । सुदामा अपनी पत्नी को इतने सुन्दर रूप में देखकर चकित हो गया और अत्यन्त करुणा के साथ, बिना एक शब्द कहे, वह अपनी पत्नी के महल में प्रविष्ट हुआ ।
जब सुदामा ने महल में अपने व्यक्तिगत कक्ष में प्रवेश किया, तो उसने देखा कि वह कक्ष नहीं अपितु स्वर्ग के राजा का निवास-स्थान था । महल रत्नों के स्तम्भों से घिरा हुआ था । गद्देदार पलंग एवं शैय्याएँ हस्तिदन्तों से निर्मित, स्वर्ण एवं रत्नों से अलंकृत थीं तथा बिछौना दूध के झाग के समान सफेद एवं कमल पुष्प के समान मृदु था । वहाँ पर स्वर्ण शलाका से लटकते हुए अनेक चामर तथा अनेक स्वर्णिम सिंहासन थे जिनपर कमल पुष्प के समान कोमल गद्दे लगे हुए थे । विभिन्न स्थानों पर रेशमी एवं रोएँदार छतरियाँ थीं, जिनपर चारों ओर मोतियों की धारियाँ लटक रही थीं । सम्पूर्ण भवन उत्तम पारदर्शी संगमरमर पर खड़ा था, जिसमें पन्ना जड़े थे । महल में सभी स्त्रियाँ मूल्यवान मणियों से निर्मित दीपक धारण किए थीं । ज्वाला एवं रत्नों के सम्मिश्रण से अद्भुत कान्ति उत्पन्न हो रही थी । जब सुदामा ने देखा कि अब उसकी स्थिति ऐश्वर्य की स्थिति-पर्यन्त पहुँच गई है और जब वह इस परिवर्तन का कारण निर्धारित नहीं कर सका, तो वह गम्भीर होकर सोचने लगा कि ऐसा कैसे हुआ होगा ।
वह इस प्रकार सोचने लगा, “अपने जीवन के आरम्भ से मैं अत्यन्त दरिद्र रहा हूँ, अत: इस आकस्मिक एवं महान् ऐश्वर्य का क्या कारण हो सकता है ? यदुवंश के प्रधान भगवान् श्रीकृष्ण की सर्वकृपामय दृष्टि के अतिरिक्त मैं अन्य कोई भी कारण खोज नहीं पा रहा हूँ । भगवान् आत्मनिर्भर हैं, भाग्यदेवी के पति हैं और सदैव ही छ: ऐश्वर्यों से परिपूर्ण रहते हैं । वे अपने भक्त के मन की बात समझ सकते हैं और वे सभी तरह से भक्त की इच्छाओं को पूर्ण करते हैं । ये सभी कार्य मेरे मित्र श्रीकृष्ण के द्वारा किए गए हैं । मेरे सुन्दर श्याम-वर्ण मित्र, भगवान् श्रीकृष्ण उस बादल से भी अधिक उदार हैं, जो महासागर को जल से भर सकते हैं । कृषक को दिवसकाल में व्याकुल किए बिना, उसे केवल सन्तुष्ट करने के लिए बादल रात्रि में भारी वर्षा करते हैं, तथापि प्रात:काल जब कृषक उठता है, तो वह समझता है कि पर्याप्त मात्रा में वर्षा नहीं हुई है । उसी प्रकार, व्यक्ति की स्थिति के अनुसार, भगवान् सभी की इच्छाओं की पूर्ति करते हैं, तथापि जो व्यक्ति कृष्णभावनाभावित नहीं होता, वह समझता है कि भगवान् की सभी देन उसकी इच्छा से कम है । दूसरी ओर, जब भगवान् अपने भक्त के पास से किंचित् मात्रा में भी प्रेम एवं स्नेह की प्राप्ति करते हैं, तो वे उसे एक महान् एवं मूल्यवान उपहार मानते हैं । इसका सजीव उदाहरण स्वयं मैं हूँ । मैंने उन्हें अरुचिकर चावल अर्पित किए और बदले में उन्होंने मुझे स्वर्ग के राजा के ऐश्वर्य से भी अधिक ऐश्वर्य की प्राप्ति करायी है ।"
वास्तव में भक्त द्वारा अर्पित की गई वस्तु की भगवान् को कोई आवश्यकता नहीं होती । वे आत्मनिर्भर हैं । यदि भक्त भगवान् को कोई वस्तु अर्पित करता है, तो वह उसके ही लाभ के लिए कार्य करती है, क्योंकि भगवान् को भक्त जो भी वस्तु अर्पित करता है, वह वस्तु लाखों गुना अधिक होकर उसके पास वापस आ जाती है । भगवान् को कोई वस्तु अर्पित करके व्यक्ति हानि नहीं उठाता ।
श्रीकृष्ण के प्रति महान् कृतज्ञता का अनुभव करके, सुदामा ने सोचा, "मैं श्रीकृष्ण की मैत्री के लिए एवं उनकी सेवा में संलग्न रहने के लिए तथा प्रत्येक जीवन में प्रेम एवं स्नेह के साथ उनके प्रति समर्पित बने रहने के लिए प्रार्थना करता हूँ । मुझे किसी ऐश्वर्य-प्राप्ति की इच्छा नहीं है । मेरी केवल यही कामना है कि मैं उनके सेवा-कार्य को कभी न भूलूँ । मैं उनके शुद्ध भक्तों की संगति-मात्र करना चाहता हूँ । मेरी प्रार्थना है कि मेरा मन एवं कार्य सदैव श्रीकृष्ण की सेवा में संलग्न रहे । अजन्मे भगवान् श्रीकृष्ण को ज्ञात है कि अनेक महान् व्यक्ति अत्यधिक ऐश्वर्य के कारण अपनी स्थितियों से गिर गए हैं । अतएव, यदि कोई भक्त उनसे कुछ धनसम्पत्ति की माँग करता है, तो कभी-कभी भगवान् उसकी यह इच्छा पूरी नहीं करते । वे अपने भक्तों के विषय में सतर्क रहते हैं । भक्ति की अपरिपक्व अवस्था में स्थित भक्त को शानदार धन-सम्पत्ति दी जाने पर वह इस भौतिक जगत् में होने के कारण अपनी स्थिति से गिर सकता है, अतएव भगवान् उसे किसी ऐश्वर्य का रसास्वादन नहीं कराते । अपने भक्त पर भगवत्कृपा की अन्य अभिव्यक्ति है । उनकी प्रथम चिन्ता यह है कि भक्त अपनी स्थिति से नीचे न आए । वे उस शुभचिन्तक पिता के समान हैं, जो अपने अवयस्क पुत्र के हाथ में अधिक धन नहीं देता, परन्तु अपने पुत्र के वयस्क हो जाने पर, जब पुत्र को धन-व्यय का ज्ञान हो जाता है, उसे सम्पूर्ण खजाना दे देता है ।" इस प्रकार विद्वान सुदामा ब्राह्मण ने निष्कर्ष निकाला कि जो धन-सम्पत्ति उसने भगवान् से प्राप्त की है, उसे मनमानी इन्द्रिय-तृप्ति के लिए व्यय नहीं करना चाहिए, परन्तु उसे भगवान् की सेवा में लगाना चाहिए । सुदामा ने नव-प्राप्त ऐश्वर्य को ग्रहण तो किया, परन्तु वैराग्य के भाव में रहते हुए इन्द्रियतृप्ति से अनासक्त रहकर किया । इस प्रकार अपनी पत्नी के साथ वह अत्यन्त शान्तिपूर्वक रहा और ऐश्वर्य को भगवान् का प्रसाद मानकर उसकी सभी सुविधाओं का आनन्द उठाया । उसने विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों को भगवान् को अर्पित करने के पश्चात् उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया । इस तरह हमें भगवत्कृपा से धन, यश, शक्ति, शिक्षा तथा सौंदर्य का ऐश्वर्य प्राप्त हो तो इन उपहारों को भगवान् को अर्पित करके उसका आनन्द लें और उसे इन्द्रियतृप्ति में न लगाएँ । वह ज्ञानी ब्राह्मण उसी स्थिति में रहा तथा प्रचुर ऐश्वर्य के कारण भ्रष्ट हो जाने के स्थान पर भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति उसकी प्रेम और भक्ति प्रत्येक दिन बढ़ती चली गई । भौतिक ऐश्वर्य उपयोगिता के अनुसार पदच्युति एवं उत्थान का कारण हो सकता है । यदि इन्द्रियतृप्ति के लिए ऐश्वर्य का उपयोग किया जाता है, तो वह पदच्युति का कारण है और यदि उसका उपयोग भगवान् की सेवा के लिए किया जाता है, तो वह उत्थान का कारण है ।
विप्र के साथ श्रीकृष्ण के सम्बन्ध से यह स्पष्ट है कि भगवान् उस व्यक्ति से अत्यन्त प्रसन्न होते हैं, जो ब्राह्मणोचित गुण धारण किए हुए होता है । अवश्य ही, सुदामा विप्र के समान गुणी ब्राह्मण श्रीकृष्ण का भक्त होता है । अत: कहा जाता है, ब्राह्मणो वैष्णव-कोई भी ब्राह्मण गुणी वैष्णव होता है । अथवा कभी-कभी कहा जाता है, ब्राह्मणो: पण्डित:/ पण्डित का अर्थ होता है अत्यन्त विद्वान व्यक्ति । ब्राह्मण मूर्ख अथवा अशिक्षित नहीं हो सकता । अतएव ब्राह्मणों के दो विभाग हैं-वैष्णव तथा पण्डित । जो केवल विद्वान हैं, वे पण्डित हैं, परन्तु भगवदभक्त अथवा वैष्णव नहीं । भगवान् श्रीकृष्ण उनसे विशेष रूप से प्रसन्न नहीं होते । विद्वान ब्राह्मण बनना ही भगवान् को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त नहीं है । ब्राह्मण को श्रीमद्भगवद्गीता एवं श्रीमद्-भागवत जैसे साहित्य के कथनानुसार उनकी आवश्यकतानुसार ठीक प्रकार से गुणी ही नहीं होना चाहिए, अपितु उसी के साथ-साथ उसे भगवान् श्रीकृष्ण का भक्त भी होना चाहिए । इसके उत्कृष्ट उदाहरण सुदामा विप्र हैं । वे सभी प्रकार के भौतिक आनन्द से अनासक्त, गुणी ब्राह्मण थे, परन्तु उसी के साथ-साथ भगवान् श्रीकृष्ण के महान् भक्त भी थे । सभी यज्ञों एवं तपों के भोक्ता सुदामा विप्र जैसे ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्ण के अतिप्रिय हैं और श्रीकृष्ण के वास्तविक व्यवहार से हमने देखा है कि वे ऐसे ब्राह्मण को कितना पसन्द करते हैं । अत: मानव पूर्णता की आदर्श अवस्था है सुदामा विप्र के समान ब्राह्मण-वैष्णव बनना ।
सुदामा विप्र ने अनुभव किया कि यद्यपि श्रीकृष्ण अजेय हैं, तथापि वे अपने भक्तों द्वारा पराजित होना स्वीकार करते हैं । उसने अनुभव किया कि श्रीकृष्ण उनके प्रति कितने दयालु हैं और भगवान् श्रीकृष्ण के विषय में स्मरण करते हुए वह सदैव सम्मोहन में रहता था । इस प्रकार निरन्तर श्रीकृष्ण के संग में रहकर, जो भी भौतिक संदूषण का अंधकार उसके हृदय में विद्यमान था, वह पूर्णरूपेण दूर हो गया और जल्द ही वह वैकुण्ठ लोक में चला गया । शुकदेव गोस्वामी ने कहा है कि जो व्यक्ति सुदामा विप्र एवं श्रीकृष्ण के इतिहास का श्रवण करेंगे, उन्हें ज्ञात होगा कि सुदामा जैसे ब्राह्मण-भक्तों के प्रति श्रीकृष्ण कितने दयालु हैं । अतएव जो व्यक्ति इस इतिहास का श्रवण करता है, वह धीरे-धीरे विप्र के समान गुणी बन जाता है और इस प्रकार वह भगवान् श्रीकृष्ण के वैकुण्ठ लोक में स्थानान्तरित हो जाता है ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “भगवान श्रीकृष्ण द्वारा सुदामा ब्राह्मण को वरदान” नामक इक्यासीवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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