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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 82: भगवान् का वृन्दावनवासियों के साथ मिलन  » 
 
 
 
 
 
एक बार जब श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने महानगर द्वारका में शान्तिपूर्वक रह रहे थे, तब पूर्ण सूर्यग्रहण का विरल अवसर आया, जो प्रत्येक कल्प अथवा ब्रह्मा के दिवस के अन्त में घटित होता है । प्रत्येक कल्प के अन्त में, सूर्य एक भव्य बादल से आवृत हो जाता है और निरन्तर पड़ने वाली वर्षा स्वर्गलोक तक के सभी निम्न लोकों को आच्छादित कर देती है । खगोल शास्त्रीय गणना के द्वारा, लोगों को इस महान् ग्रहण के विषय में, उसके घटने से पूर्व सूचित किया गया । अतएव सभी लोगों ने कुरुक्षेत्र में स्थित समन्त-पंचक नामक पवित्र स्थान पर एकत्रित होने का निश्चय किया । समन्त-पंचक तीर्थ-स्थान पूजनीय है, क्योंकि श्रीपरशुराम ने विश्व के सभी क्षत्रियों को 21 बार मारकर वहाँ महायज्ञों का सम्पादन किया था । श्रीपरशुराम ने सभी क्षत्रियों को मार डाला और उनका एकत्रित रक्त नदी की भाँति प्रवाहित होने लगा । श्रीपरशुराम ने समन्त-पंचक में पाँच भव्य झीलें खोदीं तथा उन्हें इस रक्त से भर दिया । श्रीपरशुराम विष्णु-तत्त्व हैं । जैसाकि ईशोपनिषद् में कहा गया है, विष्णु तत्त्व को किसी प्रकार के पापपूर्ण कार्य के द्वारा दूषित नहीं किया जा सकता । फिर भी, यद्यपि श्रीपरशुराम सम्पूर्ण रूप से शक्तिशाली एवं अदूषित हैं, तथापि आदर्श चरित्र को प्रदर्शित करने के हेतु उन्होंने क्षत्रियों को मारने के इस तथाकथित पापपूर्ण कार्य का प्रायश्चित करने के लिए समन्त-पंचक में महायज्ञों का सम्पादन किया । उस उदाहरण के द्वारा श्रीपरशुराम ने यह स्थापित किया कि यद्यपि कभी-कभी हत्या करने की आवश्यकता पड़ती है, फिर भी यह अच्छी नहीं है । श्रीपरशुराम ने स्वयं को क्षत्रियों की पापपूर्ण हत्या के लिए निन्दनीय माना । इसलिए, ऐसे घृणित एवं अमान्य कार्यों के लिए हम कितने अधिक निन्दनीय हैं । जीवात्माओं का वध करने के कार्य को सम्पूर्ण विश्व में अविस्मरणीय काल से प्रतिबन्धित किया गया है । सूर्यग्रहण के अवसर का लाभ उठाते हुए सभी महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों ने इस तीर्थस्थान के दर्शन किए । उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों का यहाँ उल्लेख किया गया है । वयोवृद्ध व्यक्तियों में वहाँ श्रीअक्रूर, श्रीवसुदेव एवं श्रीउग्रसेन थे । कनिष्ठ पीढ़ी में वहाँ श्रीगद, श्री प्रद्युम्न, श्री साम्ब तथा यदुवंश के अन्य अनेक सदस्य थे, जो अपने कर्तव्यों के पालन के मध्य हुए पापपूर्ण कार्यों का प्रायश्चित करने की दृष्टि से वहाँ आए थे । चूँकि यदुवंश के लगभग सभी सदस्य कुरुक्षेत्र गए, अतएव द्वारका नगर की रक्षा करने के लिए श्रीप्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध एवं यदुवंश के सेनापति श्रीकृतवर्मा आदि कुछ महान् व्यक्ति, श्रीसुचन्द्र, श्रीशुक एवं श्रीसारण सहित वहीं रहे ।

स्वाभाविक रूप से यदुवंश के सभी सदस्य अत्यन्त सुन्दर थे, तथापि इस अवसर पर, जब स्वर्ण-मालाओं एवं पुष्प-मालाओं से अलंकृत एवं मूल्यवान वस्त्रों एवं अपने अस्त्रों सहित पूर्णरूपेण सशस्त्र होकर वे प्रकट हुए, तब उनका स्वाभाविक सौन्दर्य एवं व्यक्तित्व सौगुना बढ़ा हुआ था । यदुवंश के सदस्य कुरुक्षेत्र में अपने शानदार रूप से सज्जित रथों में आए, जो जलयान के सदृश थे एवं सागर की लहरों के समान हिलने वाले विशाल घोड़ों द्वारा खींचे जा रहे थे । उनमें से कुछ सदस्य तगड़े हाथियों पर सवार थे, जो आकाश के बादलों के समान गतिशील थे । उनकी पत्नियाँ सुन्दर पालकियों पर विराजमान थीं, जिन्हें विद्याधरों

के समान रूप वाले सुन्दर पुरुष उठाए हुए थे । सम्पूर्ण सभा स्वर्ग के देवताओं की सभा के समान सुन्दर लग रही थी ।

कुरुक्षेत्र में पहुँचने के पश्चात् यदुवंश के सदस्यों ने शास्त्रीय धार्मिक रीति के अनुसार आत्मसंयम के साथ स्नान किया, एवं अपने पापपूर्ण कार्यों की प्रतिक्रियाओं को नष्ट करने के लिए उन्होंने सम्पूर्ण ग्रहण-काल में उपवास किया । ग्रहण के मध्य यथा-सम्भव दान करना एक वैदिक प्रथा है, अतएव यदुवंश-सदस्यों ने ब्राह्मणों को हजारों गायें दान में दीं । वे सभी गायें सुन्दर वस्त्रों एवं आभूषणों से अलंकृत थीं । इन गायों का विशिष्ट लक्षण यह था कि उनके पैरों में स्वर्ण के घुँघरू एवं गले में पुष्पमालाएँ थीं ।

यदुवंश के सभी सदस्यों ने श्रीपरशुराम द्वारा निर्मित झीलों में पुन: स्नान किया । इसके पश्चात् उन्होंने वैभवपूर्ण रूप से ब्राह्मणों को उत्तम भोजन कराया, जो मक्खन में बना हुआ था । वैदिक पद्धति के अनुसार, भोजन की दो श्रेणियाँ होती हैं । एक को कच्चा भोजन कहते हैं और दूसरे को पक्का भोजन कहते हैं । कच्चे भोजन में कच्ची तरकारी एवं कच्चे अनाज का समावेश नहीं होता, अपितु जल में पकाए हुए भोजन का समावेश होता है । पक्का भोजन घी से पकाया जाता है । चपाती, दाल, चावल तथा सामान्य तरकारियों को कच्चा भोजन कहा जाता है, जैसाकि फलों एवं सलाद को कहा जाता है । परन्तु पूरी, कचौरी, समोसा एवं रसगुल्ले आदि को पक्का भोजन कहा जाता है । उस अवसर पर यदुवंश के सदस्यों द्वारा आमंत्रित सभी ब्राह्मणों को भव्यतापूर्वक पक्का भोजन कराया गया ।

यदुवंश के सदस्यों द्वारा सम्पन्न किए गए औपचारिक कार्य उन कर्मकाण्डी क्रियाओं के सदृश थे जिन्हें कमीं लोग करते थे । जब कोई कर्मकाण्डी धर्मक्रिया को सम्पन्न करता है, तब उसकी आकांक्षा इन्द्रियतृप्ति की होती है-अच्छी स्थिति, अच्छी पत्नी, अच्छा घर, अच्छे बच्चे अथवा अच्छा धन; परन्तु यदुवंश के सदस्यों की आकांक्षा भिन्न थी । यदुवंश के सभी सदस्य महान् भक्त थे । कई जन्मों के एकत्रित पुण्य कार्यों के पश्चात् उन्हें श्रीकृष्ण से सम्पर्क करने का अवसर दिया गया था । कुरुक्षेत्र के तीर्थस्थान पर स्नान अथवा सूर्यग्रहण के मध्य धार्मिक सिद्धान्तों का पालन अथवा ब्राह्मणों को भोजन कराते समय, वे केवल कृष्ण-भक्ति के विषय में ही सोचते थे । उनके आदर्श, पूजनीय भगवान् श्रीकृष्ण ही थे । अन्य कोई नहीं ।

ब्राह्मणों को भोजन कराने के पश्चात् आतिथेय के लिए यह प्रथा है, कि उनकी अनुमति ग्रहण करके वह प्रसाद का सेवन करे । इस प्रकार ब्राह्मणों की अनुमति लेकर, सभी यदुवंशियों ने भोजन ग्रहण किया । तत्पश्चात् उन्होंने भव्य, छायादार वृक्षों के नीचे विश्राम करने के स्थलों का चुनाव किया एवं जब उन्होंने पर्याप्त विश्राम कर लिया, तब वे दर्शनार्थियों का स्वागत करने के लिए तत्पर हुए, जिनमें सम्बन्धी एवं मित्रगण तथा अनेक अधीन राजाओं एवं शासकों का समावेश था । उनमें मत्स्य, उशीनर, कोशल, विदर्भ, कुरू, सृंजय, काम्बोज, केकय प्रदेशों एवं अन्य अनेक प्रदेशों एवं देशों के राजा थे । उनमें से कुछ विरोधी दलों के शासक थे, तो कुछ मित्र थे, परन्तु कुल मिलाकर वृन्दावन के दर्शनार्थी सर्वाधिक प्रमुख थे । नन्द महाराज के नेतृत्व में वृन्दावन के निवासी श्रीकृष्ण एवं बलराम जी से वियोग के कारण अत्यन्त उद्विग्नता से रह रहे थे । सूर्यग्रहण का लाभ उठाते हुए, वे सभी अपने जीवन एवं आत्मा भगवान् श्रीकृष्ण एवं बलरामजी को देखने के लिए आए ।

वृन्दावनवासी यदुवंश के शुभचिन्तक एवं घनिष्ठ मित्र थे । दीर्घ वियोग के पश्चात् दो दलों का मिलन अत्यन्त मर्मस्पर्शी घटना थी । दोनों, यदु एवं वृन्दावन के वासियों ने एक दूसरे से मिलने एवं वार्तालाप करने में इतने अधिक आनन्द का अनुभव किया कि वह एक अनुपम दृश्य बन गया । दीर्घ वियोग के पश्चात् मिलकर आनन्दविभोर होने के कारण उनके हृदय धड़क रहे थे तथा उनके चेहरे नवीन खिले हुए कमलपुष्पों के समान प्रतीत हो रहे थे । उनके नेत्रों से आँसू टपक रहे थे, उनके रोंगटे खड़े हो गए थे और अत्यन्त आनन्द के कारण वे कुछ समय के लिए अवाक् रह गए । दूसरे शब्दों में, वे आनन्द-सागर में डुबकियाँ लगाने लगे ।

जब सारे पुरुष इस प्रकार मिल रहे थे, तब स्त्रियाँ भी उसी प्रकार एक दूसरे से मिल रही थीं । वे अत्यन्त मैत्रीपूर्वक एक दूजे का आलिंगन कर रही थीं तथा मुस्कराती हुई, वे एक दूसरे की ओर अत्यन्त स्नेह के साथ देख रही थीं । जब वे अपनी भुजाओं से आलिंगन कर रही थीं, तब उनके वक्षस्थलों पर बिखरा हुआ कुमकुम तथा केशर एक दूसरे को लग गया और उन सभी स्त्रियों ने स्वर्गिक आनन्द का अनुभव किया । इस प्रकार हार्दिक आलिंगन करने के कारण अश्रु की प्रचण्ड धाराएँ उनके गालों से बहने लगीं । अवस्था में छोटे जन वयोवृद्ध व्यक्तियों की सादर वन्दना कर रहे थे एवं वयोवृद्ध अपने से छोटों को आशीर्वाद दे रहे थे । इस प्रकार वे एक दूसरे का स्वागत करते हुए एक दूसरे का कुशल-मंगल पूछ रहे थे । अन्ततः उनकी चर्चा का विषय श्रीकृष्ण ही थे । सभी पड़ोसी एवं रिश्तेदार इस विश्व में श्रीकृष्ण की लीलाओं से सम्बद्ध हैं और श्रीकृष्ण सभी गतिविधियों के केन्द्र हैं । उन लोगों द्वारा किए गए कार्य-चाहे वे सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक अथवा परम्परागत हों-दिव्य हुआ करते थे ।

मानव जीवन का वास्तविक उत्थान ज्ञान एवं वैराग्य पर निर्भर करता है । जैसाकि श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध में उल्लेख है, श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति अपने आप ही पूर्ण ज्ञान एवं वैराग्य उत्पन्न करती है । यदुवंश के पारिवारिक सदस्यों एवं वृन्दावन के ग्वालों के मन श्रीकृष्ण पर केन्द्रित थे । सम्पूर्ण ज्ञान का वही लक्षण है और चूँकि उनके मन सदैव श्रीकृष्ण में संलग्न रहते थे, अतएव वे सभी भौतिक कार्यों से अपने आप मुक्त हो गए थे । श्रील रूप गोस्वामी की घोषणा के अनुसार जीवन की इस अवस्था को "युक्त वैराग्य" कहते हैं । अतएव ज्ञान एवं वैराग्य का अर्थ नीरस चिन्तन अथवा कार्यों का त्याग नहीं होता, अपितु व्यक्ति को केवल श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में सुनना एवं कार्य करना चाहिए ।

कुरुक्षेत्र की इस सभा में, कुन्ती देवी एवं वसुदेव, जो भाई-बहन थे, वियोग के दीर्घकाल के पश्चात् मिले थे तथा उनके साथ उनके पुत्र तथा पुत्र-वधुएँ पत्नियाँ बच्चे एवं परिवार के अन्य सदस्य थे । आपस में वार्ता करके वे अपने सभी दुखों को भूल गए । कुन्ती देवी ने विशेष रूप से अपने भ्राता श्री वसुदेव को इस प्रकार सम्बोधित किया: "प्रिय भ्राता ! मैं अत्यन्त अभागी हूँ, क्योंकि मेरी कोई भी इच्छा पूर्ण नहीं हुई है, अन्यथा ऐसा कैसे हो सकता था कि यद्यपि मेरे पास आप जैसे सन्त भ्राता हैं, जो प्रत्येक दृष्टि से पूर्ण हैं, तथापि आपने मुझसे यह जिज्ञासा नहीं की कि जीवन की दुःखद स्थिति में मैं अपने दिन किस प्रकार व्यतीत कर रही हूँ ?" ऐसा प्रतीत होता है कि कुन्ती देवी को उन दुःखद दिनों का स्मरण हो रहा था जब उन्हें अपने पुत्रों सहित धृतराष्ट्र एवं दुर्योधन की अनिष्टकर योजनाओं के द्वारा निर्वासित किया गया था । उन्होंने आगे कहा, "प्रिय बन्धु ! मैं समझ सकती हूँ कि जब ईश्वर किसी के विरुद्ध कार्य करता है, तो उस व्यक्ति का सर्वाधिक समीपी भी उसे भूल जाता है । ऐसी अवस्था में, व्यक्ति के पिता, माता और यहाँ तक कि उसकी सन्तान भी उसे भूल जाती है । अतएव, हे भ्राता ! मैं आप पर आरोप नहीं लगा रही हूँ ।"

श्री वसुदेव ने अपनी बहन को उत्तर दिया, "प्रिय बहन ! उदास मत हो और इस प्रकार मुझे दोषी मत ठहराओ । हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि हम भगवान् के हाथों के खिलौने हैं । सभी लोग भगवान् के नियंत्रण में हैं । यह उनके नियंत्रण में ही है कि सभी प्रकार के फलदायक कार्य और फल घटित होते हैं । प्रिय बहन ! तुम्हें ज्ञात है कि हमें राजा कंस ने बहुत दुःख पहुँचाया था और उसके अत्याचारों द्वारा हम यहाँ-वहाँ तितर-बितर हो गए थे । हम सदैव व्याकुल रहते थे । पिछले दिनों भगवत्कृपा से हम अपने स्थानों को लौटे हैं ।"

इस वार्तालाप के पश्चात् श्री वसुदेव और श्रीउग्रसेन ने मिलने के लिए आए राजाओं का स्वागत किया । उस स्थान पर श्रीकृष्ण को विद्यमान देखकर, सभी दर्शनार्थियों ने दिव्यानन्द का अनुभव किया तथा वे शान्त हो गए । उनमें से कुछ प्रमुख दर्शनार्थी इस प्रकार थेः श्रीभीष्मदेव, श्रीद्रोणाचार्य, श्रीदुर्योधन एवं गान्धारी सहित उनके पुत्र, अपनी पत्नी के साथ महाराज युधिष्ठिर तथा कुन्ती देवी के साथ नग्नजित, श्रीपुरुजित, श्रीद्रुपद, श्रीशल्य, श्रीधृष्टकेतु, काशी के राजा श्रीदमघोष, मिथिला के राजा श्री विशालाक्ष, मद्रास (पूर्व काल में मद्र कहलाने वाला स्थान) का राजा, केकय का राजा, श्रीयुधामन्य, श्री सुशर्मा, श्रीबाहीक के साथ उसके पुत्र तथा ऐसे अनेक शासक जो महाराज युधिष्ठिर के अधीन थे ।

जब उन्होंने श्रीकृष्ण को अपनी हजारों पत्नियों के साथ देखा, तब वे सौन्दर्य एवं दिव्यानन्द से पूर्णरूपेण सन्तुष्ट हो गए । वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने श्रीकृष्ण एवं बलराम के दर्शन किए तथा भगवान् द्वारा उचित रूप से स्वागत किए जाने पर वे यदुवंश के सदस्यों की, विशेष रूप से कृष्ण-बलराम की जय-जयकार करने लगे । चूँकि श्रीउग्रसेन भोज के राजा थे, अत: उनको प्रमुख यदु माना जाता था, अतएव दर्शनार्थियों ने विशेष रूप से उन्हें सम्बोधित किया: "श्रीमान् उग्रसेन जी ! हे भोज के राजा ! वस्तुत: इस विश्व में यदु ही ऐसे लोग हैं, जो प्रत्येक दृष्टि से पूर्ण हैं । आपकी जय हो ! आपकी जय हो ! आपकी पूर्णता की विशिष्ट स्थिति यह है कि आप सदैव भगवान् कृष्ण को देखते हैं, जो सहस्रों वर्षों तक तपस्या करने वाले योगियों द्वारा खोजे जाते हैं । आप सभी लोग प्रत्येक क्षण श्रीकृष्ण के सम्पर्क में रहते हैं ।

"सभी वैदिक मंत्र भगवान् श्रीकृष्ण की जय-जयकार करते हैं । गंगा-जल को पवित्र माना जाता है क्योंकि उसका जल भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों को धोने के उपयोग में लाया जाता है । वैदिक साहित्य श्रीकृष्ण के आदेशों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । वेदों के अध्ययन का उद्देश्य श्रीकृष्ण को समझना है, अतएव श्रीकृष्ण के शब्द एवं उनकी लीलाओं के सन्देश सदैव शुद्धिकारक हैं । काल एवं परिस्थिति के प्रभाव से, इस विश्व के सभी ऐश्वर्य लगभग मिट चुके थे, परन्तु इस लोक में जब से श्रीकृष्ण अवतरित हुए हैं, उनके चरणकमलों के स्पर्श के द्वारा सभी शुभ लक्षण पुनः प्रकट हो गए । उनकी उपस्थिति के द्वारा हमारी सभी इच्छाएँ एवं आकांक्षाएँ क्रमश: पूर्ण हो जाती हैं । हे श्रीमान् भोज के राजा ! आप वैवाहिक सम्बन्ध के कारण यदुवंश से सम्बन्धित हैं तथा खून के रिश्ते से भी । परिणामस्वरूप आप सदैव श्रीकृष्ण के सम्पर्क में रहते हैं तथा उनको किसी भी समय देखने में आपको कोई कठिनाई नहीं होती । श्रीकृष्ण आपके साथ घूमते हैं, बात करते हैं, बैठते हैं, विश्राम करते हैं और भोजन भी करते हैं । यदुजनों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वे उन सांसारिक गतिविधियों में सदैव संलग्न रहते हैं, जिन्हें नरक के शाही मार्ग की ओर से जाने वाला माना जाता है । परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण की उपस्थिति के कारण, जो सर्वज्ञ, सर्वव्यापी एवं सर्वशक्तिमान् हैं, आप सभी लोग वास्तविकता में भौतिक संदूषण से मुक्त हैं और ब्राह्म एवं मुक्ति की इन्द्रियातीत अवस्था में स्थित हैं ।"

जब उन्होंने सुना कि सूर्यग्रहण के कारण कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण उपस्थित होंगे, तब वृन्दावन के निवासियों ने, नन्द महाराज के नेतृत्व में वहाँ जाने का निश्चय किया । अतएव, यदुवंश के सभी सदस्य उपस्थित थे । अपने ग्वालों के साथ, नन्द महाराज ने सभी आवश्यक सामग्री बैलगाड़ियों पर लाद दी थी और सभी वृन्दावन-वासी अपने प्रिय पुत्रों सहित भगवान् श्रीकृष्ण एवं बलरामजी को देखने आए थे । जब वृन्दावन के ग्वाले कुरुक्षेत्र में पहुँचे, तब यदुवंश के सभी सदस्य अत्यन्त प्रसन्न हुए । जैसे ही उन्होंने वृन्दावन-वासियों को देखा, वे उनका स्वागत करने के लिए खड़े हो गए तथा ऐसा प्रतीत होता था कि उन्होंने अपने जीवन को पुन:

प्राप्त कर लिया है । दोनों आपस में मिलने के लिए अतिशय उत्सुक थे तथा जब वास्तव में वे आगे आकर मिले, उन्होंने जी-भर कर एक दूजे का आलिंगन किया तथा इसी प्रकार बहुत समय तक आलिंगन-बद्ध रहे ।

जैसे ही श्रीवसुदेव ने नन्द महाराज को देखा, वे उछल पड़े और भागकर अत्यन्त स्नेह से उन्होंने उनका आलिंगन किया । श्री वसुदेव अपने पूर्व-इतिहास का वर्णन करने लगे-किस प्रकार राजा कंस ने उन्हें बन्दी बना लिया था, किस प्रकार उनके बच्चे मारे गए थे तथा किस प्रकार श्रीकृष्ण के जन्म के पश्चात् उन्हें नन्द महाराज के घर पहुँचाया था तथा किस प्रकार अपने बच्चों के समान नन्द महाराज एवं माता यशोदा ने श्रीकृष्ण एवं बलराम जी का पालन किया था । उसी प्रकार, श्रीबलराम जी एवं श्रीकृष्ण ने भी नन्द महाराज एवं यशोदा माता का आलिंगन किया एवं उन्होंने उन दोनों के कमल-चरणों की झुककर सादर वन्दना की । नन्द महाराज एवं यशोदा जी के प्रति पुत्रसुलभ स्नेह होने के कारण, श्रीकृष्ण एवं बलरामजी की वाणी कुछ क्षणों के लिए अवरुद्ध हो गई और वे बोल नहीं पा रहे थे । अत्यन्त सौभाग्यशाली नन्द महाराज एवं यशोदा माता ने अपने पुत्रों को अपनी गोद में रख लिया और पूर्ण सन्तुष्टि होने तक वे उनका आलिंगन करते रहे । श्रीकृष्ण एवं बलरामजी के वियोग के कारण, नन्द जी एवं यशोदा जी दीर्घकाल से अति दुःख में निमग्न थे । अब, उनसे मिलकर और उनका आलिंगन करके उनका दुःख कम हो गया ।

इसके पश्चात् श्रीकृष्ण की माता देवकी तथा श्री बलराम की माता रोहिणी ने माता यशोदा का आलिंगन किया । उन्होंने कहा, "प्रिय महारानी यशोदा देवी ! आप एवं नन्द महाराज दोनों ही हमारे घनिष्ठ मित्र हैं और जब हम आपका स्मरण करती हैं, तो हम आपके मैत्रीपूर्ण कार्यों से अभिभूत हो जाती हैं । हम आपकी इतनी ऋणी हैं कि यदि स्वर्ग का ऐश्वर्य देकर हम आपके आशीष को लौटाना भी चाहें, तो भी आपके मैत्रीपूर्ण व्यवहार के लिए पर्याप्त न होगा । अपने प्रति आपके दयालु व्यवहार को हम कभी नहीं भूलेंगी । जब श्रीकृष्ण एवं बलराम जी का जन्म हुआ था, उनके द्वारा अपने यथार्थ माता-पिता को देखने के पूर्व ही उन्हें आपकी देख-रेख में सौंप दिया गया तथा आपने अपने बच्चे की भाँति उनका पालन-पोषण किया । आपने उनका पालन-पाषण उसी प्रकार किया, जैसे पक्षी अपने घोंसले में अपनी सन्तान की देखभाल करते हैं । आपने अच्छी तरह से उनका भरणपोषण किया है, उनके साथ प्रेम किया तथा उनके लाभ के हेतु अनेक मांगलिक, धार्मिक क्रियाएँ सम्पन्न की ।

"वास्तव में वे हमारे पुत्र नहीं हैं । आप एवं नन्द महाराज श्रीकृष्ण-बलराम के वास्तविक माता-पिता हैं । जब तक वे आपके संरक्षण में रहे, उन्हें तनिक भी कठिनाई नहीं थी । आपके संरक्षण में वे सभी प्रकार के भय से दूर थे । उनके लिए आपने जो यह स्नेहपूर्ण देखभाल की है, वह आपके उच्च पद के लिए पूर्णरूपेण उपयुक्त है । अत्यन्त महान् व्यक्ति अपने पुत्रों एवं दूसरों के पुत्रों में भेद नहीं करते तथा आप एवं नन्द महाराज से बढ़कर अन्य कोई महान् व्यक्ति नहीं हो सकता ।"

जहाँ तक वृन्दावन की गोपियों का सम्बन्ध है, उनके जीवन के आरम्भ से उन्हें श्रीकृष्ण से परे अन्य कुछ भी ज्ञात नहीं था । श्रीकृष्ण एवं बलरामजी उनके लिए जीवन एवं आत्मा थे । गोपियाँ श्रीकृष्ण से इतनी आसक्त थीं कि एक निमिष के लिए भी श्रीकृष्ण का उनकी पलकों से ओझल होना उन्हें असह्य था । उन्होंने शरीर के स्रष्टा ब्रह्माजी की निन्दा की, क्योंकि उन्होंने मूर्खतापूर्वक पलकों का निर्माण किया, जो मूँदने पर श्रीकृष्ण को उनकी दृष्टि से ओझल कर देती थीं । चूँकि वे श्रीकृष्ण से इतने अधिक वर्षों तक अलग रही थीं, अतएव गोपियों ने श्रीकृष्ण को देखकर परमानन्द का अनुभव किया । कोई भी व्यक्ति इस बात की कल्पना नहीं कर सकता कि श्रीकृष्ण को पुन: देखने के लिए गोपियाँ कितनी उत्सुक थीं । जैसे ही श्रीकृष्ण उन्हें दिखाई पड़े, वैसे ही उन्होंने श्रीकृष्ण को अपने नेत्रों द्वारा अपने हृदय में बिठा लिया और अपनी सन्तुष्टि तक वे उनका आलिंगन करती रहीं । यद्यपि वे मन-ही- मन श्रीकृष्ण का आलिंगन कर रही थीं, तथापि वे आनन्द के कारण परमानन्द से इतनी भावविभोर हो उठीं कि कुछ समय के लिए वे स्वयं को पूर्ण रूप से भूल गई । गोपियों ने श्रीकृष्ण का मन-ही-मन आलिंगन करके जो दिव्य परमानन्द प्राप्त किया था, उस दिव्यानन्द को प्राप्त करना सदैव भगवान् के चिन्तन में लीन महान् योगियों के लिए भी असम्भव है । श्रीकृष्ण समझ सकते थे कि मन-ही-मन उनका आलिंगन करके गोपियाँ परमानन्द में लीन थीं, अतएव चूँकि वे सबके हृदय में अवस्थित हैं, उन्होंने भी प्रत्युतर में मन-ही-मन गोपियों का आलिंगन किया ।

श्रीकृष्ण माता यशोदा एवं अपनी अन्य माताओं, देवकी एवं रोहिणी, के साथ बैठे थे, परन्तु जब तीनों माताएँ वार्ता में तल्लीन थीं, तब श्रीकृष्ण ने अवसर का लाभ उठाया और वे गोपियों से मिलने के लिए एकान्त स्थान पर गए । जैसे ही श्रीभगवान् गोपियों के पास पहुँचे वे मुस्कराने लगे और उनका आलिंगन करने के पश्चात् उन्होंने उनके कुशल-समाचार के विषय में पूछताछ की, एवं उनको प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने कहा, "प्रिय सखियों ! तुमको ज्ञात है कि श्रीबलराम और मैं केवल अपने सम्बन्धियों एवं परिवार के सदस्यों को प्रसन्न करने के लिए वृन्दावन छोड़कर आए, इसलिए हम युद्ध में बहुत समय से लगे हुए थे और तुम लोगों को भूलने के लिए विवश हो गए । तुम सभी गोपियाँ प्रेम एवं स्नेह के कारण मुझसे कितनी आसक्त थीं । मैं समझ सकता हूँ कि इस क्रिया से मैं तुम्हारे प्रति कृतघ्न रहा हूँ, परन्तु तो भी मुझे ज्ञात है कि तुम मेरे प्रति निष्ठावान् रही हो । क्या मैं पूछ सकता हूँ कि यद्यपि हमने तुम्हें छोड़ दिया था, फिर भी तुम हमारे बारे में क्यों सोचती रहीं ? प्रिय गोपियों ! क्या यह समझकर कि मैं तुम्हारे प्रति अकृतज्ञ रहा हूँ, अब तुम मेरा स्मरण करने में अरुचि का अनुभव करती हो ? क्या अपने साथ मेरे दुर्व्यवहार को तुम गम्भीरतापूर्वक ले रही हो ?

"तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि तुम सब को छोड़ने का मेरा अभिप्राय नहीं था, हमारा वियोग ईश्वर द्वारा निश्चित किया गया था, जो परम नियंत्रक हैं और जो अपने इच्छानुसार कार्य करते हैं । वे विभिन्न व्यक्तियों के परस्पर मिलन के कारण हैं और वे उन्हें अपनी इच्छानुसार विलग कर देते हैं । कभी-कभी हम देखते हैं कि तीव्र पवन एवं बदली की उपस्थिति के कारण धूल के सूक्ष्म कण एवं रुई के टूटे हुए टुकड़ों का पारस्परिक मिलन होता है तथा जब तीव्र पवन शान्त हो जाती है, तो धूल एवं रुई के सभी कण पुन: पृथक् हो जाते हैं और विभिन्न स्थानों पर फैल जाते हैं । उसी प्रकार, परम-ईश्वर सभी वस्तुओं के स्रष्टा हैं । हमारे द्वारा देखे जाने वाले पदार्थ उनकी शक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं ।

उनकी परम इच्छा से हम कभी-कभी एक हो जाते हैं और कभी-कभी अलग हो जाते हैं । अतएव हम निष्कर्षत: कह सकते हैं कि अन्तत: हम उनकी इच्छा पर पूर्णरूपेण निर्भर हैं ।

सौभाग्यवश, तुमने मेरे प्रति प्रेममय स्नेह विकसित किया है, जो मेरे साथ सम्बन्ध की दिव्य स्थिति को प्राप्त करने का एकमात्र मार्ग है । जो जीवात्मा मेरे प्रति ऐसा विशुद्ध भक्तिमय स्नेह उत्पन्न करता है, वह निस्सन्देह ही अपने जीवन के अन्त में भगवद्-धाम को लौट जाता है । दूसरे शब्दों में, मेरे प्रति विशुद्ध भक्ति और स्नेह ही परम मुक्ति के कारण हैं । “मेरी प्रिय गोपियों ! तुम मुझसे ज्ञात कर सकती हो कि मेरी ही शक्तियाँ सर्वत्र कार्य कर रही हैं । उदाहरण के लिए, मिट्टी का बर्तन लो । वह बर्तन मृत्तिका, जल, वायु, अग्नि एवं आकाश के सम्मिश्रण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । बर्तन सदैव इन्हीं के प्राकृतिक सम्मिश्रण से युक्त होता है । जब तक वह अस्तित्त्व में रहता है, उसका मिश्रण एक ही होता है, चाहे वह स्थिति के प्रारम्भ, अस्तित्त्व के मध्य, अथवा उनके विनाश के पश्चात् हो । जब मिट्टी के बर्तन की सृष्टि होती है, तब उसका निर्माण मृत्तिका, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश के द्वारा होता है । जब तक वह विद्यमान रहता है, तब तक उसका रूप एक ही रहता है तथा जब टूटकर उसका विनाश होता है, तब उसके विभिन्न अवयव भौतिक शक्ति के विभिन्न भागों में सुरक्षित रहते हैं । चूँकि वह शक्ति मुझसे भिन्न नहीं है, अत: यह निष्कर्ष निकलना चाहिए कि मैं प्रत्येक वस्तु में अस्तित्त्व रखता हूँ ।

“इसी प्रकार, जीव का शरीर पाँच तत्त्वों के सम्मिश्रण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है तथा भौतिक स्थिति में सम्मिलित जीवात्मा भी मेरा विभिन्न अंश है । जीवात्मा भौतिक स्थिति में कैद है, क्योंकि उसमें स्वयं को परम-आनन्द का भोक्ता होने की मिथ्या धारणा है । परम सत्य होने के नाते, मैं जीवात्मा तथा उसके भौतिक बन्धन से श्रेष्ठ हूँ । भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों शक्तियाँ मेरे परम नियंत्रण में कार्य कर रही हैं । प्रिय गोपियों ! मेरी प्रार्थना है कि इतना दुखी होने के स्थान पर, तुम्हें सभी बातों को दार्शनिक भाव में रहकर स्वीकार करने पर विलाप का कोई कारण नहीं है ।"

भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों को दिए गए इस उपदेश को कृष्णभावनामृत में संलग्न भक्तों द्वारा भी प्रयोग में लाया जा सकता है । सम्पूर्ण दर्शन अचिन्त्य भेदाभेद आधार पर समझा जाता है । श्रीमद्भागवतमें श्रीभगवान् कहते हैं कि अपने निराकार रूप में वे सर्वत्र विद्यमान हैं । सभी कुछ उनमें अस्तित्त्व रखता है, परन्तु तो भी वे व्यक्तिगत रूप से सर्वत्र विद्यमान नहीं हैं । विराट जगत् श्रीकृष्ण की शक्ति के प्रदर्शन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है और चूँकि शक्तिमान से शक्ति भिन्न नहीं है, अतएव श्रीकृष्ण से कुछ भी भिन्न नहीं है । जब यह परम चेतना अर्थात् कृष्णभावना अविद्यमान रहती है, तब हम श्रीकृष्ण से अलग हो जाते हैं, परन्तु सौभाग्यवश यदि यह कृष्णभावना विद्यमान रहती है, तो हम श्रीकृष्ण से अलग नहीं होते हैं । भक्ति की पद्धति तो कृष्णभावना का नवजागरण है और यदि भक्त को यह समझने का सौभाग्य प्राप्त है कि भौतिक शक्ति श्रीकृष्ण से अलग नहीं है, तो वह भौतिक शक्ति एवं उसकी सम्पत्तियों का प्रयोग श्रीकृष्ण की सेवा में कर सकता है । परन्तु कृष्णभावना की अनुपस्थिति में विस्मरणशील जीवात्मा, यद्यपि वह श्रीकृष्ण का विभिन्न अंश है, मिथ्या रूप से स्वयं को भौतिक जगत् के उपभोक्ता की अवस्था में समझता है और इस प्रकार भौतिक बन्धन में लिप्त रहकर, वह भौतिक शक्ति (माया) द्वारा अपना भौतिक अस्तित्त्व बनाए रखने के लिए बाध्य किया जाता है । इसकी पुष्टि श्रीमद्भगवद्गीता में भी की गई है । यद्यपि जीवात्मा भौतिक शक्ति के इच्छानुसार कार्य करने पर बाध्य की जाती है, फिर भी वह मिथ्या रूप से सोचती है कि वही सब कुछ तथा परम भोक्ता है ।

यदि भक्त को पूर्णरूप से ज्ञात होता है कि मन्दिर में भगवान् श्रीकृष्ण का मूर्तिरूप अर्थात् अर्चा-विग्रह स्वयं श्रीकृष्ण की भाँति ही सच्चिदानन्द-विग्रह है, तो मन्दिर-मूर्ति के प्रति उसकी सेवा भगवान् के प्रति सेवा कहलाती है । उसी प्रकार मन्दिर, मन्दिर की सामग्री एवं श्रीविग्रह को अर्पित कोई भी वस्तु श्रीकृष्ण से भिन्न नहीं है । व्यक्ति को आचार्यों द्वारा आदेशित नियमों का पालन करना चाहिए और इस प्रकार उच्च मार्गदर्शन में इस भौतिक जगत् में भी श्रीकृष्ण-साक्षात्कार पूर्णरूपेण सम्भव हो सकेगा ।

गोपियाँ एक ही समय में भेदाभेद के दर्शन के विषय में श्रीकृष्ण द्वारा शिक्षित किए जाने पर सदैव कृष्णभावना में बनीं रहीं और इस प्रकार वे भौतिक संदूषण से मुक्त हो गई । उस जीवात्मा की चेतना को जीवकोश कहते हैं, जो मिथ्या रूप से स्वयं को भौतिक जगत् का भोक्ता मानता है । "जीवकोश" का अर्थ है मिथ्या अहंकार द्वारा बन्धन । केवल गोपी ही नहीं अपितु कोई भी व्यक्ति, जो श्रीकृष्ण के इन उपदेशों का पालन करता है, तत्काल ही जीवकोश के बन्धन से मुक्त हो जाता है । पूर्णरूपेण कृष्णभावनामृत में स्थित व्यक्ति सदैव ही मिथ्या अहंकार से मुक्त हो जाता है, वह प्रत्येक वस्तु का उपयोग कृष्ण-सेवा में करता है और किसी भी क्षण श्रीकृष्ण से अलग नहीं होता ।

अतएव गोपियों ने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की, "प्रिय कृष्ण ! आपकी नाभि से मूल कमल-पुष्प उत्पन्न हुआ, जो स्रष्टा ब्रह्माजी का जन्मस्थान है । कोई भी आपकी महिमा अथवा ऐश्वर्यों का अनुमान नहीं लगा सकता, क्योंकि यह सर्वोच्च चिन्तनशील व्यक्ति के लिए रहस्य ही बना रहता है । तथापि इस भौतिक अस्तित्त्व के गहरे कुएँ में गिरी बद्ध-आत्मा अत्यन्त सरलतापूर्वक श्रीकृष्ण के कमल-चरणों की शरण ले सकती है । अत: उसका उद्धार सुनिश्चित है ।"गोपियों ने आगे कहा: "प्रिय कृष्ण ! हम अपने गृहस्थ-कार्यों में सदैव व्यस्त रहती हैं । अत: हमारी आपसे प्रार्थना है कि उदीयमान सूर्य के समान आप हमारे हृदय में स्थित रहें और यही हमारे लिए सबसे बड़ा वरदान होगा ।"

गोपियाँ सदैव मुक्त आत्माएँ हैं, क्योंकि वे पूर्णरूपेण कृष्णभावना में रहती हैं । उन्होंने वृन्दावन में गृहस्थ-कार्यों में बद्ध रहने का केवल बहाना किया । उनके इतने लम्बे वियोग के पश्चात् भी, वृन्दावन की गोपियाँ श्रीकृष्ण के साथ उनकी राजधानी द्वारका जाने के लिए तनिक भी उत्सुक नहीं थीं । वे वृन्दावन में व्यस्त रहकर अपने जीवन के प्रत्येक चरण में श्रीकृष्ण की उपस्थिति का अनुभव करना चाहती थीं । उन्होंने तत्काल ही श्रीकृष्ण को वृन्दावन लौटने का निमंत्रण दिया । गोपियों का यह दिव्य भावुक जीवन ही श्री चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं

का मूल सिद्धान्त है । भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा मनाया गया रथयात्रा महोत्सव श्रीकृष्ण को वृन्दावन वापस ले जाने की भावात्मक पद्धति है । श्रीमती राधारानी ने श्रीकृष्ण के साथ द्वारका जाकर राजसी ऐश्वर्य के वातावरण में उनकी संगति के रसास्वादन के विचार को अस्वीकार कर दिया । वे मूल वृन्दावन के वातावरण में श्रीकृष्ण के साथ का आनन्द उठाना चाहती थीं । गोपियों से अत्यधिक आसक्त होने के कारण श्रीकृष्ण कभी भी वृन्दावन छोड़कर नहीं जाते तथा गोपियाँ तथा वृन्दावन के अन्य निवासी कृष्णभावनामृत में पूर्णरूप से सन्तुष्ट रहते हैं ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजी का वृन्दावनवासियों के साथ मिलन” नामक बयासीवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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