एक वैदिक रीति है कि परिवार के छोटे सदस्यों को प्रतिदिन प्रात:काल वयोवृद्ध लोगों को प्रणाम करना चाहिए । विशेष रूप से बालकों एवं शिष्यों को प्रातःकाल अपने माता-पिता अथवा अपने गुरु को प्रणाम करना चाहिए । इस वैदिक सिद्धान्त का पालन करते हुए, भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजी अपने पिता वसुदेवजी एवं उनकी पत्नियों को प्रणाम करते थे । एक दिन कुरुक्षेत्र के यज्ञ में भाग लेकर लौटने पर भगवान् श्रीकृष्ण एवं बलराम जी वसुदेवजी को प्रणाम करने गए । तब वसुदेवजी ने अपने दोनों पुत्रों के श्रेष्ठ पद की प्रशंसा करने के लिए इस अवसर का लाभ उठाया । यज्ञ-भूमि में एकत्र हुए महान् ऋषियों से श्रीकृष्ण एवं बलराम के पद की महत्ता को समझने का अवसर वसुदेवजी को प्राप्त हुआ था । उन्होंने न केवल ऋषियों से सुना, अपितु अनेक अवसरों पर उन्होंने वास्तव में अनुभव भी किया कि श्रीकृष्ण एवं बलरामजी साधारण मानव नहीं हैं, अपितु वे अत्यन्त असाधारण हैं । इस प्रकार उन्होंने ऋषियों के इन शब्दों पर विश्वास किया कि उनके पुत्र श्रीकृष्ण एवं बलरामजी श्रीभगवान् हैं । अपने पुत्रों में दृढ़ निष्ठा सहित वसुदेवजी ने उनको इस प्रकार सम्बोधित किया, "प्रिय श्रीकृष्ण ! आप सच्चिदानन्द विग्रह श्रीभगवान् हैं तथा हे बलराम ! आप समस्त सिद्धियों के स्वामी संकर्षण हैं । मैं अब समझ गया हूँ कि आप अनादि हैं । आप दोनों ही इस सृष्टि तथा इसके कारण से अतीत हैं, आप परम पुरुष महाविष्णु हैं । आप सबके आदि नियन्ता हैं । आप इस भौतिक सृष्टि के आश्रय हैं । आप इसके रचयिता हैं तथा इसकी रचना में प्रयुक्त सामग्री भी आप ही हैं । आप इस सृष्टि के स्वामी हैं तथा वस्तुत: इस सृष्टि की रचना आपकी लीलाओं के लिए ही हुई है ।
"सृष्टि के प्रारम्भ से अन्त तक विभिन्न कालसूत्रों के अन्तर्गत प्रकाशित विभिन्न भौतिक रूप भी आप स्वयं हैं, क्योंकि आप इस सृष्टि के कार्य तथा कारण दोनों ही हैं । इस भौतिक जगत् के दोनों लक्षण, प्रभावकर्ता तथा प्रभावित होने वाले भी आप ही हैं तथा आप परम दिव्य नियन्ता भी हैं, जो उनसे ऊपर है । अतएव आप इन्द्रियअनुभव से परे, इन्द्रियातीत, हैं । आप अजन्मा तथा अपरिवर्तनशील परमात्मा हैं । भौतिक शरीर में होने वाले छ: प्रकार के परिवर्तनों से आप अप्रभावित रहते हैं । इस भौतिक जगत् की अद्भुत विविधताओं की रचना भी आपने की है । आपने प्रत्येक जीव तथा परमाणु में भी परमात्मा के रूप में प्रवेश किया है । आप प्रत्येक वस्तु के पालक हैं । "प्रत्येक वस्तु में जीवन तत्त्व के रूप में कार्य करने वाली प्राण-शक्ति तथा इससे प्राप्त होने वाली रचनात्मक शक्ति स्वतंत्र रूप से कार्य करती है, फिर भी आप पर निर्भर है । आप इन शक्तियों के पीछे रहने वाले परम पुरुष हैं । आपकी इच्छा के बिना ये कार्य नहीं कर सकती हैं । भौतिक शक्ति जड़ होती है । यदि आप इसे गतिशील न करें, तो यह स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकती है । भौतिक प्रकृति आप पर निर्भर है, अतएव जीव कार्य करने का प्रयास मात्र कर सकते हैं । किन्तु आपकी अनुमति तथा इच्छा के बिना वे कुछ नहीं कर सकते हैं और न ही अपेक्षित परिणाम प्राप्त कर सकते हैं ।
"मूल शक्ति आप से उत्पन्न होने वाली एक शक्ति मात्र है । प्रिय भगवन् ! चन्द्रमा की चमक, अग्नि की उष्मा, सूर्य की किरणें, नक्षत्रों की जगमगाहट तथा अत्यन्त प्रबल रूप में प्रकाशित होने वाली विद्युत् की चमक-ये सभी आपके विभिन्न प्रकाश हैं । जल का शुद्ध स्वाद तथा समस्त प्राणियों को जीवन देने वाली प्राण-शक्ति भी आप का ही लक्षण है । जल तथा इसका स्वाद भी आप स्वयं हैं ।
"प्रिय भगवन् ! यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि इन्द्रियों की शक्तियाँ विचार, इच्छा, अनुभव की मानसिक शक्ति, शरीर के बल, विकास तथा गति का कारण शरीर में वायु की भिन्न-भिन्न प्रकार की गतियाँ हैं, तथापि अन्तत: वे सब आपकी शक्ति के ही प्रकाश हैं । अन्तरिक्ष का विशाल विस्तार आप में निहित है । आकाश का कम्पन तथा इसकी गर्जना, परम शब्द ओंकार तथा एक वस्तु का दूसरी से वैभिन्य बताने के लिए विभिन्न शब्दों का विन्यास आपके ही सांकेतिक प्रतिनिधि हैं । प्रत्येक वस्तु आप ही हैं । इन्द्रियाँ तथा इन्द्रियों के नियन्ता, देवता, ज्ञान की प्राप्ति जो कि इन्द्रियों का प्रयोजन है एवं ज्ञान की विषयवस्तु सभी कुछ आप ही हैं । बुद्धि की विश्लेषण शक्ति तथा जीव की तीक्ष्ण स्मरणशक्ति भी आप स्वयं हैं । अहंवादी सिद्धान्त, जो इन्द्रियों का कारण है, वह भी आप हैं । इस भौतिक जगत् के विभिन्न नियंत्रक देवताओं के मूल सतोगुण का अहंवादी सिद्धान्त भी आप ही हैं । बद्ध आत्माओं के एक शरीर से दूसरे शरीर में सतत देहान्तरण का कारण माया भी आप हैं ।
"प्रिय श्रीभगवान् ! आप समस्त कारणों के मूल कारण हैं । यह उसी तरह है जैसे कि विभिन्न प्रकार के वृक्षों, पौधों तथा अन्य उसी प्रकार के आविर्भावों का मूल कारण भूमि है । जिस भाँति भूमि सबमें है उसी भाँति परमात्मा के रूप में आप इस भौतिक सृष्टि में सर्वत्र उपस्थित हैं । आप सनातन सिद्धान्त हैं, आप समस्त कारणों के परम कारण हैं । वस्तुत: प्रत्येक वस्तु आपकी एक शक्ति का प्रकाश है । सत्त्व, रजस तथा तमस नामक भौतिक प्रकृति के तीनों गुण तथा उनकी परस्पर क्रिया का परिणाम आपकी प्रतिनिधि योगमाया के द्वारा आपसे संयुक्त हैं । उन्हें स्वतंत्र माना जाता है, किन्तु वास्तव में सम्पूर्ण भौतिक शक्ति आप परमात्मा पर आश्रित है । आप प्रत्येक वस्तु के परम कारण हैं, अतएव भौतिक जगत् की क्रिया-प्रतिक्रिया-जन्म, अस्तित्त्व, विकास, रूप परिवर्तन, क्षय तथा विनाश-सभी आपमें अनुपस्थित हैं । आपकी परम शक्ति, योगमाया, चित्र-विचित्र आविर्भावों में कार्य कर रही है, किन्तु योगमाया आपकी शक्ति है, अतएव आप प्रत्येक वस्तु में उपस्थित हैं ।"
भगवद्-गीता के नौवें अध्याय में इस तथ्य की अत्यन्त उत्तमतापूर्वक व्याख्या की गई है, जहाँ पर भगवान् कहते हैं, "अपने निराकार रूप में मैं सम्पूर्ण भौतिक शक्ति पर छाया हुआ हूँ, प्रत्येक मुझमें आश्रित है, किन्तु मैं वहाँ नहीं हूँ ।" यही कथन वसुदेवजी का भी है । भगवान् सर्वत्र उपस्थित नहीं हैं-कहने का तात्पर्य यह है कि यद्यपि उनकी शक्ति सर्वत्र कार्य कर रही है, तथापि वे प्रत्येक वस्तु से पृथक् हैं । इसे एक स्थूल उदाहरण से समझा जा सकता है-एक बड़े संस्थान में सर्वोच्च अधिकारी की शक्ति अथवा उसका प्रबन्ध व्यापार के कोने-कोने में कार्य कर रहा है । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि मूल स्वामी वहाँ उपस्थित है, यद्यपि प्रत्येक विभाग तथा वातावरण में कार्यकर्ताओं को स्वामी की उपस्थिति का अनुभव होता है । प्रत्येक विभाग में स्वामी की सशरीर उपस्थिति एक औपचारिकता मात्र है । वास्तव में सर्वत्र उसकी शक्ति कार्य करती है । उसी भाँति श्रीभगवान् की सर्वव्यापकता का अनुभव उनकी शक्तियों की क्रियाओं में होता है । अतएव परमेश्वर में एकसाथ अचिन्तनीय एकात्मकता तथा विभिन्नता की पुष्टि सर्वत्र होती है । भगवान् एक हैं, किन्तु उनकी शक्तियाँ अनेक हैं ।
वसुदेवजी ने कहा, "यह भौतिक जगत् एक बहती हुई महान् नदी के समान है तथा सत, रज तथा तम नामक प्रकृति के तीन भौतिक गुण इसकी लहरों के समान हैं । यह भौतिक शरीर, इन्द्रियाँ विचार, अनुभव, इच्छा की शक्तियाँ दुःख, सुख, मोह वासना की स्थितियाँ आदि सभी प्रकृति के इन तीनों गुणों की विभिन्न प्रकार की उपज है । जो मूढ़ व्यक्ति इस समस्त भौतिक प्रक्रियाओं से परे आपके दिव्य स्वरूप को नहीं पहचान सकता है, वह सकाम कर्म के बन्धन में पड़ा रहता है तथा वह मुक्ति का अवसर प्राप्त हुए बिना जन्म-मरण की निरन्तर प्रक्रिया का भागी होता है ।” भगवद्-गीता के चौथे अध्याय में भगवान् ने भी इस तथ्य की पुष्टि एक अन्य प्रकार से की है । वहाँ कहा गया है कि जो कोई परम भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूप एवं उनकी गतिविधियों को जान लेता है, वह भौतिक प्रकृति के बन्धन से मुक्त हो जाता है तथा भगवान् के धाम लौट जाता है । अतएव श्रीकृष्ण का दिव्य नाम, रूप, कार्य तथा गुण भौतिक प्रकृति की उपज नहीं है ।
वसुदेवजी ने आगे कहा, "प्रिय भगवन् ! बद्धात्माओं के इन दोषों के होने पर भी यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार भक्ति के सम्पर्क में आ जाता है, तब उसे यह विकसित चेतना वाली सुसंस्कृत मानव-देह प्राप्त होती है और इस प्रकार वह भक्ति में और आगे प्रगति करने में समर्थ हो जाता है । फिर भी बहिरंगा शक्ति से भ्रमित मानव, साधारणतया मानव-देह में जन्म लेने की इस सुविधा का लाभ नहीं उठाते हैं । इस प्रकार वे सनातन मुक्ति का अवसर खो देते हैं तथा हजारों जन्मों के पश्चात् उन्होंने जो प्रगति की होती है उसे अनावश्यक रूप से नष्ट कर देते हैं ।
"जीवन की देहात्मबुद्धि धारणा में अपने मिथ्या अंहकार के कारण मानव अपनी देह से उत्पन्न सन्तान के प्रति मोह रखता है । इस बद्ध जीवन में प्रत्येक प्राणी झूठे सम्बन्धों तथा झूठे मोह के द्वारा बन्धनों में जकड़ा हुआ है । समस्त जगत् भौतिक दासता के झूठे प्रभाव के अन्तर्गत कार्य कर रहा है । मैं जानता हूँ कि आप दोनों में से कोई भी मेरे पुत्र नहीं हैं, आप आदि स्वामी तथा पूर्वपुरुष हैं । आप प्रधान तथा पुरुष के नाम से विख्यात श्रीभगवान् हैं । किन्तु अनावश्यक रूप से अपनी सैन्य शक्ति की वृद्धि करने वाले क्षत्रिय राजाओं को मार कर इस जगत् का भार कम करने के लिए आप इस भूतल पर प्रकट हुए हैं । विगत में आपने पहले ही मुझे इस विषय में सूचित किया है । प्रिय भगवन् ! आप शरणागत आत्माओं के आश्रय हैं, दीन-हीनों के आप परम शुभ चिन्तक हैं । केवल आपके चरणकमल ही मानव को भौतिक जीवन के बन्धन से मुक्ति प्रदान कर सकते हैं, अतएव मैं आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ ।
“दीर्घकाल तक मैंने इस शरीर को ही अपना समझा है और यद्यपि आप श्रीभगवान् हैं, तथापि मैं आपको अपना पुत्र मानता था । प्रिय भगवन् ! जिस क्षण आप कंस के कारागृह में सर्वप्रथम प्रकट हुए थे, तभी मुझे सूचित किया गया था कि आप श्रीभगवान् हैं तथा आप धर्म के सिद्धान्तों की रक्षा तथा अधर्मियों का विनाश करने के लिए अवतरित हुए हैं । यद्यपि आप अजन्मा हैं, तथापि अपने ध्येय का सम्पादन करने के लिए आप प्रत्येक युग में अवतीर्ण होते हैं । जिस प्रकार आकाश में अनेक आकार-प्रकार प्रकट तथा तिरोहित होते रहे हैं, उसी भाँति आप भी अनेक सनातन रूपों में प्रकट तथा अप्रकट होते हैं । अतएव आपकी लीलाओं तथा आपके आविर्भाव तथा तिरोभाव के रहस्य को कौन समझ सकता है ? अतएव आपकी परमोत्कृष्टता का यशगान करना ही हमारा एकमात्र कार्य होना चाहिए ।"
जब वसुदेवजी अपने दिव्य पुत्रों को इस प्रकार सम्बोधित कर रहे थे तब भगवान् श्रीकृष्ण एवं बलरामजी मुस्करा रहे थे, क्योंकि वे अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त वत्सल हैं । अत: उन्होंने वसुदेवजी की समस्त प्रशंसा को कृपापूर्ण, मुस्कानयुक्त मुद्रा से स्वीकार किया । तत्पश्चात् श्रीकृष्ण ने वसुदेव के समस्त कथनों की पुष्टि की, "हे तात ! आप कुछ भी कहें, हम आपके पुत्र हैं । आपने हमारे विषय में जो कुछ भी कहा है, वह निश्चय ही आध्यात्मिक ज्ञान की एक उत्कृष्ट दार्शनिक समझ है । मैं बिना किसी अपवाद के इसे समस्त रूप में स्वीकार करता हूँ ।"
भगवान् श्रीकृष्ण एवं बलरामजी को अपना पुत्र मानने में वसुदेवजी जीवन की पूर्ण आदर्श स्थिति में थे, किन्तु कुरुक्षेत्र के तीर्थस्थल पर एकत्र ऋषियों ने भगवान् को प्रत्येक वस्तु का परम कारण कहा था, अतएव श्रीकृष्ण एवं बलरामजी के प्रति अपने प्रेम के कारण वसुदेवजी ने इसको दुहरा दिया था । वसुदेवजी से अपने पितापुत्र के सम्बन्ध में कोई न्यूनता लाने की भगवान् श्रीकृष्ण की इच्छा नहीं थी, अतएव अपने उत्तर के प्रारम्भ में ही उन्होंने यह तथ्य स्वीकार किया कि वे वसुदेवजी के सनातन पुत्र हैं तथा वसुदेवजी श्रीकृष्ण के सनातन पिता हैं । इसके उपरान्त उन्होंने आगे कहा, "प्रिय तात ! मेरे तथा मेरे भाई बलरामजी सहित प्रत्येक प्राणी, साथ ही साथ द्वारका नगर के समस्त निवासी तथा समस्त सृष्टि ठीक उसी प्रकार की है जैसा आपने स्पष्ट किया है, किन्तु हम सब गुणात्मक रूप में भी एक हैं ।" भगवान् श्रीकृष्ण की इच्छा थी कि वसुदेवजी प्रत्येक वस्तु को प्रथम श्रेणी के भक्त महाभागवत की दृष्टि से देखें । एक प्रथम श्रेणी का भक्त समस्त जीवों को परम भगवान् के विभिन्न अंशों के रूप में देखता है तथा वह परम भगवान् को प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित देखता है । वास्तव में प्रत्येक जीव का आध्यात्मिक स्वरूप होता है, किन्तु भौतिक जगत् के सम्पर्क में वह प्रकृति के भौतिक गुणों से प्रभावित हो जाता है । वह देहात्मबुद्धि से आच्छादित हो जाता है और उसे यह विस्मृत हो जाता है कि उसकी आत्मा भी उसी कोटि (गुण) की है, जिस कोटि के श्रीभगवान् हैं । हम भूल से केवल उसके भौतिक दैहिक आवरण के कारण एक व्यक्ति को दूसरे से भिन्न मानते हैं । शरीरों में वैभिन्य के कारण आत्मा हमारे सम्मुख भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती है । तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण ने पंचभूतों (तत्त्वों) के सम्बन्ध में एक उत्तम दृष्टान्त दिया । गगन, समीर, अग्नि, भूमि तथा जल नामक समस्त तत्त्व इस भौतिक जगत् की प्रत्येक वस्तु में उपस्थित हैं, चाहे वह मिट्टी का पात्र हो, पर्वत वृक्ष अथवा एक कुण्डल ही क्यों न हो । यही पाँच तत्त्व प्रत्येक वस्तु में विभिन्न अनुपातों एवं मात्राओं में उपस्थित हैं । एक पर्वत इन पंचभूतों के संयोग का एक विशाल रूप है तथा एक छोटा मिट्टी का पात्र भी इन्हीं तत्त्वों की उपज है, किन्तु छोटी मात्रा में । अतएव समस्त भौतिक पदार्थ यद्यपि विभिन्न आकारों अथवा मात्रा में होते हैं, तथापि उनका निर्माण करने वाली सामग्री एक-सी होती है । उसी भाँति भगवान् श्रीकृष्ण से प्रारम्भ करके, विष्णु तत्त्व तथा करोड़ों विष्णु-रूपों एवम् ब्रह्माजी से प्रारम्भ करके क्षुद्र चींटी तक जीवों के विभिन्न रूप, सभी की आत्मा एक ही कोटि की है । मात्रा में कुछ महान् हैं तथा कुछ क्षुद्र किन्तु गुणवत्ता में वे एक ही स्वभाव के हैं । अतएव उपनिषदों में इस तथ्य की पुष्टि की गई है, कि श्रीकृष्ण अथवा परमेश्वर समस्त जीवों में प्रमुख हैं । वे उन सब जीवों का पालन करते हैं तथा उनके लिए जीवन की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । जो कोई यह दर्शन समझ लेता है उसे पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है । वैदिक कथन " तत्त्वमासि”, "-"तू वही है"-का अर्थ यह नहीं है, कि प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर है । इसका वास्तविक अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति गुणवत्ता में भगवान् के समान स्वभाव वाला है ।
आध्यात्मिक जीवन के सम्पूर्ण दर्शन का श्रीकृष्ण के द्वारा संक्षिप्त कथन सुन कर वसुदेवजी अपने पुत्र से अत्यधिक प्रसन्न हो गए । इस प्रकार गद्गद् हो कर वे बोल न सके, अपितु मौन रहे । इस मध्य भगवान् श्रीकृष्ण की माता देवकीजी अपने पति के पार्श्व में बैठी थीं । उन्होंने पहले सुना था कि श्रीकृष्ण एवं बलरामजी दोनों ही अपने गुरु पर इतने कृपालु थे कि वे गुरु के मृत पुत्रों को यमराज के चंगुल से छुड़ा कर वापस लौटा लाए थे । जब से उन्होंने इस घटना का श्रवण किया था तब से वे भी कंस द्वारा वध किए गए अपने पुत्रों के विषय में चिन्तन कर रही थीं । उन्हें स्मरण करते हुए वे दुःख से व्याकुल हो जाती थीं ।
अपने मृत पुत्रों के प्रति करुणा से भर कर देवकी जी भगवान् श्रीकृष्ण एवं बलराम जी से इस प्रकार विनती करने लगीं, "प्रिय बलराम ! आपके नाम से ही संकेत प्राप्त होता है कि आप प्रत्येक प्राणी को समस्त सुख तथा शक्ति प्रदान करते हैं । आपकी असीम शक्ति हमारे मन तथा शब्दों की पहुँच से परे है । हे श्रीकृष्ण ! आप योगेश्वर हैं । मुझे यह भी ज्ञात है कि आप ब्रह्मा तथा उनके सहायकों जैसे समस्त प्रजापतियों के स्वामी हैं तथा आप आदि भगवान् श्री नारायण हैं । मुझे यह भी निश्चित रूप से ज्ञात है कि आप काल की धारा में पथच्युत हो गए समस्त दुष्कर्मियों के विनाश के हेतु अवतीर्ण हुए हैं । उन दुष्कर्मियों ने अपने मन तथा इन्द्रियों पर से नियंत्रण खो दिया है, वे सतोगुण से स्खलित हो गए हैं । उन्होंने जानबूझ कर धर्मग्रन्थों द्वारा प्रदर्शित दिशा की उपेक्षा की है तथा अतिशयता एवं अविवेक का जीवन व्यतीत किया है । ऐसे दुष्कर्मी राजाओं का वध करके जगत् के भार को कम करने के लिए आप इस भूतल पर अवतीर्ण हुए हैं । प्रिय श्रीकृष्ण ! मुझे ज्ञात है कि सृष्टि के आदि कारण सागर में विश्राम करने वाले महाविष्णु जो इस समस्त सृष्टि के स्रोत हैं, आपके अंश के एक विस्तार-मात्र हैं । इस प्राकृत सृष्टि की रचना, पालन तथा संहार आपके केवल अंश के द्वारा की जा रही है । अतएव मैं निशंक मन से आपकी शरण ग्रहण करती हूँ । मैंने सुना है कि जब आप अपने गुरु सान्दीपनी मुनि को गुरुदक्षिणा देना चाहते थे, तो उन्होंने आपसे अपने मृत पुत्र को वापस लाने की प्रार्थना की थी, तब यद्यपि वह दीर्घ काल से मृत था तथापि आप तथा बलरामजी तत्काल ही उसे यमराज के बन्धन से छुड़ा लाए थे । इस कार्य से मैं समझती हूँ कि आप समस्त योगियों के स्वामी परम योगेश्वर हैं । अतएव मैं आपसे इसी भाँति अपनी इच्छा को भी पूर्ण करने की प्रार्थना करती हूँ । दूसरे शब्दों में, मैं आपसे कंस द्वारा वध किए गए अपने सभी पुत्रों को वापस लाने की प्रार्थना करती हूँ । आपके द्वारा उन्हें वापस लाने पर मेरा हृदय सन्तुष्ट हो जाएगा तथा उनके एक बार दर्शन करने से ही मुझे सुख प्राप्त होगा ।"
अपनी माता के इस प्रकार के वचनों को सुन करके भगवान् श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण ने तत्काल योगमाया की सहायता ली तथा सुतल नामक पाताल लोक की ओर प्रस्थान कर दिया । पहले अपने वामनावतार के समय असुरराज बलि महाराज ने अपना सर्वस्व श्रीभगवान् को दान करके उन्हें प्रसन्न कर दिया था । तत्पश्चात् भगवान् ने बलि महाराज को उनके निवास स्थान तथा राज्य के रूप में सम्पूर्ण सुतल दे दिया था । अब जब इस महान् भक्त बलि महाराज ने देखा कि भगवान् श्रीबलराम एवं श्रीकृष्ण उनके गृह पर पधारे हैं तब वे तत्काल ही आनन्द के सागर में डूब गए । जैसे ही उन्होंने अपने समक्ष भगवान् श्रीकृष्ण एवं बलरामजी के दर्शन किए वैसे ही वे तथा उनके परिवार के सभी सदस्य अपने आसनों से उठ खड़े हुए तथा उन्होंने भगवान् के चरणकमलों में प्रणाम किया । बलि महाराज ने अपने पास का सर्वोत्तम आसन भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजी को दिया और जब दोनों ही भगवान् सुखपूर्वक बैठ गए तब बलि महाराज उनके चरणाविन्दों का प्रक्षालन करने लगे । तत्पश्चात् उन्होंने उस चरणामृत को अपने तथा अपने परिवार के सदस्यों
के सिर पर चढ़ाया । श्रीकृष्ण एवं बलरामजी के पदकमलों के प्रक्षालन में प्रयुक्त जल ब्रह्माजी जैसे महान्तम देवताओं को भी पावन कर सकता है ।
उसके उपरान्त बलि महाराज मूल्यवान वस्त्र, आभूषण, चन्दन का आलेप, पान, दीपक तथा विभिन्न प्रकार के अमृतमय भोजन ले आए । अपने परिवार के सदस्यों सहित उन्होंने नियमपूर्वक भगवान् की उपासना की तथा अपनी सम्पत्ति तथा देह को भगवान् के चरणकमलों में अर्पित किया । राजा बलि को ऐसे दिव्य सुख का अनुभव हो रहा था कि वे बारम्बार भगवान् के पदकमलों को पकड़ कर उन्हें अपने वक्षस्थल पर रख लेते थे, कभी-कभी वे श्रीचरणों को अपने मस्तक पर रख लेते थे । इस प्रकार वे दिव्य आनन्द का अनुभव कर रहे थे । उनके नेत्रों से स्नेह तथा प्रेमवश अश्रु प्रवाहित होने लगे तथा उन्हें रोमांच हो आया । वे बीच-बीच में अवरुद्ध होती हुई वाणी से भगवान् की स्तुति करने लगे ।
"प्रिय भगवान् श्रीबलराम ! आप आदि अनन्तदेव हैं । आप इतने महान् हैं कि अनन्तदेव शेषजी तथा अन्य दिव्य रूप मूलत: आपसे तथा भगवान् श्रीकृष्ण से ही उत्पन्न हुए हैं । आप आदि श्रीभगवान् हैं तथा आपका सनातन रूप पूर्णानन्दमय तथा पूर्ण ज्ञानमय है । आप समस्त जगत् के स्रष्टा हैं । आप श्रीभगवान् परम-ब्राह्म हैं । अतएव मैं पूर्ण आदर सहित आप दोनों को प्रणाम करता हूँ । प्रिय भगवन् ! जीवों के लिए आपके दर्शन प्राप्त होना अत्यंत कठिन है, किन्तु फिर भी जब आप अपने भक्तों पर कृपालु होते हैं तब उनके लिए आपके दर्शन प्राप्त करना सरल हो जाता है । अपनी अहैतुकी कृपा के कारण ही आप यहाँ आकर हमें दर्शन देने के लिए सहमत हुए हैं, क्योंकि हम साधारणत: रजोगुण एवं तमोगुण से प्रभावित हैं और आपकी इस कृपा के योग्य नहीं हैं ।
"प्रिय भगवन् ! हम दैत्य अथवा असुर वर्ग के जीव हैं । असुर, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच, भूत-प्रेत जैसे लोग स्वभावत: ही आपकी उपासना करने अथवा आपके भक्त बनने में असमर्थ हैं । आपके भक्त बनने के स्थान पर वे भक्ति के मार्ग में बाधा बन जाते हैं । इसके विपरीत आप श्रीभगवान् हैं । आप समस्त वेदों के प्रतिनिधि हैं तथा सदैव ही निर्दोष सतोगुण में स्थित हैं । आपका पद सदैव ही दिव्य है । इसी कारण रजोगुण एवं तमोगुण से उत्पन्न होने पर भी हममें से कुछ लोगों ने आपके चरणारविन्दों की शरण ग्रहण की है तथा भक्त बन गए हैं । हममें से कुछ वास्तव में विशुद्ध भक्त हैं तथा कुछ लोग भक्ति द्वारा कुछ प्राप्त करने की इच्छा से आपके चरणकमलों की शरण में आए हैं ।
"हम असुरगण केवल आपकी अहैतुकी कृपा के कारण ही आपके प्रत्यक्ष सम्पर्क में आए हैं । यह सम्पर्क महान् देवताओं को भी प्राप्त होना असम्भव हैं । अपनी योगमाया की शक्ति के माध्यम से आप किस प्रकार कार्य करते हैं, यह किसी को ज्ञात नहीं है । आपकी अन्तरंगा शक्ति की गतिविधियों के विस्तार का अनुमान देवता भी नहीं लगा सकते हैं, तब हमारे लिए इसे समझना किस प्रकार सम्भव है ? अतएव मैं अपनी विनम्र विनती आपके समक्ष रखता हूँ-मैं आपके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित (शरणागत) हूँ । कृपया मुझ पर दयालु हों तथा मुझ पर अपनी अहैतुकी दया की कृपा कीजिए, जिससे कि मैं जन्म-जन्मांतर आपके चरणकमलों का स्मरण कर सकूं । मेरी एकमात्र महत्त्वाकांक्षा है कि मैं एक परमहंस की भाँति एकाकी रह सकूं, जो कि मन की महान् शान्ति में यत्र-तत्र यात्रा करते हुए केवल आपके पाद-पद्मों पर ही निर्भर रहते हैं । मेरी यह भी इच्छा है कि यदि मुझे किसी की संगति करनी हो, तो मैं केवल आपके विशुद्ध भक्तों की संगति करूं और किसी की नहीं, क्योंकि आपके शुद्ध भक्त सदैव समस्त जीवों के शुभ-चिन्तक होते हैं ।
"प्रिय भगवन् ! आप समस्त जगत् के परम स्वामी तथा निर्देशक हैं । अतएव कृपया मुझे अपनी सेवा में संलग्न कर लीजिए और इस प्रकार मुझे समस्त भौतिक दूषणों से मुक्त हो जाने दीजिए । आप मुझे इस प्रकार पावन कर सकते हैं, क्योंकि यदि कोई स्वयं को आपकी भक्ति में संलग्न करता है, तब वह तत्काल ही वेदों में बताए गए सभी प्रकार के विधि-विधानों से मुक्त हो जाता है ।"
यहाँ पर प्रयुक्त परमहंस शब्द का अर्थ है सर्वश्रेष्ठ हंस । कहा जाता है कि हंस जल मिश्रित दूध के कुण्ड में से दूध ले सकता है । इसी के समान वह व्यक्ति, जो कि इस भौतिक जगत् में से आध्यात्मिक अंश को ग्रहण कर लेता है तथा जो केवल परमात्मा पर निर्भर रह कर एकाकी रह सकता है, परमहंस कहलाता है । जब कोई व्यक्ति परमहंस के स्तर को प्राप्त कर लेता है, तब वह वैदिक निर्देशों के विधिविधानों के अधीन नहीं रह जाता । परमहंस केवल शुद्ध भक्तों की संगति को स्वीकार करता है तथा भौतिकता में लिप्त अन्य प्राणियों का त्याग कर देता है । दूसरे शब्दों में, भौतिकता में लिप्त प्राणी परमहंस के महत्त्व को नहीं समझ सकते हैं, किन्तु जो व्यक्ति सौभाग्यमय आध्यात्मिक रूप से प्रगति कर चुके हैं, वे परमहंस की शरण में जाते हैं और इस प्रकार मानव-जीवन के ध्येय की सफलतापूर्वक पूर्ति करते हैं ।
बलि महाराज की स्तुति सुनने के उपरान्त भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, "प्रिय असुरराज ! स्वायंभुव मनु के संवत्सर में मरीचि नामक प्रजापति ने अपनी पत्नी ऊर्णा के गर्भ से छ: पुत्र प्राप्त किए, जो सभी देवता थे । एक बार ब्रह्माजी अपनी पुत्री पर मुग्ध हो गए तथा उन्होंने कामवासना से प्रेरित हो कर उसका पीछा किया । उस समय इन छ: देवाताओं ने अत्यन्त घृणापूर्वक ब्रह्माजी के इस कार्य का अवलोकन किया था । ब्रह्माजी के कार्य की यह आलोचना उनका एक महान् अपराध था तथा इसी कारण उन्हें हिरण्यकशिपु के पुत्रों के रूप में जन्म लेने का दण्ड प्राप्त हुआ । तदनन्तर हिरण्यकशिपु के इन पुत्रों को माता देवकी के गर्भ में स्थापित किया गया तथा जैसे ही उन्होंने जन्म लिया, कंस ने एक के पश्चात् एक उनका वध कर दिया । प्रिय असुरराज ! माता देवकी इन मृत पुत्रों का फिर से दर्शन करने के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं तथा कंस के हाथों उनकी अकाल मृत्यु के कारण वे अत्यन्त दुखी हैं । मुझे ज्ञात है कि वे सब तुम्हारे साथ निवास कर रहे हैं । अपनी माता देवकी को सन्तुष्ट करने के लिए मैंने उन्हें अपने साथ ले जाने का निश्चय किया है । मेरी माताजी के दर्शन करने के पश्चात् ये छहों बद्धात्माएँ मुक्त हो जाएँगी तथा इस प्रकार अत्यन्त सुखपूर्वक वे अपने लोक को चली जाएँगी । इन छ: बद्धात्माओं के नाम हैं-स्मर, उद्गीथ, परिष्वंग, पतंग, क्षुद्रमृत तथा घृणी । उन्हें पुन: अपना देवताओं का पद (देवत्त्व) प्राप्त हो जाएगा ।"
इस प्रकार असुरराज को सूचित करने के उपरान्त श्रीकृष्ण ने बोलना बन्द कर दिया और बलि महाराज भगवान् का प्रयोजन समझ गए । उन्होंने भगवान् की समुचित उपासना की । तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण तथा भगवान् श्रीबलराम छ: बद्धात्माओं को साथ लेकर द्वारका नगरी लौट गए । वहाँ उन्होंने उन बद्धात्माओं को शिशुओं के रूप में अपनी माता देवकी के सम्मुख प्रस्तुत किया । माता देवकी आनन्द से विह्वल हो गई तथा वात्सल्य से इतनी आनन्दित हो गई कि तत्काल उनके स्तनों से दूध बहने लगा । उन्होंने अत्यन्त सन्तोषपूर्वक शिशुओं को दुग्धपान कराया । वे शिशुओं को बारम्बार अपनी गोद में लेने लगीं तथा उनका सिर सूंघते हुए विचार करने लगीं, "वे मेरे खोए हुए पुत्रों को वापस ले आए हैं !" उस समय वे विष्णु की शक्ति के अधीन हो गई तथा अत्यन्त ममतापूर्वक वे अपने खोए हुए पुत्रों के सान्निध्य का आनन्द लेने लगीं ।
देवकीजी के स्तनों से निकला हुआ दूध दिव्य अमृत था, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उसी दूध का पान किया था । इस प्रकार जब उन शिशुओं ने देवकीजी के उन स्तनों से दुग्धपान किया, जिसको भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर का स्पर्श प्राप्त हुआ था, तब वे तत्काल आत्मज्ञानी बन गए । अतएव वे शिशु भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी, अपने पिता वसुदेवजी तथा माता देवकीजी को प्रणाम करने लगे । इसके उपरान्त वे तत्काल अपने-अपने स्वर्गलोकों को चले गए ।
उनके प्रस्थान के पश्चात् माता देवकी आश्चर्यचकित रह गई कि उनके मृत पुत्र वापस लौट आए थे तथा पुन: अपने-अपने लोकों को चले गए । वे भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं का चिन्तन करके ही इन घटनाओं से सामंजस्य कर सकीं । भगवान् श्रीकृष्ण की शक्तियाँ अचिन्त्य हैं, अतएव कुछ भी अद्भुत सम्पादित हो सकता है । भगवान् की अचिन्त्य तथा असीम शक्तियों को स्वीकार किए बिना व्यक्ति यह नहीं समझ सकता है कि भगवान् श्रीकृष्ण परमात्मा हैं । अपनी असीम शक्तियों से वे असीम लीलाएँ करते हैं । न कोई पूर्णरूपेण उनका वर्णन कर सकता है, न ही किसी को उन सबका ज्ञान हो सकता है । नैमिषारण्य के ऋषियों के सम्मुख, जिनमें शौनक ऋषि प्रमुख थे, श्रीमद्-भागवत की कथा कहते हुए सूत गोस्वामी ने इस विषय में अपना निम्नांकित निर्णय दिया है । "महर्षियों ! कृपया आप यह समझ लीजिए कि भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाएँ चिर सनातन हैं । वे ऐतिहासिक घटनाओं के साधारण कथन नहीं हैं । ये कथाएँ स्वयं श्रीभगवान् से एकरूप हैं । अतएव जो कोई भगवान् की लीलाओं की इन कथाओं का श्रवण करता है, वह तत्काल ही भौतिक जगत् के दूषणों से मुक्त हो जाता है । जो शुद्ध भक्त हैं, वे अपने कानों में प्रवेश करते हुए अमृत की भाँति इन कथाओं का आनन्द उठाते हैं ।" व्यासदेव के सुपुत्र श्रील शुकदेव गोस्वामी ने इन कथाओं का वर्णन किया था । इन कथाओं का श्रवण करने वाला तथा दूसरों के श्रवणार्थ इनका वर्णन करने वाला व्यक्ति कृष्णभावनाभावित हो जाता है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ही अपने घर, भगवान् के धाम, लौटने का अधिकारी होता है ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा देवकी के छ: पुत्रों को लौटाना” नामक पचासीवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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