श्रीकृष्ण के महान् भक्त के रूप में राजा परीक्षित पहले से ही मुक्त थे, किन्तु अपनी शंकाएँ दूर करने के लिए वे श्रील शुकदेव गोस्वामी से अनेक प्रकार के प्रश्न पूछ रहे थे । इससे पहले के अध्याय में राजा परीक्षित का प्रश्न था, “वेदों का चरम लक्ष्य क्या है ?" श्रील शुकदेव गोस्वामी ने सनन्दन से प्रारम्भ कर के श्रीनारायण ऋषि, नारद मुनि, व्यास देव तथा तत्पश्चात् स्वयं अपने तक गुरुपरम्परा का प्रामाणिक वर्णन कर के इस विषय को स्पष्ट किया । निष्कर्ष यह था कि भक्ति ही वेदों का चरम लक्ष्य है । एक नवभक्त यह प्रश्न कर सकता है, "यदि वेदों का निष्कर्ष अथवा जीवन का चरम लक्ष्य भक्ति के स्तर तक पहुँचना ही है, तब ऐसा क्यों देखा जाता है कि भगवान् विष्णु का भक्त साधारणतया भौतिक रूप से सम्पन्न नहीं होता है, जबकि भगवान् शिव का भक्त अत्यन्त ऐश्वर्यवान् दिखाई देता है ?" इस विषय में शंका दूर करने के उद्देश्य से परीक्षित महाराज ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से प्रश्न किया, "प्रिय श्रील शुकदेव गोस्वामी जी ! साधारणतया देखा जाता है कि मनुष्यों, असुरों अथवा देवताओं के समाज में से जो कोई भी भगवान् शिव की उपासना करता है, वह भौतिक रूप से अत्यन्त ऐश्वर्यशाली हो जाता है, यद्यपि भगवान् शिव स्वयं एक अकिंचन की भाँति रहते हैं । दूसरी ओर श्रीदेवी के स्वामी भगवान् विष्णु के भक्त सम्पन्न प्रतीत नहीं होते हैं, कभी-कभी तो वे बिना किसी भौतिक वैभव के जीवन-यापन करते दिखाई देते हैं । भगवान् शिव किसी वृक्ष के नीचे अथवा हिमालय पर्वत के हिम में निवास करते हैं । वे अपने लिए एक भवन का निर्माण भी नहीं करते हैं, फिर भी भगवान् शिव के भक्त अत्यन्त सम्पन्न हैं । श्रीकृष्ण अथवा भगवान् वैकुण्ठ-लोक में हों, अथवा इस भौतिक जगत् में हों, वे अत्यन्त ऐश्वर्यपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं, किन्तु उनके भक्त दरिद्र प्रतीत होते हैं, ऐसा क्यों है ?"
महाराज परीक्षित का प्रश्न अत्यन्त बुद्धिमत्तापूर्ण है । भगवान् शिव तथा भगवान् विष्णु के भक्तों के दोनों वर्ग सदैव ही असहमत रहते हैं । भारत में आज भी भक्तों के ये दोनों वर्ग एक दूसरे की आलोचना करते हैं । विशेषरूप से दक्षिण भारत में रामानुजाचार्य के अनुयायी तथा शंकराचार्य के अनुयायी वेदों के निष्कर्ष को समझने के लिए सम्मेलन करते हैं । साधारणतया इन सम्मेलनों में रामानुजाचार्य के अनुयायी विजयी होते हैं । इस प्रकार श्रील शुकदेव गोस्वामी से प्रश्न करके महाराज परीक्षित इस स्थिति को स्पष्ट करना चाहते थे । यद्यपि उनके भक्त अत्यन्त सम्पन्न प्रतीत होते हैं, किन्तु भगवान् शिव दरिद्र के समान रहते हैं, जबकि भगवान् श्रीकृष्ण अथवा भगवान् विष्णु सदैव ही अत्यन्त वैभवशाली हैं, फिर भी उनके भक्त दरिद्र प्रतीत होते हैं । यह एक ऐसी स्थिति है, जो विवेकशील व्यक्ति को विरोधी तथा पहेली-सी प्रतीत होती है ।
श्रील शुकदेव गोस्वामी भगवान् शिव तथा भगवान् विष्णु की उपासना के विषय में दृष्टिगोचर होने वाले विरोधाभास के सम्बन्ध में राजा परीक्षित के प्रश्न का उत्तर देने लगे । शिवजी भौतिक शक्ति के स्वामी हैं । भौतिक शक्ति की प्रतिनिधि दुर्गादेवी हैं तथा शिवजी उनके पति हैं । दुर्गादेवी पूर्ण रूप से शिवजी की शक्ति के अधीन हैं, अतएव यही समझना चाहिए कि शिवजी इन भौतिक शक्ति के स्वामी हैं । भौतिक शक्ति का प्रकाश सत, रज तथा तमस नामक त्रिगुणों में होता है, अतएव शिवजी इस त्रिगुणों के स्वामी हैं । यद्यपि बद्धात्माओं के कल्याण के लिए शिवजी इन गुणों के सम्पर्क में रहते हैं, किन्तु वे इनके निर्देशक हैं तथा इनसे प्रभावित नहीं होते हैं । यद्यपि बद्धात्माओं पर इन तीनों गुणों का प्रभाव पड़ता है, किन्तु इन गुणों का स्वामी होने के कारण शिवजी इनसे प्रभावित नहीं होते हैं ।
श्रील शुकदेव गोस्वामी के कथन से हमें ज्ञात होता है कि विभिन्न देवताओं की उपासना का फल भगवान् विष्णु की उपासना के समान नहीं होता है, जैसाकि कुछ अल्पबुद्धि लोगों की धारणा है । वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि शिवजी की उपासना के द्वारा व्यक्ति को एक प्रकार का पुरस्कार प्राप्त होता है, जबकि भगवान् विष्णु की उपासना के द्वारा एक दूसरा ही पुरस्कार प्राप्त होता है । इस तथ्य की पुष्टि श्रीमद् भगवद् गीता में भी की गई है-विभिन्न देतवाओं की उपासना करने वालों को वे अभीप्सित फल प्राप्त होते हैं, जिन्हें वे देवता प्रदान कर सकते हैं । इसी भाँति जो भौतिक शक्ति की उपासना करते हैं, उन्हें ऐसी गतिविधियों के योग्य पुरस्कार प्राप्त होता है तथा जो पितरों की उपासना करते हैं, उन्हें भी वैसे ही फल प्राप्त होते हैं । किन्तु वे व्यक्ति जो परमेश्वर, भगवान् विष्णु अथवा श्रीकृष्ण की भक्ति अथवा उपासना में संलग्न हैं वैकुण्ठ लोक अथवा श्रीकृष्ण लोक को जाते हैं । शिवजी अथवा ब्रह्माजी अथवा अन्य किसी देवता की उपासना के द्वारा व्यक्ति दिव्य क्षेत्र अथवा परव्योम के समीप नहीं जा सकता है ।
यह भौतिक जगत् भौतिक प्रकृति के त्रिगुणों का उत्पाद है, अतएव समस्त प्रकार के विस्तार इन्ही त्रिगुणों से उत्पन्न होते हैं । भौतिकतावादी विज्ञान की सहायता से आधुनिक सभ्यता ने अनेक यंत्रों तथा जीवन की सुविधाओं का निर्माण कर लिया है, किन्तु फिर भी वे सब भौतिक त्रिगुणों की पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया के प्रकार ही हैं । यद्यपि शिव-भक्त अनेक भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं, फिर भी हमें ज्ञात होना चाहिए कि वे केवल त्रिगुणों द्वारा निर्मित पदार्थों को ही एकत्र कर रहे हैं । आगे इन त्रिगुणों का सोलह में विभाजन होता है जैसे-दस इन्द्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ), मन तथा पंच तत्त्व (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश) । ये सोलह वस्तुएँ त्रिगुणों का विस्तार है । भौतिक सुख अथवा वैभव का अर्थ है इन्द्रियों की तृप्ति, विशेष रूप से जननेन्द्रिय, जिह्वा तथा मन की तृप्ति । अपने मन का उपयोग करके हम जननेन्द्रियों तथा जिह्वा के भोग के लिए अनेक सुखदायक वस्तुएँ उत्पन्न करते हैं । इस भौतिक जगत् में मनुष्य के ऐश्वर्य का अनुमान इससे लगाया जाता है कि वह किस सीमा तक अपनी काम-क्षमताओं का उपयोग करने में समर्थ है तथा वह सुस्वादु व्यंजन खाकर किस हद तक अपनी तुस्तोषणीय को सन्तुष्ट करने में समर्थ है । दूसरे शब्दों में कहें तो वह अपनी जननेन्द्रियों तथा जिह्वा को कितना अधिक संतोष दे सकता है, इससे व्यक्ति के वैभव का अनुमान लगाया जाता है । सभ्यता की भौतिक प्रगति में मानसिक प्रक्रिया के द्वारा भोग की वस्तुओं का निर्माण करना आवश्यक हो जाता है, जिससे कि जननेन्द्रियों तथा जिह्वा के सुख के आधार पर सुखी हुआ जा सके । इसी में श्रील शुकदेव गोस्वामी से परीक्षित द्वारा पूछे इस प्रश्न का उत्तर निहित है कि शिवजी के भक्त इतने वैभवशाली क्यों हैं ।
शिवजी के भक्त केवल भौतिक गुणों के मामले में ही समृद्ध हैं । वस्तुत: सभ्यता की यह तथाकथित प्रगति भौतिक अस्तित्त्व में बन्धन का कारण है । वास्तव में यह प्रगति नहीं अपितु अधोगति है । निष्कर्ष यह निकलता है कि शिवजी त्रिगुणों के स्वामी हैं, अतएव उनके भक्तों को इन्द्रियतृप्ति के लिए इन त्रिगुणों की पारस्परिक क्रिया द्वारा निर्मित वस्तुएँ प्रदान की जाती हैं । किन्तु श्रीमद् भगवद् गीता में हमें भगवान् श्रीकृष्ण उपदेश देते हैं कि व्यक्ति को गुणात्मक अस्तित्त्व से ऊपर उठने का प्रयत्न करना चाहिए । निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन-मानव-जीवन का ध्येय त्रिगुणातीत होना है । जब तक व्यक्ति निस्त्रैगुण्य नहीं होता है, वह भौतिक बन्धनों से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता है । दूसरे शब्दों में, भगवान् शिव से प्राप्त अनुग्रह यद्यपि ऊपर से वैभवशाली प्रतीत होते हैं, तथापि वे वास्तव में बद्धात्माओं के लिए लाभदायक नहीं हैं ।
श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा, "भगवान् श्री हरि भौतिक प्रकृति के त्रिगुणों से ऊपर हैं (त्रिगुणातीत हैं) ।” श्रीमद् भगवद् गीता में कहा गया है कि जो कोई श्रीहरि की शरण में जाता है, वह भौतिक प्रकृति के त्रिगुणों के प्रभुत्व से ऊपर उठ जाता है । अतएव, चूँकि श्रीहरि के भक्त भौतिक त्रिगुणों के प्रभुत्व से ऊपर हैं, तब निश्चित ही स्वयं हरि भी त्रिगुणातीत हैं । अतएव श्रीमद्-भागवतम् में कहा गया है कि श्रीहरि अथवा श्रीकृष्ण ही श्रीभगवान् हैं । प्रकृति अथवा शक्तियाँ दो प्रकार की हैं-अन्तरंगा शक्ति तथा बहिरंगा शक्ति और श्रीकृष्ण इन दोनों ही प्रकृतियों अथवा शक्तियों के स्वामी हैं । वे सर्वह्क् अथवा अन्तरंगा तथा बहिरंगा शक्तियों के समस्त कार्यों के निरीक्षक हैं तथा उन्हें उपद्रष्टा अर्थात् परम परामर्शदाता भी कहा जाता है । वे परम परामर्शदाता होने के कारण समस्त देवताओं से ऊपर हैं, जो कि केवल परम परामर्शदाता के निर्देश का अनुसरण करते हैं । इस प्रकार जैसाकि श्रीमद्-भागवतम् तथा श्रीमद् भगवद् गीता में बताया गया है, यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के आदेशों का प्रत्यक्ष पालन करता है, तो वह शनै: शनै: निर्गुण बन जाता है अर्थात् भौतिक गुणों की पारस्परिक क्रिया से ऊपर उठ जाता है । निर्गुण होने का अर्थ है भौतिक वैभव से रहित हो जाना, क्योंकि जैसाकि हमने पहले समझाया है भौतिक ऐश्वर्य का अर्थ है भौतिक त्रिगुणों की क्रिया-प्रतिक्रिया में वृद्धि । श्रीभगवान् की उपासना करने के द्वारा व्यक्ति भौतिक वैभवों से फूल उठने के स्थान पर कृष्णभावनामृत में ज्ञान की आध्यात्मिक प्रगति से समृद्ध हो जाता है । निर्गुण होने का तात्पर्य है नित्य शान्ति, निर्भयता, धार्मिकता, ज्ञान तथा त्याग को प्राप्त करना । ये सब भौतिक गुणों के दूषणों से मुक्त होने के लक्षण हैं ।
परीक्षित महाराज के प्रश्न का उत्तर देने में श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे परीक्षित महाराज के पितामह राजा युधिष्ठिर से सम्बन्धित एक ऐतिहासिक दृष्टान्त दिया । उन्होंने कहा कि विशाल यज्ञभूमि में अश्वमेघ यज्ञ कि समाप्ति के उपरान्त, महान् विशेषज्ञों की उपस्थिति में, राजा युधिष्ठिर ने इसी विषय में प्रश्न किया था-ऐसा कैसे है कि शिव-भक्त भौतिक ऐश्वर्यों के स्वामी हो जाते हैं, जबकि भगवान् विष्णु, के भक्त नहीं होते हैं ? राजा युधिष्ठिर का उल्लेख श्रील शुकदेव गोस्वामी ने विशेष रूप से, "तुम्हारे पितामह" कह कर किया, जिससे कि राजा परीक्षित यह सोचने को उत्साहित हों कि वे श्रीकृष्ण के सम्बन्धी हैं तथा उनके पितामह का श्रीभगवान् से घनिष्ठ सम्बन्ध था ।
यद्यपि श्रीकृष्ण स्वभाव से ही सदैव सन्तुष्ट हैं, किन्तु जब महाराज युधिष्ठिर ने यह प्रश्न किया, तो वे और अधिक सन्तुष्ट हो गए, क्योंकि सम्पूर्ण कृष्णभावनाभावित समाज के लिए ऐसे प्रश्नों तथा उनके उत्तरों का विशेष अर्थ होगा । जब कभी भी भगवान् श्रीकृष्ण किसी विषय पर किसी विशेष भक्त से कुछ कहते हैं, तब वह केवल उस भक्त के लिए ही न होकर सम्पूर्ण मानव-समाज के लिए होता है । श्रीभगवान् के उपदेश ब्रह्मा, शिवादि देवताओं के लिए भी महत्त्वपूर्ण हैं । समस्त जीवों के कल्याण के लिए इस जगत् में अवतीर्ण होने वाले श्रीभगवान् के उपदेशों का जो भी लाभ नहीं उठाता है, वह निश्चय ही अत्यन्त अभागा है ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर के प्रश्न का इस प्रकार से उत्तर दिया"यदि मैं किसी भक्त पर विशेष अनुग्रह करता हूँ तथा उसकी देखभाल करने की विशेष इच्छा रखता हूँ तब मैं सर्वप्रथम उसकी सम्पत्ति का हरण कर लेता हूँ ।" जब एक भक्त निर्धन या दरिद्र बन जाता है अथवा तुलनात्मक रूप से निर्धन हो जाता है, तब उसके सगे-सम्बन्धी उसमें रुचि नहीं लेते हैं तथा अधिकतर वे उससे सम्बन्धविच्छेद कर लेते हैं, तब भक्त द्विगुणित रूप से दुखी हो जाता है । प्रथमत: वह इसलिए दुखी होता है कि श्रीकृष्ण ने उसकी सम्पत्ति का हरण कर लिया है तथा जब उसकी दरिद्रावस्था के कारण उसके सम्बन्धी उसे छोड़ जाते हैं तब वह और अधिक दुखी हो जाता है । किन्तु यहाँ पर हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जब कोई भक्त इस प्रकार दुखी अवस्था को प्राप्त होता है, तब यह उसके गत पापों के कारण नहीं होता अर्थात् यह उसका कर्म-फल नहीं, अपितु भक्त का दारिद्रय श्रीभगवान् द्वारा रचित होता है । इसी भाँति जब एक भक्त भौतिक रूप से समृद्ध हो जाता है, तब उसका कारण भी उसके पुण्यकर्म नहीं होते । दोनों ही दशाओं में, चाहे भक्त दरिद्र बने अथवा समृद्ध, यह व्यवस्था श्रीभगवान् के द्वारा की जाती है । श्रीकृष्ण यह व्यवस्था विशेष रूप से इसलिए करते हैं जिससे भक्त पूर्ण रूप से उन पर निर्भर हो जाए तथा समस्त भौतिक बन्धनों से मुक्त हो जाए । तब वह अपनी शक्तियाँ, मन तथा देह, सब कुछ भगवान् की सेवा के लिए एकाग्र कर सकता है और वह शुद्ध भक्ति होती है । अतएव नारद पंचरात्र में स्पष्ट किया गया है-सर्वोपाधि विनिर्मुक्तम् जिसका तात्पर्य है समस्त उपाधियों से मुक्त होना । परिवार, समाज, समुदाय, देश अथवा मानवता के लिए किए गए कार्य, सभी उपाधियुक्त हैं-"मैं इस समाज का अंग हूँ," "मैं इस समुदाय का अंग हूँ," "मैं इस देश का अंग हूँ," "मैं इस प्राणिजाति का अंग हूँ ।" ऐसी पहचानें केवल उपाधियाँ-मात्र हैं । जब भगवत्कृपा से कोई भक्त समस्त उपाधियों से मुक्त हो जाता है, तब उसकी भक्ति नैष्कर्म होती है । नैष्कर्म की स्थिति के द्वारा ज्ञानी अत्यधिक आकर्षित होते हैं, जिसमें कि व्यक्ति के कर्मों का कोई भौतिक प्रभाव नहीं होता है । जब भक्त के कर्म फल से मुक्त हो जाते हैं, तब वे कर्मफल वाली कोटि में नहीं रहते हैं, अथवा वे सकाम कर्म नहीं रहते हैं । अतएव जैसाकि मूर्तिमान् वेदों ने स्पष्ट किया है कि एक भक्त के लिए उसके दुःख तथा क्लेश को श्रीभगवान् उत्पन्न करते हैं अतएव भक्त को इस बात की चिन्ता नहीं रहती है कि वह सुखी है अथवा दुखी है । वह भक्ति के अपने कर्तव्य को पूरा करता रहता है । यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि उसका व्यवहार कर्म-फल की क्रिया-प्रतिक्रिया का विषय है, किन्तु वास्तव में वह कर्म फल से मुक्त है ।
यह प्रश्न किया जा सकता है कि श्रीभगवान् भक्त को ऐसे कष्टों में क्यों डालते हैं । इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार कभी-कभी पिता अपनी सन्तान पर निर्दय हो जाता है, भगवान् का इस प्रकार का प्रबन्ध भी ठीक वैसा ही है । भक्त एक शरणागत आत्मा है और भगवान् उसका भार उठाते हैं, अतएव जब भी भगवान् उसे दुखी जीवन की किसी भी परिस्थिति में रखते हैं, तब यह समझना चाहिए कि इस व्यवस्था के पीछे श्रीभगवान् द्वारा नियोजित कोई विशाल योजना है । उदाहरण के लिए, भगवान् श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को ऐसी घोर दुःखद स्थिति में रखा था कि भीष्म पितामह भी यह नहीं समझ पाए कि इतना दुःख किस प्रकार हो सकता है । वे शोक करते थे कि यद्यपि सम्पूर्ण पाण्डव परिवार के मुखिया सर्वाधिक पुण्यात्मा राजा युधिष्ठिर थे, महान् योद्धा भीम एवं अर्जुन इनके रक्षक थे तथा सबसे बढ़कर यह कि पाण्डव भगवान् श्रीकृष्ण के घनिष्ठ सखा तथा सम्बन्धी थे, फिर भी उन्हें इतने कष्ट उठाने पड़े । किन्तु बाद में यह सिद्ध हो गया कि भक्तों की रक्षा तथा दुष्कर्मियों के विनाश के अपने महान् ध्येय के अंग के रूप में भगवान् श्रीकृष्ण ने ही इसकी योजना बनायी थी ।
एक अन्य प्रश्न उठाया जा सकता है कि भक्तों को सुख अथवा दुःख श्रीभगवान् की व्यवस्था से प्राप्त होता है तथा एक सामान्य मानव को अपने विगत कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुःख प्राप्त होता है, फिर दोनों में भेद क्या है ? साधारण कर्मी से भक्त किस प्रकार उत्तम है ? उत्तर यह है कि कर्मी तथा भक्त एक ही स्तर पर नहीं हैं । कर्मी चाहे जीवन की किसी भी दशा में हो उसका जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है, क्योंकि कर्म अथवा सकाम कर्म का बीज वहाँ उपस्थित रहता है, जो अवसर पाते ही फल उत्पन्न करता है । सामान्य मनुष्य कर्म के नियम के कारण बारम्बार जन्म-मृत्यु में निरन्तर फँसा रहता है, जबकि कर्म के नियम के अधीन न होने के कारण एक भक्त के सुख-दुःख भगवान् की अस्थायी व्यवस्था के अंग हैं तथा इनके द्वारा भक्त बन्धन में नहीं पड़ता है । भगवान् ऐसी व्यवस्था केवल एक अस्थायी प्रयोजन सिद्ध करने के लिए करते हैं । यदि कोई कर्मी शुभ कार्य करता है, तब उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है तथा यदि वह पापकर्म करता है, तब उसे नरक में डाल दिया जाता है । किन्तु एक भक्त चाहे तथाकथित पुण्य अथवा पापपूर्ण रीति से कार्य करे, उसकी न तो स्वर्ग तक उन्नति होती है, न नरक में पतन, अपितु उसे आध्यात्म लोक में स्थान प्राप्त होता है । अतएव भक्त के सुख-दुःख एक ही स्तर के नहीं हैं । इस बात की पुष्टि अजामिल के मोक्ष के सम्बन्ध में अपने एक सेवक से यमराज के कथन से भी होती है । यमराज ने अपने पार्षदों को परामर्श दिया कि जिन लोगों ने कभी-भी भगवान् का पवित्र नाम नहीं लिया है तथा भगवान् के रूप, गुण तथा लीलाओं का स्मरण नहीं किया है, यमदूतों को उनके समीप जाना चाहिए । उन्होंने अपने दूतों को आदेश दिया कि इसके विपरीत यदि उनकी भेंट किसी भक्त से हो, तो वे भक्त को सादर प्रणाम करें । अतएव इस भौतिक जगत् में किसी भक्त की प्रगति अथवा अधोगति होने का प्रश्न ही नहीं उठता है । जैसे कि माता द्वारा दिए गए दण्ड तथा एक शत्रु द्वारा दिए गए दण्ड के मध्य एक विशाल अन्तर होता है उसी भाँति एक भक्त की दुखी अवस्था तथा एक सामान्य कर्मी की दुखी अवस्था एकसमान नहीं है ।
यहाँ एक अन्य प्रश्न उठाया जा सकता है । यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान हैं तब वे भक्तों को दुखी करके उनके सुधार का प्रयत्न क्यों करते हैं ? इसका उत्तर यह है कि जब श्रीभगवान् अपने भक्त को दुःख की अवस्था में डालते हैं तब इसका कोई प्रयोजन होता है । कभी-कभी उद्देश्य यह होता है कि दुःख में श्रीकृष्ण के प्रति भक्त की आसक्ति में वृद्धि हो जाती है । उदाहरणार्थ, जब पाण्डवों की राजधानी छोड़ने से पूर्व श्रीकृष्ण प्रस्थान की आज्ञा माँग रहे थे, तब कुन्तीदेवी ने कहा, "प्रिय श्रीकृष्ण ! हमारे दुःख की अवस्था में तुम सदैव हमारे साथ रहते हो । अब हमें राजसी पद प्राप्त हो गया है, अब तुम हमसे विदा ले रहे हो । अतएव मैं तुम्हें खोने की अपेक्षा दुःख में जीवन व्यतीत करना श्रेयस्कर समझूँगी ।" जब एक भक्त दुःखद परिस्थिति में होता है, तब उसकी भक्ति सम्बन्धी गतिविधियों में तीव्रता आ जाती है । अतएव किसी भक्त पर विशेष अनुग्रह का प्रदर्शन करने के लिए भगवान् कभी-कभी उसे दुःख दे देते हैं । इसके अतिरिक्त कहा जाता है कि जिन्होंने दुःख की तिक्तता का अनुभव किया है उन्हें सुख की मधुरता और अधिक मधुर लगती है । अपने भक्तों की दुःख से रक्षा करने के लिए ही परमेश्वर इस जगत् में अवतीर्ण होते हैं । दूसरे शब्दों में, यदि भक्तों को दुःख न होता, तो भगवान् भी अवतार न लेते । जहाँ तक दुष्कर्मियों तथा असुरों को मारने का प्रश्न है, तो वह उनकी विभिन्न शक्तियों के द्वारा भी सरलतापूर्वक किया जा सकता है, जैसाकि उनकी बहिरंगा शक्ति, दुर्गादेवी, ने अनेक असुरों का वध किया । अतएव ऐसे असुरों का वध करने के लिए भगवान् को स्वयं अवतार लेने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु जब उनके भक्त दुखी होते हैं तब उनको आना ही पड़ता है । भगवान् नृसिंहदेव हिरण्यकशिपु का वध करने के लिए नहीं, अपितु प्रह्वाद से मिलने तथा उनको आशीर्वाद देने के लिए प्रकट हुए थे । दूसरे शब्दों में, प्रह्वाद महाराज को अत्यधिक कष्ट दिए गए थे, अतएव भगवान् प्रकट हुए ।
जब गहन रात्रि के उपरान्त अन्तत: प्रात:काल सूर्योदय होता है, तब वह अत्यन्त सुखद होता है । जब भीषण गर्मी होती है, तब शीतल जल अत्यन्त सुखकर होता है । जब जमा देने वाली सर्दी पड़ती है, तब गरम जल अत्यन्त सुखद लगता है । इसी भाँति जब एक भक्त भौतिक जगत् की अवस्था का अनुभव करने के उपरान्त भगवान् द्वारा प्रदत्त आध्यात्मिक सुख का आनन्द उठाता है, तब उसकी दशा और भी आनन्ददायक तथा सुखकर हो जाती है ।
श्रीभगवान् ने आगे कहा, "जब मेरा भक्त समस्त भौतिक सम्पत्ति से वंचित हो जाता है तथा उसके बन्धु-बान्धव तथा स्वजन उसका परित्याग कर देते हैं, तब उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं रहता है, अतएव वह पूर्णरूपेण श्रीभगवान् के चरणकमलों की शरण में चला जाता है ।" इस सम्बन्ध में श्रील नरोत्तमदास ठाकुर ने गाया है, “हे कृष्ण, हे नन्दनन्दन ! आप राधारानी के साथ मेरे समक्ष खड़े हैं । मैं अब आपकी शरण में आया हूँ । कृपया मुझे स्वीकार कीजिए । कृपया मुझे ठुकराइये मत । आपके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई शरणस्थली नहीं है ।"
जब एक भक्त इस तथाकथित दुःख की दशा को प्राप्त होता है तथा सम्पत्ति और परिवार से वंचित हो जाता है, तब वह भौतिक वैभव की अपनी पूर्वदशा को प्राप्त करने का प्रयास करता है । यद्यपि वह बारम्बार प्रयत्न करता है, किन्तु श्रीकृष्ण बारम्बार उसके समस्त साधनों को हर लेते हैं । इस प्रकार अन्तत: वह भौतिक गतिविधियों से निराश हो जाता है तथा समस्त प्रयासों में निराशा के उस स्तर पर वह पूर्ण रूप से श्रीभगवान् की शरण ग्रहण कर सकता है । अन्तस्थल से भगवान् ऐसे व्यक्तियों को भक्तों का संग करने का परामर्श देते हैं । भक्तों की संगति में रहने से स्वभावत: उनका झुकाव श्रीभगवान् की सेवा करने की ओर हो जाता है तथा कृष्णभावनामृत में प्रगति करने के लिए समस्त सुविधाएँ भगवान् की ओर से उन्हें तत्काल ही प्राप्त होती हैं । किन्तु अभक्त अपने जीवन की भौतिक दशा को बनाए रखने के प्रति अत्यन्त सतर्क होते हैं । अतएव ऐसे अभक्त श्रीभगवान् की उपासना के लिए नहीं आते हैं, अपितु तात्कालिक भौतिक लाभ के लिए शिवजी अथवा अन्य देवताओं की उपासना करते हैं । श्रीमद् भगवद् गीता में कहा गया है, कांक्षन्त: कर्माणां सिद्धि यजन्त इह देवता-इस भौतिक जगत् में सफलता प्राप्त करने के लिए कर्मी विभिन्न देवताओं की उपासना करते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण ने यह भी कहा है कि देवताओं की उपासना करने वाले लोग अल्प बुद्धि के होते हैं । अतएव भगवान् के प्रति तीव्र मोह होने के कारण श्रीभगवान् के उपासक देवताओं के समीप जाने की मूर्खता नहीं करते हैं ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर से कहा, "मेरा भक्त जीवन की किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति से विचलित नहीं होता है, वह सदैव ही दृढ़ तथा एकनिष्ठ रहता है । अतएव मैं स्वयं को उसे देता हूँ तथा मैं उस पर अनुग्रह करता हूँ जिससे कि वह जीवन में सर्वोच्च सफलता प्राप्त कर सके ।" परीक्षा में उत्तीर्ण हुए भक्त पर श्रीभगवान् जो दया करते हैं उसे ब्रम कहा जाता है । इससे संकेत मिलता है कि उस दया की महान्ता की तुलना केवल सर्वव्यापक महान्ता (ब्रम) से ही की जा सकती है । ब्रम का अर्थ है अनन्त रूप से महान् तथा अनन्त रूप से प्रकाशित होने वाला । उस दया को परम भी कहते हैं, क्योंकि इस भौतिक जगत् में इसकी कोई तुलना नहीं है । इसे सूक्ष्मम् अर्थात् अति सूक्ष्म भी कहा जाता है । एक परीक्षित भक्त पर भगवान् की दया न केवल महान् तथा अनन्त रूप से उदार है, अपितु यह भक्त तथा भगवान् के मध्य सर्वोत्कृष्ट प्रकार का दिव्य प्रेम भी है । ऐसी दया का वर्णन आगे चिन्मात्रम् अर्थात् पूर्णरूपेण आध्यात्मिक कह कर भी किया गया है । मात्रम् शब्द का प्रयोग भौतिक गुणों के लेशमात्र से भी रहित, पूर्ण आध्यात्मिकता का संकेत देता है । उस दया को सत् भी कहते हैं, नित्य तथा अनन्तकम् भी कहते हैं । भगवान् के भक्त को ऐसा अनन्त आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होता है, अतएव वह देवताओं की उपासना क्यों करे ? श्रीकृष्ण का भक्त शिवजी, ब्रह्माजी अथवा अन्य किसी गौण देवता की उपासना नहीं करता है । वह स्वयं को पूर्ण रूप से श्रीभगवान् की दिव्य प्रेम-सेवा के प्रति समर्पित कर देता है ।
श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा, “ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, चन्द्र, वरुण तथा देवताओं सहित समस्त देवता अपने भक्तों के सुव्यवहार अथवा दुर्व्यवहार से अत्यन्त शीघ्र प्रसन्न अथवा अप्रसन्न हो जाते हैं । किन्तु भगवान् श्रीविष्णु के साथ ऐसा नहीं है ।" इसका तात्पर्य है कि इस जगत् में देवताओं सहित कोई भी जीव भौतिक प्रकृति के त्रिगुणों से संचालित होता है, अतएव इस भौतिक जगत् में रज तथा तम गुणों की अत्यन्त प्रधानता है । देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करने वाले भक्त भी भौतिक गुणों, विशेषरूप से रजोगुण तथा तमोगुण, से दूषित हो जाते हैं । अतएव भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद् भगवद् गीता में कहा है कि देवताओं का आशीर्वाद लेना अल्पबुद्धि का परिचायक है, क्योंकि जब व्यक्ति देवताओं से आशीर्वाद लेता है, तब इन आशीर्वादों का फल अस्थायी होता है । देवताओं की उपासना के द्वारा भौतिक वैभव की प्राप्ति सरल है, किन्तु कभी-कभी इसका फल भयंकर होता है । फिर देवताओं से प्राप्त करने वाले लोग शनै: शनै: भौतिक ऐश्वर्य के मद में फूल जाते हैं तथा अपने उपकारक की उपेक्षा करने लगते हैं ।
श्रील शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित को इस बार सम्बोधित किया, "प्रिय राजन् ! भौतिक सृष्टि की प्रधान त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजी किसी को भी वरदान या शाप देने में समर्थ हैं । इस त्रिमूर्ति में ब्रह्माजी तथा शिवजी अति सरलता से प्रसन्न हो जाते हैं तथा साथ ही साथ अति सरलता से रुष्ट भी हो जाते हैं । जब वे सन्तुष्ट होते हैं तब बिना विचार किए भक्त को वरदान देते हैं तथा रुष्ट होने पर बिना विचार किए भक्त को शाप दे देते हैं । किन्तु भगवान् विष्णु वैसे नहीं है । भगवान् विष्णु अत्यन्त विचारवान् हैं । जब कभी कोई भक्त भगवान् विष्णु से कुछ माँगता है, सर्वप्रथम भगवान् यह विचार करते हैं कि अन्तत: ऐसा वरदान भक्त के लिए हितकारी होगा अथवा नहीं । भगवान् विष्णु कभी-भी कोई ऐसा वरदान नहीं देते हैं, जो अन्तत: भक्त के लिए विपदा सिद्ध हो । अपने दिव्य स्वभाव से ही वे सदैव दयालु हैं, अतएव कोई वरदान देने से पूर्व वे यह विचार करते हैं कि यह वरदान भक्त के लिए हितकर सिद्ध होगा अथवा नहीं । श्रीभगवान् सदैव दयालु हैं, अतएव जब ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने किसी असुर का वध किया है, अथवा जब वे किसी भक्त से अप्रसन्न हुए प्रतीत होते हैं तब भी उनके कार्य सदैव ही मांगलिक होते हैं । अतएव श्रीभगवान् को सर्वमंगलमय कहा जाता है । वह जो कुछ भी करते हैं वह मांगलिक होता है ।
जहाँ तक शिवजी द्वारा दिए गए वरदानों का प्रश्न है, महर्षियों द्वारा दृष्टान्त रूप में दी गई निम्नलिखित एक ऐतिहासिक घटना है । एक बार शकुनि के पुत्र वृकासुर नामक असुर को वरदान देने के उपरान्त शिवजी स्वयं ही एक अत्यन्त विकट परिस्थिति में फँस गए थे । वृकासुर एक वरदान की खोज में था । वह यह निश्चय करने का प्रयास कर रहा था कि वर प्राप्ति के लिए तीनों अधिष्ठाता देवताओं में से किसकी उपासना करे । इसी मध्य उसकी भेंट महर्षि नारद से हुई और उसने उनसे इस विषय पर विचार-विमर्श किया कि अपनी तपस्या का शीघ्र फल प्राप्त करने के लिए वह किसके समीप जाए । उसने प्रश्न किया, “ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजी नामक तीनों देवताओं में से कौन सर्वाधिक शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं ?" नारद मुनि असुर की योजना को समझ गए और उन्होंने उसको परामर्श दिया, "तुम्हें शिवजी की उपासना करनी चाहिए, तब तुम्हें शीघ्र ही वांछित फल की प्राप्ति होगी । शिवजी अत्यन्त शीघ्र प्रसन्न तथा अत्यन्त शीघ्र अप्रसन्न भी हो जाते हैं । अतएव तुम शिवजी को सन्तुष्ट करने का प्रयास करो ।" नारदजी ने दृष्टान्त भी दिए जिनमें रावण तथा बाणासुर जैसे असुर स्तुति के द्वारा शिवजी को प्रसन्न करके अत्यन्त वैभवशाली हो गए थे । महर्षि नारद को वृकासुर के स्वभाव का ज्ञान था, अतएव उन्होंने उसे ब्रह्मा अथवा विष्णु के समीप जाने का परामर्श नहीं दिया । तमस के भौतिक गुण में स्थित वृकासुर जैसे लोग विष्णु की उपासना नहीं कर सकते हैं ।
नारदजी से उपदेश प्राप्त करके वृकासुर केदारनाथ गया । केदारनाथ का तीर्थस्थल आज भी कश्मीर के पास स्थित है । यह लगभग सदैव हिमाच्छादित रहता है, किन्तु जुलाई मास में, वर्ष के कुछ भाग के लिए, श्रीमूर्ति के दर्शन किए जा सकते हैं तथा भक्त-गण प्रणाम करने के लिए वहाँ जाते हैं । केदारनाथ शिव-भक्तों के लिए है । वैदिक सिद्धान्त के अनुसार जब कोई वस्तु देवताओं के भक्षण के हेतु अर्पित की जाती है, तब अग्नि में उसकी आहुति दी जाती है । अतएव सभी प्रकार के संस्कारों में अग्नि-यज्ञ आवश्यक होता है । शास्त्रों में विशेषरूप से कहा गया है कि देवताओं को खाने की कोई भी वस्तु अग्नि के माध्यम से अर्पित की जानी चाहिए । अतएव वृकासुर केदारनाथ गया तथा उसने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ की अग्नि प्रज्ज्वलित की ।
शिवजी के नाम पर अग्नि प्रज्ज्वलित करके उसने उन्हें प्रसन्न करने के लिए अपने शरीर से मांस काट-काट कर शिवजी को अर्पित करना प्रारम्भ किया । यह तमोगुण में उपासना का एक उदाहरण है । श्रीमद् भगवद् गीता में विभिन्न प्रकार के यज्ञों का उल्लेख किया गया है । कुछ यज्ञ सतोगुण में होते हैं, कुछ रजोगुण में तथा कुछ तमोगुण में होते हैं । जगत् में भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग होते हैं, अतएव भिन्न-भिन्न प्रकार की तपस्याएँ तथा उपासनाएँ भी होती हैं । किन्तु परम तपस्या, कृष्णभावनामृत, परम योग तथा परम यज्ञ है । जैसे कि श्रीमद् भगवद् गीता में पुष्टि की गई है, हृदय में सदैव श्रीकृष्ण का चिन्तन करना ही परम योग है तथा संकीर्तन यज्ञ करना परम यज्ञ है ।
श्रीमद् भगवद् गीता में कहा गया है कि देवताओं के उपासक अपनी बुद्धि खो बैठे हैं । जैसे कि इस अध्याय में आगे प्रकट होगा, वृकासुर एक निम्न कोटि के भौतिक उद्देश्य के लिए शिवजी को संतुष्ट करना चाहता था । वह उद्देश्य वास्तविक हित से रहित तथा अस्थायी था । तमोगुणी व्यक्ति अथवा असुर देवताओं से ऐसे वरदानों को स्वीकार करा लेते हैं । तमोगुण में इस यज्ञ से एकदम विपरीत भगवान् विष्णु अथवा श्रीकृष्ण की उपासना की प्रणाली अर्चना-विधि है, जो अत्यन्त सरल है । श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे अपने भक्तों से कुछ फल, एक पुष्प अथवा थोड़ा जल भी स्वीकार कर लेते हैं, जिसे धनी अथवा निर्धन कोई भी व्यक्ति इकट्ठा कर सकता है । वैसे जो धनवान हैं, उनसे यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि वे केवल थोड़ा-सा जल, फल का टुकड़ा अथवा एक पत्ता भगवान् को अर्पित करेंगे । एक धनवान व्यक्ति को अपने पद के अनुसार भेंट देनी चाहिए, किन्तु यदि भक्त निर्धन हो, तो भगवान् अत्यल्प भी स्वीकार कर लेंगे । भगवान् विष्णु अथवा श्रीकृष्ण की उपासना अति सरल है तथा इस जगत् में इसे कोई भी कर सकता है । किन्तु जैसाकि वृकासुर ने प्रदर्शित किया था, तमोगुण में उपासना न केवल अत्यन्त कठिन तथा कष्टपूर्ण है, अपितु यह समय का निरुद्देश्य अपव्यय है । अतएव श्रीमद् भगवद् गीता का कथन है कि देवताओं के उपासक बुद्धिहीन हैं । उनकी उपासना की प्रणाली अत्यन्त कठिन है तथा साथ ही साथ प्राप्त होने वाला फल स्थिर तथा अस्थायी है ।
यद्यपि वृकासुर ने अपना यज्ञ छ: दिनों तक जारी रखा, किन्तु वह अपने उद्देश्य, शिवजी के प्रत्यक्ष दर्शन में असफल रहा । वह उनके प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता था तथा उनसे वरदान माँगना चाहता था । यहाँ भक्त तथा असुर के मध्य एक विरोध स्पष्ट होता है । भक्त को यह विश्वास होता है कि भक्ति में वह श्रीमूर्ति को जो कुछ भी अर्पित करता है, भगवान् उसे स्वीकार करते हैं, किन्तु असुर अपने आराध्य देव के प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता है, जिससे कि वह सीधे कोई वरदान माँग सके । किन्तु एक भक्त भगवान् विष्णु अथवा श्रीकृष्ण की उपासना किसी वरदान की प्राति के हेतु नहीं करता है । अतएव एक भक्त को “अकाम" अर्थात् इच्छाओं से रहित तथा एक अभक्त को "सर्व-काम" अर्थात् प्रत्येक वस्तु की इच्छा रखने वाला कहते हैं । सातवें दिन असुर वृकासुर ने निश्चय किया कि शिवजी को प्रसन्न करने के लिए उसे अपना सिर काट कर अर्पित करना चाहिए । इस प्रकार उसने समीपस्थ जलाशय में स्नान किया और शरीर तथा केश सुखाए बिना ही अपना सिर काटने को तत्पर हो गया । वैदिक प्रणाली के अनुसार बलि चढ़ाए जाने वाले पशु को पहले स्नान कराया जाता है तथा जब वह गीला ही रहता है तभी उसकी बलि दी जाती है । जब असुर इस प्रकार अपना सिर काटने को उद्यत हो रहा था तब शिवजी अत्यन्त दयार्द्र हो उठे । यह दयार्द्रता सतोगुण का लक्षण है । शिवजी को त्रिलिंग कहते हैं । अतएव उनके द्वारा दयालु प्रकृति का प्रकाश सतोगुणी है । यह दयालुता समस्त जीवों में उपस्थित है । शिवजी की दयालुता इसलिए जाग्रत् हुई, क्योंकि वह असुर यज्ञ की अग्नि में अपने मांस की आहुति दे रहा था । यह स्वाभाविक दयालुता है । यदि कोई सामान्य आदमी भी किसी को आत्महत्या करने पर तुला देखता है, तो यह उसका कर्तव्य है कि उसे बचाने का प्रयास करे । वह अनायास ही ऐसा करता है । उससे विनती करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है । अतएव जब असुर को आत्महत्या से रोकने के लिए शिवजी यज्ञ की अग्नि में से प्रकट हुए, तो यह उस पर महान् अनुग्रह करने की दृष्टि से नहीं था ।
शिवजी के स्पर्श से असुर आत्महत्या करने से बच गया । उसके शरीर के घाव तत्काल भर गए तथा उसका शरीर पूर्ववत् हो गया । तब शिवजी ने असुर से कहा, "प्रिय वृकासुर ! तुम्हें सिर काटने की कोई आवश्यकता नहीं है । तुम मुझसे कोई भी वरदान माँग सकते हो तथा मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगा । मुझे ज्ञात नहीं कि तुम मुझे प्रसन्न करने के लिए अपना सिर क्यों काटना चाहते हो । मैं तो केवल थोड़े से जल की भेंट चढ़ाने से भी सन्तुष्ट हो जाता हूँ ।" वास्तव में वैदिक प्रक्रिया के अनुसार मंदिर में रखा लिंग अथवा शिवमूर्ति की उपासना केवल गंगाजल चढ़ा कर की जाती है, क्योंकि कहा जाता है कि उनके सिर पर गंगाजल चढ़ाने से शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हो जाते हैं । साधारणत: भक्त गंगाजल तथा बिल्वपत्र चढ़ाते हैं, जिन्हें विशेषरूप से शिवजी तथा दुर्गादेवी पर चढ़ाने का विधान है । बेल का फल भी शिवजी पर चढ़ाया जाता है । शिवजी ने वृकासुर को विश्वास दिलाया कि वे अत्यन्त सरल उपासनाविधि से सन्तुष्ट हो जाते हैं । फिर वह अपना सिर काटने को इतना उत्सुक क्यों था, अपने शरीर के टुकड़े करके वह अग्नि में उनकी आहुति देने का कष्ट क्यों उठा रहा था ? इतने कठोर तप की कोई आवश्यकता नहीं थी । दया तथा सहानुभूति के कारण शिवजी उसे कोई भी वर देने को तत्पर थे ।
जब शिव ने असुर से वर माँगने को कहा तब उसने एक अत्यन्त भयंकर तथा निन्दनीय वर माँगा । वह असुर अत्यन्त पापी था तथा पापी लोगों को यह ज्ञात नहीं होता है कि श्रीमूर्ति से किस प्रकार का वरदान माँगना चाहिए । अतएव उसने शिवजी से वरदान माँगा कि वे उसे ऐसी शक्ति का वर दें जिससे यदि वह किसी के सिर का स्पर्श करे, तो उसका सिर फट जाए तथा वह व्यक्ति मर जाए । श्रीमद् भगवद् गीता में असुरों को दुष्कृतिन अथवा दुष्कर्म करने वाला कहा गया है । कृति का अर्थ है अत्यन्त योग्य, किन्तु जब उसमें दुष् उपसर्ग लगता है, तब इसका अर्थ निन्दनीय हो जाता है । श्रीभगवान् की शरण में आने के स्थान पर दुष्कृतिन निन्दनीय भौतिक सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए विभिन्न देवताओं की उपासना करते हैं । कभी-कभी भौतिक वैज्ञानिकों के रूप में ऐसे असुर घातक अस्त्रों की खोज करते हैं । वे अपनी शक्ति का प्रदर्शन मानव की मृत्यु से रक्षा करने वाली किसी वस्तु की खोज के द्वारा नहीं कर सकते हैं । उसके स्थान पर वे ऐसे अस्त्रों की खोज करते हैं, जो मृत्यु की प्रक्रिया की गति को तीव्र कर देते हैं । शिवजी कोई भी वरदान देने में सक्षम हैं । वह असुर उनसे मानव-समाज के लिए हितकारी कोई भी वस्तु माँग सकता था, किन्तु अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए उसने यह माँगा कि जिस किसी के सिर पर भी उसके हाथ का स्पर्श हो उसकी तत्काल मृत्यु हो जाय । शिवजी असुर के उद्देश्य को समझ सकते थे तथा उन्हें अत्यन्त खेद था कि उन्होंने असुर को उसका अभीप्सित वरदान देने का आश्वासन दिया था । वे अपने वचन को वापस नहीं ले सकते थे, किन्तु उन्हें अपने हृदय में इस बात का अत्यन्त दुःख था कि वे मानव-समाज के लिए इतना संकटमय वरदान उसे देने वाले हैं । असुरों को दुष्कृतिन या दुष्कर्मी इसीलिए कहा गया है क्योंकि यद्यपि उनके पास बुद्धिबल तथा योग्यता होती है, तथापि वह बुद्धिबल तथा योग्यता निन्दनीय कार्यों के लिए प्रयोग की जाती है । उदाहरण के लिए, कभी-कभी भौतिकतावादी असुर किसी घातक अस्त्र की खोज करते हैं । ऐसी खोज के लिए आवश्यक वैज्ञानिक शोधकार्य के लिए निश्चय ही अच्छे मस्तिष्क की आवश्यकता होती है, किन्तु मानव-समाज के लिए उपयोगी किसी वस्तु की खोज करने के स्थान पर वे ऐसी वस्तु की खोज करते हैं, जिससे कि प्रत्येक मानव के लिए पहले से ही अवश्यम्भावी मृत्यु की गति में तीव्रता आ जाती है । इसी भाँति वृकासुर ने शिवजी से मानव-समाज के लिए लाभदायक किसी वस्तु की माँग न करके मानव-समाज के लिए अत्यन्त संकटप्रद वस्तु की माँग की । अतएव शिवजी को अत्यन्त खेद का अनुभव हुआ । किन्तु श्रीभगवान् के भक्त भगवान् विष्णु अथवा श्रीकृष्ण से कभी कोई वरदान नहीं माँगते हैं । यदि वे भगवान् से कुछ माँगते भी हैं, तो वह मानवसमाज के लिए तनिक भी हानिकारक नहीं होता है । असुरों तथा भक्तों में अथवा शिवजी के उपासकों तथा भगवान् के उपासकों में यही भेद है ।
जब श्रील शुकदेव गोस्वामी वृकासुर का इतिहास बता रहे थे तब उन्होंने महाराज परीक्षित को भारत कह कर सम्बोधित किया । इससे राजा परीक्षित के द्वारा भक्तों के परिवार में जन्म लेने का संकेत मिलता है । माता के गर्भ में रहते समय राजा परीक्षित की रक्षा भगवान् श्रीकृष्ण ने की थी । इसी भाँति वे ब्राह्मण के शाप से अपनी रक्षा करने के लिए भी वे भगवान् श्रीकृष्ण से कह सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया । किन्तु यह असुर अपने हाथ के स्पर्श से सबका वध करके अमर बनना चाहता था । शिवजी इस तथ्य को समझ सकते थे, किन्तु उन्होंने वचन दिया था, अतएव उन्होंने उसको वरदान दे दिया ।
किन्तु अत्यन्त पापी होने के कारण असुर ने तत्काल निश्चय किया कि वह वरदान का उपयोग शिवजी का वध करने के लिए करेगा तथा गौरी (पार्वती) को अपने भोग के लिए उठा ले जाएगा । उसने तत्काल अपना हाथ शिवजी के सिर पर रखने का निश्चय किया । इस प्रकार एक असुर को दिए गए वरदान के कारण शिवजी के लिए संकट उत्पन्न हो गया तथा उनकी स्थिति विषम हो गई । देवताओं से प्राप्त की गई शक्ति का भौतिकतावादी भक्तों के द्वारा दुरुपयोग का यह भी एक उदाहरण है ।
आगे कुछ विचार किए बिना शिवजी के सिर पर हाथ रखने के लिए वृकासुर शिवजी के समीप गया । शिवजी उससे इतने भयभीत हो गए कि उनका शरीर काँपने लगा तथा वे धरती से आकाश, आकाश से अन्य ग्रहों में भागते रहे जब तक कि वे उच्चतर लोकों के ऊपर ब्रह्माण्ड की सीमा तक नहीं पहुँच गए । शिवजी एक स्थान से दूसरे स्थान को भागते रहे, किन्तु वृकासुर ने उनका पीछा नहीं छोड़ा । अन्य लोकों के अधिष्ठाता देवता, जैसे ब्रह्मा, इन्द्र तथा चन्द्र, भी आसन्न संकट से शिवजी की रक्षा का कोई उपाय न खोज सके । शिवजी जहाँ कहीं भी गए अन्य देवता चुप रहे ।
अन्त में शिवजी इस ब्रह्माण्ड में श्वेतद्वीप नामक लोक में स्थित भगवान् विष्णु के समीप गए । बहिरंगा शक्ति के प्रभाव-क्षेत्र से ऊपर श्वेतद्वीप स्थानीय वैकुण्ठ लोक है । अपने सर्वव्यापी रूप में भगवान् विष्णु सर्वत्र रहते हैं, किन्तु अपने साकार रूप में वे जहाँ कहीं-भी रहते हैं वहाँ वैकुण्ठ का वातावरण होता है । श्रीमद् भगवद् गीता में कहा गया है कि भगवान् समस्त जीवों के हृदय में रहते हैं । इस भाँति भगवान् अनेक नीच कुल के जीवों के हृदय में रहते हैं, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि वे नीच कुल के हैं । वे जहाँ कहीं-भी रहते हैं वह स्थान वैकुण्ठ में परिवर्तित हो जाता है । इसीलिए इस ब्रह्माण्ड में श्वेतद्वीप नाम से विख्यात लोक भी वैकुण्ठ लोक है । शास्त्रों में कहा गया है कि वन में स्थित निवासस्थान सतोगुणी हैं, बड़े-बड़े नगरों, कस्बों में तथा ग्रामों में स्थित आवासगृह रजोगुणी हैं । अवैध काम, मदिरापान, मांस-भक्षण द्युतक्रीड़ा आदि चारों पापकर्मों में लिप्त रहने की जहाँ प्रधानता हो, ऐसे तमोगुणी हैं । किन्तु परमेश्वर या विष्णु के मन्दिर के आवासगृह वैकुण्ठ में हैं । मन्दिर स्वयं चाहे जहाँ भी हो, वैकुण्ठ होता है । इसी भाँति भौतिक क्षेत्र के अन्दर होने पर भी श्वेतद्वीप वैकुण्ठ है ।
अन्तत: शिवजी ने श्वेतद्वीप वैकुण्ठ में प्रवेश किया । श्वेतद्वीप में ऐसे महान् सन्त जन हैं, जो भौतिक जगत् की ईष्यालु प्रकृति से पूर्णरूपेण मुक्त हो चुके हैं तथा जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की भौतिक गतिविधियों के चारों सिद्धान्तों के अधिकार-क्षेत्र से ऊपर हैं । जो कोई उस वैकुण्ठ लोक में प्रवेश करता है, वह पुन: इस भौतिक जगत् में वापस नहीं आता है । भगवान् नारायण भक्तवत्सल के रूप में प्रसिद्ध हैं तथा जैसे ही उन्हें ज्ञात हुआ कि शिवजी भयंकर संकट में हैं, वे एक ब्रह्मचारी के रूप में प्रकट हुए तथा स्वयं शिवजी का स्वागत करने के लिए एक दूरवर्ती स्थान से उनके समीप गए । कटि में करधनी, यज्ञोपवीत, मृगचर्म, ब्रह्मचारी के दण्ड तथा रुद्राक्ष माला के साथ भगवान् एक आदर्श ब्रह्मचारी के रूप में प्रकट हुए । रुद्राक्ष तुलसी के मनकों से भिन्न है । शिव भक्त रुद्र के मनकों का उपयोग करते हैं । ब्रह्मचारी वेशभूषा में शिवजी के समक्ष खड़े थे । उनके शरीर से निकलने वाली द्युतिमान् कान्ति ने न केवल शिवजी को अपितु वृकासुर को भी आकर्षित किया ।
भगवान् श्रीनारायण ने वृकासुर का ध्यान तथा सहानुभूति आकृष्ट करने के लिए उसे प्रणाम किया । इस प्रकार असुर को रोकने के उपरान्त उन्होंने उसे इस प्रकार से सम्बोधित किया, "प्रिय शकुनिपुत्र ! तुम अत्यन्त क्लान्त प्रतीत होते हो, जैसे कि तुम अत्यन्त दूरवर्ती स्थान से आ रहे हो । तुम्हारा प्रयोजन क्या है ? तुम इतने दूर क्यों आए हो ? मैं देख रहा हूँ कि तुम अत्यन्त क्लान्त तथा थके हुए हो, अतएव मेरा तुमसे निवेदन है कि तुम विश्राम कर लो । तुम्हें अपने शरीर को अनावश्यक रूप से क्लान्त नहीं करना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति अपने शरीर को अत्यन्त मूल्यवान समझता है, क्योंकि इस शरीर से ही व्यक्ति अपने मन की समस्त इच्छाओं को पूर्ण कर सकता है । अतएव हमें इस शरीर को अनावश्यक कष्ट नहीं देना चाहिए ।"
ब्रह्मचारी ने वृकासुर को शकुनिपुत्र के रूप में सम्बोधित किया जिससे कि उसे यह विश्वास हो जाए कि ब्रह्मचारी का उसके पिता शकुनि से परिचय था । तब वृकासुर ने ब्रह्मचारी को अपने परिवार का परिचित मान लिया और इसीलिए ब्रह्मचारी के सहानुभूतिपूर्ण शब्द उसे भले लगे । इसके पूर्व कि असुर यह तर्क कर महत्त्व के विषय में बताना प्रारम्भ कर दिया । इससे असुर को प्रतीति हो गई । कोई भी मानव, विशेष रूप से असुर अपने शरीर को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझता है । इस प्रकार वृकासुर को अपने शरीर के महत्त्व के विषय में प्रतीति हो गई ।
तत्पश्चात् असुर को शान्त करने के लिए ब्रह्मचारी ने उससे कहा, "प्रिय भगवन् ! यदि आप यह समझे कि आप अपना ध्येय मुझ पर प्रकट कर सकते हैं जिसके लिए आपने यहाँ आने का कष्ट किया है, तब हो सकता है कि मैं आपके प्रयोजन को सरलता से सिद्ध करने में आपकी सहायता कर सकूं ।" परोक्ष रूप से भगवान् ने उसे सूचित किया कि भगवान् परम ब्रम हैं, अतएव शिवजी द्वारा निर्मित विषम स्थिति को सुलझाने में वे निश्चित ही समर्थ होंगे ।
ब्रह्मचारी के रूप में भगवान् नारायण के मधुर वचनों को सुन कर असुर को अत्यन्त शान्ति प्राप्त हुई और अन्ततः उसने शिवजी द्वारा प्रदत्त वरदान सम्बन्धी समस्त घटनाएँ भगवान् को सुनायीं । भगवान् ने असुर को उत्तर दिया, "मुझे इस बात का विश्वास नहीं होता है कि वास्तव में शिवजी ने तुम्हें ऐसा वरदान दिया है । जहाँ तक मुझे ज्ञात है, शिवजी की मानसिक दशा ठीक नहीं है । उन्होंने अपने श्वसुर दक्ष से झगड़ा किया था तथा उन्हें पिशाच बनने का शाप मिला है । इस प्रकार वे भूतपिशाचों के नायक बन गए हैं । अतएव उनके शब्दों में मुझे कोई विश्वास नहीं है । किन्तु यदि तुम्हें अभी भी शिवजी के शब्दों में विश्वास है, तब तुम अपने सिर पर हाथ रख कर प्रयोग करके क्यों नहीं देखते ? यदि वरदान असत्य सिद्ध होता है, तब तुम तत्काल मिथ्यावादी शिवजी का वध कर सकते हो जिससे कि भविष्य में उन्हें मिथ्या वरदान देने का साहस नहीं होगा ।"
इस रीति से भगवान् के मधुर शब्दों से तथा उनकी माया के प्रकाश से भ्रमित हो गया तथा उसे शिवजी की शक्ति तथा उनके वरदान का वास्तव में विस्मरण हो गया । इस प्रकार वह सरलता से अपना हाथ अपने सिर पर रखने को तत्पर हो गया । जैसे ही असुर ने वैसा किया कि उसका सिर वैसे ही फट गया मानो वज्र का आघात हुआ हो और उसकी तत्काल मृत्यु हो गई । स्वर्ग से देवता उनके समस्त यशों की स्तुति करते हुए, धन्यवाद देते हुए भगवान् नारायण पर पुष्पवर्षा करने लगे । देवताओं ने भगवान् को प्रणाम किया । वृकासुर की मृत्यु पर उच्च लोकों के समस्त नागरिक, जैसे देवता, पितर, गन्धर्व तथा जनलोकवासी, श्रीभगवान् पर पुष्प वर्षा करने लगे ।
इस प्रकार ब्रह्मचारी के रूप में भगवान् विष्णु ने शिवजी को आसन्न संकट से मुक्त किया तथा स्थिति को सुधारा । तत्पश्चात् भगवान् नारायण ने शिवजी को सूचित किया कि अपने पापकर्मों के फलस्वरूप वृकासुर की मृत्यु हुई । वह अपने ही स्वामी शिवजी के ऊपर प्रयोग करना चाहता था इसलिए वह विशेष रूप से पापी तथा बुरा था । तत्पश्चात् भगवान् नारायण ने शिवजी से कहा, "प्रिय भगवन् ! महाजनों के प्रति अपराध करने वाले का अस्तित्त्व समाप्त हो जाता है । वह अपने ही पापकर्मों द्वारा विनष्ट हो जाता है तथा यह तथ्य इस असुर के विषय में निश्चित रूप से सत्य है-जिसने आपके विरुद्ध इतना बड़ा अपराध किया है ।"
इस प्रकार समस्त भौतिक गुणों से परे भगवान् श्रीनारायण की कृपा से एक असुर द्वारा वध होने से शिवजी की रक्षा हुई । जो कोई भी श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करता है, वह निश्चय ही शत्रुओं के पंजे से तथा भौतिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “भगवान् शिव का उद्धार” नामक अट्ठासीवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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