बहुत काल पूर्व सरस्वती नदी के तट पर महर्षियों की सभा हुई तथा उन्होंने सत्रयज्ञ नामक एक महायज्ञ किया । ऐसी सभाओं में साधारणत: उपस्थित महर्षि वैदिक विषयवस्तु तथा दार्शनिक विषयों पर विचार-विमर्श करते हैं । इस सभा में निम्नांकित प्रश्न उठाए गए-इस भौतिक जगत् के ब्रह्मा, विष्णु, शिव नामक तीन प्रमुख देवता संसार के समस्त प्रपंचों का निर्देशन कर रहे हैं, किन्तु उनमें से सर्वोच्च कौन है ? इस प्रश्न पर अत्यधिक वादविवाद के उपरान्त ब्रह्माजी के पुत्र महर्षि भृगु को तीनों प्रमुख देवों की परीक्षा लेने के लिए नियुक्त किया गया । परीक्षा के उपरान्त उन्हें सभा को यह बताना था कि कौन देवता महान्तम है । इस प्रकार नियुक्त किए जाने पर महर्षि भृगुमुनि सर्वप्रथम अपने पिता के घर ब्रमलोक में गए । तीनों देवता भौतिक त्रिगुणों सत, रजम तथा तम के स्वामी हैं । ऋषियों की योजना थी कि भृगु मुनि यह परीक्षा लेंगे कि किस प्रमुख देवता में सतोगुण पूर्ण रूप से है । अतएव जब भृगु मुनि अपने पिता ब्रह्माजी के समीप पहुँचे तब जानबूझ कर उन्होंने प्रणाम करके अथवा स्तुति द्वारा अपने पिता के प्रति आदर प्रदर्शित नहीं किया । ब्रह्माजी के पास सतोगुण है या नहीं यह परीक्षा लेने के लिए उन्होंने न तो अपने पिता को प्रणाम किया, न ही उनकी स्तुति की । एक पुत्र अथवा शिष्य का यह कर्तव्य है कि जब वह अपने पिता अथवा गुरु के समीप जाए तब प्रणाम करे तथा स्तुति पाठ करे । किन्तु भृगु मुनि ने जानबूझकर प्रणाम नहीं किया, क्योंकि वे इस उपेक्षा पर ब्रह्माजी की प्रतिक्रिया देखना चाहते थे । अपने पुत्र की उदृण्डता पर ब्रह्माजी अत्यन्त क्रुद्ध हुए तथा उनके मुख पर उनके क्रोध को प्रदर्शित करने वाले चिह्न प्रकट हो आए । वे शाप देकर भृगु मुनि को दण्डित करने के लिए भी उद्यत थे, किन्तु भृगु मुनि उनके पुत्र थे, अतएव ब्रह्माजी ने अपनी महती बुद्धि से अपने क्रोध पर संयम रखा । इसका अर्थ यह है कि यद्यपि ब्रह्माजी में रजोगुण की प्रधानता थी तथापि उनके पास इस पर संयम करने की शक्ति थी । ब्रह्माजी का क्रोध तथा उनके क्रोध पर संयम की तुलना अग्नि तथा जल से की गई है । जल की उत्पत्ति अग्नि से होती है, किन्तु साथ ही साथ जल अग्नि को बुझा भी सकता है । इसी के समान यद्यपि अपने रजोगुण के कारण ब्रह्माजी अत्यन्त क्रोधित थे, तथापि भृगु मुनि उनके पुत्र थे, अतएव वे अब भी अपनी भावना पर संयम कर सकते थे । ब्रह्माजी की परीक्षा लेने के उपरान्त भृगुमुनि शिवजी के निवासस्थान कैलाश लोक गए । भृगुमुनि शिवजी के भ्राता थे । अतएव जैसे ही भृगुमुनि समीप आए शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हो गए तथा उनका आलिंगन करने के लिए स्वयं उठ गए । किन्तु जब शिवजी समीप आए तब भृगुमुनि ने उनका आलिंगन करना अस्वीकार कर दिया । उन्होंने कहा "प्रिय भाई ! तुम सदैव अशुद्ध रहते हो । तुम अपने शरीर पर भस्म लगाए रहते हो, अतएव तुम स्वच्छ नहीं हो । तुम मेरा स्पर्श मत करो ।" जब यह कह कर कि शिवजी अत्यन्त अशुद्ध हैं, भृगुमुनि ने उनको आलिंगन करना अस्वीकार कर दिया, तब शिवजी उनसे अत्यन्त कुपित हो गए । कहा जाता है कि अपराध मन, शरीर अथवा वाणी से किया जा सकता है । ब्रह्माजी के प्रति किया गया भृगुमुनि का प्रथम अपराध मन से किया गया था । शिवजी का अपमान करने तथा अस्वच्छ आदतों के लिए उनकी आलोचना करने के द्वारा शिवजी के प्रति किया गया यह दूसरा अपराध वाणी से किया गया था । शिवजी में तमोगुण की प्रधानता है, अतएव जब उन्होंने भृगुमुनि के कटुवचन सुने तब क्रोध से उनके नेत्र तत्काल लाल हो गए । आपे से बाहर होकर उन्होंने अपना त्रिशूल उठा लिया तथा वे भृगुमुनि को मारने के लिए तत्पर हो गए । उस समय शिवजी की पत्नी पार्वतीजी वहाँ उपस्थित थीं । उनका व्यक्तित्व तीनों गुणों का सम्मिश्रण है, अतएव उन्हें त्रिगुणमयी कहा जाता है । इस मामले में उन्होंने शिवजी के सतोगुण को जाग्रत् करके परिस्थिति को सुधार लिया । वे अपने पतिदेव के चरणों पर गिर पड़ीं तथा उन्होंने अपने मधुर वचनों से शिवजी को भृगुमुनि का वध करने से विमुख कर दिया । शिवजी के क्रोध से रक्षा हो जाने के उपरान्त भृगुमुनि सीधे श्वेतद्वीप लोक गए जहाँ भगवान् विष्णु एक पुष्पशैया पर लेटे हुए थे । उनकी पत्नी श्रीदेवी उनके समीप थीं तथा वे भगवान् के चरणकमलों को सहला रही थीं । वहाँ पर भृगुमुनि ने जानबूझ कर भगवान् विष्णु को अपनी शारीरिक क्रिया द्वारा अप्रसन्न करने का सबसे बड़ा पाप किया । भृगुमुनि द्वारा किया गया प्रथम अपराध मानसिक था, दूसरा अपराध वाणी का था तथा तीसरा अपराध शारीरिक था । ये विभिन्न अपराध एक के बाद एक गुरुतर होते गए । मन के अन्दर किया गया अपराध सीधा अपराध है । वही अपराध जब वाणी द्वारा किया जाए तो वह गुरुतर है और जब इसे शारीरिक क्रिया के द्वारा किया जाए तब वह गुरुतम अपराध है । अतएव भृगुमुनि ने श्रीदेवी की उपस्थिति में भगवान् की छाती पर अपना पैर स्पर्श कराकर गुरुतम अपराध किया । भगवान् विष्णु सर्वदा दयालु हैं । वे भृगुमुनि की गतिविधियों पर क्रुद्ध नहीं हुए, क्योंकि भृगुमुनि एक महान् ब्राह्मण थे । यदि एक ब्राह्मण कभी अपराध कर भी दे, तो उसे क्षमा तक देना चाहिए तथा भगवान् ने इसका उदाहरण स्थापित किया । फिर भी कहा जाता है कि इस घटना के पश्चात् से श्रीदेवी लक्ष्मी ब्राह्मणों के प्रति अधिक अनुग्रह का भाव नहीं रखती हैं । श्रीदेवी उन्हें अपने वरदान से वंचित रखती हैं, इसीलिए साधारणतया ब्राह्मण निर्धन होते हैं । भृगुमुनि द्वारा पैर से भगवान् की छाती का स्पर्श करना एक भारी अपराध था, किन्तु भगवान् विष्णु इतने महान् हैं कि उन्होंने इस बात की चिन्ता नहीं की । कलियुग के तथाकथित ब्राह्मण कभी-कभी अत्यधिक गर्व करते हैं कि वे भगवान् विष्णु के वक्ष को अपने चरणों से स्पर्श कर सकते हैं । किन्तु जब भृगुमुनि ने अपने चरणों से भगवान् विष्णु के वक्ष का स्पर्श किया था, तब बात भिन्न थी । यद्यपि यह गुरुतम अपराध था, किन्तु अत्यधिक उदार होने के कारण भगवान् विष्णु ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया । भृगुमुनि को शाप देने अथवा क्रुद्ध होने के स्थान पर, अपनी पत्नी श्रीदेवी सहित भगवान् विष्णु तत्काल अपनी शैया पर से उठ गए तथा ब्राह्मण को सादर प्रणाम किया । उन्होंने भृगुमुनि को इस प्रकार सम्बोधित किया, "प्रिय ब्राह्मणदेव ! आपका यहाँ आना मेरे लिए एक महान् आशीर्वाद है । अतएव आप कृपया इस गद्दी पर कुछ पलों के लिए आसन ग्रहण करें । हे ब्राह्मणदेव ! मुझे इस बात का अत्यन्त खेद है कि जब आपने प्रवेश किया तब मैं आपका उचित स्वागत नहीं कर सका । यह मेरा एक महान् अपराध था । मेरी आपसे विनती है कि मुझे क्षमा करें । आप इतने निर्मल तथा महान् हैं कि आपका चरणोदक तीर्थ स्थानों को भी निर्मल करने वाला है । आप उस स्थान को भी पवित्र कीजिये जहाँ मैं अपने पार्षदों सहित निवास करता हूँ । हे पिता ! हे महर्षि ! मुझे ज्ञात है कि आपके चरणकमल पुष्प की भाँति कोमल हैं तथा मेरी छाती वज्र के समान कठोर है । अतएव मुझे भय है कि मेरे वक्ष को अपने चरणों से स्पर्श करने में आपको कुछ कष्ट का अनुभव हुआ होगा । अतएव आपको जो कष्ट हुआ उसे दूर करने के लिए मुझे अपने चरणों का स्पर्श करने दीजिए ।" तत्पश्चात् भगवान् विष्णु भृगुमुनि के चरण सहलाने लगे ।
भगवान् ने भृगुमुनि को आगे सम्बोधित किया, "प्रिय भगवन् ! आपके चरणों के स्पर्श से मेरा वक्ष पावन हो गया है तथा मुझे विश्वास है कि अब श्रीदेवी लक्ष्मी वहाँ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक निरन्तर निवास करेंगी ।” लक्ष्मीजी का एक अन्य नाम चंचला है । वे एक स्थान पर अधिक समय तक नहीं रहती हैं । अतएव हम पाते हैं कि कुछ पीढ़ियों के उपरान्त एक धनी व्यक्ति का परिवार कभी-कभी निर्धन बन जाता है तथा कभी-कभी हम देखते हैं कि एक निर्धन व्यक्ति का परिवार अत्यन्त धनी बन जाता है । इस भौतिक जगत् में श्रीदेवी लक्ष्मी चंचला हैं, जबकि वैकुण्ठ लोक में वे नित्य भगवान् के चरणकमलों में निवास करती हैं । भगवान् नारायण ने संकेत दिया कि हो सकता है कि लक्ष्मीजी चंचला के नाम से उनके समीप निवास न करतीं, किन्तु भृगुमुनि के चरणों का स्पर्श हो जाने से अब उनका वक्ष पावन हो गया था तथा श्रीदेवी के लिए उनके पास से जाने का कोई अवसर नहीं था । किन्तु भृगुमुनि अपनी स्थिति तथा भगवान् की स्थिति को समझ सकते थे तथा वे श्रीभगवान् के व्यवहार पर आश्चर्यचकित रह गए । अपनी कृतघ्नता के कारण उनकी वाणी अवरुद्ध हो गई तथा वे भगवान् के शब्दों का उत्तर देने में सफल न हुए । उनके नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होने लगे तथा वे कुछ न कह सके । वे चुपचाप भगवान् के समक्ष केवल खड़े रहे ।
ब्रह्माजी, शिवजी तथा भगवान् विष्णु की परीक्षा लेने के उपरान्त भृगुमुनि सरस्वती नदी के तट पर महर्षियों की सभा में लौट आए तथा उन्होंने अपने अनुभव का वर्णन किया कि छोटा दीपक थोड़ी सी वायु से विचलित हो जाता है, किन्तु महान् दीपक अथवा प्रकाश का महान्तम स्रोत सूर्य बड़े से बड़े झंझावात से भी कभी नहीं हिलता है । उत्तेजित करने वाली परिस्थितियों को सहन कर सकने की किसी की क्षमता के द्वारा ही व्यक्ति की महान्ता का आकलन करना चाहिए । सरस्वती नदी के तट पर एकत्र ऋषियों ने यह निष्कर्ष निकाला कि यदि किसी को वास्तविक शान्ति तथा समस्त भयों से मुक्ति चाहिए, तो उसे भगवान् विष्णु के चरणकमलों की शरण लेनी चाहिए । यदि किंचित् उत्तेजित किए जाने पर ब्रह्माजी तथा शिवजी ने अपनी शान्तिपूर्ण प्रवृत्ति खो दी, तब वे अपने भक्तों की शान्ति को किस प्रकार बनाए रख सकते हैं ? जहाँ तक भगवान् विष्णु का प्रश्न है, भगवद्-गीता में कहा गया है कि जो कोई भी भगवान् विष्णु अथवा श्रीकृष्ण को परम सखा के रूप में स्वीकार करता है, वह शान्तिपूर्वक जीवन की सर्वोच्च पूर्णता को प्राप्त करता है ।
इस प्रकार ऋषियों ने निष्कर्ष निकाला कि वैष्णव धर्म के सिद्धान्तों का अनुसरण करके व्यक्ति वास्तव में पूर्ण बन जाता है । किन्तु यदि कोई व्यक्ति किसी सम्प्रदाय विशेष के समस्त धार्मिक सिद्धान्तों का पालन करता है तथा भगवान् श्रीविष्णु को समझने में प्रगति नहीं करता है, तब उसके प्रेम का यह समस्त परिश्रम निष्फल हो जाता है । धार्मिक सिद्धान्तों के सम्पादन का अर्थ है पूर्ण ज्ञान के स्तर पर पहुँचना । यदि कोई पूर्ण ज्ञान के स्तर पर पहुँच जाता है, तब भौतिक प्रपंचों के प्रति उसकी रुचि नहीं रह जाती । पूर्ण ज्ञान का अर्थ आत्मज्ञान तथा परमात्मा का ज्ञान है । यद्यपि परमात्मा तथा जीवात्मा गुणवत्ता में समान हैं, तथापि वे परिमाण में भिन्न हैं । ज्ञान की यह विवेचनात्मक समझ पूर्ण है । केवल यह समझना कि, "मैं पदार्थ नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ," पूर्ण ज्ञान नहीं है । सच्चा धार्मिक सिद्धान्त भक्ति है । इसकी पुष्टि भगवद्-गीता में की गई है । भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं, “समस्त धार्मिक सिद्धान्तों को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ ।" अतएव धर्म शब्द केवल वैष्णव-धर्म अथवा भगवद्धर्म के लिए प्रयुक्त होता है । इस धर्म का अनुसरण करके समस्त अन्य सद्गुण तथा जीवन में प्रगति अनायास ही प्राप्त हो जाती है । सर्वोच्च पूर्ण ज्ञान परमेश्वर को जानना है । उन्हें भक्ति के अतिरिक्त धर्म की किसी अन्य प्रणाली के द्वारा नहीं समझा जा सकता है । अतएव भक्ति के सम्पादन के द्वारा पूर्ण ज्ञान का तात्कालिक फल प्राप्त किया जाता है । ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त व्यक्ति की भौतिक जगत् में रुचि समाप्त हो जाती है । शुष्क दार्शनिक चिन्तन के कारण ऐसा नहीं होता है । भक्तों की भौतिक जगत् में अरुचि केवल सैद्धान्तिक समझ के कारण ही नहीं होती है, अपितु उसके व्यावहारिक अनुभव के कारण होती है । जब एक भक्त को परमेश्वर से अपने सम्बन्ध के परिणाम का बोध होता है, तब वह स्वाभाविक रूप से तथाकथित समाज, मैत्री तथा प्रेम के सम्बन्धों से घृणा करने लगता है । यह निस्संगता अथवा पृथक्त्व शुष्क नहीं है, अपितु दिव्य आनन्द के रसास्वादन के द्वारा जीवन के उच्च स्तर को प्राप्त कर लेने के कारण है । श्रीमद्भागवत में आगे कहा गया है कि ऐसे ज्ञान तथा इन्द्रियतृप्ति के प्रति निर्मोह की प्राप्ति के उपरान्त योगियों को प्राप्त होने वाली आठों सिद्धियाँ-अणिमा, लघिमा, प्राप्ति आदि भी व्यक्ति को अलग से कोई प्रयास किए बिना ही प्राप्त हो जाती हैं । इसका आदर्श उदाहरण राजा अम्बरीष हैं । महाराज अम्बरीष योगी नहीं थे, अपितु एक महान् भक्त थे, फिर भी महाराज अम्बरीष से विवाद होने पर उनकी भक्तिपूर्ण प्रवृत्ति के सामने महायोगी दुर्वासा पराजित हो गए थे । दूसरे शब्दों में, भक्त को शक्ति प्राप्त करने के लिए योग-साधना की आवश्यकता नहीं होती है । भगवान् की कृपा से शक्ति उनके पीछे होती है, जैसे जब एक बालक बलशाली पिता की शरण में होता है, तब पिता की समस्त शक्तियाँ बालक के पीछे होती हैं ।
जब कोई व्यक्ति भगवान् के एक भक्त के रूप में प्रसिद्ध हो जाता है, तब उसकी कीर्ति कभी समाप्त नहीं होती है । रामानन्द राय से सम्भाषण करते समय भगवान् श्री चैतन्य ने प्रश्न किया, "सर्वश्रेष्ठ कीर्ति क्या है ?" रामानन्द राय ने उत्तर दिया कि भगवान् श्रीकृष्ण के एक शुद्ध भक्त के रूप में विख्यात होना ही आदर्श कीर्ति है । अतएव यह निष्कर्ष निकलता है कि वैष्णव धर्म अथवा श्रीभगवान् के प्रति भक्ति का धर्म विचारवान् व्यक्तियों के लिए है । विचारशक्ति के उचित उपयोग के द्वारा व्यक्ति श्रीभगवान् के चिन्तन तक पहुँच जाता है । श्रीभगवान् के विषय में चिन्तन करने से व्यक्ति भौतिक जगत् के साथ दोषपूर्ण सम्बन्ध के दूषण से मुक्त हो जाता है । इस प्रकार व्यक्ति को शान्ति प्राप्त हो जाती है । मानव समाज में ऐसे शान्त भक्तों की कमी के कारण ही जगत् ऐसी विक्षुब्ध अवस्था में है । जब तक व्यक्ति भक्त न हो वह समस्त जीवों में समभाव नहीं रख सकता है । एक भक्त पशुओं, मानवों तथा समस्त जीवों के प्रति समभाव रखता है, क्योंकि वह प्रत्येक जीव को परमेश्वर के अंश के रूप में देखता है । ईशोपनिषद् में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो प्रत्येक जीव को समदृष्टि से देखने के स्तर पर पहुँच गया है, वह न किसी से घृणा करता है, न ही किसी का पक्ष लेता है । भक्त को अपनी आवश्यकता से अधिक प्राप्ति करने की लालसा नहीं होती है । अतएव भक्त अकिञ्चन होता है, भक्त जीवन की किसी भी दशा में सन्तुष्ट रहता है । कहा जाता है कि चाहे वह स्वर्ग में हो या नरक में, भक्त का मन निरुद्वेलित रहता है । भक्त अपनी प्रेमानुगाभक्ति के अतिरिक्त अन्य सभी विषयों के प्रति उदासीन रहता है । भक्ति में यह संलग्नता आदर्श स्थिति है, जहाँ से व्यक्ति ऊपर उठ कर आध्यात्मिक जगत् में, अपने घर, भगवान् के धाम, जा सकता है । श्रीभगवान् के भक्त सर्वोच्च भौतिक गुण, सतोगुण द्वारा विशेष रूप से आकर्षित होते हैं तथा योग्य ब्राह्मण इस सतोगुण का लाक्षणिक प्रतिनिधि है । अतएव एक भक्त को जीवन की ब्राह्मणत्व स्थिति से मोह होता है । यद्यपि रजोगुण तथा तमोगुण भी परमेश्वर विष्णु से ही निकलते हैं, तथापि भक्त की इनमें अधिक रुचि नहीं होती है । श्रीमद्-भागवत में भक्तों को निपुणबुद्धय, कहा गया है, जिसका अर्थ है कि वे मनुष्यों के सर्वाधिक बुद्धिमान वर्ग हैं । मोह तथा घृणा से अप्रभावित भक्त अत्यन्त शान्तिपूर्वक जीवन-यापन करता है तथा वह रजोगुण के प्रभाव से विचलित नहीं होता है ।
यहाँ पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि वह समस्त भौतिक गुणों से ऊपर है, तो भक्त को सतोगुण के प्रति मोह क्यों होना चाहिए ? उत्तर यह है कि भौतिक प्रकृति के गुणों में अस्तित्त्व वाले विभिन्न प्रकार के लोग इस जगत् में हैं । जो तमोगुणप्रधान हैं उन्हें राक्षस कहा जाता है, जो रजोगुणप्रधान हैं उन्हें असुर कहा जाता है तथा जो सतोगुणप्रधान हैं उन्हें सुर अथवा देवता कहा जाता है । परमेश्वर के निर्देशन में भौतिक प्रकृति के द्वारा मानवों के इन तीनों वर्गों की रचना हुई है, किन्तु जो सतोगुणप्रधान हैं उनके आध्यात्मिक लोक, अपने घर, भगवान् के धाम वापस लौटने की अधिक सम्भावना है ।
इस प्रकार सर्वोत्कृष्ट प्रमुख देव कौन हैं, यह निश्चय करने के लिए सरस्वती नदी के तट पर एकत्र समस्त ऋषि भगवान् विष्णु के पूजा-विषयक समस्त सन्देहों से मुक्त हो गए । उसके पश्चात् वे सब भक्ति में संलग्न हो गए और इस प्रकार उन्होंने अपना अभीप्सित फल प्राप्त किया तथा भगवान् के धाम लौट गए । भौतिक बन्धनों से मुक्त होना चाहते हैं, उनके लिए श्रेयस्कर होगा कि वे श्रीशुकदेव गोस्वामी द्वारा ही श्रीमद्भागवत के प्रारम्भ में दिए गए निष्कर्ष को तुरन्त स्वीकार कर लें । उसमें कहा गया है कि श्रीमद्-भागवत का श्रवण मोक्षप्राप्ति में अत्यधिक सहायक है, क्योंकि इसका कथन श्रीशुकदेव गोस्वामी ने किया है । सूत गोस्वामी ने भी पुन: इसी तथ्य की पुष्टि की है कि यदि इस भौतिक जगत् में निरुद्देश्य यात्रा करने वाला कोई भी प्राणी श्रीशुकदेव गोस्वामी के अमृतमय वचनों का श्रवण करता है, तब वह निश्चित ही उचित निष्कर्ष पर पहुँच जाएगा । केवल श्रीभगवान् की भक्ति के सम्पादन के द्वारा वह एक भौतिक शरीर से दूसरे में निरन्तर देहान्तरण के श्रम को रोकने में समर्थ होगा । दूसरे शब्दों में, उचित श्रवण के द्वारा व्यक्ति विष्णु की प्रेमा-भक्ति में दृढ़चित्र हो जाएगा । वह जीवन की इस भौतिक यात्रा से छुटकारा पाने में निश्चित रूप से सफल होगा । इसकी प्रक्रिया अत्यन्त सरल है । इसके लिए व्यक्ति को केवल श्रीमद्-भागवत के रूप में कथित श्रीशुकदेव गोस्वामी के मधुर शब्दों का श्रवण करना होगा ।
दूसरा निष्कर्ष यह है कि हमें शिवजी तथा ब्रह्माजी जैसे देवताओं को भी भगवान् विष्णु के बराबर के स्तर का नहीं मानना चाहिए । यदि हम ऐसा करते हैं तब पदम्-पुराण के अनुसार हम तत्काल ही नास्तिक बन जाते हैं । हरिवंश नामक वैदिक ग्रन्थ में यह भी कहा गया है, कि केवल भगवान् श्रीविष्णु की ही उपासना करनी चाहिए । हरेकृष्ण महामंत्र अथवा ऐसे ही किसी विष्णुमंत्र का सदैव जप करना चाहिए । श्रीमद्-भागवत के द्वितीय श्लोक में ब्रह्माजी कहते हैं, "श्रीभगवान् ने मुझे तथा शिवजी दोनों को अपने निर्देशन में कार्य करने के लिए नियुक्त किया है ।" श्री चैतन्यचरितामृत में यह भी कहा गया है कि एकमात्र स्वामी श्रीकृष्ण हैं तथा जीवन की समस्त श्रेणियों में प्रत्येक जीव श्रीकृष्ण का सेवक मात्र हैं ।
श्रीभगवद्-गीता में भगवान् ने इस बात की पुष्टि की है कि श्रीकृष्ण से श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है । समस्त विष्णु-तत्त्वों में भगवान् श्रीकृष्ण शत-प्रतिशत श्रीभगवान् हैं, इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए श्रीशुकदेव गोस्वामी ने भी भगवान् श्रीकृष्ण की उपस्थिति में घटी एक घटना सुनाई ।
किसी समय एक ब्राह्मण की पत्नी ने एक शिशु को जन्म दिया । किन्तु दुर्भाग्यवश जन्म के उपरान्त धरती का स्पर्श होते ही शिशु की मृत्यु हो गई । ब्राह्मण पिता मृत शिशु को ले कर सीधे द्वारका के राजमहल में गया । युवा माता-पिता की उपस्थिति में शिशु की अकाल मृत्यु के कारण ब्राह्मण अत्यन्त दुखी था । इस प्रकार उसका मन अत्यन्त उद्विग्न हो गया था । पूर्वकाल में, द्वापर युग तक, जब भगवान् श्रीकृष्ण उपस्थित थे उत्तरदायित्वपूर्ण राजा हुआ करते थे । तब माता-पिता की उपस्थिति में शिशु की अकाल मृत्यु का दोष राजा पर लगाया जाता था । इसी भाँति भगवान् रामचन्द्र के काल में भी ऐसा उत्तरदायित्व होता था । जैसाकि हमने श्रीमद्-भागवत के प्रथम स्कन्ध में स्पष्ट किया है, राजा नागरिकों के सुख के प्रति इतना उत्तरदायी होता था कि उसे यह भी देखना पड़ता था कि अधिक शीत अथवा गर्मी न हो । यद्यपि राजा का कोई दोष नहीं था, तथापि जिस ब्राह्मण के शिशु की मृत्यु हो गई थी, वह राजद्वार पर गया तथा निम्न प्रकार से राजा पर दोषारोपण करने लगा ।
"वर्तमान राजा, उग्रसेन ब्राह्मण-द्वेषी है ।" इस सम्बन्ध में प्रयुक्त शब्द ब्रमद्विष था । जो व्यक्ति वेदों के प्रति अथवा योग्य ब्राह्मण जाति के प्रति द्वेष रखता है उसे ब्रम-द्विष: कहते हैं । अतएव राजा पर ब्रह्म-द्विष होने का दोष लगाया गया । उन पर शठधी अथवा दुर्बुद्धि होने का आरोप भी लगाया गया । राज्य का प्रशासक अत्यन्त बुद्धिमान होना चाहिए जिससे कि वह नागरिकों की सुविधा का ध्यान रख सके । किन्तु ब्राह्मण के अनुसार यद्यपि राजा राजसिंहासन पर आसीन था, तथापि वह निर्बुद्धि था । अतएव ब्राह्मण ने उसे लुब्ध अर्थात् लालची भी कहा । दूसरे शब्दों में, यदि कोई राजा अथवा प्रशासक लोभी तथा स्वार्थी हो, तो उसे राजा अथवा सम्राट के श्रेष्ठ पद पर आसीन नहीं होना चाहिए । किन्तु यदि कोई राजा भौतिक सुखों के प्रति मोह रखता है, तो स्वाभाविक है कि वह स्वार्थी बन जाता है । अतएव यहाँ एक अन्य शब्द विषयात्मन: का प्रयोग किया गया है ।
ब्राह्मण ने राजा पर क्षत्र-बन्धु होने का भी आरोप लगाया । यह शब्द ऐसे व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है, जो क्षत्रिय परिवार में अथवा राज-
परिवार में उत्पन्न हो, किन्तु राजकीय व्यक्तित्व के गुणों से रहित हो । राजा का कर्तव्य है कि वह ब्राह्मण संस्कृति की रक्षा करे तथा नागरिकों के कल्याण के प्रति अत्यन्त सतर्क रहे । भौतिक सुखों के प्रति मोह के कारण उसे लोभी नहीं होना चाहिए । यदि एक गुणहीन व्यक्ति स्वयं को राजबंशी क्षत्रिय के रूप में प्रस्तुत करता है, तब उसे क्षत्रिय न कह कर क्षत्र-बन्धु कहा जाता है । इसी के समान ब्राह्मण पिता से उत्पन्न, किन्तु ब्रह्मणोचित गुणों से रहित व्यक्ति को ब्रह्म-बन्धु अथवा द्विज-बन्धु कहते हैं । इसका अर्थ है कि केवल जन्म के कारण किसी को ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय स्वीकार नहीं किया जाता है । व्यक्ति को उस पद-विशेष के लिए योग्यता अर्जित करनी होती है, तभी उसे ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय के रूप में स्वीकार किया जाता है ।
इस प्रकार उस ब्राह्मण ने राजा पर आरोप लगाया कि राजा की अयोग्यता के कारण उसके नवजात शिशु की मृत्यु हो गई । ब्राह्मण ने इस बात को अत्यन्त अस्वाभाविक रूप से लिया और इसी कारण उसने राजा को उत्तरदायी ठहराया । वैदिक इतिहास में हमें यह भी दिखता है कि यदि कोई राजा उत्तरदायित्वहीन होता था, तो कभी-कभी राजाओं द्वारा स्थापित ब्राह्मणों की परमर्शदायिनी परिषद् उसे राजगद्दी से उतार देती थी । इन सब बातों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि वैदिक सभ्यता में राजा का पद अत्यन्त उत्तरदायित्वपूर्ण था ।
अतएव ब्राह्मण ने कहा, "किसी को भी द्वेष करने वाले राजा को प्रणाम नहीं करना चाहिए, न ही किसी को उस राजा की उपासना करनी चाहिए । ऐसा राजा या तो वन में पशुओं का आखेट तथा वध करने में अथवा अपराधपूर्ण कार्यों के लिए नागरिकों का वध करने में अपना समय व्यतीत करता है । वह असंयमी तथा दुश्चरित्र होता है । यदि नागरिक ऐसे राजा की उपासना व आदर करेंगे, तो नागरिक कभी भी सुखी नहीं होंगे । वे सदैव ही निर्धन, उद्विग्न तथा शोकाकुल रहेंगे तथा सदैव दुखी रहेंगे । यद्यपि आधुनिक राजनीति में राजा का पद समाप्त कर दिया गया है, तथापि नागरिकों की सुख-सुविधा के लिए राष्ट्रपति को उत्तरदायी नहीं माना जाता है । इस कलियुग में राज्य का प्रशासक किसी न किसी प्रकार मत प्राप्त कर के श्रेष्ठ पद के लिए चुन लिया जाता है, किन्तु नागरिकों की दशा चिन्ता, शोक, दुःख तथा असंतोष से पूर्ण ही रहती है ।
ब्राह्मण के द्वितीय तथा तृतीय शिशु भी मृत उत्पन्न हुए । उसके नौ सन्तानें हुई तथा प्रत्येक मृत उत्पन्न हुई । प्रत्येक बार वह राजा को दोष देने राजमहल के द्वार पर आया । जब नौवीं बार ब्राह्मण द्वारका के राजा को दोष देने आया तब श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन भी उपस्थित थे । यह सुनकर कि वह ब्राह्मण राजा पर उसकी उचित प्रकार से रक्षा न किए जाने का दोषारोपण कर रहा है, अर्जुन को जिज्ञासा उत्पन्न हुई तथा वे ब्राह्मण के समीप गए । उन्होंने कहा, "प्रिय ब्राह्मण ! आप ऐसा क्यों कहते हैं कि आपके देश के नागरिकों की रक्षा करने के लिए कोई योग्य क्षत्रिय नहीं है ? क्या कोई ऐसा भी नहीं है, जो क्षत्रिय होने का दिखावा कर सके, जो रक्षा का प्रदर्शन करने के लिए धनुष बाण उठा सके ? तथा क्या आपके विचार में इस देश के समस्त राजपुरुष ब्राह्मणों के साथ केवल यज्ञ करने में संलग्न रहते हैं और उनमें शूरवीरों का शौर्य नहीं है ?" इस प्रकार अर्जुन ने संकेत दिया कि क्षत्रियों को सुखपूर्वक बैठ कर केवल वैदिक संस्कारों का सम्पादन-मात्र करने में संलग्न नहीं होना चाहिए । इसके विपरीत उन्हें नागरिकों की रक्षा के हेतु अत्यन्त शूरवीर होना चाहिए । आध्यात्मिक गतिविधियों में संलग्न होने के कारण ब्राह्मणों से शारीरिक श्रम वाले कार्यों को करने की अपेक्षा नहीं की जाती है । अतएव क्षत्रियों द्वारा उनकी रक्षा करना आवश्यक होता है, जिससे कि उनके अपने उच्चकोटि के कर्तव्यों के पालन में व्यवधान न हो । अर्जुन ने आगे कहा, "यदि ब्राह्मणों को अपनी पत्नियों तथा सन्तानों से अवांछित वियोग का अनुभव होता है तथा क्षत्रिय राजा उनकी देखभाल नहीं करते हैं, तब ऐसे क्षत्रिय को रंगमच के अभिनेता से अधिक और कुछ नहीं समझना चाहिए । नाटयगृह में नाटक करते हुए कोई अभिनेता राजा का अभिनय कर सकता है, किन्तु ऐसे काल्पनिक राजा से कोई भी किसी लाभ की आशा नहीं करता है । इसी भाँति यदि कोई राजा अथवा राज्य का प्रशासक सामाजिक ढाँचे के प्रमुख (ब्राह्मणों) को सुरक्षा प्रदान नहीं करता है, तब उसे केवल एक वंचक समझना चाहिए । राज्य प्रमुख के श्रेष्ठ पदों पर आसीन रहते हुए ऐसे प्रशासन प्रमुख केवल अपनी जीविका के लिए जीवित रहते हैं । प्रिय देव ! मैं वचन देता हूँ कि आपकी सन्तानों की रक्षा मैं करूंगा तथा यदि मैं ऐसा न कर सका, तो मैं प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रवेश करूंगा, जिससे कि मुझे दूषित करने वाले पापों का निराकरण हो जाएगा ।"
अर्जुन को इस प्रकार कहते हुए सुन कर, ब्राह्मण ने उत्तर दिया, "प्रिय अर्जुन ! भगवान् श्रीबलराम उपस्थित हैं, किन्तु वे मेरी सन्तानों को सुरक्षा प्रदान न कर सके । भगवान् श्रीकृष्ण भी उपस्थित हैं, किन्तु वे भी उनकी रक्षा न कर सके । अन्य वीर धनुर्धर, जैसे प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध, भी हैं, किन्तु वे मेरी सन्तान की रक्षा न कर सके ।" ब्राह्मण ने सीधा संकेत किया कि जो बात श्रीभगवान् के लिए भी असम्भव थी उसे अर्जुन नहीं कर सकते थे । उसे अनुभव हुआ कि अर्जुन अपनी शक्ति से बाहर की बात का वचन दे रहे थे । ब्राह्मण ने कहा, “आपके वचन को मैं एक अनुभवहीन बालक के वचन के समान मानता हूँ । मैं आपके वचन पर विश्वास नहीं कर सकता ।"
तब अर्जुन को बोध हुआ कि ब्राह्मण क्षत्रिय राजाओं में समस्त विश्वास खो बैठा है । अतएव उसे प्रोत्साहित करने के लिए अर्जुन ने इस प्रकार कहा, जैसे कि वे अपने सखा भगवान् श्रीकृष्ण की भी आलोचना कर रहे हों । जब भगवान् श्रीकृष्ण तथा अन्य लोग सुन रहे थे तब अर्जुन ने यह कह कर श्रीकृष्ण पर विशेष रूप से आघात किया, "प्रिय ब्राह्मण ! न तो मैं संकर्षण हूँ न श्रीकृष्ण, न ही प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के समान मैं श्रीकृष्ण का पुत्र हूँ । मेरा नाम अर्जुन है तथा मेरा धनुष गाण्डीव है । तुम मेरा अपमान नहीं कर सकते, क्योंकि वन में जब हम दोनों आखेट कर रहे थे तब मैंने अपनी कुशलता से शिवजी से युद्ध किया था तथा जब वे मेरी कुशलता से सन्तुष्ट हो गए तब उन्होंने मुझे पाशुपत नामक अस्त्र प्रदान किया था । यदि मुझे साक्षात् यम से भी युद्ध करना पड़े तब भी मैं तुम्हारे पुत्रों को वापस लाऊँगा ।" जब अर्जुन ने ब्राह्मण को ऐसे श्रेष्ठ शब्दों में विश्वास दिलाया, तब किसी प्रकार उसे प्रतीति हो गई तथा वह घर लौट गया ।
जब ब्राह्मण की पत्नी एक अन्य सन्तान को जन्म देने वाली थी तब ब्राह्मण पुकारने लगा, "हे अर्जुन ! कृपया अब आकर मेरी सन्तान की रक्षा करो ।” उसकी बात सुन कर, पावन जल का स्पर्श करके तथा अपने धनुर्बाणों द्वारा संकट से रक्षा करने के लिए पवित्र मंत्रों का उच्चारण करते हुए अर्जुन तत्काल तत्पर हो गए । विशेष रूप से उन्होंने शिवजी द्वारा प्रदत्त बाण को लिया तथा बाहर जाते हुए वे शिवजी तथा उनके महान् अनुग्रह का स्मरण करने लगे । इस प्रकार अपने गाण्डीव नामक धनुष तथा अन्य अनेकों आयुधों से सज्जित होकर वे प्रसूति-गृह के सम्मुख उपस्थित हुए ।
ऐसा प्रतीत होता है कि ब्राह्मण को दिए गए अपने वचन को पूर्ण करने के लिए ही अर्जुन अभी तक द्वारका से गए नहीं थे । जब ब्राह्मण की पत्नी का प्रसव होने वाला था तब उन्हें रात्रि में बुलाया गया था । ब्राह्मण की पत्नी के प्रसव के लिए प्रसूतिगृह की ओर जाते हुए अर्जुन ने अपने सखा श्रीकृष्ण का नहीं, अपितु शिवजी का स्मरण किया । उन्होंने विचार किया कि श्रीकृष्ण ब्राह्मण की रक्षा नहीं कर सके हैं, अतएव शिवजी की शरण में जाना ही श्रेयस्कर है । यह इस बात का एक और उदाहरण है कि किस प्रकार व्यक्ति देवताओं की शरण में जाता है । इसकी व्याख्या भगवद्-गीता में हुई है-कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना-जो व्यक्ति लोभ तथा कामवासना के कारण भगवान् को विस्मृत कर अन्य देवताओं की शरण लेता है, वह अपनी बुद्धि खो देता है । यद्यपि अर्जुन एक साधारण प्राणी नहीं थे, किन्तु श्रीकृष्ण के साथ उनका सखा-सम्बन्ध होने के कारण उन्होंने सोचा कि श्रीकृष्ण ब्राह्मण की रक्षा करने में असमर्थ हैं, अतएव शिवजी का स्मरण करना ही उत्तम होगा । कालान्तर में यह सिद्ध हो गया कि श्रीकृष्ण के स्थान पर अर्जुन का शिवजी की शरण में जाना तनिक भी सफल नहीं हुआ । किन्तु अर्जुन ने विभिन्न मंत्रों का जप करके अपके सामथ्रय के अनुरूप प्रयास किया तथा प्रसूतिगृह की समस्त दिशाओं से रक्षा करने के लिए उन्होंने अपना धनुष उठा लिया ।
ब्राह्मण की पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया । तब सदा की भाँति शिशु ने क्रन्दन करना प्रारम्भ किया । किन्तु अचानक, कुछ ही पलों में शिशु तथा अर्जुन के बाण दोनों ही आकाश में तिरोहित हो गए । ब्राह्मण का गृह श्रीकृष्ण के महल के समीप था तथा अपनी सत्ता की अवज्ञा में घटित हो रही समस्त घटनाओं का श्रीकृष्ण आनन्द उठा रहे थे । उन्होंने ही ब्राह्मण के शिशु तथा शिवजी द्वारा प्रदत्त बाण सहित समस्त बाणों का अपहरण करने का खेल किया था । अर्जुन को शिवजी द्वारा प्रदत्त बाण पर अत्यन्त गर्व था, किन्तु श्रीकृष्ण ने अन्य बाणों के साथ उसे भी हर लिया । तद्भवति अल्पमेधसाम्-अल्पबुद्धि मानव भ्रमवश देवताओं की शरण में जाते हैं तथा उनके द्वारा प्रदत्त सुविधाओं से सन्तुष्ट रहते हैं ।
भगवान् श्रीकृष्ण तथा अन्य लोगों की उपस्थिति में वह ब्राह्मण अर्जुन पर दोषारोपण करने लगा, "हे उपस्थित लोगों ! मेरी मूर्खता देखो । मैंने निर्बल अर्जुन के शब्दों पर विश्वास किया जो केवल मिथ्या वचन देने में ही चतुर है । अर्जुन पर विश्वास करना मेरी कितनी बड़ी मूर्खता थी । जब प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, अथवा भगवान् बलराम तथा भगवान् श्रीकृष्ण असफल रहे तब उसने मेरी सन्तान की रक्षा करने का वचन दिया । यदि ऐसे महान् पुरुष मेरी सन्तान की रक्षा न कर सके तब कौन ऐसा कर सकता है ? अतएव मैं अर्जुन के मिथ्या वचन के लिए उसकी भर्त्सना करता हूँ, उसके प्रसिद्ध गाण्डीव तथा स्वयं को भगवान् बलराम, भगवान् श्रीकृष्ण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध से भी महान् घोषित करने की उसकी धृष्टता की भी मैं निन्दा करता हूँ । मेरी सन्तान की रक्षा कोई नहीं कर सकता है, क्योंकि वह पहले ही अन्य लोक को स्थानान्तरित किया जा चुका है । केवल मूर्खतावश ही अर्जुन ने सोचा था कि वह मेरी सन्तान को अन्यलोक से वापस ला सकेगा ।"
ब्राह्मण द्वारा इस प्रकार निन्दित होकर अर्जुन ने अपने को एक योगशक्ति से युक्त किया जिससे कि वह ब्राह्मण के शिशु को प्राप्त करने के लिए किसी भी लोक में जा सकें । ऐसा प्रतीत होता है कि अर्जुन ने उस योगिक सिद्धि पर अधिकार प्राप्त कर लिया था, जिससे योगी अपने इच्छानुसार किसी भी लोक की यात्रा कर सकते हैं । सर्वप्रथम वे यमलोक गए जहाँ मृत्यु के देवता यमराज का निवास है । वहाँ उन्होंने ब्राह्मण के शिशु को ढूँढ़ा, किन्तु उसे न ढूँढ़ सके । तत्पश्चात् वे तत्काल ही स्वर्गलोक गए । जब वे वहाँ भी शिशु को प्राप्त करने में असमर्थ रहे तब वे अग्नि देवताओं के लोक नैऋति गए, तत्पश्चात् चन्द्रलोक गए । तब वे वायु तथा वरुण लोक गए । जब वे उन लोकों में शिशु को ढूँढ़ने में असमर्थ रहे तब वे निम्नतम लोक, रसातल लोक, में गए । इन सब विभिन्न लोकों की यात्रा करने के उपरान्त वे योगियों के लिए भी अगम्य ब्रमलोक गए । भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से अर्जुन को यह शक्ति प्राप्त थी तथा वे स्वर्गलोकों से ऊपर ब्रमलोक में गए । जब समस्त सम्भव लोकों में ढूँढ़ने के उपरान्त भी वे शिशु को खोजने में असमर्थ रहे तब उन्होंने स्वयं को अग्नि को भेंट करने का प्रयास किया, क्योंकि उन्होंने शिशु को वापस न ला सकने की दशा में वैसा करने का वचन ब्राह्मण को दिया था । किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रति अत्यधिक दयालु थे, क्योंकि अर्जुन भगवान् के अभिन्न सखा थे ।
भगवान् ने कलंकित होकर अग्नि में प्रवेश करने से अर्जुन को रोका । श्रीकृष्ण ने संकेत किया कि अर्जुन उनके सखा थे, अतएव यदि वे निराशा में अग्नि में प्रवेश करें, तो यह परोक्ष रूप से भगवान् पर कलंक होगा । अतएव भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह विश्वास दिलाते हुए रोक लिया कि वे शिशु को ढूँढ़ लाएँगे । उन्होंने अर्जुन से कहा, "मूर्खतापूर्वक आत्महत्या मत करो ।"
अर्जुन को इस प्रकार सम्बोधित करने के उपरान्त भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना दिव्य रथ मँगाया । अर्जुन के साथ रथ पर आरूढ़ होकर उन्होंने उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया । सर्वशक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण बिना कोई प्रयास किए ही शिशु को वापस ला सकते थे, किन्तु हमें सदैव यह स्मरण रखना चाहिए कि वे एक मानव का अभिनय कर रहे थे । जैसे एक मानव को कुछ फल प्राप्त करने के लिए प्रयास करना पड़ता है, उसी प्रकार एक साधारण मानव अथवा अपने सखा अर्जुन के समान, भगवान् श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण-शिशु को वापस लाने के लिए द्वारका से प्रस्थान किया । मानव-समाज में प्रकट होने तथा एक मानव के रूप में अपनी लीलाओं के प्रदर्शन करने से श्रीकृष्ण ने यह निश्चित रूप से प्रदर्शित कर दिया कि कोई भी उनसे महान् नहीं है । "ईश्वर महान् हैं ।" यही श्रीभगवान् की परिभाषा है । अतएव श्रीकृष्ण ने कम से कम इस भौतिक जगत् में जब वे उपस्थित थे यह सिद्ध कर दिया कि ब्रह्माण्ड में उनसे महान् और कोई नहीं है । अर्जुन के साथ अपने रथ पर आसीन श्रीकृष्ण ने अनेक लोकों के पार जाते हुए उत्तर की ओर बढ़ना प्रारम्भ किया । इन लोकों को श्रीमद्भागवत में सप्तद्वीप कहा गया है । इन सब लोकों को कभी-कभी वैदिक साहित्य में द्वीप कहा जाता है । जिस लोक पर हमारा निवास है उसे जम्बूद्वीप कहते हैं । अंतरिक्ष को वायु का एक विशाल सागर माना जाता है तथा वायु के उस सागर में अनेक द्वीप हैं, जो कि विभिन्न लोक हैं । विभिन्न लोकों में भी सागर हैं । कुछ लोकों में खारे जल के सागर हैं तथा कुछ में दूध के सागर हैं । किन्हीं अन्य लोकों में मदिरा के सागर हैं तथा किन्हीं में घी अथवा तेल के सागर हैं । विभिन्न प्रकार के पर्वत भी हैं । प्रत्येक लोक का एक भिन्न प्रकार का वायुमण्डल है ।
श्रीकृष्ण इन सब लोकों को पार करके ब्रह्माण्ड के आवरण तक पहुँच गए । इस आवरण को श्रीमद्भागवत में महा अंधकार कहा गया है । इस भौतिक जगत् को भी अंधकारमय कहा गया है । मुक्त अंतरिक्ष में सूर्य का प्रकाश है, अतएव वह प्रकाशमान् है, किन्तु आवरण के नीचे सूर्य के प्रकाश का अभाव होने के कारण स्वाभाविक रूप से अंधकार है । जब श्रीकृष्ण इस ब्रह्माण्ड के आवरण के समीप पहुँचे तब उनके रथ को खींचने वाले चारों अश्व-शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहक-अंधकार में प्रवेश करने से हिचकिचाते हुए प्रतीत हुए । यह हिचकिचाहट भी भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं का एक भाग है, क्योंकि श्रीकृष्ण के अश्व साधारण अश्व नहीं हैं । साधारण अश्वों के लिए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की यात्रा करना तथा तत्पश्चात् इसके बाह्यावरण में प्रवेश करना सम्भव नहीं है । जिस प्रकार श्रीकृष्ण दिव्य हैं उसी प्रकार उनका रथ, उनके अश्व तथा श्रीकृष्ण विषयक प्रत्येक वस्तु दिव्य है, त्रिगुणातीत है । हमें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि श्रीकृष्ण साधारण मानव का अभिनय कर रहे थे तथा श्रीकृष्ण की इच्छा के अनुरूप उनके अश्वों ने भी अंधकार में प्रवेश करने में हिचकिचाने के द्वारा साधारण अश्वों का अभिनय किया ।
जैसाकि भगवद्-गीता के अन्तिम भाग में कहा गया है श्रीकृष्ण योगेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हैं । योगेश्वर हरि समस्त सिद्धियों के स्वामी हैं । अपने अनुभव में हम अनेक सिद्धियों से युक्त मानव को देख सकते हैं । कभी-कभी वे अत्यन्त अद्भुत कार्य करते हैं । किन्तु श्रीकृष्ण को समस्त सिद्धियों का स्वामी समझा जाता है । अतएव जब उन्होंने अपने अश्वों को अंधकार में प्रवेश करने से हिचकिचाते हुए देखा तब उन्होंने तत्काल अपना सुदर्शन चक्र छोड़ा, जिसने आकाश को सूर्य के प्रकाश से हजार गुना अधिक प्रकाशित कर दिया । ब्रह्माण्ड के आवरण का अंधकार भी श्रीकृष्ण की रचना है तथा सुदर्शन चक्र सदैव श्रीकृष्ण के साथ रहता है । इस प्रकार सुदर्शन चक्र को सामने रखने से उसके प्रकाश ने अंधकार को भेद दिया । श्रीमद्-भागवत में कहा गया है कि सुदर्शन चक्र ने अंधकार को ठीक उसी प्रकार भेद दिया जिस प्रकार भगवान् रामचन्द्र के शाङ्ग धनुष से छूटे बाण ने रावण की सेना को भेद दिया था । "सु" का अर्थ है उत्तम तथा दर्शन का अर्थ है देखना । भगवान् श्रीकृष्ण के चक्र सुदर्शन की कृपा से प्रत्येक वस्तु भलीभाँति देखी जा सकती है तथा कुछ भी अंधकार में नहीं रह सकता है । इस प्रकार श्रीकृष्ण तथा अर्जुन भौतिक ब्रह्माण्ड को आवृत करने वाले विशाल अंधकारमय क्षेत्र को पार कर गए ।
तत्पश्चात् अर्जुन ने प्रकाश की उस कान्ति के दर्शन किए, जिसे ब्रमज्योति कहा जाता है । ब्रमज्योति भौतिक ब्रह्माण्ड के आवरण के बाहर स्थित है तथा अपने वर्तमान चक्षुओं से हम इसके दर्शन नहीं कर सकते हैं, अतएव कभी-कभी इस ब्रमज्योति को अव्यक्त भी कहा जाता है । वेदान्तियों के नाम से विख्यात निर्विशेषवादियों के लिए यह आध्यात्मिक ज्योति चरम लक्ष्य है । ब्रमज्योति को अनन्तपारम् भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है सीमाहीन तथा अपार । जब भगवान् श्रीकृष्ण तथा अर्जुन ब्रमज्योति के इस क्षेत्र में पहुँचे तब अर्जुन इस देदीप्यमान ज्योति को सहन न कर सके तथा उन्होंने अपने नेत्र बन्द कर लिए । भगवान् श्रीकृष्ण तथा अर्जुन के ब्रमज्योति क्षेत्र में पहुँचने का वर्णन हरिवंश पुराण में किया गया है । उसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सूचित किया, "प्रिय अर्जुन ! जिस देदीप्यमान कान्ति, जिस दिव्य ज्योति के तुम दर्शन कर रहे हो वे मेरी शारीरिक किरणें हैं । हे भरतवंशियों में शिरोमणि ! यह ब्रमज्योति मैं ही हूँ ।" जिस प्रकार सूर्य तथा सूर्य के प्रकाश को वियुक्त नहीं किया जा सकता है, उसी भाँति श्रीकृष्ण तथा उनकी अंगकान्ति, ब्रमज्योति, को भी वियुक्त नहीं किया जा सकता है । इस प्रकार श्रीकृष्ण ने कहा कि ब्रमज्योति वे स्वयं ही हैं । इस तथ्य को हरिवंश में स्पष्ट रूप से कहा गया है जब श्रीकृष्ण कहते हैं अहं स: / चित्कणों अथवा चित्कण के नाम से विख्यात जीवों के रूप में सूक्ष्म कणों का संयोग ही ब्रह्मज्योति है । वैदिक शब्द सोऽह अथवा मैं ब्रमज्योति हूँ का प्रयोग जीवों के लिए भी किया जा सकता है । वे भी ब्रह्मज्योति का अंश होने का दावा कर सकते हैं । हरिवंश में श्रीकृष्ण ने आगे स्पष्ट किया है, "यह ब्रमज्योति मेरी आध्यात्मिक शक्ति का प्रकाश है ।"
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, "ब्रमज्योति माया शक्ति के नाम से प्रसिद्ध मेरी बहिरंगाशक्ति के क्षेत्र से ऊपर है ।" जब तक व्यक्ति भौतिक जगत् में रहता है उसके लिए ब्रमज्योति का अनुभव कर पाना असम्भव है । अतएव भौतिक जगत् में यह ज्योति प्रकाशित नहीं होती है, जबकि आध्यात्मिक जगत् में यह प्रकाशित होती है । व्यक्त-अव्यक्त शब्द का यही तात्पर्य है । भगवद्-गीता में कहा गया है अव्यक्तों व्यक्तात् सनातन:, ये दोनों ही शक्तियाँ नित्य प्रकाशित हैं ।
इसके उपरान्त श्रीकृष्ण तथा अर्जुन ने एक विशाल आध्यात्मिक सागर में प्रवेश किया । यह आध्यात्मिक सागर कारणार्णव अथवा विरजा कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि यह सागर भौतिक जगत् की सृष्टि का मूल है । मृत्युञ्जय तंत्र नामक एक वैदिक ग्रंथ में कारणार्णव (कारण-सागर) अथवा विरजा का सजीव वर्णन है । उसमें कहा गया है कि भौतिक जगत् का सर्वोच्च लोक सत्यलोक अथवा ब्रमलोक है । उससे परे रुद्रलोक तथा महाविष्णु लोक हैं । इस महाविष्णुलोक के सम्बन्ध में ब्रह्मसंहिता में कहा गया है, य: कारणार्णव जले भजति स्म योग:-"भगवान् महाविष्णु कारण-सागर में शयन कर रहे हैं ।" जब वे उच्छास लेते हैं तब असंख्य ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति होती है तथा जब वे श्वास लेते हैं तब असंख्य ब्रह्माण्ड उनके अन्दर प्रवेश कर जाते हैं । इस प्रकार भौतिक सृष्टि का उदय तथा विलय होता है । जब भगवान् श्रीकृष्ण तथा अर्जुन ने सागर में प्रवेश किया उस समय दिव्यकान्ति का एक तूफान आने वाला था तथा कारण-समुद्र का जल अत्यन्त उद्वेलित था । भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से अर्जुन को अत्यन्त सुन्दर कारण–सागर के दर्शन का अपूर्व अनुभव प्राप्त हुआ । भगवान् श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन ने जल में एक विशाल राजमहल के दर्शन किए । उस महल में रत्ननिर्मित हजारों स्तम्भ थे तथा उन स्तम्भों की देदीप्यमान कान्ति इतनी सुन्दर थी कि अर्जुन उस पर मुग्ध हो गए । उस महल में श्रीकृष्ण तथा अर्जुन ने अनन्तदेव के विशाल रूप के दर्शन किए । अनन्तदेव को शेष भी कहा जाता है । भगवान् अनन्तदेव अथवा शेषनाग सहस्रों फणों वाले एक विशाल सर्प के रूप में थे । उनका प्रत्येक फण मूल्यवान तथा कान्तिवान् रत्नों से सज्जित था, जो कि अति सुन्दरतापूर्वक जगमगा रहे थे । अनन्तदेव के प्रत्येक फण में दो भयंकर नेत्र थे । उनका शरीर सदैव हिमाच्छादित रहने वाले कैलाश पर्वत के शिखरों की भाँति श्वेत था । उनका कण्ठ तथा जिह्वाएँ नीली थीं । इस प्रकार अर्जुन ने शेषनाग के दर्शन किए तथा शेषनाग के अत्यन्त मृदु, धवल शरीर पर सुखपूर्वक लेटे हुए भगवान् महाविष्णु के भी दर्शन किए । वे सर्वव्यापक तथा अत्यन्त शक्तिशाली प्रतीत होते थे । अर्जुन यह समझ सकते थे कि उस रूप में श्रीभगवान् को पुरुषोत्तम कहा जाता है । उन्हें पुरुषोत्तम, सर्वोत्तम अथवा श्रीभगवान् कहा जाता है, क्योंकि इस रूप से विष्णु का एक अन्य रूप निकलता है, जिसे भौतिक जगत् में गर्भोंदकशायी विष्णु कहा जाता है । भगवान् का महाविष्णु रूप, पुरुषोत्तम भौतिक जगत् से परे है । उन्हें उत्तम भी कहा जाता है । तम का अर्थ है अंधकार तथा उत् का अर्थ है ऊपर अथवा दिव्य, अतएव उत्तम का अर्थ है भौतिक जगत् के अंधकारमय क्षेत्र से ऊपर । अर्जुन ने देखा कि महाविष्णु के शरीर का रंग वर्षाऋतु के नवीन मेघ की भाँति श्याम था तथा वे अति उत्तम पीत वस्त्र धारण किए थे । उनका मुखमंड़ल मधुर मुस्कान से युक्त था तथा कमलदल के समान उनके नयन अत्यन्त आकर्षक थे । भगवान् महाविष्णु का मुकुट मूल्यवान रत्नों से मण्डित था तथा उनके सुन्दर कुण्डल उसके सिर पर के कु श्चित के शों के सौन्दर्य में अभिवृद्धि कर रहे थे । महाविष्णु की आठ भुजाएँ थीं तथा सभी आजानु (लम्बी) थीं । उनके कण्ठ में कौस्तुभ मणि सुशोभित था तथा उनके वक्ष पर श्रीवत्स का चिह्न था, जिसका अर्थ है श्रीदेवी का विश्रामस्थल । भगवान् ने घुटनों तक लम्बी कमलपुष्पों की माला धारण की थी । इस लम्बी माला को वैजयन्तीमाला कहते हैं ।
भगवान् के समीप उनके पार्षद् नन्द और सुनन्द खड़े थे तथा मूर्तिमान् सुदर्शन चक्र भी उनके समीप ही खड़ा था । जैसाकि वेदों में कहा गया है, भगवान् की असंख्य शक्तियाँ हैं तथा मूर्तिमान् रूप में वे सभी वहाँ उपस्थित थीं । उन शक्तियों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थीं, पुष्टि–पुष्ट करने वाली शक्ति, श्री—सौन्दर्य की शक्ति, कीर्ति-यश की शक्ति तथा अजा-भौतिक सृष्टि की शक्ति । ये सब शक्तियाँ भौतिक जगत् के व्यवस्थापकों, जैसे ब्रह्माजी, शिवजी, भगवान् विष्णु तथा स्वर्ग लोकों के राजाओं जैसे इन्द्र, चन्द्र, वरुण तथा सूर्यदेव आदि, में प्रतिष्ठित हैं ।
दूसरे शब्दों में, भगवान् के द्वारा कु छ विशेष शक्तियों से युक्त किए गए ये समस्त देवता श्रीभगवान् की दिव्य प्रेमसेवा में संलग्न रहते हैं ।
महाविष्णु रूप श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह का ही एक अंश हैं । ब्रम-सहिता में भी इस तथ्य की पुष्टि की गई है कि महाविष्णु श्रीकृष्ण के स्वांश हैं ।
ऐसे समस्त अंशों तथा श्रीभगवान् के मध्य अभेद है अर्थात् कोई भेद नहीं है, किन्तु श्रीकृष्ण मानव के रूप में अपनी लीलाओं को प्रकाशित करने के लिए इस भौतिक जगत् में प्रकट हुए थे, अतएव उन्होनें तथा अर्जुन ने महाविष्णु के समक्ष नमन करके तत्काल उनको प्रणाम किया । श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि श्रीकृष्ण ने महाविष्णु को के वल इसलिए प्रणाम किया, क्योकिं भगवान् महाविष्णु तथा उनमें अभेद है ।
श्रीकृष्ण के द्वारा महाविष्णु को इस प्रकार प्रणाम करना अहंग्रह उपासना का रूप नहीं है । अहंग्रह उपासना करने का परामर्श कभी-कभी उन लोगों को दिया जाता है, जो ज्ञान-यज्ञ करने के द्वारा आध्यात्मिक लोक तक आत्मोत्कर्ष करने का प्रयास करते हैं । भगवद्-गीता में भी यह कहा गया है-ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते ।
यद्यपि श्रीकृष्ण के लिए प्रणाम करने की कोई आवश्यकता नहीं थी, किन्तु वे सर्वोत्कृष्ट गुरु हैं, अतएव उन्होनें अर्जुन को यह शिक्षा दी कि महाविष्णु को किस प्रकार प्रणाम करना चाहिए । किन्तु भौतिक अनुभव से भिन्न प्रत्येक वस्तु का विशाल रूप देख कर अर्जुन अत्यन्त भयभीत हो गए । श्रीकृष्ण को भगवान् महाविष्णु को प्रणाम करते देख कर उन्होनें तत्काल उनका अनुसरण किया तथा भगवान् के समक्ष हाथ जोड़ कर खड़े हो गए । इसके उपरान्त अत्यन्त प्रसन्न होकर मुस्कराते हुए श्रीभगवान् महाविष्णु इस प्रकार बोले— "प्रिय श्रीकृष्ण तथा अर्जुन ! मैं आप दोनों से भेंट करने के लिए अत्यन्त उत्सुक था और इसीलिए मैंने ब्राह्मण के शिशुओं का हरण करके उन्हें यहाँ पर रखने की व्यवस्था की । मैं आप दोनों के इस महल में आने की अपेक्षा रखता था । जगत् पर भारस्वरूप असुरों की शक्ति को क्षीण करने के लिए आप भौतिक जगत् में मेरे अवतार के रूप में प्रकट हुए हैं । अब इन सब अवांछित असुरों का वध करने के पश्चात् आप पुन: मेरे समीप लौट आएँ गे । आप दोनों ही महर्षि नर-नारायण के अवतार हैं । यद्यपि आप दोनों अपने आप में पूर्ण हैं, तथापि भक्तों की रक्षा तथा असुरों के संहार के लिए तथा विशेष रूप से जगत् में धार्मिक सिद्धान्तों की स्थापना के लिए आपने अवतार लिया है । जगत् में शान्ति बनी रहे, इसके लिए आप यथार्थ धर्म के आधारभूत सिद्धान्तों की शिक्षा दे रहे हैं जिससे कि जगत् के लोग आपका अनुसरण कर सकें तथा उसके द्वारा शान्ति प्राप्त करें तथा सम्पन्न हो सकें ।"
तत्पश्चात् अर्जुन तथा भगवान् श्रीकृष्ण दोनों ने ही भगवान् महाविष्णु को प्रणाम किया तथा ब्राह्मण की सन्तानों को लेकर उसी मार्ग से द्वारका लौट गए, जिस मार्ग से उन्होनें अध्यात्मलोक में प्रवेश किया था ।
ब्राह्मण के सभी बालक अपनी आयु के अनुरूप बड़े हो गए थे । द्वारका लौटने पर भगवान् श्रीकृष्ण तथा अर्जुन ने ब्राह्मण को उसके सभी पुत्र लौटा दिए ।
किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से दिव्य जगत् की यात्रा करने के उपरान्त अर्जुन अत्यन्त आश्चर्यचकित थे । श्रीकृष्ण की कृपा से अर्जुन को यह ज्ञान हो गया कि इस भौतिक जगत् में उपलब्ध समस्त ऐश्वर्य श्रीकृष्ण से ही निकल रहे हैं । किसी व्यक्ति को कोई भी वैभवशाली पद इस जगत् में प्राप्त होता है, तो वह श्रीकृष्ण की दया ही है । अतएव श्रीकृष्ण के प्रति पूर्णत: आभारी होकर व्यक्ति को सदैव कृष्णभवनामृत में रहना चाहिए, क्योकिं व्यक्ति के पास जो कु छ भी है, वह भगवान् की दया से ही है ।
इस भौतिक जगत् में अपने निवास काल में श्रीकृष्ण ने सहस्रों लीलाएँ की थीं । श्रीकृष्ण की दया से अर्जुन का अद् भुत अनुभव उन लीलाओं में से एक है । श्रीकृष्ण की समस्त लीलाएँ अपूर्व थीं तथा जगत् के इतिहास में उनकी कोई तुलना नहीं मिलती है । वह समस्त लीलाएँ यह सिद्ध करती हैं कि श्रीकृष्ण श्रीभगवान् हैं, फिर भी जब वे इस जगत् में उपस्थित थे तब उन्होनें अनेक लौकिक कर्तव्यों से युक्त एक साधारण मानव का अभिनय किया । उन्होनें एक आदर्श गृहस्थ का अभिनय किया तथा यद्यपि उनके 16,000 रानियाँ 16,000 महल तथा 1,60,000 सन्तानें थीं, तथापि राजवंशियों को भौतिक जगत् में मानव-जाति के कल्याण के लिए जीवन की शिक्षा देने के लिए उन्होनें अनेक यज्ञ भी किए । एक आदर्श श्रीभगवान् के रूप में उन्होनें मानव समाज में उच्चतम ब्राह्मणों से लेकर क्षुद्रतम मानवों सहित समस्त साधारण जीवों तक सबकी इच्छाओं को पूर्ण किया । जिस प्रकार समयानुसार प्रत्येक व्यक्ति को सन्तुष्ट करने के लिए सम्पूर्ण जगत् में वर्षा के वितरण का कार्यभार राजा इन्द्र के अधिकार में है उसी भाँति श्रीकृष्ण अपनी अहैतुकी दया की वर्षा के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को सन्तुष्ट करते हैं ।
उनका उद्देश्य भक्तों की रक्षा तथा आसुरी राजाओं का वध करना था, अतएव उन्होनें लाखों असुरों का वध किया । उनमें से कुछ का वध उन्होनें स्वयं किया तथा कु छ का वध उनके द्वारा नियुक्त अर्जुन ने किया । इस प्रकार उन्होनें जगत् के प्रपंचों के नायक के रूप में युधिष्ठिर जैसे अनेक पुण्यात्मा राजाओं को प्रतिष्ठित किया । इस प्रकार अपनी दिव्य व्यवस्था के द्वारा उन्होनें युधिष्ठिर की उत्तम सरकार की सृष्टि की जिससे सुख एवं शान्ति स्थापित हुई । |