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उपपर्व: राजधर्मानुशासन पर्व |
अध्याय 1: युधिष्ठिरके पास नारद आदि महर्षि योंका आगमन और युधिष्ठिरका कर्णके साथ अपना सम्बन्ध बताते हुए कर्णको शाप मिलनेका वृत्तान्त पूछना |
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अध्याय 2: नारदजीका कर्णको शाप प्राप्त होनेका प्रसंग सुनाना |
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अध्याय 3: कर्णको ब्रह्मास्त्रकी प्राप्ति और परशुरामजीका शाप |
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अध्याय 4: कर्णकी सहायतासे समागत राजाओंको पराजित करके दुर्योधनद्वारा स्वयंवरसे कलिं गराजकी कन्याका अपहरण |
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अध्याय 5: कर्णके बल और पराक्रमका वर्णन, उसके द्वारा जरासंधकी पराजय और जरासंधका कर्णको अंगदेशमें मालिनी नगरीका राज्य प्रदान करना |
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अध्याय 6: युधिष्ठिरकी चिन्ता, कुन्तीका उन्हें समझाना और स्त्रियोंको युधिष्ठिरका शाप |
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अध्याय 7: युधिष्ठिरका अर्जुनसे आन्तरिक खेद प्रकट करते हुए अपने लिये राज्य छोड़कर वनमें चले जानेका प्रस्ताव करना |
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अध्याय 8: अर्जुनका युधिष्ठिरके मतका निराकरण करते हुए उन्हें धनकी महत्ता बताना और राजधर्मके पालनके लिये जोर देते हुए यज्ञानुष्ठानके लिये प्रेरित करना |
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अध्याय 9: युधिष्ठिरका वानप्रस्थ एवं संन्यासीके अनुसार जीवन व्यतीत करनेका निश्चय |
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अध्याय 10: भीमसेनका राजाके लिये संन्यासका विरोध करते हुए अपने कर्तव्यके ही पालनपर जोर देना |
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अध्याय 11: अर्जुनका पक्षिरूपधारी इन्द्र और ऋषि-बालकोंके संवादका उल्लेखपूर्वक गृहस्थ- धर्मके पालनपर जोर देना |
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अध्याय 12: नकुलका गृहस्थ-धर्मकी प्रशंसा करते हुए राजा युधिष्ठिरको समझाना |
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अध्याय 13: सहदेवका युधिष्ठिरको ममता और आसक्तिसे रहित होकर राज्य करनेकी सलाह देना |
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अध्याय 14: द्रौपदीका युधिष्ठिरको राजदण्डधारणपूर्वक पृथ्वीका शासन करनेके लिये प्रेरित करना |
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अध्याय 15: अर्जुनके द्वारा राजदण्डकी महत्ताका वर्णन |
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अध्याय 16: भीमसेनका राजाको भुक्त दुःखोंकी स्मृति कराते हुए मोह छोड़कर मनको काबूमें करके राज्यशासन और यज्ञके लिये प्रेरित करना |
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अध्याय 17: युधिष्ठिरद्वारा भीमकी बातका विरोध करते हुए मुनिवृत्तिकी और ज्ञानी महात्माओंकी प्रशंसा |
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अध्याय 18: अर्जुनका राजा जनक और उनकी रानीका दृष्टान्त देते हुए युधिष्ठिरको संन्यास ग्रहण करनेसे रोकना |
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अध्याय 19: युधिष्ठिरद्वारा अपने मतकी यथार्थताका प्रतिपादन |
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अध्याय 20: मुनिवर देवस्थानका राजा युधिष्ठिरको यज्ञानुष्ठानके लिये प्रेरित करना |
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अध्याय 21: देवस्थान मुनिके द्वारा युधिष्ठिरके प्रति उत्तम धर्मका और यज्ञादि करनेका उपदेश |
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अध्याय 22: क्षत्रियधर्मकी प्रशंसा करते हुए अर्जुनका पुनः राजा युधिष्ठिरको समझाना |
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अध्याय 23: व्यासजीका शंख और लिखितकी कथा सुनाते हुए राजा सुद्युम्नके दण्डधर्मपालनका महत्त्व सुनाकर युधिष्ठिरको राजधर्ममें ही दृढ़ रहनेकी आज्ञा देना |
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अध्याय 24: व्यासजीका युधिष्ठिरको राजा हयग्रीवका चरित्र सुनाकर उन्हें राजोचित कर्तव्यका पालन करनेके लिये जोर देना |
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अध्याय 25: सेनजित् के उपदेशयुक्त उद् गारोंका उल्लेख करके व्यासजीका युधिष्ठिरको समझाना |
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अध्याय 26: युधिष्ठिरके द्वारा धनके त्यागकी ही महत्ताका प्रतिपादन |
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अध्याय 27: युधिष्ठिरको शोकवश शरीर त्याग देनेके लिये उद्यत देख व्यासजीका उन्हें उससे निवारण करके समझाना |
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अध्याय 28: अश्मा ऋषि और जनकके संवादद्वारा प्रारब्धकी प्रबलता बतलाते हुए व्यासजीका युधिष्ठिरको समझाना |
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अध्याय 29: श्रीकृष्णके द्वारा नारद-सृंजय-संवादके रूपमें सोलह राजाओंका उपाख्यान संक्षेपमें सुनाकर युधिष्ठिरके शोकनिवारणका प्रयत्न |
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अध्याय 30: महर्षि नारद और पर्वतका उपाख्यान |
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अध्याय 31: सुवर्णष्ठीवीके जन्म, मृत्यु और पुनर्जीवनका वृत्तान्त |
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अध्याय 32: व्यासजीका अनेक युक्तियोंसे राजा युधिष्ठिरको समझाना |
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अध्याय 33: व्यासजीका युधिष्ठिरको समझाते हुए कालकी प्रबलता बताकर देवासुरसंग्रामके उदाहरणसे धर्मद्रोहियोंके दमनका औचित्य सिद्ध करना और प्रायश्चित्त करनेकी आवश्यकता बताना |
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अध्याय 34: जिन कर्मोंके करने और न करनेसे कर्ता प्रायश्चित्तका भागी होता और नहीं होता उनका विवेचन |
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अध्याय 35: पापकर्मके प्रायश्चित्तोंका वर्णन |
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अध्याय 36: स्वायम्भुव मनुके कथनानुसार धर्मका स्वरूप, पापसे शुद्धिके लिये प्रायश्चित्त, अभक्ष्य वस्तुओंका वर्णन तथा दानके अधिकारी एवं अनधिकारीका विवेचन |
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अध्याय 37: व्यासजी तथा भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे महाराज युधिष्ठिरका नगरमें प्रवेश |
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अध्याय 38: नगर-प्रवेशके समय पुरवासियों तथा ब्राह्मणोंद्वारा राजा युधिष्ठिरका सत्कार और उनपर आक्षेप करनेवाले चार्वाकका ब्राह्मणोंद्वारा वध |
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अध्याय 39: चार्वाकको प्राप्त हुए वर आदिका श्रीकृष्ण-द्वारा वर्णन |
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अध्याय 40: युधिष्ठिरका राज्याभिषेक |
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अध्याय 41: राजा युधिष्ठिरका धृतराष्ट्रके अधीन रहकर राज्यकी व्यवस्थाके लिये भाइयों तथा अन्य लोगोंको विभिन्न कार्योंपर नियुक्त करना |
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अध्याय 42: राजा युधिष्ठिर तथा धृतराष्ट्रका युद्धमें मारे गये सगे-सम्बन्धियों तथा अन्य राजाओंके लिये श्राद्धकर्म करना |
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अध्याय 43: युधिष्ठिरद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति |
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अध्याय 44: महाराज युधिष्ठिरके दिये हुए विभिन्न भवनोंमें भीमसेन आदि सब भाइयोंका प्रवेश और विश्राम |
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अध्याय 45: युधिष्ठिरके द्वारा ब्राह्मणों तथा आश्रितोंका सत्कार एवं दान और श्रीकृष्णके पास जाकर उनकी स्तुति करते हुए कृतज्ञता-प्रकाशन |
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अध्याय 46: युधिष्ठिर और श्रीकृष्णका संवाद, श्रीकृष्ण-द्वारा भीष्मकी प्रशंसा और युधिष्ठिरको उनके पास चलनेका आदेश |
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अध्याय 47: भीष्मद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति—भीष्मस्तवराज |
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अध्याय 48: परशुरामजीद्वारा होनेवाले क्षत्रियसंहारके विषयमें राजा युधिष्ठिरका प्रश्न |
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अध्याय 49: परशुरामजीके उपाख्यानमें क्षत्रियोंके विनाश और पुनः उत्पन्न होनेकी कथा |
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अध्याय 50: श्रीकृष्णद्वारा भीष्मजीके गुण-प्रभावका सविस्तर वर्णन |
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अध्याय 51: भीष्मके द्वारा श्रीकृष्णकी स्तुति तथा श्रीकृष्णका भीष्मकी प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिरके लिये धर्मोपदेश करनेका आदेश |
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अध्याय 52: भीष्मका अपनी असमर्थता प्रकट करना, भगवान् का उन्हें वर देना तथा ऋषियों एवं पाण्डवोंका दूसरे दिन आनेका संकेत करके वहाँसे विदा होकर अपने-अपने स्थानोंको जाना |
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अध्याय 53: भगवान् श्रीकृष्णकी प्रातश्चर्या, सात्यकिद्वारा उनका संदेश पाकर भाइयोंसहित युधिष्ठिरका उन्हींके साथ कुरुक्षेत्रमें पधारना |
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अध्याय 54: भगवान् श्रीकृष्ण और भीष्मजीकी बातचीत |
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अध्याय 55: भीष्मका युधिष्ठिरके गुणकथनपूर्वक उनको प्रश्न करनेका आदेश देना, श्रीकृष्णका उनके लज्जित और भयभीत होनेका कारण बताना और भीष्मका आश्वासन पाकर युधिष्ठिरका उनके समीप जाना |
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अध्याय 56: युधिष्ठिरके पूछनेपर भीष्मके द्वारा राजधर्मका वर्णन, राजाके लिये पुरुषार्थ और सत्यकी आवश्यकता, ब्राह्मणोंकी अदण्डनीयता तथा राजाकी परिहासशीलता और मृदुतासे प्रकट होनेवाले दोष |
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अध्याय 57: राजाके धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्तावका वर्णन |
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अध्याय 58: भीष्मद्वारा राज्यरक्षाके साधनोंका वर्णन तथा संध्याके समय युधिष्ठिर आदिका विदा होना और रास्तेमें स्नान-संध्यादि नित्यकर्मसे निवृत्त होकर हस्तिनापुरमें प्रवेश |
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अध्याय 59: ब्रह्माजीके नीतिशास्त्रका तथा राजा पृथुके चरित्रका वर्णन |
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अध्याय 60: वर्ण-धर्मका वर्णन |
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अध्याय 61: आश्रम-धर्मका वर्णन |
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अध्याय 62: ब्राह्मणधर्म और कर्तव्यपालनका महत्त्व |
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अध्याय 63: वर्णाश्रमधर्मका वर्णन तथा राजधर्मकी श्रेष्ठता |
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अध्याय 64: राजधर्मकी श्रेष्ठताका वर्णन और इस विषयमें इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाताका संवाद |
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अध्याय 65: इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाताका संवाद |
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अध्याय 66: राजधर्मके पालनसे चारों आश्रमोंके धर्मका फल मिलनेका कथन |
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अध्याय 67: राष्ट्रकी रक्षा और उन्नतिके लिये राजाकी आवश्यकताका प्रतिपादन |
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अध्याय 68: वसुमना और बृहस्पतिके संवादमें राजाके न होनेसे प्रजाकी हानि और होनेसे लाभका वर्णन |
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अध्याय 69: राजाके प्रधान कर्तव्योंका तथा दण्डनीतिके द्वारा युगोंके निर्माणका वर्णन |
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अध्याय 70: राजाको इहलोक और परलोकमें सुखकी प्राप्ति करानेवाले छत्तीस गुणोंका वर्णन |
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अध्याय 71: धर्मपूर्वक प्रजाका पालन ही राजाका महान् धर्म है, इसका प्रतिपादन |
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अध्याय 72: राजाके लिये सदाचारी विद्वान् पुरोहितकी आवश्यकता तथा प्रजापालनका महत्त्व |
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अध्याय 73: विद्वान् सदाचारी पुरोहितकी आवश्यकता तथा ब्राह्मण और क्षत्रियमें मेल रहनेसे लाभ-विषयक राजा पुरूरवाका उपाख्यान |
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अध्याय 74: ब्राह्मण और क्षत्रियके मेलसे लाभका प्रतिपादन करनेवाला मुचुकुन्दका उपाख्यान |
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अध्याय 75: राजाके कर्तव्यका वर्णन, युधिष्ठिरका राज्यसे विरक्त होना एवं भीष्मजीका पुनः राज्यकी महिमा सुनाना |
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अध्याय 76: उत्तम-अधम ब्राह्मणोंके साथ राजाका बर्ताव |
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अध्याय 77: केकयराज तथा राक्षसका उपाख्यान और केकयराज्यकी श्रेष्ठताका विस्तृत वर्णन |
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अध्याय 78: आपत्तिकालमें ब्राह्मणके लिये वैश्यवृत्तिसे निर्वाह करनेकी छूट तथा लुटेरोंसे अपनी और दूसरोंकी रक्षा करनेके लिये सभी जातियोंको शस्त्र धारण करनेका अधिकार एवं रक्षकको सम्मानका पात्र स्वीकार करना |
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अध्याय 79: ऋत्विजोंके लक्षण, यज्ञ और दक्षिणाका महत्त्व तथा तपकी श्रेष्ठता |
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अध्याय 80: राजाके लिये मित्र और अमित्रकी पहचान तथा उन सबके साथ नीतिपूर्ण बर्तावका और मन्त्रीके लक्षणोंका वर्णन |
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अध्याय 81: कुटुम्बीजनोंमें दलबंदी होनेपर उस कुलके प्रधान पुरुषको क्या करना चाहिये? इसके विषयमें श्रीकृष्ण और नारदजीका संवाद |
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अध्याय 82: मन्त्रियोंकी परीक्षाके विषयमें तथा राजा और राजकीय मनुष्योंसे सतर्क रहनेके विषयमें कालकवृक्षीय मुनिका उपाख्यान |
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अध्याय 83: सभासद् आदिके लक्षण, गुप्त सलाह सुननेके अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणाकी विधि एवं स्थानका निर्देश |
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अध्याय 84: इन्द्र और बृहस्पतिके संवादमें सान्त्वनापूर्ण मधुर वचन बोलनेका महत्त्व |
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अध्याय 85: राजाकी व्यावहारिक नीति, मन्त्रिमण्डलका संघटन, दण्डका औचित्य तथा दूत, द्वारपाल, शिरोरक्षक, मन्त्री और सेनापतिके गुण |
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अध्याय 86: राजाके निवासयोग्य नगर एवं दुर्गका वर्णन, उसके लिये प्रजापालनसम्बन्धी व्यवहार तथा तपस्वीजनोंके समादरका निर्देश |
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अध्याय 87: राष्ट्रकी रक्षा तथा वृद्धिके उपाय |
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अध्याय 88: प्रजासे कर लेने तथा कोश-संग्रह करनेका प्रकार |
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अध्याय 89: राजाके कर्तव्यका वर्णन |
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अध्याय 90: उतथ्यका मान्धाताको उपदेश—राजाके लिये धर्मपालनकी आवश्यकता |
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अध्याय 91: उतथ्यके उपदेशमें धर्माचरणका महत्त्व और राजाके धर्मका वर्णन |
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अध्याय 92: राजाके धर्मपूर्वक आचारके विषयमें वामदेवजीका वसुमनाको उपदेश |
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अध्याय 93: वामदेवजीके द्वारा राजोचित बर्तावका वर्णन |
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अध्याय 94: वामदेवके उपदेशमें राजा और राज्यके लिये हितकर बर्ताव |
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अध्याय 95: विजयाभिलाषी राजाके धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीतिका वर्णन |
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अध्याय 96: राजाके छलरहित धर्मयुक्त बर्तावकी प्रशंसा |
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अध्याय 97: शूरवीर क्षत्रियोंके कर्तव्यका तथा उनकी आत्मशुद्धि और सद् गतिका वर्णन |
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अध्याय 98: इन्द्र और अम्बरीषके संवादमें नदी और यज्ञके रूपकोंका वर्णन तथा समरभूमिमें जूझते हुए मारे जानेवाले शूरवीरोंको उत्तम लोकोंकी प्राप्तिका कथन |
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अध्याय 99: शूरवीरोंको स्वर्ग और कायरोंको नरककी प्राप्तिके विषयमें मिथिलेश्वर जनकका इतिहास |
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अध्याय 100: सैन्यसंचालनकी रीति-नीतिका वर्णन |
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अध्याय 101: भिन्न-भिन्न देशके योद्धाओंके स्वभाव, रूप, बल, आचरण और लक्षणोंका वर्णन |
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अध्याय 102: विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणोंका तथा उत्साही और बलवान् सैनिकोंका वर्णन एवं राजाको युद्धसम्बन्धी नीतिका निर्देश |
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अध्याय 103: शत्रुको वशमें करनेके लिये राजाको किस नीतिसे काम लेना चाहिये और दुष्टोंको कैसे पहचानना चाहिये—इसके विषयमें इन्द्र और बृहस्पतिका संवाद |
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अध्याय 104: राज्य, खजाना और सेना आदिसे वंचित हुए असहाय क्षेमदर्शी राजाके प्रति कालक-वृक्षीय मुनिका वैराग्यपूर्ण उपदेश |
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अध्याय 105: कालकवृक्षीय मुनिके द्वारा गये हुए राज्यकी प्राप्तिके लिये विभिन्न उपायोंका वर्णन |
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अध्याय 106: कालकवृक्षीय मुनिका विदेहराज तथा कोसलराजकुमारमें मेल कराना और विदेहराजका कोसलराजको अपना जामाता बना लेना |
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अध्याय 107: गणतन्त्र राज्यका वर्णन और उसकी नीति |
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अध्याय 108: माता-पिता तथा गुरुकी सेवाका महत्त्व |
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अध्याय 109: सत्य-असत्यका विवेचन, धर्मका लक्षण तथा व्यावहारिक नीतिका वर्णन |
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अध्याय 110: सदाचार और ईश्वरभक्ति आदिको दुःखोंसे छूटनेका उपाय बताना |
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अध्याय 111: मनुष्यके स्वभावकी पहचान बतानेवाली बाघ और सियारकी कथा |
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अध्याय 112: एक तपस्वी ऊँटके आलस्यका कुपरिणाम और राजाका कर्तव्य |
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अध्याय 113: शक्तिशाली शत्रुके सामने बेंतकी भाँति नतमस्तक होनेका उपदेश—सरिताओं और समुद्रका संवाद |
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अध्याय 114: दुष्ट मनुष्यद्वारा की हुई निन्दाको सह लेनेसे लाभ |
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अध्याय 115: राजा तथा राजसेवकोंके आवश्यक गुण |
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अध्याय 116: सज्जनोंके चरित्रके विषयमें दृष्टान्तरूपसे एक महर्षि और कुत्तेकी कथा |
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अध्याय 117: कुत्तेका शरभकी योनिमें जाकर महर्षि के शापसे पुनः कुत्ता हो जाना |
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अध्याय 118: राजाके सेवक, सचिव तथा सेनापति आदि और राजाके उत्तम गुणोंका वर्णन एवं उनसे लाभ |
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अध्याय 119: सेवकोंको उनके योग्य स्थानपर नियुक्त करने, कुलीन और सत्पुरुषोंका संग्रह करने, कोष बढ़ाने तथा सबकी देखभाल करनेके लिये राजाको प्रेरणा |
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अध्याय 120: राजधर्मका साररूपमें वर्णन |
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अध्याय 121: दण्डके स्वरूप, नाम, लक्षण, प्रभाव और प्रयोगका वर्णन |
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अध्याय 122: दण्डकी उत्पत्ति तथा उसके क्षत्रियोंके हाथमें आनेकी परम्पराका वर्णन |
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अध्याय 123: त्रिवर्गका विचार तथा पापके कारण पदच्युत हुए राजाके पुनरुत्थानके विषयमें आंगरिष्ठ और कामन्दकका संवाद |
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अध्याय 124: इन्द्र और प्रह्लादकी कथा—शीलका प्रभाव, शीलके अभावमें धर्म, सत्य, सदाचार, बल और लक्ष्मीके न रहनेका वर्णन |
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अध्याय 125: युधिष्ठिरका आशाविषयक प्रश्न—उत्तरमें राजा सुमित्र और ऋषभ नामक ऋषिके इतिहासका आरम्भ, उसमें राजा सुमित्रका एक मृगके पीछे दौड़ना |
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अध्याय 126: राजा सुमित्रका मृगकी खोज करते हुए तपस्वी मुनियोंके आश्रमपर पहुँचना और उनसे आशाके विषयमें प्रश्न करना |
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अध्याय 127: ऋषभका राजा सुमित्रको वीरद्युम्न और तनु मुनिका वृत्तान्त सुनाना |
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अध्याय 128: तनु मुनिका राजा वीरद्युम्नको आशाके स्वरूपका परिचय देना और ऋषभके उपदेशसे सुमित्रका आशाको त्याग देना |
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अध्याय 129: यम और गौतमका संवाद |
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अध्याय 130: आपत्तिके समय राजाका धर्म |
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उपपर्व: आपद्धर्म पर्व |
अध्याय 131: आपत्तिग्रस्त राजाके कर्तव्यका वर्णन |
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अध्याय 132: ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओंके धर्मका वर्णन तथा धर्मकी गतिको सूक्ष्म बताना |
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अध्याय 133: राजाके लिये कोशसंग्रहकी आवश्यकता, मर्यादाकी स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्तिकी निन्दा |
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अध्याय 134: बलकी महत्ता और पापसे छूटनेका प्रायश्चित्त |
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अध्याय 135: मर्यादाका पालन करने-करानेवाले कायव्य नामक दस्युकी सद् गतिका वर्णन |
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अध्याय 136: राजा किसका धन ले और किसका न ले तथा किसके साथ कैसा बर्ताव करे— इसका विचार |
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अध्याय 137: आनेवाले संकटसे सावधान रहनेके लिये दूरदर्शी, तत्कालज्ञ और दीर्घसूत्री—इन तीन मत्स्योंका दृष्टान्त |
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अध्याय 138: शत्रुओंसे घिरे हुए राजाके कर्तव्यके विषयमें बिडाल और चूहेका आख्यान |
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अध्याय 139: शत्रुसे सदा सावधान रहनेके विषयमें राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़ियाका संवाद |
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अध्याय 140: भारद्वाज कणिकका सौराष्ट्रदेशके राजाको कूटनीतिका उपदेश |
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अध्याय 141: ‘ब्राह्मण भयंकर संकटकालमें किस तरह जीवन-निर्वाह करे’ इस विषयमें विश्वामित्र मुनि और चाण्डालका संवाद |
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अध्याय 142: आपत्कालमें राजाके धर्मका निश्चय तथा उत्तम ब्राह्मणोंके सेवनका आदेश |
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अध्याय 143: शरणागतकी रक्षा करनेके विषयमें एक बहेलिये और कपोत-कपोतीका प्रसंग, सर्दीसे पीड़ित हुए बहेलियेका एक वृक्षके नीचे जाकर सोना |
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अध्याय 144: कबूतरद्वारा अपनी भार्याका गुणगान तथा पतिव्रता स्त्रीकी प्रशंसा |
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अध्याय 145: कबूतरीका कबूतरसे शरणागत व्याधकी सेवाके लिये प्रार्थना |
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अध्याय 146: कबूतरके द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीरका बहेलियेके लिये परित्याग |
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अध्याय 147: बहेलियेका वैराग्य |
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अध्याय 148: कबूतरीका विलाप और अग्निमें प्रवेश तथा उन दोनोंको स्वर्गलोककी प्राप्ति |
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अध्याय 149: बहेलियेको स्वर्गलोककी प्राप्ति |
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अध्याय 150: इन्द्रोत मुनिका राजा जनमेजयको फटकारना |
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अध्याय 151: ब्रह्महत्याके अपराधी जनमेजयका इन्द्रोत मुनिकी शरणमें जाना और इन्द्रोत मुनिका उससे ब्राह्मणद्रोह न करनेकी प्रतिज्ञा कराकर उसे शरण देना |
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अध्याय 152: इन्द्रोतका जनमेजयको धर्मोपदेश करके उनसे अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान कराना तथा निष्पाप राजाका पुनः अपने राज्यमें प्रवेश |
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अध्याय 153: मृतककी पुनर्जीवन-प्राप्तिके विषयमें एक ब्राह्मण बालकके जीवित होनेकी कथा; उसमें गीध और सियारकी बुद्धिमता |
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अध्याय 154: नारदजीका सेमल-वृक्षसे प्रशंसापूर्वक प्रश्न |
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अध्याय 155: नारदजीका सेमल-वृक्षको उसका अहंकार देखकर फटकारना |
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अध्याय 156: नारदजीकी बात सुनकर वायुका सेमलको धमकाना और सेमलका वायुको तिरस्कृत करके विचारमग्न होना |
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अध्याय 157: सेमलका हार स्वीकार करना तथा बलवान् के साथ वैर न करनेका उपदेश |
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अध्याय 158: समस्त अनर्थोंका कारण लोभको बताकर उससे होनेवाले विभिन्न पापोंका वर्णन तथा श्रेष्ठ महापुरुषोंके लक्षण |
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अध्याय 159: अज्ञान और लोभको एक दूसरेका कारण बताकर दोनोंकी एकता करना और दोनोंको ही समस्त दोषोंका कारण सिद्ध करना |
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अध्याय 160: मन और इन्द्रियोंके संयमरूप दमका माहात्म्य |
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अध्याय 161: तपकी महिमा |
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अध्याय 162: सत्यके लक्षण, स्वरूप और महिमाका वर्णन |
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अध्याय 163: काम, क्रोध आदि तेरह दोषोंका निरूपण और उनके नाशका उपाय |
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अध्याय 164: नृशंस अर्थात् अत्यन्त नीच पुरुषके लक्षण |
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अध्याय 165: नाना प्रकारके पापों और उनके प्रायश्चित्तोंका वर्णन |
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अध्याय 166: खड्गकी उत्पत्ति और प्राप्तिकी परम्पराकी महिमाका वर्णन |
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अध्याय 167: धर्म, अर्थ और कामके विषयमें विदुर तथा पाण्डवोंके पृथक्-पृथक् विचार तथा अन्तमें युधिष्ठिरका निर्णय |
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अध्याय 168: मित्र बनाने एवं न बनाने योग्य पुरुषोंके लक्षण तथा कृतघ्न गौतमकी कथाका आरम्भ |
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अध्याय 169: गौतमका समुद्रकी ओर प्रस्थान और संध्याके समय एक दिव्य बकपक्षीके घरपर अतिथि होना |
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अध्याय 170: गौतमका राजधर्माद्वारा आतिथ्य-सत्कार और उसका राक्षसराज विरूपाक्षके भवनमें प्रवेश |
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अध्याय 171: गौतमका राक्षसराजके यहाँसे सुवर्णराशि लेकर लौटना और अपने मित्र बकके वधका घृणित विचार मनमें लाना |
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अध्याय 172: कृतघ्न गौतमद्वारा मित्र राजधर्माका वध तथा राक्षसोंद्वारा उसकी हत्या और कृतघ्नके मांसको अभक्ष्य बताना |
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अध्याय 173: राजधर्मा और गौतमका पुनः जीवित होना |
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उपपर्व: मोक्षधर्म पर्व |
अध्याय 174: शोकाकुल चित्तकी शान्तिके लिये राजा सेनजित् और ब्राह्मणके संवादका वर्णन |
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अध्याय 175: अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषका क्या कर्तव्य है, इस विषयमें पिताके प्रति पुत्रद्वारा ज्ञानका उपदेश |
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अध्याय 176: त्यागकी महिमाके विषयमें शम्पाक ब्राह्मणका उपदेश |
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अध्याय 177: मंकिगीता—धनकी तृष्णासे दुःख और उसकी कामनाके त्यागसे परम सुखकी प्राप्ति |
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अध्याय 178: जनककी उक्ति तथा राजा नहुषके प्रश्नोंके उत्तरमें बोध्यगीता |
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अध्याय 179: प्रह्लाद और अवधूतका संवाद—अजगर-वृत्तिकी प्रशंसा |
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अध्याय 180: सद् बुद्धिका आश्रय लेकर आत्महत्यादि पापकर्मसे निवृत्त होनेके सम्बन्धमें काश्यप ब्राह्मण और इन्द्रका संवाद |
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अध्याय 181: शुभाशुभ कर्मोंका परिणाम कर्ताको अवश्य भोगना पड़ता है, इसका प्रतिपादन |
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अध्याय 182: भरद्वाज और भृगुके संवादमें जगत् की उत्पत्तिका और विभिन्न तत्त्वोंका वर्णन |
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अध्याय 183: आकाशसे अन्य चार स्थूल भूतोंकी उत्पत्तिका वर्णन |
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अध्याय 184: पंचमहाभूतोंके गुणोंका विस्तारपूर्वक वर्णन |
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अध्याय 185: शरीरके भीतर जठरानल तथा प्राण-अपान आदि वायुओंकी स्थिति आदिका वर्णन |
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अध्याय 186: जीवकी सत्तापर नाना प्रकारकी युक्तियोंसे शंका उपस्थित करना |
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अध्याय 187: जीवकी सत्ता तथा नित्यताको मुक्तियोंसे सिद्ध करना |
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अध्याय 188: वर्णविभागपूर्वक मनुष्योंकी और समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिका वर्णन |
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अध्याय 189: चारों वर्णोंके अलग-अलग कर्मोंका और सदाचारका वर्णन तथा वैराग्यसे परब्रह्मकी प्राप्ति |
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अध्याय 190: सत्यकी महिमा, असत्यके दोष तथा लोक और परलोकके सुख-दुःखका विवेचन |
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अध्याय 191: ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमोंके धर्मका वर्णन |
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अध्याय 192: वानप्रस्थ और संन्यास धर्मोंका वर्णन तथा हिमालयके उत्तर पार्श्वमें स्थित उत्कृष्ट लोककी विलक्षणता एवं महत्ताका प्रतिपादन, भृगु-भरद्वाज-संवादका उपसंहार |
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अध्याय 193: शिष्टाचारका फलसहित वर्णन, पापको छिपानेसे हानि और धर्मकी प्रशंसा |
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अध्याय 194: अध्यात्मज्ञानका निरूपण |
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अध्याय 195: ध्यानयोगका वर्णन |
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अध्याय 196: जपयज्ञके विषयमें युधिष्ठिरका प्रश्न, उसके उत्तरमें जप और ध्यानकी महिमा और उसका फल |
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अध्याय 197: जापकमें दोष आनेके कारण उसे नरककी प्राप्ति |
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अध्याय 198: परमधामके अधिकारी जापकके लिये देवलोक भी नरकतुल्य हैं—इसका प्रतिपादन |
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अध्याय 199: जापकको सावित्रीका वरदान, उसके पास धर्म, यम और काल आदिका आगमन, राजा इक्ष्वाकु और जापक ब्राह्मणका संवाद, सत्यकी महिमा तथा जापककी परमगतिका वर्णन |
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अध्याय 200: जापक ब्राह्मण और राजा इक्ष्वाकुकी उत्तम गतिका वर्णन तथा जापकको मिलनेवाले फलकी उत्कृष्टता |
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अध्याय 201: बृहस्पतिके प्रश्नके उत्तरमें मनुद्वारा कामनाओंके त्यागकी एवं ज्ञानकी प्रशंसा तथा परमात्मतत्त्वका निरूपण |
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अध्याय 202: आत्मतत्त्वका और बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थोंका विवेचन तथा उसके साक्षात्कारका उपाय |
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अध्याय 203: शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धिसे अतिरिक्त आत्माकी नित्य सत्ताका प्रतिपादन |
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अध्याय 204: आत्मा एवं परमात्माके साक्षात्कारका उपाय तथा महत्त्व |
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अध्याय 205: परब्रह्मकी प्राप्तिका उपाय |
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अध्याय 206: परमात्मतत्त्वका निरूपण—मनु-बृहस्पतिसंवादकी समाप्ति |
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अध्याय 207: श्रीकृष्णसे सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्तिका तथा उनकी महिमाका कथन |
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अध्याय 208: ब्रह्माके पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियोंके वंशका तथा प्रत्येक दिशामें निवास करनेवाले महर्षि योंका वर्णन |
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अध्याय 209: भगवान् विष्णुका वराहरूपमें प्रकट होकर देवताओंकी रक्षा और दानवोंका विनाश कर देना तथा नारदको अनुस्मृतिस्तोत्रका उपदेश और नारदद्वारा भगवान् की स्तुति |
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अध्याय 210: गुरु-शिष्यके संवादका उल्लेख करते हुए श्रीकृष्ण-सम्बन्धी अध्यात्मतत्त्वका वर्णन |
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अध्याय 211: संसारचक्र और जीवात्माकी स्थितिका वर्णन |
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अध्याय 212: निषिद्ध आचरणके त्याग, सत्त्व, रज और तमके कार्य एवं परिणामका तथा सत्त्वगुणके सेवनका उपदेश |
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अध्याय 213: जीवोत्पत्तिका वर्णन करते हुए दोषों और बन्धनोंसे मुक्त होनेके लिये विषयासक्तिके त्यागका उपदेश |
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अध्याय 214: ब्रह्मचर्य तथा वैराग्यसे मुक्ति |
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अध्याय 215: आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्मकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करनेका उपदेश |
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अध्याय 216: स्वप्न और सुपुप्ति-अवस्थामें मनकी स्थिति तथा गुणातीत ब्रह्मकी प्राप्तिका उपाय |
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अध्याय 217: सच्चिदानन्दघन परमात्मा, दृश्यवर्ग, प्रकृति और पुरुष (जीवात्मा) उन चारोंके ज्ञानसे मुक्तिका कथन तथा परमात्मप्राप्तिके अन्य साधनोंका भी वर्णन |
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अध्याय 218: राजा जनकके दरबारमें पंचशिखका आगमन और उनके द्वारा नास्तिक मतोंके निराकरणपूर्वक शरीरसे भिन्न आत्माकी नित्य सत्ताका प्रतिपादन |
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अध्याय 219: पंचशिखके द्वारा मोक्ष-तत्त्वका विवेचन एवं भगवान् विष्णुद्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेवकी परीक्षा और उनके लिये वरप्रदान |
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अध्याय 220: श्वेतकेतु और सुवर्चलाका विवाह, दोनों पति-पत्नीका अध्यात्मविषयक संवाद तथा गार्हस्थ्य-धर्मका पालन करते हुए ही उनका परमात्माको प्राप्त होना एवं दमकी महिमाका वर्णन |
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अध्याय 221: व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथिसेवा आदिका विवेचन तथा यज्ञशिष्ट अन्नका भोजन करनेवालेको परम उत्तम गतिकी प्राप्तिका कथन |
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अध्याय 222: सनत्कुमारजीका ऋषियोंको भगवत्स्वरूपका उपदेश देना |
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अध्याय 223: इन्द्र और बलिका संवाद—इन्द्रके आक्षेप-युक्त वचनोंका बलिके द्वारा कठोर प्रत्युत्तर |
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अध्याय 224: बलि और इन्द्रका संवाद, बलिके द्वारा कालकी प्रबलताका प्रतिपादन करते हुए इन्द्रको फटकारना |
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अध्याय 225: इन्द्र और लक्ष्मीका संवाद, बलिको त्यागकर आयी हुई लक्ष्मीकी इन्द्रके द्वारा प्रतिष्ठा |
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अध्याय 226: इन्द्र और नमुचिका संवाद |
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अध्याय 227: इन्द्र और बलिका संवाद—काल और प्रारब्धकी महिमाका वर्णन |
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अध्याय 228: दैत्योंको त्यागकर इन्द्रके पास लक्ष्मीदेवीका आना तथा किन सद् गुणोंके होनेपर लक्ष्मी आती हैं और किन दुर्गणु ोंके होनेपर वे त्यागकर चली जाती हैं, इस बातको विस्तारपूर्वक बताना |
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अध्याय 229: जैगीषव्यका असित-देवलको समत्वबुद्धिका उपदेश |
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अध्याय 230: श्रीकृष्ण और उग्रसेनका संवाद—नारदजीकी लोकप्रियताके हेतुभूत गुणोंका वर्णन |
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अध्याय 231: शुकदेवजीका प्रश्न और व्यासजीका उनके प्रश्नोंका उत्तर देते हुए कालका स्वरूप बताना |
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अध्याय 232: व्यासजीका शुकदेवको सृष्टिके उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मोंका उपदेश |
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अध्याय 233: ब्राह्मप्रलय एवं महाप्रलयका वर्णन |
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अध्याय 234: ब्राह्मणोंका कर्तव्य और उन्हें दान देनेकी महिमाका वर्णन |
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अध्याय 235: ब्राह्मणके कर्तव्यका प्रतिपादन करते हुए कालरूप नदको पार करनेका उपाय बतलाना |
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अध्याय 236: ध्यानके सहायक योग, उनके फल और सात प्रकारकी धारणाओंका वर्णन तथा सांख्य एवं योगके अनुसार ज्ञानद्वारा मोक्षकी प्राप्ति |
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अध्याय 237: सृष्टिके समस्त कार्योंमें बुद्धिकी प्रधानता और प्राणियोंकी श्रेष्ठताके तारतम्यका वर्णन |
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अध्याय 238: नाना प्रकारके भूतोंकी समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्वका विवेचन, युगधर्मका वर्णन एवं कालका महत्त्व |
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अध्याय 239: ज्ञानका साधन और उसकी महिमा |
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अध्याय 240: योगसे परमात्माकी प्राप्तिका वर्णन |
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अध्याय 241: कर्म और ज्ञानका अन्तर तथा ब्रह्म-प्राप्तिके उपायका वर्णन |
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अध्याय 242: आश्रमधर्मकी प्रस्तावना करते हुए ब्रह्मचर्य-आश्रमका वर्णन |
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अध्याय 243: ब्राह्मणोंके उपलक्षणसे गार्हस्थ्य-धर्मका वर्णन |
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अध्याय 244: वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रमके धर्म और महिमाका वर्णन |
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अध्याय 245: संन्यासीके आचरण और ज्ञानवान् संन्यासीकी प्रशंसा |
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अध्याय 246: परमात्माकी श्रेष्ठता, उसके दर्शनका उपाय तथा इस ज्ञानमय उपदेशके पात्रका निर्णय |
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अध्याय 247: महाभूतादि तत्त्वोंका विवेचन |
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अध्याय 248: बुद्धिकी श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक |
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अध्याय 249: ज्ञानके साधन तथा ज्ञानीके लक्षण और महिमा |
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अध्याय 250: परमात्माकी प्राप्तिका साधन, संसार-नदीका वर्णन और ज्ञानसे ब्रह्मकी प्राप्ति |
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अध्याय 251: ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणके लक्षण और परब्रह्मकी प्राप्तिका उपाय |
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अध्याय 252: शरीरमें पंचभूतोंके कार्य और गुणोंकी पहचान |
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अध्याय 253: स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरसे भिन्न जीवात्माका और परमात्माका योगके द्वारा साक्षात्कार करनेका प्रकार |
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अध्याय 254: कामरूपी अद् भुत वृक्षका तथा उसे काटकर मुक्ति प्राप्त करनेके उपायका और शरीररूपी नगरका वर्णन |
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अध्याय 255: पंचभूतोंके तथा मन और बुद्धिके गुणोंका विस्तृत वर्णन |
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अध्याय 256: युधिष्ठिरका मृत्युविषयक प्रश्न, नारदजीका राजा अकम्पनसे मृत्युकी उत्पत्तिका प्रसंग सुनाते हुए ब्रह्माजीकी रोषाग्निसे प्रजाके दग्ध होनेका वर्णन |
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अध्याय 257: महादेवजीकी प्रार्थनासे ब्रह्माजीके द्वारा अपनी रोषाग्निका उपसंहार तथा मृत्युकी उत्पत्ति |
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अध्याय 258: मृत्युकी घोर तपस्या और प्रजापतिकी आज्ञासे उसका प्राणियोंके संहारका कार्य स्वीकार करना |
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अध्याय 259: धर्माधर्मके स्वरूपका निर्णय |
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अध्याय 260: युधिष्ठिरका धर्मकी प्रामाणिकतापर संदेह उपस्थित करना |
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अध्याय 261: जाजलिकी घोर तपस्या, सिरपर जटाओंमें पक्षियोंके घोंसला बनानेसे उनका अभिमान और आकाशवाणीकी प्रेरणासे उनका तुलाधार वैश्यके पास जाना |
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अध्याय 262: जाजलि और तुलाधारका धर्मके विषयमें संवाद |
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अध्याय 263: जाजलिको तुलाधारका आत्मयज्ञविषयक धर्मका उपदेश |
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अध्याय 264: जाजलिको पक्षियोंका उपदेश |
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अध्याय 265: राजा विचख्नुके द्वारा अहिं सा-धर्मकी प्रशंसा |
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अध्याय 266: महर्षि गौतम और चिरकारीका उपाख्यान-दीर्घकालतक सोच-विचारकर कार्य करनेकी प्रशंसा |
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अध्याय 267: द्युमत्सेन और सत्यवान् का संवाद—अहिं सा-पूर्वक राज्यशासनकी श्रेष्ठताका कथन |
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अध्याय 268: स्यूमरश्मि और कपिलका संवाद—स्यूमरश्मिके द्वारा यज्ञकी अवश्यकर्तव्यताका निरूपण |
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अध्याय 269: प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्गके विषयमें स्यूमरश्मि-कपिल संवाद |
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अध्याय 270: स्यूमरश्मि-कपिल-संवाद—चारों आश्रमोंमें उत्तम साधनोंके द्वारा ब्रह्मकी प्राप्तिका कथन |
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अध्याय 271: धन और काम-भोगोंकी अपेक्षा धर्म और तपस्याका उत्कर्ष सूचित करनेवाली ब्राह्मण और कुण्डधार मेघकी कथा |
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अध्याय 272: यज्ञमें हिं साकी निन्दा और अहिं साकी प्रशंसा |
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अध्याय 273: धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्षके विषयमें युधिष्ठिरके चार प्रश्न और उनका उत्तर |
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अध्याय 274: मोक्षके साधनका वर्णन |
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अध्याय 275: जीवात्माके देहाभिमानसे मुक्त होनेके विषयमें नारद और असितदेवलका संवाद |
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अध्याय 276: तृष्णाके परित्यागके विषयमें माण्डव्य मुनि और जनकका संवाद |
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अध्याय 277: शरीर और संसारकी अनित्यता तथा आत्म-कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषके कर्तव्यका निर्देश—पिता-पुत्रका संवाद |
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अध्याय 278: हारीत मुनिके द्वारा प्रतिपादित संन्यासीके स्वभाव, आचरण और धर्मोंका वर्णन |
|
अध्याय 279: ब्रह्मकी प्राप्तिका उपाय तथा उस विषयमें वृत्र-शुक्र-संवादका आरम्भ |
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अध्याय 280: वृत्रासुरको सनत्कुमारका अध्यात्मविषयक उपदेश देना और उसकी परमगति तथा भीष्मद्वारा युधिष्ठिरकी शंकाका निवारण |
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अध्याय 281: इन्द्र और वृत्रासुरके युद्धका वर्णन |
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अध्याय 282: वृत्रासुरका वध और उससे प्रकट हुई ब्रह्महत्याका ब्रह्माजीके द्वारा चार स्थानोंमें विभाजन |
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अध्याय 283: शिवजीद्वारा दक्षयज्ञका भंग और उनके क्रोधसे ज्वरकी उत्पत्ति तथा उसके विविध रूप |
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अध्याय 284: पार्वतीके रोष एवं खेदका निवारण करनेके लिये भगवान् शिवके द्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षद्वारा किये हुए शिवसहस्रनाम-स्तोत्रसे संतुष्ट होकर महादेवजीका उन्हें वरदान देना तथा इस स्तोत्रकी महिमा |
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अध्याय 285: अध्यात्मज्ञानका और उसके फलका वर्णन |
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अध्याय 286: समंगके द्वारा नारदजीसे अपनी शोकहीन स्थितिका वर्णन |
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अध्याय 287: नारदजीका गालव मुनिको श्रेयका उपदेश |
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अध्याय 288: अरिष्टनेमिका राजा सगरको वैराग्योत्पादक मोक्षविषयक उपदेश |
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अध्याय 289: भृगुपुत्र उशनाका चरित्र और उन्हें शुक्र नामकी प्राप्ति |
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अध्याय 290: पराशरगीताका आरम्भ—पराशर मुनिका राजा जनकको कल्याणकी प्राप्तिके साधनका उपदेश |
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अध्याय 291: पराशरगीता—कर्मफलकी अनिवार्यता तथा पुण्यकर्मसे लाभ |
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अध्याय 292: पराशरगीता-धर्मोपार्जि त धनकी श्रेष्ठता, अतिथि-सत्कारका महत्त्व, पाँच प्रकारके ऋणोंसे छूटनेकी विधि, भगवत्स्तवनकी महिमा एवं सदाचार तथा गुरुजनोंकी सेवासे महान् लाभ |
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अध्याय 293: पराशरगीता—शूद्रके लिये सेवावृत्तिकी प्रधानता, सत्संगकी महिमा और चारों वर्णोंके धर्मपालनका महत्त्व |
|
अध्याय 294: पराशरगीता—ब्राह्मण और शूद्रकी जीविका, निन्दनीय कर्मोंके त्यागकी आज्ञा, मनुष्योंमें आसुरभावकी उत्पत्ति और भगवान् शिवके द्वारा उसका निवारण तथा स्वधर्मके अनुसार कर्तव्य-पालनका आदेश |
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अध्याय 295: पराशरगीता—विषयासक्त मनुष्यका पतन, तपोबलकी श्रेष्ठता तथा दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालनका आदेश |
|
अध्याय 296: पराशरगीता—वर्णविशेषकी उत्पत्तिका रहस्य, तपोबलसे उत्कृष्ट वर्णकी प्राप्ति, विभिन्न वर्णोंके विशेष और सामान्य धर्म, सत्कर्मकी श्रेष्ठता तथा हिं सारहित धर्मका वर्णन |
|
अध्याय 297: पराशरगीता—नाना प्रकारके धर्म और कर्तव्योंका उपदेश |
|
अध्याय 298: पराशरगीताका उपसंहार—राजा जनकके विविध प्रश्नोंका उत्तर |
|
अध्याय 299: हंसगीता—हंसरूपधारी ब्रह्माका साध्यगणोंको उपदेश |
|
अध्याय 300: सांख्य और योगका अन्तर बतलाते हुए योगमार्गके स्वरूप, साधन, फल और प्रभावका वर्णन |
|
अध्याय 301: सांख्ययोगके अनुसार साधन और उसके फलका वर्णन |
|
अध्याय 302: वसिष्ठ और करालजनकका संवाद—क्षर और अक्षरतत्त्वका निरूपण और इनके ज्ञानसे मुक्ति |
|
अध्याय 303: प्रकृति संसर्गके कारण जीवका अपनेको नाना प्रकारके कर्मोंका कर्ता और भोक्ता मानना एवं नाना योनियोंमें बारंबार जन्म ग्रहण करना |
|
अध्याय 304: प्रकृतिके संसर्गदोषसे जीवका पतन |
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अध्याय 305: क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुषके विषयमें राजा जनककी शंका और उसका वसिष्ठजीद्वारा उत्तर |
|
अध्याय 306: योग और सांख्यके स्वरूपका वर्णन तथा आत्मज्ञानसे मुक्ति |
|
अध्याय 307: विद्या-अविद्या, अक्षर और क्षर तथा प्रकृति और पुरुषके स्वरूपका एवं विवेकीके उद्गारका वर्णन |
|
अध्याय 308: क्षर-अक्षर और परमात्मतत्त्वका वर्णन, जीवके नानात्व और एकत्वका दृष्टान्त, उपदेशके अधिकारी और अनधिकारी तथा इस ज्ञानकी परम्पराको बताते हुए वसिष्ठ-करालजनक-संवादका उपसंहार |
|
अध्याय 309: जनकवंशी वसुमान् को एक मुनिका धर्म-विषयक उपदेश |
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अध्याय 310: याज्ञवल्क्यका राजा जनकको उपदेश—सांख्यमतके अनुसार चौबीस तत्त्वों और नौ प्रकारके सर्गोंका निरूपण |
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अध्याय 311: अव्यक्त, महत्तत्त्व, अहंकार, मन और विषयोंकी कालसंख्याका एवं सृष्टिका वर्णन तथा इन्द्रियोंमें मनकी प्रधानताका प्रतिपादन |
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अध्याय 312: संहारक्रमका वर्णन |
|
अध्याय 313: अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवतका वर्णन तथा सात्त्विक, राजस और तामस भावोंके लक्षण |
|
अध्याय 314: सात्त्विक, राजस और तामस प्रकृतिके मनुष्योंकी गतिका वर्णन तथा राजा जनकके प्रश्न |
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अध्याय 315: प्रकृति-पुरुषका विवेक और उसका फल |
|
अध्याय 316: योगका वर्णन और उसके साधनसे परब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति |
|
अध्याय 317: विभिन्न अंगोंसे प्राणोंके उत्क्रमणका फल तथा मृत्युसूचक लक्षणोंका वर्णन और मृत्युको जीतनेका उपाय |
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अध्याय 318: याज्ञवल्क्यद्वारा अपनेको सूर्यसे वेदज्ञानकी प्राप्तिका प्रसंग सुनाना, विश्वावसुको जीवात्मा और परमात्माकी एकताके ज्ञानका उपदेश देकर उसका फल मुक्ति बताना तथा जनकको उपदेश देकर विदा होना |
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अध्याय 319: जरा-मृत्युका उल्लंघन करनेके विषयमें पंचशिख और राजा जनकका संवाद |
|
अध्याय 320: राजा जनककी परीक्षा करनेके लिये आयी हुई सुलभाका उनके शरीरमें प्रवेश करना, राजा जनकका उसपर दोषारोपण करना एवं सुलभाका युक्तियोंद्वारा निराकरण करते हुए राजा जनकको अज्ञानी बताना |
|
अध्याय 321: व्यासजीका अपने पुत्र शुकदेवको वैराग्य और धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना |
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अध्याय 322: शुभाशुभ कर्मोंका परिणाम कर्ताको अवश्य भोगना पड़ता है, इसका प्रतिपादन |
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अध्याय 323: व्यासजीकी पुत्रप्राप्तिके लिये तपस्या और भगवान् शंकरसे वरप्राप्ति |
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अध्याय 324: शुकदेवजीकी उत्पत्ति और उनके यज्ञोपवीत, वेदाध्ययन एवं समावर्तन- संस्कारका वृत्तान्त |
|
अध्याय 325: पिताकी आज्ञासे शुकदेवजीका मिथिलामें जाना और वहाँ उनका द्वारपाल, मन्त्री और युवती स्त्रियोंके द्वारा सत्कृत होनेके उपरान्त ध्यानमें स्थित हो जाना |
|
अध्याय 326: राजा जनकके द्वारा शुकदेवजीका पूजन तथा उनके प्रश्नका समाधान करते हुए ब्रह्मचर्याश्रममें परमात्माकी प्राप्ति होनेके बाद अन्य तीनों आश्रमोंकी अनावश्यकताका प्रतिपादन करना तथा मुक्त पुरुषके लक्षणोंका वर्णन |
|
अध्याय 327: शुकदेवजीका पिताके पास लौट आना तथा व्यासजीका अपने शिष्योंको स्वाध्यायकी विधि बताना |
|
अध्याय 328: शिष्योंके जानेके बाद व्यासजीके पास नारदजीका आगमन और व्यासजीको वेदपाठके लिये प्रेरित करना तथा व्यासजीका शुकदेवको अनध्यायका कारण बताते हुए ‘प्रवह’ आदि सात वायुओंका परिचय देना |
|
अध्याय 329: शुकदेवजीको नारदजीका वैराग्य और ज्ञानका उपदेश |
|
अध्याय 330: शुकदेवका नारदजीका सदाचार और अध्यात्मविषयक उपदेश |
|
अध्याय 331: नारदजीका शुकदेवको कर्मफल-प्राप्तिमें परतन्त्रताविषयक उपदेश तथा शुकदेवजीका सूर्यलोकमें जानेका निश्चय |
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अध्याय 332: शुकदेवजीकी ऊर्ध्वगतिका वर्णन |
|
अध्याय 333: शुकदेवजीकी परमपद-प्राप्ति तथा पुत्र-शोकसे व्याकुल व्यासजीको महादेवजीका आश्वासन देना |
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अध्याय 334: बदरिकाश्रममें नारदजीके पूछनेपर भगवान् नारायणका परमदेव परमात्माको ही सर्वश्रेष्ठ पूजनीय बताना |
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अध्याय 335: नारदजीका श्वेतद्वीपदर्शन, वहाँके निवासियोंके स्वरूपका वर्णन, राजा उपरिचरका चरित्र तथा पांचरात्रकी उत्पत्तिका प्रसंग |
|
अध्याय 336: राजा उपरिचरके यज्ञमें भगवान् पर बृहस्पतिका क्रोधित होना, एकत आदि मुनियोंका बृहस्पतिसे श्वेतद्वीप एवं भगवान् की महिमाका वर्णन करके उनको शान्त करना |
|
अध्याय 337: यज्ञमें आहुतिके लिये अजका अर्थ अन्न है, बकरा नहीं—इस बातको जानते हुए भी पक्षपात करनेके कारण राजा उपरिचरके अधःपतनकी और भगवत्कृपासे उनके पुनरुत्थानकी कथा |
|
अध्याय 338: नारदजीका दो सौ नामोंद्वारा भगवान् की स्तुति करना |
|
अध्याय 339: श्वेतद्वीपमें नारदजीको भगवान् का दर्शन, भगवान् का वासुदेव-संकर्षण आदि अपने व्यूहस्वरूपोंका परिचय कराना और भविष्यमें होनेवाले अवतारोंके कार्योंकी सूचना देना और इस कथाके श्रवण-पठनका माहात्म्य |
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अध्याय 340: व्यासजीका अपने शिष्योंको भगवान् द्वारा ब्रह्मादि देवताओंसे कहे हुए प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप धर्मके उपदेशका रहस्य बताना |
|
अध्याय 341: भगवान् श्रीकृष्णका अर्जुनको अपने प्रभावका वर्णन करते हुए अपने नामोंकी व्युत्पत्ति एवं माहात्म्य बताना |
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अध्याय 342: सृष्टिकी प्रारम्भिक अवस्थाका वर्णन, ब्राह्मणोंकी महिमा बतानेवाली अनेक प्रकारकी संक्षिप्त कथाओंका उल्लेख, भगवन्नामोंके हेतु तथा रुद्रके साथ होनेवाले युद्धमें नारायणकी विजय |
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अध्याय 343: जनमेजयका प्रश्न, देवर्षि नारदका श्वेतद्वीपसे लौटकर नर-नारायणके पास जाना और उनके पूछनेपर उनसे वहाँके महत्त्वपूर्ण दृश्यका वर्णन करना |
|
अध्याय 344: नर-नारायणका नारदजीकी प्रशंसा करते हुए उन्हें भगवान् वासुदेवका माहात्म्य बतलाना |
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अध्याय 345: भगवान् वराहके द्वारा पितरोंके पूजनकी मर्यादाका स्थापित होना |
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अध्याय 346: नारायणकी महिमासम्बन्धी उपाख्यानका उपसंहार |
|
अध्याय 347: हयग्रीव-अवतारकी कथा, वेदोंका उद्धार, मधुकैटभका वध तथा नारायणकी महिमाका वर्णन |
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अध्याय 348: सात्वत-धर्मकी उपदेश-परम्परा तथा भगवान् के प्रति ऐकान्तिक भावकी महिमा |
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अध्याय 349: व्यासजीका सृष्टिके प्रारम्भमें भगवान् नारायणके अंशसे सरस्वतीपुत्र अपान्तरतमाके रूपमें जन्म होनेकी और उनके प्रभावकी कथा |
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अध्याय 350: वैजयन्त पर्वतपर ब्रह्मा और रुद्रका मिलन एवं ब्रह्माजीद्वारा परम पुरुष नारायणकी महिमाका वर्णन |
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अध्याय 351: ब्रह्मा और रुद्रके संवादमें नारायणकी महिमाका विशेषरूपसे वर्णन |
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अध्याय 352: नारदके द्वारा इन्द्रको उञ्छवृत्तिवाले ब्राह्मणकी कथा सुनानेका उपक्रम |
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अध्याय 353: महापद्मपुरमें एक श्रेष्ठ ब्राह्मणके सदाचारका वर्णन और उसके घरपर अतिथिका आगमन |
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अध्याय 354: अतिथिद्वारा स्वर्गके विभिन्न मार्गोंका कथन |
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अध्याय 355: अतिथिद्वारा नागराज पद्मनाभके सदाचार और सद् गुणोंका वर्णन तथा ब्राह्मणको उसके पास जानेके लिये प्रेरणा |
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अध्याय 356: अतिथिके वचनोंसे संतुष्ट होकर ब्राह्मणका उसके कथनानुसार नागराजके घरकी ओर प्रस्थान |
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अध्याय 357: नागपत्नीके द्वारा ब्राह्मणका सत्कार और वार्तालापके बाद ब्राह्मणके द्वारा नागराजके आगमनकी प्रतीक्षा |
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अध्याय 358: नागराजके दर्शनके लिये ब्राह्मणकी तपस्या तथा नागराजके परिवारवालोंका भोजनके लिये ब्राह्मणसे आग्रह करना |
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अध्याय 359: नागराजका घर लौटना, पत्नीके साथ उनकी धर्मविषयक बातचीत तथा पत्नीका उनसे ब्राह्मणको दर्शन देनेके लिये अनुरोध |
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अध्याय 360: पत्नीके धर्मयुक्त वचनोंसे नागराजके अभिमान एवं रोषका नाश और उनका ब्राह्मणको दर्शन देनेके लिये उद्यत होना |
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अध्याय 361: नागराज और ब्राह्मणका परस्पर मिलन तथा बातचीत |
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अध्याय 362: नागराजका ब्राह्मणके पूछनेपर सूर्यमण्डलकी आश्चर्यजनक घटनाओंको सुनाना |
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अध्याय 363: उञ्छ एवं शिलवृत्तिसे सिद्ध हुए पुरुषकी दिव्य गति |
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अध्याय 364: ब्राह्मणका नागराजसे बातचीत करके और उञ्छव्रतके पालनका निश्चय करके अपने घरको जानेके लिये नागराजसे विदा माँगना |
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अध्याय 365: नागराजसे विदा ले ब्राह्मणका च्यवनमुनिसे उञ्छवृत्तिकी दीक्षा लेकर साधनपरायण होना और इस कथाकी परम्पराका वर्णन |
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