|
|
उपपर्व: दानधर्म पर्व |
अध्याय 1: युधिष्ठिरको सान्त्वना देनेके लिये भीष्मजीके द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और कालके संवादका वर्णन |
|
अध्याय 2: प्रजापति मनुके वंशका वर्णन, अग्निपुत्र सुदर्शनका अतिथि-सत्काररूपीधर्मके पालनसे मृत्युपर विजय पाना |
|
अध्याय 3: विश्वामित्रको ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति कैसे हुई—इस विषयमें युधिष्ठिरका प्रश्न |
|
अध्याय 4: आजमीढके वंशका वर्णन तथा विश्वामित्रके जन्मकी कथा और उनके पुत्रोंके नाम |
|
अध्याय 5: स्वामिभक्त एवं दयालु पुरुषकी श्रेष्ठता बतानेके लिये इन्द्र और तोतेके संवादका उल्लेख |
|
अध्याय 6: दैवकी अपेक्षा पुरुषार्थकी श्रेष्ठताका वर्णन |
|
अध्याय 7: कर्मोंके फलका वर्णन |
|
अध्याय 8: श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी महिमा |
|
अध्याय 9: ब्राह्मणोंको देनेकी प्रतिज्ञा करके न देने तथा उसके धनका अपहरण करनेसे दोषकी प्राप्तिके विषयमें सियार और वानरके संवादका उल्लेख एवं ब्राह्मणोंको दान देनेकी महिमा |
|
अध्याय 10: अनधिकारीको उपदेश देनेसे हानिके विषयमें एक शूद्र और तपस्वी ब्राह्मणकी कथा |
|
अध्याय 11: लक्ष्मीके निवास करने और न करने योग्य पुरुष, स्त्री और स्थानोंका वर्णन |
|
अध्याय 12: कृतघ्नकी गति और प्रायश्चित्तका वर्णन तथा स्त्री-पुरुषके संयोगमें स्त्रीको ही अधिक सुख होनेके सम्बन्धमें भंगास्वनका उपाख्यान |
|
अध्याय 13: शरीर, वाणी और मनसे होनेवाले पापोंके परित्यागका उपदेश |
|
अध्याय 14: भीष्मजीकी आज्ञासे भगवान् श्रीकृष्णका युधिष्ठिरसे महादेवजीके माहात्म्यकी कथामें उपमन्युद्वारा महादेवजीकी स्तुति-प्रार्थना, उनके दर्शन और वरदान पानेका तथा अपनेको दर्शन प्राप्त होनेका कथन |
|
अध्याय 15: शिव और पार्वतीका श्रीकृष्णको वरदान और उपमन्युके द्वारा महादेवजीकी महिमा |
|
अध्याय 16: उपमन्यु-श्रीकृष्ण-संवाद—महात्मा तण्डिद्वारा की गयी महादेवजीकी स्तुति, प्रार्थना और उसका फल |
|
अध्याय 17: शिवसहस्रनामस्तोत्र और उसके पाठका फल |
|
अध्याय 18: शिवसहस्रनामके पाठकी महिमा तथा ऋषियोंका भगवान् शंकरकी कृपासे अभीष्ट सिद्धि होनेके विषयमें अपना-अपना अनुभव सुनाना और श्रीकृष्णके द्वारा भगवान् शिवजीकी महिमाका वर्णन |
|
अध्याय 19: अष्टावक्र मुनिका वदान्य ऋषिके कहनेसे उत्तर दिशाकी ओर प्रस्थान, मार्गमें कुबेरके द्वारा उनका स्वागत तथा स्त्रीरूपधारिणी उत्तरदिशाके साथ उनका संवाद |
|
अध्याय 20: अष्टावक्र और उत्तर दिशाका संवाद |
|
अध्याय 21: अष्टावक्र और उत्तरदिशाका संवाद, अष्टावक्रका अपने घर लौटकर वदान्य ऋषिकी कन्याके साथ विवाह करना |
|
अध्याय 22: युधिष्ठिरके विविध धर्मयुक्त प्रश्नोंका उत्तर तथा श्राद्ध और दानके उत्तम पात्रोंका लक्षण |
|
अध्याय 23: देवता और पितरोंके कार्यमें निमन्त्रण देनेयोग्य पात्रों तथा नरकगामी और स्वर्गगामी मनुष्योंके लक्षणोंका वर्णन |
|
अध्याय 24: ब्रह्महत्याके समान पापोंका निरूपण |
|
अध्याय 25: विभिन्न तीर्थोंके माहात्म्यका वर्णन |
|
अध्याय 26: श्रीगंगाजीके माहात्म्यका वर्णन |
|
अध्याय 27: ब्राह्मणत्वके लिये तपस्या करनेवाले मतंगकी इन्द्रसे बातचीत |
|
अध्याय 28: ब्राह्मणत्व प्राप्त करनेका आग्रह छोड़कर दूसरा वर माँगनेके लिये इन्द्रका मतंगको समझाना |
|
अध्याय 29: मतंगकी तपस्या और इन्द्रका उसे वरदान देना |
|
अध्याय 30: वीतहव्यके पुत्रोंसे काशी-नरेशोंका घोर युद्ध, प्रतर्दनद्वारा उनका वध और राजा वीतहव्यको भृगुके कथनसे ब्राह्मणत्व प्राप्त होनेकी कथा |
|
अध्याय 31: नारदजीके द्वारा पूजनीय पुरुषोंके लक्षण तथा उनके आदर-सत्कार और पूजनसे प्राप्त होनेवाले लाभका वर्णन |
|
अध्याय 32: राजर्षि वृषदर्भ (या उशीनर) के द्वारा शरणागत कपोतकी रक्षा तथा उस पुण्यके प्रभावसे अक्षयलोककी प्राप्ति |
|
अध्याय 33: ब्राह्मणके महत्त्वका वर्णन |
|
अध्याय 34: श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी प्रशंसा |
|
अध्याय 35: ब्रह्माजीके द्वारा ब्राह्मणोंकी महत्ताका वर्णन |
|
अध्याय 36: ब्राह्मणकी प्रशंसाके विषयमें इन्द्र और शम्बरासुरका संवाद |
|
अध्याय 37: दान-पात्रकी परीक्षा |
|
अध्याय 38: पंचचूड़ा अप्सराका नारदजीसे स्त्रियोंके दोषोंका वर्णन करना |
|
अध्याय 39: स्त्रियोंकी रक्षाके विषयमें युधिष्ठिरका प्रश्न |
|
अध्याय 40: भृगुवंशी विपुलके द्वारा योगबलसे गुरुपत्नीके शरीरमें प्रवेश करके उसकी रक्षा करना |
|
अध्याय 41: विपुलका देवराज इन्द्रसे गुरुपत्नीको बचाना और गुरुसे वरदान प्राप्त करना |
|
अध्याय 42: विपुलका गुरुकी आज्ञासे दिव्य पुष्प लाकर उन्हें देना और अपने द्वारा किये गये दुष्कर्मका स्मरण करना |
|
अध्याय 43: देवशर्माका विपुलको निर्दोष बताकर समझाना और भीष्मका युधिष्ठिरको स्त्रियोंकी रक्षाके लिये आदेश देना |
|
अध्याय 44: कन्या-विवाहके सम्बन्धमें पात्रविषयक विभिन्न विचार |
|
अध्याय 45: कन्याके विवाहका तथा कन्या और दौहित्र आदिके उत्तराधिकारका विचार |
|
अध्याय 46: स्त्रियोंके वस्त्राभूषणोंसे सत्कार करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन |
|
अध्याय 47: ब्राह्मण आदि वर्णोंकी दायभाग-विधिका वर्णन |
|
अध्याय 48: वर्णसंकर संतानोंकी उत्पत्तिका विस्तारसे वर्णन |
|
अध्याय 49: नाना प्रकारके पुत्रोंका वर्णन |
|
अध्याय 50: गौओंकी महिमाके प्रसंगमें च्यवन मुनिके उपाख्यानका आरम्भ, मुनिका मत्स्योंके साथ जालमें फँसकर जलसे बाहर आना |
|
अध्याय 51: राजा नहुषका एक गौके मोलपर च्यवन मुनिको खरीदना, मुनिके द्वारा गौओंका माहात्म्य-कथन तथा मत्स्यों और मल्लाहोंकी सद् गति |
|
अध्याय 52: राजा कुशिक और उनकी रानीके द्वारा महर्षि च्यवनकी सेवा |
|
अध्याय 53: च्यवन मुनिके द्वारा राजा-रानीके धैर्यकी परीक्षा और उनकी सेवासे प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद देना |
|
अध्याय 54: महर्षि च्यवनके प्रभावसे राजा कुशिक और उनकी रानीको अनेक आश्चर्यमय दृश्योंका दर्शन एवं च्यवन मुनिका प्रसन्न होकर राजाको वर माँगनेके लिये कहना |
|
अध्याय 55: च्यवनका कुशिकके पूछनेपर उनके घरमें अपने निवासका कारण बताना और उन्हें वरदान देना |
|
अध्याय 56: च्यवन ऋषिका भृगुवंशी और कुशिक-वंशियोंके सम्बन्धका कारण बताकर तीर्थयात्राके लिये प्रस्थान |
|
अध्याय 57: विविध प्रकारके तप और दानोंका फल |
|
अध्याय 58: जलाशय बनानेका तथा बगीचे लगानेका फल |
|
अध्याय 59: भीष्मद्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणोंकी प्रशंसा करते हुए उनके सत्कारका उपदेश |
|
अध्याय 60: श्रेष्ठ अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन एवं गुणवान् को दान देनेका विशेष फल |
|
अध्याय 61: राजाके लिये यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजाकी रक्षाका उपदेश |
|
अध्याय 62: सब दानोंसे बढ़कर भूमिदानका महत्त्व तथा उसीके विषयमें इन्द्र और बृहस्पतिका सवाद |
|
अध्याय 63: अन्नदानका विशेष माहात्म्य |
|
अध्याय 64: विभिन्न नक्षत्रोंके योगमें भिन्न-भिन्न वस्तुओंके दानका माहात्म्य |
|
अध्याय 65: सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओंके दानकी महिमा |
|
अध्याय 66: जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्नके दानका माहात्म्य |
|
अध्याय 67: अन्न और जलके दानकी महिमा |
|
अध्याय 68: तिल, जल, दीप तथा रत्न आदिके दानका माहात्म्य—धर्मराज और ब्राह्मणका संवाद |
|
अध्याय 69: गोदानकी महिमा तथा गौओं और ब्राह्मणोंकी रक्षासे पुण्यकी प्राप्ति |
|
अध्याय 70: ब्राह्मणके धनका अपहरण करनेसे होनेवाली हानिके विषयमें दृष्टान्तके रूपमें राजा नृगका उपाख्यान |
|
अध्याय 71: पिताके शापसे नाचिकेतका यमराजके पास जाना और यमराजका नाचिकेतको गोदानकी महिमा बताना |
|
अध्याय 72: गौओंके लोक और गोदानविषयक युधिष्ठिर और इन्द्रके प्रश्न |
|
अध्याय 73: ब्रह्माजीका इन्द्रसे गोलोक और गोदानकी महिमा बताना |
|
अध्याय 74: दूसरोंकी गायको चुराकर देने या बेचनेसे दोष, गोहत्याके भयंकर परिणाम तथा गोदान एवं सुवर्ण-दीक्षणाका माहात्म्य |
|
अध्याय 75: व्रत, नियम, दम, सत्य, ब्रह्मचर्य, माता-पिता, गुरु आदिके सेवाकी महत्ता |
|
अध्याय 76: गोदानकी विधि, गौओंसे प्रार्थना, गौओंके निष्क्रय और गोदान करनेवाले नरेशोंके नाम |
|
अध्याय 77: कपिला गौओंकी उत्पत्ति और महिमाका वर्णन |
|
अध्याय 78: वसिष्ठका सौदासको गोदानकी विधि एवं महिमा बताना |
|
अध्याय 79: गौओंको तपस्याद्वारा अभीष्ट वरकी प्राप्ति तथा उनके दानकी महिमा, विभिन्न प्रकारके गौओंके दानसे विभिन्न उत्तम लोकोंमें गमनका कथन |
|
अध्याय 80: गौओं तथा गोदानकी महिमा |
|
अध्याय 81: गौओंका माहात्म्य तथा व्यासजीके द्वारा शुकदेवसे गौओंकी, गोलोककी और गोदानकी महत्ताका वर्णन |
|
अध्याय 82: लक्ष्मी और गौओंका संवाद तथा लक्ष्मीकी प्रार्थनापर गौओंके द्वारा गोबर और गोमूत्रमें लक्ष्मीको निवासके लिये स्थान दिया जाना |
|
अध्याय 83: ब्रह्माजीका इन्द्रसे गोलोक और गौओंका उत्कर्ष बताना और गौओंको वरदान देना |
|
अध्याय 84: भीष्मजीका अपने पिता शान्तनुके हाथमें पिण्ड न देकर कुशपर देना, सुवर्णकी उत्पत्ति और उसके दानकी महिमाके सम्बन्धमें वसिष्ठ और परशुरामका संवाद, पार्वतीका देवताओंको शाप, तारकासुरसे डरे हुए देवताओंका ब्रह्माजीकी शरणमें जाना |
|
अध्याय 85: ब्रह्माजीका देवताओंको आश्वासन, अग्निकी खोज, अग्निके द्वारा स्थापित किये हुए शिवके तेजसे संतप्त हो गंगाका उसे मेरुपर्वतपर छोड़ना, कार्ति केय और सुवर्णकी उत्पत्ति, वरुणरूपधारी महादेवजीके यज्ञमें अग्निसे ही प्रजापतियों और सुवर्णका प्रादुर्भाव, कार्ति केयद्वारा तारकासुरका वध |
|
अध्याय 86: कार्ति केयकी उत्पत्ति, पालन-पोषण और उनका देवसेनापति-पदपर अभिषेक, उनके द्वारा तारकासुरका वध |
|
अध्याय 87: विविध तिथियोंमें श्राद्ध करनेका फल |
|
अध्याय 88: श्राद्धमें पितरोंके तृप्तिविषयका वर्णन |
|
अध्याय 89: विभिन्न नक्षत्रोंमें श्राद्ध करनेका फल |
|
अध्याय 90: श्राद्धमें ब्राह्मणोंकी परीक्षा, पंक्तिदूषक और पंक्तिपावन ब्राह्मणोंका वर्णन, श्राद्धमें लाख मूर्ख ब्राह्मणोंको भोजन करानेकी अपेक्षा एक वेदवेत्ताको भोजन करानेकी श्रेष्ठताका कथन |
|
अध्याय 91: शोकातुर निमिका पुत्रके निमित्त पिण्डदान तथा श्राद्धके विषयमें निमिका महर्षि अत्रिका उपदेश, विश्वेदेवोंके नाम एवं श्राद्धमें त्याज्य वस्तुओंका वर्णन |
|
अध्याय 92: पितर और देवताओंका श्राद्धान्नसे अजीर्ण होकर ब्रह्माजीके पास जाना और अग्निके द्वारा अजीर्णका निवारण, श्राद्धसे तृप्त हुए पितरोंका आशीर्वाद |
|
अध्याय 93: गृहस्थके धर्मोंका रहस्य, प्रतिग्रहके दोष बतानेके लिये वृषादर्भि और सप्तर्षि योंकी कथा, भिक्षुरूपधारी इन्द्रके द्वारा कृत्याका वध करके सप्तर्षि योंकी रक्षा तथा कमलोंकी चोरीके विषयमें शपथ खानेके बहानेसे धर्मपालनका संकेत |
|
अध्याय 94: ब्रह्मसर तीर्थमें अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर ब्रह्मर्षि यों और राजर्षि योंकी धर्मोपदेशपूर्ण शपथ तथा धर्मज्ञानके उद्देश्यसे चुराये हुए कमलोंका वापस देना |
|
अध्याय 95: छत्र और उपानहकी उत्पत्ति एवं दानविषयक युधिष्ठिरका प्रश्न तथा सूर्यकी प्रचण्ड धूपसे रेणुकाका मस्तक और पैरोंके संतप्त होनेपर जमदग्निका सूर्यपर कुपित होना और विप्ररूपधारी सूर्यपर वार्तालाप |
|
अध्याय 96: छत्र और उपानहकी उत्पत्ति एवं दानकी प्रशंसा |
|
अध्याय 97: गृहस्थधर्म, पंचयज्ञ-कर्मके विषयमें पृथ्वीदेवी और भगवान् श्रीकृष्णका संवाद |
|
अध्याय 98: तपस्वी सुवर्ण और मनुका संवाद—पुष्प, धूप, दीप और उपहारके दानका माहात्म्य |
|
अध्याय 99: नहुषका ऋषियोंपर अत्याचार तथा उसके प्रतीकारके लिये महर्षि भृगु और अगस्त्यकी बातचीत |
|
अध्याय 100: नहुषका पतन, शतक्रतुका इन्द्रपदपर पुनः अभिषेक तथा दीपदानकी महिमा |
|
अध्याय 101: ब्राह्मणोंके धनका अपहरण करनेसे प्राप्त होनेवाले दोषके विषयमें क्षत्रिय और चाण्डालका संवाद तथा ब्रह्मस्वकी रक्षामें प्राणोत्सर्ग करनेसे चाण्डालको मोक्षकी प्राप्ति |
|
अध्याय 102: भिन्न-भिन्न कर्मोंके अनुसार भिन्न-भिन्न लोकोंकी प्राप्ति बतानेके लिये धृतराष्ट्र- रूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मणके संवादका उल्लेख |
|
अध्याय 103: ब्रह्माजी और भगीरथका संवाद, यज्ञ, तप, दान आदिसे भी अनशन-व्रतकी विशेष महिमा |
|
अध्याय 104: आयुकी वृद्धि और क्षय करनेवाले शुभाशुभ कर्मोंके वर्णनसे गृहस्थाश्रमके कर्तव्योंका विस्तारपूर्वक निरूपण |
|
अध्याय 105: बड़े और छोटे भाईके पारस्परिक बर्ताव तथा माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनोंके गौरवका वर्णन |
|
अध्याय 106: मास, पक्ष एवं तिथिसम्बन्धी विभिन्न व्रतोपवासके फलका वर्णन |
|
अध्याय 107: दरिद्रोंके लिये यज्ञतुल्य फल देनेवाले उपवास-व्रत और उसके फलका विस्तारपूर्वक वर्णन |
|
अध्याय 108: मानस तथा पार्थि व तीर्थकी महत्ता |
|
अध्याय 109: प्रत्येक मासकी द्वादशी तिथिको उपवास और भगवान् विष्णुकी पूजा करनेका विशेष माहात्म्य |
|
अध्याय 110: रूप-सौन्दर्य और लोकप्रियताकी प्राप्तिके लिये मार्गशीर्षमासमें चन्द्र-व्रत करनेका प्रतिपादन |
|
अध्याय 111: बृहस्पतिका युधिष्ठिरसे प्राणियोंके जन्मके प्रकारका और नानाविध पापोंके फलस्वरूप नरकादिकी प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियोंमें जन्म लेनेका वर्णन |
|
अध्याय 112: पापसे छूटनेके उपाय तथा अन्न-दानकी विशेष महिमा |
|
अध्याय 113: बृहस्पतिजीका युधिष्ठिरको अहिं सा एवं धर्मकी महिमा बताकर स्वर्गलोकको प्रस्थान |
|
अध्याय 114: हिं सा और मांसभक्षणकी घोर निन्दा |
|
अध्याय 115: मद्य और मांसके भक्षणमें महान् दोष, उनके त्यागकी महिमा एवं त्यागमें परम लाभका प्रतिपादन |
|
अध्याय 116: मांस न खानेसे लाभ और अहिं साधर्मकी प्रशंसा |
|
अध्याय 117: शुभ कर्मसे एक कीड़ेको पूर्व-जन्मकी स्मृति होना और कीट-योनिमें भी मृत्युका भय एवं सुखकी अनुभूति बताकर कीड़ेका अपने कल्याणका उपाय पूछना |
|
अध्याय 118: कीड़ेका क्रमशः क्षत्रिययोनिमें जन्म लेकर व्यासजीका दर्शन करना और व्यासजीका उसे ब्राह्मण होने तथा स्वर्गसुख और अक्षय सुखकी प्राप्ति होनेका वरदान देना |
|
अध्याय 119: कीड़ेका ब्राह्मणयोनिमें जन्म लेकर, ब्रह्मलोकमें जाकर सनातन ब्रह्मको प्राप्त करना |
|
अध्याय 120: व्यास और मैत्रेयका संवाद—दानकी प्रशंसा और कर्मका रहस्य |
|
अध्याय 121: व्यास-मैत्रेय-संवाद—विद्वान् एवं सदाचारी ब्राह्मणको अन्नदानकी प्रशंसा |
|
अध्याय 122: व्यास-मैत्रेय-संवाद—तपकी प्रशंसा तथा गृहस्थके उत्तम कर्तव्यका निर्देश |
|
अध्याय 123: शाण्डिली और सुमनाका संवाद—पतिव्रता स्त्रियोंके कर्तव्यका वर्णन |
|
अध्याय 124: नारदका पुण्डरीकको भगवान् नारायणकी आराधनाका उपदेश तथा उन्हें भगवद्धामकी प्राप्ति, सामगुणकी प्रशंसा, ब्राह्मणका राक्षसके सफेद और दुर्बल होनेका कारण बताना |
|
अध्याय 125: श्राद्धके विषयमें देवदूत और पितरोंका, पापोंसे छूटनेके विषयमें महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्रका, धर्मके विषयमें इन्द्र और बृहस्पतिका तथा वृषोत्सर्ग आदिके विषयमें देवताओं, ऋषियों और पितरोंका संवाद |
|
अध्याय 126: विष्णु, बलदेव, देवगण, धर्म, अग्नि, विश्वामित्र, गोसमुदाय और ब्रह्माजीके द्वारा धर्मके गूढ़ रहस्यका वर्णन |
|
अध्याय 127: अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्निके द्वारा धर्मके रहस्यका वर्णन |
|
अध्याय 128: वायुके द्वारा धर्माधर्मके रहस्यका वर्णन |
|
अध्याय 129: लोमशद्वारा धर्मके रहस्यका वर्णन |
|
अध्याय 130: अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्तद्वारा धर्मसम्बन्धी रहस्यका वर्णन |
|
अध्याय 131: प्रमथगणोंके द्वारा धर्माधर्मसम्बन्धी रहस्यका कथन |
|
अध्याय 132: दिग्गजोंका धर्मसम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव |
|
अध्याय 133: महादेवजीका धर्मसम्बन्धी रहस्य |
|
अध्याय 134: स्कन्ददेवका धर्मसम्बन्धी रहस्य तथा भगवान् विष्णु और भीष्मजीके द्वारा माहात्म्यका वर्णन |
|
अध्याय 135: जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्योंका वर्णन |
|
अध्याय 136: दान लेने और अनुचित भोजन करनेका प्रायश्चित्त |
|
अध्याय 137: दानसे स्वर्गलोकमें जानेवाले राजाओंका वर्णन |
|
अध्याय 138: पाँच प्रकारके दानोंका वर्णन |
|
अध्याय 139: तपस्वी श्रीकृष्णके पास ऋषियोंका आना, उनका प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना |
|
अध्याय 140: नारदजीके द्वारा हिमालय पर्वतपर भूतगणोंके सहित शिवजीकी शोभाका विस्तृत वर्णन, पार्वतीका आगमन, शिवजीकी दोनों आँखोंको अपने हाथोंसे बंद करना और तीसरे नेत्रका प्रकट होना, हिमालयका भस्म होना और पुनः प्राकृत अवस्थामें हो जाना तथा शिव-पार्वतीके धर्मविषयक संवादकी उत्थापना |
|
अध्याय 141: शिव-पार्वतीका धर्मविषयक संवाद—वर्णाश्रमधर्मसम्बन्धी आचार एवं प्रवृत्ति- निवृत्तिरूप धर्मका निरूपण |
|
अध्याय 142: उमा-महेश्वर-संवाद, वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालनकी विधि और महिमा |
|
अध्याय 143: ब्राह्मणादि वर्णोंकी प्राप्तिमें मनुष्यके शुभाशुभ कर्मोंकी प्रधानताका प्रतिपादन |
|
अध्याय 144: बन्धन-मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करनेवाले शरीर, वाणी और मनद्वारा किये जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन |
|
अध्याय 145: स्वर्ग और नरक तथा उत्तम और अधम कुलमें जन्मकी प्राप्ति करानेवाले कर्मोंका वर्णन |
|
अध्याय 146: पार्वतीजीके द्वारा स्त्री-धर्मका वर्णन |
|
अध्याय 147: वंशपरम्पराका कथन और भगवान् श्रीकृष्णके माहात्म्यका वर्णन |
|
अध्याय 148: भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका वर्णन और भीष्मजीका युधिष्ठिरको राज्य करनेके लिये आदेश देना |
|
अध्याय 149: श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् |
|
अध्याय 150: जपनेयोग्य मन्त्र और सबेरे-शाम कीर्तन करनेयोग्य देवता, ऋषियों और राजाओंके मंगलमय नामोंका कीर्तन-माहात्म्य तथा गायत्री-जपका फल |
|
अध्याय 151: ब्राह्मणोंकी महिमाका वर्णन |
|
अध्याय 152: कार्तवीर्य अर्जुनको दत्तात्रेयजीसे चार वरदान प्राप्त होनेका एवं उनमें अभिमानकी उत्पत्तिका वर्णन तथा ब्राह्मणोंकी महिमाके विषयमें कार्तवीर्य अर्जुन और वायुदेवताके संवादका उल्लेख |
|
अध्याय 153: वायुद्वारा उदाहरणसहित ब्राह्मणोंकी महत्ताका वर्णन |
|
अध्याय 154: ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्यके प्रभावका वर्णन |
|
अध्याय 155: ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठके प्रभावका वर्णन |
|
अध्याय 156: अत्रि और च्यवन ऋषिके प्रभावका वर्णन |
|
अध्याय 157: कप नामक दानवोंके द्वारा स्वर्गलोकपर अधिकार जमा लेनेपर ब्राह्मणोंका कपोंको भस्म कर देना, वायुदेव और कार्तवीर्य अर्जुनके संवादका उपसंहार |
|
अध्याय 158: भीष्मजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका वर्णन |
|
अध्याय 159: श्रीकृष्णका प्रद्युम्नको ब्राह्मणोंकी महिमा बताते हुए दुर्वासाके चरित्रका वर्णन करना और यह सारा प्रसंग युधिष्ठिरको सुनाना |
|
अध्याय 160: श्रीकृष्णद्वारा भगवान् शंकरके माहात्म्यका वर्णन |
|
अध्याय 161: भगवान् शंकरके माहात्म्यका वर्णन |
|
अध्याय 162: धर्मके विषयमें आगम-प्रमाणकी श्रेष्ठता, धर्माधर्मके फल, साधु-असाधुके लक्षण तथा शिष्टाचारका निरूपण |
|
अध्याय 163: युधिष्ठिरका विद्या, बल और बुद्धिकी अपेक्षा भाग्यकी प्रधानता बताना और भीष्मजीद्वारा उसका उत्तर |
|
अध्याय 164: भीष्मका शुभाशुभ कर्मोंको ही सुख-दुःखकी प्राप्तिमें कारण बताते हुए धर्मके अनुष्ठानपर जोर देना |
|
अध्याय 165: नित्य स्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओंके नाम-कीर्तनका माहात्म्य |
|
अध्याय 166: भीष्मकी अनुमति पाकर युधिष्ठिरका सपरिवार हस्तिनापुरको प्रस्थान |
|
|
|
उपपर्व: भीष्मस्वर्गारोहण पर्व |
अध्याय 167: भीष्मके अन्त्येष्टि-संस्कारकी सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदिका उनके पास जाना और भीष्मका श्रीकृष्ण आदिसे देह-त्यागकी अनुमति लेते हुए धृतराष्ट्र और युधिष्ठिरको कर्तव्यका उपदेश देना |
|
अध्याय 168: भीष्मजीका प्राणत्याग, धृतराष्ट्र आदिके द्वारा उनका दाह-संस्कार, कौरवोंका गंगाके जलसे भीष्मको जलांजलि देना, गंगाजीका प्रकट होकर पुत्रके लिये शोक करना और श्रीकृष्णका उन्हें समझाना |
|