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उपपर्व: सेनोद्योग पर्व |
अध्याय 1: राजा विराटकी सभामें भगवान् श्रीकृष्णका भाषण |
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अध्याय 2: बलरामजीका भाषण |
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अध्याय 3: सात्यकिके वीरोचित उद् गार |
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अध्याय 4: राजा द्रुपदकी सम्मति |
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अध्याय 5: भगवान् श्रीकृष्णका द्वारकागमन, विराट और द्रुपदके संदेशसे राजाओंका पाण्डवपक्षकी ओरसे युद्धके लिये आगमन |
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अध्याय 6: द्रुपदका पुरोहितको दौत्यकर्मके लिये अनुमति देना तथा पुरोहितका हस्तिनापुरको प्रस्थान |
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अध्याय 7: श्रीकृष्णका दुर्योधन तथा अर्जुन दोनोंको सहायता देना |
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अध्याय 8: शल्यका दुर्योधनके सत्कारसे प्रसन्न हो उसे वर देना और युधिष्ठिरसे मिलकर उन्हें आश्वासन देना |
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अध्याय 9: इन्द्रके द्वारा त्रिशिराका वध, वृत्रासुरकी उत्पत्ति, उसके साथ इन्द्रका युद्ध तथा देवताओंकी पराजय |
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अध्याय 10: इन्द्रसहित देवताओंका भगवान् विष्णुकी शरणमें जाना और इन्द्रका उनके आज्ञानुसार वृत्रासुरसे संधि करके अवसर पाकर उसे मारना एवं ब्रह्महत्याके भयसे जलमें छिपना |
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अध्याय 11: देवताओं तथा ऋषियोंके अनुरोधसे राजा नहुषका इन्द्रके पदपर अभिषिक्त होना एवं काम-भोगमें आसक्त होना और चिन्तामें पड़ी हुई इन्द्राणीको बृहस्पतिका आश्वासन |
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अध्याय 12: देवता-नहुष-संवाद, बृहस्पतिके द्वारा इन्द्राणीकी रक्षा तथा इन्द्राणीका नहुषके पास कुछ समयकी अवधि माँगनेके लिये जाना |
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अध्याय 13: नहुषका इन्द्राणीको कुछ कालकी अवधि देना, इन्द्रका ब्रह्महत्यासे उद्धार तथा शचीद्वारा रात्रिदेवीकी उपासना |
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अध्याय 14: उपश्रुति देवीकी सहायतासे इन्द्राणीकी इन्द्रसे भेंट |
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अध्याय 15: इन्द्रकी आज्ञासे इन्द्राणीके अनुरोधपर नहुषका ऋषियोंको अपना वाहन बनाना तथा बृहस्पति और अग्निका संवाद |
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अध्याय 16: बृहस्पतिद्वारा अग्नि और इन्द्रका स्तवन तथा बृहस्पति एवं लोकपालोंकी इन्द्रसे बातचीत |
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अध्याय 17: अगस्त्यजीका इन्द्रसे नहुषके पतनका वृत्तान्त बताना |
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अध्याय 18: इन्द्रका स्वर्गमें जाकर अपने राज्यका पालन करना, शल्यका युधिष्ठिरको आश्वासन देना और उनसे विदा लेकर दुर्योधनके यहाँ जाना |
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अध्याय 19: युधिष्ठिर और दुर्योधनके यहाँ सहायताके लिये आयी हुई सेनाओंका संक्षिप्त विवरण |
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उपपर्व: संजययान पर्व |
अध्याय 20: द्रुपदके पुरोहितका कौरवसभामें भाषण |
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अध्याय 21: भीष्मके द्वारा द्रुपदके पुरोहितकी बातका समर्थन करते हुए अर्जुनकी प्रशंसा करना, इसके विरुद्ध कर्णके आक्षेपपूर्ण वचन तथा धृतराष्ट्रद्वारा भीष्मकी बातका समर्थन करते हुए दूतको सम्मानित करके विदा करना |
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अध्याय 22: धृतराष्ट्रका संजयसे पाण्डवोंके प्रभाव और प्रतिभाका वर्णन करते हुए उसे संदेश देकर पाण्डवोंके पास भेजना |
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अध्याय 23: संजयका युधिष्ठिरसे मिलकर उनकी कुशल पूछना एवं युधिष्ठिरका संजयसे कौरवपक्षका कुशल-समाचार पूछते हुए उससे सारगर्भि त प्रश्न करना |
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अध्याय 24: संजयका युधिष्ठिरको उनके प्रश्नोंका उत्तर देते हुए उन्हें राजा धृतराष्ट्रका संदेश सुनानेकी प्रतिज्ञा करना |
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अध्याय 25: संजयका युधिष्ठिरको धृतराष्ट्रका संदेश सुनाना एवं अपनी ओरसे भी शान्तिके लिये प्रार्थना करना |
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अध्याय 26: युधिष्ठिरका संजयको इन्द्रप्रस्थ लौटानेसे ही शान्ति होना सम्भव बतलाना |
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अध्याय 27: संजयका युधिष्ठिरको युद्धमें दोषकी सम्भावना बतलाकर उन्हें युद्धसे उपरत करनेका प्रयत्न करना |
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अध्याय 28: संजयको युधिष्ठिरका उत्तर |
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अध्याय 29: संजयकी बातोंका प्रत्युत्तर देते हुए श्रीकृष्णका उसे धृतराष्ट्रके लिये चेतावनी देना |
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अध्याय 30: संजयकी विदाई तथा युधिष्ठिरका संदेश |
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अध्याय 31: युधिष्ठिरका मुख्य-मुख्य कुरुवंशियोंके प्रति संदेश |
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अध्याय 32: अर्जुनद्वारा कौरवोंके लिये संदेश देना, संजयका हस्तिनापुर जा धृतराष्ट्रसे मिलकर उन्हें युधिष्ठिरका कुशल-समाचार कहकर धृतराष्ट्रके कार्यकी निन्दा करना |
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उपपर्व: प्रजागर पर्व |
अध्याय 33: धृतराष्ट्र-विदुर-संवाद |
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अध्याय 34: धृतराष्ट्रके प्रति विदुरजीके नीतियुक्त वचन |
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अध्याय 35: विदुरके द्वारा केशिनीके लिये सुधन्वाके साथ विरोचनके विवादका वर्णन करते हुए धृतराष्ट्रको धर्मोपदेश |
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अध्याय 36: दत्तात्रेय और साध्य देवताओंके संवादका उल्लेख करके महाकुलीन लोगोंका बतलाते हुए विदुरका धृतराष्ट्रको लक्षण समझाना |
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अध्याय 37: धृतराष्ट्रके प्रति विदुरजीका हितोपदेश |
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अध्याय 38: विदुरजीका नीतियुक्त उपदेश |
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अध्याय 39: धृतराष्ट्रके प्रति विदुरजीका नीतियुक्त उपदेश |
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अध्याय 40: धर्मकी महत्ताका प्रतिपादन तथा ब्राह्मण आदि चारों वर्णोंके धर्मका संक्षिप्त वर्णन |
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उपपर्व: सनत्सुजात पर्व |
अध्याय 41: विदुरजीके द्वारा स्मरण करनेपर आये हुए सनत्सुजात ऋषिसे धृतराष्ट्रको उपदेश देनेके लिये उनकी प्रार्थना |
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अध्याय 42: सनत्सुजातजीके द्वारा धृतराष्ट्रके विविध प्रश्नोंका उत्तर |
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अध्याय 43: ब्रह्मज्ञानमें उपयोगी मौन, तप, त्याग, अप्रमाद एवं दम आदिके लक्षण तथा मदादि दोषोंका निरूपण |
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अध्याय 44: ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्मका निरूपण |
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अध्याय 45: गुण-दोषोंके लक्षणोंका वर्णन और ब्रह्मविद्याका प्रतिपादन |
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अध्याय 46: परमात्माके स्वरूपका वर्णन और योगीजनोंके द्वारा उनके साक्षात्कारका प्रतिपादन |
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उपपर्व: यानसंधि पर्व |
अध्याय 47: पाण्डवोंके यहाँसे लौटे हुए संजयका कौरव-सभामें आगमन |
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अध्याय 48: संजयका कौरवसभामें अर्जुनका संदेश सुनाना |
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अध्याय 49: भीष्मका दुर्योधनको संधिके लिये समझाते हुए श्रीकृष्ण और अर्जुनकी महिमा बताना एवं कर्णपर आक्षेप करना, कर्णकी आत्मप्रशंसा, भीष्मके द्वारा उसका पुनः उपहास एवं द्रोणाचार्यद्वारा भीष्मजीके कथनका अनुमोदन |
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अध्याय 50: संजयद्वारा युधिष्ठिरके प्रधान सहायकोंका वर्णन |
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अध्याय 51: भीमसेनके पराक्रमसे डरे हुए धृतराष्ट्रका विलाप |
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अध्याय 52: धृतराष्ट्रद्वारा अर्जुनसे प्राप्त होनेवाले भयका वर्णन |
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अध्याय 53: कौरवसभामें धृतराष्ट्रका युद्धसे भय दिखाकर शान्तिके लिये प्रस्ताव करना |
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अध्याय 54: संजयका धृतराष्ट्रको उनके दोष बताते हुए दुर्योधनपर शासन करनेकी सलाह देना |
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अध्याय 55: धृतराष्ट्रको धैर्य देते हुए दुर्योधनद्वारा अपने उत्कर्ष और पाण्डवोंके अपकर्षका वर्णन |
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अध्याय 56: संजयद्वारा अर्जुनके ध्वज एवं अश्वोंका तथा युधिष्ठिर आदिके घोड़ोंका वर्णन |
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अध्याय 57: संजयद्वारा पाण्डवोंकी युद्धविषयक तैयारीका वर्णन, धृतराष्ट्रका विलाप, दुर्योधनद्वारा अपनी प्रबलताका प्रतिपादन, धृतराष्ट्रका उसपर अविश्वास तथा संजयद्वारा धृष्टद्युम्नकी शक्ति एवं संदेशका कथन |
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अध्याय 58: धृतराष्ट्रका दुर्योधनको संधिके लिये समझाना, दुर्योधनका अहंकारपूर्वक पाण्डवोंसे युद्ध करनेका ही निश्चय तथा धृतराष्ट्रका अन्य योद्धाओंको युद्धसे भय दिखाना |
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अध्याय 59: संजयका धृतराष्ट्रके पूछनेपर उन्हें श्रीकृष्ण और अर्जुनके अन्तःपुरमें कहे हुए संदेश सुनाना |
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अध्याय 60: धृतराष्ट्रके द्वारा कौरव-पाण्डवोंकी शक्तिका तुलनात्मक वर्णन |
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अध्याय 61: दुर्योधनद्वारा आत्मप्रशंसा |
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अध्याय 62: कर्णकी आत्मप्रशंसा, भीष्मके द्वारा उसपर आक्षेप, कर्णका सभा त्यागकर जाना और भीष्मका उसके प्रति पुनः आक्षेपयुक्त वचन कहना |
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अध्याय 63: दुर्योधनद्वारा अपने पक्षकी प्रबलताका वर्णन करना और विदुरका दमकी महिमा बताना |
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अध्याय 64: विदुरका कौटुम्बिक कलहसे हानि बताते हुए धृतराष्ट्रको संधिकी सलाह देना |
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अध्याय 65: धृतराष्ट्रका दुर्योधनको समझाना |
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अध्याय 66: संजयका धृतराष्ट्रको अर्जुनका संदेश सुनाना |
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अध्याय 67: धृतराष्ट्रके पास व्यास और गान्धारीका आगमन तथा व्यासजीका संजयको श्रीकृष्ण और अर्जुनके सम्बन्धमें कुछ कहनेका आदेश |
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अध्याय 68: संजयका धृतराष्ट्रको भगवान् श्रीकृष्णकी महिमा बतलाना |
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अध्याय 69: संजयका धृतराष्ट्रको श्रीकृष्ण-प्राप्ति एवं तत्त्वज्ञानका साधन बताना |
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अध्याय 70: भगवान् श्रीकृष्णके विभिन्न नामोंकी व्युत्पत्तियोंका कथन |
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अध्याय 71: धृतराष्ट्रके द्वारा भगवद् गुणगान |
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उपपर्व: भगवद्यान पर्व |
अध्याय 72: युधिष्ठिरका श्रीकृष्णसे अपना अभिप्राय निवेदन करना, श्रीकृष्णका शान्तिदूत बनकर कौरव-सभामें जानेके लिये उद्यत होना और इस विषयमें उन दोनोंका वार्तालाप |
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अध्याय 73: श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको युद्धके लिये प्रोत्साहन देना |
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अध्याय 74: भीमसेनका शान्तिविषयक प्रस्ताव |
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अध्याय 75: श्रीकृष्णका भीमसेनको उत्तेजित करना |
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अध्याय 76: भीमसेनका उत्तर |
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अध्याय 77: श्रीकृष्णका भीमसेनको आश्वासन देना |
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अध्याय 78: अर्जुनका कथन |
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अध्याय 79: श्रीकृष्णका अर्जुनको उत्तर देना |
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अध्याय 80: नकुलका निवेदन |
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अध्याय 81: युद्धके लिये सहदेव तथा सात्यकिकी सम्मति और समस्त योद्धाओंका समर्थन |
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अध्याय 82: द्रौपदीका श्रीकृष्णसे अपना दुःख सुनाना और श्रीकृष्णका उसे आश्वासन देना |
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अध्याय 83: श्रीकृष्णका हस्तिनापुरको प्रस्थान, युधिष्ठिरका माता कुन्ती एवं कौरवोंके लिये संदेश तथा श्रीकृष्णको मार्गमें दिव्य महर्षि योंका दर्शन |
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अध्याय 84: मार्गके शुभाशुभ शकुनोंका वर्णन तथा मार्गमें लोगोंद्वारा सत्कार पाते हुए श्रीकृष्णका वृकस्थल पहुँचकर वहाँ विश्राम करना |
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अध्याय 85: दुर्योधनका धृतराष्ट्र आदिकी अनुमतिसे श्रीकृष्णके स्वागत-सत्कारके लिये मार्गमें विश्रामस्थान बनवाना |
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अध्याय 86: धृतराष्ट्रका भगवान् श्रीकृष्णकी अगवानी करके उन्हें भेंट देने एवं दुःशासनके महलमें ठहरानेका विचार प्रकट करना |
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अध्याय 87: विदुरका धृतराष्ट्रको श्रीकृष्णकी आज्ञाका पालन करनेके लिये समझाना |
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अध्याय 88: दुर्योधनका श्रीकृष्णके विषयमें अपने विचार कहना एवं उसकी कुमन्त्रणासे कुपित हो भीष्मजीका सभासे उठ जाना |
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अध्याय 89: श्रीकृष्णका स्वागत, धृतराष्ट्र तथा विदुरके घरोंपर उनका आतिथ्य |
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अध्याय 90: श्रीकृष्णका कुन्तीके समीप जाना एवं युधिष्ठिरका कुशल-समाचार पूछकर अपने दुःखोंका स्मरण करके विलाप करती हुई कुन्तीको आश्वासन देना |
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अध्याय 91: श्रीकृष्णका दुर्योधनके घर जाना एवं उसके निमन्त्रणको अस्वीकार करके विदुरजीके घरपर भोजन करना |
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अध्याय 92: विदुरजीका धृतराष्ट्रपुत्रोंकी दुर्भावना बताकर श्रीकृष्णको उनके कौरवसभामें जानेका अनौचित्य बतलाना |
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अध्याय 93: श्रीकृष्णका कौरव-पाण्डवोंमें संधिस्थापनके प्रयत्नका औचित्य बताना |
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अध्याय 94: दुर्योधन एवं शकुनिके द्वारा बुलाये जानेपर भगवान् श्रीकृष्णका रथपर बैठकर प्रस्थान एवं कौरवसभामें प्रवेश और स्वागतके पश्चात् आसनग्रहण |
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अध्याय 95: कौरवसभामें श्रीकृष्णका प्रभावशाली भाषण |
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अध्याय 96: परशुरामजीका दम्भोद्भवकी कथाद्वारा नर-नारायणस्वरूप अर्जुन और श्रीकृष्णका महत्त्व वर्णन करना |
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अध्याय 97: कण्व मुनिका दुर्योधनको संधिके लिये समझाते हुए मातलिका उपाख्यान आरम्भ करना |
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अध्याय 98: मातलिका अपनी पुत्रीके लिये वर खोजनेके निमित्त नारदजीके साथ वरुणलोकमें भ्रमण करते हुए अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना |
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अध्याय 99: नारदजीके द्वारा पाताललोकका प्रदर्शन |
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अध्याय 100: हिरण्यपुरका दिग्दर्शन और वर्णन |
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अध्याय 101: गरुड़लोक तथा गरुड़की संतानोंका वर्णन |
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अध्याय 102: सुरभि और उसकी संतानोंके साथ रसातलके सुखका वर्णन |
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अध्याय 103: नागलोकके नागोंका वर्णन और मातलिका नागकुमार सुमुखके साथ अपनी कन्याको ब्याहनेका निश्चय |
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अध्याय 104: नारदजीका नागराज आर्यकके सम्मुख सुमुखके साथ मातलिकी कन्याके विवाहका प्रस्ताव एवं मातलिका नारदजी, सुमुख एवं आर्यकके साथ इन्द्रके पास आकर उनके द्वारा सुमुखको दीर्घायु प्रदान कराना तथा सुमुख-गुणकेशी-विवाह |
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अध्याय 105: भगवान् विष्णुके द्वारा गरुड़का गर्वभंजन तथा दुर्योधनद्वारा कण्वमुनिके उपदेशकी अवहेलना |
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अध्याय 106: नारदजीका दुर्योधनको समझाते हुए धर्मराजके द्वारा विश्वामित्रजीकी परीक्षा तथा गालवके विश्वामित्रसे गुरुदक्षिणा माँगनेके लिये हठका वर्णन |
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अध्याय 107: गालवकी चिन्ता और गरुड़का आकर उन्हें आश्वासन देना |
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अध्याय 108: गरुड़का गालवसे पूर्व दिशाका वर्णन करना |
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अध्याय 109: दक्षिण दिशाका वर्णन |
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अध्याय 110: पश्चिम दिशाका वर्णन |
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अध्याय 111: उत्तर दिशाका वर्णन |
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अध्याय 112: गरुड़की पीठपर बैठकर पूर्व दिशाकी ओर जाते हुए गालवका उनके वेगसे व्याकुल होना |
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अध्याय 113: ऋषभ पर्वतके शिखरपर महर्षि गालव और गरुड़की तपस्विनी शाण्डिलीसे भेंट तथा गरुड़ और गालवका गुरुदक्षिणा चुकानेके विषयमें परस्पर विचार |
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अध्याय 114: गरुड़ और गालवका राजा ययातिके यहाँ जाकर गुरुको देनेके लिये श्यामकर्ण घोड़ोंकी याचना करना |
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अध्याय 115: राजा ययातिका गालवको अपनी कन्या देना और गालवका उसे लेकर अयोध्यानरेशके यहाँ जाना |
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अध्याय 116: हर्यश्वका दो सौ श्यामकर्ण घोड़े देकर ययाति-कन्याके गर्भसे वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना और गालवका इस कन्याके साथ वहाँसे प्रस्थान |
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अध्याय 117: दिवोदासका ययातिकन्या माधवीके गर्भसे प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना |
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अध्याय 118: उशीनरका ययातिकन्या माधवीके गर्भसे शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना, गालवका उस कन्याको साथ लेकर जाना और मार्गमें गरुड़का दर्शन करना |
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अध्याय 119: गालवका छः सौ घोड़ोंके साथ माधवीको विश्वामित्रजीकी सेवामें देना और उनके द्वारा उसके गर्भसे अष्टक नामक पुत्रकी उत्पत्ति होनेके बाद उस कन्याको ययातिके यहाँ लौटा देना |
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अध्याय 120: माधवीका वनमें जाकर तप करना तथा ययातिका स्वर्गमें जाकर सुखभोगके पश्चात् मोहवश तेजोहीन होना |
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अध्याय 121: ययातिका स्वर्गलोकसे पतन और उनके दौहित्रों, पुत्री तथा गालव मुनिका उन्हें पुनः स्वर्गलोकमें पहुँचानेके लिये अपना-अपना पुण्य देनेके लिये उद्यत होना |
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अध्याय 122: सत्संग एवं दौहित्रोंके पुण्यदानसे ययातिका पुनः स्वर्गारोहण |
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अध्याय 123: स्वर्गलोकमें ययातिका स्वागत, ययातिके पूछनेपर ब्रह्माजीका अभिमानको ही पतनका कारण बताना तथा नारदजीका दुर्योधनको समझाना |
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अध्याय 124: धृतराष्ट्रके अनुरोधसे भगवान् श्रीकृष्णका दुर्योधनको समझाना |
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अध्याय 125: भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्रका दुर्योधनको समझाना |
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अध्याय 126: भीष्म और द्रोणका दुर्योधनको पुनः समझाना |
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अध्याय 127: श्रीकृष्णको दुर्योधनका उत्तर, उसका पाण्डवोंको राज्य न देनेका निश्चय |
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अध्याय 128: श्रीकृष्णका दुर्योधनको फटकारना और उसे कुपित होकर सभासे जाते देख उसे कैद करनेकी सलाह देना |
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अध्याय 129: धृतराष्ट्रका गान्धारीको बुलाना और उसका दुर्योधनको समझाना |
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अध्याय 130: दुर्योधनके षड् यन्त्रका सात्यकिद्वारा भंडाफोड़, श्रीकृष्णकी सिं हगर्जना तथा धृतराष्ट्र और विदुरका दुर्योधनको पुनः समझाना |
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अध्याय 131: भगवान् श्रीकृष्णका विश्वरूप दर्शन कराकर कौरवसभासे प्रस्थान |
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अध्याय 132: श्रीकृष्णके पूछनेपर कुन्तीका उन्हें पाण्डवोंसे कहनेके लिये संदेश देना |
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अध्याय 133: कुन्तीके द्वारा विदुलोपाख्यानका आरम्भ, विदुलाका रणभूमिसे भागकर आये हुए अपने पुत्रको कड़ी फटकार देकर पुनः युद्धके लिये उत्साहित करना |
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अध्याय 134: विदुलाका अपने पुत्रको युद्धके लिये उत्साहित करना |
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अध्याय 135: विदुला और उसके पुत्रका संवाद—विदुलाके द्वारा कार्यमें सफलता प्राप्त करने तथा शत्रुवशीकरणके उपायोंका निर्देश |
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अध्याय 136: विदुलाके उपदेशसे उसके पुत्रका युद्धके लिये उद्यत होना |
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अध्याय 137: कुन्तीका पाण्डवोंके लिये संदेश देना और श्रीकृष्णका उनसे विदा लेकर उपप्लव्य नगरमें जाना |
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अध्याय 138: भीष्म और द्रोणका दुर्योधनको समझाना |
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अध्याय 139: भीष्मसे वार्तालाप आरम्भ करके द्रोणाचार्यका दुर्योधनको पुनः संधिके लिये समझाना |
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अध्याय 140: भगवान् श्रीकृष्णका कर्णको पाण्डवपक्षमें आ जानेके लिये समझाना |
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अध्याय 141: कर्णका दुर्योधनके पक्षमें रहनेके निश्चित विचारका प्रतिपादन करते हुए समरयज्ञके रूपकका वर्णन करना |
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अध्याय 142: भगवान् श्रीकृष्णका कर्णसे पाण्डवपक्षकी निश्चित विजयका प्रतिपादन |
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अध्याय 143: कर्णके द्वारा पाण्डवोंकी विजय और कौरवोंकी पराजय सूचित करनेवाले लक्षणों एवं अपने स्वप्नका वर्णन |
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अध्याय 144: विदुरकी बात सुनकर युद्धके भावी दुष्परिणामसे व्यथित हुई कुन्तीका बहुत सोच-विचारके बाद कर्णके पास जाना |
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अध्याय 145: कुन्तीका कर्णको अपना प्रथम पुत्र बताकर उससे पाण्डवपक्षमें मिल जानेका अनुरोध |
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अध्याय 146: कर्णका कुन्तीको उत्तर तथा अर्जुनको छोड़कर शेष चारों पाण्डवोंको न मारनेकी प्रतिज्ञा |
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अध्याय 147: युधिष्ठिरके पूछनेपर श्रीकृष्णका कौरवसभामें व्यक्त किये हुए भीष्मजीके वचन सुनाना |
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अध्याय 148: द्रोणाचार्य, विदुर तथा गान्धारीके बुद्धियुक्त एवं महत्त्वपूर्ण वचनोंका भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा कथन |
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अध्याय 149: दुर्योधनके प्रति धृतराष्ट्रके युक्तिसंगत वचन—पाण्डवोंको आधा राजा देनेके लिये आदेश |
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अध्याय 150: श्रीकृष्णका कौरवोंके प्रति साम, दान और भेदनीतिके प्रयोगकी असफलता बताकर दण्डके प्रयोगपर जोर देना |
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उपपर्व: सैन्यनिर्याण पर्व |
अध्याय 151: पाण्डवपक्षके सेनापतिका चुनाव तथा पाण्डव-सेनाका कुरुक्षेत्रमें प्रवेश |
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अध्याय 152: कुरुक्षेत्रमें पाण्डव-सेनाका पड़ाव तथा शिविर-निर्माण |
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अध्याय 153: दुर्योधनका सेनाको सुसज्जित होने और शिविर-निर्माण करनेके लिये आज्ञा देना तथा सैनिकोंकी रणयात्राके लिये तैयारी |
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अध्याय 154: युधिष्ठिरका भगवान् श्रीकृष्णसे अपने समयोचित कर्तव्यके विषयमें पूछना, भगवान् का युद्धको ही कर्तव्य बताना तथा इस विषयमें युधिष्ठिरका संताप और अर्जुनद्वारा श्रीकृष्णके वचनोंका समर्थन |
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अध्याय 155: दुर्योधनके द्वारा सेनाओंका विभाजन और पृथक्-पृथक् अक्षौहिणियोंके सेनापतियोंका अभिषेक |
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अध्याय 156: दुर्योधनके द्वारा भीष्मजीका प्रधान सेनापतिके पदपर अभिषेक और कुरुक्षेत्रमें पहुँचकर शिविर-निर्माण |
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अध्याय 157: युधिष्ठिरके द्वारा अपने सेनापतियोंका अभिषेक, यदुवंशियोंसहित बलरामजीका आगमन तथा पाण्डवोंसे विदा लेकर उनका तीर्थयात्राके लिये प्रस्थान |
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अध्याय 158: रुक्मीका सहायता देनेके लिये आना; परंतु पाण्डव और कौरव दोनों पक्षोंके द्वारा कोरा उत्तर पाकर लौट जाना |
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अध्याय 159: धृतराष्ट्र और संजयका संवाद |
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उपपर्व: उलूकदूतागमन पर्व |
अध्याय 160: दुर्योधनका उलूकको दूत बनाकर पाण्डवोंके पास भेजना और उनसे कहनेके लिये संदेश देना |
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अध्याय 161: पाण्डवोंके शिविरमें पहुँचकर उलूकका भरी सभामें दुर्योधनका संदेश सुनाना |
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अध्याय 162: पाण्डवपक्षकी ओरसे दुर्योधनको उसके संदेशका उत्तर |
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अध्याय 163: पाँचों पाण्डवों, विराट, द्रुपद, शिखण्डी और धृष्टद्युम्नका संदेश लेकर उलूकका लौटना और उलूककी बात सुनकर दुर्योधनका सेनाको युद्धके लिये तैयार होनेका आदेश देना |
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अध्याय 164: पाण्डव-सेनाका युद्धके मैदानमें जाना और धृष्टद्युम्नके द्वारा योद्धाओंकी अपने- अपने योग्य विपक्षियोंके साथ युद्ध करनेके लिये नियुक्ति |
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उपपर्व: रथातिरथसंख्यान पर्व |
अध्याय 165: दुर्योधनके पूछनेपर भीष्मका कौरवपक्षके रथियों और अतिरथियोंका परिचय देना |
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अध्याय 166: कौरवपक्षके रथियोंका परिचय |
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अध्याय 167: कौरवपक्षके रथी, महारथी और अतिरथियोंका वर्णन |
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अध्याय 168: कौरवपक्षके रथियों और अतिरथियोंका वर्णन, कर्ण और भीष्मका रोषपूर्वक संवाद तथा दुर्योधनद्वारा उसका निवारण |
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अध्याय 169: पाण्डवपक्षके रथी आदिका एवं उनकी महिमाका वर्णन |
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अध्याय 170: पाण्डवपक्षके रथियों और महारथियोंका वर्णन तथा विराट और द्रुपदकी प्रशंसा |
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अध्याय 171: पाण्डवपक्षके रथी, महारथी एवं अतिरथी आदिका वर्णन |
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अध्याय 172: भीष्मका पाण्डवपक्षके अतिरथी वीरोंका वर्णन करते हुए शिखण्डी और पाण्डवोंका वध न करनेका कथन |
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उपपर्व: अम्बोपाख्यान पर्व |
अध्याय 173: अम्बोपाख्यानका आरम्भ—भीष्मजीके द्वारा काशिराजकी कन्याओंका अपहरण |
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अध्याय 174: अम्बाका शाल्वराजके प्रति अपना अनुराग प्रकट करके उनके पास जानेके लिये भीष्मसे आज्ञा माँगना |
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अध्याय 175: अम्बाका शाल्वके यहाँ जाना और उससे परित्यक्त होकर तापसोंके आश्रममें आना, वहाँ शैखावत्य और अम्बाका संवाद |
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अध्याय 176: तापसोंके आश्रममें राजर्षि होत्रवाहन और अकृतव्रणका आगमन तथा उनसे अम्बाकी बातचीत |
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अध्याय 177: अकृतव्रण और परशुरामजीकी अम्बासे बातचीत |
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अध्याय 178: अम्बा और परशुरामजीका संवाद, अकृतव्रणकी सलाह, परशुराम और भीष्मकी रोषपूर्ण बातचीत तथा उन दोनोंका युद्धके लिये कुरुक्षेत्रमें उतरना |
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अध्याय 179: संकल्पनिर्मि त रथपर आरूढ़ परशुरामजीके साथ भीष्मका युद्ध प्रारम्भ करना |
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अध्याय 180: भीष्म और परशुरामका घोर युद्ध |
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अध्याय 181: भीष्म और परशुरामका युद्ध |
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अध्याय 182: भीष्म और परशुरामका युद्ध |
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अध्याय 183: भीष्मको अष्टवसुओंसे प्रस्वापनास्त्रकी प्राप्ति |
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अध्याय 184: भीष्म तथा परशुरामजीका एक-दूसरेपर शक्ति और ब्रह्मास्त्रका प्रयोग |
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अध्याय 185: देवताओंके मना करनेसे भीष्मका प्रस्वापनास्त्रको प्रयोगमें न लाना तथा पितर, देवता और गंगाके आग्रहसे भीष्म और परशुरामके युद्धकी समाप्ति |
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अध्याय 186: अम्बाकी कठोर तपस्या |
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अध्याय 187: अम्बाका द्वितीय जन्ममें पुनः तप करना और महादेवजीसे अभीष्ट वरकी प्राप्ति तथा उसका चिताकी आगमें प्रवेश |
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अध्याय 188: अम्बाका राजा द्रुपदके यहाँ कन्याके रूपमें जन्म, राजा तथा रानीका उसे पुत्ररूपमें प्रसिद्ध करके उसका नाम शिखण्डी रखना |
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अध्याय 189: शिखण्डीका विवाह तथा उसके स्त्री होनेका समाचार पाकर उसके श्वशुर दशार्णराजका महान् कोप |
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अध्याय 190: हिरण्यवर्माके आक्रमणके भयसे घबराये हुए द्रुपदका अपनी महारानीसे संकटनिवारणका उपाय पूछना |
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अध्याय 191: द्रुपदपत्नीका उत्तर, द्रुपदके द्वारा नगररक्षाकी व्यवस्था और देवाराधन तथा शिखण्डिनीका वनमें जाकर स्थूणाकर्ण नामक यक्षसे अपने दुःखनिवारणके लिये प्रार्थना करना |
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अध्याय 192: शिखण्डीको पुरुषत्वकी प्राप्ति, द्रुपद और हिरण्यवर्माकी प्रसन्नता, स्थूणाकर्णको कुबेरका शाप तथा भीष्मका शिखण्डीको न मारनेका निश्चय |
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अध्याय 193: दुर्योधनके पूछनेपर भीष्म आदिके द्वारा अपनी-अपनी शक्तिका वर्णन |
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अध्याय 194: अर्जुनके द्वारा अपनी, अपने सहायकोंकी तथा युधिष्ठिरकी भी शक्तिका परिचय देना |
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अध्याय 195: कौरव-सेनाका रणके लिये प्रस्थान |
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अध्याय 196: पाण्डव-सेनाका युद्धके लिये प्रस्थान |
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