श्रीमद् भागवतम
 
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 हमें मानव समाज की वर्तमान आवश्यकता का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। और यह आवश्यकता क्या है? मानव समाज अब किसी देश-विशेष या जाति-विशेष की भौगोलिक सीमाओं से बँधा नहीं है। यह मध्ययुग की अपेक्षा अधिक व्यापक है और अब एक राज्य अथवा एक मानव-समाज की सार्वभौम प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। श्रीमद्भागवत के अनुसार आध्यात्मिक साम्यवाद के आदर्श समग्र मानव समाज की एकरूपता पर, अथवा कहना चाहें तो, न्यूनाधिक जीवात्माओं की समग्र शक्ति पर आधारित हैं। महान् विचारक इसे सफल आदर्शवाद बनाने की आवश्यकता का अनुभव करते हैं। श्रीमद्भागवत द्वारा मानव समाज की इस आवश्यकता की पूर्ति हो सकेगी। अत: इसका शुभारम्भ वेदान्त दर्शन के सूत्र जन्माद्यस्य यतः से होता है, जिससे सामान्य हित के आदर्श की स्थापना हो सके।
इस समय मानव समाज विस्मृति के अन्धकार में नहीं है। इसने समग्र विश्व में भौतिक सुविधाओं, शिक्षा तथा आर्थिक विकास के क्षेत्र में तेजी से प्रगति की है। किन्तु इस समाज के विराट वपु में कहीं न कहीं कुछ चुभन है, जिससे छोटी-छोटी बातों पर भी व्यापक रूप से झगड़े हो रहे हैं। अतः ऐसे दिशाबोध की आवश्यकता है, जिससे सामान्य हित के लिए, मानवता शान्ति, मैत्री तथा समृद्धि के क्षेत्रों में एक हो सके। श्रीमद्भागवत से इस आवश्यकता की पूर्ति होगी, क्योंकि यह समग्र मानव समाज के पुनः अध्यात्मीकरण के लिए एक सांस्कृतिक भेंट है।

श्रीमद्भागवत का पठन-पाठन विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में भी होना चाहिए, क्योंकि महान् छात्र-भक्त प्रह्लाद महाराज ने समाज के आसुरी स्वरूप को बदलने के लिए भागवत (७.६.१)में इसकी संस्तुति की है :

कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह।

दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥

मानव समाज में जो विषमता व्याप्त है, उसका मूल कारण ईश्वरविहीन सभ्यता में सिद्धान्तों का अभाव है। परमेश्वर अर्थात् सर्वशक्तिमान विद्यमान हैं, जिनसे प्रत्येक वस्तु का उद्भव होता है, जिनके द्वारा सबका पालन होता है और जिनमें विश्रांति के लिए सबका विलय होता है। भौतिक विज्ञान ने सृष्टि के परम स्रोत की खोज के लिए जो प्रयास किये हैं वे अपर्याप्त हैं, किन्तु तथ्य यही है कि जो भी अस्तित्व में है, वह प्रत्येक वस्तु का एक परम स्रोत है। इस परम स्रोत की व्याख्या यह सुन्दर श्रीमद्भागवत में तर्कयुक्त एवं प्रामाणिक रूप से की गई है।

श्रीमद्भागवत न केवल प्रत्येक वस्तु के परम स्रोत को जानने के लिए दिव्य विज्ञान है, अपितु ईश्वर से अपने सम्बन्ध को जानने और इस पूर्ण ज्ञान के आधार पर मानव समाज की पूर्णता के प्रति अपने कर्तव्य को पहचानने का दिव्य विज्ञान है। यह संस्कृत भाषा में ओजपूर्ण पठनीय सामग्री है, जिसका अब संस्कृत से अंग्रेजी में विस्तृत अनुवाद किया गया है, जिससे कि इसके सतर्क पठन मात्र से ईश्वर को भलीभाँति जाने जा सकेंगे। यही नहीं, इसका पाठक नास्तिकों द्वारा किये जाने वाले प्रहारों से अपनी रक्षा करने के लिए पर्याप्त शिक्षित बन सकेगा। इसके अतिरिक्त, पाठक दूसरों को भी सुनिश्चित सिद्धान्त के रूप में ईश्वर को स्वीकार कराने में सक्षम हो सकेगा।

श्रीमद्भागवत का शुभारम्भ परम स्रोत की परिभाषा से होता है। यह श्रील व्यासदेव द्वारा रचे वेदान्त-सूत्र पर उन्हीं का प्रामाणिक भाष्य है, जो क्रमशः नौ स्कन्धों में विकसित होकर भगवत्-साक्षात्कार की सर्वोच्च अवस्था तक पहुँचता है। दिव्य ज्ञान की इस महान् कृति के अध्ययन हेतु मनुष्य में जिस एकमात्र योग्यता की आवश्यकता है, वह है सावधानी के साथ एक-एक पग आगे बढ़ा जाए और किसी साधारण पुस्तक की भाँति, पढ़ने में कूद-फाँद न मचाई जाए, अपितु इसके अध्यायों को क्रमपूर्वक एक-एक करके पढ़ा जाए। सम्पूर्ण पाठ इस प्रकार व्यवस्थित किया गया है कि पहले मूल संस्कृत पाठ, उनका अंग्रेजी लिप्यांतरण, फिर संस्कृत शब्दों के पर्याय और तब अनुवाद तथा तात्पर्य दिये गये हैं, जिससे कि जब कोई प्रथम नौ स्कन्धों को समाप्त कर ले, तो उसे निश्चय ही भगवत्-साक्षात्कार हो पाए।

इसका दशम स्कन्ध प्रथम नौ स्कन्धों से भिन्न है, क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं से है। जब तक प्रथम नौ स्कन्धों को पढ़ नहीं लिया जाता, तब तक दशम स्कन्ध के प्रभावों को ग्रहण नहीं किया जा सकता। यह ग्रन्थ बारह स्कन्धों में पूरा हुआ है। इनमें से प्रत्येक स्कन्ध अपने आप में स्वतन्त्र है, किन्तु सबों के लिए उत्तम होगा कि वे क्रमशः एक के पश्चात् दूसरे स्कन्ध को छोटे छोटे टुकड़ों में पढ़ें।

श्रीमद्भागवत को प्रस्तुत करते हुए मैं अपनी न्यूनताओं को स्वीकार करता हूँ, किन्तु फिर भी मुझे विश्वास है कि श्रीमद्भागवत (१.५.११) के निम्नलिखित कथन के आधार पर विचारक तथा समाज के नायक इसका सम्यक् स्वागत करेंगे :

तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो

यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि।

नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्कितानि यत्

शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ।।

"इसके विपरीत, वह साहित्य जो अनन्त भगवान् के नाम, यश, रूप तथा लीलाओं की दिव्य महिमाओं के वर्णनों से परिपूर्ण है, एक दिव्य रचना है जो इस विश्व की गुमराह की गई सभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रान्ति लाने के उद्देश्य से रची गई है। ऐसा दिव्य साहित्य भले ही अनियमित रूप से प्रणीत हो, किन्तु उसे पवित्र एवं धर्मनिष्ठ साधुजनों के द्वारा सुना, गाया और स्वीकार किया जाता है।"

ॐ तत् सत्

अभयचरणारविन्द भक्तिवेदान्त स्वामी

 
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